सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ उनहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“गौतमका समुद्रकी ओर प्रस्थान और संध्याके समय एक दिव्य बकपक्षीके घरपर अतिथि होना”
भीष्मजी कहते हैं--भारत! जब रात बीती, सबेरा हुआ और वह श्रेष्ठ ब्राह्मण वहाँसे चला गया, तब गौतम भी घर छोड़कर समुद्रकी ओर चल दिया ।। १ ।।
रास्तेमें उसने देखा कि समुद्रके आस-पास रहनेवाले कुछ व्यापारी वैश्य ठहरे हुए हैं। वह उन्हींके दलके साथ हो लिया और समुद्रकी ओर जाने लगा ।। २ ।।
राजन! वैश्योंका वह महान् दल किसी पर्वतकी गुफामें डेरा डाले हुए था। इतनेहीमें एक मतवाले हाथीने उसपर आक्रमण कर दिया। उस दलके अधिकांश मनुष्य उसके द्वारा मारे गये ।। ३ ।।
गौतम ब्राह्मण किसी तरह उस भयसे छूट तो गया; परंतु उस घबराहटमें वह यह निर्णय न कर सका कि मुझे किस दिशामें जाना है? अपने प्राण बचानेके लिये वह उत्तर दिशाकी ओर भाग चला ।। ४ ||
व्यापारियोंके दलका साथ छूट गया, अतः उस देशसे भी भ्रष्ट होकर वह अकेला ही उस वनमें विचरने लगा; मानो कोई किंपुरुष घूम रहा हो ।। ५ ।।
उस समय समुद्रकी ओर जानेवाला एक मार्ग उसे मिल गया और उसीको पकड़कर वह दिव्य एवं रमणीय वनमें जा पहुँचा। वहाँके सभी वृक्ष सुन्दर फूलोंसे सुशोभित थे।।
सभी ऋतुओंमें फ़ूलने-फलनेवाली आग्रवृक्षोंकी पंक्तियाँ उस वनकी शोभा बढ़ा रही थीं। यक्षों और किन्नरोंसे सेवित वह प्रदेश नन्दनवनके समान मनोरम जान पड़ता था।।७।।
शाल, ताल, तमाल, काले अगुरुके वन तथा श्रेष्ठ चन्दनके वृक्ष उस वनको सुशोभित करते थे। वहाँके रमणीय और सुगन्धित पर्वतीय समतल प्रदेशोंमें चारों ओर उत्तमोत्तम पक्षी कलरव कर रहे थे ।। ८६ ।।
कहीं मनुष्योंके समान मुखवाले “भारुण्ड' नामक पक्षी बोलते थे। कहीं समुद्रतट और पर्वतोंपर रहनेवाले भूलिड़ पक्षी तथा अन्य विहंगम चहचहा रहे थे ।। ९३ ।।
पक्षियोंके उन मधुर मनोहर एवं रमणीय कलरवोंको सुनता हुआ गौतम ब्राह्मण आगे बढ़ता चला गया ।। १०३ ||
नरेश्वरर तदनन्तर उन रमणीय प्रदेशोंमेंसे एक ऐसे स्थानपर जो सुवर्णमयी बालुकाराशिसे व्याप्त, समतल, सुखद, विचित्र तथा स्वर्गीय भूमिके समान मनोहर था, गौतमने एक अत्यन्त शोभायमान बरगदका विशाल वृक्ष देखा, जो चारों ओर मण्डलाकार फैला हुआ था। अपनी बहुत-सी सुन्दर शाखाओंके कारण वह वृक्ष एक महान् छत्रके समान जान पड़ता था। उसकी जड़ चन्दनमिश्रित जलसे सींची गयी थी ।। ११-१३ ।।
ब्रह्माजीकी सभाके समान शोभा पानेवाला वह वृक्ष दिव्य पुष्पोंसे सुशोभित था। उस परम उत्तम मनोरम वटवृक्षको देखकर गौतमको बड़ी प्रसन्नता हुई ।। १४ ।।
वह पवित्र, देवगृहके समान सुन्दर और खिले हुए वृक्षोंसे घिरा हुआ था। उस वृक्षके पास जाकर वह बड़े हर्षके साथ उसके नीचे छायामें बैठा ।। १५ ।।
कुन्तीनन्दन! गौतमके वहाँ बैठते ही फ़ूलोंका स्पर्श करके सुन्दर-मन्द-सुगन्ध वायु चलने लगी, जो बड़ी ही सुखद और कल्याणप्रद जान पड़ती थी। नरेश्वर! वह गौतमके सम्पूर्ण अड्ञोंको आह्वाद प्रदान कर रही थी ।। १६ ।।
उस पवित्र वायुका स्पर्श पाकर गौतमको बड़ी शान्ति मिली। वह सुखका अनुभव करता हुआ वहीं लेट गया। उधर सूर्य भी डूब गया ।। १७ ।।
तदनन्तर, सूर्यके अस्ताचलको चले जानेके पश्चात् संध्याकाल उपस्थित होनेपर ब्रह्मलोकसे वहाँ एक श्रेष्ठ पक्षी आया। वह वृक्ष ही उसका घर या वासस्थान था ।। १८ ।।
वह महर्षि कश्यपका पुत्र और ब्रह्माजीका प्रिय सखा था। उसका नाम था नाडीजड़। वह बगुलोंका राजा और महाबुद्धिमान् था || १९ ।।
वह अनुपम पक्षी इस भूतलपर राजधर्माके नामसे विख्यात था। देवकन्यासे उत्पन्न होनेके कारण उसके शरीरकी कान्ति देवताके समान थी। वह बड़ा विद्वान् था और दिव्य तेजसे सम्पन्न दिखायी देता था | २० ।।
उसके अङ्गोंमे सूर्ययेवकी किरणोंके समान चमकीले आभूषण शोभा देते थे। वह देवकुमार अपने सभी अङ्गोंमे विशुद्ध एवं दिव्य आभरणोंसे विभूषित हो दिव्य दीप्तिसे देदीप्यमान होता था | २१ ।
उस पक्षीको आया देख गौतम आश्वर्यसे चकित हो उठा। उस समय वह भूखा-प्यासा तो था ही, रास्ता चलनेकी थकावटसे भी चूर-चूर हो रहा था। अतः राजधर्माको मार डालनेकी इच्छासे उसकी ओर देखा ।। २२ ।।
राजधर्मा (पास आकर) बोला--विप्रवर! आपका स्वागत है। यह मेरा घर है। आप यहाँ पधारे, यह मेरे लिये बड़े सौभाग्यकी बात है। सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये। यह संध्याकाल उपस्थित है || २३ ।।
आप मेरे घर आये हुए प्रिय एवं उत्तम अतिथि हैं। मैं शास्त्रीय विधिके अनुसार आज आपकी पूजा करूँगा। रातमें मेरा आतिथ्य स्वीकार करके कल प्रातःकाल यहाँसे जाइयेगा ।। २४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कृतघ्नका उपाख्यानविषयक एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ सत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)
“गौतमका राजधर्माद्वारा आतिथ्यसत्कार और उसका राक्षसराज विरूपाक्षके भवनमें प्रवेश”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! पक्षीकी वह मधुर वाणी सुनकर गौतमको बड़ा आश्चर्य हुआ। वह कौतूहलपूर्ण दृष्टिसे राजधर्माकी ओर देखने लगा ।। १ ।।
राजधर्मा बोला--द्विजश्रेष्ठ! मैं महर्षि कश्यपका पुत्र हूँ। मेरी माता दक्ष प्रजापतिकी कन्या हैं। आप गुणवान् अतिथि हैं, मैं आपका स्वागत करता हूँ ।। २ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि!! ऐसा कहकर राजधर्माने शास्त्रीय विधिके अनुसार गौतमका सत्कार किया। शालके फ़ूलोंका आसन बनाकर उसे बैठनेके लिये दिया ।। ३।।
राजा भगीरथके रथसे आक्रान्त हुए जिन भूभागोंमें श्रीगज़ाजी प्रवाहित होती हैं, वहाँ गड़ाजीके जलमें जो बड़े-बड़े मत्स्य विचरते हैं, उन्हींमेंसे कुछ मत्स्योंको लाकर राजधर्माने गौतमके लिये भोजनकी व्यवस्था की ।। ४ ।।
कश्यपके उस पुत्रने अग्नि प्रजजलित कर दी और मोटे-मोटे मत्स्य लाकर अपने अतिथि गौतमको अर्पित कर दिये ।। ५ ।।
वह ब्राह्मण उन मत्स्योंको पकाकर जब खा चुका और उसकी अनन््तरात्मा तृप्त हो गयी, तब वह महातपस्वी पक्षी उसकी थकावट दूर करनेके लिये अपने पंखोंसे हवा करने लगा | ६ |।
विश्रामके पश्चात् जब वह बैठा, तब राजधर्माने उससे गोत्र पूछा। गौतमने कहा--“मेरा नाम गौतम है और मैं जातिसे ब्राह्मण हूँ।/ इससे अधिक कोई बात वह बता न सका ।। ७ ||
तब पक्षीने उसके लिये पत्तोंका दिव्य बिछावन तैयार किया, जो फूलोंसे अधिवासित होनेके कारण सुगन्धसे मँह-मँह महक रहा था। वह बिछावन उसे दिया और गौतम उसपर सुखपूर्वक सोया ।। ८ ।।
धर्मराज! जब गौतम उस बिछौनेपर बैठा तब बात-चीतमें कुशल कश्यपकुमारने पूछा --“ब्रह्मम! आप इधर किसलिये आये हैं? || ९ ।।
भारत! तब गौतमने उससे कहा--“महामते! मैं दरिद्र हूँ और धनके लिये समुद्रतटपर जानेकी इच्छा लेकर घरसे चला हूँ” || १० ।।
यह सुनकर राजधमनि प्रसन्न होकर कहा--(द्विजश्रेष्ठ] अब आप वहाँतक जानेके लिये उत्सुक न हों, यहीं आपका काम हो जायगा। आप यहींसे धन लेकर अपने घरको जाइयेगा ।। ११ ।।
'प्रभो! बृहस्पतिजीके मतके अनुसार अर्थकी सिद्धि चार प्रकारसे होती है-वंशपरम्परासे, प्रारब्धकी अनुकूलतासे, धनके लिये किये गये सकामकर्मसे और मित्रके सहयोगसे ।। १२ ।।
“मैं आपका मित्र हो गया हूँ, आपके प्रति मेरा सौहार्द बढ़ गया है; अतः मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे आपको अर्थकी प्राप्ति हो जायगी” ।। १३ ।।
तदनन्तर! जब प्रातःकाल हुआ तब राजधर्मने ब्राह्मणके सुखका उपाय सोचकर इस प्रकार कहा--'सौम्य! इस मार्गसे जाइये, आपका कार्य सिद्ध हो जायगा। यहाँसे तीन योजन दूर जानेपर जो नगर मिलेगा, वहाँ महाबली राक्षसराज विरूपाक्ष रहते हैं, वे मेरे महान् मित्र हैं ।।
'द्विजश्रेष्ठल आप उनके पास जाइये। वे मेरे कहनेसे आपको यशथेष्ट धन देंगे और आपकी मनोवाजञ्छित कामनाएँ पूर्ण करेंगे, इसमें संशय नहीं है” || १६ ।।
राजन्! उसके ऐसा कहनेपर गौतम वहाँसे चल दिया। उसकी सारी थकावट दूर हो चुकी थी। महाराज! मार्गमें तेजपातोंके वनमें, जहाँ चन्दन और अगुरुके वृक्षोंकी प्रधानता थी, विश्राम करता और इच्छानुसार अमृतके समान मधुर फल खाता हुआ वह बड़ी तेजीसे आगे बढ़ता चला गया ।। १७-१८ ||
चलते-चलते वह मेरुवब्रज नामक नगरमें जा पहुँचा, जिसके चारों ओर पर्वतोंके टीले और पर्वतोंकी ही चहारदीवारी थी। उसका सदर फाटक भी एक पर्वत ही था। नगरकी रक्षाके लिये सब ओर शिलाकी बड़ी-बड़ी चट्टानें और मशीनें थीं ।। १९ ।।
परम बुद्धिमान राक्षसराज विरूपाक्षको सेवकोंद्वारा यह सूचना दी गयी कि राजन! आपके मित्रने अपने एक प्रिय अतिथिको आपके पास भेजा है, वह बहुत प्रसन्न है || २० ।।
युधिष्ठिर! यह समाचार पाते ही राक्षसराजने अपने सेवकोंसे कहा--“गौतमको नगरद्वारसे शीघ्र यहाँ लाया जाय” || २१ ।।
यह आदेश प्राप्त होते ही राजसेवक गौतमको पुकारते हुए बाजकी तरह झपटकर उस श्रेष्ठ नगरके फाटकपर आये |। २२ ||
महाराज! राजाके उन सेवकोंने उस समय उस ब्राह्मणसे कहा--'ब्रह्मन! जल्दी कीजिये। शीघ्र आइये। महाराज आपसे मिलना चाहते हैं || २३ ।।
“विरूपाक्ष नामसे प्रसिद्ध वीर राक्षलराज आपको देखनेके लिये उतावले हो रहे हैं; अतः आप शीघ्रता कीजिये” || २४ ।।
बुलावा सुनते ही गौतमकी थकावट दूर हो गयी। वह विस्मित होकर दौड़ पड़ा। राक्षसराजकी उस महा-समृद्धिको देखकर उसे बड़ा आश्चर्य होता था ।। २५ ।।
राक्षसराजके दर्शनकी इच्छा मनमें लिये वह ब्राह्मण उन सेवकोंके साथ शीघ्र ही राजमहलमें जा पहुँचा || २६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कृतघ्नका उपाख्यानविषयक एक सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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