सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ इक्यावनवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“ब्रह्महत्याके अपराधी जनमेजयका इन्द्रोत मुनिकी शरणमें जाना और इन्द्रोत मुनिका उससे ब्राह्मुणद्रोह न करनेकी प्रतिज्ञा कराकर उसे शरण देना”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! मुनिवर इन्दोतके ऐसा कहनेपर जनमेजयने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया--'मुने! मैं घृणा और तिरस्कारके योग्य हूँ; इसीलिये आप मेरा तिरस्कार करते हैं। मैं निन््दाका पात्र हूँ; इसीलिये बार-बार मेरी निन््दा करते हैं। मैं धिक्कारने और दुतकारनेके ही योग्य हूँ; इसीलिये आपकी ओरसे मुझे धिक्कार मिल रहा है और इसीलिये मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ ।। १½ ।।
“यह सारा पाप मुझमें मौजूद है; अतः मैं चिन्तासे उसी प्रकार जल रहा हूँ, मानो किसीने मुझे आगके भीतर रख दिया हो। अपने कुकर्मोंको याद करके मेरा मन स्वतः प्रसन्न नहीं हो रहा है ।।२६।।
निश्चय ही मुझे यमराजसे भी घोर भय प्राप्त होनेवाला है, यह बात मेरे हृदयमें काँटेकी भाँति चुभ रही है। अपने हृदयसे इसको निकाले बिना मैं कैसे जीवित रह सकूँगा? अतः शौनकजी! आप समस्त क्रोधका त्याग करके मुझे उद्धारका कोई उपाय बताइये ।। ३-४ ।।
“मैं ब्राह्मणोंका महान् भक्त रहा हूँ; इसीलिये इस समय पुनः आपसे निवेदन करता हूँ कि मेरे इस कुलका कुछ भाग अवश्य शेष रहना चाहिये। समूचे कुलका पराभव या विनाश नहीं होना चाहिये ।। ५ ।।
ब्राह्मणोंके शाप दे देनेपर हमारे कुलका कुछ भी शेष नहीं रह जायगा। हम अपने पापके कारण न तो समाजमें प्रशंसा पा रहे हैं न सजातीय बन्धुओंके साथ एकमत ही हो रहे हैं; अतः अत्यन्त खेद और विरक्तिको प्राप्त होकर हम पुनः वेदोंका निश्चयात्मक ज्ञान रखनेवाले आप-चजैसे ब्राह्मणोंसे सदा यही कहेंगे कि जैसे निर्जन स्थानमें रहनेवाले योगीजन पापी पुरुषोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आपलतो अपनी दयासे ही हम-जैसे दुखी मनुष्योंकी रक्षा करें ।। ६-७ ।।
'जो क्षत्रिय अपने पापके कारण यज्ञके अधिकारसे वंचित हो जाते हैं, वे पुलिन्दों और शबरोंके समान नरकोंमें ही पड़े रहते हैं। किसी प्रकार परलोकमें उत्तम गतिको नहीं पाते ।। ८ ।।
“ब्रह्मन] शौनक! आप विद्वान् हैं और मैं मूर्ख। आप मेरी बालबुद्धिपर ध्यान न देकर जैसे पिता पुत्रपर स्वभावत: संतुष्ट होता है, उसी प्रकार मुझपर भी प्रसन्न होइये' ।। ९ ।।
शौनकने कहा--यदि अज्ञानी मनुष्य अयुक्त कार्य भी कर बैठे तो इसमें कौन-सी आश्चर्यकी बात है; अतः इस रहस्यको जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह प्राणियोंपर क्रोध न करे ।। १० ।॥।
जो विशुद्ध बुद्धिकी अट्टालिकापर चढ़कर स्वयं शोकसे रहित हो दूसरे दुखी मनुष्योंके लिये शोक करता है, वह अपने ज्ञानबलसे सब कुछ उसी प्रकार जान लेता है, जैसे पर्वतकी चोटीपर खड़ा हुआ मनुष्य उस पर्वतके आस-पासकी भूमिपर रहनेवाले सब लोगोंको देखता रहता है | ११ ।।
जो प्राचीन श्रेष्ठ पुरुषोंसे विरक्त हो उनके दृष्टिपथसे दूर रहता है तथा उनके द्वारा धिक््कारको प्राप्त होता रहता है, उसे ज्ञानकी उपलब्धि नहीं होती है और ऐसे पुरुष के लिये दूसरे लोग आश्चर्य भी नहीं करते हैं | १२ ।।
तुम्हें ब्राह्मणोंकी शक्तिका ज्ञान है। वेदों और शास्त्रोंमें जो उनकी महिमा उपलब्ध होती है, उसका भी पता है; अतः तुम शान्तिपूर्वक ऐसा प्रयत्न करो, जिससे ब्राह्मणजाति तुम्हें शरण दे सके ॥| १३ ।।
तात! क्रोधरहित ब्राह्मणोंकी सेवाके लिये जो कुछ किया जाता है वह पारलौकिक लाभका ही हेतु होता है। अथवा यदि तुम्हें पापके लिये पश्चात्ताप होता है तो तुम निरन्तर धर्मपर ही दृष्टि रक्खो ।। १४ ।।
जनमेजयने कहा--शौनक! मुझे अपने पापके कारण बड़ा पश्चात्ताप होता है, अब मैं धर्मका कभी लोप नहीं करूँगा। मुझे कल्याण प्राप्त करनेकी इच्छा है; अतः आप मुझ भक्तपर प्रसन्न होइये || १५ ।।
शौनक बोले--नरेश्वर! मैं तुम्हें तुम्हारे दम्भ और अभिमानका नाश करके तुम्हारा प्रिय करना चाहता हूँ। तुम धर्मका निरन्तर स्मरण रखते हुए समस्त प्राणियोंके हितका साधन करो ।। १६ |।
राजन! मैं भयसे, दीनतासे और लोभसे भी तुम्हें अपने पास नहीं बुलाता हूँ। तुम इन ब्राह्मणोंके सहित दैवीवाणीके समान मेरी यह सच्ची बात कान खोलकर सुन लो ।। १७ ।।
मैं तुमसे कोई वस्तु लेनेकी इच्छा नहीं रखता। यदि समस्त प्राणी मुझे खोटी-खरी सुनाते रहें, हाय-हाय मचाते रहें और धिक्कार देते रहें तो भी उनकी अवहेलना करके मैं तुम्हें केवल धर्मके कारण निकट आनेके लिये आमन्त्रित करता हूँ ।। १८ ।।
मुझे लोग अधर्मज्ञ कहेंगे। मेरे हितैषी सुहृद् मुझे त्याग देंगे तथा तुम्हें धर्मोपदेश देनेकी बात सुनकर मेरे सुहृद् मुझपर अत्यन्त रोषसे जल उठेंगे ।। १९ ।।
तात! भारत! कोई-कोई महाज्ञानी पुरुष ही मेरे अभिप्रायको यथार्थरूपसे समझ सकेंगे। ब्राह्मणोंके प्रति भलाई करनेके लिये ही मेरी यह सारी चेष्टा है। यह तुम अच्छी तरह जान लो || २० ।।
ब्राह्मणलोग मेरे कारण जैसे भी सकुशल रहें, वैसा ही प्रयत्न तुम करो। नरेश्वर! तुम मेरे सामने यह प्रतिज्ञा करो कि अब मैं ब्राह्मणोंसे कभी द्रोह नहीं करूँगा ।। २१ ।।
जनमेजयने कहा--विप्रवर! मैं आपके दोनों चरण छूकर शपथपूर्वक कहता हूँ कि मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी ब्राह्मणोंसे द्रोह नहीं करूँगा || २२ ।।
(इस प्रकार श्रीमह्या भारत शान्तिपवकेि अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें इन्द्रोत और पारिक्षितका संवाद विषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ बावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ बावनवें अध्याय के श्लोक 1-39 का हिन्दी अनुवाद)
“इन्द्रोतका जनमेजयको धर्मोपदेश करके उनसे अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान कराना तथा निष्पाप राजाका पुन: अपने राज्यमें प्रवेश”
शौनकने कहा--राजन्! तुमने ऐसी प्रतिज्ञा की है, इससे जान पड़ता है कि तुम्हारा मन पापकी ओरसे निवृत्त हो गया है; इसलिये मैं तुम्हें धर्मका उपदेश करूँगा; क्योंकि तुम श्रीसम्पन्न, महाबलवान् और संतुष्टचित हो। साथ ही स्वयं धर्मपर दृष्टि रखते हो ।।
राजा पहले कठोर स्वभावका होकर पीछे कोमल भावका अवलम्बन करके जो अपने सद्व्यवहारसे समस्त प्राणियों पर अनुग्रह करता है, वह अत्यन्त आश्चर्यकी ही बात है।। २ ।।
चिरकालतक तीक्ष्ण स्वभावका आश्रय लेनेवाला राजा निश्चय ही अपना सब कुछ जलाकर भस्म कर डालता है, ऐसी लोगोंकी धारणा है; परंतु तुम वैसे होकर भी जो धर्मपर ही दृष्टि रख रहे हो, यह कम आश्वर्यकी बात नहीं है ।। ३ ।।
जनमेजय! तुम जो दीषकालसे भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थोंका परित्याग करके तपस्यामें लगे हुए हो, यह पापसे अभिभूत हुए मनुष्योंके लिये अद्भुत बात है ।।
यदि धन-सम्पन्न पुरुष दानी हो एवं कृपण या दरिद्र मनुष्य तपस्याका धनी हो जाय तो इसे आश्वर्यकी बात नहीं मानते हैं; क्योंकि ऐसे पुरुषोंका दान और तपसे सम्पन्न होना अधिक कठिन नहीं है ।। ५ ।।
यदि सारी बातोंपर पूर्वापर विचार न करके कोई कार्य आरम्भ किया जाय तो यही कायरतापूर्ण दोष है और यदि भलीभाँति आलोचना करके कोई कार्य हो तो यही उसमें गुण माना जाता है || ६ ।।
पृथ्वीनाथ! यज्ञ, दान, दया, वेद, और सत्य--ये पाँचों पवित्र बताये गये हैं। इनके साथ अच्छी तरह आचरणमें लाया हुआ तप भी छठा पवित्र कर्म माना गया है ।। ७ ।।
जनमेजय! राजाओंके लिये ये छहों वस्तुएँ परम पवित्र हैं। इन्हें भलीभाँति आचरणमें लानेपर तुम श्रेष्ठतम धर्मको प्राप्त कर लोगे ।। ८ ।।
पुण्य तीर्थोकी यात्रा करना भी परम पवित्र माना गया है। इस विषयमें विज्ञ पुरुष राजा ययातिकी गायी हुई इस गाथाका उदाहरण दिया करते हैं ।। ९ ।।
जो मनुष्य अपने लिये दीर्घ जीवनकी इच्छा रखता है, वह यत्नपूर्वक यज्ञका अनुष्ठान करके फिर उसे त्यागकर तपस्यामें लग जाय ।। १० ।।
कुरक्षेत्रको पवित्र तीर्थ बताया गया। कुरुक्षेत्रसे अधिक पवित्र सरस्वती नदी है, उससे भी अधिक पवित्र उसके भिन्न-भिन्न तीर्थ हैं। उन तीर्थोंमें भी दूसरोंकी अपेक्षा पृथूदक तीर्थको श्रेष्ठ कहा गया है ।। ११ ।।
उसमें स्नान करने और उसका जल पीनेसे मनुष्यको कल ही होनेवाली मृत्युका भय नहीं सताता अर्थात् वह कृतकृत्य हो जाता है। इस कारण मरनेसे नहीं डरता। यदि तुम महासरोवर पुष्कर, प्रभास, उत्तर मानस, कालोदक, दृषद्गवती और सरस्वतीके संगम तथा मानसरोवर आदि तीर्थोंमें जाकर स्नान करोगे तो तुम्हें पुन अपने जीवनके लिये दीर्घायु प्राप्त होगी || १२-१३ ।।
सभी तीर्थस्थानोंमें स्वाध्यायशील होकर स्नान करे। मनुने कहा है कि सर्वत्यागरूप संन्यास सम्पूर्ण पवित्र धर्मोमें श्रेष्ठ है ।। १४ ।।
इस विषयमें भी सत्यवान् द्वारा निर्मित हुई इन गाथाओंका उदाहरण दिया जाता है। जैसे बालक रण-द्वेषसे शून्य होनेके कारण सदा सत्यपरायण ही रहता है। न तो वह पुण्य करता है और न पाप ही। इसी प्रकार प्रत्येक श्रेष्ठ पुरुषको भी होना चाहिये || १५ ।।
इस संसारके सम्पूर्ण प्राणियोंमें जब दुःख ही नहीं है, तब सुख कहाँसे हो सकता है? यह सुख और दुःख दोनों ही प्रकृतिस्थ प्राणियोंके धर्म हैं, जो कि सब प्रकारके संसर्गदोषको स्वीकार करके उनके अनुसार चलते हैं। जिन्होंने ममता और अहंकार आदिके साथ सब कुछ त्याग दिया है, जिनके पुण्य और पाप सभी निवृत्त हो चुके हैं, ऐसे पुरुषोंका जीवन ही कल्याणमय है ।। १६½।।
अब मैं राजाके कार्योमें जो सबसे श्रेष्ठ है, उसका वर्णन करता हूँ। जनेश्वर! तुम धैर्ययुक्त बल और दानके द्वारा स्वर्गलोकपर विजय प्राप्त करो। जिसके पास बल और ओज है, वही मनुष्य धर्माचरणमें समर्थ होता है ।। १७-१८ ।।
नरेश्वर! तुम ब्राह्मणोंको सुख पहुँचानेके लिये ही सारी पृथ्वीका पालन करो। जैसे पहले इन ब्राह्मणोंपर आक्षेप किया था, वैसे इन सबको अपने सदबर्तावसे प्रसन्न करो ।। १९ ।।
वे बार-बार तुम्हें धिक््कारें और फटकारकर दूर हटा दें तो भी उनमें आत्मदृष्टि रखकर तुम यही निश्चय करो कि अब मैं ब्राह्मणोंको नहीं मारूँगा। अपने कर्तव्यपालनके लिये पूरी चेष्टा करते हुए परम कल्याणका साधन करो ।। २० ।।
परंतप! कोई राजा बर्फके समान शीतल होता है, कोई अग्निके समान ताप देनेवाला होता है, कोई यमराजके समान भयानक जान पड़ता है, कोई घास-फ़ूसका मूलोच्छेद करनेवाले हलके समान दुष्टोंका समूल उन्मूलन करनेवाला होता है तथा कोई पापाचारियोंपर अकस्मात् वज्रके समान टूट पड़ता है || २१ ।।
कभी मेरा अभाव नहीं हो जाय, ऐसा समझकर राजाको चाहिये कि दुष्ट पुरुषोंका संग कभी न करे। न तो उनके किसी विशेष गुणपर आकृष्ट हो, न उनके साथ अविच्छित्न सम्बन्ध स्थापित करे और न उनमें अत्यन्त आसक्त ही हो || २२ ।।
यदि कोई शास्त्रविरुद्ध कर्म बन जाय तो उसके लिये पश्चात्ताप करनेवाला पुरुष पापसे मुक्ता हो जाता है। यदि दूसरी बार पाप बन जाय तो “अब फिर ऐसा काम नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करनेसे वह पापमुक्त हो सकता है || २३ ।।
आजसे केवल धर्मका ही आचरण करूँगा' ऐसा नियम लेनेसे वह तीसरी बारके पापसे छुटकारा पा जाता है और पवित्र तीर्थोमें विचरण करनेवाला पुरुष अनेक बारके किये हुए बहुसंख्यक पापोंसे मुक्त हो जाता है || २४ ।।
सुखकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको कल्याणकारी कर्मोंका अनुष्ठान करना चाहिये। जो सुगन्धित पदार्थोका सेवन करते हैं, उनके शरीरसे सुगन्ध निकलती है और जो सदा दुर्गग्धका सेवन करते हैं, वे अपने शरीरसे दुर्गन्न्ध ही फैलाते हैं। जो मनुष्य तपस्यामें तत्पर होता है, वह तत्काल सारे पापोंसे मुक्ता हो जाता है ।। २५-२६ ।।
लगातार एक वर्षतक अग्निहोत्र करनेसे कलंकित पुरुष अपने ऊपर लगे हुए कलंकसे छूट जाता है। तीन वर्षोतक अग्निकी उपासना करनेसे भ्रूणहत्यारा भी पापमुक्त हो जाता है || २७ |।
महासरोवर पुष्कर, प्रभास तीर्थ तथा उत्तर मानसरोवर आदि तीर्थोमें सौ योजनतककी पैदल यात्रा करनेसे भी भ्रूणहत्याके पापसे छुटकारा मिल जाता है ।। २८ ।।
प्राणियोंकी हत्या करनेवाला मनुष्य जितने प्राणियोंका वध करता है, उसी जातिके उतने ही प्राणियोंको मृत्युसे छुटकारा दिला दे अर्थात् उनको मरनेके संकटसे छुड़ा दे तो वह उनकी हत्याके पापसे मुक्त हो जाता है ।। २९ ।।
यदि मनुष्य तीन बार अघमर्षणका जप करते हुए जलमें गोता लगावे तो उसे अश्वमेधयज्ञमें अवभूथस्नान करनेका फल मिलता है, ऐसा मनुजीने कहा है ।। ३० ।।
वह अधमर्षण मन्त्रका जप करनेवाला मनुष्य शीघ्र ही अपने सारे पापोंको दूर कर देता है और उसे सर्वत्र सम्मान प्राप्त होता है। सब प्राणी जड एवं मूकके समान उसपर प्रसन्न हो जाते हैं ।। ३१ ।।
राजन्! एक समय सब देवताओं और असुरोंने बड़े आदरके साथ देवगुरु बृहस्पतिके निकट जाकर पूछा--“महर्ष! आप धर्मका फल जानते हैं। इसी प्रकार परलोकमें जो पापोंके फलस्वरूप नरकका कष्ट भोगना पड़ता है, वह भी आपसे अज्ञात नहीं है, परंतु जिस योगीके लिये सुख और दु:ख दोनों समान हैं, वह उन दोनोंके कारणरूप पुण्य और पापको जीत लेता है या नहीं। महर्षे! आप हमारे समक्ष पुण्यके फलका वर्णन करें और यह भी बतावें कि धर्मात्मा पुरुष अपने पापोंका नाश कैसे करता है?” ।। ३२-३३ ।।
बृहस्पतिजीने कहा--यदि मुनष्य पहले बिना जाने पाप करके फिर जान-बूझकर पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करता है तो वह सत्कर्मपरायण पुरुष अपने पापको उसी प्रकार दूर कर देता है, जैसे क्षार (सोडा, साबुन आदि) लगानेसे कपड़े का मैल छूट जाता है || ३४ ।।
मनुष्यको चाहिये कि वह पाप करके अहंकार न प्रकट करे--हेकड़ी न दिखावे, अपितु श्रद्धापूर्वक दोषदृष्टिका परित्याग करके कल्याणमय धर्मके अनुष्ठानकी इच्छा करे || ३५ ।।
जो मनुष्य श्रेष्ठ पुरुषोंके खुले हुए छिद्रोंको ढकता है अर्थात् उनके प्रकट हुए दोषोंको भी छिपानेकी चेष्टा करता है तथा जो पाप करके उससे विरत हो कल्याणमय कर्ममें लग जाता है, वे दोनों ही पापरहित हो जाते हैं ।। ३६ ।।
जैसे सूर्य प्रातःकाल उदित होकर सारे अन्धकारको नष्ट कर देता है उसी प्रकार शुभकर्मका आचरण करनेवाला पुरुष अपने सभी पापोंका अन्त कर देता है | ३७ ।।
भीष्मजी कहते हैं-राजन! ऐसा कहकर शौनक इन्द्रोतने राजा जनमेजयसे विधिपूर्वक अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान कराया ।। ३८ ।।
इससे राजा जनमेजयका सारा पाप नष्ट हो गया और वे प्रज्वलित अग्निके समान देदीप्यमान होने लगे। उन्हें सब प्रकारके श्रेय प्राप्त हो गये। जैसे पूर्ण चन्द्रमा आकाशमण्डलमें प्रवेश करता है, उसी प्रकार शत्रुसूदन जनमेजयने पुनः अपने राज्यमें प्रवेश किया ।। ३९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें इन्द्रोत और पारिक्षितका संवादविषयक एक सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ तिरपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ तिरपनवें अध्याय के श्लोक 1-123 का हिन्दी अनुवाद)
“मृतककी पुनर्जीवन-प्राप्तिके विषयमें एक ब्राह्मण बालकके जीवित होनेकी कथा; उसमें गीध और सियारकी बुद्धिमत्ता”
युधिष्ठिरने पूछा--'पितामह! क्या आपने कभी यह भी देखा या सुना है कि कोई मनुष्य मरकर फिर जी उठा हो! ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--कुन्तीनन्दन! प्राचीनकालमें नैमिषारण्यक्षेत्रमें गीध और गीदड़का जो संवाद हुआ था, उसे सुनो, वह पूर्वधटित यथार्थ इतिहास है ।। २ ।।
किसी ब्राह्मणको बड़े कष्टसे एक पुत्र प्राप्त हुआ था। वह बड़े-बड़े नेत्रोंवाला सुन्दर बालक बाल-ग्रहसे पीड़ित हो बाल्यावस्थामें ही चल बसा || ३ ।।
जिसने युवावस्थामें अभी प्रवेश ही नहीं किया था तथा जो अपने कुलका सर्वस्व था, उस मरे हुए बालकको लेकर उसके कुछ दुखी बान्धव शोकसे व्याकुल हो फ़ूट-फूटकर रोने लगे || ४ ।।
उस मृत बालकको गोदमें लेकर वे श्मशानकी ओर चले। वहाँ पहुँचकर खड़े हो गये और अत्यन्त दुखी होकर रोने लगे ।। ५ ।।
वे उसकी पहलेकी बातोंको बारंबार याद करके शोकमग्न हो जाते थे; इसलिये उसे श्मशानभूमिमें डालकर लौट जानेमें असमर्थ हो रहे थे |। ६ ।।
उनके रोनेके शब्दसे आकृष्ट होकर एक गीध वहाँ आया और इस प्रकार कहने लगा --'मनुष्यो! इस जगत्में अपने इस इकलौते पुत्रको यहाँ छोड़कर लौट जाओ, देर मत करो। यहाँ हजारों स्त्री-पुरुष कालके द्वारा लाये जा चुके हैं और उन सबको उनके भाई-बन्धु छोड़कर चले जाते हैं || ७-८ ।।
“देखो, यह सम्पूर्ण जगत् ही सुख और दुः:खसे व्याप्त है, यहाँ सबको बारी-बारीसे संयोग और वियोग प्राप्त होते रहते हैं ।। ९ ।।
जो लोग अपने मृतक सम्बन्धियोंको लेकर श्मशानमें जाते हैं, और जो नहीं जाते हैं, वे सभी जीव-जन्तु अपनी आयु पूरी होनेपर इस संसारसे चल बसते हैं || १० ।।
“गीधों और गीदड़ोंसे भरे हुए इस भयंकर श्मशानमें सब ओर असंख्य नरकंकाल पड़े हैं। यह स्थान सभी प्राणियोंके लिये भयदायक है। यहाँ तुम्हें नहीं ठहरना चाहिये; ठहरनेसे कोई लाभ भी नहीं है ।। ११ ।।”
“अपना प्रिय हो या द्वेषपात्र। कोई भी कालधर्ममें (मृत्यु) को पाकर कभी पुन: जीवित नहीं हुआ है। समस्त प्राणियोंकी ऐसी ही गति है ।। १२ ।।
“जिसने इस मर्त्यलोकमें जन्म लिया है, उसे एक-न-एक दिन अवश्य मरना होगा। कालद्वारा निर्मित पथपर मरकर गये हुए प्राणीको कौन जीवित कर सकेगा ।। १३ ।।
'सूर्य अस्ताचलको जा रहे हैं, जगत्के सब लोग दैनिक कार्य समाप्त करके अब उससे विरत हो रहे हैं। तुमलोग भी अब अपने पुत्रका स्नेह छोड़कर घर लौट जाओ” ।। १४
नरेश्वर! तब गीधकी बात सुनकर वे बन्धु-बान्धव जोर-जोरसे रोते हुए अपने पुत्रको भूतलपर छोड़कर घरकी ओर लौटने लगे || १५ ।।
वे इधर-उधर रो-गाकर इसी निश्चयपर पहुँचे कि अब तो यह बालक मर ही गया; अतः उसके दर्शनसे निराश हो वहाँसे जानेके लिये तैयार हो गये ।। १६ ।।
जब उन्हें यह निश्चित हो गया कि अब यह नहीं जी सकेगा, तो उसके जीवनसे निराश हो वे सब लोग अपने बच्चेको छोड़कर जानेके लिये रास्तेपर आकर खड़े हुए ।। १७ ।।
इतनेहीमें कौएकी पाँखके समान काले रंगका एक गीदड़ अपनी माँद (घूरी) से निकलकर उन लौटते हुए बान्धवोंसे कहा--“मनुष्यो! तुम बड़े निर्दय हो! ।। १८ ।।
“अरे मूर्खो! अभी तो सूर्यास्त भी नहीं हुआ है; अत: डरो मत। बच्चेको लाड़-प्यार कर लो। अनेक प्रकारका मुहूर्त आता रहता है। सम्भव है किसी शुभ घड़ीमें यह बालक जी उठे | १९ |।
“तुम लोग कैसे निर्दयी हो? पुत्रस्नेहका त्याग करके इस नन्हेसे बालकको श्मशानभूमिमें लाकर डाल दिया। अरे! अपने बेटेको इस मरघटमें छोड़कर क्यों जा रहे हो? ।। २० ।।
जान पड़ता है” इस मधुर भाषी छोटे-से बालकपर तुम्हारा तनिक भी स्नेह नहीं है। यह वही बालक है, जिसकी मीठी-मीठी बातें सुनते ही तुम्हारा हृदय हर्षसे खिल उठता था ।। २१ ||
“पशु और पक्षियोंका भी अपने बच्चेपर जैसा स्नेह होता है, उसे तुम देखो। यद्यपि स्नेहमें आसक्त उन पशु-पक्षी-कीट आदि प्राणियोंको अपने बच्चोंके पालन-पोषण करनेपर भी परलोकमें उनसे उस प्रकार कोई फल नहीं मिलता जैसे कि परलोककी गतिमें स्थित हुए मुनियोंको यज्ञादि क्रियासे मिलता है || २२-२३ ।।
क्योंकि उनके पुत्रोंमें स्नेह रखनेवाले पशु आदि के लिये इहलोक और परलोकमें संतानोंके लालन-पालनसे कोई लाभ नहीं दिखायी देता तो भी वे अपने-अपने बच्चोंकी रक्षा करते रहते हैं ।। २४ ।।
यद्यपि उनके बच्चे बड़े हो जानेपर अपने माँ-बापका पालन-पोषण नहीं करते हैं तो भी अपने प्यारे बच्चोंको न देखनेपर उनका शोक काबूमें नहीं रहता ।।
'परंतु मनुष्योंमें इतना स्नेह ही कहाँ है, जो उन्हें अपने बच्चोंके लिये शोक होगा। अरे! यह तुम्हारा वंशधर बालक है। इसे छोड़कर तुम कहाँ जाओगे ।। २६ ।।
“इस अपने लाड़लेके लिये देरतक आँसू बहाओ और दीर्घ कालतक स्नेहभरी दृष्टिसे इसकी ओर देखो, क्योंकि ऐसी प्यारी-प्यारी संतानोंको छोड़कर जाना अत्यन्त कठिन है || २७ |।
“जो शरीरसे क्षीण हुआ हो, जिसपर कोई आर्थिक अभियोग लगाया गया हो तथा जो श्मशानकी ओर जा रहा हो, ऐसे अवसरोंपर उसके भाई-बन्धु ही उसके साथ खड़े होते हैं। दूसरा कोई वहाँ साथ नहीं देता | २८ ।।
“सबको अपने-अपने प्राण प्यारे होते हैं और सभी दूसरोंसे स्नेह पाते हैं। पशु-पक्षीकी योनिमें भी जो प्राणी रहते हैं, उनका अपनी संतानोंपर कैसा प्रेम है, इसे देखो || २९ ।।
इस बालककी कमल-जैसी चंचल एवं विशाल आँखे कितनी सुन्दर हैं। इसका शरीर स्नान एवं पुष्पमाला आदिसे विभूषित नया-नया विवाह करके आये दुल्हे जैसा है। ऐसे मनोहर बालकको छोड़कर जानेके लिये तुम्हारे पैर कैसे उठ रहे हैं?” || ३० ।।
करुणाजनक विलाप करते हुए उस सियारकी यह बात सुनकर वे सभी मनुष्य उस मृत बालकके शरीरकी देख-रेखके लिये पुनः लौट आये ।। ३१ ।।
तब गीधने कहा--अहो! उस मन्दबुद्धि एवं क्रूर स्व भाववाले क्षुद्र गीदड़की बातोंमें आकर तुम लौटे कैसे आते हो? मनुष्यो! तुम बड़े धैर्यहीन हो || ३२ ।।
इस बच्चेका शरीर पाँचों इन्द्रियोंसे परित्यक्त होकर सूखे काठके समान तुम्हारे सामने पड़ा है। तुम इसके लिये क्यों शोक करते हो? एक दिन तुम्हारी भी यही दशा होगी, फिर अपने लिये क्यों नहीं शोक करते? ।। ३३ ।।
अब तुमलोग तीव्र तपस्या करो, जिससे समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाओगे। तपस्यासे सब कुछ मिल सकता है। तुम्हारा यह विलाप क्या करेगा? ।। ३४ ।।
भाग्य शरीरके साथ ही प्रकट होता है और उसका अनिष्ट फल भी सामने आता ही है, जिससे यह बालक तुम्हें अनन्त शोक देकर जा रहा है || ३५ ।।
धन, गाय, सोना, मणि, रत्न, और पुत्र-इन सबका मूल कारण तप ही है। तपस्याके योगसे ही इनकी उपलब्धि होती है ।। ३६ ।।
जीव अपने पूर्वजन्मके कर्मोंके अनुसार दुःख-सुखको लेकर ही जन्म ग्रहण करता है। सभी प्राणियोंमें सुख और दुःखका भोग कर्मानुसार ही प्राप्त होता है ।।
पिताके कर्मसे पुत्रका और पुत्रके कर्मसे पिताका कोई सम्बन्ध नहीं है। अपने-अपने पाप-पुण्यके बन्धनमें बँधे हुए जीव कर्मानुसार विभिन्न मार्गसे जाते हैं | ३८ ।।
तुमलोग यत्नपूर्वक धर्मका आचरण करो और अधर्ममें कभी मन न लगाओ। देवताओं तथा ब्राह्मणोंकी सेवामें यथासमय तत्पर रहो ।। ३९ |।
शोक और दीनताको छोड़ो तथा पुत्रस्नेहोहे मनको हटा लो। इस बालकको इसी सूने स्थानमें छोड़ दो और शीघ्र लौट जाओ || ४० ।।
प्राणी जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका फल भी करनेवाला ही भोगता है। इसमें भाई-बन्धुओंका क्या है? ।। ४१ ।।
बन्धु-बान्धव लोग यहाँ अपने प्रिय बन्धुओंका परित्याग करके ठहरते नहीं हैं। सारा स्नेह छोड़कर आँखोंमें आँसू भरे यहाँसे चल देते हैं || ४२ ।।
विद्वान् हो या मूर्ख, धनवान् हो या निर्धन, सभी अपने शुभ या अशुभ कर्मोंके साथ कालके अधीन हो जाते हैं ।। ४३ ।।
अच्छा, यह तो बताओ, तुम शोक करके क्या कर लोगे? क्या इसे जिला दोगे? फिर इस मृतकके लिये क्यों शोक करते हो? काल ही सबका शासक और स्वामी है, जो धर्मतः सबके ऊपर समान दृष्टि रखता है || ४४ ।।
यह कराल काल युवा, बालक, वृद्ध और गर्भस्थ शिशु--सबमें प्रवेश करता है। इस संसारकी ऐसी ही दशा है || ४५ ।।
इसपर गीदड़ने कहा--अहो! क्या इस मन्दबुद्धि गीधने तुम्हारे स्नेहको शिथिल कर दिया? तुम तो पुत्रस्नेहले अभिभूत होकर उसके लिये बड़ा शोक कर रहे थे ।। ४६ ।।
गीधके अच्छी युक्तियोंसे मुक्त न्न्यायसंगत और विश्वासोत्पादक प्रतीत होनेवाले वचनोंसे प्रभावित हो ये सब लोग जो दुस्त्यज स्नेहका परित्याग करके चले जा रहे हैं, यह कितने आश्चर्यकी बात है! || ४७ ।।
अहो! पुत्रके वियोगसे पीड़ित हो मृतकोंके इस शून्य स्थानमें आकर अत्यन्त दुःखसे रोने-बिलखनेवाले इन भूतलवासी मनुष्योंके हृदयमें बछड़ोंसे रहित हुई गायोंकी भाँति कितना शोक होता है? इसका अनुभव मुझे आज हुआ है; क्योंकि इनके स्नेहको निमित्त बनाकर मेरी आँखोंसे भी आँसू बहने लगे हैं ।।
अपने अभीष्टकी सिद्धिके लिये सदा प्रयत्न करते रहना चाहिये, तब दैवयोगसे उसकी सिद्धि होती है। दैव और पुरुषार्थ--दोनों कालसे ही सम्पन्न होते हैं || ५० ।।
खेद और शिथिलताको कभी अपने मनमें स्थान नहीं देना चाहिये। खेद होनेपर कहाँसे सुख प्राप्त हो सकता है। प्रयत्नसे ही अभिलषित अर्थकी प्राप्ति होती है; अतः तुमलोग इस बालककी रक्षाका प्रयत्न छोड़कर निर्दयतापूर्वक कहाँ चले जा रहे हो? ।। ५१ ।।
यह बालक तुम्हारे अपने ही रक्त-मांसका बना हुआ है, आधे शरीरके समान है और पितरोंके वंशकी वृद्धि करनेवाला है, इसे वनमें छोड़कर तुम कहाँ जाओगे? ।। ५२ ।।
अच्छा, इतना ही करो कि जबतक सूर्य अस्त न हो और संध्याकाल उपस्थित न हो जाय, तबतक यहाँ रुके रहो; फिर अपने इस पुत्रको साथ ले जाना अथवा यहीं बैठे रहना ।। ५३ ||
गीधने कहा--मनुष्यो! मुझे जन्म लिये आज एक हजार वर्षसे अधिक हो गये; परंतु मैंने कभी किसी स्टत्री-पुरुष या नपुंसकको मरनेके बाद फिर जीवित होते नहीं देखा ।। ५४ ।।
कुछ लोग गर्भोामें ही मरकर जन्म लेते हैं, कुछ जन्म लेते ही मर जाते हैं, कुछ चलनेफिरने लायक होकर मरते हैं और कुछ लोग भरी जवानीमें ही चल बसते हैं || ५५ ।।
इस संसारमें पशुओं और पक्षियोंके भी भाग्यफल अनित्य हैं। स्थावरों और जंगमोंके जीवन में भी आयुकी ही प्रधानता है ।। ५६ ।।
प्रिय पत्नीके वियोग और पुत्रशोकसे संतप्त हो कितने ही प्राणी प्रतिदिन शोककी आगमें जलते हुए इस मरघटसे अपने घरको लौटते हैं || ५७ ।।
कितने ही भाई-बन्धु अत्यन्त दुखी हो यहाँ हजारों अप्रिय त था सैकड़ों प्रिय व्यक्तियोंको छोड़कर चले गये हैं || ५८ ।।
यह मृत बालक तेजोहीन होकर थोथे काठके समान हो गया है। इसे छोड़ दो। इसका जीव दूसरे शरीरमें आसक्त है। इस निष्प्राण बालकका यह शव काठके समान हो गया है तुमलोग इसे छोड़कर चले क्यों नहीं जाते? तुम्हारा यह स्नेह निरर्थक है और इस परिश्रमका भी कोई फल नहीं है || ५९-६० ।।
यह न तो आँखोंसे देखता है और न कानोंसे कुछ सुनता ही है। फिर इसे त्यागकर तुमलोग जल्दी अपने घर क्यों नहीं चले जाते || ६१ ।।
मेरी ये बातें बड़ी निछ्ठर जान पड़ती हैं; परंतु हेतुगर्भित और मोक्ष-धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाली हैं; अतः इन्हें मानकर मेरे कहनेसे तुमलोग शीघ्र अपने-अपने घर पधारो || ६२ ।।
मनुष्यो! मैं बुद्धि और विज्ञानसे युक्त तथा दूसरोंको भी ज्ञान प्रदान करनेवाला हूँ। मैंने तुम्हें विवेक उत्पन्न करनेवाली बहुत-सी बातें सुनायी हैं। अब तुमलोग लौट जाओ। अपने मरे हुए स्वजनका शव देखकर तथा उसकी चेष्टाओंको स्मरण करके दूना शोक होता है ।। ६३ ||
गीधकी यह बात सुनकर वे सब मनुष्य घरकी ओर लौट पड़े। तब सियारने तुरंत आकर उस सोते हुए बालकको देखा ।। ६४ ।।
सियार बोला--बन्धुओ! देखो तो सही, इस बालकका रंग कैसा सोनेके समान चमक रहा है। आभूषणोंसे भूषित होकर यह कैसी शोभा पाता है। पितरोंको पिण्ड प्रदान करनेवाले अपने इस पुत्रको तुम गीधकी बातोंमें आकर कैसे छोड़ रहे हो? ।। ६५ ।।
इस मृत बालकको छोड़कर जानेसे न तो तुम्हारे स्नेहमें कमी आयेगी और न तुम्हारा रोना-धोना एवं विलाप ही बंद होगा। उलटे तुम्हारा संताप और बढ़ जायगा, यह निश्चित है ।। ६६ |।
सुना जाता है कि सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजीसे शम्बूक नामक शूद्रके मारे जानेपर उस धर्मके प्रभावसे एक मरा हुआ ब्राह्मण बालक जीवित हो उठा था ।॥।
इसीप्रकार राजर्षि श्वेतका भी बालक मर गया था, परंतु धर्मनिष्ठ श्वेतने उसे पुनः जीवित कर दिया था ।।
इसी प्रकार सम्भव है कोई सिद्ध मुनि या देवता मिल जायेँ और यहाँ रोते हुए तुम दीनदुखियोंपर दया कर दें || ६९ ।।
सियारके ऐसा कहनेपर वे पुत्रवत्सल बान्धव शोकसे पीड़ित हो लौट पड़े और बालकका मस्तक अपनी गोदमें रखकर जोर-जोरसे रोने लगे। उनके रोनेकी आवाज सुनकर गीध पास आ गया और इस प्रकार बोला || ७० ।।
गीधने कहा--तुमलोगोंके आँसू बहानेसे जिसका शरीर गीला हो गया है और जो तुम्हारे हाथोंसे बार-बार दबाया गया है, ऐसा यह बालक धर्मराजकी आज्ञासे चिरनिद्रामें प्रविष्ट हो गया है ।।
बड़े-बड़े तपस्वी, धनवान् और महा बुद्धिमान् सभी यहाँ मृत्युके अधीन हो जाते हैं। यह प्रेतोंका नगर है ।।
यहाँ लोगोंके भाई बन्धु सदा सहस्रों बालकों और वृद्धोंको त्यागकर दिन-रात दुखी रहते हैं || ७३ ।।
दुराग्रहवश बारंबार लौटकर शोकका बोझ धारण करनेसे कोई लाभ नहीं है। अब इसके जीनेका कोई भरोसा नहीं है। भला, आज यहाँ इसका पुनर्जीवन कैसे हो सकता है? ।। ७४ ।।
जो व्यक्ति एक बार इस देहसे नाता तोड़कर मर जाता है, उसके लिये फिर इस शरीरमें लौटना सम्भव नहीं है सैकड़ों सियार अपना शरीर बलिदान कर दें तो भी सैकड़ों वर्षोंमें इस बालकको जिलाया नहीं जा सकता || ७५३ ||
यदि भगवान् शिव, कुमार कार्तिकेय, ब्रह्माजी और भगवान् विष्णु इसे वर दें तो यह बालक जी सकता है | ७६६ ।।
न तो आँसू बहानेसे, न लंबी-लंबी सांस खींचनेसे और न दीर्घकालतक रोनेसे ही यह फिर जी सकेगा || ७७३ ।।
मैं, यह सियार और तुम सब लोग जो इसके भाई बन्धु हो--ये सभी धर्म और अधर्मको लेकर यहाँ अपनी-अपनी राहपर चल रहे हैं || ७८३ ।।
बुद्धिमान पुरुषको अप्रिय आचरण, कठोर वचन दूसरोंके साथ द्रोह, परायी स्त्री, अधर्म और असत्य-भाषणका दूरसे ही परित्याग कर देना चाहिये || ७९३ ।।
तुम सब लोग धर्म, सत्य, शास्त्रज्ञान, न्यायपूर्ण बर्ताव समस्त प्राणियोंपर बड़ी भारी दया, कुटिलताका अभाव तथा शठताका त्याग--इन्हीं सद्गुणोंका यत्नपूर्वक अनुसरण करे || ८०६ ।।
जो लोग जीवित माता-पिता, सुहृदों और भाई-बन्धुओंकी देखभाल नहीं करते हैं, उनके धर्मकी हानि होती है || ८१३ ।।
जो न आँखोंसे देखता है, न शरीरसे कोई चेष्टा ही करता है, उसके जीवनका अन्त हो जानेपर अब तुमलोग रोकर क्या करोगे || ८२६ ।।
गीधके ऐसा कहनेपर वे शोकमें डूबे हुए भाई-बन्धु अपने उस पुत्रको धरतीपर सुलाकर उसके स्नेहसे दग्ध होते हुए अपने घरकी ओर लौटे ।। ८३ ।।
तब सियारने कहा--यह मर्त्यलोक अत्यन्त दुःखद है। यहाँ समस्त प्राणियोंका नाश ही होता है। प्रिय बन्धुजनोंके वियोगका कष्ट भी प्राप्त होता रहता है। यहाँका जीवन बहुत थोड़ा है ।। ८४ ।।
इस संसारमें सब कुछ असत्य एवं बहुत अरुचिकर है। यहाँ अनाप-शनाप बकनेवाले तो बहुत हैं, परंतु प्रिय वचन बोलनेवाले विरले ही हैं। यहाँ का भाव दुःख और शोककी वृद्धि करनेवाला है। इसे देखकर मुझे यह मनुष्यलोक दो घड़ी भी अच्छा नहीं लगता ।। ८५ *
अहो! धिक््कार है। तुमलोग गीधकी बातोंमें आकर मूर्खोके समान पुत्रस्नेहसे रहित हुए प्रेमशून्य होकर कैसे घरको लौटे जा रहे हो? ।। ८६३ ।।
मनुष्यो! यह गीध तो बड़ा पापी और अपवित्र हृदयवाला है। इसकी बात सुनकर तुमलोग पुत्रशोकसे जलते हुए भी क्यों लौटे जा रहे हो? ।। ८७३ ।।
सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख आता है। सुख और दु:खसे घिरे हुए इस जगत्में निरन्तर (सुख या दुःख) अकेला नहीं बना रहता है || ८८३ ।।
यह सुन्दर बालक तुम्हारे कुलकी शोभा बढ़ानेवाला है। यह रूप और यौवनसे सम्पन्न है तथा अपनी कान्तिसे प्रकाशित हो रहा है। मूर्खो! इस पुत्रको पृथ्वीपर डालकर तुम कहाँ जाओगे? ।। ८९-९० ||
मनुष्यो! मैं तो अपने मनसे इस बालकको जीवित ही देख रहा हूँ, इसमें संशय नहीं है। इसका नाश नहीं होगा, तुम्हें अवश्य ही सुख मिलेगा ।। ९१ ।।
पुत्रशोकसे संतप्त होकर तुमलोग स्वयं ही मृतक-तुल्य हो रहे हो; अतः तुम्हारे लिये इस तरह लौट जाना उचित नहीं है। इस बालकसे सुखकी सम्भावना करके सुख पानेकी सुदृढ़ आशा धारण कर तुम सब लोग अल्पबुद्धि मनुष्यके समान स्वयं ही इसे त्यागककर अब कहाँ जाओगे? ।। ९२ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! वह सियार सदा श्मशान भूमिमें ही निवास करता था और अपना काम बनानेके लिये रात्रिकालकी प्रतीक्षा कर रहा था; अतः उसने धर्मविरोधी, मिथ्या तथा अमृततुल्य वचन कहकर उस बालकके बन्धु-बान्धवोंको बीचमें ही अटका दिया। वे न जा पाते थे और न रह पाते थे, अन्तमें उन्हें ठहर जाना पड़ा ॥। ९३-९४ ।।
तब गीधने कहा--मनुष्यो! यह वन्य प्रदेश प्रेतोंसे भरा हुआ है। इसमें बहुत-से यक्ष और राक्षस निवास करते हैं तथा कितने ही उल्लू हू-हू की आवाज कर रहे हैं; अतः यह स्थान बड़ा भयंकर है ।। ९५ ||
यह अत्यन्त घोर, भयानक तथा नीलमेघके समान काला अन्धकारपूर्ण है। इस मुर्देको यहीं छोड़कर तुमलोग प्रेतकर्म करो ।। ९६ ।।
जबतक सूर्य डूब नहीं जाते हैं और जबतक दिशाएँ निर्मल हैं, तभीतक इसे यहाँ छोड़कर तुमलोग इसके प्रेतकार्यमें लग जाओ ।। ९७ ।।
इस वनमें बाज अपनी कठोर बोली बोलते हैं, सियार भयंकर आवाजमें हुआँ-हुआँ कर रहे हैं, सिंह दहाड़ रहे हैं और सूर्य अस्ताचलको जा रहे हैं ।। ९८ ।।
चिताके काले धुएँसे यहाँके सारे वृक्ष उसी रंगमें रंग गये हैं। श्मशानभूमिमें यहाँके निराहार प्राणी (प्रेत-पिशाच आदि) गरज रहे हैं || ९९ ।।
इस भयंकर प्रदेशमें रहनेवाले सभी प्राणी विकराल शरीरके हैं। ये सबके सब मांस खानेवाले और विकृत अंगवाले हैं। वे तुमलोगोंको धर दबायेंगे || १०० ।।
जंगलका यह भाग क्रूर प्राणियोंसे भरा हुआ है। अब तुम्हें यहाँ बहुत बड़े भयका सामना करना पड़ेगा। यह बालक तो अब काठके समान निष्प्राण हो गया है। इसे छोड़ो और सियारकी बातोंके लोभमें न पड़ो || १०१ ।।
यदि तुमलोग विवेकश्रष्ट होकर सियारकी झूठी और निष्फल बातें सुनते रहोगे तो सबके सब नष्ट हो जाओगे ।। १०२ ।।
सियार बोला--ठहरो, ठहरो। जबतक यहाँ सूर्यका प्रकाश है, तबतक तुम्हें बिल्कुल नहीं डरना चाहिये। उस समयतक इस बालकपर स्नेह करके इसके प्रति ममतापूर्ण बर्ताव करो। निर्भय होकर दीर्घकालतक इसे स्नेहदृष्टिसे देखो और जी भरकर रो लो। यद्यपि यह वन्यप्रदेश भयंकर है तो भी यहाँ तुम्हें कोई भय नहीं होगा; क्योंकि यह भू-भाग पितरोंका निवास-स्थान होनेके कारण श्मशान होता हुआ भी सौम्य है। जबतक सूर्य दिखायी देते हैं, तबतक यहीं ठहरो। इस मांसभक्षी गीधके कहनेसे क्या होगा? ।।
यदि तुम मोहितचित्त होकर इस गीधकी घोर एवं घबराहटमें डालनेवाली बातोंमें आ जाओगे तो इस बालकसे हाथ धो बैठोगे || १०५ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! वे गीध और गीदड़ दोनों ही भूखे थे और अपने उद्देश्यकी सिद्धिके लिये मृतकके बन्धु-बान्धवोंसे बातें करते थे। गीध कहता था कि सूर्य अस्त हो गये और सियार कहता था नहीं ।।
राजन्! गीध और गीदड़ अपना-अपना काम बनानेके लिये कमर कसे हुए थे। दोनोंको ही भूख और प्यास सता रही थी और दोनों ही शास्त्रका आधार लेकर बात करते थे ।। १०७ ||
उनमेंसे एक पशु था और दूसरा पक्षी। दोनों ही ज्ञानकी बातें जानते थे। उन दोनोंके अमृतरूपी वचनोंसे प्रभावित हो वे मृतकके सम्बन्धी कभी ठहर जाते और कभी आगे बढ़ते थे || १०८ ।।
शोक और दीनतासे आविष्ट होकर वे उस समय रोते हुए वहाँ खड़े ही रह गये। अपनाअपना कार्य सिद्ध करनेमें कुशल गीध और गीदड़ने चालाकीसे उन्हें चक्करमें डाल रक्खा था ।। १०९ ||
ज्ञान-विज्ञानकी बातें जाननेवाले उन दोनों जन्तुओंमें इस प्रकार वाद-विवाद चल रहा था और मृतकके भाई-बन्धु वहीं खड़े थे। इतनेहीमें भगवती श्रीपार्वतीदेवीकी प्रेरणासे भगवान् शंकर उनके सामने प्रकट हो गये। उस समय उनके नेत्र करुणारससे आर्द्र हो रहे थे। वरदायक भगवान् शिवने उन मनुष्योंसे कहा---मैं तुम्हें वर दे रहा हूँ” || ११०-१११
तब वे दुखी मनुष्य भगवान्को प्रणाम करके खड़े हो गये और इस प्रकार बोले --'प्रभो! इस इकलौते पुत्रसे हीन होकर हम मृतकतुल्य हो रहे हैं। आप हमारे इस पुत्रको जीवित करके हम समस्त जीवनार्थियोंको जीवनदान देनेकी कृपा करें” || ११२३
उन्होंने जब नेत्रोंमें आँसू भरकर भगवान् शंकरसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने उस बालकको जीवित कर दिया और उसे सौ वर्षोकी आयु प्रदान की || ११३½।।
इतना ही नहीं, सर्वभूतहितकारी पिनाकपाणि भगवान् शिवने गीध और गीदड़को भी उनकी भूख मिट जानेका वरदान दे दिया || ११४½ ।।
राजन! तब वे सब लोग हर्षसे उललसित एवं कृतकार्य हो महादेवजीको प्रणाम करके सुख और प्रसन्नताके साथ वहाँसे चले गये || ११५३ ।।
यदि मनुष्य उकताहटमें न पड़कर दृढ़ एवं प्रबल निश्चयके साथ प्रयत्न करता रहे तो देवाधिदेव भगवान् शिवके प्रसादसे शीघ्र ही मनोवांछित फल पा लेता है || ११६३६
देखो, दैवका संयोग और उन बन्धु-बान्धवोंका दृढ़ निश्चय; जिससे दीनतापूर्वक रोते हुए उन मनुष्योंका आँसू थोड़े ही समयमें पोंछा गया। यह उनके निश्चयपूर्वक किये हुए अनुसंधान एवं प्रयत्नका फल है ।। ११७-११८ ।।
भगवान् शंकरकी कृपासे उन दुखी मनुष्योंने सुख प्राप्त कर लिया। पुत्रके पूनर्जीवनसे वे आश्षर्यचकित एवं प्रसन्न हो उठे |। ११९ ।।
राजन! भरतश्रेष्ठ! भगवान् शंकरकी कृपासे वे सब लोग तुरंत ही पुत्रशोक त्यागकर प्रसन्नचित्त हो पुत्रको साथ ले अपने नगरको चले गये ।। १२० ३ ।।
चारों वर्णोमें उत्पन्न हुए सभी लोगोंके लिये यह बुद्धि प्रदर्शित की गयी है। धर्म, अर्थ और मोक्षसे युक्त इस शुभ इतिहासको सदा सुननेसे मनुष्य इहलोक और परलोकमें आनन्दका अनुभव करता है ।। १२१-१२२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें गीदड़-गोमायुका संवाद एवं मरे हुए बालकका पुनर्जीवनविषयक एक सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल १२३ श्लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ चौवनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ चौवनवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“नारदजीका सेमल-वृक्षसे प्रशंसापूर्वक प्रश्न”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जो बलवान, नित्य निकटवर्ती, उपकार और अपकार करनेमें समर्थ तथा नित्य उद्योगशील है, ऐसे शत्रुके साथ यदि कोई अल्प बलवान, असार एवं सभी बातोंमें छोटी हैसियत रखनेवाला मनुष्य मोहवश शेखी बघारते हुए अयोग्य बातें कहकर वैर बाँध ले और वह बलवान शत्रु अत्यन्त कुपित हो उस दुर्बल मनुष्यको उखाड़ फेंकनेके लिये आक्रमण कर दे, तब वह आक्रान्त मनुष्य अपने ही बलका भरोसा करके उस आक्रमणकारीके साथ कैसा बर्ताव करे? (जिससे उसकी रक्षा हो सके) || १--३ ।।
भीष्मजीने कहा--भरतश्रेष्ठी] इस विषयमें विज्ञ पुरुष वायु और सेमलवृक्षके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ४ ।।
हिमालय पर्वतपर एक बहुत बड़ा वनस्पति था, जो बहुत वर्षोसे बढ़कर प्रबल हो गया था। वह स्कन्ध, शाखा और पत्तोंसे खूब हरा-भरा था ।। ५ ।।
महाबाहो! उसके नीचे बहुत-से मतवाले हाथी तथा दूसरे-दूसरे पशु धूपसे पीड़ित और परिश्रमसे थकित होकर विश्राम करते थे ।। ६ ।।
उस वृक्षकी लंबाई चार सौ हाथकी थी। छाया बड़ी सघन थी। उसपर तोते और मैनाओंके समूह बसेरा लेते थे। वह वृक्ष फल और फूल दोनोंसे ही भरा था ।। ७ ।।
दल बाँधकर यात्रा करनेवाले वणिक्, वनवासी तपस्वी तथा दूसरे राहगीर भी उस रमणीय एवं श्रेष्ठ वृक्षेके नीचे निवास किया करते थे ।। ८ ।।
भरतश्रेष्ठ)! उस वृक्षकी बड़ी-बड़ी शाखाओं तथा मोटे तनोंको देखकर देवर्षि नारद उसके पास गये और इस प्रकार बोले-- ।। ९ ।।
अहो! शाल्मले! तुम बड़े रमणीय और मनोहर हो। तरुप्रवर! तुमसे हमें सदा प्रसन्नता प्राप्त होती है ।। १० ।।
तात! मनोहर वृक्षराज! तुम्हारी शाखाओंपर सदा ही बहुत-से पक्षी तथा नीचे अनेकानेक मृग एवं हाथी प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं || ११ ।।
“महान् शाखाओंसे सुशोभित वनस्पते! मैं देखता हूँ कि तुम्हारी शाखाओं और मोटे तनोंको वायुदेव भी किसी तरह तोड़ नहीं सके हैं || १२ ।।
“तात! क्या पवनदेव तुमसे किसी कारणवश विशेष प्रसन्न रहते हैं अथवा वे तुम्हारे सुहृद हैं, जिससे इस वनमें सदा तुम्हारी निश्चितरूपसे रक्षा करते हैं ।।
“भगवान् वायु इतने वेगशाली हैं कि छोटे-बड़े वृक्षोंको कौन कहे, पर्वतोंके शिखरोंको भी अपने स्थानसे हिला देते हैं ।। १४ ।।
“गन्धवाही पवित्र पवन पाताल, सरोवर, सरिताओं और समुद्रोंको भी सुखा सकता है ।। १५ ||
“इसमें संदेह नहीं कि वायुदेव तुम्हें अपना मित्र माननेके कारण ही तुम्हारी रक्षा करते हैं; इसीलिये तुम अनेक शाखाओंसे सम्पन्न तथा पत्ते और पुष्पोंसे हरे-भरे हो ।। १६ ।।
“तात वनस्पते! तुम्हारे पास यह बड़ा ही रमणीय दृश्य जान पड़ता है कि ये पक्षी तुम्हारी शाखाओंपर बड़े प्रसन्न रहकर रमण कर रहे हैं ।। १७ ।।
“वसन्त ऋतुमें अत्यन्त मनोरम बोली बोलनेवाले इन पक्षियोंका अलग-अलग तथा सबका एक साथ बड़ा मधुर स्वर सुनायी पड़ता है || १८ ।।
'शाल्मले! अपने यूथकुलसे सुशोभित ये गर्जना करते हुए गजराज धूपसे पीड़ित हो तुम्हारे पास आकर सुख पाते हैं ।। १९ ।।
“वृक्षप्रवर! इसी प्रकार दूसरी-दूसरी जातिके पशु भी तुम्हारी शोभा बढ़ा रहे हैं। तुम सबके निवास-स्थान होनेके कारण मेरुपर्वतके समान सुशोभित होते हो || २० ।॥।
“तपस्यासे शुद्ध हुए तापसों, ब्राह्मणों तथा श्रमणोंसे संयुक्त हो तुम्हारा यह स्थान मुझे स्वर्गके समान जान पड़ता है” ।। २१ ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें वायु और शाल्मलिसंवादके प्रसंगमें एक सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ पचपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ पचपनवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“नारदजीका सेमल-वृक्षको उसका अहंकार देखकर फटकारना”
नारदजीने कहा--शाल्मले! इसमें संहाय नहीं कि तुम्हें अपना बन्धु अथवा मित्र माननेके कारण ही सर्वत्रगामी भयानक वायुदेव सदा तुम्हारी रक्षा करते हैं ।। १ ।।
शाल्मले! मालूम होता है, तुम वायुके सामने अत्यन्त विनम्र होकर कहते हो कि “मैं तो आपका ही हूँ इसीसे वह सदा तुम्हारी रक्षा करता है |। २ ।।
मैं इस भूतलपर ऐसे किसी वृक्ष, पर्वत या घरको नहीं देखता, जो वायुके बलसे भग्न न हो जाय। मेरा यही विश्वास है कि वायुदेव सबको तोड़कर गिरा सकते हैं ।। ३ ।।
शाल्मले! कुछ ऐसे कारण अवश्य हैं, जिनसे प्रेरित होकर वायुदेव निश्चितरूपसे सपरिवार तुम्हारी रक्षा करते हैं। निस्संदेह इसीसे यों ही खड़े रहते हो ।।
सेमलने कहा--ब्रह्मन! वायु न तो मेरा मित्र है, न बन्धु है, न सुहृद् ही है। वह ब्रह्मा भी नहीं है, जो मेरी रक्षा करेगा || ५ ।।
नारद! मेरा तेज और बल वायुसे भी भयंकर है। वायु अपनी प्राणशक्तिके द्वारा मेरी अठारहवीं कलाको भी नहीं पा सकता ।। ६ ।।
जिस समय वायुदेवता वृक्ष, पर्वत तथा दूसरी वस्तुओंको तोड़ता-फोड़ता हुआ मेरे पास पहुँचता है, उस समय मैं बलसे उसकी गतिको रोक देता हूँ ।। ७ ।।
देवर्षे! इस प्रकार मैंने तोड़-फोड़ करनेवाले वायुकी गतिको अनेक बार रोक दिया है; अतः वह कुपित हो जाय तो भी मुझे उससे भय नहीं है ।। ८ ।।
नारदजीने कहा--शाल्मले! इस विषयमें तुम्हारी दृष्टि विपरीत है--समझ उलटी हो गयी है, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि वायुके बलके समान किसी भी प्राणीका बल नहीं है।। ९।।
वनस्पते! इन्द्र, यम, कुबेर तथा जलके स्वामी वरुण--ये भी वायुके तुल्य बलशाली नहीं हैं; फिर तुम जैसे साधारण वृक्षकी तो बात ही क्या है? || १० ।।
शाल्मले! प्राणी इस पृथ्वीपर जो कुछ भी चेष्टा करता है, उस चेष्टाकी शक्ति तथा जीवन देनेवाले सर्वत्र सामर्थ्यशाली भगवान् वायु ही हैं ।। ११ ।।
ये जब शरीरमें ठीक ढंगसे प्राण आदिके रूपमें विस्तारको प्राप्त होते हैं, तब समस्त प्राणियोंको चेष्टाशील बनाते हैं और जब ये ठीक ढंगसे काम नहीं करते हैं, तब प्राणियोंके शरीरमें विकृति आने लगती है ।। १२ ।।
इस प्रकार समस्त बलवानोंमें श्रेष्ठ एवं पूजनीय वायुदेवकी जो तुम पूजा नहीं करते हो, यह तुम्हारी बुद्धिकी लघुताके सिवा और क्या है ।। १३ ।।
शाल्मले! तुम सारहीन और दुर्बुद्धि हो, केवल बहुत बातें बनाते हो तथा क्रोध आदि दुर्गुणोंसे प्रेरित होकर झूठ बोलते हो ।। १४ ।।
तुम्हारे इस तरह बातचीत करनेसे मेरे मनमें रोष उत्पन्न हुआ है; अतः मैं स्वयं वायुके सामने तुम्हारे इन दुर्वचनोंको सुनाऊँगा ।। १५ ।।
चन्दन, स्यन्दन (तिनिश), शाल, सरल, देवदारु, वेतस (बेत), धामिन तथा अन्य जो बलवान वृक्ष हैं, उन जितात्मा वृक्षोंने भी कभी इस प्रकार वायु-देवपर आक्षेप नहीं किया है। दुर्बुद्धे! वे भी अपने और वायुके बलको अच्छी तरह जानते हैं; इसीलिये वे श्रेष्ठ वृक्ष वायुदेवके सामने मस्तक झुका देते हैं || १६-१७ ६ ।।
तुम तो मोहवश वायुके अनन्त बलको कुछ समझते ही नहीं हो; अतः अब मैं यहाँसे सीधे वायुदेवके ही पास जाऊँगा ।। १८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें पवन-शाल्मलिसंवादविषयक एक सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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