सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के एक सौ छप्पनवें अध्याय से एक सौ साठवें अध्याय तक (From the 156 chapter to the 160 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ छप्पनवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ छप्पनवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“नारदजीकी बात सुनकर वायुका सेमलको धमकाना और सेमलका वायुको तिरस्कृत करके विचारमग्न होना”

 भीष्मजी कहते हैं--राजेन्द्र! सेमलसे ऐसा कहकर ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ नारदजीने वायुदेवके पास आकर उसकी सब बातें कह सुनायीं ।। १ ।।

नारदजीने कहा--वायुदेव! हिमालयके पृष्ठभागपर एक सेमलका वृक्ष है, जो बहुत बड़े परिवारके साथ है। उसकी छाया विशाल और घनी है और जड़ें बहुत दूरतक फैली हैं। वह तुम्हारा अपमान करता है || २ ।।

उसने तुम्हारे प्रति बहुत-से ऐसे आक्षेपयुक्त वचन कहे हैं, जिन्हें तुम्हारे सामने मुझे कहना उचित नहीं है ।। ३ ।।

पवनदेव! मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम समस्त प्राण-धारियोंमें श्रेष्ठ, महान्‌ एवं गौरवशाली हो त था क्रोधमें वैवस्वत यमके समान हो ।। ४ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! नारदजीकी यह बात सुनकर वायुदेवने शाल्मलिके पास जा कुपित होकर कहा ।। ५ ।।

वायु बोले--सेमल! तुमने इधरसे जाते हुए नारदजीसे मेरी निन्दा की है। मैं वायु हूँ। तुम्हें अपना बल और प्रभाव दिखाता हूँ ।। ६ ।।

वृक्ष! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। तुम्हारे विषयमें मुझे सब कुछ ज्ञात है। भगवान्‌ ब्रह्माजीने प्रजाकी सृष्टि करते समय तुम्हारी छायामें विश्राम किया था || ७ ।।

दुर्बुद्धे! उनके विश्राम करनेसे ही मैंने तुमपर यह कृपा की थी, इसीसे तुम्हारी रक्षा हो रही है। द्रमाधम! तुम अपने बलसे नहीं बचे हुए हो ।। ८ ।।

परंतु तुम अन्य प्राकृतिक मनुष्यकी भाँति जो मेरा अपमान कर रहे हो, इससे कुपित होकर मैं अपना वह स्वरूप दिखाऊँगा, जिससे तुम फिर मेरा अपमान नहीं करोगे ।। ९ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! पवनदेवके ऐसा कहनेपर सेमलने हँसते हुए-से कहा --'पवन! तुम कुपित होकर स्वयं ही अपनी सारी शक्ति दिखाओ ।। १० ।।

“मेरे ऊपर अपना क्रोध उतारो। तुम कुपित होकर मेरा क्या कर लोगे। पवन! यद्यपि तुम स्वयं बड़े प्रभावशाली हो; फिर भी मैं तुमसे डरता नहीं हूँ ।। ११ ।।

“मैं बलमें तुमसे बहुत बढ़-चढ़कर हूँ; अतः मुझे तुमसे भय नहीं मानना चाहिये। जो बुद्धिके बली होते हैं, वे ही बलिष्ठ माने जाते हैं। जिनमें केवल शारीरिक बल होता है, वे वास्तवमें बलवान्‌ नहीं समझे जाते” || १२३ ।।

सेमलके ऐसा कहनेपर वायुने कहा--'अच्छा, कल मैं तुम्हें अपना पराक्रम दिखाऊँगा।” इतनेमें ही रात आ गयी ।। १३½ ।।

उस समय सेमलने वायुके द्वारा जो कुछ किया जानेवाला था, उसपर मन-ही-मन विचार करके तथा अपने आपको वायुके समान बलवान्‌ न देखकर सोचा-- ।। १४ $ ।।

“अहो! मैंने नारदजीसे जो बातें कही थीं, वे सब झूठी थीं। मैं वायुका सामना करनेमें असमर्थ हूँ; क्योंकि वे बलमें मुझसे बढ़े हुए हैं || १५३ ।।

'जैसा कि नारदजीने कहा था, वायुदेव नित्य बलवान हैं। मैं तो दूसरे वृक्षोंसे भी दुर्बल हूँ, इसमें संशय नहीं है; परंतु बुद्धिमें कोई भी वृक्ष मेरे समान नहीं है ।। १६-१७ 

“मैं बुद्धिका आश्रय लेकर वायुके भयसे छुटकारा पाऊँगा। यदि वनमें रहनेवाले दूसरे वृक्ष भी उसी बुद्धिका सहारा लेकर रहें तो नि:संदेह कुपित वायुसे उनका कोई अनिष्ट नहीं होगा || १८½ ।।

'परंतु वे मूर्ख हैं; अतः वायुदेव जिस प्रकार कुपित होकर उन्हें दबाते हैं, उसका उन्हें ज्ञान नहीं है। मैं यह सब अच्छी तरह जानता हूँ ।। १९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें पवन-शाल्मलि-संवादविषयक एक सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सत्तावनवें अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“सेमलका हार स्वीकार करना तथा बलवानके साथ वैर न करनेका उपदेश”

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! मन-ही-मन ऐसा विचारकर सेमलने क्षुभित हो अपनी शाखाओं, डालियों तथा टहनियोंको स्वयं ही नीचे गिरा दिया || १ ।।

वह वनस्पति अपनी शाखाओं, पत्तों और फूलोंको त्यागकर प्रात:काल वायुके आनेकी प्रतीक्षा करने लगा ।। २ ।।

तत्पश्चात्‌ सबेरा होनेपर वायुदेव कुपित हो बड़े-बड़े वृक्षोंको धराशायी करते हुए उस स्थानपर आये, जहाँ वह सेमलका वृक्ष था ।। ३ ।।

वायुने देखा कि सेमलके पत्ते गिर गये हैं और उसकी श्रेष्ठ शाखाएँ धराशायी हो गयी हैं। यह फूलोंसे भी हीन हो चुका है, तब वे बड़े प्रसन्न हुए और जिसकी शाखाएँ पहले बड़ी भंयकर थीं, उस सेमलसे मुसकराते हुए इस प्रकार बोले ।। ४ ।।

वायुने कहा--शाल्मले! मैं भी रोषमें भरकर तुम्हें ऐसा ही बना देना चाहता था। तुमने स्वयं ही यह कष्ट स्वीकार कर लिया है, तुम्हारी शाखाएँ गिर गयीं, फूल पत्ते, डालियाँ और अंकुर सभी नष्ट हो गये। तुमने अपनी ही कुमतिसे यह विपत्ति मोल ली है। तुम्हें मेरे बल और पराक्रमका शिकार बनना पड़ा है ।। ५-६ |।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! वायुका यह वचन सुनकर सेमल उस समय लज्जित हो गया और नारदजीने जो कुछ कहा था, उसे याद करके वह बहुत पछताने लगा ।। ७ ।।

नृपश्रेष्ठ) इसी प्रकार जो मूर्ख मनुष्य स्वयं दुर्बल होकर किसी बलवान्‌के साथ वैर बाँध लेता है, वह सेमलके समान ही संतापका भागी होता है ।। ८ ।।

अतः दुर्बल मनुष्य बलवानोंके साथ वैर न करे। यदि वह करता है तो सेमलके समान ही शोचनीय दशाको पहुँचकर शोकमग्न होता है ।। ९ ।।

महाराज! महामनस्वी पुरुष अपनी बुराई करने-वालोंपर वैरभाव नहीं प्रकट करते हैं। वे धीरे-धीरे ही अपना बल दिखाते हैं || १० ।।

खोटी बुद्धिवाला मनुष्य किसी बुद्धिजीवी पुरुषसे वैर न बाँधे; क्योंकि घास-फूँसपर फैलनेवाली आगके समान बुद्धिमानोंकी बुद्धि सर्वत्र पहुँच जाती है ।। ११ ।।

नरेश्वर! राजेन्द्र! पुरुषमें बुद्धिके समान दूसरी कोई वस्तु नहीं है। संसारमें जो बुद्धिबलसे युक्त है, उसकी समानता करनेवाला दूसरा कोई पुरुष नहीं है || १२ ।।

शत्रुओंका नाश करनेवाले राजेन्द्र! इसलिये जो बालक, जड, अन्ध, बधिर, तथा बलमें अपनेसे बढ़ा-चढ़ा हो, उसके द्वारा किये गये प्रतिकूल बर्ताव को भी क्षमा कर देना चाहिये; यह क्षमाभाव तुम्हारे भीतर विद्यमान है || १३ ।।

महातेजस्वी नरेश! अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ भी बलमें महात्मा अर्जुनके समान नहीं हैं ।। १४ ।।

इन्द्र और पाण्डुके यशस्वी पुत्र अर्जुनने अपने बलका भरोसा करते हुए युद्धमें विचरते हुए यहाँ उन समस्त सेनाओंको मार डाला और भगा दिया ।। १५ |।

भरतनन्दन! महाराज! मैंने तुमसे राजधर्म और आपद्धर्मका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, अब और क्या सुनना चाहते हो ।। १६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें पवन-शाल्मलिसंवादविषयक एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ अट्ठावनवें अध्याय के श्लोक 1-35 का हिन्दी अनुवाद)

“समस्त अनर्थोका कारण लोभको बताकर उससे होनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन तथा श्रेष्ठ महापुरुषोंके लक्षण”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ! मैं यथार्थरूपसे यह सुनना चाहता हूँ कि पापका अधिष्ठान क्या है और किससे उसकी प्रवृत्ति होती है? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--नरेश्वर! पापका जो अधिष्ठान है, उसे सुनो। एकमात्र लोभ ही पापका अधिष्ठान है। वह मनुष्यको निगल जानेके लिये एक बड़ा ग्राह है। लोभसे ही पापकी प्रवृत्ति होती है ।। २ ।।

लोभसे ही पाप, अधर्म तथा महान्‌ दुःखकी उत्पत्ति होती है। शठता तथा छलकपटका भी मूल कारण लोभ ही है। इसीके कारण मनुष्य पापाचारी हो जाते हैं ।। ३ ।।

लोभसे ही क्रोध प्रकट होता है, लोभसे ही कामकी प्रवृत्ति होती है और लोभसे ही माया, मोह, अभिमान उद्दण्डता तथा पराधीनता आदि दोष प्रकट होते हैं ।। ४ ।।

असहनशीलता, निर्लज्जता, सम्पत्तिनाश, धर्मक्षय, चिन्ता और अपयश-ये सब लोभसे ही सम्भव होते हैं ।। ५ ।।

लोभसे ही कृपणता, अत्यन्त तृष्णा, शास्त्रविरुद्ध कर्मोमें प्रवृत्ति, कुल और विद्याविषयक अभिमान, रूप और ऐश्वर्यका मद, समस्त प्राणियोंके प्रति द्रोह, सबका तिरस्कार, सबके प्रति अविश्वास तथा कुटिलतापूर्ण बर्ताव होते हैं ।। ६-७ ।।

पराये धनका अपहरण, परायी स्त्रियोंके प्रति बलात्कार, वाणीका वेग, मनका वेग, निन्दा करनेकी विशेष प्रवृत्ति, जननेन्द्रियका वेग, उदरका वेग, मृत्युका भयंकर वेग अर्थात्‌ आत्महत्या, ईर्ष्याका प्रबल वेग, मिथ्या का दुर्जय वेग, अनिवार्य रसनेन्द्रियका वेग, दुःसह श्रोत्रेन्द्रियका वेग, घृणा, अपनी प्रशंसाके लिये बढ़-बढ़कर बातें बनाना, मत्सरता, पाप, दुष्कर कर्मामें प्रवृत्ति, न करने योग्य कार्य कर बैठना--इन सबका कारण भी लोभ ही है || ८--१० $ ||

कुरुश्रेष्ठ! मनुष्य जन्मकालमें, बाल्यावस्थामें तथा कौमार और यौवनावस्थामें जिसके कारण अपने बुरे कर्मोको छोड़ नहीं पाते हैं, जो मनुष्यके वृद्ध होनेपर भी जीर्ण नहीं होता, वह लोभ ही है। जिस प्रकार गहरे जलवाली बहुत-सी नदियोंके मिल जानेसे भी समुद्र नहीं भरता है, उसी प्रकार कितने ही पदार्थोका लाभ क्‍यों न हो जाय, लोभका पेट कभी नहीं भरता है ।| ११-१२ ६ ।।

लोभी मनुष्य बहुत-सा लाभ पाकर भी संतुष्ट नहीं होता। भोगोंसे वह कभी तृप्त नहीं होता। नरेश्वर! न देवताओं, न गन्धर्वों, न असुरों, न बड़े-बड़े नागों और न सम्पूर्ण भूतगणोंद्वारा ही लोभका स्वरूप यथार्थ-रूपसे जाना जाता है || १३-१४ ।।

जिसने अपने मन और इन्द्रियोंको काबूमें कर लिया है, उस पुरुषको चाहिये कि वह मोहसहित लोभको जीते। कुरुनन्दन! दम्भ, द्रोह, निन्‍दा, चुगली, और मत्सरता-ये सभी दोष अजितात्मा लोभी पुरुषोंमें ही होते हैं । १५ ½ ।।

बहुश्रुत विद्वान्‌ बड़े-बड़े शास्त्रोंकी कण्ठस्थ कर लेते हैं। सबकी शंकाओंका निवारण कर देते हैं; परंतु इस लोभमें फँसकर उनकी बुद्धि मारी जाती है और वे निरन्तर क्लेश उठाते रहते हैं || १६½ ।।

वे दोष और क्रोधमें फँसकर शिष्टाचारको छोड़ देते हैं और ऊपरसे मीठे वचन बोलते हुए भी भीतरसे अत्यन्त कठोर हो जाते हैं। उनकी स्थिति घास-फूँससे ढके हुए कुएँके समान होती है। वे धर्मके नामपर संसारको धोखा देनेवाले क्षुद्र मनुष्य धर्मध्वजी होकर (धर्मका ढोंग फैलाकर) जगतको लूटते हैं ।। १७-१८ ।।

युक्तिबलका आश्रय लेकर बहुत-से असत्‌ मार्ग खड़े कर देते हैं तथा लोभ और अज्ञानमें स्थित हो सत्पुरुषोंके स्थापित किये हुए मार्गों (धर्ममर्यादाओं) का नाश करने लगते हैं ।। १९ ।।

लोभग्रस्त दुरात्मा पुरुषोंद्वारा अपहृत (विकृत) होनेवाले धर्मकी जो-जो स्थिति बिगड़ जाती या बदल जाती है, वह उसी रूपमें प्रचलित हो जाती है || २० ।।

कुरुनन्दन! जिनकी बुद्धि लोभमें फँसी हुई है, उन मनुष्योंमें दर्प, क्रोध, मद, दुःस्वप्र, हर्ष, शोक तथा अत्यन्त अभिमान--ये ही दोष दिखायी देते हैं || २१ ।।

जो सदा लोभमें डूबे रहते हैं, ऐसे ही मनुष्योंको तुम अशिष्ट समझो। तुम्हें शिष्ट पुरुषोंसे ही अपनी शंकाएँ पूछनी चाहिये। पवित्र नियमोंका पालन करनेवाले उन शिष्ट पुरुषोंका मैं परिचय दे रहा हूँ || 

जिन्हें फिर संसारमें जन्म लेनेका भय नहीं है, परलोकसे भी भय नहीं है, जिनकी भोगोंमें आसक्ति नहीं है तथा प्रिय और अप्रियमें भी जिनका राग-द्वेष नहीं है ।। २३ ।।

जिन्हें शिष्टाचार प्रिय है। जिनमें इन्द्रिय-संयम प्रतिष्ठित है। जिनके लिये सुख और दुःख समान है। सत्य ही जिनका परम आश्रय है ।। २४ ।।

वे देते हैं, लेते नहीं। उनमें स्वभावसे ही दया भरी रहती है। वे देवताओं, पितरों तथा अतिथियोंके सेवक होते हैं और सत्कर्म करनेके लिये सदा उद्यत रहते हैं || २५ ।।

भरतनन्दन! वे वीर पुरुष सबका उपकार करनेवाले, सम्पूर्ण धर्मोंके रक्षक तथा समस्त प्राणियोंके हितैषी होते हैं। वे परहितके लिये सर्वस्व निछावर कर देते हैं || २६ ।।

उन्हें सत्कर्मसे विचलित नहीं किया जा सकता। वे केवल धर्मके अनुष्ठानमें तत्पर रहते हैं। पहलेके श्रेष्ठ पुरुषोंने जिसका पालन किया है, उसी सदाचारका वे भी पालन करते हैं। उनका वह आचार कभी नष्ट नहीं होता || २७ ।।

वे किसीको भय नहीं दिखाते, चपलता नहीं करते उनका स्वभाव किसीके लिये भंयकर नहीं होता है, वे सदा सन्मार्गमें ही स्थित रहते हैं, उनमें अहिंसा नित्य प्रतिष्ठित होती है, ऐसे श्रेष्ठ पुरुषोंका ही सदा सेवन करना चाहिये ।। २८ ।।

जो काम और क्रोधसे रहित, ममता और अहंकारसे शून्य, उत्तम व्रतका पालन करनेवाले तथा धर्ममर्यादाको स्थिर रखनेवाले हैं, उन्हीं महापुरुषोंका संग करो और उनसे अपना संदेह पूछो ।। २९ ।।

युधिष्ठिर! उनका धर्मपालन धन बटोरने या यश कमानेके लिये नहीं होता। वे धर्म तथा शारीरिक क्रियाओंको अवश्यकर्तव्य समझकर ही करते हैं || ३० ।।

उनमें भय, क्रोध, चपलता तथा शोक नहीं होता। वे धर्मध्वजी (पाखण्डी) नहीं होते, किसी गोपनीय पाखण्डपूर्ण धर्मका आश्रय नहीं लेते हैं || ३१ ।।

कुन्तीनन्दन! जिनमें लोभ और मोहका अभाव है, जो सत्य और सरलतामें स्थित हैं तथा कभी सदाचारसे भ्रष्ट नहीं होते हैं, ऐसे पुरुषोंमें तुम्हें प्रेम रखना चाहिये ।। ३२ ।।

तात! जो लाभमें हर्षसे फूल नहीं उठते, हानिमें व्यथित नहीं होते, ममता और अहंकारसे शून्य हैं, जो सर्वदा सत्त्वगुणमें स्थित और समदर्शी होते हैं, जिनकी दृष्टिमें लाभहानि सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय तथा जीवन-मरण समान हैं, जो सुदृढ़ पराक्रमी, आध्यात्मिक उन्नतिके इच्छुक और सत्त्वमय मार्ममें स्थित हैं, उन धर्मप्रेमी महानुभावोंकी तुम सावधान और जितेन्द्रिय रहकर सेवा-सत्कार करो। ये सब महापुरुष स्वभावसे ही बड़े गुणवान्‌ होते हैं। शुभ और अशुभके विषयमें उनकी वाणी यथार्थ होती है। दूसरे लोग तो केवल बातें बनानेवाले होते हैं || ३३-३५ ।।

(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें आपत्तिके मूलभूत दोषका वर्णनविषयक एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ उनसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ उनसठवें अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“अज्ञान और लोभको एक दूसरेका कारण बताकर दोनोंकी एकता करना और दोनोंको ही समस्त दोषोंका कारण सिद्ध करना”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आपने सब अनर्थोंके आधारभूत लोभका वर्णन तो किया, अब अज्ञानका भी यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये; मैं उसके परिणामको भी सुनना चाहता हूँ ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठि! जो मनुष्य अज्ञानवश पाप करता है और उससे होनेवाली अपनी ही हानिको नहीं समझता तथा श्रेष्ठ पुरुषोंसे द्वेष करता है, उसकी संसारमें बड़ी निन्दा होती है ।। २ ।।

अज्ञानसे ही जीव नरकमें पड़ता है। अज्ञानसे ही उसकी दुर्गति होती है, अज्ञानसे वह कष्ट उठाता तथा विपत्तियोंके समुद्रमें डूब जाता है ।। ३ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--भूपाल! अज्ञानकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, क्षय, उद्गम, मूल, योग, गति, काल, कारण और हेतु कया हैं? || ४ ।।

पृथ्वीनाथ! मैं इस विषयको यथावत्‌्रूपसे तत्त्वके विवेचनपूर्वक सुनना चाहता हूँ; क्योंकि यह जो दुःख उपलब्ध होता है, उसकी उत्पत्तिका कारण अज्ञान ही है ।। ५ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌। राग, द्वेष, मोह, हर्ष, शोक, अभिमान, काम, क्रोध, दर्प, तन्द्रा, आलस्य, इच्छा, वैर, ताप, दूसरोंकी उन्नति देखकर जलना और पापाचार करना-इन सबको (अज्ञानका कार्य होनेसे) अज्ञान बताया गया है ।। ६-७ ।।

महाराज! इस अज्ञानकी उत्पत्ति और वृद्धि आदिके विषयमें जो प्रश्न कर रहे हो, उसके विषयमें विशेष विस्तारके साथ किया हुआ मेरा वर्णन सुनो ।। ८ ।।

भारत! पृथ्वीनाथ! अज्ञान और अत्यन्त लोभ--इन दोनोंको एक समझो, क्योंकि इनके परिणाम और दोष समान ही हैं ।। ९ ।।

लोभसे ही अज्ञान प्रकट होता है और लोभके बढ़नेपर वह अज्ञान और भी बढ़ता है। जबतक लोभ रहता है, तबतक अज्ञान भी बना रहता है और जब लोभका क्षय होता है, तब अज्ञान भी क्षीण हो जाता है। अज्ञान और लोभके कारण ही जीव नाना प्रकारकी योनियोंमें जन्म लेता है ।। १० ।।

मोह ही निः:संदेह लोभका मूलकारण है। यह कालस्वरूप मोहात्मक अज्ञान ही मनुष्यकी बुरी गतिका कारण है। लोभके छिल्न-भिन्न होनेमें भी काल ही कारण है || ११ ।।

मूढ़ मनुष्यको अज्ञानसे लोभ और लोभसे अज्ञान होता है। लोभसे ही सारे दोष पैदा होते हैं; इसलिये लोभको त्याग देना चाहिये || १२ ।।

जनक, युवनाश्वच, वृषादर्भि, प्रसेनेजित्‌ तथा अन्य नरेश लोभका नाश करके ही दिव्यलोकमें गये हैं ।। १३ ।।

कुरुश्रेष्ठ! तुम स्वयं प्रयत्न करके इस प्रत्यक्ष दीखने वाले लोभका परित्याग करो। लोभका त्याग कर इस लोकमें सुख तथा मृत्युके पश्चात्‌ परलोकमें भी आनन्द प्राप्त करके सुखपूर्वक विचरोगे ।। १४ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपवके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें अज्ञानका माहात्म्यविषयक एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ साठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ साठवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“मन और इन्ट्रियोंके संयमरूप दमका माहात्म्य”

युधिष्ठिरने पूछा--धर्मात्मा पितामह! जो स्वाध्यायके लिये यत्नशील है और धर्मपालनकी इच्छा रखता है, उस मनुष्यके लिये इस संसारमें श्रेय क्या बताया जाता है? ।। १ ।।

पितामह! जगतमें श्रेयका प्रतिपादन करनेवाले अनेक प्रकारके दर्शन (मत) हैं; परंतु आप जिसे श्रेय मानते हों, जो इस लोक और परलोकमें भी कल्याण करनेवाला हो, उसे मुझे बताइये ।। २ ।।

भारत! धर्मका यह मार्ग बहुत बड़ा है। इससे बहुत सी शाखाएँ निकली हुई हैं। इन धर्मोमेंसे कौनसा धर्म सर्वोत्तम, अवश्य पालन करनेयोग्य माना गया है? ।।

राजन! बहुत-सी शाखाओंसे युक्त इस महान्‌ धर्मका वास्तवमें परम मूल क्या है? तात! ये सब बातें मुझे पूर्णरूपसे बताइये ।। ४ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! मैं बड़े हर्षके साथ तुम्हें वह उपाय बताता हूँ, जिससे तुम कल्याण प्राप्त कर लोगे। जैसे अमृतको पीकर पूर्ण तृप्ति हो जाती है, उसी प्रकार तुम ज्ञानी होकर इस ज्ञान-सुधासे पूर्णतः तृप्त हो जाओगे ।। ५ ।।

महर्षियोंने अपने-अपने ज्ञानके अनुसार धर्मकी एक नहीं, अनेक विधियाँ बतायी हैं, परंतु उन सबका आधार दम (मन और इन्द्रियोंका संयम) ही है || ६ ।।

धर्मके सिद्धान्तको जाननेवाले वृद्ध पुरुष दमको नि:श्रेयस (परम कल्याण) का साधन बताते हैं। विशेषतः ब्राह्मणके लिये तो दम ही सनातन धर्म है ।। ७ ।।

दमसे ही उसे अपने शुभ कर्मोकी यथावत्‌ सिद्धि प्राप्त होती है। दम उसके लिये दान, यज्ञ और स्वाध्यायसे भी बढ़कर है ।। ८ ।।

दम तेजकी वृद्धि करता है, दम परम पवित्र साधन है, दमसे पापरहित हुआ तेजस्वी पुरुष परमपदको प्राप्त कर लेता है ।। ९ |।

हमने संसारमें दमके समान दूसरा कोई धर्म नहीं सुना। जगत्‌में सभी धर्मवालोंके यहाँ दमको उत्कृष्ट बताया गया है। सबने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है ।। १० ।।

नरेन्द्र! दमसे अर्थात्‌ इन्द्रिय और मनके संयमसे युक्त पुरुषको महान धर्मकी प्राप्ति होती है। वह इहलोक और परलोकमें भी परम सुख पाता है || ११ ।।

जिसने अपने मन और इन्द्रियोंका दमन कर लिया है, वह सुखसे सोता, सुखसे ही जागता और सुखपूर्वक ही लोकोंमें विचरता है। उसका मन सदा प्रसन्न रहता है || १२ ।।

जिसकी इन्द्रियाँ और मन वशमें नहीं है, वह पुरुष निरन्तर क्लेश उठाता है। साथ ही वह अपने ही दोषोंसे बहुत-से दूसरे-दूसरे अनर्थोकी भी सृष्टि कर लेता है ।। १३ ।।

चारों आश्रमोंमें दमको ही उत्तम व्रत बताया गया है। अब मैं इन्द्रिय-दमन एवं मनोनिग्रहके उन लक्षणोंको बताऊँगा, जिनका उदय होना ही दम कहा गया है ।। १४ ।।

क्षमा, धीरता, अहिंसा, समता, सत्यवादिता, सरलता, इन्द्रिय-विजय, दक्षता, कोमलता, लज्जा, स्थिरता, उदारता, क्रोधहीनता, संतोष, प्रिय वचन बोलनेका स्वभाव, किसी भी प्राणीको कष्ट न देना और दूसरोंके दोष न देखना--इन सद्गुणोंका उदय होना ही दम कहलाता है ।। १५-१६ |।

कुरुनन्दन! जिसने मन और इन्द्रियोंका दमन कर लिया है, उसमें गुरुजनोंके प्रति आदरका भाव, समस्त प्राणियोंके प्रति दया और किसीकी भी चुगली न करनेकी प्रवृत्ति होती है। वह जनापवाद, असत्य भाषण, निन्दा-स्तुतिकी प्रवृत्ति, काम, क्रोध, लोभ, दर्प, जडता, डींग हाँकना, रोष, ईर्ष्या और दूसरोंका अपमान--इन दुर्गुणोंका कभी सेवन नहीं करता ।। १७-१८ ।।

इन्द्रिय और मनको वशमें रखनेवाले पुरुषकी कभी निन्दा नहीं होती। उसके मनमें कोई कामना नहीं होती। वह छोटी-छोटी वस्तुओंके लिये किसीके सामने हाथ नहीं फैलाता अथवा तुच्छ विषय-सुखोंकी अभिलाषा नहीं रखता, दूसरोंके दोष नहीं देखता। वह मनुष्य समुद्रके समान अगाध गाम्भीर्य धारण करता है। जैसे समुद्र अनन्त जलराशि पाकर भी भरता नहीं है, उसी प्रकार वह भी निरन्तर धर्मसंचयसे कभी तृप्त नहीं होता || १९ ।।

“मैं तुमपर स्नेह रखता हूँ और तुम मुझपर। वे मुझमें अनुराग रखते हैं और मैं उनमें" इस प्रकार पहलेके सम्बन्धियोंके सम्बन्धका जितेन्द्रिय पुरुष चिन्तन नहीं करता ।।२०।।

जगतमें ग्रामीणों और वनवासियोंकी जो-जो प्रवृत्तियाँ होती हैं, उन सबका जो सेवन नहीं करता तथा दूसरोंकी निन्‍्दा और प्रशंसासे भी दूर रहता है, उसकी मुक्ति हो जाती है ।। २१ ।।

जो सबके प्रति मित्रताका भाव रखनेवाला और सुशील है, जिसका मन प्रसन्न है, जो नाना प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त तथा आत्मज्ञानी है, उसे मृत्युके पश्चात्‌ मोक्षरूप महान्‌ फलकी प्राप्ति होती है ।। २२ ।।

जो सदाचारी, शीलसम्पन्न, प्रसन्नचित्त और आत्मतत्त्वको जाननेवाला है, वह विद्दान्‌ पुरुष इस लोकमें सत्कार पाकर परलोकमें परम गति पाता है || २३ ।।

इस जगत्‌में जो केवल शुभ (कल्याणकारी) कर्म है तथा सत्पुरुषोंने जिसका आचरण किया है, वही ज्ञानवान्‌ मुनिका मार्ग है। वह स्वभावत:ः उसका आचरण करता है। उससे कभी च्युत नहीं होता || २४ ।।

ज्ञानसम्पन्न जितेन्द्रिय पुरुष घरसे निकलकर वनका आश्रय ले वहाँ मृत्युकालकी प्रतीक्षा करता हुआ निर्द्धन्द्र विचरता रहता है। इस प्रकार वह ब्रह्मभावको प्राप्त होनेमें समर्थ हो जाता है || २५ ।।

जिसको दूसरे प्राणियोंसे भय नहीं है तथा जिससे दूसरे प्राणी भी भय नहीं मानते, उस देहाभिमानसे रहित महात्मा पुरुषको कहींसे भी भय नहीं प्राप्त होता || २६ ।।

वह उपभोगद्वारा प्रारब्ध-कर्मोंको क्षीण करता है और कर्तृत्वाभिमान तथा फलासक्तिसे शून्य होनेके कारण नूतन कर्मोका संचय नहीं करता है। सभी प्राणियोंमें समानभाव रखकर सबको मित्रकी भाँति अभयदान देता हुआ विचरता है ।। २७ ।।

जैसे आकाशमें पक्षियोंका और जलमें जलचर जन्तुओंका पदचिह्न नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार ज्ञानीकी गति भी जाननेमें नहीं आती है। इसमें तनिक भी संशय नहीं है ।। २८ ।।

राजन! जो घर-बार को छोड़कर मोक्षमार्गाका ही आश्रय लेता है, उसे अनन्त वर्षोके लिये दिव्य तेजोमय लोक प्राप्त होते हैं | २९ ।।

जिसका आचार-विचार शुद्ध और अन्त:करण निर्मल है, जिसकी कामनाएँ शुद्ध हैं तथा जो भोगोंसे पराड्मुख हो चुका है, वह आत्मज्ञानी पुरुष सम्पूर्ण कर्मोका, तपस्याका तथा नाना प्रकारकी विद्याओंका विधिवत्‌ संन्यास (त्याग) करके सर्वत्यागी संन्‍न्यासी होकर इहलोकमें सम्मानित हो परलोकमें अक्षय स्वर्ग (ब्रह्मधाम) को प्राप्त होता है ।। ३०-३१ ।।

ब्रह्मराशिसे उत्पन्न हुआ जो पितामह ब्रह्माजीका उत्तम धाम है, वह हृदयगुहामें छिपा हुआ है। उसकी प्राप्ति सदा दम (इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह) से ही होती है || ३२ ।।

जिसका किसी भी प्राणीके साथ विरोध नहीं है, जो ज्ञानस्वरूप आत्मामें रमता रहता है, ऐसे ज्ञानीको इस लोकमें पुन: जन्म लेनेका भय ही नहीं रहता, फिर उसे परलोकका भय कैसे हो सकता है? ।। ३३ ।।

दम अर्थात्‌ संयममें एक ही दोष है, दूसरा नहीं। वह यह कि क्षमाशील होनेके कारण उसे लोग असमर्थ समझने लगते हैं ।। ३४ ।।

महाप्राज्ञ युधिष्ठिर उसका यह एक दोष ही महान्‌ गुण हो सकता है। क्षमा धारण करनेसे उसको बहुत से पुण्यलोक सुलभ होते हैं। साथ ही क्षमासे सहिष्णुता भी आ जाती है || ३५ ||

भारत! संयमी पुरुषको वनमें जानेकी क्या आवश्यकता है? और जो असंयमी है, उसको वनमें रहनेसे भी क्या लाभ है? संयमी पुरुष जहाँ रहे, वहीं उसके लिये वन और आश्रम है || ३६ |।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भीष्मजीकी यह बात सुनकर राजा युधिष्छिर बड़े प्रसन्न हुए, मानो अमृत पीकर तृप्त हो गये हों || ३७ ।।

कुरुश्रेष्ठ! तत्पश्चात्‌ उन्होंने धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भीष्मजी से पुनः तपस्याके विषयमें प्रश्न किया। तब भीष्मजीने उन्हें उसके विषयमें सब कुछ बताना आरम्भ किया || ३८ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें दमका वर्णनविषयक एक सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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