सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ इकसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ इकसठवें अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“तपकी महिमा”
भीष्मजीने कहा--राजन्! इस सर्च्य जगत्का मूल कारण तप ही है, ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं। जिस मूढ़ने तपस्या नहीं की है, उसे अपने शुभ कर्मोका फल नहीं मिलता है ।। १ |।
भगवान् प्रजापतिने तपसे ही इस समस्त संसारकी सृष्टि की है तथा ऋषियोंने तपसे ही वेदोंका ज्ञान प्राप्त किया है || २ ।।
जो-जो फल, मूल और अन्न हैं, उनको विधाताने तपसे ही उत्पन्न किया है। तपस्यासे सिद्ध हुए एकाग्रचित्त महात्मा पुरुष तीनों लोकोंको प्रत्यक्ष देखते हैं ।। ३ ।।
औषध, आरोग्य आदिकी प्राप्ति तथा नाना प्रकारकी क्रियाएँ तपस्यासे ही सिद्ध होती हैं; क्योंकि प्रत्येक साधनकी जड़ तपस्या ही है || ४ ।।
संसारमें जो कुछ भी दुर्लभ वस्तु हो, वह सब तपस्यासे सुलभ हो सकती है। ऋषियोंने तपस्यासे ही अणिमा आदि अष्टविध ऐश्वर्यको प्राप्त किया है, इसमें संशय नहीं है ।। ५ ।।
शराबी, किसीकी सम्मतिके बिना ही उसकी वस्तु उठा लेनेवाला (चोर), गर्भहत्यारा और गुरुपत्नीगामी मनुष्य भी अच्छी तरह की हुई तपस्याद्वारा ही पापसे छुटकारा पाता है ।। ६ |।
तपस्याके अनेक रूप हैं और भिन्न-भिन्न साधनों एवं उपायोंद्वारा मनुष्य उसमें प्रवृत्त होता है; परंतु जो निवृत्तिमार्गसे चल रहा है, उसके लिये उपवाससे बढ़कर दूसरा कोई तप नहीं है ।। ७ ।।
महाराज! अहिंसा, सत्यभाषण, दान और इन्द्रिय-संयम--इन सबसे बढ़कर तप है और उपवाससे बड़ी कोई तपस्या नहीं है ।। ८ ।।
दानसे बढ़कर कोई दुष्कर धर्म नहीं है, माताकी सेवासे बड़ा कोई दूसरा आश्रय नहीं है, तीनों वेदोंके विद्वानोंसे श्रेष्ठ कोई विद्वान् नहीं है और संन्यास सबसे बड़ा तप है। ।। ९ ।।
इस संसारमें धार्मिक पुरुष स्वर्गके साधनभूत धर्मकी रक्षाके लिये इन्द्रियोंको सुरक्षित (संयमशील बनाये) रखते हैं। परंतु धर्म और अर्थ दोनोंकी सिद्धिके लिये तप ही श्रेष्ठ साधन है और उपवाससे बढ़कर कोई तपस्या नहीं है ।। १० ।।
ऋषि, पितर, देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी तथा दूसरे जो चराचर प्राणी हैं, वे सब तपस्यामें ही तत्पर रहते हैं। तपस्यासे ही उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है। इसी प्रकार देवताओंने भी तपस्यासे ही महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त किया है ।। ११-१२ ।।
ये जो भिन्न-भिन्न अभीष्ट फल कहे गये हैं, वे सब सदा तपस्यासे ही सुलभ होते हैं। तपस्यासे निश्चय ही देवत्व भी प्राप्त किया जा सकता है ।। १३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपवकेि अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें तपस्याकी प्रशंयाविषयक एक सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ बासठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ बासठवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)
“सत्यके लक्षण, स्वरूप और महिमाका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा-पितामह! ब्राह्मण, ऋषि, पितर और देवता-ये सब सत्यभाषणरूप धर्मकी प्रशंसा करते हैं; अतः अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि सत्य क्या है? उसे मुझे बताइये ।। १ ।।
राजन! सत्यका लक्षण क्या है? उसकी प्राप्ति कैसे होती है? सत्यका पालन करनेसे क्या लाभ होता है? और कैसे होता है? यह बताइये ।। २ ।।
भीष्मजीने कहा--भरतनन्दन! ब्राह्मण आदि चारों वर्णोंके जो धर्म हैं, उनका परस्पर सम्मिश्रण अच्छा नहीं माना जाता है। निर्विकार सत्य सभी वर्णोमें प्रतिष्ठित है ।। ३ ।।
सत्पुरुषोंमें सदा सत्यरूप धर्मका ही पालन हुआ है। सत्य ही सनातन धर्म है। सत्यको ही सदा सिर झुकाना चाहिये; क्योंकि सत्य ही जीवकी परम गति है ।। ४ ।।
सत्य ही धर्म, तप और योग है, सत्य ही सनातन ब्रह्म है, सत्यको ही परम यज्ञ कहा गया है तथा सब कुछ सत्यपर ही टिका हुआ है || ५ ।।
अब मैं तुम्हें क्रमश: सत्यके आचार और लक्षण ठीक-ठीक बताऊँगा ।। ६ ।।
साथ ही यह भी बता देना चाहता हूँ कि उस सत्यकी प्राप्ति कैसे होती है? तुम ध्यान देकर सुनो। भारत! सम्पूर्ण लोकोंमें सत्यके तेरह भेद माने गये हैं ।। ७ ।।
राजेन्द्र! सत्य, समता, दम, मत्सरताका अभाव, क्षमा, लज्जा, तितिक्षा (सहनशीलता), अनसूया, त्याग, परमात्माका ध्यान, आर्यता (श्रेष्ठ आचरण), निरन्तर स्थिर रहनेवाली धृति (धैर्य) तथा अहिंसा--ये तेरह सत्यके ही स्वरूप हैं, इसमें संशय नहीं है ।। ८-९ |।
नित्य एकरस, अविनाशी और अविकारी होना ही सत्यका लक्षण है। समस्त धर्मोके अनुकूल कर्तव्य-पालनरूप योगके द्वारा इस सत्यकी प्राप्ति होती है ।। १० ।।
अपने प्रिय मित्रमें तथा अप्रिय शत्रुमें भी समानभाव रखना “समता” है। इच्छा (राग), द्वेष, काम और क्रोधको मिटा देना ही समताकी प्राप्तिका उपाय है ।। ११ ।।
किसी दूसरेकी वस्तुको लेनेकी इच्छा न करना, सदा गम्भीरता और धीरता रखना, भयको त्याग देना तथा मनके रोगोंको शान्त कर देना-यह “दम' (मन और इन्द्रियोंके संयम) का लक्षण है। इसकी प्राप्ति ज्ञानसे होती है ।। १२ ।।
दान और धर्म करते समय मनपर संयम रखना अर्थात् इस विषयमें दूसरोंसे ईर्ष्या न करना इसे विद्वान् लोग “मत्सरताका अभाव” कहते हैं। सदा सत्यका पालन करनेसे ही मनुष्य मत्सरतासे रहित हो सकता है ।। १३ ।।
जो सहने और न सहनेयोग्य व्यवहारों तथा प्रिय एवं अप्रिय वचनोंको भी समानरूपसे सहन कर लेता है, वही सर्वसम्मत क्षमाशील श्रेष्ठ पुरुष है। सत्यवादी पुरुषको ही उत्तम रीतिसे क्षमाभावकी प्राप्ति होती है ।। १४ ।।
जो बुद्धिमान् पुरुष भलीभाँति दूसरोंका कल्याण करता है और मनमें कभी खेद नहीं मानता, जिसकी मन-वाणी सदा शान्त रहती है, वह लज्जाशील माना जाता है। यह लज्जा नामक गुण धर्मके आचरणसे प्राप्त होता है ।। १५ ।।
धर्म और अर्थके लिये मनुष्य जो कष्ट सहन करता है, उसकी वह सहनशीलता 'तितिक्षा" कहलाती है। लोगोंके सामने आदर्श उपस्थित करनेके लिये उसका अवश्य पालन करना चाहिये। तितिक्षाकी प्राप्ति धैर्यसे होती है। (दूसरोंक दोष न देखना “अनसूया' है) ।। १६ |।
विषयोंकी आसक्तिका जो त्याग है, वही वास्तविक त्याग है। राग-द्वेषसे रहित होनेपर ही त्यागकी सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं (परमात्मचिन्तनका नाम ही “ध्यान” है) || १७ ।।
जो मनुष्य अपनेको प्रकट न करके प्रयत्नपूर्वक प्राणियोंकी भलाईका काम करता रहता है, उसके उस श्रेष्ठ भाव और आचरणका नाम ही “आर्यता' है। यह आसक्तिके त्यागसे प्राप्त होता है ।। १८ ।।
सुख या दु:ख प्राप्त होनेपर मनमें विकार न होना “धृति” है। जो अपनी उन्नति चाहता हो, उस बुद्धिमान् पुरुषको सदा ही 'धृति” का सेवन करना चाहिये ।। १९ ।।
मनुष्यको सदा क्षमाशील होना तथा सत्यमें तत्पर रहना चाहिये। जिसने हर्ष, भय और क्रोध तीनोंको त्याग दिया है, उस विद्वान पुरुषको ही “धैर्य” की प्राप्ति होती है || २० ।।
मन, वाणी और क्रियाद्वारा सभी प्राणियोंके साथ कभी द्रोह न करना तथा दया और दान--यह श्रेष्ठ पुरुषोंका सनातन धर्म है ।। २१ ।।
ये पृथक्-पृथक् तेरह रूपोंमें बताये हुए धर्म एकमात्र सत्यको ही लक्षित करानेवाले हैं। ये सत्यका ही आश्रय लेते और उसीकी वृद्धि एवं पुष्टि करते हैं । २२ ।।
पृथ्वीनाथ! सत्यके गुणोंकी सीमा नहीं बतायी जा सकती। इसीलिये पितर और देवताओंके सहित ब्राह्मण सत्यकी प्रशंसा करते हैं || २३ ।।
सत्यसे बढ़कर कोई धर्म नहीं और झूठसे बढ़कर कोई पातक नहीं है। सत्य ही धर्मकी आधारशिला है; अतः सत्यका लोप न करे || २४ ।।
दानका, दक्षिणाओंसहित यज्ञका, त्रिविध अग्नियोंमें हवनका, वेदोंके स्वाध्यायका तथा अन्य जो धर्मका निर्णय करनेवाले शास्त्र हैं, उनके भी अध्ययनका फल मनुष्य सत्यसे प्राप्त कर लेता है || २५ |।
यदि एक ओर एक हजार अभश्वमेध यज्ञोंको और दूसरी ओर एकमात्र सत्यको तराजूपर रखा जाय तो एक हजार अभश्वमेध यज्ञोंकी अपेक्षा सत्यका ही पलड़ा भारी होगा ।।२६।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें सत्यकी प्रशंसाविषयक एक सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ तिरेसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ तिरेसठवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“काम, क्रोध आदि तेरह दोषोंका निरूपण और उनके नाशका उपाय”
युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ! परम बुद्धिमान् पितामह! क्रोध, काम, शोक, मोह, विधित्सा (शास्त्र-विरुद्ध काम करनेकी इच्छा), परासुता (दूसरोंके मारनेकी इच्छा), मद, लोभ, मार्त्सर्य, ईर्ष्या, निन्दा, दोषदृष्टि और कंजूसी (दैन्यभाव)--ये सब दोष किससे उत्पन्न होते हैं', यह ठीक-ठीक बताइये ।। १-२ ।।
भीष्मजीने कहा--महाराज युधिष्ठिर! तुम्हारे कहे हुए ये तेरह दोष प्राणियोंके अत्यन्त प्रबल शत्रु माने गये हैं, जो यहाँ मनुष्योंकोी सब ओरसे घेरे रहते हैं ।। ३ ।।
ये सदा सावधान रहकर प्रमादमें पड़े हुए पुरुषको अत्यन्त पीड़ा देते हैं। मनुष्यको देखते ही भेड़ियोंकी तरह बलपूर्वक उसपर टूट पड़ते हैं ।। ४ ।।
नरश्रेष्ठ! इन्हींसे सबको दु:ख प्राप्त होता है, इन्हींकी प्रेरणासे मनुष्यकी पापकर्मामें प्रवृत्ति होती है। प्रत्येक पुरुषको सदा इस बातकी जानकारी रखनी चाहिये ।। ५ ।।
पृथ्वीनाथ! अब मैं यह बता रहा हूँ कि इनकी उत्पत्ति किससे होती है? ये किस तरह स्थिर रहते हैं? और कैसे इनका विनाश होता है? राजन! सबसे पहले क्रोधकी उत्पत्तिका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ। तुम यहाँ एकाग्रचित्त होकर इस विषयको सुनो ।। ६½।।
राजन! क्रोध लोभसे उत्पन्न होता है, दूसरोंके दोष देखनेसे बढ़ता, क्षमा करनेसे थम जाता और क्षमासे ही निवृत्त हो जाता है ।। ७½ ।।
काम संकल्पसे उत्पन्न होता है। उसका सेवन किया जाय तो बढ़ता है और जब बुद्धिमान् पुरुष उससे विरक्त हो जाता है, तब वह (काम) तत्काल नष्ट हो जाता है ।। ८½|।
क्रोध और लोभसे तथा अभ्याससे परासुता प्रकट होती है। संपूर्ण प्राणियोंके प्रति दयासे और वैराग्यसे वह निवृत्त होती है। परदोष-दर्शनसे इसकी उत्पत्ति होती और बुद्धिमानोंके तत्त्वज्ञानसे वह नष्ट हो जाती है ।। ९-१० ।।
मोह अज्ञानसे उत्पन्न होता है और पापकी आवृत्ति करनेसे बढ़ता है। जब मनुष्य विद्वानोंमें अनुराग करता है, तब उसका मोह तत्काल नष्ट हो जाता है ।। ११ ।।
कुरुश्रेष्ठ! जो लोग धर्मके विरोधी शास्त्रोंका अवलोकन करते हैं, उनके मनमें अनुचित कर्म करनेकी इच्छारूप विधित्सा उत्पन्न होती है। यह तत्त्वज्ञानसे निवृत्त होती है ।। १२ ।।
जिसपर प्रेम हो, उस प्राणीके वियोगसे शोक प्रकट होता है। परंतु जब मनुष्य यह समझ ले कि शोक व्यर्थ है--उससे कोई लाभ नहीं है तो तुरंत ही उस शोककी शान्ति हो जाती है || १३ ।।
क्रोध, लोभ और अभ्यासके कारण परासुता अर्थात् दूसरोंको मारनेकी इच्छा होती है। समस्त प्राणियोंके प्रति दया और वैराग्य होनेसे उसकी निवृत्ति हो जाती है ।। १४ ।।
सत्यका त्याग और दुष्टोंका साथ करनेसे मात्सर्य-दोषकी उत्पत्ति होती है। तात! श्रेष्ठ पुरुषोंकी सेवा और संगति करनेसे उसका नाश हो जाता है ।। १५ ।।
अपने उत्तम कुल, उत्कृष्ट ज्ञान तथा ऐश्वर्यका अभिमान होनेसे देहाभिमानी मनुष्योंपर मद सवार हो जाता है; परंतु इनके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान हो जानेपर वह मद तत्काल उतर जाता है || १६ |।
मनमें कामना होनेसे तथा दूसरे प्राणियोंकी हँसी-खुशी देखनेसे ईर्ष्याकी उत्पत्ति होती है तथा विवेकशील बुद्धिके द्वारा उसका नाश होता है || १७ ।।
राजन्! समाजसे बहिष्कृत हुए नीच मनुष्योंके द्वेषपूर्ण तथा अप्रामाणिक वचनोंको सुनकर भ्रममें पड़ जानेसे निन्दा करनेकी आदत होती है; परंतु श्रेष्ठ पुरुषोंको देखनेसे वह शान्त हो जाती है ।। १८ ।।
जो लोग अपनी बुराई करनेवाले बलवान मनुष्यसे बदला लेनेमें असमर्थ होते हैं, उनके हृदयमें तीव्र असूया (दोषदर्शनकी प्रवृत्ति) पैदा होती है, परंतु दयाका भाव जाग्रत् होनेसे उसकी निवृत्ति हो जाती है ।। १९ ।।
सदा कृपण मनुष्योंको देखनेसे अपनेमें भी दैन्यभाव--कंजूसीका भाव पैदा होता है; धर्मनिष्ठ पुरुषोंके उदार भावको जान लेनेपर वह कंजूसीका भाव नष्ट हो जाता है | २० ।।
प्राणियोंका भोगोंके प्रति जो लोभ देखा जाता है, वह अज्ञानके ही कारण है। भोगोंकी क्षणभड्भुरताको देखने और जाननेसे उसकी निवृत्ति हो जाती है ।। २१ ।।
कहते हैं, ये तेरहों दोष शान्ति धारण करनेसे जीत लिये जाते हैं। धृतराष्ट्रके पुत्रोंमें ये सभी दोष मौजूद थे और तुम सत्यको ग्रहण करना चाहते हो; इसलिये तुमने श्रेष्ठ पुरुषोंके सेवनसे इन सबपर विजय प्राप्त कर ली || २२-२३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्चमें लोभनिरूपणविषयक एक सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ चौसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ चौसठवें अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
(नृशंस अर्थात् अत्यन्त नीच पुरुषके लक्षण)
युधिष्ठिरने पूछा--भरतनन्दन! सदा श्रेष्ठ पुरुषोंके सेवन और दर्शनसे मैं इस बातको तो जानता हूँ कि कोमलतापूर्ण बर्ताव कैसे किया जाता है? परंतु नृशंस मनुष्यों और उनके कर्मोका मुझे विशेष ज्ञान नहीं है ।। १ ।।
जैसे मनुष्य रास्तेमें मिले हुए काँटों, कुओं और आगको बचाकर चलते हैं, उसी प्रकार मनुष्य नृशंस कर्म करनेवाले पुरुषको भी दूरसे ही त्याग देते हैं ।। २ ।।
भारत! कुरुनन्दन! नृशंस मनुष्य इसलोक और परलोकमें भी सदा ही शोककी आगसे जलता रहता है; अतः आप मुझे नृशंस मनुष्य और उसके धर्म-कर्मका यथार्थ परिचय दीजिये ।। ३ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! जिसके मनमें बड़ी घृणित इच्छाएँ रहती हैं, जो हिंसाप्रधान कुत्सित कर्मोको आरम्भ करना चाहता है, स्वयं दूसरोंकी निन्दा करता है और दूसरे उसकी निन््दा करते हैं, जो अपनेको दैवसे वज्चित समझता और पापमें प्रवृत्त होता है, दिये हुए दानका बारंबार बखान करता है, जिसके मनमें विषमता भरी रहती है, जो नीच कर्म करनेवाला, दूसरोंकी जीविकाका नाश करनेवाला और शठ है, भोग्य वस्तुओंको दूसरोंको दिये बिना ही अकेले भोगता है, जिसके भीतर अभिमान भरा हुआ है, जो विषयोंमें आसक्त और अपनी प्रशंसाके लिये व्यर्थ ही बढ़-बढ़कर बातें बनानेवाला है, जिसके मनमें सबके प्रति संदेह बना रहता है, जो कौएकी तरह वंचक दृष्टि रखनेवाला है, जिसमें कृपणता कूट कूटकर भरी है, जो अपने ही वर्गके लोगोंकी प्रशंसा करता, सदा आश्रमोंसे द्वेष रखता और वर्णसंकरता फैलाता है, सदा हिंसाके लिये ही जिसका घूमना-फिरना होता है, जो गुणको भी अवगुणके समान समझता और बहुत झूठ बोलता है, जिसके मनमें उदारता नहीं है और जो अत्यन्त लोभी है, ऐसा मनुष्य ही नृशंस कर्म करनेवाला कहा गया है || ४--७ ।।
वह धर्मात्मा और गुणवान् पुरुषको ही पापी मानता है और अपने स्वभावको आदर्श मानकर किसीपर विश्वास नहीं करता है ।। ८ ।।
जहाँ दूसरोंकी बदनामी होती हो, वहाँ उनके गुप्त दोषोंको भी प्रकट कर देता है और अपने तथा दूसरेके अपराध बारबर होनेपर भी वह आजीविकाके लिये दूसरेका ही सर्वनाश करता है ।। ९ ।।
जो उसका उपकार करता है, उसको वह अपने जालमें फँसा हुआ समझता है और उपकारीको भी यदि कभी धन देता है तो उसके लिये बहुत समयतक पश्चात्ताप करता रहता है ।। १० ।।
जो मनुष्य दूसरोंके देखते रहनेपर भी उत्तम भक्ष्य, पेय, लेह्म तथा दूसरे-दूसरे भोज्य पदार्थोंकी अकेला ही खा जाता है, उसको भी नृशंस ही कहना चाहिये ।। ११ ।।
जो पहले ब्राह्मणको देकर पीछे अपने सुहृदोंके साथ स्वयं भोजन करता है, वह इस लोकमें अनन्त सुख भोगता है और मृत्युके पश्चात् स्वर्गलोकमें जाता है ।। १२ ।।
भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार तुम्हारे प्रश्नके अनुसार यहाँ नृशंस मनुष्यका परिचय दिया गया है। विज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह सदा उससे बचकर रहे ।। १३ ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें नशंसका वर्णनविषयक एक सौ चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ पैंसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ पैंसठवें अध्याय के श्लोक 1-78½ का हिन्दी अनुवाद)
“नाना प्रकारके पापों और उनके प्रायद्षित्तोंका वर्णन”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! सम्पूर्ण वेदों और उपनिषदोंका पारंगत विद्वान् ब्राह्मण यदि यज्ञ करनेवाला हो तथा उसका धन चोर चुरा ले गये हों तो राजाका कर्तव्य है कि वह उसे आचार्यकी दक्षिणा देने, पितरोंका श्राद्ध करने तथा वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय करनेके लिये धन दे। भरतनन्दन! ये श्रेष्ठ ब्राह्मण प्राय: धर्मके लिये धनकी भिक्षा माँगते देखे गये हैं। इन्हें दान और विद्याध्ययनके लिये धन देना चाहिये ।। १-२ ।।
भरतगश्रेष्ठ) इससे भिन्न परिस्थितिमें ब्राह्मगको केवल दक्षिणा देनी चाहिये और ब्राह्मणेतर मनुष्योंको भी यज्ञवेदीसे बाहर कच्चा अन्न देनेका विधान है ।। ३ ।।
राजाको चाहिये कि वह ब्राह्मणोंको उनकी योग्यताके अनुसार सब प्रकारके रत्नोंका दान करे; क्योंकि ब्राह्मण ही वेद एवं बहुसंख्यक दक्षिणावाले यज्ञरूप हैं। अपनी सम्पत्तिके अनुसार समस्त कार्योंका आयोजन करनेवाले वे ब्राह्मण सदा आपसमें मिलकर गुणपयुक्त यज्ञका अनुष्ठान करते हैं ।। ४ ।।
जिस ब्राह्मणके पास अपने पालनीय कुट॒म्बी-जनोंके भरण-पोषणके लिये तीन वर्षतक उपभोगमें आने लायक पर्याप्त धन हो अथवा उससे भी अधिक वैभव विद्यमान हो, वही सोमपानका अधिकारी है--उसे ही सोमयागका अनुष्ठान करना चाहिये ।। ५ ।।
यदि धर्मात्मा राजाके रहते हुए किसी यज्ञकर्ताका, विशेषतः ब्राह्मणका यज्ञ धनके बिना अधूरा रह जाय--उसके एक अंशकी पूर्ति शेष रह जाय तो राजाको चाहिये कि उसके राज्यमें जो बहुत पशुओं तथा वैभवसे सम्पन्न वैश्य हो, यदि वह यज्ञ तथा सोमयागसे रहित हो तो उसके कुटुम्बसे उस धनको यज्ञके लिये ले ले ।। ६-७ ।।
किंतु राजा अपनी इच्छाके अनुसार शूद्रके घरसे थोड़ा-सा भी धन न ले आवे; क्योंकि यज्ञोंमें शूद्रका किंचिन्मात्र भी अधिकार नहीं है ।। ८ ।।
जिस वैश्यके पास एक सौ गौएँ हों और वह अग्निहोत्र न करता हो, तथा जिसके पास एक हजार गौएँ हों और वह यज्ञ न करता हो, उन दोनोंके कुटुम्बोंसे राजा बिना विचारे ही धन उठा लावे ।। ९ ।।
जो धन रहते हुए उसका दान न करते हों, ऐसे लोगोंके इस दोषको विख्यात करके राजा सदा धर्मके लिये उनका धन ले ले, ऐसा आचरण करनेवाले राजाको सम्पूर्ण धर्मकी प्राप्ति होती है ।। १० ।।
युधिष्ठिर! इसी प्रकार मैं अन्नके विषयमें जो बात बता रहा हूँ, उसे सुनो। यदि ब्राह्मण अन्नाभावके कारण लगातार छः: समयतक उपवास कर जाय तो उस अवस्थामें वह किसी निकृष्ट कर्म करनेवाले मनुष्यके घरसे उतने धनका अपहरण कर सकता है, जिससे उसके एक दिनका भोजन चल जाय और दूसरे दिनके लिये कुछ बाकी न रहे || ११ ।।
खलिहानसे, खेतसे, बगीचेसे अथवा जहाँसे भी अन्न मिल सके, वहींसे वह भोजनमात्रके लिये अन्न उठा लावे और उसके बाद राजा पूछे या न पूछे उसके पास जाकर अपनी वह बात उसे कह दे ।। १२ ।।
उस दशामें धर्मज्ञ राजा धर्मके अनुसार उसे दण्ड न दे; क्योंकि क्षत्रिय राजाकी नादानीसे ही ब्राह्मणको भूखका कष्ट उठाना पड़ता है || १३ ।।
राजा उसके शास्त्रज्ञान और स्वभावका परिचय प्राप्त करके उसके लिये उचित आजीविकाकी व्यवस्था करे और जैसे पिता अपने औरस पुत्रकी रक्षा करता है, उसी प्रकार वह उस ब्राह्मणकी रक्षा करे ।। १४ ।।
प्रतिवर्ष किये जानेवाले आग्रयण आदि यज्ञ यदि न किये जा सके हों तो उनके बदले प्रतिदिन वैश्वानरी इष्टि समर्पित करे। मुख्य कर्मके स्थानमें जो गौण कार्य किया जाता है, उसका नाम अनुकल्प है, धर्मज्ञ पुरुषोंद्वारा बताया गया अनुकल्प भी परम धर्म ही है ।। १५ ||
क्योंकि विश्वेदेव, साध्य, ब्राह्णण और महर्षि--इन सब लोगोंने मृत्युसे डरकर आपत्कालके विषयमें प्रत्येक विधिका प्रतिनिधि नियत कर दिया है ।। १६ ।।
जो मुख्य विधिके अनुसार कर्म करनेमें समर्थ होकर भी गौण विधिसे काम चलाता है, उस दुर्बुद्धि मनुष्यको पारलौकिक फलकी प्राप्ति नहीं होती || १७ ।।
वेदज्ञ ब्राह्मणको चाहिये कि वह राजाके निकट अपनी आवश्यकता निवेदन न करे; क्योंकि ब्राह्मणकी अपनी शक्ति तथा राजाकी शक्तिमेंसे उसकी अपनी ही शक्ति प्रबल है ।। १८ ।।
अतः ब्रह्मवादियोंका तेज राजाके लिये सदा दुःसह है। ब्राह्मण इस जगत्का कर्ता, शासक, धारण-पोषण करनेवाला और देवता कहलाता है ।। १९ ।।
अतः उसके प्रति अमड्लसूचक बात न कहे। रूखे वचन न बोले। क्षत्रिय अपने बाहुबलसे, वैश्य और शूद्र धनके बलसे तथा ब्राह्मण मन्त्र एवं हवनकी शक्तिसे अपनी विपत्तिसे पार हो सकता है || २०½ ।।
न कन्या, न युवती, न मन्त्र न जाननेवाला, न मूर्ख और न संस्कारहीन पुरुष ही अग्निमें हवन करनेका अधिकारी है || २१½ |।
यदि ये हवन करते हैं तो स्वयं तो नरकमें पड़ते ही हैं, जिसका वह यज्ञ है, वह भी नरकमें गरिता है। अत: जो यज्ञकर्ममें कुशल और वेदोंका पारछ्त विद्वान् हो, वही होता हो सकता है ।। २२ ।।
जो अग्निहोत्र आरम्भ करके प्रजापति देवताके लिये अश्वरूप दक्षिणाका दान नहीं करता, धर्मदर्शी पुरुष उसे अनाहिताग्नि कहते- हैं || २३ ।।
मनुष्य जो भी पुण्यकर्म करे उसे श्रद्धापूर्वक और जितेन्द्रिय भावसे करे। पर्याप्त दक्षिणा दिये बिना किसी तरह यज्ञ न करे || २४ ।।
बिना दक्षिणाका यज्ञ प्रजा और पशुका नाश करता है; और स्वर्गकी प्राप्तिमें भी विघ्न डाल देता है। इतना ही नहीं वह इन्द्रिय, यश, कीर्ति तथा आयुको भी क्षीण करता है || २५ |।
जो ब्राह्मण रजस्वला स्त्रीके साथ समागम करते हैं, जिन्होंने घरमें अग्निकी स्थापना नहीं की है; तथा जो अवैदिक रीतिसे हवन करते हैं, वे सभी पापाचारी हैं || २६ ।।
जिस गाँवमें एक ही कुएँका पानी सब लोग पीते हैं, वहाँ बारह वर्षोतक निवास करनेसे तथा शूद्रजातिकी स्त्रीके साथ विवाह कर लेनेसे ब्राह्मण भी शूद्र हो जाता है ।। २७ ।।
यदि ब्राह्मण अपनी पत्नीके सिवा दूसरी स्त्रीको शय्यापर बिठा ले अथवा बड़े-बूढ़े शूद्रको या ब्राह्मणेतर--क्षत्रिय या वैश्यको सम्मान देता हुआ ऊँचे आसनपर बैठाकर स्वयं चटाईपर बैठे तो वह ब्राह्मणत्वसे गिर जाता है। राजन! उसकी शुद्धि जिस प्रकार होती है, वह मुझसे सुनो || २८ ।।
यदि ब्राह्मण एक रात भी किसी नीच वर्णके मनुष्यकी सेवा करे अथवा उसके साथ एक जगह रहे या एक आसनपर बैठे तो इससे जो पाप लगता है, उसको वह तीन वर्षों तक व्रतका पालन करते हुए पृथ्वीपर विचरनेसे दूर कर सकता है ।। २९ ।।
राजन! परिहासमें, स्त्रीके पास, विवाहके अवसर-पर, गुरुके हितके लिये अथवा अपने प्राण बचानेके उद्देश्यसे बोला गया असत्य हानिकारक नहीं होता। इन पाँच अवसरोंपर असत्य बोलना पाप नहीं बताया गया है ।। ३० ।।
नीच वर्णके पुरुषके पास भी उत्तम विद्या हो तो उसे श्रद्धापूर्वक ग्रहण करनी चाहिये और सोना अपवित्र स्थानमें भी पड़ा हो तो उसे बिना हिच-किचाहटके उठा लेना चाहिये ।। ३१ ।।
नीच कुलसे भी उत्तम स्त्रीको ग्रहण कर ले, विषके स्थानसे भी अमृत मिले तो उसे पी ले; क्योंकि स्त्रियाँ, रतन और जल--ये धर्मतः दूषणीय नहीं होते हैं || ३२ ।।
गौ और ब्राह्मणोंका हित, वर्णसंकरताका निवारण तथा अपनी रक्षा करनेके लिये वैश्य भी हथियार उठा सकता है ।। ३३ |।
मदिरापान, ब्रह्महत्या तथा गुरुपत्नीगमन--इन महापापोंसे छूटनेके लिये कोई प्रायक्षित्त नहीं बताया गया है। किसी भी उपायसे अपने प्राणोंका अन्त कर देना ही उन पापोंका प्रायश्षित्त होगा, ऐसी विद्वानोंकी धारणा है || ३४ ।।
सुवर्णकी चोरी, अन्य वस्तुओंकी चोरी तथा ब्राह्मणका धन छीन लेना--यह महान् पाप है। महाराज! मदिरापान और अगम्या स्त्रीके साथ गमन करनेसे, पतितोंके साथ सम्पर्क रखनेसे तथा ब्राह्मणेतर होकर ब्राह्मणीके साथ समागम करनेसे स्वेच्छाचारी पुरुष शीघ्र ही पतित हो जाता है ।। ३५-३६ ||
पतितके साथ रहनेसे, उसका यज्ञ करानेसे और उसे पढ़ानेसे मनुष्य एक वर्षमें पतित हो जाता है; परंतु उसकी संतानके साथ अपनी संतानका विवाह करनेसे, एक सवारी या एक आसन पर बैठनेसे तथा उसके साथमें भोजन करनेसे वह एक वर्षमें नहीं, किंतु तत्काल पतित हो जाता है || ३७ ।।
भरतनन्दन! उपर्युक्त पाप अनिर्देश्य (प्रायश्चित्त-रहित) कहे गये हैं। इन्हें छोड़कर और जितने पाप हैं, वे निर्देश्य हैं--शास्त्रमें उनका प्रायश्चित्त बताया गया है। उसके अनुसार प्रायक्षित्त करके पापका व्यसन छोड़ देना चाहिये || ३८ ॥।
पूर्वोक्त (शराबी, ब्रह्महत्यारा और गुरुपत्नीगामी) तीन पापियोंके मरनेपर उनकी दाहादिक क्रिया किये बिना ही कुटुम्बीजनोंको उनके अन्न और धनपर अधिकार कर लेना चाहिये। इसमें कुछ अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है ।। ३९ ।।
धार्मिक राजा अपने मन्त्री और गुरुजनोंको भी पतित हो जानेपर धर्मानुसार त्याग दे और जबतक ये अपने पापोंका प्रायश्चित्त न कर लें, तबतक इनके साथ बातचीत न करे ।। ४० ।।
पापाचारी मनुष्य यदि धर्माचरण और तपस्या करे तो अपने पापको नष्ट कर देता है। चोरको “यह चोर है” ऐसा कह देनेमात्रसे चोरके बराबर पापका भागी होना पड़ता है || ४१ ।।
जो चोर नहीं है, उसको चोर कह देनेसे मनुष्यको चोरसे दूना पाप लगता है। कुमारी कन्या यदि अपनी इच्छासे चरित्रभ्रष्ट हो जाय तो उसे ब्रह्महत्याका तीन चौथाई पाप भोगना पड़ता है ।। ४२ ।।
और जो उसे कलंकित करनेवाला पुरुष है, वह शेष एक चौथाई पापका भागी होता है। इस जगतमें ब्राह्मणोंको गाली देकर या उन्हें तिरस्कारपूर्वक धक्के देकर हटानेसे मनुष्यको बड़ा भारी पाप लगता है ।। ४३ ।।
सौ वर्षोतक तो उसे प्रेतकी भाँति भटकना पड़ता है, कहीं भी ठहरनेके लिये ठौर नहीं मिलता। फिर एक हजार वर्षोतक उसे नरकमें गिरकर रहना पड़ता है || ४४ ।।
अतः न ब्राह्मणको गाली दे और न उसे कभी धरती पर गिरावे। राजन! ब्राह्मणके शरीरमें घाव हो जानेपर उससे निकला हुआ रक्त धूलके जितने कणोंको भिगोता है, उसे चोट पहुँचानेवाला मनुष्य उतने ही वर्षोतक नरकमें पड़ा रहता है || ४५½ ।।
गर्भके बच्चेकी हत्या करनेवाला यदि युद्धमें शस्त्रोंक आधातसे मर जाय तो उसकी शुद्धि हो जाती है अथवा प्रज्वलित अग्निमें कूदकर अपने आपको होम दे तो वह शुद्ध हो जाता है || ४६½ ।।
मदिरा पीनेवाला पुरुष यदि मदिराको खूब गरम करके पी ले तो पापसे छुटकारा पा जाता है, अथवा उससे शरीर जल जानेके कारण उसकी मृत्यु हो जाय तो वह शुद्ध हो जाता है। इस प्रकार शुद्ध हो जानेपर ही वह ब्राह्मण शुद्ध लोकोंको प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं ।। ४७-४८ ।।
पापपूर्ण विचार रखनेवाला दुरात्मा पुरुष यदि गुरुपत्नीगगमनका पाप कर बैठे तो वह लोहेकी गरम की हुई नारी-प्रतिमाका आलिड्गनन करके प्राण दे देनेपर ही उस पापसे शुद्ध होता है ।। ४९ ।।
अथवा अपने शिश्न और अण्डकोषको स्वयं ही काटकर अगज्जलिमें लेकर सीधे नैरऋत्य-दिशाकी ओर जाता हुआ गिर पड़े या ब्राह्मणके लिये प्राणोंका परित्याग कर दे तो शुद्ध हो जाता है ।। ५०-५१ |।
अथवा अभश्वमेधयज्ञ, गोसव नामक यज्ञ या अग्निष्टोम यज्ञके द्वारा भलीभाँति यजन करके वह इहलोक तथा परलोकमें पूजित होता है ।। ५२ ।।
ब्रह्महत्या करनेवाला मनुष्य उस मरे हुए ब्राह्मगकी खोपड़ी लेकर अपना पापकर्म लोगोंको सुनाता रहे और बारह वर्षोतक ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए सबेरे, शाम तथा दोपहर तीनों समय स्नान करे। इस प्रकार वह तपस्यामें संलग्न रहे। इससे उसकी शुद्धि हो जाती है || ५३६ ।।
इसी तरह जो जान-बूझकर गर्भेणी स्त्रीकी हत्या करता है; उसे उस गर्भिणी-वधके कारण दो ब्रह्महत्याओंका पाप लगता है ।। ५४ $ ।।
मदिरा पीनेवाला मनुष्य मिताहारी और ब्रह्मचारी होकर पृथ्वीपर शयन करे। इस तरह तीन वर्षोतक रहनेके बाद “अग्निष्टोम' यज्ञ करे। तत्पश्चात् एक हजार बैल या इतनी ही गौएँ ब्राह्मणोंको दान दे तो वह शुद्ध हो जाता है ।। ५५-५६ ।।
यदि वैश्यकी हत्या कर दे तो दो वर्षोतक पूर्वोक्त नियमसे रहनेके बाद एक सौ बैल और एक सौ गौओंका दान करे, तथा शूद्रकी हत्या कर देनेपर हत्यारेको एक वर्षतक पूर्वोक्त नियमसे रहकर एक बैल और सौ गौओंका दान करना चाहिये || ५७ ।।
कुत्ते, सूअर और गदहोंकी हत्या करके मनुष्य शूद्रवध-सम्बधी व्रतका ही आचरण करे। राजन! बिल्ली, नीलकण्ठ, मेढक, कौआ, साँप और चूहा आदि प्राणियोंको मारनेसे भी उक्त पशुवधके ही समान पाप बताया गया है ॥। ५८½ ।।
अब दूसरे प्रायश्षित्तोंका भी क्रमश: वर्णन करता हूँ। अनजानमें कीड़ों-मकोड़ोंका वध आदि छोटा पाप हो जाय तो उसके लिये पश्चात्ताप करे। इतनेहीसे उसकी शुद्धि हो जाती है। गोवधके सिवा अन्य जितने उपपातक हैं उनमेंसे प्रत्येकके लिये एक-एक वर्षतक व्रतका आचरण करे। श्रोत्रियकी पत्नीसे व्यभिचार करनेपर तीन वर्षतक और अन्य परस्त्रियोंसे समागम करनेपर दो वर्षोतक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए दिनके चौथे पहरमें एक बार भोजन करे। अपने लिये पृथक् स्थान और आसनकी व्यवस्था रखते हुए घूमता रहे। दिनमें तीन बार जलसे स्नान करे। ऐसा करनेसे ही वह अपने उपर्युक्त पापोंका निवारण कर सकता है। जो अग्निको भ्रष्ट करता है, उसके लिये भी यही प्रायश्रित्त है ।। ५९ - ६१||
कुरुनन्दन! जो अकारण ही पिता, माता और गुरुका परित्याग करता है, वह पतित हो जाता है। उसे केवल अन्न और वस्त्र दे और पैतृकसम्पत्तिसे वंचित कर दे। वह ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए ब्राह्मणोंको दान दे (और पिता-माता आदिका पूर्ववत् आदर करने लगे) तो उस पापसे मुक्त हो जाता है, यही धर्मशास्त्रोंका निर्णय है ।। ६२ ई ।।
यदि पत्नीने व्यभिचार किया हो और विशेषत: इस कार्यमें पकड़ ली गयी हो तो परायी सत्रीसे व्यभिचार करनेवाले पुरुषके लिये जो प्रायश्रित्तरूप व्रत बताया गया है, वही उससे भी करावे ।। ६३ ।।
जो अपने श्रेष्ठ पतिको छोड़कर अन्य पापीकी शय्यापर जाती है, उस कुलटाको अत्यन्त विस्तृत मैदानमें खड़ी करके राजा कुत्तोंसे नोचवा डाले ।। ६४ ।।
इसी तरह व्यभिचारी पुरुषको बुद्धिमान् राजा लोहेकी तपायी हुई खाटपर सुलाकर ऊपरसे लकड़ी रख दे और आग लगा दे, जिससे वह पापी उसीमें जलकर भस्म हो जाय। महाराज! पतिकी अवहेलना करके परपुरुषोंसे व्यभिचार करनेवाली स्त्रियोंके लिये भी यही दण्ड है, उपर्युक्त कहे हुएमें जिन दुष्टोंके लिये प्रायश्चित्त बताया है, उनके लिये यह भी विधान है कि एक वर्षके भीतर प्रायश्चित्त न करनेपर दुष्ट पुरुषको दूना दण्ड प्राप्त होना चाहिये। जो मनुष्य दो, तीन, चार या पाँच वर्षोतक उस पतित पुरुषके संसर्गमें रहे, वह मुनिजनोचित व्रत धारण करके उतने ही वर्षोतक पृथ्वीपर घूमता हुआ भिक्षावृत्तिसे जीवननिर्वाह करे || ६५--६७ ।।
ज्येष्ठ भाईका विवाह होनेसे पहले ही यदि छोटा भाई अधर्मपूर्वक विवाह कर ले तो ज्येष्ठको “परिवित्ति” कहते हैं; छोटे भाईको “परिवेत्ता' हैं और उसकी पत्नीको जिसका परिवेदन (ग्रहण) किया जाता है, परिवेदनीया कहते हैं-ये सब-के-सब पतित माने गये हैं ।। ६८ ।।
इन तीनोंको पृथक्ू-पृथक् अपनी शुद्धिके लिये उसी व्रतका आचरण करना चाहिये जो यज्ञहीन ब्राह्मणके लिये बताया गया है। अथवा एक मासतक चान्द्रायण या कृच्छुचान्द्रायण व्रत करे ।। ६९ ।।
परिवेत्ता पुरुष उस नववधूको पतोहूके रूपमें ज्येष्ठ भाईको सौंप दे और ज्येष्ठ भाईकी आज्ञा मिलनेपर छोटा भाई उसे पत्नीरूपमें ग्रहण करे। ऐसा करनेपर वे तीनों धर्मके अनुसार पापसे छुटकारा पाते हैं || ७० ।।
पशु जातियोंमें गौओंको छोड़कर अन्य किसीकी अनजानमें हिंसा हो जाय तो वह दोषावह नहीं मानी जाती; क्योंकि मनुष्यको पशुओंका अधिष्ठाता एवं पालक माना गया है || ७१ |।
गोवध करनेवाला पापी उस गायकी एूँछको इस प्रकार धारण करे कि उसका बाल ऊपरकी ओर रहे। फिर मिट्टीका पात्र हाथमें लेकर प्रतिदिन सात घरोंमें भिक्षा माँगे और अपने पापकर्मकी बात कहकर लोगोंको सुनाता रहे। उन्हीं सात घरोंकी भिक्षामें जो अन्न मिल जाय, वही खाकर रहे। ऐसा करनेसे वह बारह दिनोंमें शुद्ध हो जाता है। यदि पाप अधिक हो तो एक वर्षतक उस व्रतका अनुष्ठान करे, जिससे वह अपने पापको नष्ट कर देता है ।। ७२-७३ ।।
इस प्रकार मनुष्योंके लिये परम उत्तम प्रायश्चित्तका विधान है। उनमें जो दान करनेमें समर्थ हों, उनके लिये दानकी भी विधि है। यह सब प्रायश्चित्त विचारपूर्वक करना चाहिये ।। ७४ ।।
अनास्तिक पुरुषोंके लिये एक गोदानमात्र ही प्रायश्चित्त बतलाया गया है। कुत्ते, सूअर, मनुष्य, मुर्गे और गदहेके मांस और मल-मूत्र खा लेनेपर द्विजका पुनः संस्कार होना चाहिये || ७५३ ।।
सोमपान करनेवाला ब्राह्मण यदि किसी शराबीकी गन्ध भी सूँघ ले तो वह तीन दिनोंतक गरम जल पीकर रहे, फिर तीन दिन गरम दूध पीये। तीन दिन गरम दूध पीनेके बाद तीन दिनतक केवल वायु पीकर रहे। इससे वह शुद्ध हो जाता है ।| ७६-७७ ।।
इस प्रकार यह सनातन प्रायश्रित्त सबके लिये बताया गया है। ब्राह्मणके लिये इसका विशेषरूपसे विधान है। अनजानमें जो पाप बन जाय, उसीके लिये प्रायश्चित्त है ।। ७८।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें पापोंके प्रायश्षित्तकी विधिविषयक एक सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ½ श्लोक मिलाकर कुल ७८½ “लोक हैं)
टिका टिप्पणी ;—
- जिसने अग्निकी स्थापना नहीं की है, उसे “अनाहिताग्नि” कहा जाता है। तात्पर्य यह कि उक्त दक्षिणा दिये बिना उसके द्वारा की हुई अग्निस्थापना व्यर्थ हो जाती है।
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