सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ छाछठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ छाछठवें अध्याय के श्लोक 1-89½ का हिन्दी अनुवाद)
“खड्गकी उत्पत्ति और प्राप्ति की परम्परा की महिमा का वर्णन”
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कथाप्रसड़की समाप्तिके समय अवसर पाकर खड्गयुद्धविशारद नकुलने बाणशय्यापर सोये हुए पितामह भीष्मसे इस प्रकार प्रश्न किया ।। १ |।
नकुल बोले--धर्मज्ञ पितामह! यद्यपि इस जगत्में धनुष अत्यन्त श्रेष्ठ अस्त्र समझा जाता है, तथापि मुझे तो अत्यन्त तीखा खड्ग ही अच्छा जान पड़ता है ।। २ ।।
राजन्! जब धनुष टूट जाय और घोड़े भी नष्ट हो जायँ तब भी युद्धस्थलमें खड्गके द्वारा अपने शरीरकी भलीभाँति रक्षा की जा सकती है ।। ३ ।।
एक ही खड़्गधारी वीर धनुष, गदा और शक्ति धारण करनेवाले बहुत-से योद्धाओंको बाधा देनेमें समर्थ है ।। ४ ।।
पृथ्वीनाथ! इस विषयमें मेरे मनमें संशय और अत्यन्त कौतूहल भी हो रहा है कि सम्पूर्ण युद्धोंमें कौन-सा आयुध श्रेष्ठ है? ।। ५ ।।
पितामह! खड्गकी उत्पत्ति कैसे और किस प्रयोजनके लिये हुई? किसने इसे उत्पन्न किया? खड्गयुद्धका प्रथम आचार्य कौन था? यह सब मुझे बताइये ।। ६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--भरतनन्दन! जनमेजय! बुद्धिमान् माद्रीपुत्र नकुलकी वह बात कौशलयुक्त तो थी ही, सूक्ष्म तथा विचित्र अर्थसे भी सम्पन्न थी। उसे सुनकर बाणशय्यापर सोये हुए धनुर्वेदके पारड्गत विद्वान् धर्मज्ञ भीष्मने शिक्षाप्राप्त महामनस्वी द्रोणशिष्य नकुलको सुन्दर स्वर एवं वर्णोसे युक्त वाणीमें इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया ।। ७-९ |।
भीष्मजीने कहा--माद्रीनन्दन! तुम जो यह प्रश्न कर रहे हो, इसका तत्त्व सुनो। मैं तो खूनसे लथपथ हो गेरूधातुसे रँँगे हुए पर्वतके समान पड़ा हुआ था। तुमने यह प्रश्न करके मुझे जगा दिया ।। १० ।।
तात! पूर्वकालमें यह सम्पूर्ण जगत् जलके एकमात्र महासागरके रूपमें था। उस समय इसमें कम्पन नहीं था। आकाशका पता नहीं था। भूतलका कहीं नाम भी नहीं था ।। ११ ।।
सब कुछ अन्धकारसे आवृत था। शब्द और स्पर्शका भी अनुभव नहीं होता था। वह एकार्णव देखनेमें बड़ा गम्भीर था। उसकी कहीं सीमा नहीं थी, उसीमें पितामह ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ ।। १२ ।।
उन शक्तिशाली पितामहने वायु, अग्नि और सूर्यकी सृष्टि की। आकाश, ऊपर, नीचे, भूमि तथा राक्षससमूहकी भी रचना की ।। १३ ।।
चन्द्रमा तथा तारोंसहित आकाश, नक्षत्र, ग्रह, संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, लव और क्षणोंकी सृष्टि भी उन्होंने ही की || १४ ।।
तदनन्तर भगवान् ब्रह्माने लौकिक शरीर धारण करके मुनिवर मरीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ, अड्धिरा तथा स्वभाव एवं ऐश्वर्यसे सम्पन्न रुद्र--इन तेजस्वी पुत्रोंको उत्पन्न किया ।। १५-१६ ।।
प्रचेताओंके पुत्र दक्षने साठ कन्याओको जन्म दिया। उन सबको प्रजाकी उत्पत्तिके लिये ब्रद्मर्षियोंने पत्नीरूपमें प्राप्त किया || १७ ।।
उन्हीं कन्याओंसे समस्त प्राणी, देवता, पितर, गन्धर्व, अप्सरा, नाना प्रकारके राक्षस, पशु, पक्षी, मत्स्य, वानर, बड़े-बड़े नाग, जल और स्थलमें विचरनेवाले सब प्रकारके पक्षिगण, उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज प्राणी उत्पन्न हुए। तात! इस प्रकार सम्पूर्ण स्थावर-जड़म जगत् उत्पन्न हुआ || १८--२० ।।
सर्वलोकपितामह ब्रह्माने इन समस्त प्राणियोंकी सृष्टि करके उनके ऊपर वेदोक्त सनातनधर्मके पालनका भार रखा ।। २१ ||
आचार्य और पुरोहितगणोंसहित देवता, आदित्य, वसुगण, रुद्रगण, साध्यगण, मरुदगण तथा अश्विनीकुमार--ये सभी उस सनातन धर्ममें प्रतिष्ठित हुए || २२ ।।
भृगु, अत्रि और अड्जिरा-ये सिद्ध मुनि, तपस्याके धनी काश्यपगण, वसिष्ठ, गौतम, अगस्त्य, देवर्षि नारद, पर्वत, वालखिल्य ऋषि, प्रभास, सिकत, घृतप (घी पीकर रहनेवाले), सोमप (सोमपान करनेवाले), वायव्य (वायु पीकर रहनेवाले), मरीचिप (सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले) और वैश्वानर तथा अकृष्ट (बिना जोते-बोये उत्पन्न हुए अन्नसे जीविका चलानेवाले), हंसमुनि (संन्यासी), अग्निसे उत्पन्न होनेवाले ऋषिगण, वानप्रस्थ और पृश्रिगण--ये सभी महात्मा ब्रह्माजीकी आज्ञाके अधीन रहकर सनातनधर्मका पालन करने लगे || २३-२५ ।।
परंतु दानवेश्वरोंने क्रोध और लोभसे युक्त हो ब्रह्माजीकी उस आज्ञाका उल्लंघन करके धर्मको हानि पहुँचाना आरम्भ किया ।। २६ |।
हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, विरोचन, शम्बर, विप्रचित्ति, विराध, नमुचि और बलि--ये तथा और भी बहुत-से दैत्य और दानव अपने दलके साथ धर्ममर्यादाका उल्लड्घन करके अधर्म करनेका ही दृढ़ निश्चय लेकर आमोद-प्रमोदमें जीवन व्यतीत करने लगे ।। २७-२८ ।।
वे सभी दैत्य कहते थे कि “हम और देवता एक ही जातिके हैं; अत: जैसे देवता हैं वैसे हम हैं।” इस प्रकार जातीय धर्मका आश्रय लेकर दैत्यगण देवर्षियोंके साथ स्पर्धा रखने लगे ।। २९ |।
भरतनन्दन! वे न तो प्राणियोंका प्रिय करते थे और न उनपर दयाभाव ही रखते थे। वे साम, दाम और भेद--इन तीनों उपायोंको लाँचकर केवल दण्डके द्वारा समस्त प्रजाओंको पीड़ा देने लगे ।।
वे असुरश्रेष्ठ घमण्डमें भरकर उन प्रजाओंके साथ बातचीत भी नहीं करते थे। तदनन्तर ब्रह्मर्षियोंसहित भगवान् ब्रह्मा हिमालयके सुरम्य शिखरपर उपस्थित हुए। वह इतना ऊँचा था कि आकाशके तारे उसपर विकसित कमलके समान जान पड़ते थे। उसका विस्तार सौ योजनका था। वह मणियों तथा रत्नसमूहोंसे व्याप्त था || ३१-३२ ।।
बेटा नकुल! जहाँके वृक्ष और वन फूलोंसे भरे हुए थे, उस श्रेष्ठ पर्वतशिखरपर सुरश्रेष्ठ ब्रह्माजी सम्पूर्ण जगत्का कार्य सिद्ध करनेके लिये ठहर गये ।। ३३ ।।
तदनन्तर कई सहस्र वर्ष व्यतीत होनेपर भगवान ब्रह्माने शास्त्रोक्त विधिके अनुसार वहाँ एक यज्ञ आरम्भ किया। यज्ञकुशल महर्षियों तथा अन्य कार्यकर्ताओंने यथावत् विधिके अनुसार उस यज्ञका सम्पादन किया। वहाँ यज्ञवेदियोंपर समिधाएँ फैली हुई थीं। जगहजगह अग्निदेव प्रज्वलित हो रहे थे। चमचमाते हुए सुवर्णनिर्मित यज्ञपात्र यज्ञमण्डपकी शोभा बढ़ाते थे। वह यज्ञमण्डल श्रेष्ठ देवताओं तथा सभासद् बने हुए महर्षियोंसे सुशोभित होता था | ३४-३६३ ।।
उस समय वहाँ एक अत्यन्त भयंकर घटना घटित हुई, जिसे मैंने ऋषियोंके मुँहसे सुना था। जैसे ताराओंके उगनेपर निर्मल आकाशमें चन्द्रमाका उदय हो, उसी प्रकार उस यज्ञमण्डपमें अग्निको इधर-उधर बिखेरकर एक भयंकर भूत प्रकट हुआ, ऐसा सुना जाता है || ३७-३८ ।।
उसके शरीरका रंग नीलकमलके समान श्याम था, दाढ़ें अत्यन्त तीखी दिखायी देती थीं; और उसका पेट अत्यन्त कृश था। वह बहुत ऊँचा, परम दुर्धर्ष और अमित तेजस्वी जान पड़ता था ।। ३९ ||
उसके उत्पन्न होते ही धरती डोलने लगी, समुद्र क्षुब्ध हो उठा और उसमें उत्ताल तरंगोंके साथ भँवरें उठने लगीं ।।
आकाशसे उल्काएँ गिरने लगीं, बड़े-बड़े उत्पात प्रकट होने लगे, वृक्ष स्वयं ही अपनी शाखाओंको गिराने लगे, सम्पूर्ण दिशाएँ अशान्त हो गयीं और अमड्नलकारी वायु प्रचण्ड वेगसे बहने लगी ।। ४१ ।।
सभी प्राणी भयके मारे बारंबार व्यथित हो उठते थे। उस भयानक भूतको उपस्थित हुआ देख पितामह ब्रह्माने महर्षियों, देवताओं तथा गन्धर्वोसे कहा-- ।। ४२३ ।।
“मैंने ही इस भूतका चिन्तन किया था। यह असि नामधारी प्रबल आयुध है। इसे मैंने सम्पूर्ण जगतकी रक्षा तथा देवद्रोही असुरोंके वधके लिये प्रकट किया है || ४३ ½ ।।
तत्पश्चात् वह भूत उस रूपको त्यागकर तीस अद्भुलसे कुछ बड़े खड़्गके रूपमें प्रकाशित होने लगा। उसकी धार बड़ी तीखी थी। वह चमचमाता हुआ खड्ग काल और अन्तकके समान उद्यत प्रतीत होता था ।। ४४ $ ।।
इसके बाद ब्रह्माजीने अधर्मका निवारण करनेमें समर्थ वह तीखी तलवार वृषभचिह्नित ध्वजावाले नीलकण्ठ भगवान् रुद्रको दे दी || ४५३६ ।।
उस समय महर्षिगण रुद्रदेवकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। तब अप्रमेयस्वरूप भगवान् रुद्रने वह तलवार लेकर एक-दूसरा चतुर्भुज रूप धारण किया जो भूतलपर खड़ा होकर भी अपने मस्तकसे सूर्यदेवका स्पर्श कर रहा था || ४६-४७ ।।
उसकी दृष्टि ऊपरकी ओर थी, वह महान् चिह्न धारण किये हुए था। मुखसे आगकी लपटें छोड़ रहा था और अपने अड़ोंसे नील, श्वेत तथा लोहित (लाल) अनेक प्रकारके रंग प्रकट कर रहा था ।। ४८ ।।
उसने काले मृगचर्मको वस्त्रके रूपमें धारण कर रक्खा था, जिसमें सुवर्णनिर्मित तारे जड़े हुए थे। वह अपने ललाटमें सूर्यके समान एक तेजस्वी नेत्र धारण करता था। उसके सिवा काले और पिड्ढलवर्णके दो अत्यन्त निर्मल नेत्र और शोभा पा रहे थे ।। ४९३ ।।
तदनन्तर भगदेवताके नेत्रोंका नाश करनेवाले महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न शूलपाणि भगवान् महादेव काल और अग्निके तुल्य तेजस्वी खड्गको तथा बिजलीसहित मेघके समान चमकीली तीन कोनोंवाली ढालको हाथमें लेकर भाँति-भाँतिके मार्गोंसे विचरने लगे; और युद्ध करनेकी इच्छासे वह तलवार आकाशमें घुमाने लगे || ५०-५१।।
भरतनन्दन! उस समय जोर-जोरसे गर्जते और महान् अट्टहास करते हुए रुद्रदेवका स्वरूप बड़ा भयंकर प्रतीत होता था || ५२३ ।।
भयानक कर्म करनेकी इच्छासे वैसा ही रूप धारण करनेवाले रुद्रदेवको देखकर समस्त दानव हर्ष और उत्साहमें भरकर उनके ऊपर टूट पड़े ।। ५३ $ ।।
कुछ लोग पत्थर बरसाने लगे, कुछ जलते लुआठे चलाने लगे, दूसरे भयंकर अस्त्रशस्त्रोंस काम लेने लगे और कितने ही लोहनिर्मित छुरोंकी तीखी धारोंसे चोट करने लगे || ५४ ६
तत्पश्चात् दानवदलने देखा कि देवसेनापतिका कार्य सँभालनेवाले उत्कट बलशाली रुद्रदेव युद्धसे पीछे नहीं हट रहे हैं, तब वे मोहित और विचलित हो उठे ।। ५५३ ।।
शीघ्रतापूर्वक पैर उठानेके कारण विचित्र गतिसे विचरण करनेवाले एकमात्र खड्गधारी रुद्रदेवको वे सब असुर सहस्रोंक समान समझने लगे ।। ५६३ ।।
जैसे सूखी लकड़ी और घास-फूँसमें लगा हुआ दावानल वनके समस्त वृक्षोंको जला देता है, उसी प्रकार भगवान् रुद्र शत्रुसमुदायमें दैत्योंको मारते-काटते, चीरते-फाड़ते, घायल करते, छेदते तथा विदीर्ण और धराशायी करते हुए विचरने लगे || ५७६ ।।
तलवारके वेगसे उन सबमें भगदड़ मच गयी। कितनोंकी भुजाएँ और जाँघें कट गयीं। बहुतोंके वक्ष:स्थल विदीर्ण हो गये और कितनोंके शरीरोंसे आँतें बाहर निकल आयीं। इस प्रकार वे महाबली दैत्य मरकर पृथ्वीपर गिर पड़े ।। ५८ $ ।।
दूसरे दानव तलवारकी चोटसे पीड़ित हो भाग खड़े हुए और एक-दूसरेको डाँट बताते हुए उन्होंने सम्पूर्ण दिशाओंकी शरण ली ।। ५९३ ।।
कितने ही धरतीमें घुस गये, बहुत-से पर्वतोंमें छिप गये, कुछ आकाशमें उड़ चले और दूसरे बहुत-से दानव पानीमें समा गये ।। ६० $ ।।
वह अत्यन्त दारुण महान् युद्ध आरम्भ होनेपर पृथ्वीपर रक्त और मांसकी कीच जम गयी। जिससे वह अत्यन्त भयंकर प्रतीत होने लगी ।। ६१ $ ||
महाबाहो! खूनसे लथपथ होकर गिरी हुई दानवोंकी लाशोंसे ढकी हुई यह भूमि पलाशके फूलोंसे युक्त पर्वत-शिखरोंद्वारा आच्छादित-सी जान पड़ती थी ।। ६२ $ ।।
दानवोंका वध करके जगतमें धर्मकी प्रधानता स्थापित करनेके पश्चात् भगवान् रुद्रदेवने उस रौद्ररूपको त्याग दिया। फिर वे कल्याणकारी शिव अपने मड़लमय रूपसे सुशोभित होने लगे || ६३ ई ।।
तत्पश्चात् सम्पूर्ण महर्षियों और देवताओंने उस अद्भुत विजयसे संतुष्ट हो देवाधिदेव महादेवकी पूजा की ।।
तदनन्तर भगवान् रुद्रने दानवोंके खूनसे रँगे हुए उस धर्मरक्षक खड्गको बड़े सत्कारके साथ भगवान् विष्णुके हाथमें दे दिया || ६५३ ।।
भगवान् विष्णुने मरीचिको, मरीचिने महर्षियोंको और महर्षियोंने इन्द्रको वह खड्ग प्रदान किया || ६६६ ।।
बेटा! फिर महेन्द्रने लोकपालोंको और लोकपालोंने सूर्य-पुत्र मननुको वह विशाल खड्ग दे दिया || ६७ ६ ।।
तलवार देकर उन्होंने मनुसे कहा--“तुम मनुष्योंके शासक हो; अतः इस धर्मगर्भित खड्गसे प्रजाका पालन करो || ६८ $ ||
“जो लोग स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीरको सुख देनेके लिये धर्मकी मर्यादाका उल्लंघन करें, उन्हें न्यायपूर्वक पृथक्-पृथक् दण्ड देना। धर्मपूर्वक समस्त प्रजाकी रक्षा करना, किसीके प्रति स्वेच्छाचार न करना। कटुवचनसे अपराधीका दमन करना :वाग्दण्ड' कहलाता है। जिसमें अपराधीसे बहुतसा सुवर्ण वसूल किया जाय, वह “अर्थदण्ड' कहलाता है। शरीरके किसी अड़विशेषका छेदन करना '“काय-दण्ड' कहा गया है। किसी महान् अपराधके कारण अपराधीका जो वध किया जाता है, वह “प्राणदण्ड” के रूपमें प्रसिद्ध है। ये चारों दण्ड तलवारके दुर्निवार या दुर्धर्ष रूप हैं। यह बात समस्त प्रजाको बता देनी चाहिये || ६९--७१ ।।
“जब प्रजाके द्वारा धर्मका उललड्घन हो जाय तो खड्गके द्वारा प्रमाणित (साधित) होनेवाले इन दण्डोंका यथायोग्य प्रयोग करके धर्मकी रक्षा करनी चाहिये।” ऐसा कहकर लोकपालोंने अपने पुत्र प्रजापालक मनुको विदा कर दिया। तत्पश्चात् मनुने प्रजाकी रक्षाके लिये वह खड्ग क्षुपको दे दिया। क्षुपसे इक्ष्वाकु और इक्ष्वाकुसे पुरूरवाने उस तलवारको ग्रहण किया || ७२-७३ |।
पुरूरवासे आयुने, आयुसे नहुषने, नहुषसे ययातिने और ययातिसे पूरुने इस भूतलपर वह खड़ग प्राप्त किया || ७४ ।।
पूरुसे अमूर्तरया, अमूर्तरयासे राजा भूमिशयने और भूमिशयसे दुष्यन्तकुमार भरतने उस खड्ग को ग्रहण किया ।। ७५ ।।
राजन! उनसे धर्मज्ञ ऐलविलने वह तलवार प्राप्त की। ऐलविलसे वह महाराज धुन्धुमारको मिली ।। ७६ ।।
धुन्धुमारसे काम्बोजने, काम्बोजसे मुचुकुन्दने, मुचुकुन्दसे मरुत्तने, मरुत्तसे रैवतने, रैवतसे युवनाश्वने, युवनाश्वसे इक्ष्वाकुवंशी रघुने, रघुसे प्रतापी हरिणाश्वने, हरिणाश्व॒से शुनकने, शुनकसे धर्मात्मा उशीनरने, उशीनरसे युदवंशी भोजने, यदुवंशियोंसे शिबिने, शिबिसे प्रतर्दनने, प्रतर्दनसे अष्टकने तथा अष्टकसे पृषदश्वने वह तलवार प्राप्त की || ७७-८० ||
पृषदश्चसे भरद्वाजवंशी द्रोणाचार्यने और द्रोणाचार्यसे कृपाचार्यने खड्गविद्या प्राप्त की। फिर कृपाचार्यसे भाइयों सहित तुमने उस उत्तम खड़्गका उपदेश प्राप्त किया है ।। ८१ ||
उस “असि' का नक्षत्र कृत्तिका है, देवता अग्नि है, गोत्र रोहिणी है तथा उत्तम गुरु रुद्रदेव हैं || ८२ ।।
पाण्डुनन्दन! असिके आठ गोपनीय नाम हैं। उन्हें मेरे मुँहले सुनो। उन नामोंका कीर्तन करनेवाला पुरुष युद्धमें विजय प्राप्त करता है ।। ८३ ।।
१. असि, २. विशसन, ३. खड्ग, ४. तीक्ष्णधार, ५. दुरासद, ६. श्रीगर्भ, ७. विजय और ८. धर्मपाल-ये ही वे आठ नाम हैं ।। ८४ ।।
माद्रीनन्दन! खड्ग सब आयुधोंमें श्रेष्ठ है। भगवान् रुद्रने सबसे पहले इसका संचालन किया था। पुराणमें इसकी श्रेष्ठताका निश्चय किया गया है। उपर्युक्त सारे नाम पुराणोंमें निश्चितरूपसे कहे गये हैं | ८५ ।।
शत्रुदमन पृथुने सबसे पहले धनुषका उत्पादन किया था और उन्होंने ही इस पृथ्वीसे नाना प्रकारके शस्यों (अन्नके बीजों) का दोहन किया था। उन वेनकुमार पृथुने पहलेके ही समान धर्मपूर्वक इस पृथ्वीकी रक्षा की थी ।। ८६ ।।
माद्रीनन्दन! यह ऋषियोंका बताया हुआ मत है। तुम्हें इसे प्रमाण मानकर इसपर विश्वास करना चाहिये। युद्धविशारद पुरुषोंको सदा ही खड़ग की पूजा करनी चाहिये ।। ८७ ।।
भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने असि (खड्ग) की उत्पत्ति का प्रसड़ तुम्हें विस्तारपूर्वक और यथावत््रूपसे बताया है। इससे यह सिद्ध हुआ कि खड्ग ही आयुधोंमें सबसे प्रथम प्रकट हुआ है ।। ८८ ।।
खड्गप्राप्तिका यह उत्तम प्रसड़ सब प्रकारसे सुनकर पुरुष इस संसारमें कीर्ति पाता है और देहत्यागके पश्चात् अक्षय सुखका भागी होता है || ८९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें खड॒गकी उत्पत्तिका कथनविषयक एक सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ½ “लोक मिलाकर कुल ८९½ “लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ सरसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सरसठवें अध्याय के श्लोक 1-51 का हिन्दी अनुवाद)
“धर्म, अर्थ और कामके विषयमें विदुर तथा पाण्डवोंके पृथक्-पृथक् विचार तथा अन्तमें युधिष्ठिरका निर्णय”
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! यह कहकर जब भीष्मजी चुप हो गये, तब राजा युधिष्ठिरने घर जाकर अपने चारों भाइयों तथा पाँचवें विदुरजीसे प्रश्न किया -- || १ ||
“लोगोंकी प्रवृत्ति प्राय: धर्म, अर्थ और कामकी ओर होती है। इन तीनोंमें कौन सबसे श्रेष्ठ कौन मध्यम और कौन लघु है?” ॥। २ ।।
“इन तीनोंपर विजय पानेके लिये विशेषत: किसमें मन लगाना चाहिये। आप सब लोग हर्ष और उत्साहके साथ इस प्रश्नका यथावत्रूपसे उत्तर दें और वही बात कहें, जिसपर आपकी पूरी आस्था हो” || ३ ।।
तब अर्थकी गति और तत्त्वको जाननेवाले प्रतिभाशाली विदुरजीने धर्मशास्त्रका स्मरण करके सबसे पहले कहना आरम्भ किया ।। ४ ।।
विदुरजी बोले--राजन्! बहुत-से शास्त्रोंका अनुशीलन, तपस्या, त्याग, श्रद्धा, यज्ञकर्म, क्षमा, भावशुद्धि, दया, सत्य और संयम--ये सब आत्माकी सम्पत्ति हैं ।। ५ ।।
युधिष्ठिर! तुम इन्हींको प्राप्त करो। इनकी ओरसे तुम्हारा मन विचलित नहीं होना चाहिये। धर्म और अर्थकी जड़ ये ही हैं। मेरे मतमें ये ही परम पद हैं || ६ ।।
धर्मसे ही ऋषियोंने संसार-समुद्रको पार किया है। धर्मपर ही सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं। धर्मसे ही देवताओंकी उन्नति हुई है और धर्ममें ही अर्थकी भी स्थिति है || ७ ।।
राजन! धर्म ही श्रेष्ठ गुण है, अर्थको मध्यम बताया जाता है और काम सबकी अपेक्षा लघु है; ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं ।। ८ ।।
अतः मनको वशमें करके धर्मको अपना प्रधान ध्येय बनाना चाहिये और सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिये, जैसा हम अपने लिये चाहते हैं ।। ९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! विदुरजीकी बात समाप्त होनेपर धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले अर्थशास्त्रविशारद अर्जुनने युधिष्ठिरकी आज्ञा पाकर कहा ।।
अर्जुन बोले--राजन्! यह कर्म-भूमि है। यहाँ जीविकाके साधनभूत कर्मोकी ही प्रशंसा होती है। खेती, व्यापार, गोपालन तथा भाँति-भाँतिके शिल्प--ये सब अर्थप्राप्तिके साधन हैं ।। ११ ।।
अर्थ ही समस्त कर्मोकी मर्यादाके पालनमें सहायक है। अर्थके बिना धर्म और काम भी सिद्ध नहीं होते--ऐसा श्रुतिका कथन है || १२ ।।
धनवान मनुष्य धनके द्वारा उत्तम धर्मका पालन और अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये दुर्लभ कामनाओंकी प्राप्ति कर सकता है ।। १३ ।।
श्रुतिका कथन है कि धर्म और काम अर्थके ही दो अवयव हैं। अर्थकी सिद्धिसे उन दोनोंकी भी सिद्धि हो जायगी ।। १४ ॥।
जैसे सब प्राणी सदा ब्रह्माजीकी उपासना करते हैं, उसी प्रकार उत्तम जातिके मनुष्य भी सदा धनवान् पुरुषकी उपासना किया करते हैं ।। १५ ।।
जटा और मृगचर्म धारण करनेवाले जितेन्द्रिय संयतचित्त शरीरमें पंक धारण किये मुण्डितमस्तक नैछ्ठिक ब्रह्मचारी भी अर्थकी अभिलाषा रखकर पृथक्-पृथक् निवास करते हैं ।। १६ ||
सब प्रकारके संग्रहसे रहित, संकोचशील, शान्त, गेरुआ वस्त्रधारी, दाढ़ी-मूँछ बढ़ाये विद्वान् पुरुष भी धनकी अभिलाषा करते देखे गये हैं। कुछ दूसरे प्रकारके ऐसे लोग हैं जो स्वर्ग पानेकी इच्छा रखते हैं; और कुलपरम्परागत नियमोंका पालन करते हुए अपने-अपने वर्ण तथा आश्रमके धर्मोंका अनुष्ठान कर रहे हैं; किंतु वे भी धनकी इच्छा रखते हैं || १७-१८ ।।
दूसरे बहुत-से आस्तिक-नास्तिक संयम नियम-परायण पुरुष हैं जो अर्थके इच्छुक होते हैं। अर्थकी प्रधानताको न जानना तमोमय अज्ञान है। अर्थकी प्रधानताका ज्ञान प्रकाशमय है ।। १९ ||
धनवान् वही है जो अपने भृत्योंको उत्तम भोग और शत्रुओंको दण्ड देकर उनको वशमें रखता है। बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ महाराज! मुझे तो यही मत ठीक जँचता है। अब आप इन दोनोंकी बात सुनिये। इनकी वाणी कण्ठतक आ गयी है, अर्थात् ये दोनों भाई बोलनेके लिये उतावले हो रहे हैं || २० ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर धर्म और अर्थके ज्ञानमें कुशल माद्रीकुमार नकुल और सहदेवने अपनी उत्तम बात इस प्रकार उपस्थित की ।। २१ ।।
नकुल-सहदेव बोले--महाराज! मनुष्यको बैठते, सोते, घूमते-फिरते अथवा खड़े होते समय भी छोटे-बड़े हर तरहके उपायोंसे धनकी आयको सुदृढ़ बनाना चाहिये || २२ ।।
धन अत्यन्त प्रिय और दुर्लभ वस्तु है। इसकी प्राप्ति अथवा सिद्धि हो जानेपर मनुष्य संसारमें अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण कर सकता है, इसका सभीको प्रत्यक्ष अनुभव है-इसमें संशय नहीं है || २३ ।।
जो धन धर्मसे युक्त हो और जो धर्म धनसे सम्पन्न हो, वह निश्चितरूपसे आपके लिये अमृतके समान होगा, यह हम दोनोंका मत है ।। २४ ।।
निर्धन मनुष्यकी कामना पूर्ण नहीं होती और धर्महीन मनुष्यको धन भी कैसे मिल सकता है। जो पुरुष धर्मयुक्त अर्थसे वज्चित है, उससे सब लोग उद्विग्न रहते हैं || २५
इसलिये मनुष्य अपने मनको संयममें रखकर जीवनमें धर्मको प्रधानता देते हुए पहले धर्माचरण करके ही फिर धनका साधन करे; क्योंकि धर्मपरायण पुरुषपर ही समस्त प्राणियोंका विश्वास होता है और जब सभी प्राणी विश्वास करने लगते हैं तब मनुष्यका सारा काम स्वत: सिद्ध हो जाता है | २६ ।।
अतः सबसे पहले धर्मका आचरण करे; फिर धर्मयुक्त धनका संग्रह करे। इसके बाद दोनोंकी अनुकूलता रखते हुए कामका सेवन करे। इस प्रकार त्रिवर्गका संग्रह करनेसे मनुष्य सफलमनोरथ हो जाता है || २७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इतना कहकर नकुल और सहदेव चुप हो गये। तब भीमसेनने इस तरह कहना आरम्भ किया || २८ ।।
भीमसेन बोले--धर्मराज! जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, उसे न तो धन कमानेकी इच्छा होती है और न धर्म करनेकी ही। कामनाहीन पुरुष तो काम (भोग) भी नहीं चाहता है; इसलिये त्रिवर्गमें काम ही सबसे बढ़कर है || २९ |।
किसी-न-किसी कामनासे संयुक्त होकर ही ऋषि-लोग तपस्यामें मन लगाते हैं। फल, मूल और पत्ते चबाकर रहते हैं। वायु पीकर मन और इन्द्रियोंका संयम करते हैं ।।
कामनासे ही लोग वेद और उपवेदोंका स्वाध्याय करते तथा उसमें पारज्गत विद्वान् हो जाते हैं। कामनासे ही श्राद्धकर्म, यज्ञकर्म, दान और प्रतिग्रहमें लोगोंकी प्रवृत्ति होती है ।। ३१ ।।
व्यापारी, किसान, ग्वाले, कारीगर और शिल्पी तथा देवसम्बन्धी कार्य करनेवाले लोग भी कामनासे ही अपने-अपने कर्मोमें लगे रहते हैं || ३२ ।।
कामनासे युक्त हुए दूसरे मनुष्य समुद्रमें भी घुस जाते हैं। कामनाके विविध रूप हैं तथा सारा कार्य ही कामनासे व्याप्त है ।। ३३ ।।
सभी प्राणी कामना रखते हैं। उससे भिन्न कामना-रहित प्राणी न कहीं है, न कभी था और न भविष्यमें होगा ही; अत: यह काम ही त्रिवर्गका सार है। महाराज! धर्म और अर्थ भी इसीमें स्थित हैं || ३४ ।।
जैसे दहीका सार माखन है, उसी प्रकार धर्म और अर्थका सार काम है। जैसे खलीसे श्रेष्ठ तेल है, तक्रसे श्रेष्ठ घी है और वृक्षके काष्ठसे श्रेष्ठ उसका फूल और फल है, उसी प्रकार धर्म और अर्थ दोनोंसे श्रेष्ठ काम है ।। ३५ ।।
जैसे फ़ूलसे उसका मधु-तुल्य रस श्रेष्ठ है, उसी प्रकार धर्म और अर्थसे काम श्रेष्ठ माना गया है। काम धर्म और अर्थका कारण है, अतः वह धर्म और अर्थरूप है ।। ३६ ।।
बिना किसी कामनाके ब्राह्मण अच्छे अन्नका भी भोजन नहीं करते और बिना कामनाके कोई ब्राह्मणोंको धनका दान नहीं करते हैं। जगतके प्राणियोंको जो नाना प्रकारकी चेष्टा होती है वह बिना कामनाके नहीं होती; अतः त्रिवर्गमें कामका ही प्रथम एवं प्रधान स्थान देखा गया है || ३७ ।।
अतः राजन! आप कामका अवलम्बन करके सुन्दर वेषवाली, आभूषणोंसे विभूषित तथा देखनेमें मनोहर एवं मदमत्त युवतियोंके साथ विहार कीजिये। हमलोगोंको इस जगतमें कामको ही श्रेष्ठ मानना चाहिये || ३८ ।।
धर्मपुत्र! मैंने गहराईमें पैठकर ऐसा निश्चय किया है। मेरे इस कथनमें आपको कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। मेरा यह वचन उत्तम, कोमल, श्रेष्ठ, तुच्छतारहित एवं सारभूत है; अतः श्रेष्ठ पुरुष भी इसे स्वीकार कर सकते हैं ।। ३९ ।।
मेरे विचारसे धर्म, अर्थ और काम तीनोंका एक साथ ही सेवन करना चाहिये। जो इनमेंसे एकका ही भक्त है, वह मनुष्य अधम है, जो दोके सेवनमें निपुण है, उसे मध्यम श्रेणीका बताया गया है और जो त्रिवर्गमें समानरूपसे अनुरक्त है, वह मनुष्य उत्तम है || ४० ।।
बुद्धिमान, सुहृद, चन्दनसारसे चर्चित तथा विचित्र मालाओं और आभूषणोंसे विभूषित भीमसेन उन वीर बन्धुओंसे संक्षेप और विस्तारपूर्वक पूर्वोिक्त वचन कहकर चुप हो गये ।। ४१ ।।
जिन्होंने महात्माओंके मुखसे धर्मका उपदेश सुना है, उन धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिरने दो घड़ीतक पूर्व वक्ताओंके वचनोंपर भलीभाँति विचार करके मुसकराते हुए यह यथार्थ बात कही ।। ४२ ।।
युधिष्ठिर बोले--बन्धुओ! इसमें संदेह नहीं कि आपलोग धर्मशास्त्रोंके सिद्धान्तोंपर विचार करके एक निश्चयपर पहुँच चुके हैं। आपलोगोंको प्रमाणोंका भी ज्ञान प्राप्त है। मैं सबके विचार जानना चाहता था, इसलिये मेरे सामने यहाँ आपलोगोंने जो अपना-अपना निश्चित सिद्धान्त बताया है, वह सब मैंने ध्यानसे सुना है। अब आप, मैं जो कुछ कह रहा हूँ, मेरी उस बातको भी अनन्यचित्त होकर अवश्य सुनिये ।। ४३ ।।
जो न पापमें लगा हो और न पुण्यमें, न तो अर्थोपार्जनमें तत्पर हो न धर्ममें, न काममें ही। वह सब प्रकारके दोषोंसे रहित मनुष्य दुःख और सुखको देनेवाली सिद्धियोंसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है, उस समय मिट्टीके ढेले और सोनेमें उसका समान भाव हो जाता है ।। ४४ ।।
जो पूर्वजन्मकी बातोंको स्मरण करनेवाले तथा वृद्धावस्थाके विकारसे मुक्त हैं, वे मनुष्य नाना प्रकारके सांसारिक दुःखोंके उपभोगसे निरन्तर पीड़ित हो मुक्तिकी ही प्रशंसा करते हैं, परंतु हमलोग उस मोक्षके विषयमें जानते ही नहीं || ४५ ।।
स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माजीका कथन है कि जिसके मनमें आसक्ति है, उसकी कभी मुक्ति नहीं होती। आसक्तिशून्य ज्ञानी मनुष्य ही मोक्षको प्राप्त होते हैं; अतः मुमुक्षु पुरुषको चाहिये कि वह किसीका प्रिय अथवा अप्रिय न करे ।। ४६ ।।
इस प्रकार विचार करना ही मोक्षका प्रधान उपाय है, स्वेच्छाचार नहीं। विधाताने मुझे जिस कार्यमें लगा दिया है, मैं उसे ही करता हूँ। विधाता सभी प्राणियोंको विभिन्न कार्योंके लिये प्रेरित करता है। अतः आप सब लोगोंको ज्ञात होना चाहिये कि विधाता ही प्रबल है || ४७ |।
मनुष्य कर्मद्वारा अप्राप्य अर्थ नहीं पा सकता। जो होनहार है, वही होता है; इस बातको तुम सब लोग जान लो। मनुष्य त्रिवर्गसे रहित होनेपर भी आवश्यक पदार्थको प्राप्त कर लेता है; अतः मीक्षप्राप्तिका गूढ़ उपाय (ज्ञान) ही जगत्का वास्तविक कल्याण करनेवाला है ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! राजा युधिष्ठिरकी कही हुई बात बड़ी उत्तम, युक्तियुक्त और मनमें बैठनेवाली हुई। उसे पूर्णरूपसे समझकर वे सब भाई बड़े प्रसन्न हो हर्षनाद करने लगे। उन सबने कुरुकुलके प्रमुख वीर युधिष्ठिरको अञ्जलि बाँधकर प्रणाम किया ।। ४९ ||
जनमेजय! युधिष्ठिरकी उस वाणीमें किसी प्रकारका दोष नहीं था। वह अत्यन्त सुन्दर स्वर और व्यज्जनके संनिवेशसे विभूषित तथा मनके अनुरूप थी, उसे सुनकर समस्त राजाओंने युधिष्ठिरकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ।। ५० ।।
पराक्रमी धर्मपुत्र महामना युधिष्ठिरे भी उन समस्त विश्वासपात्र नरेशों एवं बन्धुजनोंकी प्रशंसा की और पुनः उदारचेता गड़ानन्दन भीष्मजीके पास आकर उनसे उत्तम धर्मके विषयमें प्रश्न किया || ५१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें षड्जगीताविषयक एक सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ अड़सठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ अड़सठवें अध्याय के श्लोक 1-52 का हिन्दी अनुवाद)
“मित्र बनाने एवं न बनाने योग्य पुरुषोंके लक्षण तथा कृतघ्न गौतमकी कथाका आरम्भ”
युधिष्ठिरने कहा--कौरवकुलकी प्रीति बढ़ानेवाले महाज्ञानी पितामह! मैं कुछ और प्रश्न आपके सामने उपस्थित कर रहा हूँ। मेरे उन प्रश्नोंका विवेचन कीजिये ।। १ ।।
सौम्य स्वभावके मनुष्य कैसे होते हैं? किनके साथ प्रेम करना उत्तम होता है? वर्तमान और भविष्यमें कौन-से मनुष्य उपकार करनेमें समर्थ होते हैं? उन सबका मुझसे वर्णन कीजिये ।। २ ।।
मेरी तो यह धारणा है कि जिस स्थानपर सुहृद् खड़े होते हैं वहाँ न तो प्रचुर धन काम दे सकता है और न सम्बन्धी तथा बन्धु-बान्धव ही ठहर सकते हैं ।। ३ ।।
हितकी बात सुननेवाला सुहृद् दुर्लभ है तथा हितकारी सुहृद् भी दुर्लभ ही है। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ पितामह! इन सब प्रश्नोंका आप विशद विवेचन कीजिये ।।
भीष्मजीने कहा--राजा युधिष्ठिर! किनके साथ संधि (मित्रता) करनी चाहिये और किनके साथ नहीं? यह बात मैं तुम्हें ठीक-ठीक बता रहा हूँ। तुम सब कुछ ध्यान देकर सुनो || ५ ।।
जो लोभी, क्रूर, धर्मत्यागी, कपटी, शठ, क्षुद्र, पापाचारी, सबपर संदेह करनेवाला, आलसी, दीर्घसूत्री, कुटिल, निन्दित, गुरुपत्नीगामी, संकटके समय साथ छोड़कर चल देनेवाला, दुरात्मा, निर्लज्ज, सब ओर पापपूर्ण दृष्टि डालनेवाला, नास्तिक, वेदोंकी निनन््दा करनेवाला, इन्द्रियोंको खुला छोड़कर जगतमें इच्छानुसार विचरनेवाला, झूठा, सबके द्वेषका पात्र, अपनी प्रतिज्ञापर स्थिर न रहनेवाला, चुगलखोर, अपवित्र बुद्धिवाला, ईर्ष्यालु, पापपूर्ण विचार रखनेवाला, दुष्ट स्वभाववाला, मनको वशमें न रखनेवाला, नृशंस, धूर्त, मित्रोंकी बुराई करनेवाला, सदा दूसरोंका धन लेनेकी इच्छा रखनेवाला, यथाशक्ति देनेवालेपर भी संतुष्ट न रहनेवाला, मन्दबुद्धि, मित्रको भी सदा धैर्यसे विचलित करनेवाला, असावधान, बेमौके क्रोध करनेवाला, अकस्मात् विरोधी होकर कल्याणकारी सुहृदोंको भी शीघ्र ही त्याग देनेवाला, अनजानमें थोड़ा-सा भी अपराध बन जानेपर मित्रका अनिष्ट करनेवाला, पापी, अपना काम बनानेके लिये ही मित्रोंसे मेल रखनेवाला, वास्तवमें मित्रद्वेषी, मुखसे मित्रताकी बातें करके भीतरसे शत्रुभाव रखनेवाला, कुटिल दृष्टिसे देखनेवाला, विपरीतदर्शी, भलाईसे कभी पीछे न हटनेवाले मित्रको भी त्याग देनेवाला, शराबी, द्वेषी, क्रोधी, निर्दयी, क्रूर, दूसरोंको सतानेवाला, मित्रद्रोही, प्राणियोंकी हिंसामें तत्पर रहनेवाला, कृतघ्न तथा नीच हो, संसारमें ऐसे मनुष्यके साथ कभी संधि नहीं करनी चाहिये। जो दूसरोंका छिद्र खोजता हो, वह भी संधि करनेके योग्य नहीं है। अब संधि करनेके योग्य पुरुषोंको बता रहा हूँ, सुनो || ६-१६ ।।
जो कुलीन, बोलनेमें समर्थ, ज्ञान-विज्ञानमें कुशल, रूपवानू, गुणवानू, लोभहीन, काम करनेसे कभी न थकनेवाले, अच्छे मित्रोंसे सम्पन्न, कृतज्ञ, सर्वज्ञ, लोभसे दूर रहनेवाले, मधुरस्वभाववाले, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, सदा व्यायामशील, उत्तम कुलकी संतान, अपने कुलका भार वहन करनेमें समर्थ, दोषशून्य तथा लोकमें विख्यात हों--ऐसे मनुष्योंको राजा अपना मित्र बनावे ।। १७-१९ ||
प्रभो! जो अपनी शक्तिके अनुसार कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करते और संतुष्ट रहते हैं, जिन्हें बेमौके क्रोध नहीं आता, जो अकस्मात् स्नेहका त्याग नहीं करते, जो उदासीन हो जानेपर भी मनसे कभी बुराई नहीं चाहते, अर्थके तत्त्वको समझते हैं और अपनेको कष्टमें डालकर भी हितैषी पुरुषोंका कार्य सिद्ध करते हैं। जैसे रँगा हुआ ऊनी कपड़ा अपने रंग नहीं छोड़ता, उसी प्रकार जो मित्रकी ओरसे विरक्त नहीं होते हैं, जो क्रोधवश मित्रका अनर्थ करनेमें प्रवृत्त नहीं होते हैं तथा लोभ और मोहके वशीभूत हो मित्रकी युवतियोंपर अपनी आसक्ति नहीं दिखाते, जो मित्रके विश्वासपात्र और धर्मके प्रति अनुरक्त हैं, जिनकी दृष्टिमें मिट्टीका ढेला और सोना दोनों एक-से हैं, जो सदा सुहृदोंके प्रति सुस्थिर बुद्धि रखनेवाले हैं, सबके लिये प्रमाणभूत शास्त्रोंके अनुसार चलते हैं। और प्रारब्धवश प्राप्त हुए धनमें ही संतुष्ट रहते हैं, जो कुट॒म्बका संग्रह रखते हुए सदा अपने सुहृद् एवं स्वामीके कार्य-साधनमें तत्पर रहते हैं--ऐसे श्रेष्ठ पुरुषोंके साथ जो राजा संधि (मेल) करता है, उसका राज्य उसी तरह बढ़ता है, जैसे चन्द्रमाकी चाँदनी || २०-२४ $ ।।
जो प्रतिदिन शास्त्रोंका स्वाध्याय करते हैं, क्रोधको काबूमें रखते हैं और युद्धमें सदा प्रबल रहते हैं। जिनका उत्तम कुलमें जन्म हुआ है, जो शीलवान् और श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष ही मित्र बनानेके योग्य होते हैं । २५३ ।।
निष्पाप नरेश! मैंने जो दोषयुक्त मनुष्य बताये हैं, उन सबमें अधम होते हैं कृतघ्न। वे मित्रोंकी हत्यातक कर डालते हैं। ऐसे दुराचारी नराधमोंको दूरसे ही त्याग देना चाहिये। यह सबका निश्चय है || २६-२७ ।।
युधिष्ठिरने कहा--पितामह! आपने जिसे मित्रद्रोही और कृतघ्न कहा है, उसका यथार्थ इतिहास क्या है? यह मैं विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ, आप कृपा करके मुझे बताइये ।। २८ ।।
भीष्मजीने कहा--नरेश्वर! मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें एक पुराना इतिहास बता रहा हूँ। यह घटना उत्तरदिशामें म्लेच्छोंके देशमें घटित हुई थी ।। २९ ।।
मध्यदेशका एक ब्राह्मण, जिसने वेद बिलकुल नहीं पढ़ा था, कोई सम्पन्न गाँव देखकर उसमें भीख माँगनेके लिये गया ।। ३० ।।
उस गाँवमें एक धनी डाकू रहता था, जो समस्त वर्णोकी विशेषताका जानकार था। उसके ह्ृदयमें ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति थी। वह सत्यप्रतिज्ञ और दानी था । ३१ ।।
ब्राह्मणने उसीके घर जाकर भिक्षाके लिये याचना की। दस्युने ब्राह्मणको रहनेके लिये एक घर देकर वर्षभर निर्वाह करनेके योग्य अन्नकी भिक्षाका प्रबन्ध कर दिया, उपयुक्त नया वस्त्र दिया और उसकी सेवामें एक युवती दासी भी दे दी, जो उस समय पतिसे रहित थी ।। ३२-३३ ।।
राजन! दस्युसे ये सारी वस्तुएँ पाकर ब्राह्मण मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न हुआ; और उस सुन्दर गृहमें दासीके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगा ।। ३४ ।।
वह दासीके कुटुम्बके लिये कुछ सहायता भी करने लगा। ब्राह्मणने भीलके उस समृद्धिशाली भवनमें अनेक वर्षोतक निवास किया || ३५ |।
उसका नाम गौतम था। उसने बाण चलाकर लक्ष्य बेधनेका वहाँ बड़े यत्नके साथ अभ्यास किया। राजन! गौतम भी दस्युओंकी तरह प्रतिदिन जंगलमें सब ओर घूम-फिरकर हंसोंका शिकार करने लगा। वह हिंसामें बड़ा प्रवीण था। उसमें दया नहीं थी। वह सदा प्राणियोंको मारनेकी ही ताकमें लगा रहता था ।। ३६-३७ ।।
डाकुओंके सम्पर्कमें रहनेसे गौतम भी उनके ही समान पूरा डाकू बन गया। डाकुओंके गाँवमें सुखपूर्वक रहकर प्रतिदिन बहुत-से पक्षियोंका शिकार करते हुए उसके कई महीने बीत गये ।। ३८६ ।।
तदनन्तर एक दिन कोई दूसरा ब्राह्मण उस गाँवमें आया जो जटा, वल्कल और मृगचर्म धारण किये हुए था। वह स्वाध्यायपरायण, पवित्र, विनयी, नियमके अनुकूल भोजन करनेवाला, ब्राह्मणभक्त तथा वेदोंका पारड्गत विद्वान् था ।। ३९-४० ।।
वह ब्रह्मचारी ब्राह्मण गौतमके ही गाँवका निवासी तथा उसका परमप्रिय मित्र था और घूमता हुआ डाकुओंके उसी गाँवमें जा पहुँचा था, जहाँ गौतम निवास करता था ।। ४१ ।।
वह शूद्रका अन्न नहीं खाता था; इसलिये दस्युओंसे भरे हुए उस गाँवमें ब्राह्मणके घरकी तलाश करता हुआ सब ओर घूमने लगा ।। ४२ ।।
घूमता-घामता वह श्रेष्ठ ब्राह्मण गौतमके घरपर गया, इतनेहीमें गौतम भी शिकारसे लौटकर वहाँ आ पहुँचा। उन दोनोंकी एक-दूसरेसे भेंट हुई ।। ४३ ।।
ब्राह्मणने देखा, गौतमके कंधेपर मारे गये हंसकी लाश है, हाथमें धनुष और बाण है, सारा शरीर रक्तसे सींच उठा है, घरके दरवाजेपर आया हुआ गौतम नरभक्षी राक्षसके समान जान पड़ता है; और ब्राह्मणत्वसे भ्रष्ट हो चुका है। उसे इस अवस्थामें घरपर आया देख ब्राह्मणने पहचान लिया। पहचानकर वे बड़े लज्जित हुए और उससे इस प्रकार बोले -- || ४४-४५ ||
“अरे! तू मोहवश यह क्या कर रहा है? तू तो मध्यदेशका विख्यात एवं कुलीन ब्राह्मण था। यहाँ डाकू कैसे बन गया? ।। ४६ ।।
“ब्रह्म! अपने पूर्वजोंको तो याद कर। उनकी कितनी ख्याति थी। वे कैसे वेदोंके पारड्गत विद्वान थे और तू उन्हींके वंशमें पैदा होकर ऐसा कुलकलड्क निकला || ४७ |।
“अब भी तो अपने-आपको पहचान! तू द्विज है; अतः द्विजोचित सत्त्व, शील, शास्त्रज्ञा,, संयम और दयाभावको याद करके अपने इस निवासस्थानको त्याग दे” ।। ४८ ।।
राजन! अपने उस हितैषी सुहृदके इस प्रकार कहनेपर गौतम मन-ही-मन कुछ निश्चय करके आर्त-सा होकर बोला-- || ४९ ||
द्विजश्रेष्ठ! मैं निर्धन हूँ और वेदको भी नहीं जानता; अतः द्विजप्रवर! मुझे धन कमानेके लिये इधर आया हुआ समझें ।। ५० ।।
“विप्रेन्द्र! आज आपके दर्शनसे मैं कृतार्थ हो गया। ब्रह्म! अब रातभर यहीं रहिये, कल खबेरे हम दोनों साथ ही चलेंगे” || ५१ ।।
वह ब्राह्मण दयालु था। गौतमके अनुरोधसे उसके यहाँ ठहर गया, किंतु वहाँकी किसी भी वस्तुको हाथसे छूआ भी नहीं। यद्यपि वह भूखा था और भोजन करनेके लिये गौतमद्वारा उससे बड़ी अनुनय-विनय की गई तो भी किसी तरह वहाँका अन्न ग्रहण करना उसने स्वीकार नहीं किया ।। ५२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कृतध्नका उपाख्यानविषयक एक सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें