सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय (From the 138 of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ अड़तीसवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“शत्रुओंसे घिरे हुए राजाके कर्तव्यके विषयमें बिडाल और चूहेका आख्यान”

युधिष्ठिर बोले--भरतश्रेष्ठ।! आपने सर्वत्र अनागत (संकट आनेसे पहले ही आत्मरक्षाकी व्यवस्था करनेवाली) तथा प्रत्युत्पन्न (समयपर बचावका उपाय सोच लेनेवाली) बुद्धिको ही श्रेष्ठ बताया है और प्रत्येक कार्यमें आलस्यके कारण विलम्ब करनेवाली बुद्धिको विनाशकारी बताया है ।। १ ।।

भरतभूषण! अत: अब मैं उस श्रेष्ठ बुद्धिके विषयमें आपसे सुनना चाहता हूँ, जिसका आश्रय लेनेसे धर्म और अर्थमें कुशल तथा धर्मशास्त्रविशारद राजा शत्रुओं-द्वारा घिरा रहनेपर भी मोहमें नहीं पड़ता। कुरुश्रेष्ठ! उसी बुद्धिके विषयमें मैं आपसे प्रश्न करता हूँ; अतः आप मेरे लिये उसकी व्याख्या करें ।। २-३ ।।

बहुत-से शत्रुओंका आक्रमण हो जानेपर राजाको कैसा बर्ताव करना चाहिये? यह सब कुछ मैं विधिपूर्वक सुनना चाहता हूँ ।। ४ ।।

पहलेके सताये हुए डाकू आदि शत्रु जब राजाको संकटमें पड़ा हुआ देखते हैं, तब वे बहुत-से मिलकर उस असहाय राजाको उखाड़ फेंकनेका प्रयत्न करते हैं ।। ५ ।।

जब अनेक महाबली शत्रु किसी दुर्बल राजाको सब ओरसे हड़प जानेके लिये तैयार हो जाये, तब उस एकमात्र असहाय नरेशके द्वारा उस परिस्थितिका कैसे सामना किया जा सकता है? ।। ६ ।।

राजा किस प्रकार मित्र और शत्रुको अपने वशमें करता है तथा उसे शत्रु और मित्रके बीचमें रहकर कैसी चेष्टा करनी चाहिये? ।। ७ ।।

पहले लक्षणोंद्वारा जिसे मित्र समझा गया है, वही मनुष्य यदि शत्रु हो जाय, तब उसके साथ कोई पुरुष कैसा बर्ताव करे? अथवा क्‍या करके वह सुखी हो? ।। ८ ।।

किसके साथ विग्रह करे? अथवा किसके साथ संधि जोड़े और बलवान्‌ पुरुष भी यदि शत्रुओंके बीचमें मिल जाय तो उसके साथ कैसा बर्ताव करे? ।। ९ |।

परंतप पितामह! यह कार्य समस्त कार्याँमें श्रेष्ठ है। सत्यप्रतिज्ञ जितेन्द्रिय शान्तनुनन्दन भीष्मके सिवा, दूसरा कोई इस विषयको बतानेवाला नहीं है। इसको सुननेवाला भी दुर्लभ ही है। अत: महाभाग! आप उसका अनुसंधान करके यह सारा विषय मुझसे कहिये ।। १०-११ ।।

भीष्मजीने कहा--भरतनन्दन बेटा युधिष्ठिर! तुम्हारा यह विस्तारपूर्वक पूछना बहुत ठीक है। यह सुखकी प्राप्ति करानेवाला है। आपत्तिके समय क्या करना चाहिये? यह विषय गोपनीय होनेसे सबको मालूम नहीं है। तुम यह सब रहस्य मुझसे सुनो ।। १२ ।।

भिन्न-भिन्न कार्योका ऐसा प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण कभी शत्रु भी मित्र बन जाता है और कभी मित्रका मन भी द्वेषभावसे दूषित हो जाता है। वास्तवमें शत्रु-मित्रकी परिस्थिति सदा एक-सी नहीं रहती है ।। १३ ।।

अतः देश-कालको समझकर कर्तव्य-अकर्तव्यका निश्चय करके किसीपर विश्वास और किसीके साथ युद्ध करना चाहिये ।। १४ ।।

भारत! कर्तव्यका विचार करके सदा हित चाहनेवाले विद्वान मित्रोंक साथ संधि करनी चाहिये और आवश्यकता पड़नेपर शत्रुओंसे भी संधि कर लेनी चाहिये; क्योंकि प्राणोंकी रक्षा सदा ही कर्तव्य है ।। १५ ।।

भारत! जो मूर्ख मानव शत्रुओंके साथ कभी किसी भी दशामें संधि ही नहीं करता, वह अपने किसी भी उद्देश्यको सिद्ध नहीं कर सकता और न कोई फल ही पा सकता है ।। १६ |।

जो स्वार्थसिद्धिका अवसर देखकर शत्रुसे तो संधि कर लेता है और मित्रोंके साथ विरोध बढ़ा लेता है, वह महान्‌ फल प्राप्त कर लेता है ।। १७ ।।

इस विषयमें विद्वान्‌ पुरुष वटवृक्षके आश्रयमें रहनेवाले एक बिलाव और चूहेके संवादरूप एक प्रचीन कथानकका दृष्टान्त दिया करते हैं ।। १८ ।।

किसी महान्‌ वनमें एक विशाल बरगदका वृक्ष था, जो लतासमूहोंसे आच्छादित तथा भाँति-भाँतिके पक्षियोंसे सुशोभित था ।। १९ ।।

वह अपनी मोटी-मोटी डालियोंसे हरा-भरा होनेके कारण मेघके समान दिखायी देता था। उसकी छाया शीतल थी। वह मनोरम वृक्ष वनके समीप होनेके कारण बहुत-से सर्पों तथा पशुओंका आश्रय बना हुआ था ।। २० ||

उसीकी जड़मे सौ दरवाजोंका बिल बनाकर पलित नामक एक परम बुद्धिमान्‌ चूहा निवास करता था | २१ ।।

उसी बरगदकी डालीपर पहले लोमश नामका एक बिलाव भी बड़े सुखसे रहता था। पक्षियोंका समूह ही उसका भोजन था ।। २२ ।।

उसी वनमें एक चाण्डाल भी घर बनाकर रहता था। वह प्रतिदिन सायंकाल सूर्यास्त हो जानेपर वहाँ आकर जाल फैला देता और उसकी ताँतकी डोरियोंको यथास्थान लगा घर जाकर मौजसे सोता था; फिर सबेरा होनेपर वहाँ आया करता था ।। २३-२४ ।।

रातको उस जालनमें प्रतिदिन नाना प्रकारके पशु फँस जाते थे (उन्हींको लेनेके लिये वह सबेरे आता था)। एक दिन अपनी असावधानीके कारण पूर्वोक्त बिलाव भी उस जालमें फँस गया ।। २५ |।

उस महान्‌ शक्तिशाली और नित्य आततायी शत्रुके फँस जानेपर जब पलितको यह समाचार मालूम हुआ, तब वह उस समय बिलसे बाहर निकलकर सब ओर निर्भय विचरने लगा ।। २६ |।

उस वनमें विश्वस्त होकर विचरते तथा आहारकी खोज करते हुए उस चूहेने बहुत देरके बाद वह माँस देखा, जो जालपर बिखेरा गया था। चूहा उस जालपर चढ़कर उस मांसको खाने लगा ।। २७-२८ ।।

जालके ऊपर मांस खानेमें लगा हुआ वह चूहा अपने शत्रुके ऊपर मन-ही-मन हँस रहा था। इतनेहीमें कभी उसकी दृष्टि दूसरी ओर घूम गयी ।। २९ ।।

फिर तो उसने एक दूसरे भयंकर शत्रुको वहाँ आया हुआ देखा, जो सरकण्डेके फूलके समान भूरे रंगका था। वह धरतीमें विवर बनाकर उसके भीतर सोया करता था ।। ३० ।॥।

वह जातिका न्यौला था। उसकी आँखें ताँबेके समान दिखायी देती थीं। वह चपल नेवला हरिणके नामसे प्रसिद्ध था और उसी चूहेकी गन्ध पाकर बड़ी उतावलीके साथ वहाँ आ पहुँचा था ।। ३१ ।।

इधर तो वह नेवला अपना आहार ग्रहण करनेके लिये जीभ लपलपाता हुआ ऊपर मुँह किये पृथ्वीपर खड़ा था और दूसरी ओर बरगदकी शाखापर बैठा हुआ दूसरा ही शत्रु दिखायी दिया, जो वृक्षके खोंखलेमें निवास करता था। वह चन्द्रक नामसे प्रसिद्ध उल्लू था। उसकी चोंच बड़ी तीखी थी। वह रातमें विचरनेवाला पक्षी था || ३२½।।

न्यौले और उल्लू--दोनोंका लक्ष्य बने हुए उस चूहेको बड़ा भय हुआ। अब उसे इस प्रकार चिन्ता होने लगी-- ।।

“अहो! इस कष्टदायिनी विपत्तिमें मृत्यु निकट आकर खड़ी है। चारों ओरसे भय उत्पन्न हो गया है। ऐसी अवस्थामें अपना हित चाहनेवाले प्राणीको किस उपायका अवलम्बन करना चाहिये?” ।। ३४½ ।।

इस प्रकार सब ओरसे उसका मार्ग अवरुद्ध हो गया था। सर्वत्र उसे भय-ही-भय दिखायी देता था। उस भयसे वह संतप्त हो उठा। इसके बाद उसने पुनः श्रेष्ठ बुद्धिका आश्रय ले सोचना आरम्भ किया-- || ३५½।।

“आपत्तिमें पड़कर विनाशके समीप पहुँचे हुए प्राणियोंको भी अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये प्रयत्न तो करना ही चाहिये। आज सब ओरसे प्राणोंका संशय उपस्थित है; अतः यह मुझपर बड़ी भारी आपत्ति आ गयी है ।| ३६½ ।।

“यदि मैं पृथ्वीपर उतरकर भागता हूँ तो सहसा नेवला मुझे पकड़कर खा जायगा। यदि यहीं ठहर जाता हूँ तो उल्लू मुझे चोंचसे मार डालेगा और यदि जाल काटकर भीतर घुसता हूँ तो बिलाव जीवित नहीं छोड़ेगा || ३७½।।

“तथापि मुझ-जैसे बुद्धिमानूको घबराना नहीं चाहिये। अतः जहाँतक युक्ति काम देगी, परस्पर सहयोगका आदान-प्रदान करके मैं जीवन-रक्षाके लिये प्रयत्न करूँगा ।। ३८½ ।।

“बुद्धिमान, विद्वान्‌ और नीतिशास्त्रमें निपुण पुरुष भारी और भयंकर विपत्तिमें पड़नेपर भी उसमें डूब नहीं जाता है--उससे छूटनेकी चेष्टा करता है || ३९-४० ।।

“मैं इस समय इस बिलावका सहारा लेनेके सिवा, अपने लिये दूसरा कोई मार्ग नहीं देखता। यद्यपि यह मेरा कट्टर शत्रु है, तथापि इस समय स्वयं ही भारी संकटमें पड़ा हुआ है। मेरे द्वारा इसका भी बड़ा भारी काम निकल सकता है ।। ४१ ।।

“इधर, मैं भी जीवनकी रक्षा चाहता हूँ, तीन-तीन शत्रु मुझपर घात लगाये बैठे हैं; अतः क्यों न आज मैं अपने शत्रु इस बिलावका ही आश्रय लूँ? || ४२ ।।

“आज नीतिशास्त्रका सहारा लेकर इसके हितका वर्णन करूँगा जिससे बुद्धिके द्वारा इस शत्रुसमुदायको धोखा देकर बच जाऊँगा ।। ४३ ।।

“इसमें संदेह नहीं कि बिलाव मेरा महान्‌ दुश्मन है, तथापि इस समय महान्‌ संकटमें है। यदि सम्भव हो तो इस मूर्खको संगतिके द्वारा स्वार्थ सिद्ध करनेकी बातपर राजी करूँ ।। ४४ ।।

“हो सकता है कि विपत्तिमें पड़ा होनेके कारण यह मेरे साथ संधि कर ले। आचार्योंका कथन है कि संकट आ पड़नेपर जीवनकी रक्षा चाहनेवाले बलवान्‌ पुरुषको भी अपने निकटवर्ती शत्रुसे मेल कर लेना चाहिये || ४५½ ।।

“विद्वान्‌ शत्रु भी अच्छा होता है किंतु मूर्ख मित्र भी अच्छा नहीं है। मेरा जीवन तो आज मेरे शत्रु बिलावके ही अधीन है || ४६½ ।।

“अच्छा, अब मैं इसे आत्मरक्षाके लिये एक मुक्ति बता रहा हूँ। सम्भव है, यह शत्रु इस समय मेरी संगतिसे विद्वान हो जाय--विवेकसे काम ले” || ४७½ ।।

इस प्रकार चूहेने शत्रुकी चेष्टापर विचार किया। वह अर्थसिद्धिके उपायको यथार्थरूपसे जाननेवाला तथा संधि और विग्रहके अवसरको समझनेवाला था। उसने बिलावको सान्त्वना देते हुए मधुर वाणीमें कहा-- ।। ४८-४९ ।।

'भैया बिलाव! मैं तुम्हारे प्रति मैत्रीका भाव रखकर बातचीत कर रहा हूँ। तुम अभी जीवित तो हो न? मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा जीवन सुरक्षित रहे; क्योंकि इसमें मेरी और तुम्हारी दोनोंकी एक-सी भलाई है ।। ५० ।।

सौम्य! तुम्हें डरना नहीं चाहिये। तुम आनन्दपूर्वक जीवित रह सकोगे। यदि मुझे मार डालनेकी इच्छा त्याग दो तो मैं इस संकटसे तुम्हारा उद्धार कर दूँगा || ५१ ।।

“एक उपाय है जिससे तुम इस संकटसे छुटकारा पा सकते हो और मैं भी कल्याणका भागी हो सकता हूँ। यद्यपि वह उपाय मुझे दुष्कर प्रतीत होता है ।। ५२ ।।

“मैंने अपनी बुद्धिसे अच्छी तरह सोच-विचार करके अपने और तुम्हारे लिये एक उपाय ढूँढ निकाला है, जिससे हम दोनोंकी समानरूपसे भलाई होगी ।। ५३ ।।

'मार्जार! देखो, ये नेवला और उल्लू दोनों पापबुद्धिसे यहाँ ठहरे हुए हैं। मेरी ओर घात लगाये बैठे हैं। जबतक वे मुझपर आक्रमण नहीं करते, तभीतक मैं कुशलसे हूँ ।। ५४ ।।

“यह चंचल नेत्रोंवाला पापी उल्लू वृक्षकी डालीपर बैठकर “हू हू” करता मेरी ही ओर घूर रहा है। उससे मुझे बड़ा डर लगता है ।। ५५ ।।

'साधु पुरुषोंमें तो सात पग साथ-साथ चलनेसे ही मित्रता हो जाती है। हम और तुम तो यहाँ सदासे ही साथ रहते हैं; अतः तुम मेरे विद्वान्‌ मित्र हो। मैं इतने दिन साथ रहनेका अपना मित्रोचित धर्म अवश्य निभाऊँगा, इसलिये अब तुम्हें कोई भय नहीं है || ५६ ।।

'मार्जार! तुम मेरी सहायताके बिना अपना यह बन्धन नहीं काट सकते। यदि तुम मेरी हिंसा न करो तो मैं तुम्हारे ये सारे बन्धन काट डालूँगा ।। ५७ ।।

“तुम इस पेड़के ऊपर रहते हो और मैं इसकी जड़में रहता हूँ। इस प्रकार हम दोनों चिरकालसे इस वृक्षका आश्रय लेकर रहते हैं, यह बात तो तुम्हें ज्ञात ही है ।। ५८।।

“जिसपर कोई भरोसा नहीं करता तथा जो दूसरे किसीपर स्वयं भी भरोसा नहीं करता, उन दोनोंकी धीर पुरुष कोई प्रशंसा नहीं करते हैं; क्योंकि उनके मनमें सदा उद्वेग भरा रहता है ।। ५९ ||

“अतः हमलोगोंमें सदा प्रेम बढ़े तथा नित्य प्रति हमारी संगति बनी रहे। जब कार्यका समय बीत जाता है, उसके बाद विद्वान्‌ पुरुष उसकी प्रशंसा नहीं करते हैं || ६० ।।

“बिलाव! हम दोनोंके प्रयोजनका जो यह संयोग आ बना है, उसे यथार्थरूपसे सुनो। मैं तुम्हारे जीवनकी रक्षा चाहता हूँ और तुम मेरे जीवनकी रक्षा चाहते हो || ६१ ।।

“कोई पुरुष जब लकड़ीके सहारे किसी गहरी एवं विशाल नदीको पार करता है, तब उस लकड़ीको भी किनारे लगा देता है तथा वह लकड़ी भी उसे तारनेमें सहायक होती है ।। ६२ ।।

“इसी प्रकार हम दोनोंका यह संयोग चिरस्थायी होगा। मैं तुम्हें विपत्तिसे पार कर दूँगा और तुम मुझे आपत्तिसे बचा लोगे” || ६३ ।।

इस प्रकार पलित दोनोंके लिये हितकर, युक्तियुक्त और मानने योग्य बात कहकर उत्तर मिलनेके अवसरकी प्रतीक्षा करता हुआ बिलावकी ओर देखने लगा ।। ६४ ।।

अपने उस शत्रुका यह युक्तियुक्त और मान लेने योग्य सुन्दर भाषण सुनकर बुद्धिमान्‌ बिलाव कुछ बोलनेको उद्यत हुआ || ६५ ।।

उसकी बुद्धि अच्छी थी। वह बोलनेकी कलामें कुशल था। पहले तो उसने चूहेकी बातको मन-ही-मन दुहराया; फिर अपनी दशापर दृष्टिपात करके उसने सामनीतिसे ही उस चूहेकी भूरि-भूरि प्रशंसा की || ६६ ।।

तदनन्तर जिसके आगेके दाँत बड़े तीखे थे और दोनों नेत्र नीलमके समान चमक रहे थे, उस लोमश नामक बिलावने चूहेकी ओर किंचिद्‌ दृष्टिपात करके इस प्रकार कहा –।।६७।।

सौम्य! मैं तुम्हारा अभिनन्दन करता हूँ। तुम्हारा कल्याण हो, जो कि तुम मुझे जीवन प्रदान करना चाहते हो। यदि हमारे कल्याणका उपाय जानते हो तो इसे अवश्य करो, कोई अन्यथा विचार मनमें न लाओ ।। ६८ ।।

“मैं भारी विपत्तिमें फँसा हूँ और तुम भी महान्‌ संकटमें पड़े हुए हो। इस प्रकार आपत्तिमें पड़े हुए हम दोनोंको संधि कर लेनी चाहिये। इसमें विलम्ब न हो ।। ६९ ।।

'प्रभो! समय आनेपर तुम्हारे अभीष्टकी सिद्धि करनेवाला जो भी कार्य होगा, उसे अवश्य करूँगा। इस संकटसे मेरे मुक्त हो जानेपर तुम्हारा किया हुआ उपकार नष्ट नहीं होगा। मैं इसका बदला अवश्य चुकाऊँगा || ७० ।।

“इस समय मेरा मान भंग हो चुका है। मैं तुम्हारा भक्त और शिष्य हो गया हूँ। तुम्हारे हितका साधन करूँगा और सदा तुम्हारी आज्ञाके अधीन रहूँगा। मैं सब प्रकारसे तुम्हारी शरणमें आ गया हूँ ।। ७१ ।।

बिलावके ऐसा कहनेपर अपने प्रयोजनको समझनेवाले पलितने वशमें आये हुए उस बिलावसे यह अभिप्रायपूर्ण हितकर बात कही-- ।। ७२ ।।

'भैया बिलाव! आपने जो उदारतापूर्ण वचन कहा है, यह आप-जैसे बुद्धिमानके लिये आश्चर्यकी बात नहीं है। मैंने दोनोंके हितके लिये जो बात निर्धारित की है, वह मुझसे सुनो || ७३ |।

'भैया! इस नेवलेसे मुझे बड़ा डर लग रहा है। इसलिये मैं तुम्हारे पीछे इस जालमें प्रवेश कर जाऊँगा, परंतु दादा! तुम मुझे मार न डालना, बचा लेना; क्योंकि जीवित रहनेपर ही मैं तुम्हारी रक्षा करनेमें समर्थ हूँ ।।

“इधर यह नीच उल्लू भी मेरे प्राणका ग्राहक बना हुआ है। इससे भी तुम मुझे बचा लो। सखे! मैं तुमसे सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, मैं तुम्हारे बन्धन काट दूँगा" || ७५ ।।

चूहेकी यह युक्तियुक्त, सुसंगत और अभिप्रायपूर्ण बात सुनकर लोमशने उसकी ओर हर्षभरी दृष्टिसे देखा तथा स्वागतपूर्वक उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की || ७६ ।।

इस प्रकार पलितकी प्रशंसा एवं पूजा करके सौहार्दमें प्रतिष्ठित हुए धीरबुद्धि मार्जारने भलीभाँति सोच-विचारकर तुरंत ही प्रसन्नतापूर्वक कहा-- || ७७ ।।

'भैया! शीघ्र आओ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम तो हमारे प्राणोंके समान प्रिय सखा हो। विद्वन! इस समय मुझे प्रायः तुम्हारी ही कृपासे जीवन प्राप्त होगा || ७८ ।।

“सखे! इस दशामें पड़े हुए मुझ सेवकके द्वारा तुम्हारा जो-जो कार्य किया जा सकता हो, उसके लिये मुझे आज्ञा दो, मैं अवश्य करूँगा। हम दोनोंमें संधि रहनी चाहिये ।। ७९ ।।

“इस संकटसे मुक्त होनेपर मैं अपने सभी मित्रों और बन्धु-बान्धवोंके साथ तुम्हारे सभी प्रिय एवं हितकर कार्य करता रहूँगा || ८० ।।

'सौम्य! इस विपत्तिसे छुटकारा पानेपर मैं भी तुम्हारे हृदयमें प्रीति उत्पन्न करूँगा। तुम मेरा प्रिय करनेवाले हो, अतः तुम्हारा भलीभाँति आदर-सत्कार करूँगा ।। ८१ ।।

कोई किसीके उपकारका कितना ही अधिक बदला क्‍यों न चुका दे; वह प्रथम उपकार करनेवालेके समान नहीं शोभा पाता है; क्योंकि एक तो किसीके उपकार करनेपर बदलेमें उसका उपकार करता है; परंतु दूसरेने बिना किसी कारणके ही उसकी भलाई की है! | ८२ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इस प्रकार चूहेने बिलावसे अपने मतलबकी बात स्वीकार कराकर और स्वयं भी उसका विश्वास करके उस अपराधी शत्रुकी भी गोदमें जा बैठा || ८३ ।।

बिलावने जब उस दिद्वान्‌ चूहेको पूर्वोक्तरूपसे आश्वासन दिया, तब वह माता-पिताकी गोदके समान उस बिलावकी छातीपर निर्भय होकर सो गया ।। ८४ ।।

चूहेको बिलावके अंगोंमें छिपा हुआ देख नेवला और उल्लू दोनों निराश हो गये ।। ८५ ।।

उन दोनोंको बड़े जोरसे औंघाई आ रही थी और वे अत्यन्त भयभीत भी हो गये थे। उस समय चूहे और बिलावका वह विशेष प्रेम देखकर नेवला और उल्लू दोनोंको बड़ा आश्चर्य हुआ || ८६ |।

यद्यपि वे बड़े बलवान, बुद्धिमान, सुन्दर बर्ताव करनेवाले, कार्यकुशल तथा निकटवर्ती थे तो भी उस संधिकी नीतिसे काम लेनेके कारण उन चूहे और बिलावपर वे बलपूर्वक आक्रमण करनेमें समर्थ न हो सके ।। ८७ ।।

अपने-अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिये चूहे और बिलावने आपसमें संधि कर ली, यह देखकर उल्लू और नेवला देनों तत्काल अपने निवासस्थानको लौट गये ।। ८८ ।।

नरेश्वर! चूहा देश-कालकी गतिको अच्छी तरह जानता था; इसलिये वह बिलावके अंगोंमें ही छिपा रहकर चाण्डालके आनेके समयकी प्रतीक्षा करता हुआ धीरे-धीरे जालको काटने लगा ।। ८९ |।

बिलाव उस बन्धनसे तंग आ गया था। उसने देखा, चूहा जाल तो काट रहा है; किंतु इस कार्यमें फुर्ती नहीं दिखा रहा है, तब वह उतावला होकर बन्धन काटनेमें जल्दी न करनेवाले पलित नामक चूहेको उकसाता हुआ बोला-- || ९०-९१ ||

सौम्य! तुम जल्दी क्‍यों नहीं करते हो? क्या तुम्हारा काम बन गया, इसलिये मेरी अवहेलना करते हो? शत्रुसूदन! देखो, अब चाण्डाल आ रहा होगा। उसके आनेसे पहले ही मेरे बन्धनोंको काट दो” ।। ९२ ।।

उतावले हुए बिलावके ऐसा कहनेपर बुद्धिमान्‌ पलितने अपवित्र विचार रखनेवाले उस मार्जारसे अपने लिये हितकर और लाभदायक बात कही-- ।। ९३ ||

सौम्य चुप रहो, तुम्हें जल्दी नहीं करनी चाहिये, घबरानेकी कोई आवश्यकता नहीं है। मैं समयको खूब पहचानता हूँ, ठीक अवसर आनेपर मैं कभी नहीं चूकूँगा ।।

“बेमौके शुरू किया हुआ काम करनेवालेके लिये लाभदायक नहीं होता है और वही उपयुक्त समयपर आरम्भ किया जाय तो महान्‌ अर्थका साधक हो जाता है ।। ९५ |।

“यदि असमयमें ही तुम छूट गये तो मुझे तुम्हींसे भय प्राप्त हो सकता है, इसलिये मेरे मित्र! थोड़ी देर और प्रतीक्षा करो; क्यों इतनी जल्दी मचा रहे हो? ।। ९६ ।।

“जब मैं देख लूँगा कि चाण्डाल हाथमें हथियार लिये आ रहा है, तब तुम्हारे ऊपर साधारण-सा भय उपस्थित होनेपर मैं शीघ्र ही तुम्हारे बन्धन काट डालूँगा ।। ९७ ।।

“उस समय छूटते ही तुम पहले पेड़पर ही चढ़ोगे। अपने जीवनकी रक्षाके सिवा दूसरा कोई कार्य तुम्हें आवश्यक नहीं प्रतीत होगा ।। ९८ ।।

लोमशजी! जब आप त्रास और भयसे आक्रान्त हो भाग खड़े होंगे, उस समय मैं बिलमें घुस जाऊँगा और आप वृक्षकी शाखापर जा बैठेंगे” || ९९ ।।

चूहेके ऐसा कहनेपर वाणीके मर्मको समझनेवाला और अपने जीवनकी रक्षा चाहनेवाला परम बुद्धिमान्‌ बिलाव अपने हितकी बात बताता हुआ बोला || १०० ||

लोमशको अपना काम बनानेकी जल्दी लगी हुई थी; अतः वह भलीभाँति विनयपूर्ण बर्ताव करता हुआ विलम्ब करनेवाले चूहेसे इस प्रकार कहने लगा-- ।।

श्रेष्ठ पुरुष मित्रोंके कार्य बड़े प्रेम और प्रसन्नताके साथ किया करते हैं; तुम्हारी तरह नहीं। जैसे मैंने तुरंत ही तुम्हें संकटसे छुड़ा लिया था || १०२ ।।

“इसी प्रकार तुम्हें भी जल्दी ही मेरे हितका कार्य करना चाहिये। महाप्राज्ञ! तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे हम दोनोंकी रक्षा हो सके || १०३ ।।

अथवा यदि पहलेके वैरका स्मरण करके तुम यहाँ व्यर्थ समय काटना चाहते हो तो पापी! देख लेना, इसका क्‍या फल होगा? निश्चय ही तुम्हारी आयु क्षीण हो चली है || १०४ ।।

“यदि मैंने अज्ञानवश पहले कभी तुम्हारा कोई अपराध किया हो तो तुम्हें उसको मनमें नहीं लाना चाहिये, मैं क्षमा माँगता हूँ। तुम मुझपर प्रसन्न हो जाओ ।। १०५ ।।

चूहा बड़ा विद्वान्‌ तथा नीतिशास्त्रको जाननेवाली बुद्धिसे सम्पन्न था। उसने उस समय इस प्रकार कहनेवाले बिलावसे यह उत्तम बात कही-- ।। १०६ ।।

'भैया बिलाव! तुमने अपनी स्वार्थसिद्धिपर ही ध्यान रखकर जो कुछ कहा है, वह सब मैंने सुन लिया तथा मैंने भी अपने प्रयोजनको सामने रखते हुए जो कुछ कहा है, उसे तुम भी अच्छी तरह समझते हो || १०७ ।।

“जो किसी डरे हुए प्राणीद्वारा मित्र बनाया गया हो तथा जो स्वयं भी भयभीत होकर ही उसका मित्र बना हो--इन दोनों प्रकारके मित्रोंकी ही रक्षा होनी चाहिये और जैसे बाजीगर सर्पके मुखसे हाथ बचाकर ही उसे खेलाता है, उसी प्रकार अपनी रक्षा करते हुए ही उन्हें एक दूसरेका कार्य करना चाहिये || १०८ ।।

'जो व्यक्ति बलवानसे संधि करके अपनी रक्षाका ध्यान नहीं रखता, उसका वह मेलजोल खाये हुए अपथ्य अन्नके समान हितकर नहीं होता ।। १०९ ।।

“न तो कोई किसीका मित्र है और न कोई किसीका शत्रु स्वार्थकोी ही लेकर मित्र और शत्रु एक दूसरेसे बँधे हुए हैं। जैसे पालतू हाथियोंद्वारा जंगली हाथी बाँध लिये जाते हैं, उसी प्रकार अर्थोद्वारा ही अर्थ बँधते हैं | ११० ३ ।।

काम पूरा हो जानेपर कोई भी उसके करनेवालेको नहीं देखता--उसके हितपर नहीं ध्यान देता; अतः सभी कार्योंको अधूरे ही रखना चाहिये || १११ $ ।।

“जब चाण्डाल आ जायगा, उस समय तुम उसीके भयसे पीड़ित हो भागने लग जाओगे; फिर मुझे पकड़ न सकोगे || ११२३ ।।

“मैंने बहुतसे तंतु काट डाले हैं, केवल एक ही डोरी बाकी रख छोड़ी है। उसे भी मैं शीघ्र ही काट डालूँगा; अत: लोमश! तुम शान्त रहो, घबराओ न' ।।

इस प्रकार संकटमें पड़े हुए उन दोनोंके वार्तालाप करते-करते ही वह रात बीत गयी। अब लोमशके मनमें बड़ा भारी भय समा गया ।। ११४ ३ ||

तदनन्तर प्रातःकाल परिघ नामक चाण्डाल हाथमें हथियार लेकर आता दिखायी दिया। उसकी आकृति बड़ी विकराल थी। शरीरका रंग काला और पीला था। उसका नितम्ब भाग बहुत स्थूल था। कितने ही अंग विकृत हो गये थे। वह स्वभावका रूखा जान पड़ता था। कुत्तोंसे घिरा हुआ वह मलिनवेषधारी चाण्डाल बड़ा भयंकर दिखायी दे रहा था, उसका मुँह विशाल था और कान दीवारमें गड़ी हुई खूँटियोंके समान जान पड़ते थे ।।

यमदूतके समान चाण्डालको आते देख बिलावका चित्त भयसे व्याकुल हो गया। उसने डरते-डरते यही कहा--“भैया चूहा! अब क्या करोगे?” ।। ११७३६ ।।

एक ओर वे दोनों भयभीत थे। दूसरी ओर भयानक प्राणियोंसे घिरा हुआ चाण्डाल आ रहा था। उन सबको देखकर नेवला और उल्लू क्षणभरमें ही निराश हो गये || ११८ ३ ।।

वे दोनों बलवान्‌ और बुद्धिमान्‌ तो थे ही। चूहेके घातमें पासहीमें बैठे हुए थे; परंतु अच्छी नीतिसे संगठित हो जानेके कारण चूहे और बिलावपर वे बलपूर्वक आक्रमण न कर सके ।। ११९३ ||

चूहे और बिलावको कार्यवश संधिसूत्रमें बँधे देख उल्लू और नेवला दोनों अपने-अपने निवासस्थानको चले गये ।। १२०६३ ।।

तदनन्तर चूहेने बिलावका बन्धन काट दिया। जालसे छूटते ही बिलाव उसी पेड़पर चढ़ गया। उस घोर शत्रु तथा उस भारी घबराहटसे छुटकारा पाकर पलित अपने बिलमें घुस गया और लोमश वृक्षकी शाखापर जा बैठा || १२१-१२२६ ।।

भरतश्रेष्ठ] चाण्डालने उस जालको लेकर उसे सब ओरसे उलट-पलटकर देखा और निराश होकर क्षणभरमें उस स्थानसे हट गया और अन्तमें अपने घरको चला गया ।। १२३-१२४ ।।

उस भारी भयसे मुक्त हो दुर्लभ जीवन पाकर वृक्षकी शाखापर बैठे हुए लोमशने बिलके भीतर बैठे हुए चूहेसे कहा-- || १२५ ।।

भैया! तुम मुझसे कोई बातचीत किये बिना ही इस प्रकार सहसा बिलमें क्‍यों घुस गये? मैं तो तुम्हारा बड़ा ही कृतज्ञ हूँ। मैंने तुम्हारे प्राणोंकी रक्षा करके तुम्हारा भी बड़ा भारी काम किया है। तुम्हें मेरी ओरसे कुछ शंका तो नहीं है? ।। १२६ ।।

मित्र! तुमने विपत्तिके समय मेरा विश्वास किया और मुझे जीवनदान दिया। अब तो मैत्रीके सुखका उपभोग करनेका समय है, ऐसे समय तुम मेरे पास क्‍यों नहीं आते हो? ।। १२७ ।।

“जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य पहले बहुत-से मित्र बनाकर पीछे उस मित्रभावमें स्थिर नहीं रहता है, वह कष्टदायिनी विपत्तिमें पड़नेपर उन मित्रोंको नहीं पाता है अर्थात्‌ उनसे उसको सहायता नहीं मिलती ।। १२८ ।।

“सखे! मित्र! तुमने अपनी शक्तिके अनुसार मेरा पूरा सत्कार किया है और मैं भी तुम्हारा मित्र हो गया हूँ; अतः तुम्हें मेरे साथ रहकर इस मित्रताका सुख भोगना चाहिये ।। १२९ ।।

“मेरे जो भी मित्र, सम्बन्धी और बन्धु-बान्धव हैं, वे सब तुम्हारी उसी प्रकार सेवा-पूजा करेंगे, जैसे शिष्य अपने श्रद्धेय गुरुकी करते हैं || १३० ।।

“मैं भी मित्रों और बन्धु-बान्धवोंसहित तुम्हारा सदा ही आदर-सत्कार करूँगा। संसारमें ऐसा कौन पुरुष होगा, जो अपने जीवनदाताकी पूजा न करे? ।। १३१ ।।

“तुम मेरे शरीरके और मेरे घरके भी स्वामी हो जाओ। मेरी जो कुछ भी सम्पत्ति है, वह सारी-की-सारी तुम्हारी है। तुम उसके शासक और व्यवस्थापक बनो || १३२ ।।

“विद्वन! तुम मेरे मन्‍्त्री हो जाओ और पिताकी भाँति मुझे कर्तव्यका उपदेश दो। मैं अपने जीवनकी शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हें हमलोगोंकी ओरसे कोई भय नहीं है ।। १३३ ।।

“तुम साक्षात्‌ शुक्राचार्यके समान बुद्धिमान्‌ हो। तुममें मन्‍्त्रणाका बल है। आज तुमने मुझे जीवनदान देकर अपने मन्त्रणाबलसे हम सब लोगोंके हृदयपर अधिकार प्राप्त कर लिया है” ॥| १३४ ।।

बिलावकी ऐसी परम शान्तिपूर्ण बातें सुनकर उत्तम मन्त्रणाके ज्ञाता चूहेने मधुर वाणीमें अपने लिये हितकर वचन कहा-- || १३५ ।।

“लोमश! तुमने जो कुछ कहा, वह सब मैंने ध्यान देकर सुना। अब मेरी बुद्धिमें जो विचार स्फुरित हो रहा है उसे बतलाता हूँ, अतः मेरे इस कथनको भी सुन लो ।। १३६ 

“मित्रोंको जानना चाहिये, शत्रुओंको भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिये--इस जगतमें मित्र और शत्रुकी यह पहचान अत्यन्त सूक्ष्म तथा विज्ञजनोंको अभिमत है || १३७

“अवसर आनेपर कितने ही मित्र शत्रुरूप हो जाते हैं और कितने ही शत्रु मित्र बन जाते हैं। परस्पर संधि कर लेनेके पश्चात्‌ जब वे काम और क्रोधके अधीन हो जाते हैं, तब यह समझना असम्भव हो जाता है कि वे मित्रभावसे युक्त हैं या शत्रुभावसे? ।। १३८ ।।

“न कभी कोई शत्रु होता है और न मित्र होता है। आवश्यक शक्तिके सम्बन्धसे लोग एक दूसरेके मित्र और शत्रु हुआ करते हैं | १३९ ।।

“जो जिसके जीते-जी अपना स्वार्थ सधता देखता है और जिसके मर जानेपर अपनी हानि मानता है, वह तबतक उसका मित्र बना रहता है, जबतक कि इस स्थितिमें कोई उलट-फेर नहीं होता || १४० ।।

“'मैत्री कोई स्थिर वस्तु नहीं है और शत्रुता भी सदा स्थिर रहनेवाली चीज नहीं है। स्वार्थके सम्बन्धसे मित्र और शत्रु होते रहते हैं ।। १४१ ।।

“कभी-कभी समयके फेरसे मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र बन जाता है; क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान्‌ होता है || १४२ ।।

“जो मनुष्य स्वार्थके सम्बन्धका विचार किये बिना ही मित्रोंपर केवल विश्वास और शत्रुओंपर केवल अविश्वास करता जाता है तथा जो शत्रु हो या मित्र, जो सबके प्रति प्रेमभाव ही स्थापित करने लगता है, उसकी बुद्धि भी चंचल ही समझनी चाहिये || १४३ ई ||

जो विश्वासपात्र न हो, उसपर कभी विश्वास न करे और जो विश्वासपात्र हो, उसपर भी अधिक विश्वास न करे; क्योंकि विश्वाससे उत्पन्न हुआ भय मनुष्यका मूलोच्छेद कर डालता है ।। १४४६ ||

“माता-पिता, पुत्र, मामा, भांजे, सम्बन्धी तथा बन्धु-बान्धव-इन सबमें स्वार्थके सम्बन्धसे ही स्नेह होता है ।।

“अपना प्यारा पुत्र भी यदि पतित हो जाता है तो माँ-बाप उसे त्याग देते हैं और सब लोग सदा अपनी ही रक्षा करना चाहते हैं। अतः देख लो, इस जगतमें स्वार्थ ही सार है! || १४६६ ||

“बुद्धिमानू लोमश! जो तुम आज जालके बन्धनसे छूटनेके बाद ही कृतज्ञतावश मुझ अपने शत्रुकोी सुख पहुँचानेका असंदिग्ध उपाय दढूँढ़ने लगे हो, इसका क्या कारण है? जहाँतक उपकारका बदला चुकानेका प्रश्न है, वहाँतक तो हमारी-तुम्हारी समान स्थिति है। यदि मैंने तुम्हें संकटसे छुड़ाया है, तो तुमने भी तो मुझे वैसी ही विपत्तिसे बचाया है; फिर मैं तो कुछ करता नहीं, तुम्हीं क्यों उपकारका बदला देनेके लिये उतावले हो उठे हो? ।। १४७ *

“तुम इसी स्थानपर बरगदसे उतरे थे और पहलेसे ही यहाँ जाल बिछा हुआ था; परंतु तुमने चपलताके कारण उधर ध्यान नहीं दिया और फँस गये ।। १४८ ६ ।।

“चपल प्राणी जब अपने ही लिये कल्याणकारी नहीं होता तो वह दूसरेकी भलाई क्‍या करेगा? अतः यह निश्चित है कि चपल पुरुष सब काम चौपट कर देता है ।। १४९६

“इसके सिवा तुम जो यह मीठी-मीठी बात कह रहे हो कि “आज तुम मुझे बड़े प्रिय लगते हो” इसका भी कारण है, मेरे मित्र! वह सब मैं विस्तारके साथ बताता हूँ, सुनो। मनुष्य कारणसे ही प्रेमपात्र और कारणसे ही द्वेषका पात्र बनता है | १५०-१५१ 

“यह जीव-जगत्‌ स्वार्थका ही साथी है। कोई किसीका प्रिय नहीं है। दो सगे भाइयों तथा पति और पत्नीमें भी जो परस्पर प्रेम होता है, वह भी स्वार्थवश ही है। इस जगत्‌में किसीके भी प्रेमको मैं निष्कारण (स्वार्थरहित) नहीं समझता ।। १५२ $ ।।

“कभी-कभी किसी स्वार्थको लेकर भाई भी कुपित हो जाते हैं अथवा पत्नी भी रूठ जाती है। यद्यपि वे स्वभावतः एक-दूसरेसे जैसा प्रेम करते हैं, ऐसा प्रेम दूसरे लोग नहीं करते हैं ।। १५३ ३ ।।

“कोई दान देनेसे प्रिय होता है, कोई प्रिय वचन बोलनेसे प्रीतिपात्र बनता है और कोई कार्यसिद्धिके लिये मन्त्र, होम एवं जप करनेसे प्रेमका भाजन बन जाता है || १५४ | ।।

“किसी कारण (स्वार्थ) को लेकर उत्पन्न होनेवाली प्रीति जबतक वह कारण रहता है, तबतक बनी रहती है। उस कारणका स्थान नष्ट हो जानेपर उसको लेकर की हुई प्रीति भी स्वतः निवृत्त हो जाती है | १५५ ३।

“अब मेरे शरीरको खा जानेके सिवा दूसरा कौन-सा ऐसा कारण रह गया है, जिससे मैं यह मान लूँ कि वास्तवमें तुम्हारा मुझपर प्रेम है। इस समय जो तुम्हारा स्वार्थ है, उसे मैं अच्छी तरह समझता हूँ ।। १५६ ३।।

“समय कारणके स्वरूपको बदल देता है; और स्वार्थ उस समयका अनुसरण करता रहता है। विद्वान्‌ पुरुष उस स्वार्थको समझता है और साधारण लोग विद्वान्‌ पुरुषके ही पीछे चलते हैं। तात्पर्य यह है कि मैं विद्वान्‌ हूँ; इसलिये तुम्हारे स्वार्थकोी अच्छी तरह समझता हूँ; अतः तुम्हें मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये || १५७-१५८ ।।

“तुम शक्तिशाली हो तो भी जो बेसमय मुझपर इतना स्नेह दिखा रहे हो, इसका यह स्वार्थ ही कारण है; अतः मैं भी अपने स्वार्थसे विचलित नहीं हो सकता। संधि और विग्रहके विषयमें मेरा विचार सुनिश्चित है ।। १५९ ।।

“मित्रता और शत्रुताके रूप तो बादलोंके समान क्षण-क्षणमें बदलते रहते हैं। आज ही तुम मेरे शत्रु होकर फिर आज ही मेरे मित्र हो सकते हो और उसके बाद आज ही पुनः शत्रु भी बन सकते हो। देखो, यह स्वार्थका सम्बन्ध कितना चंचल है? ।। १६० ह ।।

“पहले जब उपयुक्त कारण था, तब हम दोनोंमें मैत्री हो गयी थी, किंतु कालने जिसे उपस्थित कर दिया था उस कारणके निवृत्त होनेके साथ ही वह मैत्री भी चली गयी ।। १६१ ई ||

“तुम जातिसे ही मेरे शत्रु हो, किंतु विशेष प्रयोजनसे मित्र बन गये थे। वह प्रयोजन सिद्ध कर लेनेके पश्चात्‌ तुम्हारी प्रकृति फिर सहज शत्रुभावको प्राप्त हो गयी || १६२

“मैं इस प्रकार शुक्र आदि आचार्योंके बनाये हुए नीतिशास्त्रकी बातोंको ठीक-ठीक जानकर भी तुम्हारे लिये उस जालके भीतर कैसे प्रवेश कर सकता था? यह तुम्हीं मुझे बताओ || १६३ ३ ||

“तुम्हारे पराक्रमसे मैं प्राण-संकटसे मुक्त हुआ और मेरी शक्तिसे तुम। जब एक दूसरेपर अनुग्रह करनेका काम पूरा हो गया, तब फिर हमें परस्पर मिलनेकी आवश्यकता नहीं | १६४ ३ ||

सौम्य! अब तुम्हारा काम बन गया और मेरा प्रयोजन भी सिद्ध हो गया; अतः अब मुझे खा लेनेके सिवा मेरे द्वारा तुम्हारा दूसरा कोई प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं है ।। १६५ ई ||

“मैं अन्न हूँ और तुम मुझे खानेवाले हो। मैं दुर्बल हूँ और तुम बलवान हो। इस प्रकार मेरे और तुम्हारे बलमें कोई समानता नहीं है। दोनोंमें बहुत अन्तर है। अतः हम दोनोंमें संधि नहीं हो सकती ।। १६६३ ।।

“मैं तुम्हारा विचार जान गया हूँ, निश्चय ही तुम जालसे छूटनेके बादसे ही सहज उपाय तथा प्रयत्नद्वारा आहार ढूँढ़ रहे हो || १६७३ ।।

“आहारकी खोजके लिये ही निकलनेपर तुम इस जालमें फँसे थे और अब इससे छूटकर भूखसे पीड़ित हो रहे हो। निश्चय ही शास्त्रीय बुद्धिका सहारा लेकर अब तुम मुझे खा जाओगे। मैं जानता हूँ कि तुम भूखे हो और यह तुम्हारे भोजनका समय है; अतः तुम पुनः मुझसे संधि करके अपने लिये भोजनकी तलाश करते हो ।। १६८-१६९ $ ।।

“सखे! तुम जो बाल-बच्चोंके बीचमें बैठकर मुझपर संधिका भाव दिखा रहे हो तथा मेरी सेवा करनेका यत्न करते हो, वह सब मेरे योग्य नहीं है ।। १७० $।।

“तुम्हारे साथ मुझे देखकर तुम्हारी प्यारी पत्नी और पुत्र जो तुमसे बड़ा प्रेम रखते हैं, हर्षसे उललसित हो मुझे कैसे नहीं खा जायँगे? ।। १७१३ ।।

“अब मैं तुमसे नहीं मिलूँगा। हम दोनोंके मिलनका जो उद्देश्य था, वह पूरा हो गया। यदि तुम्हें मेरे शुभ कर्म (उपकार) का स्मरण है तो स्वयं स्वस्थ रहकर मेरे भी कल्याणका चिन्तन करो ।। १७२६ ।।

“जो अपना शत्रु हो, दुष्ट हो, कष्टमें पड़ा हुआ हो, भूखा हो और अपने लिये भोजनकी तलाश कर रहा हो, उसके सामने कोई भी बुद्धिमान्‌ (जो उसका भोज्य है)' कैसे जा सकता है || १७३३ ।।

“तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं चला जाऊँगा। मुझे दूरसे भी तुमसे डर लगता है। मेरा यह पलायन विश्वासपूर्वक हो रहा हो या प्रमादके कारण; इस समय यही मेरा कर्तव्य है। बलवानोंके निकट रहना दुर्बल प्राणीके लिये कभी अच्छा नहीं माना जाता ।।

“लोमश! अब मैं तुमसे कभी नहीं मिलूँगा। तुम लौट जाओ। यदि तुम समझते हो कि मैनें तुम्हारा कोई उपकार किया है तो तुम मेरे प्रति सदा मैत्रीभाव बनाये रखना ।। १७६

“जो बलवान्‌ और पापी हो, वह शान्तभावसे रहता हो तो भी मुझे सदा उससे डरना चाहिये। यदि तुम्हें मुझसे कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं करना है तो बताओ मैं तुम्हारा (इसके अतिरिक्त) कौन-सा कार्य करूँ? ।।

“मैं तुम्हें इच्छानुसार सब कुछ दे सकता हूँ; परंतु अपने आपको कभी नहीं दूँगा। अपनी रक्षा करनेके लिये तो संतति, राज्य, रतन और धन--सबका त्याग किया जा सकता है। अपना सर्वस्व त्यागकर भी स्वयं ही अपनी रक्षा करनी चाहिये || १७८ ३

हमने सुना है कि यदि प्राणी जीवित रहे तो वह शत्रुओं द्वारा अपने अधिकारमें किये हुए ऐश्वर्य, धन और रत्नोंको पुन: वापस ला सकता है। यह बात प्रत्यक्ष देखी भी गयी है ।। १७९६ ।।

“धन और रत्नोंकी भाँति अपने आपको शत्रुके हाथमें दे देना अभीष्ट नहीं है। धन और स्त्रीके द्वारा अर्थात्‌ उनका त्याग करके भी सर्वदा अपनी रक्षा करनी चाहिये || १८० 

“जो आत्मरक्षामें तत्पर हैं और भलीभाँति परीक्षापूर्वक निर्णय करके काम करते हैं, ऐसे पुरुषोंको अपने ही दोषसे उत्पन्न होनेवाली आपत्तियाँ नहीं प्राप्त होती हैं ।

'जो दुर्बल प्राणी अपने बलवान शत्रुओंको अच्छी तरह जानते हैं, उनकी शास्त्रके अर्थज्ञानद्वारा स्थिर हुई बुद्धि कभी विचलित नहीं होती” || १८२६ ।।

पलितने जब इस प्रकार स्पष्टरूपसे कड़ी फटकार सुनायी, तब बिलावने लज्जित होकर पुनः उस चूहेसे इस प्रकार कहा | १८३-१८४ ।।

लोमश बोला--भाई! मैं तुमसे सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, मित्रसे द्रोह करना तो बड़ी घृणित बात है। तुम जो सदा मेरे हितमें तत्पर रहते हो, इसे मैं तुम्हारी उत्तम बुद्धिका ही परिणाम समझता हूँ ।। १८५ ।।

श्रेष्ठ पुरुष! तुमने तो यथार्थरूपसे नीति-शास्त्रका सार ही बता दिया। मुझसे तुम्हारा विचार पूरा-पूरा मिलता है। मित्रवर! किंतु तुम मुझे गलत न समझो। मेरा भाव तुमसे विपरीत नहीं है ।। १८६ ।।

तुमने मुझे प्राणदान दिया है। इसीसे मुझपर तुम्हारे सौहार्दका प्रभाव पड़ा। मैं धर्मको जानता हूँ, गुणोंका मूल्य समझता हूँ, विशेषतः तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हूँ, मित्रवत्सल हूँ और सबसे बड़ी बात यह है कि मैं तुम्हारा भक्त हो गया हूँ; अतः मेरे अच्छे मित्र! तुम फिर मेरे साथ ऐसा ही बर्ताव करो--मेलजोल बढ़ाकर मेरे साथ घूमो-फिरो || १८७-१८८ ।।

यदि तुम कह दो तो मैं बन्धु-बान्धवोंसहित तुम्हारे लिये अपने प्राण भी त्याग दे सकता हूँ। विद्वानोंने मुझ-जैसे मनस्वी पुरुषोंपर सदा विश्वास ही किया और देखा है ।। १८९ ।।

अतः धर्मके तत्त्वको जाननेवाले पलित! तुम्हें मुझपर संदेह नहीं करना चाहिये ।। १८९ इ ||

बिलावके द्वरा इस प्रकारकी स्तुति की जानेपर भी चूहा अपने मनसे गम्भीर भाव ही धारण किये रहा। उसने मार्जारसे पुन: इस प्रकार कहा-- | १९० इ ।।

'भैया! तुम वास्तवमें बड़े साधु हो। यह बात मैंने तुम्हारे विषयमें सुन रक्खी है। उससे मुझे प्रसन्नता भी है; परंतु मैं तुमपर विश्वास नहीं कर सकता। तुम मेरी कितनी ही स्तुति क्यों न करो। मेरे लिये कितनी ही धनराशि क्‍यों न लुटा दो; परंतु अब मैं तुम्हारे साथ मिल नहीं सकता। सखे! बुद्धिमान्‌ एवं विद्वान्‌ पुरुष बिना किसी विशेष कारणके अपने शत्रुके वशमें नहीं जाते || १९१-१९२ ।।

“इस विषय में शुक्राचार्यने दो गाथाएँ कही हैं। उन्हें ध्यान देकर सुनो। जब अपने और शत्रुपर एक-सी विपत्ति आयी हो, तब निर्बलको सबल शत्रुके साथ मेल करके बड़ी सावधानी और युक्तिसे अपना काम निकालना चाहिये और जब काम हो जाय, तो फिर उसे शत्रुपर विश्वास नहीं करना चाहिये (यह पहली गाथा है)” | १९३३ ।।

“(दूसरी गाथा यों हैं) जो विश्वासपात्र न हो, उसपर विश्वास न करे तथा जो विश्वासपात्र हो, उसपर भी अधिक विश्वास न करे। अपने प्रति सदा दूसरोंका विश्वास उत्पन्न करे; किंतु स्वयं दूसरोका विश्वास न करे || १९४ ३ ।।

“इसलिये सभी अवस्थाओंमें अपने जीवनकी रक्षा करे; क्योंकि जीवित रहनेपर पुरुषको धन और संतान--सभी मिल जाते हैं ।। १९५३ ।।

संक्षेपमें नीतिशास्त्रका सार यह है कि किसीका भी विश्वास न करना ही उत्तम माना गया है; इसलिये दूसरे लोगोंपर विश्वास न करनेमें ही अपना विशेष हित है ।।

'जो विश्वास न करके सावधान रहते हैं, वे दुर्बल होनेपर भी शत्रुओंद्वारा मारे नहीं जाते। परंतु जो उनपर विश्वास करते हैं, वे बलवान्‌ होनेपर भी दुर्बल शत्रुओंद्वारा मार डाले जाते हैं || १९७३६ ||

बिलाव! तुम जैसे लोगोंसे मुझे सदा अपनी रक्षा करनी चाहिये और तुम भी अपने जन्मजात शत्रु चाण्डालसे अपनेको बचाये रखो” || १९८ ३ ||

चूहेके इस प्रकार कहते समय चाण्डालका नाम सुनते ही बिलाव बहुत डर गया और वह डाली छोड़कर बड़े वेगसे तुरंत दूसरी ओर चला गया ।। १९९३६ ।।

तदनन्तर नीतिशास्त्रके अर्थ और तत्त्वको जाननेवाला बुद्धिमान्‌ पलित अपने बौद्धिक शक्तिका परिचय दे दूसरे बिलमें चला गया || २०० ६ ।।

इस प्रकार दुर्बल और अकेला होनेपर भी बुद्धिमान्‌ पलित चूहेने अपने बुद्धि-बलसे बहुतेरे प्रबल शत्रुओंको परास्त कर दिया; अतः आपत्तिके समय विद्वान्‌ पुरुष बलवान्‌ शत्रुके साथ भी संधि कर ले। देखो, चूहे और बिलाव दोनों एक दूसरेका आश्रय लेकर विपत्तिसे छुटकारा पा गये थे || २०१-२०२ ३ ।।

महाराज! इस दृष्टान्तसे मैंने तुम्हें विस्तारपूर्वक क्षात्र-धर्मका मार्ग दिखाया है। अब संक्षेपमें कुछ मेरी बात सुनो || २०३ ३६ ।।

चूहे और बिलाव एक दूसरेसे वैर रखनेवाले प्राणी हैं तो भी उन्होंने संकटके समय एक दूसरेसे उत्तम प्रीति कर ली। उनमें परस्पर संधि कर लेनेका विचार पैदा हो गया || २०४ $

ऐसे अवसरोंपर बुद्धिमान्‌ पुरुष उत्तम बुद्धिका आश्रय ले संधि करके शत्रुको परास्त कर देता है। इसी तरह विद्दवान्‌ पुरुष भी यदि असावधान रहे तो उसे दूसरे बुद्धिमान्‌ पुरुष परास्त कर देते हैं || २०५६ ।।

इसलिये मनुष्य भयभीत होकर भी निडरके समान और किसीपर विश्वास न करते हुए भी विश्वास करनेवालेके समान बर्ताव करे, उसे कभी असावधान होकर नहीं चलना चाहिये। यदि चलता है तो नष्ट हो जाता है || २०६३ ।।

नरेश्वर! समयानुसार शत्रुके साथ भी संधि और मित्रके साथ भी युद्ध करना उचित है। संधिके तत्त्वको जाननेवाले विद्वान्‌ पुरुष इसी बातको सदा कहते हैं | २०७६ ।।

महाराज! ऐसा जानकर नीतिशास्त्रके तात्पर्यको हृदयंगम करके उद्योगशील एवं सावधान रहकर भय आनेसे पहले भयभीतके समान आचरण करना चाहिये ।।

बलवान शत्रुके समीप डरे हुए के समान उपस्थित होना चाहिये। उसी तरह उसके साथ संधि भी कर लेनी चाहिये। सावधान पुरुषके उद्योगशील बने रहनेसे स्वयं ही संकटसे बचानेवाली बुद्धि उत्पन्न होती है ।। २०९६ ।।

राजन! जो पुरुष भय आनेके पहलेसे ही उसकी ओरसे सशंक रहता है, उसके सामने प्राय: भयका अवसर ही नहीं आता है; परंतु जो निःशंक होकर दूसरोंपर विश्वास कर लेता है, उसे सहसा बड़े भारी भयका सामना करना पड़ता है || २१०३ ।।

जो मनुष्य अपनेको बुद्धिमान्‌ मानकर निर्भय विचरता है, उसे कभी कोई सलाह नहीं देनी चाहिये; क्योंकि वह दूसरेकी सलाह सुनता ही नहीं है। भयको न जाननेकी अपेक्षा उसे जाननेवाला ठीक है; क्योंकि वह उससे बचनेके लिये उपाय जाननेकी इच्छा से परिणामदर्शी पुरुषोंके पास जाता है || २११३ ।।

इसलिये बुद्धिमान्‌ पुरुषको डरते हुए भी निर्भयके समान रहना चाहिये तथा भीतरसे विश्वास न करते हुए भी ऊपरसे विश्वासी पुरुषकी भाँति बर्ताव करना चाहिये। कार्योकी कठिनता देखकर कभी कोई मिथ्या आचरण नहीं करना चाहिये || २१२३ ।।

युधिष्ठिर! इस प्रकार यह मैंने तुम्हारे सामने नीतिकी बात बतानेके लिये चूहे तथा बिलावके इस प्राचीन इतिहासका वर्णन किया है। इसे सुनकर तुम अपने सुहृदोंके बीचमें यथायोग्य बर्ताव करो || २१३६ ।।

श्रेष्ठ बुद्धिका आश्रय लेकर शत्रु और मित्रके भेद, संधि और विग्रह के अवसरका तथा विपत्तिसे छूटनेके उपायका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये || २१४ ३ ।।

अपने और शत्रुके प्रयोजन यदि समान हों तो बलवान्‌ शत्रुके साथ संधि करके उससे मिलकर युक्तिपूर्वक अपना काम बनावे और कार्य पूरा हो जानेपर फिर कभी उसका विश्वास न करे | २१५ ।।

पृथ्वीनाथ! यह नीति धर्म, अर्थ और कामके अनुकूल है। तुम इसका आश्रय लो। मुझसे सुने हुए इस उपदेशके अनुसार कर्तव्यपालनमें तत्पर हो सम्पूर्ण प्रजाकी रक्षा करते हुए अपनी उन्नतिके लिये उठकर खड़े हो जाओ ।।

पाण्डुनन्दन! तुम्हारी जीवनयात्रा ब्राह्मणोंके साथ होनी चाहिये। भरतनन्दन! ब्राह्मणलोग इहलोक और परलोकमें भी परम कल्याणकारी होते हैं || २१७ $ ।।

प्रभो! नरेश्वर! ये ब्राह्मण धर्मज्ञ होनेके साथ ही सदा कृतज्ञ होते हैं। सम्मानित होनेपर शुभकारक एवं शुभचिन्तक होते हैं; अत: इनका सदा आदर-सम्मान करना चाहिये ।। २१८ हे ||

राजन! तुम ब्राह्मणोंके यथोचित सत्कारसे क्रमश: राज्य, परम कल्याण, यश, कीर्ति तथा वंशपरम्पराको बनाये रखनेवाली संतति सब कुछ प्राप्त कर लोगे ।।२१९।।

भरतनन्दन! नरेश्वर! चूहे और बिलावका जो यह सुन्दर उपाख्यान कहा गया है, यह संधि और विग्रहका ज्ञान तथा विशेष बुद्धि उत्पन्न करनेवाला है। भूपालको सदा इसीके अनुसार दृष्टि रखकर शत्रुमण्डलके साथ यथोचित व्यवहार करना चाहिये ।।२२०।।

(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें चूढ़े और बिलावका संवादविषयक एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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