सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ छिहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“त्यागकी महिमाके विषयमें शम्पाक ब्राह्णका उपदेश”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! धनी और निर्धन दोनों स्वतन्त्रतापूर्वक व्यवहार करते हैं; फिर उन्हें किस रूपमें और कैसे सुख और दुःखकी प्राप्ति होती है? ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें विद्वान् पुरुष इस पुरातन इतिहासका उदाहरण देते हैं, जिसे परम शान्त जीवन्मुक्त शम्पाकने यहाँ कहा था ।। २ ।।
पहलेकी बात है, फटे-पुराने वस्त्रों एवं अपनी दुष्टा सत्रीके और भूखके कारण अत्यन्त कष्ट पानेवाले एक त्यागी ब्राह्मणने जिसका नाम शम्पाक था, मुझसे इस प्रकार कहा -- || ३ ||
“इस संसारमें जो भी मनुष्य उत्पन्न होता है (वह धनी हो या निर्धन) उसे जन्मसे ही नाना प्रकारके सुख-दु:ख प्राप्त होने लगते हैं ।। ४ ।।
“विधाता यदि उसे सुख और दु:ख इन दोनोंमेंसे किसी एकके मार्गपर ले जाय तो वह न तो सुख पाकर प्रसन्न हो और न दुःखमें पड़कर परितप्त हो ।। ५ ।।
“तुम जो कामनारहित होकर भी अपने कल्याणका साधन नहीं कर रहे हो और मनको वशमें नहीं कर रहे हो, इसका कारण यही है कि तुमने राज्यका बोझा अपनेपर उठा रखा है।। ६।।
“यदि तुम सब कुछ त्यागकर किसी वस्तुका संग्रह नहीं रखोगे तो सर्वत्र विचरते हुए सुखका ही अनुभव करोगे; क्योंकि जो अकिंचन होता है--जिसके पास कुछ नहीं रहता है, वह सुखसे सोता और जागता है || ७ ।।
'संसारमें अकिंचनता ही सुख है। वही हितकारक, कल्याणकारी और निरापद है। इस मार्गमें किसी प्रकारके शत्रुका भी खटका नहीं है। यह दुर्लभ होनेपर भी सुलभ है ।। ८ ।।
“मैं तीनों लोकोंपर दृष्टि डालकर देखता हूँ तो मुझे अकिंचन, शुद्ध एवं सब ओरसे वैराग्यसम्पन्न पुरुषके समान दूसरा कोई नहीं दिखायी देता है ।। ९ ।।
“मैंने अकिंचनता तथा राज्यको बुद्धिकी तराजूपर रखकर तौला तो गुणोंमें अधिक होनेके कारण राज्यसे भी अकिंचनताका ही पलड़ा भारी निकला ।। १० ||
“अकिंचनता तथा राज्यमें बड़ा भारी अन्तर यह है कि धनी राजा सदा इस प्रकार उद्विग्न रहता है, मानो मौतके मुखमें पड़ा हुआ हो ।। ११ ।।
'परंतु जो मनुष्य धनको त्यागकर उसकी आसक्तिसे मुक्त हो गया है और मनमें किसी तरहकी कामना नहीं रखता, उसपर न अग्निका जोर चलता है, न अरिष्टकारी ग्रहोंका, न मृत्यु उसका कुछ बिगाड़ सकती है, न डाकू और लुटेरे ही || १२ ।।
“वह सदा दैव-इच्छाके अनुसार विचरता है। बिना बिछौनेके भूतलपर सोता है। बाँहोंकी ही तकिया लगाता है और सदा शान्तभावसे रहता है। देवतालोग भी उसकी भूरिभूरि प्रशंसा करते हैं || १३ ।।
“जो धनवान् है, वह क्रोध और लोभके आवेशमें आकर अपनी विचारशक्तिको खो बैठता है, टेढ़ी आँखोंसे देखता है, उसका मुँह सूखा रहता है, भौंहें चढ़ी होती हैं और वह पापमें ही मग्न रहा करता है ।। १४ ।।
'क्रोधके कारण वह ओठ चबाता रहता है और अत्यन्त कठोर वचन बोलता है। ऐसा मनुष्य सारी पृथ्वीका राज्य ही दे देना चाहता हो, तो भी उसकी ओर कौन देखना चाहेगा? ।। १५ ।।
“सदा धन-सम्पत्तिका सहवास मूर्ख मनुष्यके चित्तको लुभाकर उसे मोहमें ही डाले रहता है। जैसे वायु शरद्ू-ऋतुके बादलोंको उड़ा ले जाती है, उसी प्रकार वह सम्पत्ति मनुष्यके मनको हर लेती है || १६ ।।
“फिर उसके ऊपर रूपका अहंकार और धनका मद सवार हो जाता है और वह ऐसा मानने लगता है कि मैं बड़ा कुलीन हूँ, सिद्ध हूँ, कोई साधारण मनुष्य नहीं हूँ ।। १७ ।।
“रूप, धन और कुल--इन तीनोंके अभिमानके कारण उसके चित्तमें प्रमाद भर जाता है। वह भोगोंमें आसक्त होकर बाप-दादोंके जोड़े हुए पैसोंको खो बैठता है; और दरिद्र होकर दूसरोंके धनको हड़प लाना अच्छा मानने लगता है ।। १८ ।।
“इस तरह मर्यादाका उल्लंघन करके जब वह इधर-उधरसे लूट-खसोटकर धन ले आता है, तब राजा उसे उसी प्रकार कठोर दण्ड देकर रोकते हैं। जैसे व्याध बाणोंसे मारकर मृगोंकी गति रोक देते हैं ।। १९ ।।
“इस प्रकार मनको तप्त करनेवाले और शरीरके स्पर्शसे होनेवाले ये नाना प्रकारके दुःख मनुष्यको प्राप्त होते हैं || २० ।।
“अतः अनित्य शरीरोंके साथ सदैव लगे रहनेवाले पुत्रैषणा आदि लोकधर्मोंकी अवहेलना करके अवश्य प्राप्त होनेवाले पूर्वोक्त महान् दुःखोंकी विचारपूर्वक चिकित्सा करनी चाहिये ।। २१ ।।
“कोई मनुष्य त्याग किये बिना सुख नहीं पाता, त्याग किये बिना परमात्माको नहीं पा सकता और त्याग किये बिना निर्भय सो नहीं सकता। इसलिये तुम भी सब कुछ त्यागकर सुखी हो जाओ” ।। २२ ।।
इस प्रकार पूर्वकालमें शम्पाक नामक ब्राह्मणने हस्तिनापुरमें मुझसे त्यागकी महिमाका वर्णन किया था। अतः: त्याग ही सबसे श्रेष्ठ माना गया है ।। २३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें शम्पाकगीताविषयक एक यौ छिह्तत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सतहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-54 का हिन्दी अनुवाद)
“मड्किगीता--धनकी तृष्णासे दु:ख और उसकी कामनाके त्यागसे परम सुखकी प्राप्ति”
युधिष्ठिरने पूछा--दादाजी! यदि कोई मनुष्य धनकी तृष्णासे ग्रस्त होकर तरह-तरहके उद्योग करनेपर भी धन न पा सके तो वह क्या करे, जिससे उसे सुखकी प्राप्ति हो सके? ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--भारत! सबमें समताका भाव, व्यर्थ परिश्रमका अभाव, सत्यभाषण, संसारसे वैराग्य और कर्मासक्तिका अभाव--ये पाँचों जिस मनुष्यमें होते हैं, वह सुखी होता है ।। २ ।।
ज्ञानवृद्ध पुरुष इन्हीं पाँच वस्तुओंको शान्तिका कारण बताते हैं। यही स्वर्ग है, यही धर्म है और यही परम उत्तम सुख माना गया है ।। ३ ।।
युधिष्ठिर! इस विषयमें जानकार पुरुष एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। मड़॒कि नामक मुनिने भोगोंसे विरक्त होकर जो उद्गार प्रकट किया था, वही इस इतिहासमें वर्णित है। उसे बताता हूँ, सुनो ।। ४ ।।
मड़्कि धनके लिये अनेक प्रकारकी चेष्टाएँ करते थे; परंतु हर बार उनका प्रयत्न व्यर्थ हो जाता था। अन्तमें जब बहुत थोड़ा धन शेष रह गया तो उसे देकर उन्होंने दो नये बछड़े खरीदे ।। ५ ।।
एक दिन उन दोनों बछड़ोंको परस्पर जोड़कर वे हल चलानेकी शिक्षा देनेके लिये ले जा रहे थे। जब वे दोनों बछड़े गाँवसे बाहर निकले तो बैठे हुए एक ऊँटको बीचमें करके सहसा दौड़ पड़े | ६ ।।
जब वे उसकी गर्दनके पास पहुँचे तो ऊँटके लिये यह असहा हो उठा। वह रोषमें भरकर खड़ा हो गया और उन दोनों बछड़ोंको ऊपर लटकाये बड़े जोरसे भागने लगा ।। ७ ||
बलपूर्वक अपहरण करनेवाले उस ऊँटके द्वारा उन दोनों बछड़ोंको अपह्ृत होते और मरते देख मड़किने इस प्रकार कहा-- ।। ८ ।॥।
“मनुष्य कैसा ही चतुर क्यों न हो, जो उसके भाग्यमें नहीं है, उस धनको वह श्रद्धापूर्वक भलीभाँति प्रयत्न करके भी नहीं पा सकता ।। ९ |।
'पहले मैंने जो प्रयत्न किया था उसमें अनेक प्रकारके अनर्थ खड़े हो गये थे। उन अनर्थोंसे युक्त होनेपर भी मैं धनोपार्जनकी ही चेष्टामें लगा रहा; परंतु देखो, आज इन बछड़ोंकी सड़तिसे मुझपर कैसा दैवी उपद्रव आ गया? ।। १० ।।
'यह ऊँट मेरे बछड़ोंको उछाल-उछालकर विषम मार्गसे ही जा रहा है। काकतालीयन्यायसे- (अर्थात् दैवसंयोगसे) इन्हें गर्दनपर उठाकर बुरे मार्गसे ही दौड़ रहा है। इस ऊँटके गलेमें मेरे दोनों प्यारे बछड़े दो मणियोंके समान लटक रहे हैं। यह केवल दैवकी ही लीला है। हठपूर्वक किये हुए पुरुषार्थसे क्या होता है? ।। ११-१२ ।।
“यदि कभी कोई पुरुषार्थ सफल होता दिखायी देता है तो वहाँ भी खोज करनेपर दैवका ही सहयोग सिद्ध होता है ।। १३ ।।
“अत: सुखकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको धन आदिकी ओरसे वैराग्यका ही आश्रय लेना चाहिये। धनोपार्जनकी चेष्टासे निराश होकर जो विरक्त हो जाता है, वह सुखकी नींद सोता है ।। १४ ।।
“अहा! शुकदेव मुनिने जनकके राजमहलसे विशाल वनकी ओर जाते समय सब ओरसे बन्धनमुक्त हो क्या ही अच्छा कहा था? ।। १५ ।।
जो मनुष्य अपनी समस्त कामनाओंको पा लेता है; तथा जो इन सबका केवल त्याग कर देता है--इन दोनोंके कार्योंमें समस्त कामनाओंको प्राप्त करनेकी अपेक्षा उनका त्याग ही श्रेष्ठ है ।। १६ ।।
“कोई भी पहले कभी धन आदिके लिये होनेवाली सम्पूर्ण प्रवृत्तियोंका अन्त नहीं पा सका है। शरीर और जीवनके प्रति मूर्ख मनुष्यकी ही तृष्णा बढ़ती है ।। १७ ।।
“ओ कामनाओंके दास मन! तू सब प्रकारकी चेष्टाओंसे निवृत्त हो जा और वैराग्यपूर्वक शान्ति धारण कर। तू धनकी चेष्टा करके बारंबार ठगा गया है तो भी उसकी ओरसे वैराग्य नहीं होता है || १८ ।।
“ओ धनकी कामनावाले मन! यदि तुझे मेरा विनाश नहीं करना है, यदि तू इसी प्रकार मेरे साथ आनन्दपूर्वक रहना चाहता है तो मुझे व्यर्थ लोभमें न फँसा ।। १९ ।।
'तूने बार-बार द्रव्यका संचय किया और वह बारंबार नष्ट होता चला गया। धनकी इच्छा रखनेवाले मूढ! क्या कभी तू धनकी इस तृष्णा और चेष्टाका त्याग भी करेगा ?।।२०।।
“अहो! यह मेरी कैसी नादानी है? जो मैं तेरे हाथका खिलौना बना हुआ हूँ। यदि ऐसी बात न होती तो क्या कोई समझदार पुरुष कभी दूसरोंकी दासता स्वीकार कर सकता है? ।। २१ |।
'पूर्वकालके तथा पीछेके मनुष्य भी कभी कामनाओंका अन्त नहीं पा सके हैं, अतः मैं समस्त कर्मोका आयोजन त्यागकर सावधान हो गया हूँ और मैं पूर्णतः जग गया हूँ ।। २२ ।।
“काम! निश्चय ही तेरा हृदय फौलादका बना हुआ है: अतएव अत्यन्त सुदृढ़ है। यही कारण है कि सैकड़ों अनर्थोसे व्याप्त होनेपर भी इसके सैकड़ों टुकड़े नहीं हो जाते || २३ ।।
“काम! मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूँ और जो कुछ तुझे प्रिय लगता है, उससे भी परिचित हूँ। चिरकालसे तेरा प्रिय करनेकी चेष्टा करता चला आ रहा हूँ; परंतु कभी मेरे मनमें सुखका अनुभव नहीं हुआ ।। २४ ।।
“काम! मैं तेरी जड़को जानता हूँ। निश्चय ही तू संकल्पसे उत्पन्न होता है। अब मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूँगा, जिससे तू समूल नष्ट हो जायगा ।। २५ ।।
“धनकी इच्छा अथवा चेष्टा सुखदायिनी नहीं है। यदि धन मिल भी जाय तो उसकी रक्षा आदिके लिये बड़ी भारी चिन्ता बढ़ जाती है और यदि एक बार मिलकर वह नष्ट हो जाय, तब तो मृत्युके समान ही भयंकर कष्ट होता है और उद्योग करनेपर भी धन मिलेगा या नहीं, यह निश्चय नहीं होता ।। २६ ।।
“शरीरको निछावर कर देनेपर भी मनुष्य जब धन नहीं पाता है तो उसके लिये इससे बढ़कर महान् दुःख और क्या हो सकता है? यदि धनकी उपलब्धि हो भी जाय तो उतनेसे ही वह संतुष्ट नहीं होता है अपितु अधिक धनकी तलाश करने लग जाता है || २७ ।।
“काम! स्वादिष्ट गड़्ाजलके समान यह धन तृष्णाकी ही वृद्धि करनेवाला है। मैं अच्छी तरह जान गया हूँ कि यह तृष्णाकी वृद्धि मेरे विनाशका कारण है; अतः तू मेरा पिण्ड छोड़ दे || २८ ।।
“मेरे इस शरीरका आश्रय लेकर जो पाँचों भूतोंका समुदाय स्थित है, वह इसमेंसे अपनी इच्छाके अनुसार सुखपूर्वक चला जाय या इसमें रहे, इसकी मुझे परवा नहीं है ।। २९ |।
“पंचभूतगण! अहंकार आदिके साथ तुम सब लोग काम और लोभके पीछे लगे रहनेवाले हो। अतः तुमपर यहाँ मेरा रत्तीभर भी स्नेह नहीं है। इसलिये मैं समस्त कामनाओंको छोड़कर केवल अब सत्त्वगुणका आश्रय ले रहा हूँ | ३० ।।
“मैं अपने शरीरमें मनके अंदर सम्पूर्ण भूतोंको देखता हुआ बुद्धिको योगमें, एकाग्रचितको श्रवण-मनन आदि साधनोंमें और मनको परब्रह्म परमात्मामें लगाकर रोगशोकसे रहित एवं सुखी हो सम्पूर्ण लोकोंमें अनासक्त भावसे विचरूँगा, जिससे तू फिर मुझे इस प्रकार दुःखोंमें न डाल सकेगा ।। ३१-३२ ।।
“काम! तृष्णा, शोक और परिश्रम--इनका उत्पत्तिस्थान सदा तू ही है। जबतक तू मुझे प्रेरित करके इधर-उधर भटकाता रहेगा तबतक मेरे लिये दूसरी कोई गति नहीं है || ३३ ।।
“मैं तो समझता हूँ कि धनका नाश होनेपर जो अत्यन्त दुःख होता है, वही सबसे बढ़कर है; क्योंकि जो धनसे वज्चित हो जाता है, उसे अपने भाई-बन्धु और मित्र भी अपमानित करने लगते हैं ।। ३४ ।।
“दरिद्रको सहस्र-सहस्र तिरस्कार सहने पड़ते हैं; अतः निर्धन अवस्थामें बहुत-से कष्टदायक दोष हैं; और धनमें जो सुखका लेश प्रतीत होता है, वह भी दुःखोंसे ही सम्पादित होता है ।। ३५ ।।
“जिस पुरुषके पास धन होनेका संदेह होता है, उसे उसका धन लूटनेके लिये लुटेरे मार डालते हैं अथवा उसे तरह-तरहकी पीड़ाएँ देकर सताते और सदा उद्वेगमें डाले रहते हैं ।। ३६ ||
“धनलोलुपता दुःखका कारण है, यह बात बहुत देरके बाद मेरी समझमें आयी है। काम! तू जिस-जिसका आश्रय लेता है, उसी-उसीके पीछे पड़ जाता है || ३७ ।।
“तू तत्त्वज्ञानसे रहित और बालकके समान मूढ है, तुझे संतोष देना कठिन है। आगके समान तेरा पेट भरना असम्भव है। तू यह नहीं जानता कि कौन-सी वस्तु सुलभ है और कौन-सी दुर्लभ || ३८ ।।
“काम! पातालके समान तुझे भरना कठिन है। तू मुझे दुःखोंमें फँसाना चाहता है; किंतु अब तू फिर मेरे भीतर प्रवेश नहीं कर सकता ।। ३९ |।
“अकस्मात् धनका नाश हो जानेसे वैराग्यको प्राप्त होकर मुझे परम सुख मिल गया है। अब मैं भोगोंका चिन्तन नहीं करूँगा ।। ४० ।।
'पहले मैं बड़े-बड़े क्लेश सहता था, परंतु ऐसा बुद्धिहीन हो गया था कि “धनकी कामनामें कष्ट है,,' इस बातको समझ ही नहीं पाता था। परंतु अब धनका नाश होनेसे उससे वंचित होकर मैं सम्पूर्ण अड़ोंमें क्लेश और चिन्ताओंसे मुक्त होकर सुखसे सोता हूँ ।। ४१ ।।
“काम! मैं अपनी सम्पूर्ण मनोवृत्तियोंको दूर हटाकर तेरा परित्याग कर रहा हूँ। अब तू फिर मेरे साथ न तो रह सकेगा और न मौज ही कर सकेगा ।। ४२ ।।
“अब जो लोग मुझपर आक्षेप या मेरा तिरस्कार करेंगे, उनके उस बर्तावको मैं चुपचाप सह लूँगा। जो लोग मुझे मारे-पीटेंगे या कष्ट देंगे, उनके साथ भी मैं बदलेमें वैसा बर्ताव नहीं करूँगा। द्वेषके योग्य पुरुषका भी यदि साथ हो जाय और वह मुझे अप्रिय वचन कहने लगे तो मैं उसपर ध्यान न देकर उससे अप्रिय वचन नहीं बोलूँगा ।। ४३ ।।
“मैं सदा संतुष्ट एवं स्वस्थ इन्द्रियोंसे सम्पन्न रहकर भाग्यवश जो कुछ मिल जाय, उसीसे जीवन-निर्वाह करता रहूँगा; परंतु तुओ कभी सफल न होने दूँगा; क्योंकि तू मेरा शत्रु है ।। ४४ ।।
'तू यह अच्छी तरह समझ ले कि मुझे वैराग्य, सुख, तृप्ति, शान्ति, सत्य, दम, क्षमा और समस्त प्राणियोंके प्रति दयाभाव--ये सभी सदगुण प्राप्त हो गये हैं || ४५ ।।
“अतः काम, लोभ, तृष्णा और कृपणताको चाहिये कि वे मोक्षकी ओर प्रस्थान करनेवाले मुझ साधकको छोड़कर चले जायाँ। अब मैं सत्त्वगुणमें स्थित हो गया हूँ ।। ४६ ।।
“इस समय काम और लोभका त्याग करके मैं प्रत्यक्ष ही सुखी हो गया हूँ; अतः अजितेन्द्रिय पुरुषकी भाँति अब लोभमें फँसकर दुःख नहीं उठाऊँगा ।। ४७ ।।
“मनुष्य जिस-जिस कामनाको छोड़ देता है, उस-उसकी ओरसे सुखी हो जाता है। कामनाके वशीभूत होकर तो वह सर्वदा दुःख ही पाता है ।। ४८ ।।
“मनुष्य कामसे सम्बन्ध रखनेवाला जो कुछ भी रजोगुण हो, उसे दूर कर दे। दुःख, निर्लज्जता और असंतोष--ये काम और क्रोधसे ही उत्पन्न होनेवाले हैं || ४९ ।।
जैसे ग्रीष्म-ऋतुमें लोग शीतल जलवाले सरोवरमें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार अब मैं परब्रह्ममें प्रतिष्ठित हो गया हूँ, अतः शान्त हूँ, सब ओरसे निर्वाणको प्राप्त हो गया हूँ। अब मुझे केवल सुख-ही-सुख मिल रहा है ।। ५० ।।
“इस लोकमें जो विषयोंका सुख है तथा परलोकमें जो दिव्य एवं महान् सुख है, ये दोनों प्रकारके सुख तृष्णाके क्षयसे होनेवाले सुखकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं ।। ५१ ।।
“काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य और ममता--ये देहधारियोंके सात शत्रु हैं। इनमें सातवाँ कामरूप शत्रु सबसे प्रबल है। उन सबके साथ इस महान् शत्रु कामका नाश करके मैं अविनाशी ब्रह्मपुरमें स्थित हो राजाके समान सुखी होऊँगा” ।। ५२ ।।
राजन! इसी बुद्धिका आश्रय लेकर मड़कि धन और भोगोंसे विरक्त हो गये और समस्त कामनाओंका परित्याग करके उन्होंने परमानन्दस्वरूप परब्रह्मको प्राप्त कर लिया ।। ५३ ।।
बछड़ोंके नाशको निमित्त बनाकर ही मड्कि अमृतत्वको प्राप्त हो गये। उन्होंने कामकी जड़ काट डाली; इसीलिये महान् सुख प्राप्त कर लिया ।। ५४ ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मद्कियीताविषयक एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- एक ताड़के वृक्षके नीचे एक बटोही बैठा था। उसी वृक्षके ऊपर एक काक भी आ बैठा। काकके आते ही ताड़का एक पका हुआ फल नीचे गिरा। यद्यपि फल पककर आप-से-आप ही गिरा था, पर पथिक दोनों बातोंको साथ होते देख, यही समझ गया कि कौवेके आनेसे ही ताड़का फल गिरा है; अतः जहाँ संयोगवश अचानक कोई घटना घटित हो जाय, वहाँ उसे काकतालीयन्यायसे घटित हुई बताया जाता है। यहाँ बछड़ोंका आना और ऊँटका रास्तेमें बैठे रहना--ये बातें संयोगवश हो गयी थीं।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ अठहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“जनककी उक्ति तथा राजा नहुषके प्रश्नोंके उत्तरमें बोध्यगीता”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! इसी विषयमें शान्तभावको प्राप्त हुए विदेहगाज जनकने जो उदगार प्रकट किया था, उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।। १ ।।
[जनक बोले--] मेरे पास अनन्त-सा धन-वैभव है; फिर भी मेरा कुछ नहीं है। इस मिथिलापुरीमें आग लग जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलता ।। २ ।।
युधिष्ठिर! इसी प्रसंगमें वैराग्यको लक्ष्य करके बोध्य मुनिने जो वचन कहे हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो || ३ ।।
कहते हैं, किसी समय नहुषनन्दन राजा ययातिने वैराग्यसे शान्तभावको प्राप्त हुए शास्त्रके उत्कृष्ट ज्ञानसे परितृप्त परम शान्त बोध्य ऋषिसे पूछा-- ।। ४ ।।
“महाप्राज्ञ! आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे मुझे शान्ति मिले। कौन-सी ऐसी बुद्धि है, जिसका आश्रय लेकर आप शान्ति और संतोषके साथ विचरते हैं?” ।। ५ ।।
बोध्यने कहा--राजन्! मैं किसीको उपदेश नहीं देता, बल्कि स्वयं दूसरोंसे प्राप्त हुए उपदेशके अनुसार आचरण करता हूँ। मैं अपनेको मिले हुए उपदेशका लक्षण बता रहा हूँ (जिनसे उपदेश मिला है, उन गुरुओंका संकेतमात्र कर रहा हूँ), उसपर तुम स्वयं विचार करो ।। ६ ।।
पिंगला, कुरर पक्षी, सर्प, वनमें सारंगका अन्वेषण, बाण बनानेवाला और कुमारी कन्या--ये छः मेरे गुरु हैं || ७ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! बोध्यको अपने गुरुओंसे जो उपदेश प्राप्त हुआ था, वह इस प्रकार समझना चाहिये--आशा बड़ी प्रबल है। वही सबको दुःख देती है। निराशा ही परम सुख है। आशाको निराशाके रूपमें परिणत करके पिंगला वेश्या सुखसे सो गयी। (पिंगला आशाके त्यागका उपदेश देनेके कारण गुरु हुई) ।। ८ ।।
चोंचमें मांसका टुकड़ा लिये उड़ते हुए कुरर (क्रौंच पक्षीको देखकर दूसरे पक्षी जो मांस नहीं लिये हुए थे, उसे मारने लगे। तब उसने उस मांसके टुकड़ेको त्याग दिया। अतः पक्षियोंने उसका पीछा करना छोड़ दिया। इस प्रकार आमिषके त्यागसे क्रौंचपक्षी सुखी हो गया। भोगोंके परित्यागका उपदेश देनेके कारण कुरर (क्रौंच) पक्षी गुरु हुआ ।। ९ ।।
घर बनानेका खटपट करना दुःखका ही कारण है। उससे कभी सुख नहीं मिलता। देखो, साँप दूसरोंके बनाये हुए घर (बिल) में प्रवेश करके सुखसे रहता है। (अतः अनिकेत रहने--घर-द्वारके चक्करमें न पड़नेका उपदेश देनेके कारण सर्प गुरु हुआ) ।। १० ।।
जिस प्रकार पपीहा पक्षी किसी भी प्राणीसे वैर न करके याचनावृत्तिसे अपना निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार मुनिजन भिक्षावृत्तिका आश्रय लेकर सुखसे जीवन व्यतीत करते हैं (अद्रोहका उपदेश देनेके कारण पपीहा गुरु हुआ) ।। ११ ।।
एक बार एक बाण बनानेवालेको देखा गया, वह अपने काममें ऐसा दत्तचित्त था कि उसके पाससे निकली हुई राजाकी सवारीका भी उसे कुछ पता नहीं चला (उसके द्वारा एकाग्रचिचत्तताका उपदेश प्राप्त हुआ; इसलिये वह गुरु हो गया) ।। १२ ।।
बहुत मनुष्य एक साथ रहें तो उनमें प्रतिदिन कलह होता है और दो रहें तो भी उनमें बातचीत तो अवश्य ही होती है; अतः मैं कुमारी कन्याके हाथमें धारण की हुई शंखकी एकएक चूड़ीके समान अकेला ही विचरुँगा- ।। १३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें बोध्यगीताविषयक एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- एक गृहस्थके घरपर कुछ अतिथि आ गये। घरके सब लोग कहीं बाहर चले गये थे। भीतर केवल एक कुमारी कन्या थी, जिसपर उन अतिथियोंके भोजन आदिका भार आ पड़ा। वह उनके निमित्त रसोई बनानेके लिये धान कूटने लगी। उसके हाथोंमें शंखकी बनी हुई कई चूड़ियाँ थीं, जो धान कूटते समय खनखना उठीं। अतिथियोंको इस बातका पता न चल जाय; इसलिये एक-एक करके उसने चूड़ियाँ निकाल लीं, दोनों हाथोंमें केवल एक-एक चूड़ी ही शेष रह गयी; फिर उनका बजना बंद हो गया। इस तरह एकाकी रहनेका उपदेश देनेके कारण वह कुमारी गुरु हुई।
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शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ उनासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ उनासीवें अध्याय के श्लोक 1-37 का हिन्दी अनुवाद)
“प्रह्माद और अवधूतका संवाद--आजगर-वृत्तिकी प्रशंसा”
राजा युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आप सदाचारके स्वरूपको जाननेवाले हैं। कृपया यह बताइये, किस तरहके आचारको अपनाकर मनुष्य शोकरहित हो इस पृथ्वीपर विचरण कर सकता है? और इस जगतमें कौन-सा कर्म करके वह उत्तम गति पा सकता है? ।। १ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! इस विषयमें भी प्रह्लाद तथा अजगरवृत्तिसे रहनेवाले एक मुनिके संवादरूप प्राचीन इतिहासका दृष्टान्त दिया जाता है ।। २ ।।
एक सुदृढ़चित, दुःख-शोकसे रहित तथा बुद्धिसम्मत ब्राह्मणको पृथ्वीपर विचरते देख बुद्धिमान् राजा प्रह्नादने उससे इस प्रकार पूछा ।। ३ ।।
प्रह्नमाद बोले--ब्रह्म! आप स्वस्थ, शक्तिमान्, मृदु, जितेन्द्रिय, कर्मारम्भसे दूर रहनेवाले, दूसरोंके दोषोंपर दृष्टि न डालनेवाले, सुन्दर और मधुर वचन बोलनेवाले, निर्भीक, प्रतिभाशाली, मेधावी तथा तत्त्वज्ञ होकर भी बालकोंके समान विचर रहे हैं ।। ४ ।।
न आप कोई लाभ चाहते हैं और न हानि होनेपर उसके लिये शोक ही करते हैं। ब्रह्मन! आप नित्यतृप्त-से रहते हुए न किसी वस्तुको प्रिय मानते हैं और न अप्रिय || ५ ।।
सारी प्रजा काम-क्रोध आदिके प्रवाहमें पड़कर बही जा रही है; परंतु आप उधरसे उदासीन-जैसे जान पड़ते हैं तथा धर्म, अर्थ एवं काम-सम्बन्धी कार्योंके प्रति भी निमश्रेष्ट-से दिखायी देते हैं ।। ६ ।।
धर्म और अर्थ-सम्बन्धी कार्योका आप अनुष्ठान नहीं करते हैं, काममें भी आपकी प्रवृत्ति नहीं है। आप इन्द्रियोंके सम्पूर्ण विषयोंकी उपेक्षा करके साक्षीके समान मुक्तरूपसे विचरते हैं ।। ७ ।।
मुने! आपके पास कौन-सी ऐसी बुद्धि, कैसा शास्त्रज्ञान अथवा कौन-सी वृत्ति है, जिससे आपका जीवन ऐसा बन गया है? ब्रह्मम! आपके मतसे इस जगत्में मेरे लिये जो श्रेयका साधन हो, उसे शीघ्र बतावें || ८ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! प्रहादके इस प्रकार पूछनेपर लोक-धर्मके विधानको जाननेवाले उन मेधावी मुनिने उनसे मधुर एवं सार्थक वाणीमें इस प्रकार कहा ।। ९ ।।
'प्रह्माद! देखो, इस जगतके प्राणियोंकी उत्पत्ति, वृद्धि, हास और विनाश कारणरहित सत्स्वरूप परमात्मासे ही हुए हैं; इस कारण मैं उनके लिये न तो हर्ष प्रकट करता हूँ और न व्यथित ही होता हूँ || १० ।।
“ऐसा समझना चाहिये, पूर्वकृत कर्मानुसार बने हुए स्वभावसे ही प्राणियोंकी वर्तमान प्रवृत्तियाँ प्रकट हुई हैं; अत: समस्त प्रजा स्वभावमें ही तत्पर है, उनका दूसरा कोई आश्रय नहीं है। इस रहस्यको समझकर मनुष्यको किसी भी परिस्थितिमें संतुष्ट नहीं होना चाहिये ।। ११ ।।
'प्रह्माद! देखो, जितने संयोग हैं, उनका पर्यवसान वियोगमें ही होता है और जितने संचय हैं, उनकी समाप्ति विनाशमें ही होती है। यह सब देखकर मैं कहीं भी अपने मनको नहीं लगाता हूँ || १२ ।।
“जो गुणयुक्त सम्पूर्ण भूतोंको नाशवान् देखता है तथा उत्पत्ति और प्रलयके तत्त्वको जानता है, उसके लिये यहाँ कौन-सा कार्य अवशिष्ट रह जाता है? ।। १३ ।।
“महासागरके जलमें पैदा होनेवाले विशाल शरीरवाले तिमि आदि मत्स्यों तथा छोटेछोटे कीड़ोंका भी बारी-बारीसे विनाश होता देखता हूँ || १४ ।।
“असुरराज! पृथ्वीपर भी जितने स्थावर-जंगम प्राणी हैं, उन सबकी मृत्यु मुझे स्पष्ट दिखायी दे रही है ।।| १५ ।।
“दानवश्रेष्ठ] आकाशमें विचरनेवाले बलवान् पक्षियोंके समक्ष भी यथासमय मृत्यु आ पहुँचती है ।। १६ ।।
“आकाशमें जो छोटे-बड़े ज्योतिर्मय नक्षत्र विचर रहे हैं, उन्हें भी मैं यथासमय नीचे गिरते देखता हूँ ।। १७ ।।
“इस प्रकार सारे प्राणियोंको मैं मृत्युके पाशमें बद्ध देखता हूँ; इसलिये तत्त्वको जानकर कृतकृत्य हो सबके प्रति समान भाव रखता हुआ सुखसे सोता हूँ ।। १८ ।।
“यदि दैवेच्छासे अकस्मात् अधिक भोजन प्राप्त हो जाय तो मैं बहुत खा लेता हूँ, ग्रासमात्र मिले तो उसीमें संतुष्ट रहता हूँ और न मिला तो बहुत दिनोंतक बिना खाये-पीये भी सो रहता हूँ ।। १९ ।।
'फिर कितने ही लोग आकर मुझे अनेक गुणोंसे सम्पन्न बहुत-सा अन्न खिला देते हैं। पुनः कभी बहुत थोड़ा, कभी थोड़े-से भी थोड़ा भोजन मिलता है और कभी वह भी नहीं मिलता || २० ||
“कभी चावलकी कनी खाता हूँ, कभी तिलकी खली ही खाकर रह जाता हूँ और कभी अगहनीके चावलका भात भरपेट खाता हूँ। इस प्रकार मुझे बढ़िया-घटिया सभी तरहके भोजन बारंबार प्राप्त होते रहते हैं || २१ ।।
“कभी पलंगपर सोता हूँ, कभी पृथ्वीपर ही पड़ा रहता हूँ और कभी-कभी मुझे महलके भीतर बिछी हुई बहुमूल्य शय्या भी उपलब्ध हो जाती है ।। २२ ।।
“मैं कभी तो चिथड़े अथवा वल्कल पहनकर रहता हूँ, कभी सनके, कभी रेशमके और कभी मृगचर्मके वस्त्र धारण करता हूँ तथा किसी एक कालमें बहुत-से बहुमूल्य वस्त्रोंको भी पहन लेता हूँ || २३ ।।
“यदि दैववश मुझे कोई धर्मानुकूल भोग्य पदार्थ प्राप्त हो जाय तो मैं उससे द्वेष नहीं करता हूँ और प्राप्त न होनेपर किसी दुर्लभ भोगकी भी कभी इच्छा नहीं करता ।। २४ ।।
मैं सदा पवित्रभावसे रहकर इस अजगरवृत्तिका अनुसरण करता हूँ। यह अत्यन्त सुदृढ़, मृत्युसे दूर रखनेवाली, कल्याणमय, शोकहीन, शुद्ध, अनुपम और दविद्वानोंके मतके अनुकूल है। मूर्ख मनुष्य न तो इसे मानते हैं और न इसका सेवन ही करते हैं || २५ ।।
“मेरी बुद्धि अविचल है, मैं अपने धर्मसे च्युत नहीं हुआ हूँ, मेरा सांसारिक व्यवहार परिमित हो गया है, मुझे उत्तम और अधमका ज्ञान है, मेरे हृदयसे भय, राग-द्वेष, लोभ और मोह दूर हो गये हैं तथा पवित्रभावसे रहकर इस अजगरोचित व्रतका आचरण करता हूँ ।। २६ ।।
“यह अजगर-सम्बन्धी व्रत मेरे हृदयको सुख देनेवाला है। इसमें भक्ष्य, भोज्य, पेय और फल आदिके मिलनेकी कोई नियत व्यवस्था नहीं रहती--अनियतरूपसे जो कुछ मिल जाय, उसीसे निर्वाह करना होता है। इस व्रतमें प्रारब्धके परिणामके अनुसार देश और कालका विभाग नियत है। विषयलोलुप नीच पुरुष इसका सेवन नहीं करते, मैं पवित्रभावसे इसी व्रतका आचरण करता हूँ ।। २७ ।।
“जो यह मिले, वह मिले, इस प्रकार तृष्णासे दबे रहते हैं और धन न मिलनेके कारण निरन्तर विषाद करते हैं; ऐसे लोगोंकी दशा अच्छी तरह देखकर तात््विक बुद्धिसे सम्पन्न हुआ मैं पवित्रभावसे इस आजगरव्रतका आचरण करता हूँ ।। २८ ।।
“मैं बारंबार देखता हूँ कि श्रेष्ठ मनुष्य भी धनके लिये दीनभावसे नीच पुरुषका आश्रय लेते हैं। यह देखकर मेरी रुचि प्रशान्त हो गयी है। अतः मैं अपने स्वरूपको प्राप्त और सर्वथा शान्त हो गया हूँ और पवित्रभावसे इस आजगर-व्रतका आचरण करता हूँ || २९ ।
“सुख-दुःख, लाभ-हानि, अनुकूल और प्रतिकूल तथा जीवन और मरण--ये सब दैवके अधीन हैं। इस प्रकार यथार्थरूपसे जानकर मैं शुद्धभावसे इस आजगरब्रतका आचरण करता हूँ ।। ३०
“मेरे भय, राग, मोह और अभिमान नष्ट हो गये हैं। मैं धृति, मति और बुद्धिसे सम्पन्न एवं पूर्णतया शान्त हूँ। और प्रारब्धवश स्वतः अपने समीप आयी हुई वस्तुका ही उपभोग करनेवालोंको देखकर मैं पवित्रभावसे इस आजगरबव्रतका आचरण करता हूँ ।। ३१ ।।
“मेरे सोने-बैठनेका कोई नियत स्थान नहीं है। मैं स्व भावत: दम, नियम, व्रत, सत्य और शौचाचारसे सम्पन्न हूँ। मेरे कर्मफल-संचयका नाश हो चुका है। मैं प्रसन्नतापूर्वक पवित्रभावसे इस आजगरबव्रतका आचरण करता हूँ ।। ३२ ।।
“जिनका परिणाम दु:ख है, उन इच्छाके विषयभूत समस्त पदार्थोंसे जो विरक्त हो चुका है, ऐसे आत्मनिष्ठ महापुरुषको देखकर मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है। अतः मैं तृष्णासे व्याकुल असंयत मनको वशमें करनेके लिये पवित्रभावसे इस आजगर-व्रतका आचरण करता हूँ ।। ३३ ।।
“मन, वाणी और बुद्धिकी उपेक्षा करके इनको प्रिय लगनेवाले विषय-सुखोंकी दुर्लभता तथा अनित्यता--इन दोनोंको देखनेवालेकी भाँति मैं पवित्रभावसे इस आजगरबव्रतका आचरण करता हूँ ।। ३४ ।।
“अपनी कीर्तिका विस्तार करनेवाले विद्वानों और बुद्धिमानोंने अपने और दूसरोंके मतसे गहन तर्क और वितर्क करके 'ऐसे करना चाहिये" 'ऐसे करना चाहिये” इत्यादि कहकर इस व्रतकी अनेक प्रकारसे व्याख्या की है || ३५ ।।
“मूर्खलोग इस अजगरवृत्तिको सुनकर इसे पहाड़की चोटीसे गिरनेकी भाँति भयंकर समझते हैं। परंतु उनकी वह मान्यता भिन्न है। मैं इस अजगरवृत्तिको अज्ञानका नाशक और समस्त दोषोंसे रहित मानता हूँ। अतः दोष और तृष्णाका त्याग करके मनुष्योंमें विचरता हूँ' ।। ३६ ||
भीष्मजी कहते हैं-राजन्! जो महापुरुष राग, भय, लोभ, मोह और क्रोधको त्यागकर इस आजगर व्रतका पालन करता है, वह इस लोकमें सानन्द विचरण करता है || ३७ ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें अजगरवृत्तिसे रहनेवाले मुनि और प्रह्लादका संवादविषयक एक सौ उनासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ अस्सीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ अस्सीवें अध्याय के श्लोक 1-54 का हिन्दी अनुवाद)
“सद्बुद्धि का आश्रय लेकर आत्महत्यादि पापकर्मसे निवृत्त होने के सम्बन्धमें काश्यप ब्राह्मण और इन्द्रका संवाद”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! अब मेरे प्रश्नके अनुसार मुझे यह बताइये कि मनुष्यको बन्धुजन, कर्म, धन अथवा बुद्धि--इनमेंसे किसका आश्रय लेना चाहिये? ।। १ ॥।
भीष्मजीने कहा--राजन्! प्राणियोंका प्रधान आश्रय बुद्धि है। बुद्धि ही उनका सबसे बड़ा लाभ है। संसारमें बुद्धि ही उनका कल्याण करनेवाली है। सत्पुरुषोंके मतमें बुद्धि ही स्वर्ग है ।। २ ।।
राजा बलिने अपना एऐश्वर्य क्षीण हो जानेपर पुनः उसे बुद्धिबलसे ही पाया था। प्रह्नाद, नमुचि और मंकिने भी बुद्धिबलसे ही अपना-अपना अर्थ सिद्ध किया था। संसारमें बुद्धिसे बढ़कर और क्या है? ॥।
युधिष्ठिर! इस विषयमें विज्ञ पुरुष इन्द्र और काश्यपके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो ।। ४ ।।
कहते हैं, पूर्वकालमें धनके अभिमानसे मतवाले हुए किसी धनी वैश्यने कठोर व्रतका पालन करनेवाले तपस्वी ऋषिकुमार काश्यपको अपने रथसे धक्के देकर गिरा दिया ।। ५ ।।
वे पीड़ासे कराहकर गिर पड़े और कुपित होकर आत्महत्याके लिये उद्यत हो इस प्रकार बोले--“अब मैं प्राण दे दूँगा; क्योंकि इस संसारमें निर्धन मनुष्यका जीवन व्यर्थ है" ६ |।
उन्हें इस प्रकार मरनेकी इच्छा लेकर बैठे मूच्छसे अचेत हो कुछ न बोलते और मनही-मन धनके लिये ललचाते देखकर इन्द्रदेव सियारका रूप धारण करके आये और उनसे इस प्रकार कहने लगे-- || ७ ।।
“मुने! सभी प्राणी सब प्रकारसे मनुष्ययोनि पानेकी इच्छा रखते हैं। उसमें भी ब्राह्मणत्वकी प्रशंसा तो सभी लोग करते हैं ।। ८ ।।
“काश्यप! आप तो मनुष्य हैं, ब्राह्मण हैं और श्रोत्रिय भी हैं। ऐसा परम दुर्लभ शरीर पाकर आपको उसमें दोषदृष्टि करके स्वयं ही मरनेके लिये उद्यत होना उचित नहीं है।। ९।।
'संसारमें जितने लाभ हैं, वे सभी अभिमानपूर्ण हैं, ऐसा सत्य अर्थका प्रतिपादन करनेवाली श्रुतिका कथन है (अर्थात् मैंने यह लाभ अपने पुरुषार्थसे किया है, ऐसा अहंकार प्राय: सभी मनुष्य कर लेते हैं)। आपका स्वरूप तो संतोष रखनेके योग्य है। आप लोभवश ही उसकी अवहेलना करते हैं ।। १० ।।
“अहो! जिनके पास भगवानके दिये हुए हाथ हैं, उनको तो मैं कृतार्थ मानता हूँ। इस जगत्में जिनके पास एकसे अधिक हाथ हैं, उनके-जैसा सौभाग्य पानेकी इच्छा मुझे बारंबार होती है ।। ११ ।।
'जैसे आपके मनमें धनकी लालसा है, उसी प्रकार हम पशुओंको हाथवाले मनुष्योंसे हाथ पानेकी अभिलाषा रहती है। हमारी दृष्टिमें हाथ मिलनेसे अधिक दूसरा कोई लाभ नहीं | १२ ।।
“ब्रह्म! हमारे शरीरमें काँटे गड़ जाते हैं; परंतु हाथ न होनेसे हम उन्हें निकाल नहीं पाते हैं। जो छोटे-बड़े जीव-जन्तु हमारे शरीरमें डँसते हैं, उनको भी हम हटा नहीं सकते ।। १३ ।।
'परंतु जिनके पास भगवान्के दिये हुए दस अंगुलियोंसे युक्त दो हाथ हैं, वे अपने अंगोंसे उन कीड़ोंको हटाते या नष्ट कर देते हैं, जो उन्हें डँसते हैं || १४ ।।
वे वर्षा, सर्दी और धूपसे अपनी रक्षा कर लेते हैं, कपड़ा पहनते हैं, सुखपूर्वक अन्न खाते हैं, शय्या बिछाकर सोते हैं तथा एकान्त स्थानका उपभोग करते हैं ।। १५ ।।
“हाथवाले मनुष्य बैलोंसे जुती हुई गाड़ीपर चढ़कर उन्हें हाँकते हैं और जगत्में उनका यथेष्ट उपभोग करते हैं तथा हाथसे ही अनेक प्रकारके उपाय करके लोगोंको अपने वशभमें कर लेते हैं ।। १६ ।।
“मुने! जो दुःख बिना हाथके दीन, दुर्बल और बेजबान प्राणी सहते हैं, सौभाग्यवश वे तो आपको नहीं सहने पड़ते हैं | १७ ।।
“आपका बड़ा भाग्य है कि आप गीदड़, कीड़ा, चूहा, साँप, मेढ़क या किसी दूसरी पापयोनिमें नहीं उत्पन्न हुए ।। १८ ।।
“काश्यप! आपको इतने ही लाभसे संतुष्ट रहना चाहिये। इससे अधिक लाभ क्या होगा कि आप सभी प्राणियोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं । १९ ।।
“मुझे ये कीड़े खा रहे हैं, जिन्हें निकाल फेंकनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। हाथ न होनेके कारण होनेवाली मेरी इस दुर्दशाको आप प्रत्यक्ष देख लें || २० ।।
आत्महत्या करना पाप है; यह सोचकर ही मैं अपने इस शरीरका परित्याग नहीं करता हूँ। मुझे भय है कि मैं इससे भी बढ़कर किसी दूसरी पापयोनिमें न गिर जाऊँ ।। २१ ।।
यद्यपि मैं इस समय जिस शृगालयोनिमें हूँ, इसकी गणना भी पापयोनियोंमें ही है, तथापि दूसरी बहुत-सी पापयोनियाँ इससे भी नीची श्रेणीकी हैं || २२ ।।
“कुछ देवता आदि जातिसे ही सुखी हैं, दूसरे पशु आदि जातिसे ही अत्यन्त दुखी हैं; परंतु मैं कहीं किसीको ऐसा नहीं देखता, जिसको सर्वथा सुख ही सुख हो ।। २३ ।।
“मनुष्य धनी हो जानेपर राज्य पाना चाहते हैं, राज्यसे देवत्वकी इच्छा करते हैं और देवत्वसे फिर इन्द्रपद प्राप्त करना चाहते हैं || २४ ।।
यदि आप धनी हो जायाँ तो भी ब्राह्मण होनेके कारण राजा नहीं हो सकते। यदि कदाचित् राजा हो जायाँ तो देवता नहीं हो सकते। देवता और इन्द्रका पद भी पा जायाँ तो भी आप उतनेसे संतुष्ट नहीं रह सकेंगे || २५ ।।
'प्रिय वस्तुओंका लाभ होनेसे कभी तृप्ति नहीं होती। बढ़ती हुई तृष्णा जलसे नहीं बुझती। ईंधन पाकर जलनेवाली आगके समान वह और भी प्रज्वलित होती जाती है ।। २६ ।।
“तुम्हारे भीतर शोक भी है और हर्ष भी। साथ ही सुख और दु:ख दोनों हैं; फिर शोक करना किस कामका? ॥।| २७ |।
“बुद्धि और इन्द्रियाँ ही समस्त कामनाओं और कर्मोंकी मूल हैं। उन्हें पिंजड़ेमें बंद पक्षियोंकी तरह अपने काबूमें रखा जाय तो कोई भय नहीं है || २८ ।।
“मनुष्यको दूसरे सिर और तीसरे हाथके कटनेका कभी भय नहीं होता है। जो वास्तवमें है ही नहीं, उसके कारण भय भी नहीं होता है ।। २९ ।।
जो किसी विषयका रस नहीं जानता, उसके मनमें कभी उसकी कामना भी नहीं होती। स्पर्शसे, दर्शनसे अथवा श्रवणसे भी कामनाका उदय होता है ।।
“वारुणी मदिरा तथा चिड़िया--इन दोनोंका आप कभी स्मरण नहीं करते होंगे; क्योंकि इनको आपने नहीं खाया है; परंतु (जो तामसी मनुष्य इनको खाते हैं उनके लिये) कहीं और कोई भी भरक्ष्य पदार्थ उन दोनोंसे बढ़कर नहीं है || ३१ ।।
'प्राणियोंमें किसीके भी जो अन्यान्य भक्ष्य पदार्थ हैं, जिनका तुमने पहले उपभोग नहीं किया है, उन भोजनोंकी स्मृति तुमको कभी नहीं होगी ।। ३२ ।।
“मैं ऐसा मानता हूँ कि किसी वस्तुको न खाने, न छूने और न देखनेका नियम लेना ही पुरुषके लिये कल्याणकारी है, इसमें संशय नहीं ।। ३३ ।।
“जिनके दोनों हाथ बने हुए हैं, निस्संदेह वे ही बलवान् और धनवान हैं। मनुष्योंको तो मनुष्योंने ही दास बना रखा है || ३४ ।।
“कितने ही मनुष्य बारंबार वध और बन्धनके क्लेश भोगते रहते हैं, परंतु वे भी (आत्महत्या करके प्राण नहीं देते, बल्कि) आपसमें क्रीड़ा करते, आनन्दित होते और हँसते हैं ।। ३५ ।।
“दूसरे बहुत-से बाहुबलसे सम्पन्न विद्वान् और मनस्वी मनुष्य दीन, निन्दित एवं पापपूर्ण वृत्तिसे जीविका चलाते हैं || ३६ ।।
“वे दूसरी वृत्तिका सेवन करनेके लिये भी उत्साह रखते हैं; परंतु अपने कर्मके अनुसार जो नियत है, वैसा ही भविष्यमें होता है || ३७ ।।
'भंगी अथवा चाण्डाल भी अपने शरीरको त्यागना नहीं चाहता है, वह अपनी उसी योनिसे संतुष्ट रहता है। देखिये, भगवान्की कैसी माया है? ।। ३८ ।।
“काश्यप! कुछ मनुष्य लूले और लँगड़े हैं, कुछ लोगोंको लकवा मार गया है, बहुत-से मनुष्य निरन्तर रोगी ही रहते हैं। उन सबकी ओर देखकर यह कहना पड़ता है कि आप अपनी योनिके अनुसार नीरोग और परिपूर्ण अंगवाले हैं। आपको मानवशरीरका लाभ मिल चुका है || ३९ |।
'ब्राह्मगदेव! यदि आपका शरीर निर्भय और नीरोग है, आपके सारे अंग ठीक हैं, किसीमें कोई विकार नहीं आया है तो लोकमें कोई भी आपको धिक्कार नहीं सकता-आप धिक्ककारके पात्र नहीं हो सकते ।। ४० ।।
“यदि आपपर जातिच्युत करनेवाला कोई सच्चा कलंक लगा हो तो भी आपको प्राणत्यागका विचार नहीं करना चाहिये। ब्रह्मर्ष!ी आप धर्मपालनके लिये उठ खड़े होइये ।। ४१ ।।
“ब्रह्म! यदि आप मेरी बात सुनेंगे और उसपर श्रद्धा करेंगे तो आपको वेदोक्त धर्मके पालनका ही मुख्य फल प्राप्त होगा || ४२ ।।
“आप सावधान होकर स्वाध्याय, अन्निहोत्र, सत्य, इन्द्रियसंयम तथा दानधर्मका पालन कीजिये। किसीके साथ स्पर्धा न कीजिये ।। ४३ ।।
'जो ब्राह्मण स्वाध्यायमें लगे रहते हैं तथा यज्ञ करते और कराते हैं, वे किसी प्रकारकी चिन्ता क्यों करेंगे और कोई आत्महत्या आदि बुरी बात भी क्यों सोचेंगे? वे यदि चाहें तो यज्ञादिके द्वारा विहार करते हुए महान् सुख पा सकते हैं || ४४ ।।
“जो उत्तम नक्षत्र, उत्तम तिथि और उत्तम मुहूर्तमें पैदा हुए हैं, वे अपनी शक्तिके अनुसार यज्ञ एवं दान करते और न्यायानुकूल संतानोत्पादनकी चेष्टा भी करते हैं ।। ४५ ।।
“दूसरे जो लोग आसुर नक्षत्र, दूषित तिथि तथा अशुभ मुहूर्तमें उत्पन्न होते हैं, वे यज्ञ तथा संतानसे रहित होकर आसुरी योनिमें पड़ते हैं || ४६ ।।
'पूर्वजन्ममें मैं एक पण्डित था और कुतर्कका आश्रय लेकर वेदोंकी निन्दा करता था। प्रत्यक्षके आधारपर अनुमानको प्रधानता देनेवाली थोथी तर्कविद्यापर ही उस समय मेरा अधिक अनुराग था || ४७ |।
“मैं सभाओंमें जाकर तर्क और युक्तिकी बातें ही अधिक बोलता। जहाँ दूसरे ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक वेद-वाक्योंपर विचार करते, वहाँ मैं बलपूर्वक आक्रमण करके उन्हें खरी-खोटी सुना देता और स्वयं ही अपना तर्कवाद बका करता था ।। ४८ ।।
“मैं नास्तिक, सबपर संदेह करनेवाला तथा मूर्ख होकर भी अपनेको पण्डित माननेवाला था। विप्रवर! यह शृगालयोनि मेरे उसी कुकर्मका फल है ।। ४९ |।
अब मैं सैकड़ों दिन-रातोंतक साधन करके भी क्या कभी वह उपाय कर सकता हूँ, जिससे आज सियारकी योनिमें पड़ा हुआ मैं पुनः वह मनुष्ययोनि पा सकूँ ।।
“जिस मनुष्ययोनिमें मैं संतुष्ट और सावधान रहकर यज्ञ, दान और तपस्यामें लगा रह सकूँ, जिसमें मैं जाननेयोग्य वस्तुको जान लूँ और त्यागनेयोग्य वस्तुका त्याग कर दूँ" ।। ५१ |।
यह सुनकर काश्यप मुनि आश्वर्यसे चकित होकर खड़े हो गये और बोले--“अहो! तुम तो बड़े कुशल और बुद्धिमान् हो' || ५२ ।।
ऐसा कहकर ब्रह्मर्षिने उसकी ओर ज्ञानदृष्टिसे देखा। तब उसके रूपमें इन्हें देवदेव शचीपति इन्द्र दिखायी दिये |। ५३ ।।
तदनन्तर काश्यपने इन्द्रदेवका पूजन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे पुनः अपने घरको लौट गये ।।५४।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें गीदड़ और काश्यपका संवादविषयक एक सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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