सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ इकतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-102 का हिन्दी अनुवाद)
“'ब्राह्ण भयंकर संकटकालमें किस तरह जीवन-निर्वाह करे' इस विषयमें विश्वामित्र मुनि और चाण्डालका संवाद”
युधिष्ठिर ने पूछा--प्रजानाथ! भरतनन्दन! भूपाल-शिरोमणे! जब सब लोगोंके द्वारा धर्मका उल्लंघन होनेके कारण श्रेष्ठ धर्म क्षीण हो चले, अधर्मको धर्म मान लिया जाय और धर्मको अधर्म समझा जाने लगे, सारी मर्यादाएँ नष्ट हो जायाँ, धर्मका निश्चय डावाँडोल हो जाय, राजा अथवा शत्रु प्रजाको पीड़ा देने लगें, सभी आश्रम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायूँ, धर्म-कर्म नष्ट हो जायूँ, काम, लोभ तथा मोहके कारण सबको सर्वत्र भय दिखायी देने लगे, किसीका किसीपर विश्वास न रह जाय, सभी सदा डरते रहें, लोग धोखेसे एक-दूसरेको मारने लगें, सभी आपसमें ठगी करने लगें, देशमें सब ओर आग लगायी जाने लगे, ब्राह्मण अत्यन्त पीड़ित हो जाये, वृष्टि न हो, परस्पर वैर-विरोध और फूट बढ़ जाय और पृथ्वीपर जीविकाके सारे साधन लुटेरोंके अधीन हो जाय, तब ऐसा अधम समय उपस्थित होनेपर ब्राह्मण किस उपायसे जीवन-निर्वाह करे? ।। १--६ ।।
नरेश्वर! पितामह! यदि ब्राह्मण ऐसी आपत्तिके समय दयावश अपने पुत्र-पौत्रोंका परित्याग करना न चाहे तो वह कैसे जीविका चलावे, यह मुझे बतानेकी कृपा करें || ७ ।।
परंतप! जब लोग पापपरायण हो जाये, उस अवस्थामें राजा कैसा बर्ताव करे, जिससे वह धर्म और अर्थसे भी भ्रष्ट न हो? ।। ८ ।।
भीष्मजीने कहा--महाबाहो! प्रजाके योग, क्षेम, उत्तम वृष्टि, व्याधि, मृत्यु और भय --इन सबका मूल कारण राजा ही है ॥। ९ ।।
भरतश्रेष्ठ! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग--इन सबका मूल कारण राजा ही है, ऐसा मेरा विचार है। इसकी सत्यतामें मुझे तनिक भी संदेह नहीं है || १० ।।
प्रजाओंके लिये दोष उत्पन्न करनेवाले ऐसे भयानक समयके आनेपर ब्राह्मणको विज्ञानबलका आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना चाहिये ।। ११ ।।
इस विषयमें चाण्डालके घरमें चाण्डाल और विश्वामित्रका जो संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण लोग दिया करते हैं ।। १२ ।।
त्रेता और द्वापरके संधिकी बात है, दैववश संसारमें बारह वर्षोतक भयंकर अनावृष्टि हो गयी (वर्षा हुई ही नहीं) ।। १३ ।।
त्रेतायुग प्रायः बीत गया था, द्वापरका आरम्भ हो रहा था, प्रजाएँ बहुत बढ़ गयी थीं, जिनके लिये वर्षा बंद हो जानेसे प्रलयकाल-सा उपस्थित हो गया ।। १४ ।।
इन्द्रने वर्षा बंद कर दी थी, बृहस्पति प्रतिलोम (वक्री) हो गया था, चन्द्रमा विकृत हो गया था और वह दक्षिण मार्गपर चला गया था ।। १५ ।।
उन दिनों कुहासा भी नहीं होता था, फिर बादल कहाँसे उत्पन्न होते। नदियोंका जलप्रवाह अत्यन्त क्षीण हो गया और कितनी ही नदियाँ अदृश्य हो गयीं ।। १६ ।।
बड़े-बड़े सरोवर, सरिताएँ, कूप और झरने भी उस दैवविहित अथवा स्वाभाविक अनावृष्टिसे श्रीहीन होकर दिखायी ही नहीं देते थे || १७ ।।
छोटे-छोटे जलाशय सर्वथा सूख गये। जलाभावके कारण पौंसले बंद हो गये। भूतलपर यज्ञ और स्वाध्यायका लोप हो गया। वषट्कार और मांगलिक उत्सवोंका कहीं नाम भी नहीं रह गया। खेती और गोरक्षा चौपट हो गयी, बाजार-हाट बंद हो गये। यूप और यज्ञोंका आयोजन समाप्त हो गया तथा बड़े-बड़े उत्सव नष्ट हो गये ।। १८-१९ |।
सब ओर हड्डियों के ढेर लग गये। प्राणियोंके महान् आर्तनाद सब ओर व्याप्त हो रहे थे। नगरके अधिकांश भाग उजाड़ हो गये थे तथा गाँव और घर जल गये थे ।। २० ।।
कहीं चोरोंसे, कहीं अस्त्र-शस्त्रोंसे, कहीं राजाओंसे और कहीं क्षुधातुर मनुष्योंद्वारा उपद्रव खड़ा होनेके कारण तथा पारस्परिक भयसे भी वसुधाका बहुत बड़ा भाग उजाड़ होकर निर्जन बन गया था ।। २१ ।।
देवालय तथा मठ-मन्दिर आदि संस्थाएँ उठ गयी थीं, बालक और बूढ़े मर गये थे, गाय, भेड़, बकरी और भैंसें प्रायः समाप्त हो गयी थीं, क्षुधातुर प्राणी एक-दूसरेपर आघात करते थे ।। २२ ।।
ब्राह्मण नष्ट हो गये थे। रक्षकवृन्दका भी विनाश हो गया था, ओषधियोंके समूह (अनाज और फल आदि) भी नष्ट हो गये थे, वसुधापर सब ओर समस्त प्राणियोंका हाहाकार व्याप्त हो रहा था ।। २३ ।।
युधिष्ठिर! ऐसे भयंकर समयमें धर्मका नाश हो जानेके कारण भूखसे पीड़ित हुए मनुष्य एक-दूसरेको खाने लगे ।। २४ ।।
अग्निके उपासक ऋषिगण नियम और अमग्निहोत्र त्यागकर अपने आश्रमोंको भी छोड़कर भोजनके लिये इधर-उधर दौड़ रहे थे || २५ ।।
इन्हीं दिनों बुद्धिमान् महर्षि भगवान् विश्वामित्र भूखसे पीड़ित हो घर छोड़कर चारों ओर दौड़ लगा रहे थे ॥। २६ ।।
उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्रोंकी किसी जन-समुदायमें छोड़ दिया और स्वयं अन्निहोत्र तथा आश्रम त्यागकर भक्ष्य और अभक्ष्यमें समान भाव रखते हुए विचरने लगे ।। २७ |।
एक दिन वे किसी वनके भीतर प्राणियोंका वध करनेवाले हिंसक चाण्डालोंकी बस्तीमें गिरते-पड़ते जा पहुँचे || २८ ।।
वहाँ चारों ओर टूटे-फूटे घरोंके खपरे और ठीकरे बिखरे पड़े थे, कुत्तोंके चमड़े छेदनेवाले हथियार रखे हुए थे, सूअरों और गदहोंकी टूटी हड्डियाँ, खपड़े और घड़े वहाँ सब ओर भरे दिखायी दे रहे थे || २९ ।।
मुर्दोके ऊपरसे उतारे गये कपड़े चारों ओर फैलाये गये थे और वहींसे उतारे हुए फ़ूलकी मालाओंसे उन चाण्डालोंके घर सजे हुए थे। चाण्डालोंकी कुटियों और मठोंको सर्पकी केंचुलोंकी मालाओंसे विभूषित एवं चिह्नित किया गया था ।। ३० ।।
उस फललीमें सब ओर मुर्गोकी “कुकुहकू” की आवाज गूँज रही थी। गदहोंके रेंकनेकी ध्वनि भी प्रतिध्वनित हो रही थी। वे चाण्डाल आपसमें झगड़ा-फसाद करके कठोर वचनोंद्वारा एक-दूसरेको कोसते हुए कोलाहल मचा रहे थे ।। ३१ ।।
वहाँ कई देवालय थे, जिनके भीतर उल्लू पक्षीकी आवाज गूँजती रहती थी। वहाँके घरोंको लोहेकी घंटियोंसे सजाया गया था और झुंड-के-झुंड कुत्ते उन घरोंको घेरे हुए थे ।। ३२ ।।
उस बस्तीमें घुसकर भूखसे पीड़ित हुए महर्षि विश्वामित्र आहारकी खोजमें लगकर उसके लिये महान् प्रयत्न करने लगे || ३३ ।।
विश्वामित्र वहाँ घर-घर घूम-घूमकर भीख माँगते फिरे, परंतु कहीं भी उन्हें मांस, अन्न, फल, मूल या दूसरी कोई वस्तु प्राप्त न हो सकी ।। ३४ ।।
“अहो! यह तो मुझपर बड़ा भारी संकट आ गया।” ऐसा सोचते-सोचते विश्वामित्र अत्यन्त दुर्बलताके कारण वहीं एक चाण्डालके घरमें पृथ्वीपर गिर पड़े ।। ३५ ।।
नृपश्रेष्ठ अब वे मुनि यह विचार करने लगे कि किस तरह मेरा भला होगा? क्या उपाय किया जाय, जिससे अन्नके बिना मेरी व्यर्थ मृत्यु न हो सके? ।। ३६ ।।
राजन! इतने हीमें उन्होंने देखा कि चाण्डालके घरमें तुरंतके शस्त्रद्वारा मारे हुए कुत्तेकी जाँघके मांसका एक बड़ा-सा टुकड़ा पड़ा है || ३७ ।।
तब मुनिने सोचा कि “मुझे यहाँसे इस मांसकी चोरी करनी चाहिये; क्योंकि इस समय मेरे लिये अपने प्राणोंकी रक्षाका दूसरा कोई उपाय नहीं है || ३८ ।।
'“आपफत्तिकालमें प्राणरक्षाके लिये ब्राह्मणको श्रेष्ठ समान तथा हीन मनुष्यके घरसे चोरी कर लेना उचित है, यह शास्त्रका निश्चित विधान है ।। ३९ ।।
पहले हीन पुरुषके घरसे उसे भक्ष्य पदार्थकी चोरी करनी चाहिये। वहाँ काम न चले तो अपने समान व्यक्तिके घरसे खानेकी वस्तु लेनी चाहिये, यदि वहाँ भी अभीष्टसिद्धि न हो सके तो अपनेसे विशिष्ट धर्मात्मा पुरुषके यहाँसे वह खाद्य वस्तुका अपहरण कर ले || ४० ।।
“अतः इन चाण्डालोंके घरसे मैं यह कुत्तेकी जाँघ चुराये लेता हूँ। किसीके यहाँ दान लेनेसे अधिक दोष मुझे इस चोरीमें नहीं दिखायी देता है; अतः अवश्य ही इसका अपहरण करूँगा” || ४१ ।।
भरतनन्दन! ऐसा निश्चय करके महामुनि विश्वामित्र उसी स्थानपर सो गये, जहाँ चाण्डाल रहा करते थे ।। ४२ ।।
जब प्रगाढ़ अन्धकारसे युक्त आधी रात हो गयी और चाण्डालके घरके सभी लोग सो गये, तब भगवान् विश्वामित्र धीरेसे उठकर उस चाण्डालकी कुटियामें घुस गये || ४३ ।।
वह चाण्डाल सोया हुआ जान पड़ता था। उसकी आँखें कीचड़से बंद-सी हो गयी थीं; परंतु वह जागता था। वह देखनेमें बड़ा भयानक था। स्वभावका रूखा भी प्रतीत होता था। मुनिको आया देख वह फटे हुए स्वरमें बोल उठा ।। ४४ ।।
चाण्डालने कहा--अरे! चाण्डालोंके घरोंमें तो सब लोग सो गये हैं, फिर कौन यहाँ आकर कुत्तेकी जाँघ लेनेकी चेष्टा कर रहा है? मैं जागता हूँ, सोया नहीं हूँ। मैं देखता हूँ, तू मारा गया। उस क्रूर स्वभाववाले चाण्डालने जब ऐसी बात कही, तब विश्वामित्र उससे डर गये। उनके मुखपर लज्जा घिर आयी। वे उस नीच कर्मसे उद्विग्न हो सहसा बोल उठे -- || ४५-४६ ||
'आयुष्मन्! मैं विश्वामित्र हूँ। भूखसे पीड़ित होकर यहाँ आया हूँ। उत्तम बुद्धिवाले चाण्डाल! यदि तू ठीक-ठीक देखता और समझता है तो मेरा वध न कर” ।। ४७ ।।
पवित्र अन्तःकरणवाले उस महर्षिका वह वचन सुनकर चाण्डाल घबराकर अपनी शय्यासे उठा और उनके पास चला गया ।। ४८ ।।
उसने बड़े आदरके साथ हाथ जोड़कर नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए वहाँ विश्वामित्रसे कहा --“ब्रह्मन! इस रातके समय आपकी यह कैसी चेष्टा है?--आप क्या करना चाहते हैं?” ।। ४९ ||
विश्वामित्रने चाण्डालको सान्त्वना देते हुए कहा--'भाई! मैं बहुत भूखा हूँ। मेरे प्राण जा रहे हैं; अत: मैं यह कुत्तेकी जाँघ ले जाऊँगा || ५० ।।
“भूखके मारे यह पापकर्म करनेपर उतर आया हूँ। भोजनकी इच्छावाले भूखे मनुष्यको कुछ भी करनेमें लज्जा नहीं आती। भूख ही मुझे कलंकित कर रही है, अतः मैं यह कुत्तेकी जाँघ ले जाऊँगा ।। ५१ ।।
मेरे प्राण शिथिल हो रहे हैं। क्षुधासे मेरी श्रवणशक्ति नष्ट होती जा रही है। मैं दुबला हो गया हूँ। मेरी चेतना लुप्त-सी हो रही है; अत: अब मुझमें भक्ष्य और अभक्ष्यका विचार नहीं रह गया है ।। ५२ ।।
“मैं जानता हूँ कि यह अधर्म है तो भी यह कुत्तेकी जाँघ ले जाऊँगा। मैं तुमलोगोंके घरोंपर घूम-घूमकर माँगनेपर भी जब भीख नहीं पा सका हूँ, तब मैंने यह पापकर्म करनेका विचार किया है; अतः कुत्तेकी जाँघ ले जाऊँगा || ५३ $ ।।
“अग्निदेव देवताओं के मुख हैं, पुरोहित हैं, पवित्र द्रव्य ही ग्रहण करते हैं और महान् प्रभावशाली हैं तथापि वे जैसे अवस्थाके अनुसार सर्वभक्षी हो गये हैं, उसी प्रकार मैं ब्राह्मण होकर भी सर्वभक्षी बनूँगा; अतः तुम धर्मतः मुझे ब्राह्मण ही समझो” ।। ५४ ई ।।
तब चाण्डालने उनसे कहा--“महर्षे! मेरी बात सुनिये और उसे सुनकर ऐसा काम कीजिये, जिससे आपका धर्म नष्ट न हो || ५५६ ।।
“ब्रह्मर्ष! मैं आपके लिये भी जो धर्मकी ही बात बता रहा हूँ, उसे सुनिये। मनीषी पुरुष कहते हैं कि कुत्ता सियारसे भी अधम होता है। कुत्तेके शरीरमें भी उसकी जाँघचका भाग सबसे अधम होता है || ५६-५७ ।।
“महर्ष! आपने जो निश्चय किया है, यह ठीक नहीं है, चाण्डालके धनका, उसमें भी विशेषरूपसे अभक्ष्य पदार्थका अपहरण धर्मकी दृष्टिसे अत्यन्त निन्दित है || ५८ ।।
“महामुने! अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये कोई दूसरा अच्छा-सा उपाय सोचिये। मांसके लोभसे आपकी तपस्याका नाश नहीं होना चाहिये || ५९ ।
“आप शास्त्रविहित धर्मको जानते हैं, अतः आपके द्वारा धर्मसंकरताका प्रचार नहीं होना चाहिये। धर्मका त्याग न कीजिये; क्योंकि आप धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ समझे जाते हैं! || ६० ।।
भरतश्रेष्ठ! नरेश्वर! चाण्डालके ऐसा कहनेपर क्षुधासे पीड़ित हुए महामुनि विश्वामित्रने उसे इस प्रकार उत्तर दिया-- || ६१ ।।
“मैं भोजन न मिलनेके कारण उसकी प्राप्तिके लिये इधर-उधर दौड़ रहा हूँ। इसी प्रयत्नमें एक लंबा समय व्यतीत हो गया, किंतु मेरे प्राणोंकी रक्षाके लिये अबतक कोई उपाय हाथ नहीं आया || ६२ ।।
“जो भूखों मर रहा हो, वह जिस-जिस उपायसे अथवा जिस किसी भी कर्मसे सम्भव हो, अपने जीवनकी रक्षा करे, फिर समर्थ होनेपर वह धर्मका आचरण कर सकता है ।। ६३ ||
“इन्द्रदेवताका जो पालनरूप धर्म है, वही क्षत्रियोंका भी है और अग्निदेवका जो सर्वभक्षित्व नामक गुण है, वह ब्राह्मणोंका है। मेरा बल वेदरूपी अग्नि है; अतः मैं क्षुधाकी शान्तिके लिये सब कुछ भक्षण करूँगा ।।
“जैसे-जैसे ही जीवन सुरक्षित रहे, उसे बिना अवहेलनाके करना चाहिये। मरनेसे जीवित रहना श्रेष्ठ है, क्योंकि जीवित पुरुष पुन: धर्मका आचरण कर सकता है ।।
“इसलिये मैंने जीवनकी आकांक्षा रखकर इस अभक्ष्य पदार्थका भी भक्षण कर लेनेका बुद्धिपूर्वक निश्चय किया है। इसका तुम अनुमोदन करो ।। ६६ ।।
'जैसे सूर्य आदि ज्योतिर्मय ग्रह महान् अन्धकारका नाश कर देते है, उसी प्रकार मैं पुनः तप और विद्याद्वारा जब अपने-आपको सबल कर लूँगा, तब सारे अशुभ कर्मोंका नाश कर डालूँगा' || ६७ ||
चाण्डालने कहा--मुने! इसे खाकर कोई बहुत बड़ी आयु नहीं प्राप्त कर सकता। न तो इससे प्राणशक्ति प्राप्त होती है और न अमृतके समान तृप्ति ही होती है; अत: आप कोई दूसरी भिक्षा माँगिये। कुत्तेका मांस खानेकी ओर आपका मन नहीं जाना चाहिये। कुत्ता द्विजोंके लिये अभक्ष्य है ।। ६८ ।।
विश्वामित्र बोले--श्वपाक! सारे देशमें अकाल पड़ा है; अतः दूसरा कोई मांस सुलभ नहीं होगा, यह मेरी दृढ़ मान्यता है। मेरे पास धन नहीं है कि मैं भोज्य पदार्थ खरीद सकूँ, इधर भूखसे मेरा बुरा हाल है। मैं निराश्रय तथा निराश हूँ। मैं समझता हूँ कि मुझे इस कुत्तेके मांसमें ही षबड्रस भोजनका आनन्द भलीभाति प्राप्त होगा || ६९ ।।
चाण्डालने कहा--ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यके लिये पाँच नखोंवाले पाँच प्रकारके प्राणी आपत्कालमें भक्ष्य बताये गये हैं। यदि आप शास्त्रको प्रमाण मानते हैं तो अभक्ष्य पदार्थकी ओर मन न ले जाइये ।। ७० ।।
विश्वामित्र बोले--भूखे हुए महर्षि अगस्त्येने वातापि नामक असुरको खा लिया था। मैं तो क्षुधाके कारण भारी आपत्तिमें पड़ गया हूँ; अतः यह कुत्तेकी जाँच अवश्य खाऊँगा || ७१ ।।
चाण्डालने कहा--मुने! आप दूसरी भिक्षा ले आइये। इसे ग्रहण करना आपके लिये उचित नहीं है। आपकी इच्छा हो तो यह कुत्तेकी जाँघ ले जाइये; परंतु मैं निश्चितरूपसे कहता हूँ कि आपको इसका भक्षण नहीं करना चाहिये ।। ७२ ।।
विश्वामित्र बोले-शिष्टपुरुष ही धर्मकी प्रवृत्तिक कारण हैं। मैं उन्हींके आचारका अनुसरण करता हूँ; अतः इस कुत्तेकी जाँघको मैं पवित्र भोजनके समान ही भक्षणीय मानता हूँ ।। ७३ ।।
चाण्डालने कहा--किसी असाधु पुरुषने यदि कोई अनुचित कार्य किया हो तो वह सनातन धर्म नहीं माना जायगा; अत: आप यहाँ न करनेयोग्य कर्म न कीजिये। कोई बहाना लेकर पाप करनेपर उतारू न हो जाइये ।।
विश्वामित्र बोले--कोई श्रेष्ठ ऋषि ऐसा कर्म नहीं कर सकता, जो पातक हो अथवा जिसकी निन्दा की गयी हो। कुत्ते और मृग दोनों ही पशु होनेके कारण मेरे मतमें समान हैं, अतः मैं यह कुत्तेकी जाँच अवश्य खाऊँगा || ७५ ।।
चाण्डालने कहा--महर्षि अगस्त्यने ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये प्रार्थना की जानेपर वैसी अवस्थामें वातापिका भक्षणरूप कार्य किया था (उनके वैसा करनेसे बहुतसे ब्राह्मणोंकी रक्षा हो गयी; अन्यथा वह राक्षस उन सबको खा जाता; अतः महर्षिका वह कार्य धर्म ही था)। धर्म वही है, जिसमें लेशमात्र भी पाप न हो। ब्राह्मण गुरुजन हैं; अत: सभी उपायोंसे उनकी एवं उनके धर्मकी रक्षा करनी चाहिये || ७६ ।।
विश्वामित्र बोले--(यदि अगस्त्यने ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये वह कार्य किया था तो मैं भी मित्रकी रक्षाके लिये उसे करूँगा) यह ब्राह्मणका शरीर मेरा मित्र ही है। यही जगत्में मेरे लिये परम प्रिय और आदरणीय है। इसीको जीवित रखनेके लिये मैं यह कुत्तेकी जाँघ ले जाना चाहता हूँ, अतः ऐसे नृशंस कर्मोंसे मुझे तनिक भी भय नहीं होता है || ७७ ।।
चाण्डालने कहा--विद्वन्! अच्छे पुरुष अपने प्राणोंका परित्याग भले ही कर दें, परंतु वे कभी अभक्ष्य-भक्षणका विचार नहीं करते हैं। इसीसे वे अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेते हैं; अत: आप भी भूखके साथ ही--उपवासद्दवारा ही अपनी मन:कामनाकी पूर्ति कीजिये || ७८ ।।
विश्वामित्र बोले--यदि उपवास करके प्राण दे दिया जाय तो मरनेके बाद क्या होगा? यह संशययुक्त बात है; परंतु ऐसा करनेसे पुण्यकर्मोंका विनाश होगा, इसमें संशय नहीं है, (क्योंकि शरीर ही धर्माचरणका मूल है) अतः मैं जीवनरक्षाके पश्चात् फिर प्रतिदिन व्रत एवं शम, दम आदिमें तत्पर रहकर पापकर्मोंका प्रायश्चित्त कर लूँगा। इस समय तो धर्मके मूलभूत शरीरकी ही रक्षा करना आवश्यक है; अतः मैं इस अभक्ष्य पदार्थका भक्षण करूँगा ।। ७९।।
यह कुत्तेका मांस-भक्षण दो प्रकारसे हो सकता है--एक बुद्धि और विचारपूर्वक तथा दूसरा अज्ञान एवं आसत्तिपूर्वक। बुद्धि एवं विचारद्वारा सोचकर धर्मके मूल तथा ज्ञानप्राप्तिके साधनभूत शरीरकी रक्षामें पुण्य है, यह बात स्वतः स्पष्ट हो जाती है। इसी तरह मोह एवं आसक्तिपूर्वक उस कार्यमें प्रवृत्त होनेसे दोषका होना भी स्पष्ट ही है। यद्यपि मैं मनमें संशय लेकर यह कार्य करने जा रहा हूँ तथापि मेरा विश्वास है कि मैं इस मांसको खाकर तुम्हारे-जैसा चाण्डाल नहीं बन जाऊँगा। (तपस्याद्वारा इसके दोषका मार्जन कर लूँगा) || ८० ।।
चाण्डालने कहा--यह कुत्तेका मांस खाना आपके लिये अत्यन्त दुःखदायक पाप है। इससे आपको बचना चाहिये। यह मेरा निश्चित विचार है, इसीलिये मैं महान् पापी और ब्राह्मणेतर होनेपर भी आपको बारंबार उलाहना दे रहा हूँ। अवश्य ही यह धर्मका उपदेश करना मेरे लिये धूर्ततापूर्ण चेष्टा ही है ।। ८१ ।।
विश्वामित्र बोले--मेढकोंके टर्र-टर्र करते रहनेपर भी गौएँ जलाशयोंमें जल पीती ही हैं। (वैसे ही तुम्हारे मना करनेपर भी मैं तो यह अभक्ष्य-भक्षण करूँगा ही)। तुम्हें धर्मोपदेश देनेका कोई अधिकार नहीं है; अतः तुम अपनी प्रशंसा करनेवाले न बनो || ८२ ।।
चाण्डालने कहा--्रह्मन! मैं तो आपका हितैषी सुहृद् बनकर ही यह धर्माचरणकी सलाह दे रहा हूँ; क्योंकि आपपर मुझे दया आ रही है। यह जो कल्याणकी बात बता रहा हूँ, इसे आप ग्रहण करें। लोभवश पाप न करें ।।
विश्वामित्र बोले--भैया! यदि तुम मेरे हितैषी सूह॒द् हो और मुझे सुख देना चाहते हो तो इस विपत्तिसे मेरा उद्धार करो। मैं अपने धर्मको जानता हूँ। तुम तो यह कुत्तेकी जाँघ मुझे दे दो || ८४ ।।
चाण्डालने कहा--ब्रह्मन! मैं यह अभक्ष्य वस्तु आपको नहीं दे सकता और मेरे इस अन्नका आपके द्वारा अपहरण हो, इसकी उपेक्षा भी नहीं कर सकता। इसे देनेवाला मैं और लेनेवाले आप ब्राह्मण दोनों ही पापलिप्त होकर नरकमें पड़ेंगे || ८५ ।।
विश्वामित्र बोले--आज यह पापकर्म करके भी यदि मैं जीवित रहा तो परम पवित्र धर्मका अनुष्ठान करूँगा। इससे मेरे तन, मन पवित्र हो जायूँगे और मैं धर्मका ही फल प्राप्त करूँगा। जीवित रहकर धर्माचरण करना और उपवास करके प्राण देना--इन दोनोंमें कौन बड़ा है, यह मुझे बताओ ।। ८६ ।।
चाण्डालने कहा--किस कुलके लिये कौन-सा कार्य धर्म है, इस विषयमें यह आत्मा ही साक्षी है। इस अभक्ष्य-भक्षणमें जो पाप है, उसे आप भी जानते हैं। मेरी समझमें जो कुत्तेके मांसको भक्षणीय बताकर उसका आदर करे, उसके लिये इस संसारमें कुछ भी त्याज्य नहीं है | ८७ ।।
विश्वामित्र बोले--चाण्डाल! मैं इसे मानता हूँ कि तुमसे दान लेने और इस अभक्ष्य वस्तुको खानेमें दोष है फिर भी जहाँ न खानेसे प्राण जानेकी सम्भावना हो, वहाँके लिये शास्त्रोंमें सदा ही अपवाद वचन मिलते हैं। जिसमें हिंसा और असत्यका तो दोष है ही नहीं, लेशमात्र निन्दारूप दोष है। प्राण जानेके अवसरोंपर भी जो अभक्ष्य-भक्षणका निषेध ही करनेवाले वचन हैं, वे गुरुतर अथवा आदरणीय नहीं हैं || ८८ ।।
चाण्डालने कहा-द्विजेन्द्र! यदि इस अभक्ष्य वस्तु-को खानेमें आपके लिये यह प्राणरक्षारूपी हेतु ही प्रधान है तब तो आपके मतमें न वेद प्रमाण है और न श्रेष्ठ पुरुषोंका आचार-धर्म ही। अतः मैं आपके लिये भक्ष्य वस्तुके अभक्षणमें अथवा अभक्ष्य वस्तुके भक्षणमें कोई दोष नहीं देख रहा हूँ, जैसा कि यहाँ आपका इस मांसके लिये यह महान् आग्रह देखा जाता है ।। ८९ |।
विश्वामित्र बोले--अखाद्य वस्तु खानेवालेको ब्रह्महत्या आदिके समान महान् पातक लगता हो, ऐसा कोई शास्त्रीय वचन देखनेमें नहीं आता। हाँ, शराब पीकर ब्राह्मण पतित हो जाता है, ऐसा शास्त्रवाक्य स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है; अतः वह सुरापान अवश्य त्याज्य है। जैसे दूसरे-दूसरे कर्म निषिद्ध हैं, वैसा ही अभक्ष्य-भक्षण भी है। आपत्तिके समय एक बार किये हुए किसी सामान्य पापसे किसीके आजीवन किये हुए पुण्यकर्मका नाश नहीं होता ।। ९० ।।
चाण्डालने कहा--जो अयोग्य स्थानसे, अनुचित कर्मसे तथा निन्दित पुरुषसे कोई निषिद्ध वस्तु लेना चाहता है, उस विद्वानको उसका सदाचार ही वैसा करनेसे रोकता है (अत: आपको तो ज्ञानी और धर्मात्मा होनेके कारण स्वयं ही ऐसे निन्द्य कर्मसे दूर रहना चाहिये); परंतु जो बारंबार अत्यन्त आग्रह करके कुत्तेका मांस ग्रहण कर रहा है, उसीको इसका दण्ड भी सहन करना चाहिये (मेरा इसमें कोई दोष नहीं है) || ९१ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि!! ऐसा कहकर चाण्डाल मुनिको मना करनेके कार्यसे निवृत्त हो गया। विश्वामित्र तो उसे लेनेका निश्चय कर चुके थे; अतः कुत्तेकी जाँघ ले ही गये ।। ९२ ।।
जीवित रहनेकी इच्छावाले उन महामुनिने कुत्तेके शरीरके उस एक भागको ग्रहण कर लिया और उसे वनमें ले जाकर पत्नीसहित खानेका विचार किया ।। ९३ ।।
इतनेहीमें उनके मनमें यह विचार उठा कि मैं कुत्तेकी जाँघके इस मांसको विधिपूर्वक पहले देवताओंको अर्पण करूँगा और उन्हें संतुष्ट करके फिर अपनी इच्छानुसार उसे खाऊँगा ।। ९४ ।।
ऐसा सोचकर मुनिने वेदोक्त विधिसे अग्निकी स्थापना करके इन्द्र और अग्निदेवताके उद्देश्यसे स्वयं ही चरु पकाकर तैयार किया ।। ९५ |।
भरतनन्दन! फिर उन्होंने देवकर्म और पितृकर्म आरम्भ किया। इन्द्र आदि देवताओंका आवाहन करके उनके लिये क्रमश: विधिपूर्वक पृथक्-पृथक् भाग अर्पित किया ।। ९६ ।।
इसी समय इन्द्रने समस्त प्रजाको जीवनदान देते हुए बड़ी भारी वर्षा की और अन्न आदि ओषधियोंको उत्पन्न किया ।। ९७ |।
भगवान् विश्वामित्र भी दीर्घकालतक निराहार व्रत एवं तपस्या करके अपने सारे पाप दग्ध कर चुके थे; अतः उन्हें अत्यन्त अद्भुत सिद्धि प्राप्त हुई || ९८ ।।
उन द्विजश्रेष्ठ मुनिने वह कर्म समाप्त करके उस हविष्यका आस्वादन किये बिना ही देवताओं और पितरोंको संतुष्ट कर दिया और उन्हींकी कृपासे पवित्र भोजन प्राप्त करके उसके द्वारा जीवनकी रक्षा की ।। ९९ ।।
राजन! इस प्रकार संकटमें पड़कर जीवनकी रक्षा चाहनेवाले विद्वान् पुरुषको दीनचित्त न होकर कोई उपाय दढूँढ़ निकालना चाहिये और सभी उपायोंसे अपने आपका आपत्कालमें परिस्थितिसे उद्धार करना चाहिये ।। १०० ।।
इस बुद्धिका सहारा लेकर सदा जीवित रहनेका प्रयत्न करना चाहिये; क्योंकि जीवित रहनेवाला पुरुष पुण्य करनेका अवसर पाता और कल्याणका भागी होता है || १०१ ।।
अतः कुन्तीनन्दन! अपने मनको वशमें रखनेवाले विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह इस जगत्में धर्म और अधर्मका निर्णय करनेके लिये अपनी ही विशुद्ध बुद्धिका आश्रय लेकर यथायोग्य बर्ताव करे || १०२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें विश्वामित्र और चाण्डालका संवादविषयक एकसौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ बयालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ बयालीसवें अध्याय के श्लोक 1-38 का हिन्दी अनुवाद)
“आपत्कालमें राजाके धर्मका निश्चय तथा उत्तम ब्राह्मणोंके सेवनका आदेश”
युधिष्ठिरने पूछा--यदि महापुरुषोंके लिये भी ऐसा भयंकर कर्म (संकटकालमें) कर्तव्यरूपसे बता दिया गया तो दुराचारी डाकुओं और लुटेरोंके दुष्कमोकी कौन-सी ऐसी सीमा रह गयी है, जिसका मुझे सदा ही परित्याग करना चाहिये? (इससे अधिक घोर कर्म तो दस्यु भी नहीं कर सकते) ।। १ ।।
आपके मुँहसे यह उपाख्यान सुनकर मैं मोहित एवं विषादग्रस्त हो रहा हूँ। आपने मेरा धर्मविषयक उत्साह शिथिल कर दिया। मैं अपने मनको बारंबार समझा रहा हूँ तो भी अब कदापि इसमें धर्मविषयक उद्यमके लिये उत्साह नहीं पाता हूँ ।। २ ।।
भीष्मजीने कहा--वत्स! मैंने केवल शास्त्रसे ही सुनकर तुम्हारे लिये यह धर्मोपदेश नहीं किया है। जैसे अनेक स्थानसे अनेक प्रकारके फूलोंका रस लाकर मक्खियाँ मधुका संचय करती हैं, उसी प्रकार विद्वानोंने यह नाना प्रकारकी बुद्धियों (विचारों) का संकलन किया है (ऐसी बुद्धियोंका कदाचित् संकटकालमें उपयोग किया जा सकता है। ये सदा काममें लेनेके लिये नहीं कही गयी हैं; अतः तुम्हारे मनमें मोह या विषाद नहीं होना चाहिये) ।। ३ ।।
युधिष्ठिर! राजाको इधर-उधरसे नाना प्रकारके मनुष्योंके निकटसे भिन्न-भिन्न प्रकारकी बुद्धियाँ सीखनी चाहिये। उसे एक ही शाखावाले धर्मको लेकर नहीं बैठे रहना चाहिये। जिस राजामें संकटके समय यह बुद्धि स्फुरित होती है, वह आत्मरक्षाका कोई उपाय निकाल लेता है ।। ४ ।।
कुरुनन्दन! धर्म और सत्पुरुषोंका आचार--ये बुद्धिसे ही प्रकट होते हैं और सदा उसीके द्वारा जाने जाते हैं। तुम मेरी इस बातको अच्छी तरह समझ लो ।।
विजयकी अभिलाषा रखनेवाले एवं बुद्धिमें श्रेष्ठ सभी राजा धर्मका आचरण करते हैं। अतः राजाको इधर-उधरसे बुद्धिके द्वारा शिक्षा लेकर धर्मका भलीभाँति आचरण करना चाहिये ।। ६ ।।
एक शाखावाले (एकदेशीय) धर्मसे राजाका धर्म-निर्वाह नहीं होता। जिसने पहले अध्ययनकालमें एकदेशीय धर्मविषयक बुद्धिकी शिक्षा ली, उस दुर्बल राजाको पूर्ण प्रज्ञा कहाँसे प्राप्त हो सकती है? ।। ७
एक ही धर्म या कर्म किसी समय धर्म माना जाता है और किसी समय अधर्म। उसकी जो यह दो प्रकारकी स्थिति है, उसीका नाम द्वैध है। जो इस द्विविधतत्त्वको नहीं जानता, वह द्वैधमार्गपर पहुँचकर संशयमें पड़ जाता है। भरतनन्दन! बुद्धिके द्वैधको पहले ही अच्छी तरह समझ लेना चाहिये ।। ८ ॥।
बुद्धिमान् पुरुष विचार करते समय पहले अपने प्रत्येक कार्यको गुप्त रखकर उसे प्रारम्भ करे; फिर उसे सर्वत्र प्रकाशित करे; अन्यथा उसके द्वारा आचरणमें लाये हुए धर्मको लोग किसी और ही रूपमें समझने लगते हैं ।। ९ ।।
कुछ लोग यथार्थ ज्ञानी होते हैं और कुछ लोग मिथ्या ज्ञानी, इस बातको ठीक-ठीक समझकर राजा सत्यज्ञानसम्पन्न सत्पुरुषोंके ही ज्ञानको ग्रहण करते हैं || १० ।।
धर्मद्रोही मनुष्य शास्त्रोंकी प्रामाणिकतापर डाका डालते हैं, उन्हें अग्राह्मू और अमान्य बताते हैं। वे अर्थज्ञानसे शून्य मनुष्य अर्थशास्त्रकी विषमताका मिथ्या प्रचार करते हैं। ।।११।।
नरेश्वरर जो जीविकाकी इच्छासे विद्याका उपार्जन करते हैं, सम्पूर्ण दिशाओंमें उसी विद्याके बलसे यश पानेकी इच्छा और मनोवांछित पदार्थोंको प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखते हैं, वे सभी पापात्मा और धर्मद्रोही हैं । १२ ।।
जिनकी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई है, वे मन्दमति मानव यथार्थ तत्त्वको नहीं जानते हैं। शास्त्रज्ञानमें निपुण न होकर सर्वत्र असंगत युक्तिपर ही अवलम्बित रहते हैं ।। १३ ।।
निरन्तर शास्त्रके दोष देखनेवाले लोग शास्त्रोंकी मर्यादा लूटते हैं और यह कहा करते हैं कि अर्थशास्त्रका ज्ञान समीचीन नहीं है || १४ ।।
वाणी ही जिनका अस्त्र है तथा जिनकी बोली ही बाण के समान लगती है, वे मानो विद्याके फल तत्त्वज्ञानसे ही विद्रोह करते हैं। ऐसे लोग दूसरोंकी विद्याकी निन्दा करके अपनी विद्याकी अच्छाईका मिथ्या प्रचार करते हैं || १५ ।।
भरतनन्दन! ऐसे लोगोंको तुम विद्याका व्यापार करनेवाले तथा राक्षसोंके समान परद्रोही समझो। उनकी बहानेबाजीसे तुम्हारा सत्पुरुषोंद्वारा प्रतिपादित एवं आचरित धर्म नष्ट हो जायगा ।। १६ ||
हमने सुना है कि केवल वचनद्वारा अथवा केवल बुद्धि (तर्क) के द्वारा ही धर्मका निश्चय नहीं होता है, अपितु शास्त्रवचन और तर्क दोनोंके समुच्चयद्वारा उसका निर्णय होता है--यही बृहस्पतिका मत है, जिसे स्वयं इन्द्रने बताया है ।। १७ ।।
विद्वान पुरुष अकारण कोई बात नहीं कहते हैं और दूसरे बहुत-से मनुष्य भलीभाँति सीखे हुए शास्त्रके अनुसार कार्य करनेकी चेष्टा नहीं करते हैं || १८ ।।
इस जगत्में कोई-कोई मनीषी पुरुष शिष्ट पुरुषोंद्वारा परिचालित लोकाचारको ही धर्म कहते हैं, परंतु विद्वान् पुरुष स्वयं ही ऊहापोह करके सत्पुरुषोंके शास्त्रविहित धर्मका निश्चय कर ले ।। १९ |।
भरतनन्दन! जो बद्धिमान् होकर शास्त्रको ठीक-ठीक न समझते हुए मोहमें आबद्ध होकर बड़े जोशके साथ शास्त्रका प्रवचन करता है, उसके उस कथनका लोकसमाजमें कोई प्रभाव नहीं पड़ता है || २० ।।
वेद-शास्त्रोंके द्वारा अनुमोदित, तर्कयुक्त बुद्धिके द्वारा जो बात कही जाती है, उसीसे शास्त्रकी प्रशंसा होती है अर्थात् शास्त्रकी वही बात लोगोंके मनमें बैठती है। दूसरे लोग अज्ञातविषयका ज्ञान करानेके लिये केवल तर्कको ही श्रेष्ठ मानते हैं, परंतु यह उनकी नासमझी ही है || २१ ।।
वे लोग केवल तर्कको प्रधानता देकर अमुक युक्तिसे शास्त्रकी यह बात कट जाती है; इसलिये यह व्यर्थ है, ऐसा कहते हैं; किंतु यह कथन भी अज्ञानके ही कारण है (अतः तर्कसे शास्त्रका और शास्त्रसे तर्कका बोध न करके दोनोंके सहयोगसे जो कर्तव्य निश्चित हो, उसीका पालन करना चाहिये)। पूर्वकालमें यह संशय-नाशक बात स्वयं शुक्राचार्यने दैत्योंसे कही थी ।। २२ ।।
जो संशयात्मक ज्ञान है, उसका होना और न होना बराबर है; अतः तुम उस संशयका मूलोच्छेद करके उसे दूर हटा दो (संशयरहित ज्ञानका आश्रय लो) ।। २३ ।।
यदि तुम मेरे इस नीतियुक्त कथनको नहीं स्वीकार करते हो तो तुम्हारा यह व्यवहार उचित नहीं है; क्योंकि तुम (क्षत्रिय होनेके कारण) उग्र (हिंसापूर्ण) कर्मके लिये ही विधाताद्वारा रचे गये हो। इस बातकी ओर तुम्हारी दृष्टि नहीं जा रही है ।। २४ ।।
वत्स युधिष्ठिर! मेरी ओर तो देखो, मैंने क्या किया है। भूमण्डलका राज्य पानेकी इच्छावाले क्षत्रिय राजाओंके साथ मैंने वही बर्ताव किया है, जिससे वे संसारबन्धनसे मुक्त हो जायाँ (अर्थात् उन सबको मैंने युद्धमें मारकर स्वर्गलोक भेज दिया।) यद्यपि मेरे इस कार्यका दूसरे लोग अनुमोदन नहीं करते थे--मुझे क्रूर और हिंसक कहकर मेरी निन्दा करते थे (तो भी मैंने किसीकी परवा न करके अपने कर्तव्यका पालन किया, इसी प्रकार तुम अपने कर्तव्यपथपर दृढ़तापूर्वक डटे रहो) ।। २५ ।।
बकरा, घोड़ा और क्षत्रिय-इन तीनोंको ब्रह्माजीने एकसा बनाया है। इनके द्वारा समस्त प्राणियोंकी बारंबार कोई-न-कोई जीवनयात्रा सिद्ध होती रहती है || २६ ।।
अवध्य मनुष्यका वध करनेमें जो दोष माना गया है, वही वध्यका वध न करनेमें भी है। वह दोष ही अकर्तव्यकी वह मर्यादा (सीमा) है, जिसका क्षत्रिय राजाको परित्याग करना चाहिये || २७ ।।
अतः तीक्ष्ण स्वभाववाला राजा ही प्रजाको अपने-अपने धर्ममें स्थापित कर सकता है; अन्यथा प्रजावर्गके सब लोग भेड़ियोंके समान एक दूसरेको लूट-खसोटकर खाते हुए स्वच्छन्द विचरने लगें || २८ ।।
जिसके राज्यमें डाकुओंके दल जलसे मछलियोंको पकड़नेवाले बगुलेके समान पराये धनका अपहरण करते हैं, वह राजा निश्चय ही क्षत्रियकुलका कलंक है ।। २९ |।
राजन! उत्तम कुलमें उत्पन्न तथा वेदविद्यासे सम्पन्न पुरुषोंको मन्त्री बनाकर प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करते हुए तुम इस पृथ्वीका शासन करो ।। ३० ।।
जो राजा सत्कर्मसे रहित, न्यायशून्य तथा कार्यसाधनके उपायोंसे अनभिज्ञ पुरुषको सचिवके रूपमें अपनाता है, वह नपुंसक क्षत्रिय है || ३१ ।।
युधिष्ठिर! राजधर्मके अनुसार केवल उमग्रभाव अथवा केवल मृदुभावकी प्रशंसा नहीं की जाती है। उन दोनोंमेंसे किसीका भी परित्याग नहीं करना चाहिये। इसलिये तुम पहले उग्र होकर फिर मृदु होओ ।। ३२ ।।
वत्स! यह क्षत्रियधर्म कष्टसाध्य है। तुम्हारे ऊपर मेरा स्नेह है, इसलिये कहता हूँ। विधाताने तुम्हें उग्र कर्मके लिये ही उत्पन्न किया है; इसलिये तुम अपने धर्ममें स्थित होकर राज्यका शासन करो || ३३ ।।
भरतश्रेष्ठ। आपत्तिकालमें भी सदा दुष्टोंका दमन और शिष्ट पुरुषोंका पालन करना चाहिये, ऐसा बुद्धिमान् शुक्राचार्यका कथन है ।। ३४ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ पितामह! इस जगतमें यदि कोई ऐसी मर्यादा है, जिसका दूसरा कोई उल्लंघन नहीं कर सकता तो मैं उसके विषयमें आपसे पूछता हूँ। आप वही मुझे बताइये ।। ३५ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! विद्यामें बढ़े-चढ़े तपस्वी तथा शास्त्रज्ञान, उत्तम चरित्र एवं सदाचारसे सम्पन्न ब्राह्मणोंका ही सेवन करे, यह परम उत्तम एवं पवित्र कार्य है ।। ३६ ।।
नरेश्वर! देवताओंके प्रति जो तुम्हारा बर्ताव है, वही भाव और बर्ताव ब्राह्मणोंके प्रति भी सदैव होना चाहिये; क्योंकि क्रोधमें भरे हुए ब्राह्मणोंने अनेक प्रकारके अद्भुत कर्म कर डाले हैं ।। ३७ ।।
ब्राह्मणोंकी प्रसन्नतासे श्रेष्ठ यशका विस्तार होता है। उनकी अप्रसन्नतासे महान् भयकी प्राप्ति होती है। प्रसन्न होनेपर ब्राह्मण अमृतके समान जीवनदायक होते हैं और कुपित होनेपर विषके तुल्य भयंकर हो उठते हैं || ३८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपवकि अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ तैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ तैतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-33 का हिन्दी अनुवाद)
“शरणागतकी रक्षा करनेके विषयमें एक बहेलिये और कपोत-कपोतीका प्रसंग, सर्दीसे पीड़ित हुए बहेलियेका एक वृक्षके नीचे जाकर सोना”
युधिष्ठिरने पूछा--परमबुद्धिमान् पितामह! आप सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ हैं; अतः मुझे यह बताइये कि शरणागतकी रक्षा करनेवाले प्राणीको किस धर्मकी प्राप्ति होती है? ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--महाराज! शरणागतकी रक्षा करनेमें महान् धर्म है। भरतश्रेष्ठ! तुम्हीं ऐसा प्रश्न पूछनेके अधिकारी हो ।। २ ।।
राजन! शिबि आदि महात्मा राजाओंने तो शरणागतोंकी रक्षा करके ही परम सिद्धि प्राप्त कर ली थी ।।
यह भी सुना जाता है कि एक कबूतरने शरणमें आये हुए शत्रुका यथायोग्य सत्कार किया था और अपना मांस खानेके लिये उसको निमन्त्रित किया था ।।
युधिष्ठिरने पूछा--भरतनन्दन! प्राचीनकालमें कबूतरने शरणागत शत्रुको किस प्रकार अपना मांस खिलाया और ऐसा करनेसे उसे कौन-सी सदगति प्राप्त हुई ।। ५ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! वह दिव्य कथा सुनो, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है। परशुरामजीने राजा मुचुकुन्दको यह कथा सुनायी थी ।। ६ ।।
पुरुषप्रवर कुन्तीनन्दन! पहलेकी बात है, राजा मुचुकुन्दने परशुरामजीको प्रणाम करके उनसे यही प्रश्न किया था || ७ |।
नरेश्वर! तब परशुरामजीने सुननेके लिये उत्सुक हुए मुचुकुन्दको कबूतरने जिस प्रकार सिद्धि प्राप्ति की थी, वह कथा कह सुनायी ।। ८ ।।
मुनि बोले--महाबाहो! यह कथा धर्मके निर्णयसे युक्त तथा अर्थ और कामसे सम्पन्न है। राजन्! तुम सावधान होकर मेरे मुखसे इस कथाको सुनो ।। ९ ।।
एक समयकी बात है किसी महान् वनमें कोई भयंकर बहेलिया चारों ओर विचर रहा था। वह बड़े खोटे आचार-विचारका था। पृथ्वीपर वह कालके समान जान पड़ता था ।। १० ||
उसका सारा शरीर “काकोल' जातिके कौओंके समान काला था। आँखें लाल-लाल थीं। वह देखनेपर काल-सा प्रतीत होता था। बड़ी-बड़ी पिंडलियाँ, छोटे-छोटे पैर, विशाल मुख और लंबी-सी ठोढ़ी--यही उसकी हुलिया थी ।। ११ ।।
उसके न कोई सुहृद, न सम्बन्धी और न भाई-बन्धु ही थे। उसके भयानक क्रूर-कर्मके कारण सबने उसे त्याग दिया था ।। १२ ।।
वास्तवमें जो पापाचारी हो, उसे विज्ञ पुरुषोंको दूरसे ही त्याग देना चाहिये। जो अपने आपको धोखा देता है, वह दूसरेका हितैषी कैसे हो सकता है? ।। १३ ।।
जो मनुष्य क्रूर, दुरात्मा तथा दूसरे प्राणियोंके प्राणोंका अपहरण करनेवाले होते हैं, उन्हें सर्पोंकि समान सभी जीवोंकी ओरसे उद्धेग प्राप्त होता है ।। १४ ।।
नरेश्वर! वह प्रतिदिन जाल लेकर वनमें जाता और बहुत-से पक्षियोंको मारकर उन्हें बाजारमें बेंच दिया करता था || १५ ।।
यही उसका नित्यका काम था। इसी वृत्तिसे रहते हुए उस दुरात्माको वहाँ दीर्घ काल व्यतीत हो गया, किंतु उसे अपने इस अधर्मका बोध नहीं हुआ ।। १६ ।।
सदा अपनी स्त्रीके साथ विहार करता हुआ वह बहेलिया दैवयोगसे ऐसा मूढ़ हो गया था कि उसे दूसरी कोई वृत्ति अच्छी ही नहीं लगती थी ।। १७ ।।
तदनन्तर एक दिन वह वनमें ही घूम रहा था कि चारों ओरसे बड़े जोरकी आँधी उठी। वायुका प्रचण्ड वेग वहाँके समस्त वृक्षोंको धराशायी करता हुआ-सा जान पड़ा ।। १८ ।।
आकाशमें मेघोंकी घटाएँ घिर आयीं, विद्युन्मण्डलसे उसकी अपूर्व शोभा होने लगी। जैसे समुद्र नौकारोहियोंके समुदायसे ढक जाता है, उसी प्रकार दो ही घड़ीमें जलधाराओंके समूहसे आच्छादित हुए इन्द्रदेवने व्योममण्डलमें प्रवेश किया और क्षणभरमें इस पृथ्वीको जलराशिसे भर दिया ।। १९-२० ||
उस समय मूसलाधार पानी बरस रहा था। बहेलिया शीतसे पीड़ित हो अचेत सा हो गया और व्याकुल हृदयसे सारे वनमें भटकने लगा ।। २१ ।।
वनका मार्ग जिसपर वह चलता था, जलके प्रवाहमें डूब गया था। उस बहेलियेको नीची-ऊँची भूमिका कुछ पता नहीं चलता था ।। २२ ।।
वर्षके वेगसे बहुतेरे पक्षी मरकर धरतीपर लोट गये थे। कितने ही अपने घोंसलोंमें छिपे बैठे थे। मृग, सिंह और सूअर स्थल-भूमिका आश्रय लेकर सो रहे थे ।।
भारी आँधी और वर्षासे आंतकित हुए वनवासी जीव-जन्तु भय और भूखसे पीड़ित हो झुंड-के-झुंड एक साथ घूम रहे थे | २४ ।।
बहेलियेके सारे अंग सर्दीसे ठिठुर गये थे। इसलिये न तो वह चल पाता था और न खड़ा ही हो पाता था। इसी अवस्थामें उसने धरतीपर गिरी हुई एक कबूतरी देखी, जो सर्दीके कष्टसे व्याकुल हो रही थी | २५ ।।
वह पापात्मा व्याध यद्यपि स्वयं भी बड़े कष्टमें था तो भी उसने उस कबूतरीको उठाकर पिंजड़ेमें डाल लिया। स्वयं दुःखसे पीड़ित होनेपर भी उसने दूसरे प्राणीको दुःख ही पहुँचाया। सदा पापमें ही प्रवृत्त रहनेके कारण उस पापात्माने उस समय भी पाप ही किया ।| २६६ ।।
इतनेमें ही उसे वृक्षोंके समूहमें मेघके समान सघन एवं नील एक विशाल वृक्ष दिखायी दिया, जिसपर बहुतसे विहंग छाया, निवास और फलकी इच्छासे बसेरे लेते थे, मानो विधाताने परोपकारके लिये ही उस साधुतुल्य महान् वृक्षका निर्माण किया था || २७-२८ ।।
तदनन्तर एक ही क्षणमें आकाशके बादल फट गये, निर्मल तारे चमक उठे, मानो खिले हुए कुमुद-पुष्पोंसे सुशोभित जलवाला कोई विशाल सरोवर प्रकाशित हो रहा हो ।। २९ ।।
प्रभो! ताराओंसे भरा हुआ अत्यन्त निर्मल आकाश विकसित कुमुद-कुसुमोंसे सुशोभित सरोवर-सा प्रतीत होता था। आकाशको मेघोंसे मुक्त हुआ देख सर्दीसे काँपते हुए उस व्याधने सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर दृष्टिपात किया और गाढ़े अन्धकारसे भरी हुई रात्रि देखकर मन-ही-मन विचार किया कि मेरा निवासस्थान तो यहाँसे बहुत दूर है || ३०-३१
इसके बाद उसने उस वृक्षके नीचे ही रातभर रहनेका निश्चय किया। फिर हाथ जोड़ प्रणाम करके उस वनस्पतिसे कहा--“इस वृक्षपर जो-जो देवता हों, उन सबकी मैं शरण लेता हूँ ।। ३२६ ।।'
ऐसा कहकर उसने पृथ्वीपर पत्ते बिछा दिये और एक शिलापर सिर रखकर महान् दुःखसे घिरा हुआ वह बहेलिया वहाँ सो गया ।। ३३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कपोत और व्याधके संवादका उपक्रमविषयक एक सौ तैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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