सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय व एक सौ पैतालीसवाँ अध्याय (From the 144 chapter and the 145 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ चौवालीसवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कबूतरद्वारा अपनी भार्याका गुणगान तथा पतितव्रता स्त्रीकी प्रशंसा”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! उस वृक्षकी शाखापर बहुत दिनोंसे एक कबूतर अपने सुहृदोंके साथ निवास करता था। उसके शरीरके रोएँ चितकबरे थे ।। १ ।।

उसकी पत्नी सबेरेसे ही चारा चुगनेके लिये गयी थी, जो लौटकर नहीं आयी। अब रात हुई देख वह कबूतर उसके लिये बहुत संतप्त होने लगा || २ ।।

कबूतर दुखी होकर इस प्रकार विलाप करने लगा--'अहो! आज बड़ी भारी आँधी और वर्षा हुई है; किंतु अबतक मेरी प्यारी भार्या लौटकर नहीं आयी। ऐसा कौन-सा कारण हो गया, जिससे वह अभीतक नहीं लौट सकी है ।। ३ ।।

“क्या इस वनमें मेरी प्रिया कुशलसे होगी? उसके बिना आज मेरा यह घर-यह घोंसला सूना लग रहा है ।।

“पुत्र, पौत्र, पतोहू तथा अन्य भरण-पोषणके योग्य कुट॒म्बीजनोंसे भरा होनेपर भी गृहस्थका घर उसकी पत्नीके बिना सूना ही रहता है ।। ५ ।।

*वास्तवमें घरको घर नहीं कहते, घरवालीका ही नाम घर है। घरवालीके बिना जो घर होता है, उसे जंगलके समान ही माना गया है ।। ६ ।।

“जिसके नेत्रोंके प्रान्‍्तभाग कुछ-कुछ लाल हैं, अंग चितकबरे हैं और स्वरमें अद्भुत मिठास भरा है, वह मेरी प्राणवल्लभा यदि आज नहीं आ रही है तो मुझे इस जीवनसे क्या प्रयोजन है? ।। ७ ।।

वह उत्तम व्रतका पालन करनेवाली पतिव्रता थी, इसलिये मुझे भोजन कराये बिना भोजन नहीं करती, नहलाये बिना स्नान नहीं करती, मुझे बैठाये बिना बैठती नहीं तथा मेरे सो जानेपर ही शयन करती थी ।। ८ ।।

“मेरे प्रसन्न रहनेपर वह हर्षसे खिल उठती थी और मेरे दुखी होनेपर वह स्वयं भी दुःखमें डूब जाती थी। जब मैं बाहर जाने लगता तो उसके मुखपर दीनता छा जाती थी और जब कभी मुझे क्रोध आता, तब मीठी-मीठी बातें करके शान्त कर देती थी ।। ९ ।।

“वह बड़ी पतित्रता थी। पतिके सिवा दूसरी कोई उसकी गति नहीं थी। वह सदा ही पतिके प्रिय एवं हितमें तत्पर रहती थी। जिसको ऐसी पत्नी प्राप्त हुई हो, वह पुरुष इस पृथ्वीपर धन्य है ।। १० ।।

“वह तपस्विनी यह जानती है कि मैं थका, माँदा और भूखसे पीड़ित हूँ, सो भी न जाने क्यों नहीं आ रही है? मेरे प्रति उसका अत्यन्त अनुराग है, उसकी बुद्धि स्थिर है, वह यशस्विनी भार्या मेरे प्रति स्नेह रखनेवाली तथा मेरी परम भक्त है || ११ ।।

“वृक्षेके नीचे भी जिसकी पत्नी साथ हो, उसके लिये वही घर है और बहुत बड़ी अट्टालिका भी यदि स्त्रीसे रहित है तो वह निश्चय ही दुर्गग गहन वनके समान है ।।

“पुरुषके धर्म, अर्थ और कामके अवसरोंपर उसकी पत्नी ही उसकी मुख्य सहायिका होती है। परदेश जानेपर भी वही उसके लिये विश्वसनीय मित्रका काम करती है || १३ ।।

'पुरुषकी प्रधान सम्पत्ति उसकी पत्नी ही कही जाती है। इस लोकमें जो असहाय है, उसे भी लोक-यात्रामें सहायता देनेवाली उसकी पत्नी ही है ।। १४ ।।

“जो पुरुष रोगसे पीड़ित हो और बहुत दिनोंसे विपत्तिमें फँसा हो, उस पीड़ित मनुष्यके लिये भी स्त्रीके समान दूसरी कोई ओषधि नहीं है ।। १५ ।।

'संसारमें स्त्रीके समान कोई बन्धु नहीं है, स्त्रीके समान कोई आश्रय नहीं है और स्त्रीके समान धर्मसंग्रहमें सहायक भी दूसरा कोई नहीं है ।। १६ ।।

“जिसके घरमें साध्वी और प्रिय वचन बोलने-वाली भार्या नहीं है, उसे तो वनमें चला जाना चाहिये; क्योंकि उसके लिये जैसा घर है, वैसा ही वन” || १७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें पत्नीकी प्रशंसाविषयक एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ पैतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ पैतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“कबूतरीका कबूतरसे शरणागत व्याधकी सेवाके लिये प्रार्थना”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इस तरह विलाप करते हुए कबूतरका वह करुणायुक्त वचन सुनकर बहेलियेके कैदमें पड़ी हुई कबूतरीने कहा ।। १ ।।

कबूतरी बोली--अहो! मेरा बड़ा सौभाग्य है कि मेरे प्रियतम पतिदेव इस प्रकार मेरे गुणोंका, वे मुझमें हों या न हों, गान कर रहे हैं ।। २ ।।

उस स्त्रीको स्त्री ही नहीं समझना चाहिये, जिसका पति उससे संतुष्ट नहीं रहता है। पतिके संतुष्ट रहनेसे स्त्रियोंपर सम्पूर्ण देवता संतुष्ट रहते हैं |। ३ ।।

अग्निको साक्षी बनाकर स्त्रीका जिसके साथ विवाह हो गया, वही उसका पति है और वही उसके लिये परम देवता है। जिसका पति संतुष्ट नहीं रहता, वह नारी दावानलसे दग्ध हुई पुष्पगुच्छोंसहित लताके समान भस्म हो जाती है ।।

ऐसा सोचकर दु:खसे पीड़ित हो व्याधके कैदमें पड़ी हुई कबूतरीने अपने दु:खित पतिसे उस समय इस प्रकार कहा- ।। ५½।।

प्राणनाथ! मैं आपके कल्याणकी बात बता रही हूँ, उसे सुनकर आप वैसा ही कीजिये। इस समय विशेष प्रयत्न करके एक शरणागत प्राणीकी रक्षा कीजिये ।। ६½।।

“यह व्याध आपके निवास-स्थानपर आकर सर्दी और भूखसे पीड़ित होकर सो रहा है। आप इसकी यथोचित सेवा कीजिये ।। ७½।।

“जो कोई पुरुष ब्राह्मणकी, लोकमाता गायकी तथा शरणागतकी हत्या करता है, उन तीनोंको समानरूपसे पातक लगता है || ८½।।

“भगवानने जातिधर्मके अनुसार हमारी कापोतीवृत्ति बना दी है। आप-जैसे मनस्वी पुरुषको सदा ही उस वृत्तिका पालन करना उचित है ।। ९६ ।।

“जो गृहस्थ यथाशक्ति अपने धर्मका पालन करता है, वह मरनेके पश्चात्‌ अक्षय लोकोंमें जाता है, ऐसा हमने सुन रखा है ।। १०६ ।।

'पक्षिप्रवर! आप अब संतानवान्‌ और पुत्रवान्‌ हो चुके हैं। अतः आप अपनी देहपर दया न करके धर्म और अर्थपर ही दृष्टि रखते हुए इस बहेलियेका ऐसा सत्कार करें, जिससे इसका मन प्रसन्न हो जाय ।।११–१२।।

“विहंगम! आप मेरे लिये संताप न करें। आपको अपनी शरीरयात्राका निर्वाह करनेके लिये दूसरी स्त्री मिल जायेगी ।। १३ ।।

इस प्रकार पिंजड़ेमें पड़ी हुई वह तपस्विनी कबूतरी पतिसे यह बात कहकर अत्यन्त दुखी हो पतिके मुँहकी ओर देखने लगी ।। १४ ।।

(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्गपर्वमें कबृतरके प्रति कबृतरीका वाक्यविषयक एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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