सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के एक सौ इकत्तीसवें अध्याय से एक सौ पैतीसवें अध्याय तक (From the 126 chapter to the 130 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ इकत्तीसवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ इकत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

(आपडद्धर्मपर्व) 

“आप्त्तिग्रस्त राजाके कर्तव्यका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतनन्दन! जिसकी सेना और धन-सम्पत्ति क्षीण हो गयी है, जो आलसी है, बन्धु-बान्धवोंपर अधिक दया रखनेके कारण उनके नाशकी आशंकासे जो उन्हें साथ लेकर शत्रुके साथ युद्ध नहीं कर सकता, जो मन्त्री आदिके चरित्रपर संदेह रखता है अथवा जिसका चरित्र स्वयं भी शंकास्पद है, जिसकी मन्त्रणा गुप्त नहीं रह सकी है, उसे दूसरे लोगोंने सुन लिया है, जिसके नगर और राष्ट्रको कई भागोंमें बाँटकर शत्रुओंने अपने अधीन कर लिया है, इसीलिये जिसके पास द्रव्यका भी संग्रह नहीं रह गया है, द्रव्याभावके कारण ही समादर न पानेसे जिसके मित्र साथ छोड़ चुके हैं, मन्त्री भी शत्रुओंद्वारा फोड़ लिये गये हैं, जिसपर शत्रुदलका आक्रमण हो गया हो, जो दुर्बल होकर बलवान शत्रुके द्वारा पीड़ित हो और विपत्तिमें पड़कर जिसका चित्त घबरा उठा हो, उसके लिये कौन-सा कार्य शेष रह जाता है?--उसे इस संकटसे मुक्त होनेके लिये क्या करना चाहिये? ।। १--३ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! यदि विजयकी इच्छासे आक्रमण करनेवाला राजा बाहरका हो, उसका आचार-विचार शुद्ध हो तथा वह धर्म और अर्थके साधनमें कुशल हो तो शीघ्रतापूर्वक उसके साथ संधि कर लेनी चाहिये और जो ग्राम तथा नगर अपने पूर्वजोंके अधिकारमें रहे हों, वे यदि आक्रमणकारीके हाथमें चले गये हों तो उसे मधुर वचनोंद्वारा समझा-बुझाकर उसके हाथसे छुड़ानेकी चेष्टा करे ।। ४ ।।

जो विजय चाहनेवाला शत्रु अधर्मपरायण हो तथा बलवान होनेके साथ ही पापपूर्ण विचार रखता हो, उसके साथ अपना कुछ खोकर भी संधि कर लेनेकी ही इच्छा रखे || ५ ।।

अथवा आवश्यकता हो तो अपनी राजधानीको भी छोड़कर बहुत-सा द्रव्य देकर उस विपत्तिसे पार हो जाय। यदि वह जीवित रहे तो राजोचित गुणसे युक्त होनेपर पुन: धनका उपार्जन कर सकता है ।। ६ |।

खजाना और सेनाका त्याग कर देनेसे ही जहाँ विपत्तियोंको पार किया जा सके, ऐसी परिस्थितिमें कौन अर्थ और धर्मका ज्ञाता पुरुष अपनी सबसे अधिक मूल्यवान्‌ वस्तु शरीरका त्याग करेगा? ।। ७ ।।

शत्रुका आक्रमण हो जानेपर राजाको सबसे पहले अपने अन्तःपुरकी रक्षाका प्रयत्न करना चाहिये। यदि वहाँ शत्रुका अधिकार हो जाय, तब उधरसे अपनी मोह-ममता हटा लेनी चाहिये; क्योंकि शत्रुके अधिकारमें गये हुए धन और परिवारपर दया दिखाना किस कामका? जहाँतक सम्भव हो, अपने-आपको किसी तरह भी शत्रुके हाथमें नहीं फँसने देना चाहिये ।। ८ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यदि बाहर राष्ट्र और दुर्ग आदिपर आक्रमण करके शत्रु उसे पीड़ा दे रहे हों और भीतर मन्त्री आदि भी कुपित हों, खजाना खाली हो गया हो और राजाका गुप्त रहस्य सबके कानोंमें पड़ गया हो, तब उसे क्या करना चाहिये? ।। ९ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! उस अवस्थामें राजा या तो शीघ्र ही संधिका विचार कर ले अथवा जल्दी-से-जल्दी दुःसह पराक्रम प्रकट करके शत्रुको राज्यसे निकाल बाहर करे, ऐसा उद्योग करते समय यदि कदाचित्‌ मृत्यु भी हो जाय तो वह परलोकमें मंगलकारी होती है ।। १० ।।

यदि सेना स्वामीके प्रति अनुराग रखनेवाली, प्रिय और हृष्ट-पुष्ट हो तो उस थोड़ी-सी सेनाके द्वारा भी राजा पृथ्वीपर विजय पा सकता है ।। ११ ।।

यदि वह युद्धमें मारा जाय तो स्वर्गलोकके शिखरपर आरूढ़ हो सकता है अथवा यदि उसीने शत्रुको मार लिया तो वह पृथ्वीका राज्य भोग सकता है। जो युद्धमें प्राणोंका परित्याग करता है, वह इन्द्रलोकमें जाता है ।। १२ ।।

अथवा दुर्बल राजा शत्रुमें कोमलता लानेके लिये विपक्षके सभी लोगोंको संतुष्ट करके उनके मनमें विश्वास जमाकर उनसे युद्ध बंद करनेके लिये अनुनय-विनय करे और स्वयं भी उपायपूर्वक उनके ऊपर विश्वास करे ।। १३ ।।

अथवा वह मधुर वचनोंद्वारा विरोधी दलके मन्त्री आदिको प्रसन्न करके दुर्गसे पलायन करनेका प्रयत्न करे। तदनन्तर कुछ काल व्यतीत करके श्रेष्ठ पुरुषोंकी सम्मति ले अपनी खोयी हुई सम्पत्ति अथवा राज्यको पुनः प्राप्त करनेका प्रयत्न आरम्भ करे ।। १४ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ बत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओंके धर्मका वर्णन तथा धर्मकी गतिको सूक्ष्म बताना”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यदि राजाका सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षापर अवलम्बित परम धर्म न निभ सके और भूमण्डलमें आजीविकाके सारे साधनोंपर लुटेरोंका अधिकार हो जाय, तब ऐसा जघन्य संकटकाल उपस्थित होनेपर यदि ब्राह्मण दयावश अपने पुत्रों तथा पौत्रोंका परित्याग न कर सके तो वह किस वृत्तिसे जीवन-निर्वाह करे? ।। १-२ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठि!! ऐसी परिस्थितिमें ब्राह्मणको तो अपने विज्ञान-बलका आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना चाहिये। इस जगतमें यह जो कुछ भी धन आदि दिखायी देता है, वह सब कुछ श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये ही है, दुष्टोंके लिये कुछ भी नहीं है ।। ३ ।।

जो अपनेको सेतु बनाकर दुष्ट पुरुषोंसे धन लेकर श्रेष्ठ पुरुषोंको देता है, वह आपद्धर्मका ज्ञाता है ।। ४ ।।

जो अपने राज्यको बनाये रखना चाहे, उस राजाको उचित है कि वह राज्यकी व्यवस्थाका बिगाड़ न करते हुए ब्राह्मण आदि प्रजाकी रक्षाके उद्देश्यसे ही राज्यके धनियोंका धन मेरा ही है, ऐसा समझकर उनके दिये बिना भी बलपूर्वक ले ले || ५ ।।

जो तत्त्वज्ञानके प्रभावसे पवित्र है और किस वृत्तिसे किसका निर्वाह हो सकता है, इस बातको अच्छी तरह समझता है, वह धीर नरेश यदि राज्यको संकटसे बचानेके लिये निन्दित कर्मोमें भी प्रवृत्त होता है तो कौन उसकी निन्दा कर सकता है? ।। ६ ।।

युधिष्ठिर! जो बल और पराक्रमसे ही जीविका चलानेवाले हैं, उन्हें दूसरी वृत्ति अच्छी नहीं लगती। बलवान पुरुष अपने तेजसे ही कर्मामें प्रवृत्त होते हैं ।। ७ ।।

जब आपद्धर्मोपयोगी प्राकृत शास्त्र ही सामान्यरूपसे चल रहा हो, उस आपफत्तिकालमें “अपने या दूसरेके राज्यसे जैसे भी सम्भव हो, धन लेकर अपना खजाना भरना चाहिये” इत्यादि वचनोंके अनुसार राजा जीवन-निर्वाह करे। परंतु जो मेधावी हो, वह इससे भी आगे बढ़कर “जो दो राज्योंमें रहनेवाले धनीलोग कंजूसी अथवा असदाचरणके द्वारा दण्ड पानेयोग्य हों, उनसे ही धन लेना चाहिये।' इत्यादि विशेष शास्त्रोंका अवलम्बन करे || ८ ।।

कितनी ही आपत्ति क्‍यों न हो, ऋत्विक्‌ू, पुरोहित, आचार्य तथा सत्कृत या असत्कृत ब्राह्मणोंसे, वे धनी हों तो भी धन लेकर उन्हें पीड़ा न दे। यदि राजा उन्हें धनापहरणके द्वारा कष्ट देता है तो पापका भागी होता है ।। ९ |।

यह मैंने तुम्हें सब लोगोंके लिये प्रमाणभूत बात बतायी है। यही सनातन दृष्टि है। राजा इसीको प्रमाण मानकर व्यवहारक्षेत्रमें प्रवेश करे तथा इसीके अनुसार आपत्तिकालमें उसे भले या बुरे कार्यका निर्णय करना चाहिये ।। १० ।।

यदि बहुत-से ग्रामवासी मनुष्य परस्पर रोषवश राजाके पास आकर एकदूसरेकी निन्दा-स्तुति करें तो राजा केवल उनके कहनेसे ही किसीको न तो दण्ड दे और न किसीका सत्कार ही करे || ११ ।।

किसीकी भी निन्दा नहीं करनी चाहिये और न उसे किसी प्रकार सुनना ही चाहिये। यदि कोई दूसरेकी निन्‍दा करता हो तो वहाँ अपने कान बंद कर ले अथवा वहाँसे उठकर अन्यत्र चला जाय ।। १२ ।।

नरेश्वर! दूसरोंकी निन्दा करना या चुगली खाना यह दुष्टोंका स्वभाव ही होता है। श्रेष्ठ पुरुष तो सज्जनोंके समीप दूसरोंके गुण ही गाया करते हैं ।। १३ ।।

जैसे मनोहर आकृतिवाले, सुशिक्षित तथा अच्छी तरहसे बोझ ढोनेमें समर्थ नयी अवस्थाके दो बैल कंधोंपर भार उठाकर उसे सुन्दर ढंगसे ढोते हैं, उसी प्रकार राजाको भी अपने राज्यका भार अच्छी तरह सँभालना चाहिये ।। १४ ।।

जैसे-जैसे आचरणोंसे राजाके बहुत-से दूसरे लोग सहायक हों, वैसे ही आचरण उसे अपनाने चाहिये। धर्मज्ञ पुरुष आचारको ही धर्मका प्रधान लक्षण मानते हैं ।। १५ ।।

किंतु जो शंख और लिखित मुनिके प्रेमी हैं--उन्हींके मतका अनुसरण करनेवाले हैं, वे दूसरे-दूसरे लोग इस उपर्युक्त मत (ऋत्विक्‌ आदिको दण्ड न देने आदि) को नहीं स्वीकार करते हैं। वे लोग ईर्ष्या अथवा लोभसे ऐसी बात नहीं कहते हैं (धर्म मानकर ही कहते हैं) || १६ ।।

शास्त्र-विपरीत कर्म करनेवालेको दण्ड देनेकी जो बात आती है, उसमें वे आर्षप्रमाण भी देखते हैं-। ऋषियोंके वचनोंके समान दूसरा कोई प्रमाण कहीं भी दिखायी नहीं देता || १७ ।।

देवता भी विपरीत कर्ममें लगे हुए अधम मनुष्यको नरकोंमें गिराते हैं; अतः जो छलसे धन प्राप्त करता है, वह धर्मसे भ्रष्ट हो जाता है ।। १८ ।।

ऐश्वर्यकी प्राप्तिके जो प्रधान कारण हैं, ऐसे श्रेष्ठ पुरुष जिसका सब प्रकारसे सत्कार करते हैं तथा हृदयसे भी जिसका अनुमोदन होता है, राजा उसी धर्मका अनुष्ठान करे ।। १९ |।

जो वेदविहित, स्मृतियोंद्वारा अनुमोदित, सज्जनोंद्वारा सेवित तथा अपनेको प्रिय लगनेवाला धर्म है, उसे चतुर्गुणसम्पन्न माना गया है। जो वैसे धर्मका उपदेश करता है, वही धर्मज्ञ है। सर्पके पदचिह्नकी भाँति धर्मके यथार्थ स्वरूपको ढूँढ़ निकालना बहुत कठिन है। जैसे बाणसे बिंधे हुए मृगका एक पैर पृथ्वीपर रक्तका लेप कर देनेके कारण व्याधको उस मृगके रहनेके स्थानको लक्षित कराकर वहाँ पहुँचा देता है, उसी प्रकार उक्त चतुर्गुणसम्पन्न धर्म भी धर्मके यथार्थ स्वरूपकी प्राप्ति करा देता है । २०-२१ ।।

युधिष्ठिर! इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुष जिस मार्गसे गये हैं, उसीपर तुम्हें भी चलना चाहिये। इसीको तुम राजर्षियोंका सदाचार समझो ।। २२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें राजर्षियोंका चरित्र नामक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी ;- 

  1. यथा--ुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः । उत्पथं प्रतिपन्नस्य कार्य भवति शासनम्‌ ।
  2. अर्थात्‌ घमंडमें आकर कर्तव्य और अकर्तव्यका विचार न करते हुए कुमार्गपर चलनेवाले गुरुको भी दण्ड देना आवश्यक है।

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ तैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ तैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“राजाके लिये कोशसंग्रहकी आवश्यकता, मर्यादाकी स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्तिकी निन्दा”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि! राजाको चाहिये कि वह अपने तथा शत्रुके राज्यसे धन लेकर खजानेको भरे। कोशसे ही धर्मकी वृद्धि होती है और राज्यकी जड़ें बढ़ती अर्थात्‌ सुदृढ़ होती हैं || १ ।।

इसलिये राजा कोशका संग्रह करे, संग्रह करके सादर उसकी रक्षा करे और रक्षा करके निरन्तर उसको बढ़ाता रहे; यही राजाका सदासे चला आनेवाला धर्म है ।। २ ।।

जो विशुद्ध आचार-विचारसे रहनेवाला है, उसके द्वारा कभी कोशका संग्रह नहीं हो सकता। जो अत्यन्त क्रूर है, वह भी कदापि इसमें सफल नहीं हो सकता; अतः मध्यम मार्गका आश्रय लेकर कोश-संग्रह करना चाहिये ।। ३ ।।

यदि राजा बलहीन हो तो उसके पास कोश कैसे रह सकता है? कोशहीनके पास सेना कैसे रह सकती है? जिसके पास सेना ही नहीं है, उसका राज्य कैसे टिक सकता है और राज्यहीनके पास लक्ष्मी कैसे रह सकती है? ।। ४ ।।

जो धनके कारण ऊँचे तथा महत्त्वपूर्ण पदपर पहुँचा हुआ है, उसके धनकी हानि हो जाय तो उसे मृत्युके तुल्य कष्ट होता है, अतः राजाको कोश, सेना तथा मित्रकी संख्या बढ़ानी चाहिये ।। ५ ।।

जिस राजाके पास धनका भण्डार नहीं है, उसकी साधारण मनुष्य भी अवहेलना करते हैं। उससे थोड़ा लेकर लोग संतुष्ट नहीं होते हैं और न उसका कार्य करनेमें ही उत्साह दिखाते हैं ।। ६ ।।

लक्ष्मीके कारण ही राजा सर्वत्र बड़ा भारी आदर-सत्कार पाता है। जैसे कपड़ा नारीके गुप्त अंगोंको छिपाये रखता है, उसी प्रकार लक्ष्मी राजाके सारे दोषोंको ढक लेती है ।। ७ ।।

पहलेके तिरस्कृत हुए मनुष्य इस राजाकी बढ़ती हुई समृद्धिको देखकर जलते रहते हैं और अपने वधकी इच्छा रखनेवाले उस राजाका ही कपटपूर्वक आश्रय ले उसी तरह उसकी सेवा करते हैं, जैसे कुत्ते अपने घातक चाण्डालकी सेवामें रहते हैं || ८ ।।

भारत! ऐसे नरेशको कैसे सुख मिलेगा? अतः राजाको सदा उद्यम ही करना चाहिये, किसीके सामने झुकना नहीं चाहिये; क्योंकि उद्यम ही पुरुषत्व है। जैसे सूखी लकड़ी बिना गाँठके ही टूट जाती है, परंतु झुकती नहीं है, उसी प्रकार राजा नष्ट भले ही हो जाय, परंतु उसे कभी दबना नहीं चाहिये || ९½ ।।

वह वनकी शरण लेकर मृगोंके साथ भले ही विचरे; किंतु मर्यादा भंग करनेवाले डाकुओंके साथ कदापि न रहे || १०½।।

भारत! डाकुओंको लूट-पाट या हिंसा आदि भयानक कर्मोके लिये अनायास ही सेना सुलभ हो जाती है। सर्वथा मर्यादाशून्य मनुष्यसे सब लोग उद्विग्न हो उठते हैं। केवल निर्दयतापूर्ण कर्म करनेवाले पुरुषकी ओरसे डाकू भी शंकित रहते हैं ।। ११-१२ ।।

राजाको ऐसी ही मर्यादा स्थापित करनी चाहिये, जो सब लोगोंके चित्तको प्रसन्न करनेवाली हो। लोकमें छोटे-से काममें भी मर्यादाका ही मान होता है || १३ ।।

संसारमें ऐसे भी मनुष्य हैं, जो यह निश्चय किये बैठे हैं कि 'यह लोक और परलोक हैं ही नहीं।' ऐसा नास्तिक मानव भयकी शंकाका स्थान है, उसपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये ।। १४ ।।

दस्युओंमें भी मर्यादा होती है, जैसे अच्छे डाकू दूसरोंका धन तो लूटते हैं, परंतु हिंसा नहीं करते (किसीकी इज्जत नहीं लेते)। जो मर्यादाका ध्यान रखते हैं, उन लुटेरोंमें बहुत-से प्राणी स्नेह भी करते हैं, (क्योंकि उनके द्वारा बहुतोंकी रक्षा भी होती है) || १५ ।।

युद्ध न करनेवालेको मारना, परायी स्त्रीपर बलात्कार करना, कृतघ्नता, ब्राह्मणके धनका अपहरण, किसीका सर्वस्व छीन लेना, कुमारी कन्‍्याका अपहरण करना तथा किसी ग्राम आदिपर आक्रमण करके स्वयं उसका स्वामी बन बैठना--ये सब बातें डाकुओंमें भी निन्दित मानी गयी हैं। इस्युको भी परस्त्रीका स्पर्श और उपर्युक्त सभी पाप त्याग देने चाहिये ।। १६-१७ ।।

जिनका सर्वस्व लूट लिया जाता है, वे मनुष्य उन डाकुओंके साथ मेल-जोल और विश्वास बढ़ानेकी चेष्टा करते हैं और उनके स्थान आदिका पता लगाकर फिर उनका सर्वस्व नष्ट कर देते हैं, यह निश्चित बात है || १८ ।।

इसलिये दस्युओंको उचित है कि वे दूसरोंके धनको अपने अधिकारमें पाकर भी कुछ शेष छोड़ दें, सारा-का-सारा न लूट लें। “मैं बलवान्‌ हूँ” ऐसा समझकर क्रूरतापूर्ण बर्ताव न करें ।। १९ ।।

जो डाकू दूसरोंके धनको शेष छोड़ देते हैं, वे सब ओर अपने धनका भी अवशेष देख पाते हैं; तथा जो दूसरोंके धनमेंसे कुछ भी शेष नहीं छोड़ते, उन्हें सदा अपने धनके भी नि:शेष हो जानेका भय बना रहता है ।। २० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ चौतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ चौतीसवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“बलकी महत्ता और पापसे छूटनेका प्रायश्चित”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! प्राचीनकालकी बातोंको जाननेवाले विद्वान्‌ इस विषयमें जो धर्मका प्रवचन करते हैं, वह इस प्रकार है--विज्ञ क्षत्रियके लिये धर्म और अर्थ--ये दो ही प्रत्यक्ष हैं ।। १ ।।

धर्म और अधर्मकी समस्या रखकर किसीके कर्तव्यमें व्यवधान नहीं डालना चाहिये; क्योंकि धर्मका फल प्रत्यक्ष नहीं है। जैसे भेड़ियेका पदचिह्न देखकर किसीको यह निश्चय नहीं होता कि यह व्याप्रका पदचिह्न है या कुत्तेका? उसी प्रकार धर्म और अधर्मके विषयमें निर्णय करना कठिन है ।। २ ।।

धर्म और अधर्मका फल किसीने कभी यहाँ प्रत्यक्ष नहीं देखा है। अतः राजा बलप्राप्तिके लिये प्रयत्न करे; क्योंकि यह सब जगत्‌ बलवानके वशमें होता है || ३ ।।

बलवान्‌ पुरुष इस जगतमें सम्पत्ति, सेना और मन्त्री सब कुछ पा लेता है। जो दरिद्र है, वह पतित समझा जाता है और किसीके पास जो बहुत थोड़ा धन है, वह उच्छिष्ट या जूठन समझा जाता है ।। ४ ।।

बलवान पुरुषमें बहुत-सी बुराई होती है तो भी भयके मारे उसके विषयमें कोई मुहसे कुछ बात नहीं निकालता है। यदि बल और धर्म दोनों सत्यके ऊपर प्रतिष्ठित हों तो वे मनुष्यकी महान्‌ भयसे रक्षा करते हैं ।। ५ ।।

मैं धर्मसे भी बलको ही अधिक श्रेष्ठ मानता हूँ; क्योंकि बलसे धर्मकी प्रवृत्ति होती है। जैसे चलने-फिरनेवाले सभी प्राणी पृथ्वीपर ही स्थित हैं, उसी प्रकार धर्म बलपर ही प्रतिष्ठित है ।। ६ ।।

जैसे धूआँ वायुके अधीन होकर चलता है, उसी प्रकार धर्म भी बलका अनुसरण करता है; अतः जैसे लता किसी वृक्षके सहारे फैलती है, उसी प्रकार निर्बल धर्मबलके ही आधारपर सदा स्थिर रहता है ॥। ७ ।।

जैसे भोग-सामग्रीसे सम्पन्न पुरुषोंके अधीन सुख-भोग होता है, उसी प्रकार धर्म बलवानोंके वशमें रहता है। बलवानोंके लिये कुछ भी असाध्य नहीं है। बलवानोंकी सारी वस्तु ही शुद्ध एवं निर्दोष होती है ।। ८ ।।

जिसका बल नष्ट हो गया है, जो दुराचारी है, उसको भय उपस्थित होनेपर कोई रक्षक नहीं मिलता है। दुर्बलसे सब लोग उसी प्रकार उद्विग्न हो उठते हैं, जैसे भेड़ियेसे || ९ ।।

दुर्बल अपनी सम्पत्तिसे वंचित हो जाता है, सबके अपमान और उपेक्षाका पात्र बनता है तथा दुःखमय जीवन व्यतीत करता है। जो जीवन निन्दित हो जाता है, वह मृत्युके ही तुल्य है ।। १० ।।

दुर्बल मनुष्यके विषयमें लोग इस प्रकार कहने लगते हैं--'अरे! यह तो अपने पापाचारके कारण बन्धु-बान्धवोंद्वारा त्याग दिया गया है।” उनके उस वाग्बाणसे घायल होकर वह अत्यन्त संतप्त हो उठता है || ११ ।।

यहाँ अधर्मपूर्वक धनका उपार्जन करनेपर जो पाप होता है, उससे छूटनेके लिये आचार्योने यह उपाय बताया है--उक्त पापसे लिप्त हुआ राजा तीनों वेदोंका स्वाध्याय करे, ब्राह्मणोंकी सेवामें उपस्थित रहे, मधुर वाणी तथा सत्कर्मौद्वारा उन्हें प्रसन्न करे, अपने मनको उदार बनावे और उच्चकुलमें विवाह करे। मैं अमुक नामवाला आपका सेवक हूँ, इस प्रकार अपना परिचय दे, दूसरोंके गुणोंका बखान करे, प्रतिदिन स्नान करके इष्ट-मन्त्रका जप करे, अच्छे स्वभावका बने अधिक न बोले, लोग उसे बहुत पापाचारी बताकर उसकी निन्‍्दा करें तो भी उसकी परवा न करे और अत्यन्त दुष्कर तथा बहुत-से पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करके ब्राह्मणों तथा क्षत्रियोंके समाजमें प्रवेश करे || १२--१५ ।।

ऐसे आचरणवाला पुरुष पापहीन हो शीघ्र ही बहुसंख्यक मनुष्योंके आदरका पात्र हो जाता है, नाना प्रकारके सुखोंका उपभोग करता है और अपने किये हुए विशेष सत्कर्मके प्रभावसे अपनी रक्षा कर लेता है। लोकमें सर्वत्र उसका आदर होने लगता है तथा वह इहलोक और परलोकमें भी महान्‌ फलका भागी होता है ।। १६-१७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें एक सौ चौतीयवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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शान्ति पर्व (आपडद्धर्मपर्व)

एक सौ पैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ पैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

“मर्यादाका पालन करने-करानेवाले कायव्यनामक दस्युकी सद् गतिका वर्णन”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! जो दस्यु (डाकू) मर्यादाका पालन करता है, वह मरनेके बाद दुर्गतिमें नहीं पड़ता। इस विषयमें विद्वान्‌ पुरुष एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। १ ।।

कायव्यनामसे प्रसिद्ध एक निषादपुत्रने दस्यु होनेपर भी सिद्धि प्राप्त कर ली थी। वह प्रहारकुशल, शूरवीर, बुद्धिमान, शास्त्रज्ञ, क्रूरतारहित, आश्रमवासियोंके धर्मकी रक्षा करनेवाला, ब्राह्मणभक्त और गुरुपूजक था। वह क्षत्रिय पितासे एक निषादजातिकी स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न हुआ था; अतः क्षत्रियधर्मका निरन्तर पालन करता था ॥। २-३ ।।

कायव्य प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकालके समय वनमें जाकर मृगोंकी टोलियोंको उत्तेजित कर देता था। वह मृगोंकी विभिन्न जातियोंके स्वभावसे परिचित तथा उन्हें काबूमें करनेकी कलाको जाननेवाला था। निषादोंमें वह सबसे निपुण था ।। ४ ।।

उसे वनके सम्पूर्ण प्रदेशोंका ज्ञान था। वह सदा पारियात्र पर्ववपर विचरनेवाला तथा समस्त प्राणियोंके धर्मोंका ज्ञाता था। उसका बाण लक्ष्य बेधनेमें अचूक था। उसके सारे अस्त्र-शस्त्र सुदृढ़ थे || ५ ।।

वह सैकड़ों मनुष्योंकी सेनाको अकेले ही जीत लेता था और उस महान्‌ वनमें रहकर अपने अन्धे और बहरे माता-पिताकी सेवा-पूजा किया करता था ।। ६ ।।

वह निषाद मधु, मांस, फल, मूल तथा नाना प्रकारके अन्नोंद्वारा माता-पिताको सत्कारपूर्वक भोजन कराता था तथा दूसरे-दूसरे माननीय पुरुषोंकी भी सेवा-पूजा किया करता था ।। ७ |।

वह वनमें रहनेवाले वानप्रस्थ और संन्यासी ब्राह्मणोंकी पूजा करता और प्रतिदिन उनके घरमें जाकर उनके लिये अन्न आदि वस्तुएँ पहुँचा देता था ।। ८ ।।

जो लोग लुटेरेके घरका भोजन होनेकी आशंकासे उसके हाथसे अन्न नहीं ग्रहण करते थे, उनके घरोंमें वह बड़े सबेरे ही अन्न और फल-मूल आदि भोजन-सामग्री रख जाता था।।९।।

एक दिन मर्यादाका अतिक्रमण और भाँति-भाँतिके क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाले कई हजार डाकुओंने उससे अपना सरदार बननेके लिये प्रार्थना की || १० ।।

डाकू बोले--तुम देश, काल और मुहूर्तके ज्ञाता, विद्वान, शूरवीर और दृढ़प्रतिज्ञ हो; इसलिये हम सब लोगोंकी सम्मतिसे तुम हमारे सरदार हो जाओ ।। ११ ।।

तुम हमें जैसी-जैसी आज्ञा दोगे, वैसा-ही-वैसा हम करेंगे। तुम माता-पिताके समान हमारी यथोचित रीतिसे रक्षा करो ।। १२ ।।

कायव्यने कहा--प्रिय बन्धुओ! तुम कभी स्त्री, डरपोक, बालक और तपस्वीकी हत्या न करना। जो तुमसे युद्ध न कर रहा हो, उसका भी वध न करना। स्त्रियोंको कभी बलपूर्वक न पकड़ना ।। १३ |।

तुममेंसे कोई भी सभी प्राणियोंके स्त्रीवर्गकी किसी तरह भी हत्या न करे। ब्राह्मणोंके हितका सदा ध्यान रखना। आवश्यकता हो तो उनकी रक्षाके लिये युद्ध भी करना ।। १४ 

खेतकी फसल न उखाड़ लाना, विवाह आदि उत्सवोंमें विघ्न न डालना, जहाँ देवता, पितर और अतिथियोंकी पूजा होती हो, वहाँ कोई उपद्रव न खड़ा करना ।। १५ ।।

समस्त प्राणियोंमें ब्राह्मण विशेषरूपसे डाकुओंके हाथसे छुटकारा पानेका अधिकारी है। अपना सर्वस्व लगाकर भी तुम्हें उनकी सेवा-पूजा करनी चाहिये ।। १६ ।।

देखो, ब्राह्मणलोग कुपित होकर जिसके पराभवका चिन्तन करने लगते हैं, उसका तीनों लोकोंमें कोई रक्षक नहीं होता || १७ ।।

जो ब्राह्मणोंकी निन्दा करता है और उनका विनाश चाहता है, उसका जैसे सूर्योदय होनेपर अन्धकारका नाश हो जाता है, उसी प्रकार अवश्य ही पतन हो जाता है ।।

तुम लोग यहीं बैठे-बैठे लुटेरेपनका जो फल है, उसे पानेकी अभिलाषा रखो। जो-जो व्यापारी हमें स्वेच्छासे धन नहीं देंगे, उन्हीं-उन्हींपर तुम दल बाँधकर आक्रमण करोगे ।। १९ ।।

दण्डका विधान दुष्टोंक दमनके लिये है, अपना धन बढ़ानेके लिये नहीं। जो शिष्ट पुरुषोंको सताते हैं, उनका वध ही उनके लिये दण्ड माना गया है || २० ।।

जो लोग राष्ट्रको हानि पहुँचाकर अपनी उजन्नतिके लिये प्रयत्न करते हैं, वे मुर्दोंमें पड़े हुए कीड़ोंके समान उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं || २१ ।।

जो दस्युजातिमें उत्पन्न होकर भी धर्मशास्त्रके अनुसार आचरण करते हैं, वे लुटेरे होनेपर भी शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं (ये सब बातें तुम्हें स्वीकार हों तो मैं तुम्हारा सरदार बन सकता हूँ) | २२ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! यह सुनकर उन दस्युओंने कायव्यकी सारी आज्ञा मान ली और सदा उसका अनुसरण किया। इससे उन सभीकी उन्नति हुई और वे पाप-कर्मोसे हट गये ।। २३ ।।

कायव्यने उस पुण्यकर्मसे बड़ी भारी सिद्धि प्राप्त कर ली; क्योंकि उसने साधु पुरुषोंका कल्याण करते हुए डाकुओंको पापसे बचा लिया था ।। २४ ।।

जो प्रतिदिन कायव्यके इस चरित्रका चिन्तन करता है, उसे वनवासी प्राणियोंसे किंचिन्मात्र भी भय नहीं प्राप्त होता || २५ ।।

भारत! उसे सम्पूर्ण भूतोंसे भी भय नहीं होता। राजन! किसी दुष्टात्मासे भी उसको डर नहीं लगता। वह तो वनका अधिपति हो जाता है || २६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कायव्यका चरित्रविषयक एक सौ पैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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