सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के एक सौ छब्बीसवें अध्याय से एक सौ तीसवें अध्याय तक (From the 126 chapter to the 130 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ छब्बीसवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा सुमित्रका मृगकी खोज किक ए तपस्वी मुनियोके आश्रमपर पहुँचना और उनसे आशाके विषयमें प्रश्न करना”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! उस महान्‌ वनमें प्रवेश करके राजा सुमित्र तापसोंके आश्रमपर जा पहुँचे और वहाँ थककर बैठ गये ।। १ ।।

वे परिश्रमसे पीड़ित और भूखसे व्याकुल हो रहे थे। उस अवस्थामें धनुष धारण किये राजा सुमित्रको देखकर बहुत-से ऋषि उनके पास आये और सबने मिलकर उनका विधिपूर्वक स्वागत-सत्कार किया ।। २ ।।

ऋषियोंद्वारा किये गये उस स्वागत-सत्कारको ग्रहण करके राजाने भी उन सब तापसोंसे उनकी तपस्याकी भलीभाँति वृद्धि होनेका समाचार पूछा ।। ३ ।।

उन तपस्याके धनी महर्षियोंने राजाके वचनोंको सादर ग्रहण करके उन नृपश्रेष्ठके वहाँ आनेका प्रयोजन पूछा ।। ४ ।।

“कल्याणस्वरूप नरेश्वर! किस सुखके लिये आप इस तपोवनमें तलवार बाँधे धनुष और बाण लिये पैदल ही चले आये हैं? ।। ५ ।।

“मानद! हम यह सब सुनना चाहते हैं, आप कहाँसे पधारे हैं? किस कुलमें आपका जन्म हुआ है? तथा आपका नाम क्‍या है? ये सारी बातें हमें बताइये' ।।

पुरुषप्रवर भरतनन्दन! तदनन्तर राजा सुमित्रने उन समस्त ब्राह्मणोंसे यथोचित बात कही और अपना कार्यक्रम बताया-- ।। ७ ।।

“तपोधनो! मेरा जन्म हैहय-कुलमें हुआ है। मैं मित्रोंका आनन्द बढ़ानेवाला राजा सुमित्र हूँ और सहस्रों बाणोंक आघातसे मृग-समूहोंका विनाश करता हुआ विचर रहा हूँ ।। ८ ।।

“मेरे साथ बहुत बड़ी सेना थी। उसके द्वारा सुरक्षित हो मैं मन्‍्त्री और अन्तःपुरके साथ आया था, परंतु मेरे बाणोंसे घायल हुआ एक मृग बाणसहित इधर ही भाग निकला ।। ९

“उस भागते हुए मृगके पीछे मैं अकस्मात्‌ इस वनमें आपलोगोंके समीप आ पहुँचा हूँ। मेरी सारी शोभा नष्ट हो गयी है। मैं हताश होकर भारी परिश्रमसे कष्ट पा रहा हूँ || १० 

“मैंने परिश्रमके कारण जो इतना कष्ट पाया है और अपने राजचिटह्_ोंसे भ्रष्ट होकर एक हताशकी भाँति आपके आश्रममें पैर रखा है, इससे बढ़कर दुःख और क्‍या हो सकता है? ।। ११ ।।

“तपोधनो! नगर तथा राजचिह्लोंका परित्याग मुझे वैसा तीव्र कष्ट नहीं दे रहा है, जैसा कि मेरी भग्न हुई आशा दे रही है ।। १२ ।।

“महान्‌ पर्वत हिमालय अथवा अगाध जलराशि समुद्र अपनी विशालताके द्वारा आशाकी समानता नहीं कर सकते। तपस्यामें श्रेष्ठ तपोधनो! जैसे आकाशका कहीं अन्त नहीं है, उसी प्रकार मैं आशाका अन्त नहीं पा सका हूँ। आपको तो सब कुछ मालूम ही है; क्योंकि तपोधन मुनि सर्वज्ञ होते हैं || १३-१४ ।।

आप महान्‌ सौभाग्यशाली तपस्वी हैं; इसलिये मैं आपसे अपने मनका संदेह पूछता हूँ। एक ओर आशावान्‌ पुरुष हो और दूसरी ओर अनन्त आकाश हो तो जगत्‌में महत्ताकी दृष्टिसे आपलोगोंको कौन बड़ा जान पड़ता है? मैं इस बातको तत्त्वसे सुनना चाहता हूँ। भला, यहाँ आकर कौन-सी वस्तु दुर्लभ रहेगी? ।। १५-१६ ।।

“यदि आपके लिये सदा यह कोई गोपनीय रहस्य न हो तो शीघ्र इसका वर्णन कीजिये। विप्रवरों! मैं आपलोगोंसे ऐसी कोई बात नहीं सुनना चाहता, जो गोपनीय रहस्य हो ।। १७ |।

“यदि मेरे इस प्रश्नसे आपलोगोंकी तपस्यामें विघ्न पड़ रहा हो तो मैं इससे विराम लेता हूँ और यदि आपके पास बातचीतका समय हो तो जो प्रश्न मैंने उपस्थित किया है, इसका आप समाधान करें। मैं इस आशाके कारण और सामर्थ्यके विषयमें ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ। आपलोग भी सदा तपमें संलग्न रहनेवाले हैं; अतः: एकत्र होकर इस प्रश्नका विवेचन करें” ।। १८-१९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें ऋषभगीताविषयक एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सत्ताईसवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

“ऋषभका राजा सुमित्रको वीरद्युम्न और तनु मुनिका वृत्तान्त सुनाना”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर उन समस्त ऋषियोंमेंसे मुनिश्रेष्ठ ब्रह्मर्षि ऋषभने विस्मित होकर इस प्रकार कहा-- ।। १ ।।

नृपश्रेष्ठ पहलेकी बात है, मैं सब तीर्थोमें विचरण करता हुआ भगवान्‌ नरनारायणके दिव्य आश्रममें जा पहुँचा || २ ।।

'राजन्‌! जहाँ वह रमणीय बदरीका वृक्ष है, जहाँ वैहायस- कुण्ड है तथा जहाँ अश्वशिरा (हयग्रीव) सनातन वेदोंका पाठ करते हैं (वहीं नरनारायणाश्रम है) ।।

उस वैहायस कुण्डमें स्नान करके मैंने विधिपर्वूक देवताओं और पितरोंका तर्पण किया। उसके बाद उस आश्रममें प्रवेश किया, जहाँ मुनिवर नर और नारायण नित्य सानन्द निवास करते हैं ।। ४६ ।।

उसके बाद वहाँसे निकट ही एक-दूसरे आश्रममें मैं ठहरनेके लिये गया। वहाँ मुझे तनु नामवाले एक तपोधन ऋषि आते दिखायी दिये, जो चीर और मृगचर्म धारण किये हुए थे। उनका शरीर बहुत ऊँचा और अत्यन्त दुर्बल था ।। ५-६ ।।

महाबाहो! उन महर्षिका शरीर दूसरे मनुष्योंसे आठ गुना लंबा था। राजर्षे! मैंने उनकीजैसी दुर्बलता कहीं भी नहीं देखी है || ७ ।।

'राजेन्द्र। उनका शरीर भी कनिष्ठिका अंगुलीके समान पतला था। उनकी गर्दन, दोनों भुजाएँ, दोनों पैर और सिरके बाल भी अद्भुत दिखायी देते थे || ८ ।।

शरीरके अनुरूप ही उनके मस्तक, कान और नेत्र भी थे। नृपश्रेष्ठ] उनकी वाणी और चेष्टा साधारण थी ।। ९ ।।

मैं उन दुबले-पतले ब्राह्मणको देखकर डर गया और मन-ही-मन बहुत दुखी हो गया; फिर उनके चरणोंमें प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर उनके आगे खड़ा हो गया ।। १० ।।

नरश्रेष्ठ) उनके सामने नाम, गोत्र और पिताका परिचय देकर उन्हींके दिये हुए आसन पर धीरेसे बैठ गया || ११ 

महाराज! तदनन्तर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ तनु ऋषियोंके बीचमें बैठकर धर्म और अर्थसे युक्त कथा कहने लगे || १२ ।।

उनके कथा कहते समय ही कमलके समान नेत्रोंवाले एक नरेश वेगशाली घोड़ोंद्वारा अपनी सेना और अन्तःपुरके साथ वहाँ आ पहुँचे ।। १३ ।।

उनका पुत्र जंगलमें खो गया था। उसकी याद करके वे बहुत दुखी हो रहे थे। उनके पुत्रका नाम था भूरिद्युम्न और वे उसके महायशस्वी पिता श्रीमान्‌ वीरद्युम्न थे || १४ ।।

यहाँ उस पुत्रको अवश्य देखूँगा। यहाँ वह निश्चय ही दिखायी देगा। इसी आशासे बँधे हुए पृथ्वीपति राजा वीरद्युम्न उन दिनों उस वनमें विचर रहे थे || १५ 

“वह बड़ा धर्मात्मा था। अब उसका दर्शन होना अवश्य ही मेरे लिये दुर्लभ है। एक ही बेटा था, वह भी इस विशाल वनमें खो गया' इन्हीं बातोंको वे बार-बार दुहराते थे | १६।।

“मेरे लिये उसका दर्शन दुर्लभ है तो भी मेरे मनमें उसके मिलनेकी बड़ी भारी आशा लगी हुई है। उस आशाने मेरे सम्पूर्ण शरीरपर अधिकार कर लिया है। इसमें संदेह नहीं कि मैं उसके लिये मौतको भी स्वीकार कर लेना चाहता हूँ ॥। १७ ।।

राजाकी यह बात सुनकर मुनियोंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ तनु नीचे सिर किये ध्यानमग्न हो दो घड़ीतक चुपचाप बैठे रह गये ।। १८ ।।

उनको चिन्तन करते देख परम दुखी हुए नरेश दीनहृदय हो मन्द-मन्द वाणीमें बारंबार इस प्रकार कहने लगे--- ।। 

“देवर्ष! कौन वस्तु दुर्लभ है? और आशासे भी बड़ा क्‍या है? यदि आपकी दृष्टिमें यह बात मुझसे छिपानेयोग्य न हो तो आप इसे अवश्य बतावें" || २० ।।

तब मुनिने कहा--राजन्‌! आपके उस पुत्रने पहले कभी मूढ़ बुद्धिका आश्रय लेकर अपने दुर्भाग्यके कारण एक पूजनीय महर्षिका अपमान कर दिया था ।।

राजन्‌! वे उससे एक सुवर्णमय कलश और वल्कल माँग रहे थे। आपके पुत्रने अवहेलना करके भी महर्षिकी वह इच्छा पूरी नहीं की; इससे वे विप्र ऋषि अत्यन्त खिन्न और निराश हो गये थे ।। २२ ।।

(ऋषभ कहते हैं--) नरश्रेष्ठ] उनके ऐसा कहनेपर उन लोकपूजित महर्षिको प्रणाम करके धर्मात्मा राजा वीरघ्युम्न तुम्हारे ही समान थककर शिथिल हो गये ।। २३ ।।

तत्पश्चात्‌ उन महर्षिने तपोवनमें प्रचलित शिष्टाचारकी विधिसे राजाको पाद्य और अर्घ्य आदि सब वस्तुएँ अर्पित कीं ।। २४ ।।

पुरुषसिंह! तब वे सभी मुनि नरश्रेष्ठ वीरद्युम्मको सब ओरसे घेरकर उनके पास बैठ गये, मानो सप्तर्षि ध्रुवको चारों ओरसे घेरकर शोभा पा रहे हों || २५ ।।

उन सबने वहाँ उन अपराजित नरेशसे उस आश्रमपर पधारनेका सारा प्रयोजन पूछा ।। २६ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें ऋषभगीताविषयक एक सौ सत्ताईयवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  1. विहायसा गच्छन्त्या मन्दाकिन्या वैहायस्या अयं वैहायस:' अर्थात्‌ आकाशमार्गसे गमन करनेवाली मन्दाकिनी या आकाश गंगाका नाम वैहायसी है। वहींके जलसे भरा होनेके कारण वह कुण्ड वैहायस कहलाता है। बदरिकाश्रममें गंगाका नाम अलकनन्दा है।

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शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ अट्ठाईसवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“तनु मुनिका राजा वीरद्युम्नको आशाके स्वरूपका परिचय देना और ऋषभके उपदेशसे सुमित्रका आशाको त्याग देना”

राजाने कहा--मुने! मैं सम्पूर्ण दिशाओंमें विख्यात वीरद्युम्न नामक राजा हूँ और खोये हुए अपने पुत्र भूरिद्युम्मनकी खोज करनेके लिये वनमें आया हूँ ।। १ ।।

निष्पाप विप्रवर! मेरे एक ही वह पुत्र था। वह भी बालक ही था। इस वनमें आनेपर वह कहीं दिखायी नहीं दे रहा है, उसीको खोजनेके लिये मैं चारों ओर विचर रहा हूँ ।। २ ।।

ऋषभ कहते हैं--राजन्‌! राजाके ऐसा कहनेपर वे मुनि नीचे मुँह किये चुपचाप बैठे ही रह गये। राजाको कुछ उत्तर न दे सके ।। ३ ।।

राजेन्द्र! पूर्वकालमें कभी उसी राजाने उन्हीं ऋषिका विशेष आदर नहीं किया था। उनकी आशा भंग कर दी थी। इससे वे मुनि “मैं किसी प्रकार भी किसी राजा या दूसरे वर्णके लोगोंका दिया हुआ दान नहीं ग्रहण करूँगा” ऐसा निश्चय करके दीर्घकालीन तपस्यामें लग गये थे ।।

बहुत कालतक रहनेवाली आशा मूर्ख मनुष्यको ही उद्यमशील बनाती है। मैं उसे दूर कर दूँगा। ऐसा निश्चय करके वे तपस्यामें स्थिर हो गये थे। इधर वीरघ्युम्नने उन मुनिश्रेष्ठसे पुनः प्रश्न किया ।। ६ |।

राजा बोले--विप्रवर! आप धर्म और अर्थके ज्ञाता हैं, अतः यह बतानेकी कृपा करें कि आशासे बढ़कर दुर्बलता क्या है? और इस पृथ्वीपर सबसे दुर्लभ क्या है? ।। ७

तब उन दुर्बल शरीरवाले पूज्यपाद ऋषिने पहलेकी सारी बातोंको याद करके राजाको भी उनका स्मरण दिलाते हुए-से इस प्रकार कहा ।। ८ ।।

ऋषि बोले--नरेश्वर! आशा या आशावानकी दुर्बलताके समान और किसीकी दुर्बलता नहीं है। जिस वस्तुकी आशा की जाती है, उसकी दुर्लभताके कारण ही मैंने बहुत-से राजाओंके यहाँ याचना की है || ९ ।।

राजाने कहा--ब्रह्मन! मैंने आपके कहनेसे यह अच्छी तरह समझ लिया कि जो आशासे बाँधा हुआ है, वह दुर्बल है और जिसने आशाको जीत लिया है, वह पुष्ट है। द्विजश्रेष्ठ आपकी इस बातको भी मैंने वेदवाक्यकी भाँति ग्रहण किया कि जिस वस्तुकी आशा की जाती है, वह अत्यन्त दुर्लभ होती है || १० ।।

महाप्राज्ञ! मुने! किंतु मेरे मनमें एक संशय है, जिसे पूछ रहा हूँ। आप उसे यथार्थरूपसे बतानेकी कृपा करें ।। ११ ।।

मुनिश्रेष्ठ! यदि कोई वस्तु आपके लिये गोपनीय या छिपानेयोग्य न हो तो आप यह बतावें कि आपसे भी बढ़कर अत्यन्त दुर्बल वस्तु क्या है? ।। १२ ।।

दुर्बल शरीरवाले मुनिने कहा--तात! जो याचक धैर्य धारण कर सके अर्थात्‌ किसी वस्तुकी आवश्यकता होनेपर भी उसके लिये किसीसे याचना न करे, वह दुर्लभ है एवं जो याचना करनेवाले याचककी अवहेलना न करे--आदरपूर्वक उसकी इच्छा पूर्ण करे, ऐसा पुरुष संसारमें अत्यन्त दुर्लभ है ।। १३ ।।

जब मनुष्य सत्कार करके याचकको आशा दिलाकर भी उसका शक्तिके अनुसार यथायोग्य उपकार नहीं करता, उस स्थितिमें सम्पूर्ण भूतोंके मनमें जो आशा होती है, वह मुझसे भी अत्यन्त कृश होती है ।। १४ ।।

कृतघ्न, नृशंस, आलसी तथा दूसरोंका अपकार करनेवाले पुरुषोंमें जो आशा होती है, वह (कभी पूर्ण न होनेके कारण चिन्तासे दुर्बल बना देती है; इसलिये वह) मुझसे भी अत्यन्त कृश है || १५ ।।

इकलौते बेटेका बाप जब अपने पुत्रके खो जाने या परदेशमें चले जानेपर उसका कोई समाचार नहीं जान पाता, तब उसके मनमें जो आशा रहती है, वह मुझसे भी अत्यन्त कृश होती है ।। १६ ।।

नरेन्द्र! वृद्ध अवस्थावाली नारियोंके हृदयमें जो पुत्र पैदा होनेके लिये आशा बनी रहती है तथा धनियोंके मनमें जो अधिकाधिक धनलाभकी आशा रहती है, वह मुझसे अत्यन्त कृश है ।। १७ ।।

तरुण अवस्था आनेपर विवाहकी चर्चा सुनकर ब्याहकी इच्छा रखनेवाली कन्याओंके हृदयमें जो आशा होती है, वह मुझसे भी अत्यन्त कृश होती है- ।। १८ ।।

राजन! ब्राह्मणश्रेष्ठ उस ऋषिकी वह बात सुनकर राजा अपनी रानीके साथ उनके चरणोंका मस्तकसे स्पर्श करके वहीं गिर पड़े ।। १९ |।

राजा बोले--भगवन्‌! मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। मुझे अपने पुत्रसे मिलनेकी बड़ी इच्छा है। द्विजश्रेष्ठू आपने मुझसे इस समय जो कुछ कहा है, आपका यह सारा कथन सत्य है, इसमें संदेह नहीं ।।

तब धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ तनुने हँसकर अपनी तपस्या और शास्त्रज्ञानके प्रभावसे राजकुमारको शीघ्र वहाँ बुला दिया || २१½ ।।

इस प्रकार उनके पुत्रको वहाँ बुलाकर तथा राजाको उलाहना देकर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ तनु मुनिने उन्हें अपने साक्षात्‌ धर्मस्वरूपका दर्शन कराया || २२½।।

दिव्य और अदभुत दिखायी देनेवाले अपने स्वरूपका उन्हें दर्शन कराकर क्रोध और पापसे रहित तनु मुनि निकटवर्ती वनमें चले गये || २३ ।।

ऋषभ मुनि कहते हैं--राजन्‌! मैंने यह सब कुछ अपनी आँखों देखा है और मुनिका वह कथन भी अपने कानों सुना है। ऐसे ही तुम भी शरीरको अत्यन्त कृश बना देनेवाली इस मृगविषयक दुराशाको शीघ्र ही त्याग दो || २४ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! महात्मा ऋषभके ऐसा कहनेपर सुमित्रने शरीरको अत्यन्त दुर्बल बनानेवाली वह आशा तुरंत ही त्याग दी || २५ ।।

महाराज! कुन्तीकुमार! तुम भी मेरा यह कथन सुनकर आशाको त्याग दो और हिमालय पर्वतके समान स्थिर हो जाओ ।। २६ ।।

महाराज! ऐसे संकट उपस्थित होनेपर भी तुम यहाँ उपयुक्त प्रश्न करते और उनका योग्य उत्तर सुनते हो; इसलिये दुर्योधनके साथ जो संधि न हो सकी, उसको लेकर तुम्हें संतप्त नहीं होना चाहिये | २७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें ऋषभगीताविषयक एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  1. आशाको अत्यन्त कृश कहनेका तात्पर्य यह है कि वह मनुष्यको अत्यन्त कृश बना देती है।

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ उनतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ उनतीसवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“यम और गौतमका संवाद”

युधिष्ठिरने कहा--भरतनन्दन! जैसे अमृतको पीनेसे इच्छा पूर्ण नहीं होती, और भी पीनेकी इच्छा बढ़ती जाती है, उसी प्रकार जब आप उपदेश करने लगते हैं, उस समय उसे सुननेसे मेरा मन नहीं भरता है। जैसे परमात्माके ध्यानमें निमग्न हुआ योगी परमानन्दसे तृप्त हो जाता है, उसी प्रकार मैं भी अत्यन्त तृप्तिका अनुभव करता हूँ ।। १ ।।

अतः पितामह! आप पुनः धर्मकी ही बात बताइये। आपके धर्मोपदेशरूपी अमृतका पान करते समय मुझे यह नहीं अनुभव होता है कि बस, अब पूरा हो गया, बल्कि सुननेकी प्यास और बढ़ती ही जाती है ।। २ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठटिर! इस धर्मके विषयमें भी विज्ञ पुरुष गौतम तथा महात्मा यमके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ३ ।।

पारियात्रनामक पर्वतपर महर्षि गौतमका महान्‌ आश्रम है। उसमें गौतम जितने समयतक रहे, वह भी मुझसे सुनो ।। ४ ।।

गौतमने उस आश्रममें साठ हजार वर्षोतक तपस्या की। नरश्रेष्ठ। एक दिन उग्र तपस्यामें लगे हुए पवित्र महात्मा महामुनि गौतमके पास लोकपाल यम स्वयं आये। उन्होंने वहाँ आकर उत्तम तपस्वी गौतम ऋषिको देखा || ५-६ ।।

ब्रह्मर्षि गौतमने वहाँ आये हुए यमराजको उनके तेजसे ही जान लिया। फिर वे तपोधन मुनि हाथ जोड़ संयतचित्त हो उनके पास जा बैठे || ७ ।।

धर्मराजने विप्रवर गौतमको देखते ही उनका सत्कार किया और मैं आपकी क्‍या सेवा करूँ? ऐसा कहते हुए उन्हें धर्मचर्चा सुननेके लिये सम्मति प्रदान की ।। ८ ।।

तब गौतमने कहा--भगवन्‌! मनुष्य कौन-सा कर्म करके माता-पिताके ऋणसे उऋण हो सकता है? और किस प्रकार उसे दुर्लभ एवं पवित्र लोकोंकी प्राप्ति होती है? ।। ९ ।।

यमराजने कहा--ब्रह्मन्‌! मनुष्य तप करे, बाहर-भीतरसे पवित्र रहे और सदा सत्यभाषणरूप धर्मके पालनमें तत्पर रहे। यह सब करते हुए ही उसे नित्यप्रति मातापिताकी सेवा-पूजा करनी चाहिये ।। १० ।।

राजाको तो पर्याप्त दक्षिणाओंसे युक्त अनेक अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान भी करना चाहिये। ऐसा करनेसे पुरुष अद्भुत दृश्योंसे सम्पन्न पुण्यलोकोंको प्राप्त कर लेता है ।। ११ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें यम और यौतमका संवादविषयक एक सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ तीसवें अध्याय के श्लोक 1-50 का हिन्दी अनुवाद)

“आप त्तिके समय राजाका धर्म”

यधिष्ठटिरने पूछा--भारत! यदि राजाके शत्रु अधिक हो जाय॑ँ, मित्र उसका साथ छोड़ने लगें और सेना तथा खजाना भी नष्ट हो जाय तो उसके लिये कौन-सा मार्ग हितकर है? ।। १ ।।

दुष्ट मन्‍त्री ही जिसका सहायक हो, इसीलिये जो श्रेष्ठ परामर्शसे भ्रष्ट हो गया हो एवं राज्यसे जिसके भ्रष्ट हो जानेकी सम्भावना हो और जिसे अपनी उन्नतिका कोई श्रेष्ठ उपाय न दिखायी देता हो, उसके लिये क्या कर्तव्य है? ।।

जो शत्रुसेनापर आक्रमण करके शत्रुके राज्यको रौंद रहा हो; इतनेहीमें कोई बलवान्‌ राजा उसपर भी चढ़ाई कर दे तो उसके साथ युद्धमें लगे हुए उस दुर्बल राजाके लिये क्‍या आश्रय है? ॥। ३ ।।

जिसने अपने राज्यकी रक्षा नहीं की हो, जिसे देश और कालका ज्ञान नहीं हो, अत्यन्त पीड़ा देनेके कारण जिसके लिये साम अथवा भेदनीतिका प्रयोग असम्भव हो जाय, उसके लिये क्या करना उचित है वह जीवनकी रक्षा करे या धनके साधनकी? उसके लिये क्‍या करनेमें भलाई है? ।। ४ ।।

भीष्मजीने कहा--धर्मनन्दन! भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! यह तो तुमने मुझसे बड़ा गोपनीय विषय पूछा है। यदि तुम्हारे द्वारा प्रश्न न किया गया होता तो मैं इस समय इस संकटकालिक धर्मके विषयमें कुछ भी नहीं कह सकता था ।।

भरतभूषण! धर्मका विषय बड़ा सूक्ष्म है, शास्त्र-वचनोंके अनुशीलनसे उसका बोध होता है। शास्त्रश्रवण करनेके पश्चात्‌ अपने सदाचरणोंद्वारा उसका सेवन करके साधुजीवन व्यतीत करनेवाला पुरुष कहीं कोई बिरला ही होता है ।। ६ ।।

बुद्धिपूर्वक किये हुए कर्म (प्रयत्न)-से मनुष्य धनाढ्य हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। तुम्हें ऐसे प्रश्नपर स्वयं अपनी ही बुद्धिसे विचार करके किसी निश्चयपर पहुँचना चाहिये ।। ७ ।।

भारत! उपर्युक्त संकटके समय राजाओंके जीवनकी रक्षाके लिये मैं ऐसा उपाय बताता हूँ जिसमें धर्मकी अधिकता है, उसे ध्यान देकर सुनो। परंतु मैं धर्माचरणके उद्देश्यसे ऐसे धर्मको नहीं अपनाना चाहता ।। ८ ।।

आपत्तिके समय भी यदि प्रजाको दुःख देकर धन वसूल किया जाता है तो पीछे वह राजाके लिये विनाशके तुल्य सिद्ध होता है। आश्रय लेने योग्य जितनी बुद्धियाँ हैं, उन सबका यही निश्चय है ।। ९ ।।

पुरुष प्रतिदिन जैसे-जैसे शास्त्रका स्वाध्याय करता है वैसे-वैसे उसका ज्ञान बढ़ता जाता है फिर तो विशेष ज्ञान प्राप्त करनेमें ही उसकी रुचि हो जाती है || १० ।।

ज्ञान न होनेसे मनुष्यको संकटकालमें उससे बचनेके लिये कोई योग्य उपाय नहीं सूझता; परंतु ज्ञानसे वह उपाय ज्ञात हो जाता है। उचित उपाय ही ऐश्वर्यकी वृद्धि करनेका श्रेष्ठ साधन है ।। ११ ।।

तुम मेरी बातपर संदेह न करते हुए दोषदृष्टिका परित्याग करके यह उपदेश सुनो। खजानेके नष्ट होनेसे ही राजाके बलका नाश होता है ।। १२ ।।

जैसे मनुष्य निर्जल स्थानोंसे भी खोदकर जल निकाल लेता है उसी प्रकार राजा संकटकालमें निर्धन प्रजासे भी यथासाध्य धन लेकर अपना खजाना बढ़ावे; फिर अच्छा समय आनेपर उस धनके द्वारा प्रजापर अनुग्रह करे, यही सनातनकालसे चला आनेवाला धर्म है। पूर्ववर्ती राजाओंने भी आपत्तिकालमें इस उपायधर्मको पाकर इसका आचरण किया है ।। १३ ।।

भारत! सार्म्थ्यशाली पुरुषोंका धर्म दूसरा है और आपत्तिग्रस्त मनुष्योंका दूसरा। अतः पहले कोशसंग्रह कर लेनेपर राजाके लिये धर्मपालनका अवसर प्राप्त होता है; क्योंकि जीवन-निर्वाहका साधन प्राप्त करना धर्मसे भी बड़ा है ।। १४ ।।

दुर्बल मनुष्य धर्मको पाकर भी न्यायोचित्त जीविका नहीं उपलब्ध कर पाता है। धर्माचरण करनेसे बलकी प्राप्ति अवश्य हो जायगी, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता; इसलिये आपत्तिकालमें अधर्म भी धर्मरूप सुना जाता है। परंतु विद्वान्‌ पुरुष ऐसा मानते हैं कि आपत्तिकालमें भी धर्मके विरुद्ध आचरण करनेसे अधर्म होता ही है ।। १५-१६ ||

आपत्ति दूर होनेके बाद क्षत्रियको क्‍या करना चाहिये? वह प्रायश्नित्त करे या प्रजासे कर लेना छोड़ दे; यह संशय उपस्थित होता है। इसका समाधान यह है कि वह ऐसा बर्ताव करे जिससे उसके धर्मको हानि न पहुँचे तथा उसे शत्रुके अधीन न होना पड़े। विद्वानोंने उसके लिये यही कर्तव्य बतलाया है, वह किसी तरह अपने-आपको संकटमें न डाले || १७ ||

संकटकालमें मनुष्य अपने या दूसरेके धर्मकी ओर न देखे; अपितु सम्पूर्ण हृदयसे सभी उपायोंद्वारा अपने आपके ही उद्धारकी अभिलाषा करे, यही सबका निश्चय है ।। १८ ।।

तात! धर्मज्ञ पुरुषोंका निश्चय जैसे उनकी धर्म-विषयक निपुणताको सूचित करता है, उसी प्रकार बाहुबलसे अपनी उन्नतिके लिये उद्योग करना क्षत्रियकी निपुणताका सूचक है; यह श्रुतिका निर्णय है ।। १९ ।।

भरतनन्दन! क्षत्रिय यदि आजीविकासे रहित हो जाय तो वह तपस्वी और ब्राह्मणका धन छोड़कर और किसका धन नहीं ले सकता है (अर्थात्‌ सभीका ले सकता है) ।। २० ।।

जैसे ब्राह्मण यदि जीविकाके अभावमें कष्ट पा रहा हो तो वह यज्ञके अनधिकारीसे भी यज्ञ करा सकता है तथा प्राण बचानेके लिये न खाने योग्य अन्नको भी खा सकता है, उसी प्रकार यह (पूर्वश्लोकमें) क्षत्रियके लिये भी कर्तव्यका निर्देश किया गया है। इसमें संशय नहीं है ।। २१ ।।

आपदग्रस्त मनुष्यके लिये कौन-सा द्वार नहीं है? (वह जिस ओरसे निकल भागे, वही उसके लिये द्वार है)। कैदीके लिये कौन-सा बुरा मार्ग है (वह बिना मार्गके भी भागकर आत्मरक्षा कर सके तो ऐसा प्रयत्न कर सकता है)। मनुष्य जब आपकत्तिमें घिरा होता है तब वह बिना दरवाजेके भी भाग निकलता है || २२ ।।

खजाना और सेना न रहनेसे जिस क्षत्रियको सब लोगोंकी ओरसे पराभव प्राप्त होनेकी सम्भावना हो, उसीके लिये उपर्युक्त बातें बतायी गयी हैं। भीख माँगने और वैश्य या शूद्रकी जीविका अपनानेका क्षत्रियके लिये विधान नहीं है || २३ ।।

परंतु जब अपनी जातिके लिये प्रतिपादित धर्मका अवलम्बन करके जीवन-निर्वाह न कर सके तब उसके लिये स्वधर्मसे विपरीत वृत्ति भी बतायी गयी है। क्योंकि आपत्तिकालमें प्रथम कल्प अर्थात्‌ स्वधर्मानुकूल वृत्तिका त्याग करनेवाले पुरुषके लिये अपनेसे नीचे वर्णकी वृत्तिसे जीविका चलानेका विधान है ।। २४ ।।

जो आपत्तिमें पड़ा हो वह धर्मके विपरीत आचरणद्वारा जीवन-निर्वाह कर सकता है। जीविका क्षीण होनेपर ब्राह्मणोंमें ऐसा व्यवहार देखा गया है || २५ ।।

फिर क्षत्रियके लिये कैसे संदेह किया जा सकता है? उसके लिये भी सदा यही निश्चित है कि वह आपत्तिकालमें विशिष्ट अर्थात्‌ धनवान्‌ पुरुषोंसे बलपूर्वक धन ग्रहण करे। धनके अभावमें वह किसी तरह कष्ट न भोगे || २६ ।।

विद्वान्‌ पुरुष क्षत्रियको प्रजाका रक्षक और विनाशक भी मानते हैं। अतः क्षत्रियबन्धुको प्रजाकी रक्षा करते हुए ही धन ग्रहण करना चाहिये ।। २७ ।।

राजन! इस संसारमें किसीकी भी ऐसी वृत्ति नहीं है, जो हिंसासे शून्य हो। औरोंकी तो बात ही क्या है, वनमें रहकर एकाकी विचरनेवाले तपस्वी मुनिकी भी वृत्ति सर्व था हिंसारहित नहीं है || २८ ।।

कुरुश्रेष्ठ! कोई भी ललाटमें लिखी हुई वृत्तिका ही भरोसा करके जीवन-निर्वाह नहीं कर सकता; अतः प्रजापालनकी इच्छा रखनेवाले राजाका भाग्यके भरोसे निर्वाह चलाना तो सर्वथा अशक्य है ।। २९ ।।

इसलिये आपत्तिकालमें राजा और राज्यकी प्रजा दोनोंको निरन्तर एक-दूसरेकी रक्षा करनी चाहिये। यही सदाका धर्म है || ३० ।।

जैसे राजा प्रजापर संकट आ जाय तो राशि-राशि धन लुटाकर भी उसकी रक्षा करता है, उसी तरह राजाके ऊपर संकट पड़नेपर राष्ट्रकी प्रजाको भी उसकी रक्षा करनी चाहिये।।३१।।

राजा भूखसे पीड़ित होने--जीविकाके लिये कष्ट पानेपर भी खजाना, राजदण्ड, सेना, मित्र तथा अन्य संचित साधनोंको कभी राज्यसे दूर न करे || ३२ ।।

धर्मज्ञ पुरुषोंका कहना है कि मनुष्यको अपने भोजनके लिये संचित अन्नमेंसे भी बीजको बचाकर रखना चाहिये। इस विषयमें महामायावी शम्बरासुरका विचार भी ऐसा ही बताया गया है ।। ३३ ।।

जिसके राज्यकी प्रजा तथा वहाँ आये हुए परदेशी मनुष्य भी जीविकाके बिना कष्ट पा रहे हों उस राजाके जीवनको धिक्‍कार है ।। ३४ ।।

राजाकी जड़ है सेना और खजाना। इनमें भी खजाना ही सेनाकी जड़ है। सेना सम्पूर्ण धर्मोकी रक्षाका मूल कारण है और धर्म ही प्रजाकी जड़ है || ३५ ।।

दूसरोंको पीड़ा दिये बिना धनका संग्रह नहीं किया जा सकता; और धन-संग्रहके बिना सेनाका संग्रह कैसे हो सकता है? अतः आपत्तिकालमें कोश या धन-संग्रहके लिये प्रजाको पीड़ा देकर भी राजा दोषका भागी नहीं हो सकता ।। ३६ ।।

जैसे यज्ञकर्मोमें यज्ञके लिये वह कार्य भी किया जाता है जो करनेयोग्य नहीं है (किंतु वह दोषयुक्त नहीं माना जाता)। उसी प्रकार आपत्तिकालमें प्रजापीडनसे राजाको दोष नहीं लगता है || ३७ ।।

आपत्तिकालमें प्रजापीडन अर्थसंग्रहरूप प्रयोजनका साधक होनेके कारण अर्थकारक होता है, इसके विपरीत उसे पीड़ा न देना ही अनर्थकारक हो जाता है। इसी प्रकार जो दूसरे अनर्थकारी (व्यय बढ़ानेवाले सैन्य-संग्रह आदि) कार्य हैं, वे भी युद्धका संकट उपस्थित होनेपर अर्थकारी (विजय साधक) सिद्ध होते हैं। बुद्धिमान्‌ पुरुष इस प्रकार बुद्धिसे विचार करके कर्तव्यका निश्चय करे ।। ३८ ।।

जैसे अन्यान्य सामग्रियाँ यज्ञकी सिद्धिके लिये होती हैं, उत्तम यज्ञ किसी और ही प्रयोजनके लिये होता है, यज्ञ-सम्बन्धी अन्यान्य बातें भी किसी-न-किसी विशेष उद्देश्यकी सिद्धिके लिये ही होती हैं, तथा यह सब कुछ यज्ञका साधन ही है || ३९ ।।

अब मैं यहाँ धर्मके तत्त्वको प्रकाशित करनेवाली एक उपमा बता रहा हूँ। ब्राह्मणलोग यज्ञके लिये यूप निर्माण करनेके उद्देश्यसे वृक्षका छेदन करते हैं। उस वृक्षको काटकर बाहर निकालनेमें जो-जो पार्श्ववर्ती वृक्ष बाधक होते हैं उन्हें भी निश्चय ही वे काट डालते हैं। वे वृक्ष भी गिरते समय दूसरे-दूसरे वनस्पतियोंको भी प्राय: तोड़ ही डालते हैं || ४०-४१ 

परंतप! इस प्रकार जो मनुष्य (प्रजारक्षाके लिये किये जानेवाले) महान्‌ कोशके संग्रहमें बाधा उपस्थित करते हैं, उनका वध किये बिना इस कार्यमें मुझे सफलता होती नहीं दिखायी देती ।। ४२ ।।

धनसे मनुष्य इहलोक और परलोक दोनोंपर विजय पाता है तथा सत्य और धर्मका भी सम्पादन कर लेता है, परंतु निर्धनको इस कार्यमें वैसी सफलता नहीं मिलती। उसका अस्तित्व नहीं के बराबर होता है || ४३ ।।

भरतनन्दन! यज्ञ करनेके उद्देश्यको लेकर सभी उपायोंसे धनका संग्रह करे; इस प्रकार करने और न करने योग्य कर्म बन जानेपर भी कर्ताको अन्य अवसरोंके समान दोष नहीं लगता ।। ४४ ।।

राजन! पृथ्वीनाथ! धनका संग्रह और उसका त्याग--ये दोनों एक व्यक्तिमें एक ही साथ किसी तरह नहीं रह सकते; क्‍योंकि मैं वनमें रहनेवाले त्यागी महात्माओंको कहीं भी धनमें बढ़ा-चढ़ा नहीं देखता ।। ४५ ।।

यहाँ इस पृथ्वीपर यह जो कुछ भी धन देखा जाता है, “यह मेरा हो जाय, यह मेरा हो जाय', ऐसी ही अभिलाषा सभी लोगोंको रहती है ।। ४६ ।।

परंतप! राजाके लिये राज्यकी रक्षाके समान दूसरा कोई धर्म नहीं है। अभी जिस धर्मकी चर्चा की गयी है, वह केवल राजाओंके लिये आपत्तिकालमें ही आचरणमें लाने योग्य है; अन्यथा नहीं ।। ४७ ।।

कुछ लोग दानसे, कुछ लोग यज्ञकर्म करनेसे, कुछ तपस्वी तपस्या करनेसे, कुछ लोग बुद्धिसे और अन्य बहुत-से मनुष्य कार्यकौशलसे धनराशि प्राप्त कर लेते हैं ।।

निर्धनको दुर्बल कहा जाता है। धनसे मनुष्य बलवान्‌ होता है। धनवान्‌को सब कुछ सुलभ है। जिसके पास खजाना है, वह सारे संकटोंसे पार हो जाता है ।।

धन-संचयसे ही धर्म, काम, लोक तथा परलोककी सिद्धि होती है। उस धनको धर्मसे ही पानेकी इच्छा करे, अधर्मसे कभी नहीं ।। ५० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमानुशासनपर्वमें एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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