सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ इकहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-35 का हिन्दी अनुवाद)
“गौतमका राक्षसराजके यहाँसे सुवर्णणशि लेकर लौटना और अपने मित्र बकके वधका घृणित विचार मनमें लाना”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर राजाको उसके आगमनकी सूचना दी गयी और वह उनके उत्तम भवनमें प्रविष्ट हुआ। वहाँ राक्षसराजने उसका विधिवत् पूजन किया। तत्पश्चात् वह एक उत्तम आसनपर विराजमान हुआ ।। १ |।
विरूपाक्षने गौतमसे उसके गोत्र, शाखा और ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक किये गये स्वाध्यायके विषयमें प्रश्न किया; परंतु उसने गोत्र (जाति)-के सिवा और कुछ नहीं बताया ।। २ ।।
तब ब्राह्मणोचित तेजसे हीन, स्वाध्यायसे उपरत, केवल गोत्र अथवा जातिका नाम जाननेवाले उस ब्राह्मणसे राजाने उसका निवासस्थान पूछा ।। ३ ।।
राक्षसराज बोले--भद्र! तुम्हारा निवास कहाँ है? तुम्हारी पत्नी किस गोत्रकी कन्या है? यह सब ठीक-ठीक बताओ। भय न करो। मुझपर विश्वास करो और सुखसे रहो ।। ४ ।।
गौतमने कहा--राक्षसराज! मेरा जन्म तो हुआ है मध्यदेशमें, किंतु मैं एक भीलके घरमें रहता हूँ। मेरी स्त्री शूद्र जातिकी है और मुझसे पहले दूसरेकी पत्नी रह चुकी है। यह बात मैं आपसे सत्य ही कहता हूँ || ५ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि! यह सुनकर राक्षसराज मन-ही-मन विचार करने लगे कि अब किस तरह काम करना चाहिये? कैसे मुझे पुण्य प्राप्त हो सकता है? इस प्रकार उन्होंने बारंबार बुद्धि लगाकर सोचा और विचारा ।। ६ |।
वे मन ही-मन कहने लगे, “यह केवल जन्मसे ही ब्राह्मण है; परंतु महात्मा राजधर्माका सुहृद् है। उन कश्यपकुमारने ही इसे यहाँ मेरे पास भेजा है; अतः उनका प्रिय कार्य अवश्य करूँगा। वह सदा मुझपर भरोसा रखता है और मेरा भाई, बान्धव तथा हार्दिक मित्र भी है || ७-८ ।।
“आज कार्तिककी पूर्णिमा है। आजके दिन सहसों श्रेष्ठ ब्राह्मण मेरे यहाँ भोजन करेंगे। उन्हींमें यह भी भोजन कर लेगा, उन्हींके साथ इसे भी धन देना चाहिये। आज पुण्य दिवस है, यह ब्राह्मण अतिथिरूपसे यहाँ आया है और मैंने धन दान करनेका संकल्प कर ही रक््खा है। अब इसके बाद क्या विचार करना है? ।।
तदनन्तर भोजनके समय हजारों दिद्वान् ब्राह्मण स्नान करके रेशमी वस्त्र और अलंकार धारण किये वहाँ आ पहुँचे || ११ ।।
प्रजानाथ! विरूपाक्षने वहाँ पधारे हुए जन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका शास्त्रीय विधिके अनुसार यथायोग्य स्वागत-सत्कार किया ।। १२ ।।
भरतश्रेष्ठ! राक्षसराजकी आज्ञासे सेवकोंने जमीनपर उनके लिये कुशके सुन्दर आसन बिछा दिये ।। १३ ।।
राजाके द्वारा सम्मानित वे श्रेष्ठ ब्राह्मण जब उन आसनोंपर विराजमान हो गये तब विरूपाक्षने तिल, कुश और जल लेकर उनका विधिवत् पूजन किया ।। १४ ।।
उनमें विश्वेदेवों, पितरों तथा अग्निदेवकी भावना करके उन सबको चन्दन लगाया, फ़ूलोंकी मालाएँ पहनायीं और सुन्दर रीतिसे उनकी पूजा की। महाराज! उन आसनोंपर बैठकर वे ब्राह्मण चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाने लगे || १५ ।।
तत्पश्चात् उसने हीरोंसे जड़ी हुई सोनेकी स्वच्छ सुन्दर थालियोंमें घीसे बने हुए मीठे पकवान परोसकर उन ब्राह्मणोंके आगे रख दिये ।। १६ ।।
उसके यहाँ आषाढ़ और माघकी पूर्णिमाको सदा बहुत-से ब्राह्मण सत्कारपूर्वक अपनी इच्छाके अनुसार उत्तम भोजन पाते थे ।। १७ ।।
विशेषतः कार्तिककी पूर्णिमाको, जब कि शरद्-ऋतुकी समाप्ति होती है, वह ब्राह्मणोंको रत्नोंका दान करता था; ऐसा सुननेमें आया है ।। १८ ।।
भारत! भोजनके पश्चात् ब्राह्मणोंके समक्ष बहुत-से सोने, चाँदी, मणि, मोती, बहुमूल्य हीरे, वैदूर्यमणि, रंकुमृगके चर्म तथा रत्नोंके कई ढेर लगाकर महाबली विरूपाक्षने उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे कहा--'द्विजवरो! आपलोग अपनी इच्छा और उत्साहके अनुसार इन रत्नोंको उठा ले जायेँ और जिनमें आपलोगोंने भोजन किया है, उन पात्रोंको भी अपने घर लेते जाये ।। १९--२२ ।।
उन महात्मा राक्षसराजके ऐसा कहनेपर उन ब्राह्मणोंने इच्छानुसार उन सब रत्नोंको ले लिया ।। २३ ||
तत्पश्चात् उन सुन्दर एवं महामूल्यवान् रत्नोंद्वारा पूजित हुए वे सभी उज्ज्वल वस्त्रधारी ब्राह्मण बड़े प्रसन्न हुए ।।
राजन! इसके बाद राक्षसराज विखरूपाक्षने नाना देशोंसे आये हुए राक्षसोंको हिंसा करनेसे रोककर उन ब्राह्मणोंसे कहा--“विप्रगण! आज एक दिनके लिये आपलोगोंको राक्षमोंकी ओरसे कहीं कोई भय नहीं है; अत: आनन्द कीजिये और शीघ्र ही अपने अभीष्ट स्थानको चले जाइये। विलम्ब न कीजिये” ।। २५-२६ ।।
यह सुनकर सब ब्राह्मणसमुदाय चारों ओर भाग चले। गौतम भी सुवर्णका भारी भार लेकर बड़ी कठिनाईसे ढोता हुआ जल्दी-जल्दी चलकर बरगदके पास आया। वहाँ पहुँचते ही थककर बैठ गया। वह भूखसे पीड़ित और क्लान्त हो रहा था ।। २७-२८ ।।
राजन! तत्पश्चात् पक्षियोंमें श्रेष्ठ मित्रवत्सल राजधर्मा गौतमके पास आया और स्वागतपूर्वक उसका अभिनन्दन किया ।। २९ |।
उस बुद्धिमान पक्षीने अपने पंखोंके अग्रभागका संचालन करके उसे हवा की और उसकी सारी थकावट दूर कर दी; फिर उसका पूजन किया तथा उसके लिये भोजनकी व्यवस्था की || ३० ।।
भोजन करके विश्राम कर लेनेपर गौतम इस प्रकार चिन्ता करने लगा--“अहो! मैंने लोभ और मोहसे प्रेरित होकर सुन्दर सुवर्णका यह महान् भार ले लिया है। अभी मुझे बहुत दूर जाना है। रास्तेमें खानेके लिये कुछ भी नहीं है, जिससे मेरे प्राणोंकी रक्षा हो सके ।।
“अब मैं कौन-सा उपाय करके अपने प्राणोंको धारण कर सकूँगा?' इस प्रकारकी चिन्तामें वह मग्न हो गया। पुरुषसिंह! तदनन्तर मार्गमें भोजनके लिये कुछ भी न देखकर उस कृतघ्नने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया--'यह बगुलोंका राजा राजधर्मा मेरे पास ही तो है। यह मांसका एक बहुत बड़ा ढेर है। इसीको मारकर ले लूँ और शीचघ्रतापूर्वक यहाँसे चल दूँ” || ३३--३५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कृतध्नका उपाख्यानविषयक एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ बहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)
“कृतघ्न गौतमद्दारा मित्र राजधर्माका वध तथा राक्षसोंद्वारा उसकी हत्या और कृतघ्नके मांसको अभक्ष्य बताना”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! पक्षिराज राजधर्माने अपने मित्र गौतमकी रक्षाके लिये उससे थोड़ी दूरपर आग प्रज्वलित कर दी थी, जिससे हवाका सहारा पाकर बड़ी-बड़ी लपटें उठ रही थीं ।। १ ।।
बकराजको भी मित्रपर विश्वास था; इसलिये उस समय उसके पास ही सो गया। इधर वह दुष्टात्मा कृतष्न उसका वध करनेकी इच्छासे उठा और विश्वासपूर्वक सोये हुए राजधर्माको सामनेसे जलती हुई लकड़ी लेकर उसके द्वारा मार डाला। उसे मारकर वह बहुत प्रसन्न हुआ, मित्रके वधसे जो पाप लगता है, उसकी ओर उसकी दृष्टि नहीं गयी ।। २-३ ।।
उसने मरे हुए पक्षीके पंख और बाल नोचकर उसे आगमें पकाया और उसे साथमें ले सुवर्णका बोझ सिरपर उठाकर वह ब्राह्मण बड़ी तेजीके साथ वहाँसे चल दिया ।। ४ ।।
भारत! उस दिन दक्षकन्याका पुत्र राजधर्मा अपने मित्र विरूपाक्षके यहाँ न जा सका; इससे विरूपाक्ष व्याकुल हृदयसे उसके लिये चिन्ता करने लगा ।।
तदनन्तर दूसरा दिन भी व्यतीत हो जानेपर विरूपाक्षने अपने पुत्रसे कहा--“बेटा! मैं आज पक्षियोंमें श्रेष्ठ राजधर्माको नहीं देख रहा हूँ ।। ५ ।।
वे पक्षिप्रवर प्रतिदिन प्रातःकाल ब्रह्माजीकी वन्दना करनेके लिये जाया करते थे और वहाँसे लौटनेपर मुझसे मिले बिना कभी अपने घर नहीं जाते थे || ६ ।।
“आज दो संध्याएँ व्यतीत हो गयीं; किंतु वह मेरे घरपर नहीं पधारे, अतः मेरे मनमें संदेह पैदा हो गया है। तुम मेरे मित्रका पता लगाओ ।। ७ ।।
“वह अधम ब्राह्मण गौतम स्वाध्यायरहित और ब्रह्मतेजसे शून्य था तथा हिंसक जान पड़ता था। उसीपर मेरा संदेह है। कहीं वह मेरे मित्रको मार न डाले ।। ८ ।।
“उसकी चेष्टाओंसे मैंने लक्षित किया तो वह मुझे दुर्बुद्धि एवं दुराचारी तथा दयाहीन प्रतीत होता था। वह आकारसे ही बड़ा भयानक और दुष्ट दस्युके समान अधम जान पड़ता था।।९।।
“नीच गौतम यहाँसे लौटकर फिर उन्हींके निवास-स्थानपर गया था; इसलिये मेरे मनमें उद्वेग हो रहा है। बेटा! तुम शीघ्र यहाँसे राजधर्माके घरपर जाओ और पता लगाओ कि वे शुद्धात्मा पक्षिराज जीवित हैं या नहीं। इस कार्यमें विलम्बन करो” ।। १०३ ।।
पिताकी ऐसी आज्ञा पाकर वह तुरंत ही राक्षसोंके साथ उस वटवृक्षके पास गया। वहाँ उसे राजधर्माका कंकाल अर्थात् उसके पंख, हड्डियों और पैरोंका समूह दिखायी दिया || ११३ ||
बुद्धिमान् राक्षसराजका पुत्र राजधर्माकी यह दशा देखकर रो पड़ा और उसने पूरी शक्ति लगाकर गौतमको शीघ्र पकड़नेकी चेष्टा की || १२३ ।।
तदनन्तर कुछ ही दूर जानेपर राक्षसोंने गौतमको पकड़ लिया। साथ ही उन्हें पंख, पैर और हड्डियोंसे रहित राजधर्माकी लाश भी मिल गयी ।। १३३ ।।
गौतमको लेकर वे राक्षस शीघ्र ही मेरुव्रजमें गये। वहाँ उन्होंने राजाको राजधर्माका मृत शरीर दिखाया और पापाचारी कृतघ्न गौतमको भी सामने खड़ा कर दिया ।।१४–१५।।
अपने मित्रको इस दशामें देखकर मन्त्री और पुरोहितोंके साथ राजा विरूपाक्ष फूटफ़ूटकर रोने लगे। उनके महलमें महान् आर्तनाद गूँजने लगा। स्त्री और बच्चोंसहित सारे नगरमें शोक छा गया। किसीका भी मन स्वस्थ न रहा ।।
तब राजाने अपने पुत्रको आज्ञा दी--“बेटा! इस पापीको मार डालो। ये समस्त राक्षस इसके मांसका यथेष्ट उपयोग करें ।। १७६ ।।
'राक्षसो! यह पापाचारी, पापकर्मा और पापात्मा है। इसके सारे साधन पापमय हैं; अतः तुम्हें इसका वध कर देना चाहिये, यही मेरा मत है” ।। १८३ ।।
राक्षसराजके इस प्रकार आदेश देनेपर भी भयानक पराक्रमी राक्षसोंने गौतमको खानेकी इच्छा नहीं की; क्योंकि वह घोर पापाचारी था ।। १९३६ ।।
महाराज! उन निशाचरोंने राक्षसराजसे कहा--'प्रभो! इस नराधमका मांस दस्युओंको दे दिया जाय, आप हमें इसका पाप खानेके लिये न दें” इस प्रकार समस्त राक्षसोंने राक्षसराजके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रार्थना की || २०-२१ ६ ।।
यह सुनकर राक्षसराजने उन निशाचरोंसे कहा--'राक्षसो! ऐसा ही सही, इस कृतघ्नको आज ही डाकुओंके हवाले कर दो” ।। २२६ ।।
राजाकी ऐसी आज्ञा पाकर हाथमें शूल और पट्टिश धारण किये राक्षसोंने पापी गौतमके टुकड़े-टुकड़े करके उसे दस्युओंको सौंप दिया ।। २३३ ।।
राजेन्द्र! उन दस्युओंने भी उस पापाचारीका मांस खानेकी इच्छा नहीं की। मांसाहारी जीव-जन्तु भी कृतघ्नका मांस काममें नहीं लेते हैं || २४ ।।
"राजन! ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा व्रतभज़ करने वालोंके लिये शास्त्रमें प्रायश्नित्तका विधान है; परंतु कृतघ्नके उद्धारका कोई उपाय नहीं बताया गया है ।।"
मित्रद्रोही, नृशंस, नराधम तथा कृतघ्न-ऐसे मनुष्योंका मांस मांसभक्षी जीव-जन्तु तथा कीड़े भी नहीं खाते हैं || २६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कृतघ्नका उपाख्यानविषयक एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २७ श्लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ तिहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)
“राजधर्मा और गौतमका पुन: जीवित होना”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर विरूपाक्षने बकराजके लिये एक चिता तैयार करायी। उसे बहुत से रत्नों, सुगन्धित चन्दनों तथा वस्त्रोंसे खूब सजाया गया था ।। १ ॥।
तत्पश्चात् बकराजके शवको उसके ऊपर रखकर प्रतापी राक्षसराजने उसमें आग लगायी और विधिपूर्वक मित्रका दाह-कर्म सम्पन्न किया || २ ।।
उसी समय दिव्य-धेनु दक्षकन्या सुरभिदेवी वहाँ आकर आकाशगमें ठीक चिताके ऊपर खड़ी हो गयीं ।।
अनघ! उनके मुखसे जो दूधमिश्रित फेन झरकर गिरा, वह राजधर्माकी उस चितापर पड़ा ।। ४ ।।
निष्पाप नरेश! उससे उस समय बकराज जी उठा और वह उड़कर विरूपाक्षसे जा मिला ।। ५ ||
उसी समय देवराज इन्द्र विरूपाक्षके नगरमें आये और विरूपाक्षसे इस प्रकार बोले --'“बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारे द्वारा बकराजको जीवन मिला' || ६ ।।
इन्द्रने विरूपाक्षको एक प्राचीन घटना सुनायी, जिसके अनुसार ब्रह्माजीने पहले राजधर्माको शाप दिया था || ७ ||
राजन! एक समय जब बकराज ब्रह्माजीकी सभामें नहीं पहुँच सके, तब पितामहने बड़े रोषमें भरकर इन पक्षिराजको शाप देते हुए कहा-- ॥। ८ ॥।
“वह मूर्ख और नीच बगला मेरी सभामें नहीं आया है; इसलिये शीघ्र ही उस दुष्टात्माको वधका कष्ट भोगना पड़ेगा" ॥। ९ ||
ब्रह्माजीके उस वचनसे ही गौतमने इनका वध किया और ब्रह्माजीने ही पुनः अमृत छिड़ककर राजधर्माको जीवन-दान दिया है || १० ।।
तदनन्तर राजधर्मा बकने इन्द्रको प्रणाम करके कहा--'सुरेश्वर! यदि आपकी मुझपर कृपा है तो मेरे प्रिय मित्र गौतमको भी जीवित कर दीजिये” ।। ११ ३ ।।
'पुरुषप्रवर! उसके अनुरोधको स्वीकार करके इन्द्र-देवने गौतम ब्राह्मगको भी अमृत छिड़ककर जिला दिया ।।
राजन्! बर्तन और सुवर्ण आदि सब सामग्रीसहित प्रिय सुहृद् गौतमको पाकर बकराजने बड़े प्रेमसे उसको हृदयसे लगा लिया ।। १३ ३ ।।
फिर बकराज राजधर्माने उस पापाचारीको धनसहित विदा करके अपने घरमें प्रवेश किया ।। १४३६ ||
तदनन्तर बकराज यथोचित रीतिसे ब्रह्माजीकी सभामें गया और ब्रह्माजीने उस महात्माका आतिथ्य-सत्कार किया || १५३ ||
गौतम भी पुनः भीलोंके ही गाँवमें जाकर रहने लगा। वहाँ उसने उस शूद्रजातिकी सत्रीके पेटसे ही अनेक पापाचारी पुत्रोंको उत्पन्न किया ।। १६ ।।
तब देवताओंने गौतमको महान् शाप देते हुए कहा--“यह पापी कृतघ्न है और दूसरा पति स्वीकार करनेवाली शूद्रजातीय स्त्रीके पेटसे बहुत दिनोंसे संतान पैदा करता आ रहा है। इस पापके कारण यह घोर नरकमें पड़ेगा” ।।
भारत! यह सारा प्रसड़ पूर्वकालमें मुझसे महर्षि नारदने कहा था। भरतश्रेष्ठ) इस महान् आख्यानको याद करके मैंने तुम्हारे समक्ष सब यथार्थरूपसे कहा है ।।
कृतघ्नको कैसे यश प्राप्त हो सकता है? उसे कैसे स्थान और सुखकी उपलब्धि हो सकती है? कृतघ्न विश्वासके योग्य नहीं होता। कृतघ्नके उद्धारके लिये शास्त्रोंमें कोई प्रायश्चित्त नहीं बताया गया है ।।
मनुष्यको विशेष ध्यान देकर मित्रद्रोहके पापसे बचना चाहिये। मित्रद्रोही मनुष्य अनन्तकालके लिये घोर नरकमें पड़ता है | २१ ।।
प्रत्येक मनुष्यको सदा कृतज्ञ होना चाहिये और मित्रकी इच्छा रखनी चाहिये; क्योंकि मित्रसे सब कुछ प्राप्त होता है। मित्रके सहयोगसे सदा सम्मानकी प्राप्ति होती है ।।
मित्रकी सहायतासे भोगोंकी भी उपलब्धि होती है और मित्रद्वारा मनुष्य आपत्तियोंसे छुटकारा पा जाता है, अतः बुद्धिमान् पुरुष उत्तम सत्कारोंद्वारा मित्रका पूजन करे ।।
जो पापी, कृतघ्न, निर्लज्ज, मित्रद्रोही, कुलाड्रार और पापाचारी हो, ऐसे अधम मनुष्यका विद्वान् पुरुष सदा त्याग करे || २४ ।।
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर!! इस प्रकार यह मैंने तुम्हें पापी, मित्रद्रोही और कृतघ्न पुरुषका परिचय दिया है। अब और क्या सुनना चाहते हो? ।। २५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! महात्मा भीष्मका यह वचन सुनकर राजा युधिष्ठिर मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए |। २६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कृतध्नका उपाख्यानविषयक एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ चौहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-66 का हिन्दी अनुवाद)
“शोकाकुल चित्तकी शान्तिके लिये राजा सेनजित् और ब्राह्मणके संवादका वर्णन”
राजा युधिष्ठिरने कहा--पितामह! यहाँ तक आपने राजधर्मसम्बन्धी श्रेष्ठ धर्मोका उपदेश दिया। पृथ्वीनाथ! अब आप आश्रमियोंके उत्तम धर्मका वर्णन कीजिये ।। १ ।।
भीष्मजी बोले--युधिष्छिर! वेदोंमें सर्वत्र सभी आश्रमोंके लिये स्वर्गसाधक यथार्थ फलकी प्राप्ति करानेवाली तपस्याका उल्लेख है। धर्मके बहुत-से द्वार हैं। संसारमें कोई ऐसी क्रिया नहीं है, जिसका कोई फल न हो ।। २ ।।
भरतश्रेष्ठ) जो-जो पुरुष जिस-जिस विषयमें पूर्ण निश्चयको पहुँच जाता है (जिसके द्वारा उसे अभीष्ट सिद्धिका विश्वास हो जाता है), उसीको वह कर्तव्य समझता है। दूसरे विषयको नहीं ।। ३ ।।
मनुष्य जैसे-जैसे संसारके पदार्थोकोी सारहीन समझता है, वैसे ही वैसे इनमें उसका वैराग्य होता जाता है, इसमें संशय नहीं है || ४ ।।
युधिष्ठिर! इस प्रकार यह जगत् अनेक दोषोंसे परिपूर्ण है, ऐसा निश्चय करके बुद्धिमान् पुरुष अपने मोक्षके लिये प्रयत्न करे || ५ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--दादाजी! धनके नष्ट हो जानेपर अथवा स्त्री, पुत्र या पिताके मर जानेपर किस बुद्धिसे मनुष्य अपने शोकका निवारण करे? यह मुझे बताइये ।। ६ ।।
भीष्मजीने कहा--वत्स! जब धन नष्ट हो जाय अथवा स्त्री, पुत्र या पिताकी मृत्यु हो जाय, तब “ओह! संसार कैसा दुःखमय है” यह सोचकर मनुष्य शोकको दूर करनेवाले शमदम आदि साधनोंका अनुष्ठान करे || ७ ।।
इस विषयमें किसी हितैषी ब्राह्मणने राजा सेनजितके पास आकर उन्हें जैसा उपदेश दिया था, उसी प्राचीन इतिहासको विज्ञ पुरुष दृष्टान्तके रूपमें प्रस्तुत किया करते हैं ।। ८ ।।
राजा सेनजितके पुत्रकी मृत्यु हो गयी थी। वे उसीके शोककी आगसे जल रहे थे। उनका मन विषादमें डूबा हुआ था। उन शोकविह्नल नरेशको देखकर ब्राह्मणने इस प्रकार कहा-- || ९ ||
राजन! तुम मूढ मनुष्यकी भाँति क्यों मोहित हो रहे हो? शोकके योग्य तो तुम स्वयं ही हो, फिर दूसरोंके लिये क्यों शोक करते हो? अजी! एक दिन ऐसा आयेगा, जब कि दूसरे शोचनीय मनुष्य तुम्हारे लिये भी शोक करते हुए उसी गतिको प्राप्त होंगे || १० ।।
पृथ्वीनाथ! तुम, मैं और ये दूसरे लोग जो इस समय तुम्हारे पास बैठे हैं; सब वहीं जायँगे, जहाँसे हम आये हैं" || ११ ।।
सेनजितने पूछा--तपस्याके धनी ब्राह्मणदेव! आपके पास ऐसी कौन-सी बुद्धि, कौन तप, कौन समाधि, कैसा ज्ञान और कौन-सा शास्त्र है, जिसे पाकर आपको किसी प्रकारका विषाद नहीं है || १२ ।।
सुख और दुःखका चक्र घूमता रहता है। मैं सुखमें हर्षसे फूल उठता हूँ और दु:खमें खिन्न हो जाता हूँ। ऐसी अवस्थामें पड़े हुए अपने-आपके लिये मुझे निरन्तर शोक होता है। यह शोक मेरे हृदयमें डेरा डाले बैठा है ।।
ब्राह्मणने कहा--राजन्! देखो, इस संसारमें उत्तम, मध्यम और अधम सभी प्राणी भिन्न-भिन्न कर्मोंमें आसक्त हो दुःखसे ग्रस्त हो रहे हैं || १३ ।।
मैं तो अकेला हूँ। न तो दूसरा कोई मेरा है और न मैं किसी दूसरेका हूँ। मैं उस पुरुषको नहीं देखता, जिसका मैं होऊँ तथा उसको भी नहीं देखता, जो मेरा हो (न मुझपर किसीकी ममता है, न मेरा ही किसीपर ममत्व) ।।
यह शरीर भी मेरा नहीं अथवा सारी पृथ्वी भी मेरी नहीं है। ये सब वस्तुएँ जैसी मेरी हैं, वैसी ही दूसरोंकी भी हैं। ऐसा सोचकर इनके लिये मेरे मनमें कोई व्यथा नहीं होती। इसी बुद्धिको पाकर न मुझे हर्ष होता है, न शोक ।।
जिस प्रकार समुद्रमें बहते हुए दो काष्ठ कभी-कभी एक-दूसरेसे मिल जाते हैं और मिलकर फिर अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार इस लोकमें प्राणियोंका समागम होता है ।। १५ ||
इसी तरह पुत्र, पौत्र, जाति-बान्धव और सम्बन्धी भी मिल जाते हैं। उनके प्रति कभी आसक्ति नहीं बढ़ानी चाहिये; क्योंकि एक दिन उनसे बिछोह होना निश्चित है || १६ ।।
तुम्हारा पुत्र किसी अज्ञात स्थितिसे आया था और अब अज्ञात स्थितिमें ही चला गया है। न तो वह तुम्हें जानता था और न तुम उसे जानते थे; फिर तुम उसके कौन होकर किसलिये शोक करते हो? ।। १७ ।।
संसारमें विषयोंकी तृष्णासे जो व्याकुलता होती है, उसीका नाम दुःख है और उस दुःखका विनाश ही सुख है। उस सुखके बाद (पुनः कामनाजनित) दुःख होता है। इस प्रकार बारंबार दुःख ही होता रहता है ।। १८ ।।
सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख आता है। मनुष्योंके सुख और दुःख चक्रकी भाँति घूमते रहते हैं ।। १९ ।।
इस समय तुम सुखसे दुःखमें आ पड़े हो। अब फिर तुम्हें सुखकी प्राप्ति होगी। यहाँ किसी भी प्राणीको न तो सदा सुख ही प्राप्त होता है और न सदा दुःख ही ।।
यह शरीर ही सुखका आधार है और यही दुःखका भी आधार है। देहाभिमानी पुरुष शरीरसे जो-जो कर्म करता है, उसीके अनुसार वह सुख एवं दुःखरूप फल भोगता है ।। २१ ||
यह जीवन स्वभावत: शरीरके साथ ही उत्पन्न होता है। दोनों साथ-साथ विविध रूपोंमें रहते हैं और साथ ही साथ नष्ट हो जाते हैं || २२ ।।
मनुष्य नाना प्रकारके स्नेह-बन्धनोंमें बँधे हुए हैं, अतः वे सदा विषयोंकी आसक्तिसे घिरे रहते हैं; इसीलिये जैसे बालूद्वारा बनाये हुए पुल जलके वेगसे बह जाते हैं, उसी प्रकार उन मनुष्योंकी विषयकामना सफल नहीं होती; जिससे वे दुःख पाते रहते हैं || २३ ।।
तेलीलोग तेलके लिये जैसे तिलोंको कोल्हूमें पेरते हैं, उसी प्रकार स्नेहके कारण सब लोग अज्ञानजनित क्लेशोंद्वारा सृष्टिचक्रमें पिस रहे हैं | २४ ।।
मनुष्य स्त्री-पुत्र आदि कुटुम्बके लिये चोरी आदि पाप कर्मोंका संग्रह करता है; किंतु इस लोक और परलोकमें उसे अकेले ही उन समस्त कर्मोंका क्लेशभय फल भोगना पड़ता है ।। २५ ||
स्त्री, पुत्र और कुट॒म्बमें आसक्त हुए सभी मनुष्य उसी प्रकार शोकके समुद्रमें डूब जाते हैं जैसे बूढ़े जंगली हाथी दलदलमें फँसकर नष्ट हो जाते हैं || २६ ।।
प्रभो! यहाँ सब लोगोंको पुत्र, धन, कुटुम्बी तथा सम्बन्धियोंका नाश होनेपर दावानलके समान दाह उत्पन्न करनेवाला महान् दुःख प्राप्त होता है; परंतु सुख-दुःख और जन्म-मृत्यु आदि यह सब कुछ प्रारब्धके ही अधीन है ।।
मनुष्य हितैषी सुहृदोंसे युक्त हो या न हो, वह शत्रुके साथ हो या मित्रके, बुद्धिमान् हो या बुद्धिहीन, दैवकी अनुकूलता होनेपर ही सुख पाता है || २८ ।।
अन्यथा न तो सुहृद् सुख देनेमें समर्थ हैं, न शत्रु दुःख देनेमें समर्थ हैं, न तो बुद्धि धन देनेकी शक्ति रखती है और न धन ही सुख देनेमें समर्थ होता है ।।
न तो बुद्धि धनकी प्राप्तिमें कारण है, न मूर्खता निर्धनतामें, वास्तवमें संसारचक्रकी गतिका वृत्तान्त कोई ज्ञानी पुरुष ही जान पाता है, दूसरा नहीं ।। ३० ।।
बुद्धिमान, शूरवीर, मूढ़, डरपोक, गूँगा, विद्वान, दुर्बल और बलवान् जो भी भाग्यवान् होगा--दैव जिसके अनुकूल होगा, उसे बिना यत्नके ही सुख प्राप्त होगा ।।
दूध देनेवाली गौ बछड़ेकी है या उसे दुहने अथवा चरानेवाले ग्वालेकी है; या रखनेवाले मालिककी है। अथवा उसे चुराकर ले जानेवाले चोरकी है? वास्तवमें जो उसका दूध पीता है, उसीकी वह गाय है--ऐसा विद्दानोंका निश्चय है ।। ३२ ।।
इस संसारमें जो अत्यन्त मूढ़ हैं और जो बुद्धिसे परे पहुँच गये हैं, वे ही मनुष्य सुखी हैं। बीचके सभी लोग कष्ट भोगते हैं || ३३ ।।
ज्ञानी पुरुष अन्तिम स्थितियोंमें रमण करते हैं, मध्यवर्ती स्थितिमें नहीं। अन्तिम स्थितिकी प्राप्ति सुखस्वरूप बतायी जाती है और उन दोनोंके मध्यकी स्थिति दुःखरूप कही गयी है ।। ३४ ।।
खोटी बुद्धिवाला मूर्ख मनुष्य अपने कर्मोके शुभाशुभ परिणामकी कोई परवा न करके सुखसे सोता है; क्योंकि वह कम्बलसे ढके हुए पुरुषकी भाँति महान् अज्ञानसे आवृत रहता है।।
किंतु जिन्हें ज्ञानजनित सुख प्राप्त है, जो द्वन्द्ोंसे अतीत हैं तथा जिनमें मत्सरताका भी अभाव है, उन्हें अर्थ और अनर्थ कभी पीड़ा नहीं देते हैं | ३५ ।।
जो मूढताको तो लाँघ चुके हैं, परंतु जिनको ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, वे सुखकी परिस्थिति आनेपर अत्यन्त हर्षसे फूल उठते हैं और दुःखकी परिस्थितिमें अतिशय संतापका अनुभव करने लगते हैं ।। ३६ ।।
मूर्ख मनुष्य स्वर्गमें देवताओंकी भाँति सदा विषयसुखमें मग्न रहते हैं; क्योंकि उनका चित्त विषया-सक्तिके कीचड़में लथपथ होकर मोहित हो जाता है ।।
आरम्भमें आलस्य सुख-सा जान पड़ता है; परंतु वह अन्तमें दुःखदायी होता है और कार्यकौशल दुःख-सा लगता है; परंतु वह सुखका उत्पादक है। कार्यकुशल पुरुषमें ही लक्ष्मीसहित ऐश्वर्य निवास करता है, आलसीमें नहीं ।। ३८ ।।
अतः बुद्धिमान पुरुषको चाहिये कि सुख या दुःख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो-जो प्राप्त हो जाय, उसका हृदयसे स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे ।। ३९ ।।
शोकके हजारों स्थान हैं और भयके सैकड़ों स्थान हैं; किंतु वे प्रतिदिन मू्खोपर ही प्रभाव डालते हैं, विद्वानोंपर नहीं || ४० ।।
जो बुद्धिमान, ऊहापोहमें कुशल एवं शिक्षित बुद्धिवाला, अध्यात्मशास्त्रके श्रवणकी इच्छा रखनेवाला, किसीके दोष न देखनेवाला, मनको वशमें रखनेवाला और जितेन्द्रिय है, उस मनुष्यको शोक कभी छू भी नहीं सकता ।। ४१ ।।
विद्वान पुरुषको चाहिये कि वह इसी विचारका आश्रय लेकर मनको काम, क्रोध आदि शत्रुओंसे सुरक्षित रखते हुए उत्तम बर्ताव करे। जो उत्पत्ति और विनाशके तत्त्वको जानता है, उसे शोक छू नहीं सकता ।। ४२ ।।
जिसके कारण शोक, ताप अथवा दुःख हो, या जिसके कारण अधिक श्रम उठाना पड़े, वह दुःखका मूल कारण अपने शरीरका एक अड़ भी हो तो उसे त्याग देना चाहिये ।। ४३ ।।
मनुष्य जब किसी भी पदार्थमें ममत्व कर लेता है, तब वे ही सब उसके वैसे दुःखके कारण बन जाते हैं ।। ४४ ।।
वह कामनाओंमेंसे जिस-जिसका परित्याग कर देता है, वही उसके सुखकी पूर्ति करनेवाली हो जाती है। जो पुरुष कामनाओंका अनुसरण करता है, वह उन्हींके पीछे नष्ट हो जाता है || ४५ |।
संसारमें जो कुछ इस लोकके भोगोंका सुख है और जो स्वर्गका महान् सुख है, वे दोनों तृष्णाक्षयसे होनेवाले सुखकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हैं ।। ४६ ।।
मनुष्य बुद्धिमान् हो, मूर्ख हो अथवा शूरवीर हो, उसने पूर्वजन्ममें जैसा शुभ या अशुभ कर्म किया है, उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ता है ।। ४७ ।।
इस प्रकार जीवोंको प्रिय-अप्रिय और सुख-दुःखकी प्राप्ति बार-बार क्रमसे होती ही रहती है, इसमें संदेह नहीं है ।। ४८ ।।
ऐसी बुद्धिका आश्रय लेकर कामनाओंके त्यागरूपी गुणसे युक्त हुआ मनुष्य सुखसे रहता है; इसलिये सब प्रकारके भोगोंसे विरक्त होकर उन्हें पीठ-पीछे कर दे, अर्थात् उनसे विमुख हो जाय ।। ४९ |।
हृदयसे उत्पन्न होनेवाला यह काम हृदयमें ही पुष्ट होता है, फिर यही मृत्युका रूप धारण कर लेता है। क्योंकि (जब इसकी सिद्धिमें कोई बाधा आती है, तब) दिद्दानोंद्वारा यही प्राणियोंके शरीरके भीतर क्रोधके नामसे पुकारा जाता है || ५० ।।
कछुआ जैसे अपने अड्ञोंकी सब ओरसे समेट लेता है, उसी प्रकार यह जीव जब अपनी सब कामनाओंका संकोच कर देता है तब यह अपने विशुद्ध अन्तःकरणमें ही स्वयं प्रकाशस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है || ५१ ।।
जब यह किसीसे भय नहीं मानता और इससे भी किसीको भय नहीं होता; तथा जब यह किसी वस्तुको न तो चाहता है और न उससे द्वेष ही करता है, तब परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है || ५२ ।।
जब यह साधक सत्य और असत्य अर्थात् जगतके व्यक्त और अव्यक्त पदार्थोंका, शोक और हर्षका, भय और अभयका तथा प्रिय और अप्रिय आदि समस्त द्वद्धोंका परित्याग कर देता है, तब उसका चित्त शान्त हो जाता है ।। ५३ ।।
जब धैर्यसम्पन्न ज्ञानवान् पुरुष किसी भी प्राणीके प्रति मन, वाणी और क्रियाद्वारा पापपूर्ण बर्ताव नहीं करता, तब परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है ।। ५४ ।।
खोटी बुद्धिवाले मनुष्योंके लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो मनुष्यके जीर्ण (वृद्ध) हो जानेपर भी स्वयं कभी जीर्ण नहीं होती, तथा जो प्राणोंके साथ जानेवाला रोग बनकर रहती है, उस तृष्णाको जो त्याग देता है, उसीको सुख मिलता है ।। ५५ ।।
राजन्! इस विषयमें पिड्लाकी गायी हुई गाथाएँ सुनी जाती हैं, जिसके अनुसार चलकर संकटकालमें भी उसने सनातन धर्मको प्राप्त कर लिया था ॥। ५६ ।।
एक बार पिड़ला वेश्या बहुत देरतक संकेत स्थानपर बैठी रही, तब भी उसका प्रियतम उसके पास नहीं आया; इससे वह बड़े कष्टमें पड़ गयी, तथापि शान्त रहकर इस प्रकार विचार करने लगी ।। ५७ ।।
पिङ्गला बोली--मेरे सच्चे प्रियतम चिरकालसे मेरे निकट ही रहते हैं। मैं सदासे उनके साथ ही रहती आयी हूँ। वे कभी उन्मत्त नहीं होते; परंतु मैं ऐसी मतवाली हो गयी थी कि आजसे पहले उन्हें पहचान ही न सकी ।।
जिसमें एक ही खंभा और नौ दरवाजे हैं, उस शरीर-रूपी घरको आजसे मैं दूसरोंके लिये बंद कर दूँगी। यहाँ आनेवाले उस सच्चे प्रियतमको जानकर भी कौन नारी किसी हाड़-मांसके पुतलेको अपना प्राणवल्लभ मानेगी? ।।
अब मैं मोहनिद्रासे जग गयी हूँ और निरन्तर सजग हूँ--कामनाओंका भी त्याग कर चुकी हूँ। अतः वे नरकरूपी धूर्त मनुष्य कामका रूप धारण करके अब मुझे धोखा नहीं दे सकेंगे ।। ६० ।।
भाग्यसे अथवा पूर्वकृत शुभ कर्मोके प्रभावसे कभी-कभी अनर्थ भी अर्थरूप हो जाता है, जिससे आज निराश होकर मैं उत्तम ज्ञानसे सम्पन्न हो गयी हूँ। अब मैं अजितेन्द्रिय नहीं रही हूँ ।। ६१ ।।
वास्तवमें जिसे किसी प्रकारकी आशा नहीं है, वही सुखसे सोता है। आशाका न होना ही परम सुख है। देखो, आशाको निराशाके रूपमें परिणत करके पिड़ला सुखकी नींद सोने लगी ।। ६२ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन! ब्राह्मणके कहे हुए इन पूर्वोक्त तथा अन्य युक्तियुक्त वचनोंसे राजा सेनजित्का चित्त स्थिर हो गया। वे शोक छोड़कर सुखी हो गये और प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे ।। ६३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वनें ब्राह्मण और सेनजित्के संवादका कथनविषयक एक सौ चौहतत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ६६ श्लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ पचहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-40½ का हिन्दी अनुवाद)
“अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषका क्या कर्तव्य है, इस विषयमें पिताके प्रति पुत्रद्वारा ज्ञानका उपदेश”
राजा युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! समस्त भूतोंका संहार करनेवाला यह काल बराबर बीता जा रहा है, ऐसी अवस्थामें मनुष्य क्या करनेसे कल्याणका भागी हो सकता है? यह मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें ज्ञानी पुरुष पिता और पुत्रके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। तुम उस संवादको ध्यान देकर सुनो ।। २ ।।
कुन्तीकुमार! प्राचीन कालमें एक ब्राह्मण थे, जो सदा वेद-शास्त्रोंके स्वाध्यायमें तत्पर रहते थे। उनके एक पुत्र हुआ, जो गुणसे तो मेधावी था ही नामसे भी मेधावी था ।। ३ ।।
वह मोक्ष, धर्म और अर्थमें कुशल तथा लोकतत्त्वका अच्छा ज्ञाता था। एक दिन उस पुत्रने अपने स्वाध्याय-परायण पितासे कहा ।। ४ ।।
पुत्र बोला-पिताजी! मनुष्योंकी आयु तीव्र गतिसे बीती जा रही है। यह जानते हुए धीर पुरुषको क्या करना चाहिये? तात! आप मुझे उस यथार्थ उपायका उपदेश कीजिये, जिसके अनुसार मैं धर्मका आचरण कर सकूँ ।॥। ५ ।।
पिताने कहा--बेटा! द्विजको चाहिये कि वह पहले ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करते हुए सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करे; फिर गृहस्थाश्रममें प्रवेश करके पितरोंकी सद्गतिके लिये पुत्र पैदा करनेकी इच्छा करे। विधिपूर्वक त्रिविध अग्नियोंकी स्थापना करके यज्ञोंका अनुष्ठान करे। तत्पश्चात् वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करे। उसके बाद मौनभावसे रहते हुए संन्यासी होनेकी इच्छा करे ।। ६ ।।
पुत्रने कहा--पिताजी! यह लोक जब इस प्रकारसे मृत्युद्वारा मारा जा रहा है, जराअवस्थाद्वारा चारों ओरसे घेर लिया गया है, दिन और रात सफलतापूर्वक आयुक्षयरूप काम करके बीत रहे हैं--ऐसी दशामें भी आप धीरकी भाँति कैसी बात कर रहे हैं || ७ ।।
पिताने पूछा--बेटा! तुम मुझे भयभीत-सा क्यों कर रहे हो। बताओ तो सही, यह लोक किससे मारा जा रहा है, किसने इसे घेर रखा है और यहाँ कौन-से ऐसे व्यक्ति हैं जो सफलतापूर्वक अपना काम करके व्यतीत हो रहे हैं ।। ८ ।।
पुत्रने कहा--पिताजी! देखिये, यह सम्पूर्ण जगत् मृत्युके द्वारा मारा जा रहा है। बुढ़ापेने इसे चारों ओरसे घेर लिया है और ये दिन-रात ही वे व्यक्ति हैं जो सफलतापूर्वक प्राणियोंकी आयुका अपहरणस्वरूप अपना काम करके व्यतीत हो रहे हैं, इस बातको आप समझते क्यों नहीं हैं? ।। ९ ।।
ये अमोघ रात्रियाँ नित्य आती हैं और चली जाती हैं। जब मैं इस बातको जानता हूँ कि मृत्यु क्षणभरके लिये भी रुक नहीं सकती और मैं उसके जालमें फँसकर ही विचर रहा हूँ, तब मैं थोड़ी देर भी प्रतीक्षा कैसे कर सकता हूँ? ।। १० ।।
जब-जब एक-एक रात बीतनेके साथ ही आयु बहुत कम होती चली जा रही है, तब छिछले जलमें रहनेवाली मछलीके समान कौन सुख पा सकता है? ।।
जिस रातके बीतनेपर मनुष्य कोई शुभ कर्म न करे, उस दिनको दिद्वान् पुरुष “व्यर्थ ही गया” समझे। मनुष्यकी कामनाएँ पूरी भी नहीं होने पातीं कि मौत उसके पास आ पहुँचती है ।। १२ ।।
जैसे घास चरते हुए भेंड़ेके पास अचानक व्याप्री पहुँच जाती है और उसे दबोचकर चल देती है, उसी प्रकार मनुष्यका मन जब दूसरी ओर लगा होता है, उसी समय सहसा मृत्यु आ जाती है और उसे लेकर चल देती है ।। १३ ।।
इसलिये जो कल्याणकारी कार्य हो, उसे आज ही कर डालिये। आपका यह समय हाथसे निकल न जाय; क्योंकि सारे काम अधूरे ही पड़े रह जायँगे और मौत आपको खींच ले जायगी || १४ ।।
कल किया जानेवाला काम आज ही पूरा कर लेना चाहिये। जिसे सायंकालमें करना है उसे प्रातःकालमें ही कर लेना चाहिये; क्योंकि मौत यह नहीं देखती कि इसका काम अभी पूरा हुआ या नहीं ।। १५ ।।
कौन जानता है कि किसका मृत्युकाल आज ही उपस्थित होगा? सम्पूर्ण जगत्पर प्रभुत्व रखनेवाली मृत्यु जब किसीको हरकर ले जाना चाहती है तो उसे पहलेसे निमन्त्रण नहीं भेजती है। जैसे मछुवारे चुपकेसे आकर मछलियोंको पकड़ लेते हैं, उसी प्रकार मृत्यु भी अज्ञात रहकर ही आक्रमण करती है ।।
अतः युवावस्थामें ही सबको धर्मका आचरण करना चाहिये; क्योंकि जीवन निःसंदेह अनित्य है। धर्माचरण करनेसे इस लोकमें मनुष्यकी कीर्तिका विस्तार होता है और परलोकमें भी उसे सुख मिलता है ।।
जो मनुष्य मोहमें डूबा हुआ है, वही पुत्र और स्त्रीके लिये उद्योग करने लगता है, और करने तथा न करने योग्य काम करके इन सबका पालन-पोषण करता है ।। १७ ।।
जैसे सोये हुए मृगको बाघ उठा ले जाता है, उसी प्रकार पुत्र और पशुओंसे सम्पन्न एवं उन्हींमें मनको फँसाये रखनेवाले मनुष्यको एक दिन मृत्यु आकर उठा ले जाती है ।। १८ ।।
जबतक मनुष्य भोगोंसे तृप्त नहीं होता, संग्रह ही करता रहता है, तभीतक ही उसे मौत आकर ले जाती है। ठीक वैसे ही, जैसे व्याप्र किसी पशुको ले जाता है ।।
मनुष्य सोचता है कि यह काम पूरा हो गया, यह अभी करना है और यह अधूरा ही पड़ा है--इस प्रकार चेष्टाजनित सुखमें आसक्त हुए मानवको काल अपने वशमें कर लेता है || २० ।।
मनुष्य अपने खेत, दूकान और घरमें ही फँसा रहता है, उसके किये हुए उन कर्मोंका फल मिलने भी नहीं पाता, उसके पहले ही उस कर्मासक्त मनुष्यको मृत्यु उठा ले जाती है ।। २१ ||
कोई दुर्बल हो या बलवान, शूरवीर हो या डरपोक तथा मूर्ख हो या विद्वान, मृत्यु उसकी समस्त कामनाओंके पूर्ण होनेसे पहले ही उसे उठा ले जाती है || २२ ।।
पिताजी! जब इस शरीरमें मृत्यु, जरा, व्याधि और अनेक कारणोंसे होनेवाले दुःखोंका आक्रमण होता ही रहता है, तब आप स्वस्थ-से होकर क्यों बैठे हैं? || २३ ।।
देहधारी जीवके जन्म लेते ही अन्त करनेके लिये मौत और बुढ़ापा उसके पीछे लग जाते हैं। ये समस्त चराचर प्राणी इन दोनोंसे बँधे हुए हैं । २४ ।।
ग्राम या नगरमें रहकर जो स्त्री-पुत्र आदिमें आसक्ति बढ़ायी जाती है, यह मृत्युका मुख ही है और जो वनका आश्रय लेता है, यह इन्द्रियरूपी गौओंको बाँधनेके लिये गोशालाके समान है, यह श्रुतिका कथन है ।।
ग्राममें रहनेपर वहाँके स्त्री-पुत्र आदि विषयोंमें जो आसक्ति होती है, यह जीवको बाँधनेवाली रस्सीके समान है। पुण्यात्मा पुरुष ही इसे काटकर निकल पाते हैं। पापी पुरुष इसे नहीं काट पाते हैं || २६ ।।
जो मनुष्य मन, वाणी और शरीररूपी साधनोंद्वारा प्राणियोंकी हिंसा नहीं करता, उसकी भी जीवन और अर्थका नाश करनेवाले हिंसक प्राणी हिंसा नहीं करते हैं || २७ ।।
सत्यके बिना कोई भी मनुष्य सामने आते हुए मृत्युकी सेनाका कभी सामना नहीं कर सकता; इसलिये असत्यको त्याग देना चाहिये। क्योंकि अमृतत्व सत्यमें ही स्थित है || २८ ।।
अतः मनुष्यको सत्यव्रतवका आचरण करना चाहिये। सत्ययोगमें तत्पर रहना और शास्त्रकी बातोंको सत्य मानकर श्रद्धापूर्वक सदा मन और इन्द्रियोंका संयम करना चाहिये। इस प्रकार सत्यके द्वारा ही मनुष्य मृत्युपर विजय पा सकता है ।। २९ |।
अमृत और मृत्यु दोनों इस शरीरमें ही स्थित हैं। मनुष्य मोहसे मृत्युको और सत्यसे अमृतको प्राप्त होता है ।। ३० ।।
अतः अब मैं हिंसासे दूर रहकर सत्यकी खोज करूँगा, काम और क्रोधको हृदयसे निकालकर दुःख और सुखमें समान भाव रखूँगा तथा सबके लिये कल्याणकारी बनकर देवताओंके समान मृत्युके भयसे मुक्त हो जाऊँगा ।। ३१ ।।
मैं निवृत्तिपरायण होकर शान्तिमय यज्ञमें तत्पर रहूँगा, मन और इन्द्रियोंको वशमें रखकर ब्रह्मयज्ञ (वेद-शास्त्रोंके स्वाध्याय)-में लग जाऊँगा और मुनिवृत्तिसे रहूँगा। उत्तरायणके मार्गसे जानेके लिये मैं जप और स्वाध्यायरूप वाग्यज्ञ, ध्यानरूप मनोयज्ञ और अन्निहोत्र एवं गुरुशुश्रूषादिरूप कर्मयज्ञका अनुष्ठान करूँगा ।। ३२ ।।
मेरे-जैसा विद्वान् पुरुष नश्वर फल देनेवाले हिंसायुक्त पशुयज्ञ और पिशाचोंके समान अपने शरीरके ही रक्त-मांसद्वारा किये जानेवाले तामस यज्ञोंका अनुष्ठान कैसे कर सकता है? ।। ३३ ।।
जिसकी वाणी और मन दोनों सदा भलीभाँति एकाग्र रहते हैं तथा जो त्याग, तपस्या और सत्यसे सम्पन्न होता है, वह निश्चय ही सब कुछ प्राप्त कर सकता है ।। ३४ ।।
संसारमें विद्या (ज्ञान)-के समान कोई नेत्र नहीं है, सत्यके समान कोई तप नहीं है, आसक्ति एवं क्रोधके समान कोई दुःख नहीं है और त्यागके समान कोई सुख नहीं है ।। ३५ ||
मैं संतानरहित होनेपर भी परमात्मामें ही परमात्मा-द्वारा उत्पन्न हुआ हूँ, परमात्मामें ही स्थित हूँ। आगे भी आत्मामें ही लीन होऊँगा। संतान मुझे पार नहीं उतारेगी ।। ३६ ।।
परमात्माके साथ एकता तथा समता, सत्यभाषण, सदाचार, ब्रह्मनिष्ठा, दण्डका परित्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकारके सकाम कर्मोंसे उपरति--इनके समान ब्राह्मणके लिये दूसरा कोई धन नहीं है ।।
ब्राह्मणदेव पिताजी! जब आप एक दिन मर ही जायूँगे तो आपको इस धनसे क्या लेना है अथवा भाई-बन्धुओंसे आपका क्या काम है तथा स्त्री आदिसे आपका कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है? आप अपने हृदयरूपी गुफामें स्थित हुए परमात्माको खोजिये। सोचिये तो सही, आपके पिता और पितामह कहाँ चले गये? ।। ३८ ।।
भीष्मजी कहते हैं--नरेश्वर! पुत्रका यह वचन सुनकर पिताने जैसे सत्य-धर्मका अनुष्ठान किया था, उसी प्रकार तुम भी सत्य-धर्ममें तत्पर रहकर यथायोग्य बर्ताव करो ।। ३९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें पिता और पुत्रके संवादका कथनविषयक एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १½ शलोक मिलाकर कुल ४०½ श्लोक हैं)
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