सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ छियालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ छियालीसवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)
“कबूतरके द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीरका बहेलियेके लिये परित्याग”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! पत्नीकी वह धर्मके अनुकूल और युक्तियुक्त बात सुनकर कबूतरको बड़ी प्रसन्नता हुई। उसके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये ।। १ ।।
उस पक्षीने पक्षियोंकी हिंसासे ही जीवन-निर्वाह करनेवाले उस बहेलियेकी ओर देखकर शास्त्रीय विधिके अनुसार यत्नपूर्वक उसका पूजन किया ।। २ ।।
और बोला--'आज आपका स्वागत है। बोलिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? आपको संताप नहीं करना चाहिये, आप इस समय अपने ही घरमें हैं ।। ३ ।।
“अत: शीघ्र बताइये, आप क्या चाहते हैं? मैं आपकी क्या सेवा करूँ? मैं बड़े प्रेमसे पूछ रहा हूँ; क्योंकि आप हमारे घर पधारे हैं ।। ४ ।।
“यदि शत्रु भी घरपपर आ जाय तो उसका उचित आदर-सत्कार करना चाहिये। जो काटनेके लिये आया हो, उसके ऊपरसे भी वृक्ष अपनी छाया नहीं हटाता ।। ५ ।।
“यों तो घरपर आये हुए अतिथिका सभीको यत्नपूर्वक आदर-सत्कार करना चाहिये; परंतु पंचयज्ञके अधिकारी गृहस्थका यह प्रधान धर्म है ।। ६ ।।
जो मोहवश गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी पञ्चमहा-यज्ञोंका अनुष्ठान नहीं करता, उसके लिये धर्मके अनुसार न तो यह लोक प्राप्त होता है और न परलोक ही ।। ७ ।।
“अतः तुम पूर्ण विश्वास रखकर मुझसे अपनी बात बताओ, तुम अपने मुँहसे जो कुछ कहोगे, वह सब मैं करूँगा; अतः तुम मनमें शोक न करो” ।। ८ ।।
कबूतरकी यह बात सुनकर व्याधने कहा--“इस समय मुझे सर्दीका कष्ट है; अतः इससे बचानेका कोई उपाय करो' || ९ ।।
उसके ऐसा कहनेपर पक्षीने पृथ्वीपर बहुत-से पत्ते लाकर रख दिये और आग लानेके लिये अपने पंखोंद्वारा यथाशक्ति बड़ी तेजीसे उड़ान लगायी || १० ॥।
वह लुहारके घर जाकर आग ले आया और सूखे पत्तोंपर रखकर उसने वहाँ अग्नि प्रज्वलित कर दी ।।
इस प्रकार आगको बहुत प्रज्वलित करके कबूतरने शरणागत अतिथिसे कहा--'भाई! अब तुम्हें कोई भय नहीं है। तुम निश्चिन्त होकर अपने सारे अंगोंको आगसे तपाओ' || १२ ।।
तब उस व्याधने “बहुत अच्छा” कहकर अपने सारे अंगोंको तपाया। अग्निका सेवन करके उसकी जानमें जान आयी। तब वह कबूतरसे कुछ कहनेको उद्यत हुआ ।। १३ ।।
शास्त्रीय विधिसे सत्कार पा उसने बड़े हर्षमें भरकर डबडबायी हुई आँखोंसे कबूतरकी ओर देखकर कहा-- ।। १४ ।।
'भाई! अब मुझे भूख सता रही है; इसलिये तुम्हारा दिया हुआ कुछ भोजन करना चाहता हूँ।” उसकी बात सुनकर कबूतर बोला--“भैया! मेरे पास सम्पत्ति तो नहीं है, जिससे मैं तुम्हारी भूख मिटा सकूँ। हमलोग वनवासी पक्षी हैं। प्रतिदिन चुगे हुए चारेसे ही जीवन निर्वाह करते हैं। मुनियोंके समान हमारे पास कोई भोजन का संग्रह नहीं रहता है' || १५-१६ ६ ।।
ऐसा कहकर कबूतरका मुख कुछ उदास हो गया। वह इस चिन्तामें पड़ गया कि अब मुझे क्या करना चाहिये? भरतश्रेष्ठ। वह अपनी कापोती वृत्तिकी निन्दा करने लगा ।। १७-१८ ।।
थोड़ी देरमें उसे कुछ याद आया और उस पक्षीने बहेलिये से कहा--“अच्छा, थोड़ी देरतक ठहरिये। मैं आपकी तृप्ति करूँगा” || १९ |।
ऐसा कहकर उसने सूखे पत्तोंसे पुनः आग प्रज्वलित की और बड़े हर्षमें भर कर व्याधसे कहा--- || २० ।।
“मैंने ऋषियों, देवताओं, पितरों तथा महात्माओंके मुखसे पहले सुना है कि अतिथिकी पूजा करनेमें महान् धर्म है ।। २१ ।।
'सौम्य! अतः मैंने भी आज अतिथिकी उत्तम पूजा करनेका निश्चय कर लिया है। आप मुझे ही ग्रहण करके मुझपर कृपा कीजिये। यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूँ || २२
ऐसा कहकर अतिथि-पूजनकी प्रतिज्ञा करके उस परम बुद्धिमान् पक्षीने तीन बार अग्निदेवकी परिक्रमा की, और हँसते हुए-से आगमें प्रवेश किया ।। २३ ।।
पक्षीको आगके भीतर घुसा हुआ देख व्याध मन-ही-मन चिन्ता करने लगा कि मैंने यह क्या कर डाला? ।। २४ ।।
अहो! अपने कर्मसे निन्दित हुए मुझ क्रूरकर्मा व्याधके जीवनमें यह सबसे भयंकर और महान् पाप होगा, इसमें संशय नहीं है || २५ ।।
इस प्रकार कबूतरकी वैसी अवस्था देखकर अपने कर्मोंकी निन््दा करते हुए उस व्याधने अनेक प्रकारकी बातें कहकर बहुत विलाप किया ।। २६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कब्बृतर और व्याधका संवादविषयक एक सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ सैतालिसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सैतालिसवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“बहेलियेका वैराग्य”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! भूखसे व्याकुल होनेपर भी बहेलियेने जब देखा कि कबूतर आगमें कूद पड़ा, तब वह दुखी होकर इस प्रकार कहने लगा-- ।।
हाय! मुझ क्रूर और बुद्धिहीनने कैसा पाप कर डाला? मैंने अपना जीवन ही ऐसा बना रक््खा है कि मुझसे नित्य पाप बनता ही रहेगा” ।। २ ।।
इस प्रकार बारंबार अपनी निन्दा करता हुआ वह फिर बोला---'मैं बड़ा दुष्ट बुद्धिका मनुष्य हूँ, मुझपर किसीको विश्वास नहीं करना चाहिये। शठता और क्रूरता ही मेरे जीवनका सिद्धान्त बन गया है || ३ ।।
“अच्छे-अच्छे कर्मोंको छोड़कर मैंने पक्षियोंको मारने और फँसानेका धंधा अपना लिया है। मुझ क्रूर और कुकर्मीको महात्मा कबूतरने अपने शरीरकी आहुति दे अपना मांस अर्पित किया है। इसमें संदेह नहीं कि इस अपूर्व त्यागके द्वारा उसने मुझे धिक्कारते हुए धर्माचरण करनेका आदेश दिया है || ४६ ।।
“अब मैं पापसे मुह मोड़कर स्त्री, पुत्र तथा अपने प्यारे प्राणोंका भी परित्याग कर दूँगा। महात्मा कबूतरने मुझे विशुद्ध धर्मका उपदेश दिया है ।। ५½।।
“आजसे मैं अपने शरीरको सम्पूर्ण भोगोंसे वंचित करके उसी प्रकार सुखा डालूँगा, जैसे गर्मीमें छोटा-सा तालाब सूख जाता है || ६½ ।।
“भूख, प्यास और धूपका कष्ट सहन करते हुए शरीरको इतना दुर्बल बना दूँगा कि सारे शरीरमें फैली हुई नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देंगी। मैं बारंबार अनेक प्रकारसे उपवास व्रत करके परलोक सुधारनेवाला पुण्य कर्म करूँगा ॥७ ३ ।।
“अहो! महात्मा कबूतरने अपने शरीरका दान करके मेरे सामने अतिथि-सत्कारका उज्ज्वल आदर्श रक््खा है, अत: मैं भी अब धर्मका ही आचरण करूँगा; क्योंकि धर्म ही परम गति है। उस धर्मात्मा श्रेष्ठ पक्षीमें जैसा धर्म देखा गया है, वैसा ही मुझे भी अभीष्ट है ।। ८-९ |।
ऐसा कहकर धर्माचरणका ही निश्चय करके वह भयानक कर्म करनेवाला व्याध कठोर व्रतका आश्रय ले महाप्रस्थानके पथपर चल दिया ।। १० ।।
उस समय उसने उस बन्दी की हुई कबूतरीको पिंजरेसे मुक्त करके अपनी लाठी, शलाका, जाल, पिंजड़ा सब कुछ छोड़ दिया ।। ११ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें बहेलियेकी उपरतिविषयक एक सौ सैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ अड़तालीसवें अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“कबूतरीका विलाप और अन्निमें प्रवेश तथा उन दोनोंको स्वर्गलोककी प्राप्ति”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! उस बहेलियेके चले जानेपर कबूतरी अपने पतिका स्मरण करके शोकसे कातर हो उठी और दुःखमग्न हो रोती हुई विलाप करने लगी ।। १ ।।
'प्रियतम! आपने कभी मेरा अप्रिय किया हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है। सारी स्त्रियाँ अनेक पुत्रोंसे युक्त होनेपर भी पतिहीन होनेपर शोकमें डूब जाती हैं ।।
पतिहीन तपस्विनी नारी अपने भाई-बन्धुओंके लिये भी शोचनीय बन जाती है। आपने सदा ही मेरा लाड-प्यार किया और बड़े सम्मानके साथ मुझे आदरपूर्वक रखा|| ३ ।।
“आपने स्नेहसिक्त, सुखद, मनोहर, तथा मधुर वचनोंद्वारा मुझे आनन्दित किया। मैंने आपके साथ पर्वतोंकी गुफाओंमें नदियोंके तटोंपर, झरनोंके आस-पास तथा वृक्षोंकी सुरम्य शिखाओंपर रमण किया है। आकाशयात्रामें भी मैं सदा आपके साथ सुखपूर्वक विचरण करती रही हूँ || ४-५ ।।
'प्राणनाथ! पहले मैं जिस प्रकार आपके साथ आनन्दपूर्वक रमण करती थी, अब उन सब सुखोंमेंसे कुछ भी मेरे लिये शेष नहीं रह गया है। पिता, भ्राता और पुत्र--ये सब लोग नारीको परिमित सुख देते हैं, केवल पति ही उसे अपरिमित या असीम सुख प्रदान करता है। ऐसे पतिकी कौन स्त्री पूजा नहीं करेगी? ।।
'सत्रीके लिये पतिके समान कोई रक्षक नहीं है और पतिके तुल्य कोई सुख नहीं है। उसके लिये तो धन और सर्वस्वको त्यागकर पति ही एकमात्र गति है ।।
“नाथ! अब तुम्हारे बिना यहाँ इस जीवनसे भी क्या प्रयोजन है? ऐसी कौन सी पतिव्रता स्त्री होगी, जो पतिके बिना जीवित रह सकेगी? ।। ८६ ।।
इस तरह अनेक प्रकारसे करुणाजनक विलाप करके अत्यन्त दु:खमें डूबी हुई वह पतिव्रता कबूतरी उसी प्रज्वलित अग्निमें समा गयी ।। ९३ ।।
तदनन्तर उसने अपने पतिको देखा। वह विचित्र अंगद धारण किये विमानपर बैठा था और बहुत-से पुण्यात्मा महात्मा उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे || १०३ ।।
उसने विचित्र हार और वस्त्र धारण कर रकक््खे थे और वह सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित था। अरबों पुण्यकर्मी पुरुषोंसे युक्त विमानोंने उसे घेर रक्खा था ।।
इस प्रकार श्रेष्ठ विमानपर बैठा हुआ वह पक्षी अपनी स्त्रीके सहित स्वर्गलोकको चला गया और अपने सत्कर्मसे पूजित हो वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगा ।। १२ ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कबृतरका स्वर्गगमनविषयक एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ उनचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ उनचासवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)
“बहेलियेको स्वर्गलोककी प्राप्ति”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! व्याधने उन दोनों पक्षियोंको दिव्य रूप धारण करके विमान पर बैठे और आकाशमार्गसे जाते देखा। उन दिव्य दम्पतिको देखकर व्याध उनकी उस सद्गतिके विषयमें विचार करने लगा ।। १ ॥।
मैं भी इसी प्रकार तपस्या करके परम गतिको प्राप्त होऊँगा, ऐसा अपनी बुद्धिके द्वारा निश्चय करके पक्षियोंद्वारा जीवन-निर्वाह करनेवाला वह बहेलिया वहाँसे महाप्रस्थानके पथका आश्रय लेकर चल दिया। उसने सब प्रकारकी चेष्टा त्याग दी। वायु पीकर रहने लगा। स्वर्गकी अभिलाषासे अन्य सब वस्तुओंकी ओरसे उसने ममता हटा ली ।। २-३ ।।
आगे जाकर उसने एक विस्तृत एवं मनोरम सरोवर देखा जो कमल-समूहोंसे सुशोभित हो रहा था। नाना प्रकारके जलपक्षी उसमें कलरव कर रहे थे। वह तालाब शीतलजलसे भरा था और अत्यन्त सुखद जान पड़ता था ।। ४ ।।
राजन! कोई मनुष्य कितनी ही प्याससे पीड़ित क्यों न हो, नि:संदेह उस सरोवरके दर्शनमात्रसे वह तृप्त हो सकता था। इधर यह व्याध उपवासके कारण अत्यन्त दुर्बल हो गया था, तो भी उधर दृष्टिपात किये बिना ही बड़े हर्षके साथ हिंसक जन्तुओंसे भरे हुए वनमें प्रवेश कर गया। महान् लक्ष्यपर पहुँचनेका निश्चय करके बहेलिया उस वनमें घुसा। घुसते ही कैँटीली झाड़ियोंमें फँस गया। काँटोंसे उसका सारा शरीर छिदकर लहूलुहान हो गया ।। ५-७ ।।
नाना प्रकारके वन्य पशुओंसे भरे हुए उस निर्जन वनमें वह इधर-उधर भटकने लगा। इतनेही में प्रचण्ड पवनके वेगसे वृक्षोंमें परस्पर रगड़ होनेके कारण उस वनमें बड़ी भारी आग लग गयी। आग की बड़ी-बड़ी लपटें ऊपरको उठने लगीं। प्रलयकालकी संवर्तक अग्निके समान प्रज्वलित एवं कुपित हुए अग्निदेव लता, डालियों और वृक्षोंसे व्याप्त हुए उस वनको दग्ध करने लगे ।। ८-९½।।
हवासे उड़ी हुई चिनगारियों तथा ज्वालाओंद्वारा चारों और फैलकर उस दावानलने पशु-पक्षियोंसे भरे हुए भयंकर वनको जलाना आरम्भ किया || १०३ ।।
बहेलिया अपने शरीरका परित्याग करनेके लिये मनमें हर्ष और उल्लास भरकर उस बढ़ती हुई आगकी ओर दौड़ पड़ा || ११ ।।
भरतश्रेष्ठ) तदनन्तर उस आगमें जल जानेसे बहेलियेके सारे पाप नष्ट हो गये और उसने परम सिद्धि प्राप्त कर ली ।। १२ ।।
थोड़ी ही देरमें अपने आपको उसने देखा कि वह बड़े आनन्दसे स्वर्गलोकमें विराजमान है तथा अनेक यक्ष, सिद्ध और गन्धर्वोके बीचमें इन्द्रके समान शोभा पा रहा है ।। १३ ।।
इस प्रकार वह धर्मात्मा कबूतर, पतिव्रता कपोती और बहेलिया--तीनों साथ-साथ अपने पुण्यकर्मके बलसे स्वर्गलोकमें जा पहुँचे || १४ ।।
इसी प्रकार जो स्त्री अपने पतिका अनुसरण करती है, वह कपोतीके समान शीघ्र ही स्वर्गलोकमें स्थित हो अपने तेजसे प्रकाशित होती है ।। १५ ।।
यह प्राचीन वृत्तान्त (परशुरामजीने मुचुकुन्दकों सुनाया था) यह ठीक ऐसा ही है। बहेलिये और महात्मा कबूतरको उनके पुण्यकर्मके प्रभावसे धर्मात्माओंकी गति प्राप्त हुई || १६ ।।
जो मनुष्य इस प्रसंगको प्रतिदिन सुनता और जो इसका वर्णन करता है, उन दोनोंको मनसे भी प्रमादजनित अशुभकी प्राप्ति नहीं होती || १७ ।।
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर| यह शरणागतका पालन महान् धर्म है। ऐसा करनेसे गोवध करनेवाले पुरुषोंके पापका भी प्रायश्चित्त हो जाता है ।। १८ ।।
जो शरणागतका वध करता है, उसको कभी इस पापसे छुटकारा नहीं मिलता। इस पापनाशक पुण्यमय इतिहासको सुन लेनेपर मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। उसे स्वर्गलोककी प्रप्ति होती है ।। १९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें व्याधका स्वर्गलोकमें गमनविषयक एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ पचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ पचासवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)
“इन्द्रोत मुनिका राजा जनमेजयको फटकारना”
युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ) यदि कोई पुरुष अनजानमें किसी तरहका पापकर्म कर बैठे तो वह उससे किस प्रकार मुक्त हो सकता है? यह सब मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! इस विषयमें ऋषियों-द्वारा प्रशंसित एक प्राचीन प्रसंग एवं उपदेश तुम्हें सुनाऊँगा, जिसे शुनकवंशी विप्रवर इन्दोतने राजा जनमेजयसे कहा था।।२।।
पूर्वकालमें परिक्षित॒के- पुत्र राजा जनमेजय बड़े पराक्रमी थे; परन्तु उन्हें बिना जाने ही ब्रह्महत्याका पाप लग गया था | ३ ।।
इस बातको जानकर पुरोहितसहित सभी ब्राह्मणोंने जनमेजयको त्याग दिया। राजा चिन्तासे दिन-रात जलते हुए वनमें चले गये ।। ४ ।।
प्रजाने भी उन्हें गददीसे उतार दिया था; अतः वे वनमें रहकर महान् पुण्य कर्म करने लगे। दुःखसे दग्ध होते हुए वे दीर्घकालतक तपस्यामें लगे रहे ।। ५ ।।
राजाने सारी पृथ्वीके प्रत्येक देशमें घूम-घूमकर बहु-तेरे ब्राह्मणोंसे ब्रह्महत्या-निवारण के लिये उपाय पूछा ।। ६ ।।
राजन! यहाँ मैं जो इतिहास बता रहा हूँ, वह धर्मकी वृद्धि करनेवाला है। राजा जनमेजय अपने पाप-कर्मसे दग्ध होते और वनमें विचरते हुए कठोर व्रतका पालन करनेवाले शुनकवंशी इन्द्रोत मुनिके पास जा पहुँचे || ७६ ।।
वहाँ जाकर उन्होंने मुनिके दोनों पैर पकड़ लिये और उन्हें धीरे-धीरे दबाने लगे। ऋषिने वहाँ राजाको देखकर उस समय उनकी बड़ी निन््दा की। वे कहने लगे--अरे! तू तो महान् पापाचारी और ब्रह्महत्यारा है। यहाँ कैसे आया? हमलोगोंसे तेरा क्या काम है? मुझे किसी तरह छूना मत। जा-जा, तेरा यहाँ ठहरना हमलोगोंको अच्छा नहीं लगता ।। ८--१० ।।
“तुमसे रुधिरकी-सी गन्ध निकलती है। तेरा दर्शन वैसा ही है, जैसा मुर्देका दीखना। तू देखनेमें मंगलमय है; परंतु है अमंगलरूप। वास्तवमें तू मर चुका; परंतु जीवित की भाँति घूम रहा है || ११ ।।
'तू ब्राह्मणकी मृत्युका कारण है। तेरा अन्तःकरण नितान्त अशुद्ध है। तू पापकी ही बात सोचता हुआ जागता और सोता है और इसीसे अपनेको परम सुखी मानता है ।। १२ ।।
“राजन! तेरा जीवन व्यर्थ और अत्यन्त क्लेशमय है। तू पापके लिये ही पैदा हुआ है। खोटे कर्मके लिये ही तेरा जन्म हुआ है ।। १३ ।।
माता-पिता तपस्या, देवपूजा, नमस्कार और सहनशीलता या क्षमा आदिके द्वारा पुत्र प्राप्त करना चाहते हैं और प्राप्त हुए पुत्रोंसे परम कल्याण पानेकी इच्छा रखते हैं || १४ ।।
'परंतु तेरे कारण तेरे पितरोंका यह समुदाय नरकमें पड़ गया है। तू आँख उठाकर उनकी दशा देख ले। उन्होंने तुझसे जो जो आशाएँ बाँध रक्खी थीं, उनकी वे सभी आशाएँ आज व्यर्थ हो गयीं ।। १५ ।।
जिनकी पूजा करनेवाले लोग स्वर्ग, आयु, यश और संतान प्राप्त करते हैं। उन्हीं ब्राह्मणोंसे तू सदा द्वेष रखता है। तेरा जीवन व्यर्थ है ।। १६ ।।
“इस लोकको छोड़नेके बाद तू अपने पापकर्मके फलस्वरूप अनन्त वर्षोतक नीचा सिर किये नरकमें पड़ा रहेगा ।। १७ ।।
“वहाँ लोहेके समान चोंचवाले गीध और मोर तुझे नोच-नोचकर पीड़ा देंगे और उसके बाद भी नरकसे लौटनेपर तुझे किसी पापयोनिमें ही जन्म लेना पड़ेगा ।।
“राजन! तू जो यह समझता है कि जब इसी लोकमें पापका फल नहीं मिल रहा है, तब परलोकका तो अस्तित्व ही कहाँ है? सो इस धारणाके विपरीत यमलोकमें जानेपर यमराजके दूत तुझे इन सारी बातोंकी याद दिला देंगे ।। १९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें इन्दोत और पारिक्षितका संवादविषयक एक सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- ये परिक्षित् और जनमेजय अर्जुनके पौत्र और प्रपौत्र नहीं हैं।
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