सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ छत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“राजा किसका धन ले और किसका न ले तथा किसके साथ कैसा बर्ताव करे--इसका विचार”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! जिस मार्ग या उपायसे राजा अपना खजाना भरता है, उसके विषयमें प्राचीन इतिहासके जानकारलोग ब्रह्माजीकी कही हुई कुछ गाथाएँ कहा करते हैं ।। १ ।।
राजाको यज्ञानुष्ठान करनेवाले द्विजोंका धन नहीं लेना चाहिये। इसी प्रकार उसे देवसम्पत्तिमें भी हाथ नहीं लगाना चाहिये। वह लुटेरों तथा अकर्मण्य मनुष्योंके धनका अपहरण कर सकता है ।। २ ।।
भरतनन्दन! ये समस्त प्रजाएँ क्षत्रियोंकी हैं। राज्यभोग भी क्षत्रियोंके ही हैं और सारा धन भी उन्हींका है, दूसरेका नहीं है; किंतु वह धन उसकी सेनाके लिये है या यज्ञानुष्ठानके लिये ।। ३½ ||
राजन! जो खानेयोग्य नहीं हैं, उन ओषधियों या वृक्षोंको काटकर मनुष्य उनके द्वारा खानेयोग्य ओषधियोंको पकाते हैं। इसी प्रकार जो देवताओं, पितरों और मनुष्योंका हविष्यके द्वारा पूजन नहीं करता है, उसके धनको धर्मज्ञ पुरुषोंने व्यर्थ बताया है। अतः धर्मात्मा राजा ऐसे धनको छीन ले और उसके द्वारा प्रजाका पालन करे, किंतु वैसे धनसे राजा अपना कोश न भरे ।। ४--६ ।।
जो राजा दुष्टोंस धन छीनकर उसे श्रेष्ठ पुरुषोंमें बाँट देता है, वह अपने-आपको सेतु बनाकर उन सबको पार कर देता है। उसे सम्पूर्ण धर्मोंका ज्ञाता ही मानना चाहिये ।। ७ ।।
धर्मज्ञ राजा अपनी शक्तिके अनुसार उसी-उसी तरह लोकोंपर विजय प्राप्त करे, जैसे उद्भिज्ज जन्तु (वृक्ष आदि) अपनी शक्तिके अनुसार आगे बढ़ते हैं तथा जैसे वज़कीट आदि क्षुद्र जीव बिना ही निमित्तके उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही बिना ही कारणके यज्ञहीन कर्तव्यविरोधी मनुष्य भी राज्यमें उत्पन्न हो जाते हैं। अतः राजाको चाहिये कि मच्छर, डाँस और चींटी आदि कीटोंके साथ जैसा बर्ताव किया जाता है, वही बर्ताव उन सत्कर्मविरोधियोंके साथ करे, जिससे धर्मका प्रचार हो || ८--१० ।।
जिस प्रकार अकस्मात् पृथ्वीकी धूलको लेकर सिलपर पीसा जाय तो वह और भी महीन ही होती है, उसी प्रकार विचार करनेसे धर्मका स्वरूप उत्तरोत्तर सूक्ष्म जान पड़ता है ।। ११ ||
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें एक सौ छत्तीयवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)
एक सौ सैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“आनेवाले संकटसे सावधान रहनेके लिये दूरदर्शी, तत्कालज्ञ और दीर्घ॑सूत्री--इन तीन मत्स्योंका दृष्टान्त”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! जो संकट आनेसे पहले ही अपने बचावका उपाय कर लेता है, उसे अनागतविधाता कहते हैं तथा जिसे ठीक समयपर ही आत्मरक्षाका उपाय सूझ जाता है, वह 'प्रत्युत्पन्नमति” कहलाता है। ये दो ही प्रकारके लोग सुखसे अपनी उन्नति करते हैं; परंतु जो प्रत्येक कार्यमें अनावश्यक विलम्ब करनेवाला होता है, वह दीर्घसूत्री मनुष्य नष्ट हो जाता है ।। १ ।।
कर्तव्य और अकर्तव्यका निश्चय करनेमें जो दीर्घसूत्री होता है, उसको लेकर मैं एक सुन्दर उपाख्यान सुना रहा हूँ। तुम स्वस्थचित्त होकर सुनो ।। २ ।।
कुन्तीनन्दन! कहते हैं, एक तालाबमें जो अधिक गहरा नहीं था, बहुत-सी मछलियाँ रहती थीं, उसी जलाशयमें तीन कार्यकुशल मत्स्य भी रहते थे, जो सदा साथ-साथ विचरनेवाले और एक-दूसरेके सुहृद् थे ।। ३ ।।
वहाँ उन तीनों सहचारियोंमेंसे एक तो (अनागतविधाता था, जो) आनेवाले दीर्घकालतककी बात सोच लेता था। दूसरा प्रत्युत्पन्नमति था, जिसकी प्रतिभा ठीक समयपर ही काम दे देती थी और तीसरा दीर्घसूत्री था (जो प्रत्येक कार्यमें अनावश्यक विलम्ब करता था) | ४ ।।
एक दिन कुछ मछलीमारोंने उस जलाशयमें चारों ओरसे नालियाँ बनाकर अनेक द्वारोंसे उसका पानी आसपासकी नीची भूमिमें निकालना आरम्भ कर दिया ।। ५ ।।
जलाशयका पानी घटता देख भय आनेकी सम्भावना समझकर दूरतककी बातें सोचनेवाले उस मत्स्यने अपने उन दोनों सुहृदोंसे कहा-- ।। ६ ।।
“बन्धुओ! जान पड़ता है कि इस जलाशयमें रहनेवाले सभी मत्स्योंपर संकट आ पहुँचा है; इसलिये जबतक हमारे निकलनेका मार्ग दूषित न हो जाय, तबतक शीघ्र ही हमें यहाँसे अन्यत्र चले जाना चाहिये ।। ७ ।।
“जो आनेवाले संकटको उसके आनेसे पहले ही अपनी अच्छी नीतिद्दारा मिटा देता है, वह कभी प्राण जानेके संशयमें नहीं पड़ता। यदि आपलोगोंको मेरी बात ठीक जान पड़े तो चलिये, दूसरे जलाशयको चलें” || ८ ।।
इसपर वहाँ जो दीर्घसूत्री था, उसने कहा--'मित्र! तुम बात तो ठीक कहते हो; परंतु मेरा यह दृढ़ विचार है कि अभी हमें जल्दी नहीं करनी चाहिये” ।। ९ ।।
तदनन्तर प्रत्युत्पन्नमतिने दूरदर्शीसे कहा--“मित्र! जब समय आ जाता है, तब मेरी बुद्धि न्यायतः कोई युक्ति ढूँढ़ निकालनेमें कभी नहीं चूकती है” || १० ।।
यह सुनकर परम बुद्धिमान दीर्घदर्शी (अनागत-विधाता) वहाँसे निकलकर एक नालीके रास्तेसे दूसरे गहरे जलाशयमें चला गया ।। ११ ।।
तदनन्तर मछलियोंसे ही जीविका चलानेवाले मछलीमारोंने जब यह देखा कि जलाशयका जल प्राय: बाहर निकल चुका है, तब उन्होंने अनेक उपायोंद्वारा वहाँकी सब मछलियोंको फँसा लिया ।। १२ ।।
जिसका पानी बाहर निकल चुका था, वह जलाशय जब मथा जाने लगा, तब दीर्घ॑सूत्री भी दूसरे मत्स्योंके साथ जालमें फँस गया ।। १३ ।।
जब मछलीमार रस्सी खींचकर मछलियोंसे भरे हुए उस जालको उठाने लगे, तब प्रत्युत्पन्नमति मत्स्य भी उन्हीं मत्स्योंके भीतर घुसकर जालमें बँध-सा गया ।। १४ ।।
वह जाल मुखसे पकड़ने योग्य था; अतः उसकी ताँतको मुहमें लेकर वह भी अन्य मछलियोंकी तरह बँधा हुआ प्रतीत होने लगा। मछलीमारोंने उन सब मछलियोंको वहाँ बँधा हुआ ही समझा ।। १५ ||
तदनन्तर उस जालको लेकर वे मछलीमार जब दूसरे अगाध जलवाले जलाशयके समीप गये और उन मछलियोंको धोने लगे, उसी समय प्रत्युत्पन्नमति मुखमें ली हुई जालकी रस्सीको छोड़कर उसके बन्धनसे मुक्त हो गया और जलमें समा गया ।। १६ ।।
परंतु बुद्धिहीन और आलसी मूर्ख दीर्घसूत्री अचेत होकर मृत्युको प्राप्त हुआ, जैसे कोई इन्द्रियोंके नष्ट होनेसे नष्ट हो जाता है ।। १७ ।।
इसी प्रकार जो पुरुष मोहवश अपने सिरपर आये हुए कालको नहीं समझ पाता, वह उस दीर्घसूत्री मत्स्यके समान शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।। १८ ।।
जो पुरुष यह समझकर कि मैं बड़ा कार्यकुशल हूँ, पहलेसे ही अपने कल्याणका उपाय नहीं करता, वह प्रत्युत्पन्नमति मत्स्यके समान प्राणसंशयकी स्थितिमें पड़ जाता है ।। १९ ||
जो संकट आनेसे पहले ही अपने बचावका उपाय कर लेता है, वह “अनागतविधाता' और जिसे ठीक समयपर ही आत्मरक्षाका कोई उपाय सूझ जाता है, वह 'प्रत्युत्पन्नमति - ये दो ही सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं; परंतु प्रत्येक कार्यमें अनावश्यक विलम्ब करनेवाला *दीर्घसूत्री' नष्ट हो जाता है || २० ।।
काष्ठा, कला, मुहूर्त, दिन, रात, लव, मास, पक्ष, छः ऋतु, संवत्सर और कल्प--इन््हें “काल' कहते हैं तथा पृथ्वीको “देश” कहा जाता है। इनमेंसे देशका तो दर्शन होता है, किंतु काल दिखायी नहीं देता है। अभीष्ट मनोरथकी सिद्धिके लिये जिस देश और कालको उपयोगी मानकर उसका विचार किया जाता है, उसको ठीक-ठीक ग्रहण करना चाहिये || २१-२२ ।।
ऋषियोंने धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा मोक्षशास्त्रमें इन देश और कालको ही कार्यसिद्धिका प्रधान उपाय बताया है। मनुष्योंकी कामना-सिद्धिमें भी ये देश और काल ही प्रधान माने गये हैं |। २३ ।।
जो पुरुष सोच-समझकर या जान-बूझकर काम करनेवाला तथा सतत सावधान रहनेवाला है, वह अभीष्ट देश और कालका ठीक-ठीक उपयोग करता है और उनके सहयोगसे इच्छानुसार फल प्राप्त कर लेता है || २४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें शाकुलोपाख्यानविषयक एक सौ सैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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