सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ इक्यासीवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“शुभाशुभ कर्मोंका परिणाम कर्ताको अवश्य भोगना पड़ता है, इसका प्रतिपादन”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यदि दान, यज्ञ, तप अथवा गुरुशुश्रूषा पुण्यकर्म है और उसका कुछ फल होता है तो वह मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! काम, क्रोध आदि दोषोंसे युक्त बुद्धिकी प्रेरणासे मन पापकर्ममें प्रवृत्त होता है। इस प्रकार मनुष्य अपने ही कार्योद्वारा पाप करके दुःखमय लोक (नरक) में गिराया जाता है |। २ ।।
पापाचारी दरिद्र मनुष्य दुर्भिक्षसे दुर्भिक्ष, क्लेशसे क्लेश और भयसे भय पाते हुए मरे हुओंसे भी अधिक मृतकतुल्य हो जाते हैं ।। ३ ।।
जो श्रद्धालु, जितेन्द्रिय, धनसम्पन्न तथा शुभकर्म-परायण होते हैं, वे उत्तवसे अधिक उत्सवको, स्वर्गसे अधिक स्वर्गको तथा सुखसे अधिक सुखको प्राप्त करते हैं ।। ४ ।।
नास्तिक मनुष्योंके हाथमें हथकड़ी डालकर राजा उन्हें राज्यसे दूर निकाल देता है और वे उन जंगलोंमें चले जाते हैं, जो मतवाले हाथियोंके कारण दुर्गम तथा सर्प और चोर आदिके भयसे भरे हुए होते हैं। इससे बढ़कर उन्हें और क्या दण्ड मिल सकता है? ।। ५ ।।
जिन्हें देवपूजा और अतिथिसत्कार प्रिय है, जो उदार हैं तथा श्रेष्ठ पुरुष जिन्हें अच्छे लगते हैं, वे पुण्यात्मा मनुष्य अपने दाहिने हाथके समान मंगलकारी एवं मनको वशमें रखनेवाले योगियोंको ही प्राप्त होनेयोग्य मार्गपर आरूढ़ होते हैं ।। ६ ।।
जिनका उद्देश्य धर्म नहीं है, ऐसे मनुष्य मानव-समाजके भीतर वैसे ही समझे जाते हैं, जैसे धानमें थोथा पौधा और पंखवाले जीवोंमें मच्छर || ७ ।।
जिस-जिस मनुष्यने जैसा कर्म किया है, वह उसके पीछे लगा रहता है। यदि कर्ता पुरुष शीघ्रतापूर्वक दौड़ता है तो वह भी उतनी ही तेजीके साथ उसके पीछे जाता है। जब वह सोता है तो उसका कर्मफल भी उसके साथ ही सो जाता है। जब वह खड़ा होता है तो वह भी पास ही खड़ा रहता है और जब मनुष्य चलता है तो उसके पीछे-पीछे वह भी चलने लगता है। इतना ही नहीं, कोई कार्य करते समय भी कर्म-संस्कार उसका साथ नहीं छोड़ता। सदा छायाके समान पीछे लगा रहता है ।। ८-९ ।।
जिस-जिस मनुष्यने अपने-अपने पूर्वजन्मोंमें जैसे-जैसे कर्म किये हैं, वह अपने ही किये हुए उन कर्मोंका फल सदा अकेला ही भोगता है ।। १० ।।
अपने-अपने कर्मका फल एक धरोहरके समान है, जो कर्मजनित अदृष्टके द्वारा सुरक्षित रहता है। उपयुक्त अवसर आनेपर यह काल इस कर्मफलको प्राणिसमुदायके पास खींच लाता है ।। ११ ।।
जैसे फूल और फल किसीकी प्रेरणाके बिना ही अपने समयपर वृक्षोंमें लग जाते हैं, उसी प्रकार पहलेके किये हुए कर्म भी अपने फलभोगके समयका उल्लंघन नहीं करते ।। १२ ।।
सम्मान-अपमान, लाभ-हानि तथा उन्नति-अवनति--ये पूर्वजन्मके कर्मोके अनुसार बार-बार प्राप्त होते हैं और प्रारब्धभोगके पश्चात् निवृत्त हो जाते हैं ।।
दुःख अपने ही किये हुए कर्मोका फल है और सुख भी अपने ही पूर्वकृत कर्मोंका परिणाम है। जीव माताकी गर्भशय्यामें आते ही पूर्वशरीरद्वारा उपार्जित सुख-दुःखका उपभोग करने लगता है ।। १४ ।।
कोई बालक हो, तरुण हो या बूढ़ा हो, वह जो भी शुभाशुभ कर्म करता है, दूसरे जन्ममें उसी-उसी अवस्थामें उस-उस कर्मका फल उसे प्राप्त होता है ।।
जैसे बछड़ा हजारों गौओंमेंसे अपनी माँको पहचानकर उसे पा लेता है, वैसे ही पहलेका किया हुआ कर्म भी अपने कर्ताके पास पहुँच जाता है ।। १६ ।।
जैसे पहलेसे क्षार आदिमें भिगोया हुआ कपड़ा पीछे धोनेसे साफ हो जाता है, उसी प्रकार जो उपवासपूर्वक तपस्या करते हैं, उन्हें कभी समाप्त न होनेवाला महान् सुख मिलता है ।। १७ |।
तपोवनमें रहकर की हुई दीर्घकालतककी तपस्यासे तथा धर्मसे जिनके सारे पाप धुल गये हैं, उनके सम्पूर्ण मनोरथ सफल हो जाते हैं ।। १८ ।।
जैसे आकाशमें पक्षियोंके और जलमें मछलियोंके चरण-चिह्न दिखायी नहीं देते, उसी प्रकार ज्ञानियोंकी गतिका पता नहीं चलता ।। १९ |।
दूसरोंको उलाहना देने तथा लोगोंके अन्यान्य अपराधोंकी चर्चा करनेसे कोई प्रयोजन नहीं है। जो काम सुन्दर, अनुकूल और अपने लिये हितकर जान पड़े, वही कर्म करना चाहिये ।। २० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ बयासीवें अध्याय के श्लोक 1-40 का हिन्दी अनुवाद)
“भरद्वाज और भृगुके संवादमें जगत्की उत्पत्तिका और विभिन्न तत्त्वोंका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! इस सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जगतकी उत्पत्ति कहाँसे हुई है? प्रलयकालमें यह किसमें लीन होता है? यह मुझे बताइये ।। १ ।।
समुद्र, आकाश, पर्वत, मेघ, भूमि, अग्नि और वायुसहित इस संसारका किसने निर्माण किया है? ।। २ ।।
प्राणियोंकी सृष्टि किस प्रकार हुई? वर्णोका विभाग किस तरह किया गया? उनमें शौच और अशौचकी व्यवस्था कैसे हुई? तथा धर्म और अधर्मका विधान किस प्रकार किया गया? ।। ३ ।।
जीवित प्राणियोंका जीवात्मा कैसा है? जो मर गये, वे कहाँ चले जाते हैं? इस लोकसे उस लोकमें जानेका क्रम क्या है? ये सब बातें आप हमें बतावें ।।
भीष्मजी बोले--राजन्! विज्ञ पुरुष इस विषयमें एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिसमें भरद्वाजके प्रश्न करनेपर भूगुके उपदेशका उल्लेख हुआ है ।। ५ ।।
कैलास पर्वतके शिखरपर अपने तेजसे देदीप्यमान होते हुए महातेजस्वी महर्षि भूगुको बैठा देख भरद्वाज मुनिने पूछा-- || ६ ।।
“समुद्र, आकाश, पर्वत, मेघ, भूमि, अग्नि और वायुसहित इस संसारका किसने निर्माण किया है? ।। ७ ।।
'प्राणियोंकी सृष्टि किस प्रकार हुई? वर्णोका विभाग किस तरह किया गया? उनमें शौच और अशौचकी व्यवस्था कैसे हुई? तथा धर्म और अधर्मका विधान किस प्रकार किया गया? ।। ८ ।।
“जीवित प्राणियोंका जीवात्मा कैसा है? जो मर गये, वे कहाँ चले जाते हैं? तथा यह लोक और परलोक कैसा है? यह सब मुझे बतानेकी कृपा करें” ।। ९ ।।
भरद्वाज मुनिके इस प्रकार अपना संशय पूछनेपर ब्रह्माजीके समान तेजस्वी ब्रह्मर्षि भगवान् भृगुने उन्हें सब कुछ बताया ।। १० ।।
भगु बोले--ब्रह्मन! भगवान् नारायण सम्पूर्ण जगत्स्वरूप हैं। वे ही सबके अन्तरात्मा और सनातन पुरुष हैं। वे ही कूटस्थ, अविनाशी, अव्यक्त, निर्लेप, सर्वव्यापी, प्रभु, प्रकृतिसे परे और इन्द्रियातीत हैं। उन भगवान् नारायणके हृदयमें जब सृष्टिविषयक संकल्पका उदय हुआ तो उन्होंने अपने हजारवें अंशसे एक पुरुषको उत्पन्न किया, महर्षियोंने सर्वप्रथम जिसको इसी नामसे सुना था, जो मानसपुरुषके नामसे प्रसिद्ध है। पूर्वकालमें उत्पन्न वह मानसदेव अनादि, अनन्त, अभेद्य, अजर और अमर है ।। ११ ||
उसीकी अव्यक्त नामसे प्रसिद्धि है। वही शाश्वत, अक्षय और अविनाशी है। उससे उत्पन्न सब प्राणी जन्मते और मरते रहते हैं ।। १२ ।।
उस स्वयम्भू देवने पहले महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) की रचना की। फिर उस महत्तत्त्वस्वरूप भगवानने अहंकार (समष्टि अहंकार) की सृष्टि की ।। १३ ।।
सम्पूर्ण भूतोंको धारण करनेवाले अहंकारस्वरूप भगवानने शब्दतन्मात्रा रूप आकाशको उत्पन्न किया। आकाशसे जल और जलसे अग्नि एवं वायुकी उत्पत्ति हुई। अग्नि और वायुके संयोगसे इस पृथ्वीका प्रादुर्भाव हुआ- ।। १४ ।।
उसके बाद उस स्वयम्भू मानसदेवने पहले एक तेजोमय दिव्य कमल उत्पन्न किया। उसी कमलसे वेदमय निधिरूप ब्रह्माजी प्रकट हुए ।। १५ ।।
वे अहंकार नामसे भी विख्यात हैं और समस्त भूतोंके आत्मा तथा उन भूतोंकी सृष्टि करनेवाले हैं। ये जो पाँच महाभूत हैं, इनके रूपमें महातेजस्वी ब्रह्मा ही प्रकट हुए हैं ।। १६ |।
पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं, पृथ्वी उनका मेद और मांस है। समुद्र उनका रुधिर है और आकाश उदर है ।।
वायु नि:श्वास है, अग्नि तेज है, नदियाँ नाड़ियाँ हैं, सूर्य और चन्द्रमा जिन्हें अग्नि और सोम भी कहते हैं, ब्रह्माजीके नेत्रोंके रूपमें प्रसिद्ध हैं | १८ ।।
आकाशका ऊपरी भाग उनका सिर है, पृथ्वी पैर है और दिशाएँ भुजाएँ हैं। वे अचिन्त्यस्वरूप ब्रह्मा सिद्ध पुरुषोंके लिये भी दुर्विज्ञेय हैं, इसमें संशय नहीं है ।।
वह स्वयम्भू ही भगवान् विष्णु हैं, जो अनन्त नामसे प्रसिद्ध हैं, वे ही सम्पूर्ण भूतोंके अन्त:करणमें अन्तर्यामी आत्माके रूपमें विद्यमान हैं। जिनका हृदय शुद्ध नहीं है, उनके लिये इनके स्वरूपको ठीक-ठीक जानना बहुत कठिन है || २० ।।
वे ही सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्तिके लिये प्राकृत अहंकारकी सृष्टि करनेवाले हैं। तुमने मुझसे जो पूछा था कि इस विश्वकी उत्पत्ति किससे हुई है, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया ।। २१ ।।
भरद्वाजने पूछा--प्रभो! आकाश, दिशा, पृथ्वी और वायुका कितना-कितना परिमाण है? यह ठीक-ठीक बताकर मेरा संशय दूर कीजिये || २२ ।।
भगुजीने कहा--मुने! यह आकाश तो अनन्त है, इसमें अनेकानेक सिद्ध और देवता निवास करते हैं। इसमें उनके भिन्न-भिन्न लोक भी स्थित हैं। यह बड़ा ही रमणीय है और इतना महान् है कि कहीं इसका अन्त नहीं मिलता ।। २३ ।।
ऊपर तथा नीचे जानेसे जहाँ सूर्य और चन्द्रमा नहीं दिखायी देते, वहाँ सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी देवता स्वयं अपने प्रकाशसे ही प्रकाशित होते हैं || २४ ।।
मानद! परंतु वे तेजस्वी नक्षत्रस्वरूप देवता भी इस आकाशका अन्त नहीं देख पाते; क्योंकि यह दुर्गण और अनन्त है, यह बात तुम्हें मेरे मुखसे सुनकर अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये || २५ ।।
ऊपर-ऊपर प्रकाशित होनेवाले स्वयंप्रकाश देवताओंसे यह अप्रमेय आकाश भी भरा हुआ-सा प्रतीत होता है || २६ ।।
पृथ्वीके अन्तमें समुद्र हैं। समुद्रके अन्तमें घोर अन्धकार है। अन्धकारके अन्तमें जल है और जलके अन्तमें अग्निकी स्थिति बतायी गयी है || २७ ।।
रसातलके अन्तमें जल है। जलके अन्तमें नागराज शेष हैं। उनके अन्तमें पुन: आकाश और आकाशके ही अन्तभागमें पुन: जल है || २८ ।।
इस प्रकार भगवानका, आकाशका, जलका तथा अग्नि और वायुका भी अन्त और परिमाण जानना देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन है ।। २९ |।
अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी--इनके रंग-रूप आकाशसे ही गृहीत होते हैं; अतः उससे भिन्न नहीं हैं। तत्त्वज्ञान न होनेसे ही उनमें भेदकी प्रतीति होती है ।।
ऋषियोंने विविध शास्त्रोंमें तीनों लोकों और समुद्रोंके विषयमें तो कुछ निश्चित प्रमाण बताया भी है; परंतु जो दृष्टिसे परे हैं और जहाँतक इन्द्रियोंकी पहुँच नहीं है, उस परमात्माका परिमाण कोई कैसे बतायेगा? आखिर इन सिद्धों और देवताओंका ज्ञान भी तो परिमित ही है || ३१-३२ ।।
अतः परमात्मा मानसदेव अपने नामके अनुरूप ही अनन्त हैं। उनका सुप्रसिद्ध अनन्त नाम उनके गुणके अनुसार ही है || ३३ ।।
जब उन परमात्माका वह दिव्यरूप उनकी मायासे कभी बहुत छोटा हो जाता है और कभी बहुत बढ़ जाता है, तब कोई उनसे भिन्न दूसरा उन्हींके समान प्रतिभाशाली कौन है, जो कि उस स्वरूपका यथार्थ परिमाण जान सके अर्थात् ऐसा कोई नहीं है || ३४ ।।
तदनन्तर पूर्वोक्त कमलसे सर्वज्ञ, मूर्तिमान्, प्रभाव-शाली, परम उत्तम तथा प्रथम प्रजापति धर्ममय ब्रह्माका प्रादुर्भाव हुआ || ३५ ।।
भरद्वाजने पूछा--प्रभो! यदि ब्रह्माजी कमलसे प्रकट हुए तब तो कमल ही ज्येष्ठ प्रतीत होता है; परंतु आपने ब्रह्माजीको पूर्वज बताया है; अतः यह संदेह मेरे मनमें बना ही रह गया ।। ३६ ।।
भगुने कहा--मुने! मानसदेवका जो स्वरूप बताया गया है, वही ब्रह्मरूपमें प्रकट है। उन्हीं ब्रह्माजीके आसनके लिये इस पृथ्वीको ही पद्म (कमल) कहते हैं || ३७ ।।
इस कमलकी कर्णिका मेरुपर्वत है, जो आकाशमें बहुत ऊँचेतक गया है। उसी पर्वतके मध्यभागमें स्थित होकर जगदीश्वर ब्रह्मा सम्पूर्ण लोकोंकी सृष्टि करते हैं ।।३८।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें भूगु और भरद्वाजका संवादविषयक एक सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ४० श्लोक हैं)
टिका टिप्पणी;–
- यहाँ जो सृष्टिका क्रम बताया गया है, वह श्रुतिसम्मत क्रमसे भिन्न है। श्रुतिने आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्निसे जल और जललसे पृथ्वीकी उत्पत्तिका क्रम बताया है।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ तिरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ तिरासीवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“आकाशसे अन्य चार स्थूल भूतोंकी उत्पत्तिका वर्णन”
भरद्वाजने पूछा--द्विजश्रेष्ठ! मेरुपर्वतके मध्यभागमें स्थित होकर ब्रह्माजी नाना प्रकारकी प्रजासृष्टि कैसे करते हैं, यह मुझे बताइये? ।। १ ।।
भगुने कहा--उन मानसदेवने अपने मानसिक संकल्पसे ही नाना प्रकारकी प्रजासृष्टि की है। उन्होंने प्राणियोंकी रक्षाके लिये सबसे पहले जलकी सृष्टि की || २ ।।
वह जल समस्त प्राणियोंका जीवन है। उसीसे प्रजाकी वृद्धि होती है। जलके न मिलनेसे प्राणी नष्ट हो जाते हैं। उसीने इस सम्पूर्ण जगत्के व्याप्त कर रखा है ।। ३ ।।
पृथ्वी, पर्वत, मेघ तथा अन्य जो मूर्तिमान्ू, वस्तुएँ हैं, उन सबको जलमय समझना चाहिये; क्योंकि जलने ही उन सबको स्थिर कर रखा है ।। ४ ।।
भरद्वाजने पूछा--भगवन्! जलकी उत्पत्ति कैसे हुई? अग्नि और वायुकी सृष्टि किस प्रकार हुई तथा पृथ्वीकी भी रचना कैसे की गयी, इस विषयमें मुझे महान् संदेह है ।। ५ ।।
भगुने कहा--ब्रह्मन! पूर्वकालमें जब ब्रह्मकल्प चल रहा था, उस समय ब्रह्मर्षियोंका परस्पर समागम हुआ। उन महात्माओंकी उस सभामें लोकसृष्टिविषयक संदेह उपस्थित हुआ ।। ६ ||
वे ब्रह्मर्षि भोजन छोड़कर वायु पीकर रहते हुए सौ दिव्य वर्षोतक ध्यान लगाकर मौनका आश्रय ले निश्चलभावसे बैठे रह गये || ७ ।।
उस ध्यानावस्थामें उन सबके कानोंमें ब्रह्ममयी वाणी सुनायी पड़ी। उस समय वहाँ आकाशसे दिव्य सरस्वती प्रकट हुई थी ।। ८ ।।
वह आकाशवाणी इस प्रकार है--'पूर्वकालमें अनन्त आकाश पर्वतके समान निश्चल था। उसमें चन्द्रमा, सूर्य अथवा वायु किसीके दर्शन नहीं होते थे। वह सोया हुआ-सा जान पड़ता था || ९ ||
“तदनन्तर आकाशसे जलकी उत्पत्ति हुई; मानो अन्धकारमें ही दूसरा अन्धकार प्रकट हुआ हो। उस जलप्रवाहसे वायुका उत्थान हुआ ।। १० ।।
'जैसे कोई छिद्ररहित पात्र निःशब्द-सा लक्षित होता है; परंतु जब उसमें छिद्र करके जल भरा जाता है, तब वायु उसमें आवाज प्रकट कर देती है ।। ११ ।।
“इसी प्रकार जलसे आकाशका सारा प्रान्त ऐसा अवरुद्ध हो गया था कि उसमें कहीं थोड़ा-सा भी अवकाश नहीं था। तब उस एकार्णवके तलप्रदेशका भेदन करके बड़ी भारी आवाजके साथ वायुका प्राकट्य हुआ ॥। १२ ।।
पृथ्वी, पर्वत, मेघ तथा अन्य जो मूर्तिमान्ू, वस्तुएँ हैं, उन सबको जलमय समझना चाहिये; क्योंकि जलने ही उन सबको स्थिर कर रखा है ।। ४ ।।
भरद्वाजने पूछा--भगवन्! जलकी उत्पत्ति कैसे हुई? अग्नि और वायुकी सृष्टि किस प्रकार हुई तथा पृथ्वीकी भी रचना कैसे की गयी, इस विषयमें मुझे महान् संदेह है ।। ५ ।।
भगुने कहा--ब्रह्मन! पूर्वकालमें जब ब्रह्मकल्प चल रहा था, उस समय ब्रह्मर्षियोंका परस्पर समागम हुआ। उन महात्माओंकी उस सभामें लोकसृष्टिविषयक संदेह उपस्थित हुआ ।। ६ ||
वे ब्रह्मर्षि भोजन छोड़कर वायु पीकर रहते हुए सौ दिव्य वर्षोतक ध्यान लगाकर मौनका आश्रय ले निश्चलभावसे बैठे रह गये || ७ ।।
उस ध्यानावस्थामें उन सबके कानोंमें ब्रह्ममयी वाणी सुनायी पड़ी। उस समय वहाँ आकाशसे दिव्य सरस्वती प्रकट हुई थी ।। ८ ।।
वह आकाशवाणी इस प्रकार है--'पूर्वकालमें अनन्त आकाश पर्वतके समान निश्चल था। उसमें चन्द्रमा, सूर्य अथवा वायु किसीके दर्शन नहीं होते थे। वह सोया हुआ-सा जान पड़ता था || ९ ||
“तदनन्तर आकाशसे जलकी उत्पत्ति हुई; मानो अन्धकारमें ही दूसरा अन्धकार प्रकट हुआ हो। उस जलप्रवाहसे वायुका उत्थान हुआ ।। १० ।।
'जैसे कोई छिद्ररहित पात्र निःशब्द-सा लक्षित होता है; परंतु जब उसमें छिद्र करके जल भरा जाता है, तब वायु उसमें आवाज प्रकट कर देती है ।। ११ ।।
“इसी प्रकार जलसे आकाशका सारा प्रान्त ऐसा अवरुद्ध हो गया था कि उसमें कहीं थोड़ा-सा भी अवकाश नहीं था। तब उस एकार्णवके तलप्रदेशका भेदन करके बड़ी भारी आवाजके साथ वायुका प्राकट्य हुआ ॥। १२ ।।
“इस प्रकार समुद्रके जलसमुदायसे प्रकट हुई यह वायु सर्वत्र विचरने लगी और आकाशके किसी भी स्थानमें पहुँचकर वह शान्त नहीं हुई ।। १३ ।।
“वायु और जलके उस संघर्षसे अत्यन्त तेजोमय महाबली अग्निदेवका प्राकट्य हुआ, जिनकी लपटें ऊपरकी ओर उठ रही थीं। वह आग आकाशके सारे अन्धकारको नष्ट करके प्रकट हुई थी ।। १४ ।।
“वायुका संयोग पाकर अग्नि जलको आकाशमें उछालने लगी; फिर वही जल अग्नि और वायुके संयोगसे घनीभूत हो गया ।। १५ ।।
“उसका जो वह गीलापन आकाशमें गिरा, वही घनीभूत होकर पृथ्वीके रूपमें परिणत हो गया ।। १६ ।।
“इस पृथ्वीको सम्पूर्ण रसों, गन्धों, स्नेहों तथा प्राणियोंका कारण समझना चाहिये। इसीसे सबकी उत्पत्ति होती है” || १७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें भुगु और भरद्वाजसंवादके प्रसंगर्में मानसभूतोंकी उत्पत्तिका वर्णणविषयक एक सौ तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ चौरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ चौरासीवें अध्याय के श्लोक 1-44 का हिन्दी अनुवाद)
“पजञ्चमहाभूतोंके गुणोंका विस्तारपूर्वक वर्ण”
भरद्वाजने पूछा--भगवन्! लोकमें ये पाँच धातु ही “महाभूत' कहलाते हैं, जिन्हें ब्रह्माने सृष्टिके आदिमें रचा था। ये ही इन समस्त लोकोंमें व्याप्त हैं ।। १ ।।
परंतु जब महाबुद्धिमान् ब्रह्माजीनी और भी हजारों भूतोंकी रचना की है, तब इन पाँचको ही “भूत” कहना कहाँतक युक्तिसंगत है? ।। २ ।।
भगुजीने कहा--मुने! ये पाँच भूत ही असीम हैं, इसलिये इन्हींके साथ “महा” शब्द जोड़ा जाता है। इन्हींसे भूतोंकी उत्पत्ति होती है; अतः इन्हींके लिये “महाभूत” शब्दका प्रयोग सुसंगत है || ३ ।।
प्राणियोंका शरीर इन पाँच महाभूतोंका ही संघात है। इसमें जो चेष्टा या गति है, वह वायुका भाग है। जो खोखलापन है, वह आकाशका अंश है। ऊष्मा (गर्मी) अग्निका अंश है। लोहू आदि तरल पदार्थ जलके अंश हैं और हड्डी, मांस आदि ठोस पदार्थ पृथ्वीके अंश हैं ।। ४ ।।
इस प्रकार सारा स्थावर-जंगम जगत् इन पाँच भूतोंसे युक्त है। इन्हींके सूक्ष्म अंश श्रोत्र (कान), प्राण (नासिका), रसना, त्वचा और नेत्र--इन पाँच इन्द्रियोंके नामसे प्रसिद्ध हैं ।। ५ ।।
भरद्वाजने पूछा--भगवन्! आपके कथनानुसार यदि समस्त स्थावर-जंगम पदार्थ इन पाँच महाभूतोंसे ही संयुक्त हैं तो स्थावरोंके शरीरोंमें तो पाँच भूत नहीं दिखायी देते हैं ।। ६ ।।
वृक्षोंके शरीरमें गर्मी नहीं है, कोई चेष्टा भी नहीं है तथा वास्तवमें वे घन हैं; अत: उनके शरीरमें पाँचों भूतोंकी उपलब्धि नहीं होती है |। ७ ।।
वे न सुनते हैं, न देखते हैं, न गन्ध और रसका ही अनुभव करते हैं और न उन्हें स्पर्शका ही ज्ञान होता है; फिर वे पाउ्चभौतिक कैसे कहे जाते हैं? ।। ८ ।।
उनमें न तो द्रवत्व देखा जाता है, न अग्निका अंश, न पृथ्वी और वायुका ही भाग उपलब्ध होता है। आकाश तो अप्रमेय है; अतः वह भी वृक्षोंमें नहीं है, इसलिये वृक्षोंकी पाज्वभौतिकता नहीं सिद्ध होती है ।। ९ |।
भगुजीने कहा--मुने! यद्यपि वृक्ष ठोस जान पड़ते हैं तो भी उनमें आकाश हैं, इसमें संशय नहीं है। इसीसे उनमें नित्यप्रति फल-फूल आदिकी उत्पत्ति सम्भव हो सकती है ।। १० ।।
वृक्षोंके भीतर जो ऊष्मा या गर्मी है, उसीसे उनके पत्ते, छाल, फल फूल, कुम्हलाते हैं, मुरझाकर झड़ जाते हैं; इससे उनमें स्पर्शका होना भी सिद्ध होता है ।। ११ ।।
यह भी देखा जाता है कि वायु, अग्नि और बिजलीकी कड़क आदि भीषण शब्द होनेपर वृक्षोंक फल-फ़ूल झड़कर गिर जाते हैं। शब्दका ग्रहण तो श्रवणेन्द्रियसे ही होता है; इससे यह सिद्ध हुआ कि वृक्ष भी सुनते हैं || १२ ।।
लता वृक्षको चारों ओरसे लपेट लेती है और उसके ऊपरी भागतक चढ़ जाती है। बिना देखे किसीको अपने जानेका मार्ग नहीं मिल सकता; इससे सिद्ध है कि वृक्ष देखते भी हैं ।। १३ ।।
पवित्र और अपवित्र गन्धसे तथा नाना प्रकारके धूपोंकी गन्धसे वृक्ष नीरोग होकर फूलने-फलने लग जाते हैं; इससे प्रमाणित होता है कि वृक्ष भी सूँघते हैं || १४ ।।
वृक्ष अपनी जड़से जल पीते हैं और कोई रोग होनेपर जड़में ओषधि डालकर उनकी चिकित्सा भी की जाती है; इससे सिद्ध है कि वृक्षमें रसनेन्द्रिय भी है ।। १५ ।।
जैसे मनुष्य कमलकी नाल मुँहमें लगाकर उसके द्वारा ऊपरको जल खींचता है, उसी तरह वायुकी सहायतासे युक्त वृक्ष अपनी जड़ोंद्वारा ऊपरकी ओर पानी खींचता है ।। १६ ||
वृक्ष कट जानेपर उनमें नया अंकुर उत्पन्न हो जाता है और वे सुख-दुःखको ग्रहण करते हैं। इससे मैं देखता हूँ कि वृक्षोंमें जीव भी हैं। वे अचेतन नहीं हैं ।। १७ ।।
वृक्ष अपनी जड़से जो जल खींचता है, उसे उसके अंदर रहनेवाली वायु और अग्नि पचाती है। आहारका परिपाक होनेसे वृक्षमें स्निग्धता आती है और वे बढ़ते हैं ।। १८ ।।
समस्त जंगमोंके शरीरोंमें भी पाँच भूत रहते हैं; परंतु वहाँ उनके स्वरूपमें भेद होता है। उन पाँच भूतोंके सहयोगसे ही शरीर चेष्टाशील होता है ।। १९ ।।
शरीरमें त्वचा, मांस, हड्डी, मज्जा और स्नायु--इन पाँच वस्तुओंका समुदाय पृथ्वीमय है || २० ।।
तेज, क्रोध, नेत्र, ऊष्मा और जठरानल--ये पाँच वस्तुएँ देहधारियोंके शरीरमें अग्निमय हैं ।। २१ ।।
कान, नासिका, मुख, हृदय और उदर प्राणियोंके शरीरमें ये पाँच धातुमप खोखलापन आकाशसे उत्पन्न हुए हैं-- || २२ ।।
कफ, पित्त, स्वेद, चर्बी और रुधिर--ये प्राणियोंके शरीरमें रहनेवाली पाँच गीली वस्तुएँ जलरूप हैं || २३ ।।
प्राणसे प्राणी चलने-फिरनेका काम करता है, व्यानसे व्यायाम (बलसाध्य उद्यम) करता है, अपान वायु ऊपरसे नीचेकी ओर जाती है, समान वायु हृदयमें स्थित होती है, उदानसे पुरुष उच्छवास लेता है और कण्ठ, तालु आदि स्थानोंके भेदसे शब्दों एवं अक्षरोंका उच्चारण करता है। इस प्रकार ये पाँच वायुके परिणाम हैं, जो शरीरधारीको चेष्टाशील बनाते हैं || २४-२५ ।।
जीव भूमिसे ही (अर्थात् घ्राणेन्द्रियद्वारा) गन्ध गुणका अनुभव करता है, जलसम्बन्धी इन्द्रिय रसनासे शरीरधारी पुरुष रसका आस्वादन करता है, तेजोमय नेत्रके द्वारा रूपका तथा वायुसम्बन्धी त्वगिन्द्रियके द्वारा उसे स्पर्शका ज्ञान होता है ।। २६ ।।
गन्ध, स्पर्श, रस, रूप और शब्द--ये पृथ्वीके गुण माने गये हैं। इनमेंसे प्रधान गन्धके गुणोंका मैं विस्तार-पूर्वक वर्णन करता हूँ | २७ ।।
अनुकूल, प्रतिकूल, मधुर, कट, निहरी अर्थात् दूरसे आनेवाली, तेज गन्धमिश्रित, स्निग्ध, रूक्ष और विशद--ये गन्धके नौ भेद जानने चाहिये। इस प्रकार पार्थिव गन्धका विस्तार बताया गया || २८६ ।।
मनुष्य दोनों नेत्रोंसे रूपको देखता है और त्वगिन्द्रियसे स्पर्शका अनुभव करता है। शब्द, स्पर्श, रूप और रस--ये जलके गुण माने गये हैं। उनमें प्रधान गुण रस है, उसकी जानकारीके लिये अब मैं उसके भेदोंका वर्णन करता हूँ। तुम उसे मेरे मुहसे सुनो || २९-३० |।
उदारचेता महर्षियोंने रसके अनेक भेद बताये हैं--मधुर, लवण, तिक्त, कषाय, अम्ल और कट॒ु। इन छः रूपोंमें विस्तारको प्राप्त हुआ रस जलमय माना गया है || ३१ ।।
शब्द, स्पर्श और रूप--ये अग्निके तीन गुण बताये जाते हैं। ज्योतिर्मय नेत्र रूपको देखते हैं। अग्निके प्रधान गुण रूपको भी अनेक प्रकारका माना गया है || ३२६ ।।
हस्व दीर्घ, स्थूल, चौकोर और सब ओरसे गोल, सफेद, काला, लाल, पीला और आकाशकी भाँति नीला, कठिन, चिक्कण, अल्प, पिच्छिल, मृदु और दारुण--इस प्रकार ज्योतिर्मय रूप नामक गुण सोलह भेदोंमें विस्तारको प्राप्त हुआ है || ३३-
वायुके दो गुण जानने चाहिये--शब्द और स्पर्श। वायुका प्रमुख गुण स्पर्श ही है, जिसके अनेक भेद माने गये हैं-- || ३५३ ।।
उष्ण, शीत, सुख, दुःख, स्निग्ध, विशद, खर, मृदु, रूक्ष, हलका, भारी और अधिक भारी--इस प्रकार वायु-सम्बन्धी स्पर्श गुणके बारह भेद कहे जाते हैं || ३६-३७ ।।
आकाशका एकमात्र गुण शब्द ही माना गया है। उस शब्दगुणका अनेक भेदोंमें जो विस्तार हुआ है, उसका वर्णन करता हूँ--षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद--ये आकाशजनित शब्द गुणके सात भेद बताये गये हैं, जिन्हें जानना चाहिये || ३८-३९ ६ ।।
अपने व्यापक स्वरूपसे तो शब्द सर्वत्र है, किंतु पटह (नगाड़े) आदिमें इसकी विशेषरूपसे अभिव्यक्ति होती है। मृदंग, भेरी, शंख, मेघ तथा रथकी घर्घराहट आदिमें जो कुछ शब्द सुना जाता है और जड या चेतनका जो कुछ भी शब्द श्रवणगोचर होता है, वह सब इन सात भेदोंके ही अन्तर्गत बताया गया है || ४०-४१ ।।
इस प्रकार आकाशजनित शब्दके अनेक भेद हैं। वायुसम्बन्धी गुणोंके साथ ही आकाशजनित शब्द होता है; ऐसा विद्वान पुरुष कहते हैं || ४२ ।।
जब वायुसम्बन्धी गुण बाधित न होकर शब्दके साथ रहता है, तब मनुष्य शब्दको सुनता और समझता है; किंतु जब वायुसम्बन्धी गुण दीवार अथवा प्रतिकूल वायुसे बाधित होकर विषम अवस्थामें स्थित हो जाते हैं, तब शब्दका ग्रहण नहीं होता है। वे शब्द आदिके उत्पादक धातु (इन्द्रियगोलक) धातुओं (इन पाँचों भूतों) द्वारा ही पोषित होते हैं || ४३ ।।
जल, अग्नि और वायु--ये तीन तत्त्व सदा देहधारियोंमें जाग्रत् रहते हैं। ये ही शरीरके मूल हैं और प्राणोंमें ओत-प्रोत होकर शरीरमें स्थित रहते हैं || ४४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें भगु- भरद्वाजसंवादाविषयक एक सौ चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ पचासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ पचासीवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“शरीरके भीतर जठरानल तथा प्राण-अपान आदि वायुओंकी स्थिति आदिका वर्णन”
भरद्वाजने पूछा--प्रभो! शरीरके भीतर रहनेवाली अग्नि पार्थिव धातु (पांचभौतिक देह) का आश्रय लेकर कैसे रहती है और वायु भी उसी पार्थिव धातुका आश्रय लेकर अवकाश-विशेषके द्वारा देहको कैसे चेष्टाशील बनाती है? ।। १ ।।
भगुने कहा--ब्रह्मन! निष्पाप महर्षे! मैं तुमसे वायुकी गतिका वर्णन करता हूँ। प्रबल वायु प्राणियोंके शरीरोंको किस प्रकार चेष्टाशील बनाती है? यह बताता हूँ ।। २ ।।
आत्मा मस्तकके रन्ध्रस्थानमें स्थित होकर सम्पूर्ण शरीरकी रक्षा करता है और प्राण मस्तक तथा अग्नि दोनोंमें स्थित होकर शरीरको चेष्टाशील बनाता है ।। ३ ।।
वह प्राणसे संयुक्त आत्मा ही जीव है, वही सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा सनातन पुरुष है। वही मन, बुद्धि, अहंकार, पाँचों भूत और विषयरूप हो रहा है ।। ४ ।।
इस प्रकार (जीवात्मासे संयुक्त हुए) प्राणके द्वारा शरीरके भीतरके समस्त विभाग तथा इन्द्रिय आदि सारे बाह्य अंग परिचालित होते हैं। तत्पश्चात् समान वायुके रूपमें परिणत हो प्राण ही अपनी-अपनी गतिके आश्रित शरीरका संचालक होता है ।। ५ ।।
अपान वायु जठरानल, मूत्राशय और गुदाका आश्रय ले मल एवं मूत्रको निकालता हुआ ऊपरसे नीचेको घूमता रहता है ।। ६ ।।
जिस एक ही वायुकी प्रयत्न, कर्म और बल तीनोंमें प्रवृत्ति होती है, उसे अध्यात्मतत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंने उदान कहा है ।। ७ ।।
जो मनुष्योंके शरीरोंमें और उनकी समस्त संधियोंमें भी व्याप्त है, उस वायुको “व्यान' कहते हैं ।। ८ ।।
शरीरके समस्त धातुओंमें व्याप्त जो अग्नि है, वह समान वायुद्वारा संचालित होती है। वह समान वायु ही शरीरगत रसों, धातुओं (इन्द्रियों) और दोषों (कफ आदि) का संचालन करती हुई सम्पूर्ण शरीरमें स्थित है ।। ९ ।।
अपान और प्राणके मध्यभाग (नाभि) में प्राण और अपान दोनोंका आश्रय लेकर स्थित हुआ जठरानल खाये हुए अन्नको भलीभाँति पचाता है ।। १० ।।
मुखसे लेकर पायु (गुदा) तक जो महान् स्रोत (प्राणके प्रवाहित होनेका मार्ग) है, वही अन्तिम छोरमें गुदाके नामसे प्रसिद्ध है। उसी महान् स्रोतसे देहधारियोंके अन्य सभी छोटेछोटे स्रोत (प्राणोंके संचरणके मार्ग अथवा नाडीसमुदाय) प्रकट होते हैं | ११ ।।
उन ख्रोतोंद्वारा सारे अंगोंमें प्राणोंका सम्बन्ध या प्रसार होनेसे उसके साथ रहनेवाले जठरानलका भी सम्बन्ध या प्रसार हो जाता है। प्राणियोंके शरीरमें जो गर्मीका अनुभव होता है, उसे उस जठरानलका ही ताप समझना चाहिये। वही देहधारियोंके खाये हुए अन्नको पचाता है ।। १२ ।।
अग्निके वेगसे बहता हुआ प्राण गुदाके निकट जाकर प्रतिहत हो जाता है; फिर ऊपरकी ओर लौटकर समीपवर्ती अग्निको भी ऊपर उठा देता है || १३ ।।
नाभिसे नीचे पक्वाशय और ऊपर आमाशय स्थित है तथा नाभिके मध्यभागमें शरीरसम्बन्धी सभी प्राण स्थित हैं ।। १४ ।।
वे समस्त प्राण हृदयसे इधर-उधर और ऊपर-नीचे प्रस्थान करते हैं; इसलिये दसप्राणोंसे परिचालित होकर सारी नाड़ियाँ अन्नका रस वहन करती हैं ।। १५ ।।
यह मुखसे लेकर गुदातकका जो महान् स्रोत है, वह योगियोंका मार्ग है। उससे वे योगी परमपदको प्राप्त होते हैं, जिन्होंने सारे क्लेशोंको जीत लिया है, जो सर्वत्र समदर्शी और धीर हैं तथा जिन महात्माओंने सुषुम्णा नाड़ीके द्वारा मस्तकमें पहँँचकर वहीं अपने-आपको स्थित कर दिया है ।। १६ ||
प्राणियोंके प्राण, अपान आदि सभी वायुओंमें स्थापित हुई जठराग्नि शरीरमें ही रहकर सदा अग्नि-कुण्डमें रखी हुई अग्निकी भाँति प्रज्वलित होती रहती है || १७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोौक्षधर्मपर्वमें एक सौ पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- प्राणवायुके दस भेद इस प्रकार हैं--प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान तथा नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय।
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