सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय व एक सौ चालीसवाँ अध्याय (From the 139 chapter and the 140 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ उन्तालीसवें अध्याय के श्लोक 1-113 का हिन्दी अनुवाद)

“शत्रुसे सदा सावधान रहनेके विषयमें राजा ब्रद्म॒दत्त और पूजनी चिड़ियाका संवाद”

युधिष्ठिरने पूछा--महाबाहो! आपने यह सलाह दी है कि शत्रुओंपर विश्वास नहीं करना चाहिये। साथ ही यह कहा है कि कहीं भी विश्वास करना उचित नहीं है, परंतु यदि राजा सर्वत्र अविश्वास ही करे तो किस प्रकार वह राज्यसम्बन्धी व्यवहार चला सकता है? ।।

राजन! यदि विश्वाससे राजाओंपर महान्‌ भय आता है तो सर्वत्र अविश्वास करनेवाला भूपाल अपने शत्रुओंपर विजय कैसे पा सकता है? ।। २ ।।

पितामह! आपकी यह अविश्वास-कथा सुनकर तो मेरी बुद्धिपर मोह छा गया। कृपया आप मेरे इस संशयका निवारण कीजिये ।। ३ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! राजा ब्रह्मदत्तके घरमें पूजनी चिड़ियाके साथ जो उनका संवाद हुआ था, उसे ही तुम्हारे समाधानके लिये उपस्थित करता हूँ, सुनो ।।

काम्पिल्य नगरमें ब्रह्मदत्त नामके एक राजा राज्य करते थे। उनके अन्तःपुरमें पूजनी नामसे प्रसिद्ध एक चिड़िया निवास करती थी। वह दीर्घकालतक उनके साथ रही थी।। ५।।

वह चिड़िया “जीवजीवक” नामक विशेष पक्षीके समान समस्त प्राणियोंकी बोली समझती थी तथा तिर्यग्योनिमें उत्पन्न होनेपर भी सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण तत्त्वोंको जाननेवाली थी।। ६॥।।

एक दिन उसने रनिवासमें ही एक बच्चा दिया, जो बड़ा तेजस्वी था; उसी दिन उसके साथ ही राजाकी रानीके गर्भसे भी एक बालक उत्पन्न हुआ || ७ ।।

आकाशमें विचरनेवाली वह कृतज्ञ पूजनी चिड़िया प्रतिदिन समुद्रतटपर जाकर वहाँसे उन दोनों बच्चोंके लिये दो फल ले आया करती थी ।। ८ ।।

वह अपने बच्चेकी पुष्टिके लिये एक फल उसे देती तथा राजाके बेटेकी पुष्टिके लिये दूसरा फल उस राजकुमारको अर्पित कर देती थी ।। ९ |।

पूजनीका लाया हुआ वह फल अमृतके समान स्वादिष्ट और बल तथा तेजकी वृद्धि करनेवाला होता था। वह बारंबार उस फलको ला-लाकर शीतघ्रतापूर्वक उन दोनोंको दिया करती थी ।। १० ।।

राजकुमार उस फलको खा-खाकर बड़ा हृष्ट-पुष्ट हो गया। एक दिन धाय उस राजपुत्रको गोदमें लिये घूम रही थी। वह बालक ही तो ठहरा, बाल-स्वभाववश आकर उसने उस चिड़ियाके बच्चेकों देखा और उसके साथ यत्नपूर्वक वह खेलने लगा ।। ११-१२ ||

राजेन्द्र! अपने साथ ही पैदा हुए उस पक्षीको सूने स्थानमें ले जाकर राजकुमारने मार डाला और मारकर वह धायकी गोदमें जा बैठा || १३ ।।

राजन! तदनन्तर जब पूजनी फल लेकर लौटी तो उसने देखा कि राजकुमारने उसके बच्चेको मार डाला है और वह धरतीपर पड़ा है || १४ ।।

अपने बच्चेकी ऐसी दुर्गति देखकर पूजनीके मुखपर आँसुओंकी धारा बह चली और वह दुःखसे संतप्त हो रोती हुई इस प्रकार कहने लगी-- ।। १५ ।।

क्षत्रियमें संगति निभानेकी भावना नहीं होती। उसमें न प्रेम होता है, न सौहार्द। ये किसी हेतु या स्वार्थसे ही दूसरोंको सान्त्वना देते हैं। जब इनका काम निकल जाता है, तब ये आश्रित व्यक्तिको त्याग देते हैं । १६ ।।

क्षत्रिय सबकी बुराई ही करते हैं। इनपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। ये दूसरोंका अपकार करके भी सदा उसे व्यर्थ सान्त्वना दिया करते हैं ।।

“देखो तो सही, यह राजकुमार कैसा कृतधघ्न, अत्यन्त क्रूर और विश्वासघाती है! अच्छा, आज मैं इससे इस वैरका बदला लेकर ही रहूँगी ।। १८ ।।

“जो साथ ही पैदा हुआ और साथ ही पाला-पोसा गया हो, साथ ही भोजन करता हो और शरणमें आकर रहता हो, ऐसे व्यक्तिका वध करनेसे उपर्युक्त तीन प्रकारका पातक लगता है” ।। १९ |।

ऐसा कहकर पूजनीने अपने दोनों पंजोंसे राजकुमारकी दोनों आँखें फोड़ डालीं। फोड़कर वह आकाशमें स्थिर हो गयी और इस प्रकार बोली-- ।।

इस जगत्‌में स्वेच्छासे जो पाप किया जाता है, उसका फल तत्काल ही कर्ताको मिल जाता है। जिनके पापका बदला मिल जाता है, उनके पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म नष्ट नहीं होते हैं। ।।२१।।

“राजन! यदि यहाँ किये हुए पापकर्मका कोई फल कर्ताको मिलता न दिखायी दे तो यह समझना चाहिये कि उसके पुत्रों, पोतों और नातियोंको उसका फल भोगना पड़ेगा” || २२ ||

राजा ब्रह्मदत्तने देखा कि पूजनीने मेरे पुत्रकी आँखें ले लीं, तब उन्होंने यह समझ लिया कि राजकुमारको उसके कुकर्मका ही बदला मिला है। यह सोचकर राजाने रोष त्याग दिया और पूजनीसे इस प्रकार कहा ।। २३ ।।

ब्रह्मदत्त बोले--पूजनी! हमने तेरा अपराध किया था और तूने उसका बदला चुका लिया। अब हम दोनोंका कार्य बराबर हो गया। इसलिये अब यहीं रह। किसी दूसरी जगह न जा || २४ ||

पूजनी बोली--राजन्‌! एक बार किसीका अपराध करके फिर वहीं आश्रय लेकर रहे तो विद्वान्‌ पुरुष उसके इस कार्यकी प्रशंसा नहीं करते हैं। वहाँसे भाग जानेमें ही उसका कल्याण है || २५ ।।

जब किसीसे वैर बँध जाय तो उसकी चिकनी-चुपड़ी बातोंमें आकर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसा करनेसे वैरकी आग तो बुझती नहीं, वह विश्वास करनेवाला मूर्ख शीघ्र ही मारा जाता है ।। २६ ।।

जो लोग आपसमें वैर बाँध लेते हैं, उनका वह वैरभाव पुत्रों और पौत्रोंतकको पीड़ा देता है। पुत्रों-पौत्रोंका विनाश हो जानेपर परलोकमें भी वह साथ नहीं छोड़ता है || २७ ।।

जो लोग आपसमें वैर रखनेवाले हैं, उन सबके लिये सुखकी प्राप्तिका उपाय यही है कि परस्पर विश्वास न करे। विश्वासघाती मनुष्योंका सर्वथा विश्वास तो करना ही नहीं चाहिये ।। २८ ।।

जो विश्वासपात्र न हो, उसपर विश्वास न करे। जो विश्वासका पात्र हो, उसपर भी अधिक विश्वास न करे; क्‍योंकि विश्वाससे उत्पन्न होनेवाला भय विश्वास करनेवालेका मूलोच्छेद कर डालता है। अपने प्रति दूसरोंका विश्वास भले ही उत्पन्न कर ले; किंतु स्वयं दूसरोंका विश्वास न करे ।। २९ |।

माता और पिता स्वाभाविक स्नेह होनेके कारण बान्धवगणोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं, पत्नी वीर्यकी नाशक (होनेसे) वृद्धावस्थाका मूर्तिमान्‌ रूप है, पुत्र अपना ही अंश है, भाई (धनमें हिस्सा बँटानेके कारण) शत्रु समझा जाता है और मित्र तभीतक मित्र है, जबतक उसका हाथ गीला रहता है अर्थात्‌ जबतक उसका स्वार्थ सिद्ध होता रहता है; केवल आत्मा ही सुख और दुःखका भोग करनेवाला कहा गया है ।। ३० ।।

जब आपस में वैर हो जाय, तब संधि करना ठीक नहीं होता। मैं अबतक जिस उद्देश्यसे यहाँ रही हूँ, वह तो समाप्त हो गया ।। ३१ ।।

जो पहलेका अपकार करनेवाला प्राणी है, वह दान और मानसे पूजित हो तो भी उसका मन विश्वस्त नहीं होता। अपना किया हुआ अनुचित कर्म ही दुर्बल प्राणियोंको डराता रहता है ।। ३२ 

जहाँ पहले सम्मान मिला हो, वहीं पीछे अपमान होने लगे तो प्रत्येक शक्तिशाली पुरुषको पुनः सम्मान मिलनेपर भी उस स्थानका परित्याग कर देना चाहिये || ३३ ।।

राजन! मैं आपके घरमें बहुत दिनोंतक बड़े आदरके साथ रही हूँ; परंतु अब यह वैर उत्पन्न हो गया; इसलिये मैं बहुत जल्दी यहाँसे सुखपूर्वक चली जाऊँगी ।। ३४ ।।

ब्रह्मदत्तने कहा--पूजनी! जो एक व्यक्तिके अपराध करनेपर बदलेमें स्वयं भी कुछ करे, वह कोई अपराध नहीं करता--अपराधी नहीं माना जाता। इससे तो पहलेका अपराधी ऋणमुक्त हो जाता है; इसलिये तू यहीं रह। कहीं मत जा ।। ३५ ।।

पूजनी बोली--राजन्‌! जिसका अपकार किया जाता है और जो अपकार करता है, उन दोनोंमें फिर मेल नहीं हो सकता। जो अपराध करता है और जिसपर किया जाता है, उन दोनोंके ही हृदयोंमें वह बात खटकती रहती है ।। ३६ ।।

ब्रह्मदत्तने कहा--पूजनी! बदला ले लेनेपर तो वैर शान्त हो जाता है और अपकार करनेवालेको उस पापका फल भी नहीं भोगना पड़ता; अतः अपराध करने और सहनेवालेका मेल पुनः हो सकता है ।। ३७ ।।

पूजनी बोली--राजन्‌! इस प्रकार कभी वैर शान्त नहीं होता है। “शत्रुने मुझे सान्त्वना दी है,' ऐसा समझकर उसपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। ऐसी अवस्थामें विश्वास करनेसे जगतमें अपने प्राणोंसे भी (कभी-न-कभी) हाथ धोना पड़ता है, इसलिये वहाँ मुँह न दिखाना ही अच्छा है ।। ३८ ।।

जो लोग बलपूर्वक तीखे शस्त्रोंसे भी वशमें नहीं किये जा सकते, उन्हें भी मीठी वाणीद्वारा बंदी बना लिया जाता है। जैसे हथिनियोंकी सहायतासे हाथी कैद कर लिये जाते हैं । ३९ ।।

ब्रह्मदत्तने कहा--पूजनी! प्राणोंका नाश करनेवाले भी यदि एक साथ रहने लगें तो उनमें परस्पर स्नेह उत्पन्न हो जाता है और वे एक-दूसरेका विश्वास भी करने लगते हैं; जैसे श्वपच (चाण्डाल) के साथ रहनेसे कुत्तेका उसके प्रति स्नेह और विश्वास हो जाता है ।।

आपसमें जिनका वैर हो गया है, उनका वह वैर भी एक साथ रहनेसे मृदु हो जाता है, अत: कमल के पत्तेपर जैसे जल नहीं ठहरता है, उसी प्रकार वह वैर भी टिक नहीं पाता है ।। ४१।।

पूजनी बोली--राजन्‌! वैर पाँच कारणोंसे हुआ करता है; इस बातको दिद्दान्‌ पुरुष अच्छी तरह जानते हैं। १. स्त्रीके लिये, २. घर और जमीनके लिये, ३. कठोर वाणीके कारण, ४. जातिगत द्वेषके कारण और ५. किसी समय किये हुए अपराधके कारण ।। ४२ ।।

इन कारणोंसे भी ऐसे व्यक्तिका वध नहीं करना चाहिये जो दाता हो अर्थात्‌ परोपकारी हो, विशेषत: क्षत्रियनरेशको छिपकर या प्रकटरूपमें ऐसे व्यक्तिपर हाथ नहीं उठाना चाहिये। पहले यह विचार कर लेना चाहिये कि उसका दोष हल्का है या भारी। उसके बाद कोई कदम उठाना चाहिये ।। ४३ ।।

जिसने वैर बाँध लिया हो, ऐसे सुहृदपर भी इस जगतमें विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि जैसे लकड़ीके भीतर आग छिपी रहती है, उसी प्रकार उसके हृदयमें वैरभाव छिपा रहता है ।। ४४ ।।

राजन्‌! जिस प्रकार बडवानल समुद्रमें किसी तरह शान्त नहीं होता, उसी प्रकार क्रोधाग्नि भी न धनसे, न कठोरता दिखानेसे, न मीठे वचनों द्वारा समझाने-बुझानेसे और न शास्त्रज्ञानसे ही शान्त होती है || ४५ ।।

नरेश्वर! प्रज्वलित हुई वैरकी आग एक पक्षको दग्ध किये बिना नहीं बुझती है और अपराधजनित कर्म भी एक पक्षका संहार किये बिना शान्त नहीं होता है ।।

जिसने पहले अपकार किया है, उसका यदि अपकृत व्यक्तिके द्वारा धन और मानसे सत्कार किया जाय तो भी उसे उस शत्रुका विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि अपना किया हुआ पापकर्म ही दुर्बलोंको डराता रहता है || ४७ ।।

अबतक तो न मैंने कोई आपका अपकार किया था और न आपने ही मेरी कोई हानि की थी; इसलिये मैं आपके महलमें रहती थी, किंतु अब मैं आपका विश्वास नहीं कर सकती ।। ४८ ।।

ब्रह्मदत्तने कहा--पूजनी! काल ही समस्त कार्य करता है तथा कालके ही प्रभावसे भाँति-भाँतिकी क्रियाएँ आरम्भ होती हैं। इसमें कौन किसका अपराध करता है? ।।

जन्म और मृत्यु--ये दोनों क्रियाएँ समानरूपसे चलती रहती हैं। और काल ही इन्हें कराता है। इसीलिये प्राणी जीवित नहीं रह पाता ।। ५० ।।

कुछ लोग एक साथ ही मारे जाते हैं; कुछ एक-एक करके मरते हैं और बहुत-से लोग दीर्घकालतक मरते ही नहीं हैं। जैसे आग ईंधनको पाकर उसे जला देती है, उसी प्रकार काल ही समस्त प्राणियोंको दग्ध कर देता है ।।

शुभे! एक दूसरेके प्रति किये गये अपराधमें न तो तुम यथार्थ कारण हो और न मैं ही वास्तविक हेतु हूँ। काल ही सदा समस्त देहधारियोंके सुख-दुःखको ग्रहण या उत्पन्न करता है।| ५२ ।।

पूजनी! मैं तेरी किसी प्रकार हिंसा नहीं करूँगा। तू यहाँ अपनी इच्छा के अनुसार स्नहेपूर्वक निवास कर। तूने जो कुछ किया है, उसे मैंने क्षमा कर दिया और मैंने जो कुछ किया हो, उसे तू भी क्षमा कर दे ।। ५३ ।।

पूजनी बोली--राजन्‌! यदि आप कालको ही सब क्रियाओंका कारण मानते हैं, तब तो किसीका किसीके साथ वैर नहीं होना चाहिये; फिर अपने भाई-बन्धुओंके मारे जानेपर उनके सगे-सम्बन्धी बदला क्‍यों लेते हैं? ।। ५४॥।।

यदि कालसे ही मृत्यु, दुःख-सुख और उन्नति अवनति आदिका सम्पादन होता है, तब पूर्वकालमें देवताओं और असुरों ने क्‍यों आपसमें युद्ध करके एक दूसरे का वध किया? ।। ५५ ।।

वैद्यलोग रोगियोंकी दवा करनेकी अभिलाषा क्‍यों करते हैं? यदि काल ही सबको पका रहा है तो दवाओंका क्या प्रयोजन है? ।। ५६ ।।

यदि आप कालको ही प्रमाण मानते हैं तो शोकसे मूर्च्छित हुए प्राणी क्यों महान्‌ प्रलाप एवं हाहाकार करते हैं? फिर कर्म करनेवालोंके लिये विधि-निषेधरूपी धर्मके पालनका नियम क्यों रखा गया है? ।। ५७ ।।

नरेश्वर! आपके बेटेने मेरे बच्चेको मार डाला और मैंने भी उसकी आँखोंको नष्ट कर दिया। इसके बाद अब आप मेरा वध कर डालेंगे || ५८ ।।

जैसे मैं पुत्र शोकसे संतप्त होकर आपके पुत्रके प्रति पापपूर्ण बर्ताव कर बैठी, उसी प्रकार आप भी मुझपर प्रहार कर सकते हैं। यहाँ जो यथार्थ बात है, वह मुझसे सुनिये ।। ५९ ।।

मनुष्य खाने और खेलनेके लिये ही पक्षियोंकी कामना करते हैं। वध करने या बन्धनमें डालनेके सिवा तीसरे प्रकारका कोई सम्पर्क पक्षियोंके साथ उनका नहीं देखा जाता है ।। ६० ।।

इस वध और बन्धनके भयसे ही मुमुक्षुलोग मोक्ष-शास्त्रका आश्रय लेकर रहते हैं; क्योंकि वेदवेत्ता पुरुषोंका कहना है कि जन्म और मरणका दुःख असहा होता है || ६१ 

सबको अपने प्राण प्रिय होते हैं, सभीको अपने पुत्र प्यारे लगते हैं; सब लोग दुःखसे उद्विग्न हो उठते हैं और सभीको सुखकी प्राप्ति अभीष्ट होती है ।। ६२ ।।

महाराज ब्रह्मदत्त! दुःखके अनेक रूप हैं। बुढ़ापा दुःख है, धनका नाश दु:ख है, अप्रियजनोंके साथ रहना दुःख है और प्रियजनोंसे बिछुड़ना दुःख है ।। ६३ ।।

वध और बन्धनसे भी सबको दुःख होता है। स्त्रीके कारण और स्वाभाविक रूपसे भी दुःख हुआ करता है तथा पुत्र यदि नष्ट हो जाय या दुष्ट निकल जाय तो उससे भी लोगोंको सदा दु:ख प्राप्त होता रहता है।।

कुछ मूढ़ मनुष्य कहा करते हैं कि पराये दुःखमें दुःख नहीं होता; परंतु वही ऐसी बात श्रेष्ठ पुरुषोंके निकट कहा करता है, जो दुःख के तत्त्वको नहीं जानता ।। ६५ ।।

जो दुःखसे पीड़ित होकर शोक करता है तथा जो अपने और पराये सभीके दुःखका रस जानता है, वह ऐसी बात कैसे कह सकता है? ।। ६६ ।।

शत्रुदमन नरेश! आपने जो मेरा अपकार किया है तथा मैंने बदलेमें जो कुछ किया है, उसे सैकड़ों वर्षोंमें भी भुलाया नहीं जा सकता ।। ६७ ।।

इस प्रकार आपसमें एक दूसरेका अपकार करनेके कारण अब हमारा फिर मेल नहीं हो सकता। अपने पुत्रको याद कर-करके आपका वैर ताजा होता रहेगा ।। ६८ ।।

इस प्रकार मरणान्त वैर ठन जानेपर जो प्रेम करना चाहता है, उसका वह प्रेम उसी प्रकार असम्भव है, जैसे मिट्टीका बर्तन एक बार फूट जानेपर फिर नहीं जुटता है ।। ६९॥।।

विश्वास दुःख देनेवाला है, यही नीतिशास्त्रोंका निश्चय है। प्रचीनकालमें शुक्राचार्यने भी प्रह्नमादसे दो गाथाएँ कही थीं, जो इस प्रकार हैं || ७० ।।

जैसे सूखे तिनकोंसे ढके हुए गड्ढेके ऊपर रखे हुए मधुको लेने जानेवाले मनुष्य मारे जाते हैं, उसी प्रकार जो लोग वैरीकी झूठी या सच्ची बातपर विश्वास करते हैं, वे भी बेमौत मरते हैं || ७१ ।।

जब किसी कुलमें दुःखदायी वैर बाँध जाता है, तब वह शान्त नहीं होता। उसे याद दिलानेवाले बने ही रहते हैं, इसलिये जबतक कुलमें एक भी पुरुष जीवित रहता है, तबतक वह वैर नहीं मिटता है || ७२ ।।

नरेश्वर! दुष्ट प्रकृतिके लोग मनमें वैर रखकर ऊपरसे शत्रुको मधुर वचनोंद्वारा सान्त्वना देते रहते हैं। तदनन्तर अवसर पाकर उसे उसी प्रकार पीस डालते हैं, जैसे कोई पानीसे भरे हुए घड़ेको पत्थरपर पटककर चूर-चूर कर दे ।। ७३ ।।

राजन्‌! किसीका अपराध करके फिर उसपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जो दूसरोंका अपकार करके भी उनपर विश्वास करता है, उसे दुःख भोगना पड़ता है ।। ७४ ।।

ब्रह्मदत्तने कहा--पूजनी! अविश्वास करनेसे तो मनुष्य संसारमें अपने अभीष्ट पदार्थोंको कभी नहीं प्राप्त कर सकता और न किसी कार्यके लिये कोई चेष्टा ही कर सकता है। यदि मनमें एक पक्षसे सदा भय बना रहे तो मनुष्य मृतकतुल्य हो जायँगे--उनका जीवन ही मिट्टी हो जायगा || ७५ ।।

पूजनीने कहा--राजन्‌! जिसके दोनों पैरोंमें घाव हो गया हो; फिर भी वह उन पैरोंसे ही चलता रहे तो कितना ही बचा-बचाकर क्‍यों न चले; यहाँ दौड़ते हुए उन पैरोंमें पुनः: घाव होते ही रहेंगे || ७६ ।।

जो मनुष्य अपने रोगी नेत्रोंस हवाकी ओर रुख करके देखता है, उसके उन नेत्रोंमें वायुके कारण अवश्य ही बहुत पीड़ा बढ़ जाती है || ७७ ।।

जो अपनी शक्तिको न समझकर मोहवश दुर्गम मार्गपर चल देता है, उसका जीवन वहीं समाप्त हो जाता है || ७८ ।।

जो किसान वर्षाके समयका विचार न करके खेत जोतता है, उसका पुरुषार्थ व्यर्थ जाता है; और उस जुताईसे उसको अनाज नहीं मिल पाता ।। ७९ ||

जो प्रतिदिन तीता, कसैला, स्वादिष्ट अथवा मधुर, जैसा भी हो, हितकर भोजन करता है, वही अन्न उसके लिये अमृतके समान लाभकारी होता है || ८० ।।

परंतु जो परिणामके विचार किये बिना ही मोहवश पथ्य छोड़कर अपथ्य भोजन करता है, उसके जीवनका वहीं अन्त हो जाता है || ८१ ।।

दैव और पुरुषार्थ दोनों एक-दूसरेके सहारे रहते हैं, परंतु उदार विचारवाले पुरुष सर्वदा शुभ कर्म करते हैं और नपुंसक दैवके भरोसे पड़े रहते हैं || ८२ ।।

कठोर अथवा कोमल, जो अपने लिये हितकर हो, वह कर्म करते रहना चाहिये। जो कर्मको छोड़ बैठता है, वह निर्धन होकर सदा अनर्थोंका शिकार बना रहता है || ८३ 

अतः काल, दैव और स्वभाव आदि सारे पदार्थोंका भरोसा छोड़कर पराक्रम ही करना चाहिये। मनुष्यको सर्वस्वकी बाजी लगाकर भी अपने हितका साधन ही करना चाहिये ।। ८४ ।।

विद्या, शूरवीरता, दक्षता, बल और पाँचवाँ धैर्य--ये पाँच मनुष्य के स्वाभाविक मित्र बताये गये हैं। विद्वान्‌ पुरुष इनके द्वारा ही इस जगतमें सारे कार्य करते हैं || ८५ 

घर, ताँबा आदि धातु, खेत, स्त्री और सुहृदजन--ये उपमित्र बताये गये हैं। इन्हें मनुष्य सर्वत्र पा सकता है ।। ८६ ।।

विद्वान्‌ पुरुष सर्वत्र आनन्दमें रहता है और सर्वत्र उसकी शोभा होती है। उसे कोई डराता नहीं है और किसीके डरानेपर भी वह डरता नहीं है ।। ८७ ।।

बुद्धिमानके पास थोड़ा-सा धन हो तो वह भी सदा बढ़ता रहता है। वह दक्षतापूर्वक काम करते हुए संयमके द्वारा प्रतिष्ठित होता है ।। ८८ ।।

घरकी आसत्तिमें बँधें हुए मन्दबुद्धि मनुष्योंके मांसोंको कुटिल स्त्री खा जाती है अर्थात्‌ उसे सुखा डालती है, जैसे केकड़ेकी मादाको उसकी संतानें ही नष्ट कर देती हैं | ८९ ।।

बुद्धिके विपरीत हो जानेसे दूसरे-दूसरे बहुतेरे मनुष्य घर, खेत, मित्र और अपने देश आदिकी चिन्तासे ग्रस्त होकर सदा दुखी बने रहते हैं || ९० ।।

अपना जन्मस्थान भी यदि रोग और दुर्भिक्षसे पीडित हो तो आत्मरक्षाके लिये वहाँसे हट जाना या अन्यत्र निवासके लिये चले जाना चाहिये। यदि वहाँ रहना ही हो तो सदा सम्मानित होकर रहे || ९१ ।।

भूपाल! मैंने तुम्हारे पुत्रके साथ दुष्टतापूर्ण बर्ताव किया है, इसलिये मैं अब यहाँ रहनेका साहस नहीं कर सकती, दूसरी जगह चली जाऊँगी ।। ९२ ।।

दुष्टा भार्या, दुष्ट पुत्र, कुटिल राजा, दुष्ट मित्र, दूषित सम्बन्ध और दुष्ट देशको दूरसे ही त्याग देना चाहिये || ९३ ।।

कुपुत्रपर कभी विश्वास नहीं हो सकता। दुष्टा भार्यापर प्रेम कैसे हो सकता है? कुटिल राजाके राज्यमें कभी शान्ति नहीं मिल सकती और दुष्ट देशमें जीवन-निर्वाह नहीं हो सकता ।॥। ९४ |।

कुमित्रका स्नेह कभी स्थिर नहीं रह सकता, इसलिये उसके साथ सदा मेल बना रहे-यह असम्भव है और जहाँ दूषित सम्बन्ध हो, वहाँ स्वार्थमें अन्तर आनेपर अपमान होने लगता है ।। ९५ ।।

पत्नी वही अच्छी है, जो प्रिय वचन बोले। पुत्र वही अच्छा है, जिससे सुख मिले। मित्र वही श्रेष्ठ है, जिसपर विश्वास बना रहे और देश भी वही उत्तम है, जहाँ जीविका चल सके ।। ९६ ।।

उग्र शासनवाला राजा वही श्रेष्ठ है, जिसके राज्यमें बलात्कार न हो, किसी प्रकारका भय न रहे, जो दरिद्रका पालन करना चाहता हो तथा प्रजाके साथ जिसका पाल्य-पालक सम्बन्ध सदा बना रहे ।। ९७ ।।

जिस देशका राजा गुणवान्‌ और धर्मपरायण होता है, वहाँ स्त्री, पुत्र, मित्र सम्बन्धी तथा देश सभी उत्तम गुणसे सम्पन्न होते हैं | ९८ ।।

जो राजा धर्मको नहीं जानता, उसके अत्याचारसे प्रजाका नाश हो जाता है। राजा ही धर्म, अर्थ और काम--इन तीनोंका मूल है। अतः उसे पूर्ण सावधान रहकर निरन्तर अपनी प्रजाका पालन करना चाहिये ।।

जो प्रजाकी आयका छठा भाग कररूपसे ग्रहण करके उसका उपभोग करता है और प्रजाका भलीभाँति पालन नहीं करता, वह तो राजाओंमें चोर है || १०० ।।

जो प्रजाको अभयदान देकर धनके लोभसे स्वयं ही उसका पालन नहीं करता, वह पापबुद्धि राजा सारे जगत्‌का पाप बटोरकर नरकमें जाता है || १०१ ।।

जो अभयदान देकर प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करते हुए स्वयं ही अपनी प्रतिज्ञाको सत्य प्रमाणित कर देता है, वह राजा सबको सुख देनेवाला समझा जाता है ।।

प्रजापति मनुने राजाके सात गुण बताये हैं, और उन्हींके अनुसार उसे माता, पिता, गुरु, रक्षक, अग्नि, कुबेर और यमकी उपमा दी है || १०३ ।।

जो राजा प्रजापर सदा कृपा रखता है, वह अपने राष्ट्रके लिये पिताके समान है। उसके प्रति जो मिथ्याभाव प्रदर्शित करता है, वह मनुष्य दूसरे जन्ममें पशु-पक्षीकी योनिमें जाता है || १०४ ।।

राजा दीन-दुःखियोंकी भी सुधि लेता और सबका पालन करता है, इसलिये वह माताके समान है। अपने और प्रजाके अप्रियजनोंको वह जलाता रहता है; अतः अग्निके समान है और दुष्टोंका दमन करके उन्हें संयममें रखता है; इसलिये यम कहा गया है ।।

प्रियजनोंको खुले हाथ धन लुटाता है और उनकी कामना पूरी करता है, इसलिये कुबेरके समान है। धर्मका उपदेश करनेके कारण गुरु और सबका संरक्षण करनेके कारण रक्षक है || १०६ ।।

जो राजा अपने गुणोंसे नगर और जनपदके लोगोंको प्रसन्न रखता है, उसका राज्य कभी डावाँडोल नहीं होता क्योंकि वह स्वयं धर्मका निरन्तर पालन करता रहता है || १०७ |।

जो स्वयं नगर और गाँवोंके लोगोंका सम्मान करना जानता है, वह राजा इहलोक और परलोकमें सर्वत्र सुख-ही-सुख देखता है || १०८ ।।

जिसकी प्रजा सर्वदा करके भारसे पीड़ित हो नित्य उद्विग्न रहती है और नाना प्रकारके अनर्थ उसे सताते रहते हैं, वह राजा पराभवको प्राप्त होता है ।।

इसके विपरीत जिसकी प्रजा सरोवरमें कमलोंके समान विकास एवं वृद्धिको प्राप्त होती रहती है, वह सब प्रकारके पुण्यफलोंका भागी होता है और स्वर्गलोकमें भी सम्मान पाता है || ११० ।।

राजन्‌! बलवानके साथ युद्ध छेड़ना कभी अच्छा नहीं माना जाता। जिसने बलवानके साथ झगड़ा मोल ले लिया, उसके लिये कहाँ राज्य है और कहाँ सुख? ।। १११ ।।

भीष्मजी कहते हैं--नरेश्वर! राजा ब्रह्मदत्तसे ऐसा कहकर वह पूजनी चिड़िया उनसे विदा ले अभीष्ट दिशाको चली गयी ।। ११२ ।।

नृपश्रेष्ठ! राजा ब्रह्मदत्तका पूजनी चिड़ियाके साथ जो संवाद हुआ था, यह मैंने तुम्हें सुना दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो? ।। ११३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें ब्रह्मदत्त और पूजनीका संवादविषयक एकसौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ चालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ चालीसवें अध्याय के श्लोक 1-71 का हिन्दी अनुवाद)

“भारद्वाज कणिकका सौराष्ट्रदेशके राजाको कूटनीतिका उपदेश”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतनन्दन! पितामह! सत्ययुग, त्रेता और द्वापर-ये तीनों युग प्राय: समाप्त हो रहे हैं, इसलिये जगत्‌में धर्मका क्षय हो चला है। डाकू और लुटेरे इस धर्ममें और भी बाधा डाल रहे हैं; ऐसे समयमें किस तरह रहना चाहिये? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--भरतनन्दन! ऐसे समयमें मैं तुम्हें आपत्तिकालकी वह नीति बता रहा हूँ, जिसके अनुसार भूमिपालको दयाका परित्याग करके भी समयोचित बर्ताव करना चाहिये ।। २ ।।

इस विषयमें भारद्वाज कणिक तथा राजा शत्रुंजयके संवादरूप एक प्रचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।। ३ ।।

सौवीरदेशमें शत्रुंजय नामसे प्रसिद्ध एक महारथी राजा थे। उन्होंने भारद्वाज कणिकके पास जाकर अपने कर्तव्यका निश्चय करनेके लिये उनसे इस प्रकार प्रश्न किया-- || ४

“अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति कैसे होती है? प्राप्त द्रव्यकी वृद्धि किस प्रकार हो सकती है? बढ़े हुए द्रव्यकी रक्षा किससे की जाती है? और उस सुरक्षित द्रव्यका सदुपयोग कैसे किया जाना चाहिये?” ॥। ५ ॥।

राजा शत्रुंजयको शास्त्रका तात्पर्य निश्चितरूपसे ज्ञात था। उन्होंने जब कर्तव्य-निश्चयके लिये प्रश्न उपस्थित किया, तब ब्राह्मण भारद्वाज कणिकने यह युक्तियुक्त उत्तम वचन बोलना आस्मभ किया-- || ६ ||

“राजाको सर्वदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहना चाहिये और सदा ही पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये। राजा अपनेमें छिद्र अर्थात्‌ दुर्बलता न रहने दे। शत्रुपक्षके छिद्र या दुर्बलतापर सदा ही दृष्टि रखे और यदि शत्रुओंकी दुर्बलताका पता चल जाय तो उनपर आक्रमण कर दे ।। ७ ।।

जो सदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहता है, उससे प्रजाजन बहुत डरते हैं, इसलिये समस्त प्राणियोंको दण्डके द्वारा ही काबूमें करे || ८ ।।

इस प्रकार तत्त्वदर्शी विद्वान्‌ दण्डकी प्रशंसा करते हैं; अतः साम, दान आदि चारों उपायोंमें दण्डको ही प्रधान बताया जाता है || ९ ।।

यदि मूल आधार नष्ट हो जाय तो उसके आश्रयसे जीवननिर्वाह करनेवाले सभी शत्रुओंका जीवन नष्ट हो जाता है। यदि वृक्षकी जड़ काट दी जाय तो उसकी शाखाएँ कैसे रह सकती हैं? ।। १० ।।

विद्वान्‌ पुरुष पहले शत्रुपक्षके मूलका ही उच्छेद कर डाले। तत्पश्चात्‌ उसके सहायकों और पक्षपातियोंको भी उस मूलके पथका ही अनुसरण करावे ।। ११ ।।

“संकटकाल उपस्थित होनेपर राजा सुन्दर मन्त्रणा, उत्तम पराक्रम एवं उत्साहपूर्वक युद्ध करे तथा अवसर आ जाय तो सुन्दर ढंगसे पलायन भी करे। आपत्कालके समय आवश्यक कर्म ही करना चाहिये, पर सोच-विचार नहीं करना चाहिये ।। १२ ।।

“राजा केवल बातचीतमें ही अत्यन्त विनयशील हो, हृदयको छूरेके समान तीखा बनाये रखे; पहले मुसकराकर मीठे वचन बोले तथा काम-क्रोधको त्याग दे ।। १३ ।।

शत्रुके साथ किये जानेवाले समझौते आदि कार्यमें संधि करके भी उसपर विश्वास न करे। अपना काम बना लेनेपर बुद्धिमान्‌ पुरुष शीघ्र ही वहाँसे हट जाय ।। १४ ।।

“शत्रुको उसका मित्र बनकर मीठे वचनोंसे ही सान्त्वना देता रहे; परंतु जैसे सर्पयुक्त गृहसे मनुष्य डरता है, उसी प्रकार उस शत्रुसे भी सदा उद्विग्न रहे ।।

जिसकी बुद्धि संकटमें पड़कर शोकाभिभूत हो जाय, उसे भूतकालकी बातें (राजा नल तथा भगवान्‌ श्रीराम आदिके जीवन-वृत्तान्त) सुनाकर सान्त्वना दे, जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं है, उसे भविष्यमें लाभकी आशा दिलाकर तथा विद्वान्‌ पुरुषको तत्काल ही धन आदि देकर शान्त करे || १६ ।।

ऐश्वर्य चाहनेवाले राजाको चाहिये कि वह अवसर देखकर शत्रुके सामने हाथ जोड़े शपथ खाय, आश्वासन दे और चरणोंमें सिर झुकाकर बातचीत करे। इतना ही नहीं, वह धीरज देकर उसके आँसूतक पोंछे || १७ ।।

“जबतक समय बदलकर अपने अनुकूल न हो जाय, तबतक शत्रुको कंधेपर बिठाकर ढोना पड़े तो वह भी करे; परंतु जब अनुकूल समय आ जाय, तब उसे उसी प्रकार नष्ट कर दे, जैसे घड़ेको पत्थरपर पटककर फोड़ दिया जाता है ॥। १८ ।।

राजेन्द्र! दो ही घड़ी सही, मनुष्य तिन्दुककी लकड़ीकी मशालके समान जोर-जोरसे प्रज्वलित हो उठे (शत्रुके सामने घोर पराक्रम प्रकट करे), दीर्घकालतक भूसीकी आगके समान बिना ज्वालाके ही धूआँ न उठावे (मन्द पराक्रमका परिचय न दे) ।। १९ ।।

“अनेक प्रकारके प्रयोजन रखनेवाला मनुष्य कृतघ्नके साथ आर्थिक सम्बन्ध न जोड़े किसीका भी काम पूरा न करे, क्योंकि जो अर्थी (प्रयोजन-सिद्धिकी इच्छावाला) होता है, उससे तो बारंबार काम लिया जा सकता है; परंतु जिसका प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, वह अपने उपकारी पुरुषकी उपेक्षा कर देता है; इसलिये दूसरोंके सारे कार्य (जो अपने द्वारा होनेवाले हों) अधूरे ही रखने चाहिये ।। २० ।।

“कोयल, सूअर, सुमेरु पर्वत, शून्यगृह, नट तथा अनुरक्त सुहृदू--इनमें जो श्रेष्ठ गुण या विशेषताएँ हैं, उन्हें राजा काममें लावे- || २१ ।।

राजाको चाहिये कि वह प्रतिदिन उठ-उठकर पूर्ण सावधान हो शत्रुके घर जाय और उसका अमंगल ही क्‍यों न हो रहा हो, सदा उसकी कुशल पूछे और मंगल कामना करे ।। २२ ।।

“जो आलसी हैं, कायर हैं, अभिमानी हैं, लोक-चर्चासे डरनेवाले और सदा समयकी प्रतीक्षामें बैठे रहनेवाले हैं, ऐसे लोग अपने अभीष्ट अर्थको नहीं पा सकते ।। २३ ।।

“राजा इस तरह सतर्क रहे कि उसके छिद्रका शत्रुको पता न चले, परंतु वह शत्रुके छिद्रको जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अंगोंको समेटकर छिपा लेता है, उसी प्रकार राजा अपने छिठद्रोंको छिपाये रखे || २४ ।।

राजा बगुलेके समान एकाग्रचित्त होकर कर्तव्य-विषयका चिन्तन करे। सिंहके समान पराक्रम प्रकट करे। भेड़ियेकी भाँति सहसा आक्रमण करके शत्रुका धन लूट ले तथा बाणकी भाँति शत्रुओंपर टूट पड़े | २५ ।।

'पान, जूआ, स्त्री, शिकार, तथा गाना-बजाना--इन सबका संयमपूर्वक अनासक्तभावसे सेवन करे; क्योंकि इनमें आसक्ति होना अनिष्टकारक है || २६ ।।

राजा बाँसका धनुष बनावे, हिरनके समान चौकन्ना होकर सोये, अंधा बने रहनेयोग्य समय हो तो अंधेका भाव किये रहे और अवसरके अनुसार बहरेका भाव भी स्वीकार कर ले ।। २७ ।।

बुद्धिमान्‌ू पुरुष देश और कालको अपने अनुकूल पाकर पराक्रम प्रकट करे। देशकालकी अनुकूलता न होनेपर किया गया पराक्रम निष्फल होता है || २८ ।।

अपने लिये समय अच्छा है या खराब? अपना पक्ष प्रबल है या निर्बल? इन सब बातोंका निश्चय करके तथा शत्रुके भी बलको समझकर युद्ध या संधि के कार्यमें अपने आपको लगावे ॥। २९ ।।

“जो राजा दण्डसे नतमस्तक हुए शत्रुको पाकर भी उसे नष्ट नहीं कर देता, वह अपनी मृत्युको आमन्त्रित करता है। ठीक उसी तरह जैसे, खच्चरी मौतके लिये ही गर्भ धारण करती है ।। ३० ।।

नीतिज्ञ राजा ऐसे वृक्षके समान रहे, जिसमें फूल तो खूब लगे हों, परंतु फल न हो। फल लगनेपर भी उसपर चढ़ना अत्यन्त कठिन हो, वह रहे तो कच्चा, पर दीखे पकेके समान तथा स्वयं कभी जीर्ण-शीर्ण न हो || ३१ ।।

“राजा शत्रुकी आशा पूर्ण होनेमें विलम्ब पैदा करे, उसमें विघ्न डाल दे। उस विघ्नका कुछ कारण बता दे और उस कारणको युक्तिसंगत सिद्ध कर दे ।। ३२ 

“जबतक अपने ऊपर भय न आया हो, तबतक डरे हुएकी भाँति उसे टालनेका प्रयत्न करना चाहिये; परंतु जब भयको सामने आया हुआ देखे तो निडर होकर शत्रुपर प्रहार करना चाहिये ।। ३३ ।।

“जहाँ प्राणोंका संशय हो, ऐसे कष्टको स्वीकार किये बिना मनुष्य कल्याणका दर्शन नहीं कर पाता। प्राण-संकटमें पड़ कर यदि वह पुनः जीवित रह जाता है तो अपना भला देखता है || ३४ ।।

भविष्यमें जो संकट आनेवाले हों, उन्हें पहलेसे ही जाननेका प्रयत्न करे और जो भय सामने उपस्थित हो जाय, उसे दबानेकी चेष्टा करे। दबा हुआ भय भी पुनः बढ़ सकता है, इस डरसे यही समझे कि अभी वह निवृत्त ही नहीं हुआ है (और ऐसा समझकर सतत सावधान रहे) ।। ३५ ।।

“जिसके सुलभ होनेका समय आ गया हो, उस सुखको त्याग देना और भविष्यमें मिलनेवाले सुखकी आशा करना--यह बुद्धिमानोंकी नीति नहीं है ।। ३६ ।।

'जो शत्रुके साथ संधि करके विश्वासपूर्वक सुखसे सोता है, वह उसी मनुष्यके समान है, जो वृक्षकी शाखापर गाढ़ी नींदमें सो गया हो। ऐसा पुरुष नीचे गिरने (शत्रुद्वारा संकटमें पड़ने) पर ही सजग या सचेत होता है ।। ३७ ।।

मनुष्य कोमल या कठोर, जिस किसी भी उपायसे सम्भव हो, दीनदशासे अपना उद्धार करे। इसके बाद शक्तिशाली हो पुन: धर्मांचरण करे ।। ३८ ।।

जो लोग शत्रुके शत्रु हों, उन सबका सेवन करना चाहिये। अपने ऊपर शत्रुओंद्वारा जो गुप्तचर नियुक्त किये गये हों, उनको भी पहचाननेका प्रयत्न करे ।। ३९ |।

अपने तथा शत्रुके राज्यमें ऐसे गुप्तचर नियुक्त करे जिसको कोई जानता-पहचानता न हो। शत्रुके राज्योंमें पाखण्डवेषधारी और तपस्वी आदिको ही गुप्तचर बनाकर भेजना चाहिये ।। ४० ।।

वे गुप्तचर बगीचा, घूमने-फिरनेके स्थान, पौंसला, धर्मशाला, मदबिक्रीके स्थान, नगरके प्रवेशद्वार, तीर्थस्थान और सभाभवन--इन सब स्थलोंमें विचरें || ४१ 

“कपटपूर्ण धर्मका आचरण करनेवाले, पापात्मा, चोर तथा जगत्‌के लिये कण्टकरूप मनुष्य वहाँ छद्यवेष धारण करके आते रहते हैं, उन सबका पता लगाकर उन्हें कैद कर ले अथवा भय दिखाकर उनकी पापतृत्ति शान्त कर दे ।। ४२ ।।

'जो विश्वासपात्र नहीं है, उसपर कभी विश्वास न करे, परंतु जो विश्वासपात्र है, उसपर भी अधिक विश्वास न करे; क्योंकि अधिक विश्वाससे भय उत्पन्न होता है अतः बिना जाँचे बूझे किसीपर भी विश्वास न करे ।।

किसी यथार्थ कारणसे शत्रुके मनमें विश्वास उत्पन्न करके जब कभी उसका पैर लड़खड़ाता देखे अर्थात्‌ उसे कमजोर समझे तभी उसपर प्रहार कर दे ।।

“जो संदेह करने योग्य न हो, ऐसे व्यक्तिपर भी संदेह करे--उसकी ओरसे चौकजन्ना रहे और जिससे भयकी आशंका हो, उसकी ओरसे तो सदा सब प्रकारसे सावधान रहे ही; क्योंकि जिसकी ओरसे भयकी आशंका नहीं है, उसकी ओरसे यदि भय उत्पन्न होता है तो वह जड़मूलसहित नष्ट कर देता है ।।

शत्रुके हितके प्रति मनोयोग दिखाकर, मौनव्रत लेकर, गेरुआ वस्त्र पहनकर तथा जटा और मृगचर्म धारण करके अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करे और जब विश्वास हो जाय तो मौका देखकर भूखे भेड़ियेकी तरह शत्रुपर टूट पड़े || ४६ ।।

पुत्र, भाई, पिता अथवा मित्र जो भी अर्थप्राप्तिमें विघ्न डालनेवाले हों, उन्हें ऐश्वर्य चाहनेवाला राजा अवश्य मार डाले || ४७ ।।

“यदि गुरु भी घंमडमें भरकर कर्तव्य और अकर्तव्यको नहीं समझ रहा हो और बुरे मार्गपर चलता हो तो उसके लिये भी दण्ड देना उचित है; दण्ड उसे राहपर लाता है || ४८ ।।

शत्रुके आनेपर उठकर उसका स्वागत करे, उसे प्रणाम करे और कोई अपूर्व उपहार दे। इन सब बर्तावोंके द्वारा पहले उसे वशमें करे। इसके बाद ठीक वैसे ही जैसे तीखी चोंचवाला पक्षी वृक्षके प्रत्येक फ़ूल और फलपर चोंच मारता है, उसी प्रकार उसके साधन और साध्यपर आघात करे ।। ४९ ।।

“राजा मछलीमारोंकी भाँति दूसरोंके मर्म विदीर्ण किये बिना, अत्यन्त क्रूर कर्म किये बिना तथा बहुतोंके प्राण लिये बिना बड़ी भारी सम्पत्ति नहीं पा सकता है ।।

“कोई जन्मसे ही मित्र अथवा शत्रु नहीं होता है। सामर्थ्ययोगसे ही शत्रु और मित्र उत्पन्न होते रहते हैं ।।

शत्रु ककूणाजनक वचन बोल रहा हो तो भी उसे मारे बिना न छोड़े। जिसने पहले अपना अपकार किया हो, उसको अवश्य मार डाले और उसमें दुःख न माने ।।

ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाला राजा दोषदृष्टिका परित्याग करके सदा लोगोंको अपने पक्षमें मिलाये रखने तथा दूसरोंपर अनुग्रह करनेके लिये यत्नशील बना रहे और शत्रुओंका दमन भी प्रयत्नपूर्वक करे ।। ५३ ।।

“प्रहार करनेके लिये उद्यत होकर भी प्रिय वचन बोले, प्रहार करनेके पश्चात्‌ भी प्रिय वाणी ही बोले, तलवारसे शत्रुका मस्तक काटकर भी उसके लिये शोक करे और रोये || ५४ ।।

'ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले राजाको मधुर वचन बोलकर दूसरोंका सम्मान करके और सहनशील होकर लोगोंको अपने पास आनेके लिये निमन्त्रित करना चाहिये, यही लोककी आराधना अथवा साधारण जनताका सम्मान है। इसे अवश्य करना चाहिये || ५५ ।।

“सूखा वैर न करे तथा दोनों बाँहोंसे तैरकर नदीके पार न जाय। यह निरर्थक और आयुनाशक कर्म है। यह कुत्तेके द्वारा गायका सींग चबाने-जैसा कार्य है, जिससे उसके दाँत भी रगड़ उठते हैं और रस भी नहीं मिलता है ।। ५६ ।।

धर्म, अर्थ और काम--इन त्रिविध पुरुषार्थोंके सेवनमें लोभ, मूर्खता और दुर्बलता-यह तीन प्रकारकी बाधा-अड़चन उपस्थित होती है। उसी प्रकार उनके शान्ति, सर्वहितकारी कर्म और उपभोग--ये तीन ही प्रकारके फल होते हैं। इन (तीनों प्रकारके) फलोंको शुभ जानना चाहिये; परंतु (उक्त तीनों प्रकारकी) बाधाओंसे यत्नपूर्वक बचना चाहिये || ५७ ।।

ऋण, अग्नि और शत्रुमेंसे कुछ बाकी रह जाय तो वह बारंबार बढ़ता रहता है; इसलिये इनमेंसे किसीको शेष नहीं छोड़ना चाहिये ।। ५८ ।।

“यदि बढ़ता हुआ ऋण रह जाय, तिरस्कृत शत्रु जीवित रहें और उपेक्षित रोग शेष रह जायाँ तो ये सब तीव्र भय उत्पन्न करते हैं || ५९ ।।

“किसी कार्यको अच्छी तरह सम्पन्न किये बिना न छोड़े और सदा सावधान रहे। शरीरमें गड़ा हुआ काँटा भी यदि पूर्णरूपसे निकाल न दिया जाय--उसका कुछ भाग शरीरमें ही टूटकर रह जाय तो वह चिरकालतक विकार उत्पन्न करता है || ६० ।।

“मनुष्योंका वध करके, सड़कें तोड़-फोड़कर और घरोंको नष्ट-भ्रष्ट करके शत्रुके राष्ट्रका विध्वंस करना चाहिये ।। ६१ ||

“राजा गीधके समान दूरतक दृष्टि डाले, बगुलेके समान लक्ष्यपर दृष्टि जमाये, कुत्तेके समान चौकन्ना रहे और सिंह के समान पराक्रम प्रकट करे, मनमें उद्धेग को स्थान न दे, कौएकी भाँति सशंक रहकर दूसरोंकी चेष्टा पर ध्यान रक्खे और दूसरेके बिलमें प्रवेश करनेवाले सर्पके समान शत्रुका छिद्र देखकर उसपर आक्रमण करे ।। ६२ ।।

जो अपनेसे शूरवीर हो, उसे हाथ जोड़कर वशमें करे, जो डरपोक हो, उसे भय दिखाकर फोड़ ले लोभीको धन देकर काबूमें कर ले तथा जो बराबर हो उसके साथ युद्ध छेड़ दे || ६३ ।।

अनेक जातिके लोग जो एक कार्यके लिये संगठित होकर अपना दल बना लेते हैं, उस दलको श्रेणी कहते हैं। ऐसी श्रेणियोंके जो प्रधान हैं, उनमें जब भेद डाला जा रहा हो और अपने मित्रोंको अनुनय-विनयके द्वारा जब दूसरे लोग अपनी ओर खींच रहे हों तथा जब सब ओर भेदनीति और दलबंदीके जाल बिछाये जा रहे हों, ऐसे अवसरोंपर अपने मन्त्रियोंकी पूर्णरूपसे रक्षा करनी चाहिये। (न तो वे फूटने पावें और और न स्वयं ही कोई दल बनाकर अपने विरुद्ध कार्य करने पावें। इसके लिये सतत सावधान रहना चाहिये) ।। ६४ ।।

“राजा सदा कोमल रहे तो लोग उसकी अवहेलना करते हैं और सदा कठोर बना रहे तो उससे उद्विग्न हो उठते हैं, अत: जब कठोरता दिखाने का समय हो तो वह कठोर बने और जब कोमलतापूर्ण बर्ताव करनेका अवसर हो तो कोमल बन जाय ।। ६५ ।।

“बुद्धिमान्‌ राजा कोमल उपायसे कोमल शत्रुका नाश करता है और कोमल उपायसे ही दारुण शत्रुका भी संहार कर डालता है। कोमल उपायसे कुछ भी असाध्य नहीं है; अतः कोमल ही अत्यन्त तीक्ष्ण है ।

“जो समयपर कोमल होता है और समयपर कठोर बन जाता है, वह अपने सारे कार्य सिद्ध कर लेता है और शत्रु पर भी उसका अधिकार हो जाता है ।। ६७ ।।

“विद्वान्‌ पुरुषसे विरोध करके “मैं दूर हूँ” ऐसा समझकर निश्चिन्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि बुद्धिमानकी बाँहे बहुत बड़ी होती हैं (उसके द्वारा किये गये प्रतीकारके उपाय दूरतक प्रभाव डालते हैं), अतः यदि बुद्धिमान्‌ पुरुषपर चोट की गयी तो वह अपनी उन विशाल भुजाओं द्वारा दूरसे भी शत्रुका विनाश कर सकता है ।। ६८ ।।

“जिसके पार न उतर सके, उस नदीको तैरनेका साहस न करे। जिसको शत्रु पुनः बलपूर्वक वापस ले सके ऐसे धनका अपहरण ही न करे। ऐसे वृक्ष या शत्रुको खोदने या नष्ट करनेकी चेष्टा न करे जिसकी जड़को उखाड़ फेंकना सम्भव न हो सके तथा उस वीरपर आघात न करे, जिसका मस्तक काटकर धरतीपर गिरा न सके ।।

“यह जो मैंने शत्रुके प्रति पापपूर्ण बर्तावका उपदेश किया है, इसे समर्थ पुरुष सम्पत्तिके समय कदापि आचरणमें न लावे। परंतु जब शत्रु ऐसे ही बर्तावोंद्वारा अपने ऊपर संकट उपस्थित कर दे, तब उसके प्रतीकारके लिये वह इन्हीं उपायोंको काममें लानेका विचार क्‍यों न करे, इसीलिये तुम्हारे हितकी इच्छासे मैंने यह सब कुछ बताया है” || ७०।।

हितार्थी ब्राह्मण भारद्वाज कणिककी कही हुई उन यथार्थ बातोंको सुनकर सौवीरदेशके राजाने उनका यथोचितरूपसे पालन किया, जिससे वे बन्धु-बान्धवों-सहित समुज्ज्वल राजलक्ष्मीका उपभोग करने लगे ।।७१।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें काणिकका उपदेशविषयक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  1. कोयलका श्रेष्ठ गुण है कण्ठकी मधुरता, सूअरके आक्रमणको रोकना कठिन है, यही उसकी विशेषता है; मेरुका गुण है सबसे अधिक उन्नत होना, सूने घरकी विशेषता है अनेकको आश्रय देना, नटका गुण है दूसरोंको अपने क्रियाकौशलद्दारा संतुष्ट करना तथा अनुरक्त सुहृदकी विशेषता है हितपरायणता। ये सारे गुण राजाको अपनाने चाहिये।


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