सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ इक्कीसवें अध्याय के श्लोक 1-60 का हिन्दी अनुवाद)
“दण्डके स्वरूप, नाम, लक्षण, प्रभाव और प्रयोगका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आपने यह सनातन राजधर्मका वर्णन किया है। इसके अनुसार महान् दण्ड ही सबका ईश्वर है, दण्डके ही आधारपर सब कुछ टिका हुआ है ।। १ |।
प्रभो! देवता, ऋषि, पितर, महात्मा, यक्ष, राक्षस, पिशाच तथा साध्यगण एवं पशुपक्षियोंकी योनिमें निवास करनेवाले जगत्के समस्त प्राणियोंके लिये भी सर्वव्यापी महातेजस्वी दण्ड ही कल्याणका साधन है ।।
देवता, असुर और मनुष्योंसहित इस सम्पूर्ण विश्वको अपने समीप देखते हुए आपने कहा है कि दण्डपर ही चराचर जगत् प्रतिष्ठित है। भरतश्रेष्ठ! मैं यथार्थ रूपसे यह सब जानना चाहता हूँ ।। ४ ।।
दण्ड क्या है? कैसा है? उसका स्वरूप किस तरहका है? और किसके आधारपर उसकी स्थिति है? प्रभो! उसका उपादान क्या है? उसकी उत्पत्ति कैसे हुई है? उसका आकार कैसा है? ।। ५ ।।
वह किस प्रकार सावधान रहकर सम्पूर्ण प्राणियोंपर शासन करनेके लिये जागता रहता है? कौन इस पूर्वापर जगतका प्रतिपालन करता हुआ जागता है? ।। ६ |।
पहले इसे किस नामसे जाना जाता था? कौन दण्ड प्रसिद्ध है? दण्डका आधार क्या है? तथा उसकी गति क्या बतायी गयी है? ।। ७ ।।
भीष्मजीने कहा--कुरुनन्दन! दण्डका जो स्वरूप है तथा जिस प्रकार उसको “व्यवहार' कहा जाता है, वह सब तुम्हें बताता हूँ; सुनो। इस संसारमें सब कुछ जिसके अधीन है, वही अद्वितीय पदार्थ यहाँ “दण्ड” कहलाता है ।। ८ ।।
महाराज! धर्मका ही दूसरा नाम व्यवहार है। लोकमें सतत सावधान रहनेवाले पुरुषके धर्मका किसी तरह लोप न हो, इसीलिये दण्डकी आवश्यकता है और यही उस व्यवहारका व्यवहारत्वः है ।। ९६ ।।
राजन! पूर्वकालमें मनुने यह उपदेश दिया है कि जो राजा प्रिय और अप्रियके प्रति समान भाव रखकर--किसीके प्रति पक्षपात न करके दण्डका ठीक-ठीक उपयोग करते हुए प्रजाकी भलीभाँति रक्षा करता है, उसका वह कार्य केवल धर्म है ।। १०-११ ।।
नरेन्द्र! उपर्युक्त सारी बातें मनुजीने पहले ही कह दी हैं और मैंने जो बात कही है, वह ब्रह्माजीका महान् वचन है। यही वचन मनुजीके द्वारा पहले कहा गया है; इसलिये इसको 'प्राग्वचन” के नामसे भी जानते हैं। इसमें व्यवहारका प्रतिपादन होनेसे यहाँ व्यवहार नाम दिया गया है ।। १२-१३ ।।
दण्डका ठीक-ठीक उपयोग होनेपर राजाके धर्म, अर्थ और कामकी सिद्धि सदा होती रहती है। इसलिये दण्ड महान् देवता है, यह अग्निके समान तेजस्वी रूपसे प्रकट हुआ है ।। १४ ।।
इसके शरीरकी कान्ति नील कमलदलके समान श्याम है, इसके चार दाढ़ें और चार भुजाएँ हैं। आठ पैर और अनेक नेत्र हैं। इसके कान खूँटेके समान हैं और रोएँ ऊपरकी ओर उठे हुए हैं || १५ ।।
इसके सिरपर जटा है, मुखमें दो जिह्वाएँ हैं, मुखका रंग ताँबेके समान है, शरीरको ढकनेके लिये उसने व्याप्रचर्म धारण कर रखा है, इस प्रकार दुर्धर्ष दण्ड सदा यह भयंकर रूप धारण किये रहता है ।।
खड्ग, धनुष, गदा, शक्ति, त्रिशूल, मुदूगर, बाण, मुसल, फरसा, चक्र, पाश, दण्ड, ऋष्टि, तोमर तथा दूसरे-दूसरे जो कोई प्रहार करनेयोग्य अस्त्र-शस्त्र हैं, उन सबके रूपमें सर्वात्मा दण्ड ही मूर्तिमान्ू होकर जगतमें विचरता है ।। १७-१८ ।।
वही अपराधियोंको भेदता, छेदता, पीड़ा देता, काटता, चीरता, फाड़ता तथा मरवाता है। इस प्रकार दण्ड ही सब ओर दौड़ता-फिरता है ।। १९ |।
युधिष्ठि! असि, विशसन, धर्म, तीक्ष्णवर्मा, दुराधर, श्रीगर्भ, विजय, शास्ता, व्यवहार, सनातन, शास्त्र, ब्राह्मण, मन्त्र, शास्ता, प्राग्वदतांवर, धर्मपाल, अक्षर, देव, सत्यग, नित्यग, अग्रज, असंग, रुद्रतनय, मनु, ज्येष्ठ और शिवंकर--ये दण्डके नाम कहे गये हैं || २०-२२ ||
दण्ड सर्वत्र व्यापक होनेके कारण भगवान् विष्णु है और नरों (मनुष्यों) का अयन (आश्रय) होनेसे नारायण कहलाता है। वह प्रभावशाली होनेसे प्रभु और सदा महत् रूप धारण करता है, इसलिये महान् पुरुष कहलाता है ।।
इसी प्रकार दण्डनीति भी ब्रह्माजीकी कन्या कही गयी है। लक्ष्मी, वृत्ति, सरस्वती तथा जगद्धात्री भी उसीके नाम हैं। इस प्रकार दण्डके बहुत-से रूप हैं ।।
अर्थ-अनर्थ, सुख-दुःख, धर्म-अधर्म, बल-अबल, दौर्भाग्य-सौभाग्य, पुण्य-पाप, गुणअवगुण, काम-अकाम, ऋतु-मास, दिन-रात, क्षण, प्रमाद-अप्रमाद, हर्ष-क्रोध, शम-दम, दैव-पुरुषार्थ, बन्ध-मोक्ष, भय-अभय, हिंसा-अहिंसा, तप-यज्ञ, संयम, विष-अविष, आदि, अन्त, मध्य, कार्यविस्तार, मद, असावधानता, दर्प, दम्भ, धैर्य, नीति-अनीति, शक्ति-अशक्ति, मान, स्तब्धता, व्यय-अव्यय, विनय, दान, काल-अकाल, सत्य-असत्य, ज्ञान, श्रद्धा-अश्रद्धा, अकर्मण्यता, उद्योग, लाभ-हानि, जय-पराजय, तीक्ष्णता-मृदुता, मृत्यु, आना-जाना, विरोध-अविरोध, कर्तव्य-अकर्तव्य, सबलता-निर्बलता, असूया-अनसूया, धर्मअधर्म, लज्जा-अलज्जा, सम्पत्ति-विपत्ति, स्थान, तेज, कर्म, पाण्डित्य, वाकृशक्ति तथा तत्त्वबोध--ये सब दण्डके ही अनेक नाम और रूप हैं। कुरुनन्दन! इस प्रकार इस जगतमें दण्डके बहुत-से रूप हैं || २५--३३ ।।
युधिष्ठिर! यदि संसारमें दण्डकी व्यवस्था न होती तो सब लोग एक-दूसरेको नष्ट कर डालते। दण्डके ही भयसे मनुष्य आपसमें मार-काट नहीं मचाते हैं || ३४ ।।
राजन! दण्डसे सुरक्षित रहती हुई प्रजा ही इस जगत्में अपने राजाको प्रतिदिन धनधान्यसे सम्पन्न करती रहती है। इसलिये दण्ड ही सबको आश्रय देनेवाला है || ३५ ।।
नरेश्वर! दण्ड ही इस लोकको शीघ्र ही सत्यमें स्थापित करता है। सत्यमें ही धर्मकी स्थिति है और धर्म ब्राह्मणोंमें स्थित है ।। ३६ ।।
धर्मयुक्त श्रेष्ठ ब्राह्मण वेदोंका स्वाध्याय करते हैं। वेदोंसे ही यज्ञ प्रकट हुआ है। यज्ञ देवताओंको तृप्त करता है। तृप्त हुए देवता इन्द्रसे प्रजाके लिये प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं, इससे इन्द्र प्रजाजनोंपर अनुग्रह करके (समयपर वर्षाके द्वारा खेती उपजाकर) उन्हें अन्न देता है, समस्त प्राणियोंके प्राण सदा अन्नपर ही टिके हुए हैं; इसलिये दण्डसे ही प्रजाओंकी स्थिति बनी हुई है। वही उनकी रक्षाके लिये सदा जाग्रत् रहता है ।। ३७--३९ ।।
इस प्रकार रक्षारूपी प्रयोजन सिद्ध करनेवाला दण्ड क्षत्रियभावको प्राप्त हुआ है। वह अविनाशी होनेके कारण सदा सावधान होकर प्रजाकी रक्षाके लिये जागता रहता है। ।।४०।।
ईश्वर, पुरुष, प्राण, सत्त्व, चित्त, प्रजापति, भूतात्मा तथा जीव--इन आठ नामोंसे दण्डका ही प्रतिपादन किया जाता है ।। ४१ ।।
जो सर्वदा सैनिक-बलसे सम्पन्न है तथा जो धर्म, व्यवहार, दण्ड, ईश्वर और जीवरूपसे पाँच- प्रकारके स्वरूप धारण करता है, उस राजाको ईश्वरने ही दण्डनीति तथा अपना ऐश्वर्य प्रदान किया है || ४२ ।।
युधिष्ठिर! राजाका बल दो तरह का होता है--एक प्राकृत और दूसरा आहार्य। उनमेंसे कुल, प्रचुर धन, मन्त्री तथा बुद्धि--ये चार प्राकृतिक बल कहे गये हैं, आहार्य बल उससे भिन्न है। वह निम्नांकित आठ वस्तुओंके द्वारा आठ प्रकारका माना गया है || ४३ ।।
हाथी, घोड़े, रथ, पैदल, नौका, बेगार, देशकी प्रजा तथा भेड़ आदि पशु--ये आठ अंगोंवाला बल आहार्य माना गया है || ४४ ।।
अथवा संयुक्त अंगके रथी, हाथीसवार, घुड़सवार, पैदल, मन्त्री, वैद्य, भिक्षुक, वकील, ज्योतिषी, दैवज्ञ, कोश, मित्र, धान्य तथा अन्य सब सामग्री, राज्यकी सात प्रकृतियाँ (स्वामी, अमात्य, सुहृद, कोश, राष्ट्र, दुर्ग और सेना) और उपर्युक्त आठ अंगोंसे युक्त बल-इन सबको राज्यका शरीर माना गया है। इन सबमें दण्ड ही प्रधान अंग है, क्योंकि दण्ड ही सबकी उत्पत्तिका कारण है ।। ४५--४७ ।।
ईश्वरने यत्नपूर्वक धर्मरक्षाके लिये क्षत्रियके हाथमें उसके समान जातिवाला दण्ड समर्पित किया है; इसलिये दण्ड ही इस सनातन व्यवहारका कारण है ।।
ब्रह्माजीने लोकरक्षा तथा स्वधर्मकी स्थापनाके निमित्त जिस धर्मका प्रदर्शन (उपदेश) किया था, वह दण्ड ही है। राजाओंके लिये उससे बढ़कर परम पूजनीय दूसरा धर्म नहीं है ।। ४९ |।
स्वामी अथवा विचारकके विश्वासके अनुसार जो व्यवहार उत्पन्न होता है, वह (वादीप्रतिवादीद्वारा उठाये हुए विवादसे उत्पन्न व्यवहारकी अपेक्षा) भिन्न है। उससे जो दण्ड दिया जाता है, उसका नाम है 'भर्व॒प्रत्ययलक्षण” वह सम्पूर्ण जगत॒के लिये हितकर देखा गया है (यह पहला भेद है) ।। ५० ।।
नरश्रेष्ठ! वेदप्रतिपादित दोषोंका आचरण करने-वाले अपराधीके लिये जो व्यवहार या विचार होता है, वह वेदप्रत्यय कहलाता है (यह दूसरा भेद है) और कुलाचार भंग करनेके अपराधपर किये जानेवाले विचार या व्यवहारको मौल कहते हैं (यह तीसरा भेद है)। इसमें भी शास्त्रोक्त दण्डका ही विधान किया जाता है ।।
पहले जो भर्वृप्रत्ययलक्षण दण्ड बताया गया है, वह हमें राजामें ही स्थित जानना चाहिये; क्योंकि वह विश्वास और दण्ड राजापर ही अवलम्बित है ।। ५२ ।।
यद्यपि स्वामीके विश्वासके आधारपर ही वह दण्ड देखा गया है; तथापि उसे भी व्यवहारस्वरूप ही माना गया है। जिसे व्यवहार माना गया है, वह भी वेदोक्त विषयसे भिन्न नहीं है || ५३ ।।
जिसका स्वरूप वेदसे प्रकट हुआ है, वह धर्म ही है। जो धर्म है, वह अपना गुण (लाभ) दिखाता ही है। पुण्यात्मा पुरुषोंने धर्मके अनुसार ही धर्मविश्वास मूलक दण्डका प्रतिपादन किया है ।। ५४ ।।
युधिष्ठिर! ब्रह्माजीका बताया हुआ जो प्रजा-रक्षक व्यवहार है, वह सत्यस्वरूप होनेके साथ ही ऐश्वर्यकी वृद्धि करनेवाला है, वही तीनों लोकोंको धारण करता है ।। ५५ ।।
जो दण्ड है, वही हमारी दृष्टिमें सनातन व्यवहार है। जो व्यवहार देखा गया है, वही वेद है, यह निश्चितरूपसे कहा जा सकता है ।। ५६ ।।
जो वेद है, वही धर्म है और जो धर्म है, वही सत्पुरुषोंका सन्मार्ग है। सत्पुरुष हैं लोकपितामह प्रजापति ब्रह्माजी, जो सबसे पहले प्रकट हुए थे ।। ५७ ।।
वे ही देवता, मनुष्य, नाग, असुर तथा राक्षसोंसहित सम्पूर्ण लोकोंके कर्ता तथा समस्त प्राणियोंके स्रष्टा हैं ।।
उन्हींसे भर्तृप्रत्यय नामक इस अन्य प्रकारके दण्डकी प्रवृति हुई; फिर उन्होंने ही इस व्यवहारके लिये यह आदर्श वाक्य कहा-- || ५९ ||
“माता, पिता, भाई, स्त्री तथा पुरोहित कोई भी क्यों न हो, जो अपने धर्ममें स्थिर नहीं रहता, उसे राजा अवश्य दण्ड दे, राजाके लिये कोई भी अदण्डनीय नहीं है' ।।६०।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें दण्डके स्वरूपका वर्णनविषयक एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टीक टिप्पणी ;-
- विगत: अवहार: धर्मस्य येन स: व्यवहार:”। दूर हो गया है धर्मका अवहार (लोप) जिसके द्वारा, वह व्यवहार है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार धर्मको लुप्त होनेसे बचाना ही व्यवहारका व्यवहारत्व है।
- यहाँ पद्रहवें और सोलहवें श्लोकमें आये हुए पदोंकी नीलकण्ठने व्यावहारिक दण्डके विशेषणरूपसे भी संगति लगायी है। इन विशेषणोंको रूपक मानकर अर्थ किया है।
- किन्हीं-किन्हींके मतमें प्रजाके जीवन, धन, मान, स्वास्थ्य और न्यायकी रक्षा करनेके कारण राजाका स्वरूप पाँच प्रकारका बताया गया है।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
एक सौ बाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ बाईसवें अध्याय के श्लोक 1-56 का हिन्दी अनुवाद)
“दण्डकी उत्पत्ति तथा उसके क्षत्रियोंके हाथमें आनेकी परम्पराका वर्णन”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इस दण्डकी उत्पत्तिके विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। उसे भी तुम सुन लो। अंगदेशमें वसुहोम नामसे प्रसिद्ध एक तेजस्वी राजा राज्य करते थे ।। १ ।।
“एक समयकी बात है, वे महातपस्वी धर्मज्ञ नरेश अपनी पत्नीके साथ देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंसे पूजित मुंजपृष्ठ नामक तीर्थस्थानमें आये ।। २ ।।
राजेन्द्र! वह स्थान सुवर्णमय पर्वत सुमेरुके समीपवर्ती हिमालयके शिखरपर है, जहाँ मुंजावटमें परशुरामजीने अपनी जटाएँ बाँधनेका आदेश दिया था। तभीसे कठोर व्रतका पालन करनेवाले ऋषियोंने उस रुद्रसेवित प्रदेशको मुंजपृष्ठ नाम दे दिया ।। ३-४ ।।
वे वहाँ बहुतेरे वेदोक्त गुणोंसे सम्पन्न हो तपस्या करने लगे। उस तपके प्रभावसे वे देवर्षियोंके तुल्य हो गये। ब्राह्मणोंमें उनका बड़ा सम्मान होने लगा ।। ५ ।।
एक दिन इन्द्रके सम्मानित सखा उदारचेता शत्रुसूदन राजा मान्धाता उनके दर्शनके लिये आये ।।
राजा मान्धाता उत्तम तपस्वी अंगनरेश वसुहोमके पास पहुँचकर दर्शन करके उनके सामने विनीतभावसे खड़े हो गये || ७ ।।
वसुहोमने भी राजाको पाद्य और अर्घ्य निवेदन किया तथा सातों अंगोंसे युक्त उनके राज्यका कुशल-समाचार पूछा ।। ८ ।।
पूर्वकालमें साधु पुरुषोंने जिस पथका अनुसरण किया था, उसीपर यथावत् रूपसे निरन्तर चलनेवाले मान्धातासे वसुहोमने पूछा--राजन्! मैं आपकी क्या सेवा करूँ?” ।। ९ ||
कुरुनन्दन! तब परम प्रसन्न हुए मान्धाताने वहाँ बैठे हुए महाज्ञानी नृपश्रेष्ठ वसुहोमसे पूछा ।। १० ।।
मान्धाता बोले--राजन्! नरश्रेष्ठ! आपने बृहस्पतिके सम्पूर्ण मतका अध्ययन किया है। साथ ही शुक्राचार्यके नीतिशास्त्रका भी आपको पूर्ण ज्ञान है ।। ११ ।।
अतः मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि दण्डकी उत्पत्ति कैसे हुई? इसके पहले कौन-सी वस्तु जागरूक थी? तथा इस दण्डको सबसे उत्कृष्ट क्यों कहा जाता है? ।।
इस समय यह दण्ड क्षत्रियोंके हाथमें कैसे आया है? महामते! यह सब मुझे बताइये। मैं आपको गुरुदक्षिणा प्रदान करूँगा ।। १३ ।।
वसुहोम बोले--राजन्! दण्ड सम्पूर्ण जगत्के नियमके अंदर रखनेवाला है। यह धर्मका सनातन स्वरूप है। इसका उद्देश्य है प्रजाको उद्ण्डतासे बचाना। इसकी उत्पत्ति जिस तरहसे हुई है, सो बता रहा हूँ; सुनो ।।
हमारे सुननेमें आया है कि सर्वलोकपितामह भगवान् ब्रह्मा किसी समय यज्ञ करना चाहते थे; किंतु उन्हें अपने योग्य कोई ऋत्विज नहीं दिखायी दिया || १५ ।।
तब उन्होंने बहुत वर्षोतक अपने मस्तकपर एक गर्भ धारण किया। जब एक हजार वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजीको छींक आयी और वह गर्भ नीचे गिर पड़ा ।।
शत्रुदमन नरेश! उससे जो बालक प्रकट हुआ, उसका नाम '“क्षुप' रखा गया। महाराज! महात्मा ब्रह्माजीके उस यज्ञमें प्रजापति क्षुप ही ऋत्विज हुए ।। १७ ।।
नृपश्रेष्ठ! ब्रह्माजीका वह यज्ञ आरम्भ होते ही वहाँ प्रत्यक्ष दीखनेवाले यज्ञकी प्रधानता होनेसे ब्रह्माका वह दण्ड अन्तर्धान हो गया ।। १८ ।।
दण्ड लुप्त होते ही प्रजामें वर्णसंकरता फैलने लगी। कर्तव्याकर्तव्य तथा भक्ष्याभक्ष्यका विचार सर्वथा उठ गया ।। १९ |।
फिर पेयापेयका ही विचार कैसे रह सकता था? सब लोग एक दूसरेकी हिंसा करने लगे। उस समय गम्यागम्यका विचार भी नहीं रह गया था। अपना और पराया धन एक-सा समझा जाने लगा ।। २० ||
जैसे कुत्ते मांसके टुकड़ेके लिये आपसमें छीना-झपटी और नोच-खसोट करते हैं, उसी तरह मनुष्य भी परस्पर लूट-पाट करने लगे। बलवान पुरुष दुर्बलोंकी हत्या करने लगे। सर्वत्र उच्छुंखलता फैल गयी ।। २१ ।।
ऐसी अवस्था हो जानेपर पितामह ब्रह्माने सनातन भगवान् विष्णुका पूजन करके वरदायक देवता महादेवजीसे कहा--“शंकर! इस परिस्थितिमें आपको कृपा करनी चाहिये। जिस प्रकार संसारमें वर्णसंकरता न फैले, वह उपाय आप करें ।। २२-२३ ।।
तब शूल नामक श्रेष्ठ शस्त्र धारण करनेवाले सुरश्रेष्ठ महादेवजीने देरतक विचार करके स्वयं अपने आपको ही दण्डके रूपमें प्रकट किया ।। २४ ।।
उससे धर्माचरण होता देख नीतिस्वरूपा देवी सरस्वतीने दण्डनीतिकी रचना की जो तीनों लोकोंमें विख्यात है || २५ ।।
भगवान् शूलपाणिने पुन: चिरकालतक चिन्तन करके भिन्न-भिन्न समूहका एक-एक राजा बनाया || २६ |।
उन्होंने सहसनेत्रधारी इन्द्रदेवको देवेश्वरके पदपर प्रतिष्ठित किया और सूर्यपुत्र यमको पितरोंका राजा बनाया || २७ |।
कुबेरको धन और राक्षसोंका, सुमेरुको पर्वतोंका और महासागरको सरिताओंका स्वामी बना दिया || २८ ।।
शक्तिशाली भगवान् वरुणको जल और असूुरोंके राज्यपर प्रतिष्ठित किया। मृत्युको प्राणोंका तथा अग्नि-देवको तेजका आधिपत्य प्रदान किया ।। २९ ।।
विशाल नेत्रोंवाले सनातन महात्मा महादेवजीने अपने आपको रुद्रोंका अधीश्वर तथा शक्तिशाली संरक्षक बनाया ।। ३० ।।
वसिष्ठको ब्राह्मणोंका, जातवेदा अग्निको वसुओंका, सूर्यको तेजस्वी ग्रहोंका और चन्द्रमाको नक्षत्रोंका अधिपति बनाया ।। ३१ ।।
अंशुमानको लताओंका तथा बारह भुजाओंसे विभूषित शक्तिशाली कुमार स्कन्दको भूतोंका श्रेष्ठ राजा नियुक्त किया ।। ३२ ।।
संहार और विनय (उत्पादन) जिसका स्वरूप है, उस सर्वेश्वर कालको चार प्रकारकी मृत्युका, सुखका और दुःखका भी स्वामी बनाया || ३३ ।।
सबके देवता, राजाओंके राजा और मनुष्योंके अधिपति शूलपाणि भगवान् शिव स्वयं समस्त रुद्रोंके अधीश्वर हुए। ऐसा सुना जाता है ।। ३४ ।।
ब्रह्माजीके छोटे पुत्र क्षुपको उन्होंने समस्त प्रजाओं तथा सम्पूर्ण धर्मधारियोंका श्रेष्ठ अधिपति बना दिया ।। ३५ |।
तदनन्तर ब्रह्माजीका वह यज्ञ जब विधिपूर्वक सम्पन्न हो गया, तब महादेवजीने धर्मरक्षक भगवान् विष्णुका सत्कार करके उन्हें वह दण्ड समर्पित किया ।। ३६ ।।
भगवान् विष्णुने उसे अंगिराको दे दिया। मुनिवर अंगिराने इन्द्र और मरीचिको दिया और मरीचिने भूगुको सौंप दिया || ३७ ।।
भृगुने वह धर्मसमाहित दण्ड ऋषियोंको दिया। ऋषियोंने लोकपालोंको, लोकपालोंने क्षुपको, क्षुपने सूर्यपुत्र मनु (श्राद्धदेव) को और श्राद्धदेवने सूक्ष्म धर्म तथा अर्थकी रक्षाके लिये उसे अपने पुत्रोंको सौंप दिया | ३८-३९ |।
अतः: धर्मके अनुसार न्याय-अन्यायका विचार करके ही दण्डका विधान करना चाहिये, मनमानी नहीं करनी चाहिये। दुष्टोंका दमन करना ही दण्डका मुख्य उद्देश्य है, स्वर्णमुद्राएँ लेकर खजाना भरना नहीं। दण्डके तौरपर सुवर्ण (धन) लेना तो बाह्रंग--गौण कर्म है || ४० ।।
किसी छोटे-से अपराधपर प्रजाका अंग-भंग करना, उसे मार डालना, उसे तरहतरहकी यातनाएँ देना तथा उसको देहत्यागके लिये विवश करना अथवा देशसे निकाल देना कदापि उचित नहीं है ।। ४१ ।।
सूर्यपुत्र मनुने प्रजाकी रक्षाके लिये ही अपने पुत्रोंके हाथोंमें दण्ड सौंपा था, वही क्रमश: उत्तरोत्तर अधिकारियोंके हाथमें आकर प्रजाका पालन करता हुआ जागता रहता है || ४२ ।।
भगवान् इन्द्र दण्ड-विधान करनेमें सदा जागरूक रहते हैं। इन्द्रसे प्रकाशमान अग्नि, अग्निसे वरुण और वरुणसे प्रजापति उस दण्डको प्राप्त करके उसके यथोचित प्रयोगके लिये सदा जाग्रत् रहते हैं |। ४३ ।।
जो सम्पूर्ण जगतको शिक्षा देनेवाले हैं, वे धर्म प्रजापतिसे दण्डको ग्रहण करके प्रजाकी रक्षाके लिये सदा जागरूक रहते हैं। ब्रह्मपुत्र सनातन व्यवसाय वह दण्ड धर्मसे लेकर लोकरक्षाके लिये जागते रहते हैं ।।
व्यवसायसे दण्ड लेकर तेज जगत्की रक्षा करता हुआ सजग रहता है। तेजसे ओषधियाँ, ओषधियोंसे पर्वत, पर्वतोंसे रस, रससे निर्क्रति और निर्ऋ्रतिसे ज्योतियाँ क्रमशः उस दण्डको हस्तगत करके लोक-रक्षाके लिये जागरूक बनी रहती हैं || ४५-४६ ।।
ज्योतियोंसे दण्ड ग्रहण करके वेद प्रतिष्ठित हुए हैं। वेदोंसे भगवान् हयग्रीव और हयग्रीवसे अविनाशी प्रभु ब्रह्मा वह दण्ड पाकर लोक-रक्षाके लिये जागते रहते हैं || ४७ ।।
पितामह ब्रह्मासे दण्ड और रक्षाका अधिकार पाकर महान् देव भगवान् शिव जागते हैं। शिवसे विश्वेदेव, विश्वेदेवोंसे ऋषि, ऋषियोंसे भगवान् सोम, सोमसे सनातन देवगण और देवताओंसे ब्राह्मण वह अधिकार लेकर लोक-रक्षाके लिये सदा जाग्रत् रहते हैं। इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो || ४८-४९ |।
तदनन्तर ब्राह्मणोंसे दण्ड धारणका अधिकार पाकर क्षत्रिय धर्मानुसार सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करते हैं। क्षत्रियोंसे ही यह सनातन चराचर जगत् सुरक्षित होता रहा है ।। ५० ||
इस लोकमें प्रजा जागती है और प्रजाओंमें दण्ड जागता है। वह ब्रह्माजीके समान तेजस्वी दण्ड सबको मर्यादाके भीतर रखता है ।। ५१ ।।
भारत! यह कालरूप दण्ड सृष्टिके आदिमें, मध्यमें और अन्तमें भी जागता रहता है। यह सर्वलोकेश्वर महादेवका स्वरूप है। यही समस्त प्रजाओंका पालक है ।। ५२ ।।
इस दण्डके रूपमें देवाधिदेव कल्याणस्वरूप सर्वात्मा प्रभु जटाजूटधारी उमावललभ दुःखहारी स्थाणु-स्वरूप एवं लोक-मंगलकारी भगवान् शिव ही सदा जाग्रत रहते है। ५३।।
इस तरह यह दण्ड आदि, मध्य और अन्तमें विख्यात है। धर्मज्ञ राजाको चाहिये कि इसके द्वारा न्यायोचित बर्ताव करे ।। ५४ ।।
भीष्मजी कहते हैं--यथिष्ठिर! जो नरेश इस प्रकार बताये हुए वसुहोमके इस मतको सुनता और सुनकर यथोचित बर्ताव करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ।। ५५ ||
नरश्रेष्ठी भरतनन्दन! जो दण्ड सम्पूर्ण धार्मिक जगत्के नियमके भीतर रखनेवाला है, उसके सम्बन्धमें जितनी बातें हैं, उन्हें मैंने तुम्हें बता दीं ।। ५६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें दण्डकी उत्पत्तिकी कथाविषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय प्रा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
एक सौ तेईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ तेईसवें अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“त्रिवर्गका विचार पापके कारण पदच्युत हुए राजाके पुनरुत्थानके विषयमें आंगरिष्ठ और कामन्दकका संवाद”
युधिष्ठिरने पूछा--तात! मैं धर्म, अर्थ और कामके सम्बन्धमें आपका निश्चित मत सुनना चाहता हूँ। किनपर अवलम्बित होनेपर लोकयात्राका पूर्ण रूपसे निर्वाह होता है? ।। १ ।।
धर्म, अर्थ और कामका मूल क्या है? इन तीनोंकी उत्पत्तिका कारण क्या है? ये कहीं एक साथ मिले हुए और कहीं पृथक्-पृथक् क्यों रहते हैं? || २ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! संसारमें जब मनुष्योंका चित्त शुद्ध होता है और वे धर्मपूर्वक किसी अर्थकी प्राप्तिका निश्चय करके प्रवृत्त होते हैं, उस समय उचित काल, कारण तथा कर्मनुष्ठानवश धर्म, अर्थ और काम-तीनों एक साथ मिले हुए प्रकट होते हैं ।। ३ ।।
इनमें धर्म सदा ही अर्थकी प्राप्तिका कारण है और काम अर्थका फल कहलाता है, परंतु इन तीनोंका मूल कारण है संकल्प और संकल्प है विषयरूप ।। ४ ।।
सम्पूर्ण विषय पूर्णतः इन्द्रियोंके उपभोगमें आनेके लिये हैं। यही धर्म, अर्थ और कामका मूल है, इससे निवृत्त होना ही “मोक्ष” कहा जाता है ।। ५ ।।
धर्मसे शरीरकी रक्षा होती है, धर्मका उपार्जन करनेके लिये ही अर्थकी आवश्यकता बतायी जाती है तथा कामका फल है रति। वे सभी रजोगुणमय हैं ।। ६ ।।
ये धर्म आदि जिस प्रकार संनिकृष्ट अर्थात् अपना वास्तविक हित करनेवाले हों, उसी रूपमें इनका सेवन करे अर्थात् इनको कल्याणसाधन बनाकर ही उपयोगमें लावे। मनद्वारा भी इनका त्याग न करे, फिर स्वरूपसे शरीरद्वारा त्याग करना तो दूरकी बात है। केवल तप अथवा विचारके द्वारा ही उनसे अपनेको मुक्त रखे अर्थात् आस्ति और फलका त्याग करके ही इन सब धर्म, अर्थ और कामका सेवन करना चाहिये ।। ७ ।।
आसक्ति और फलेच्छाको त्यागकर त्रिवर्गका सेवन किया जाय तो उसका पर्यवसान कल्याणमें ही होता है। यदि मनुष्य उसे प्राप्त कर सके तो बड़े सौभाग्यकी बात है। अर्थसिद्धिके लिये समझ-बूझकर धर्मानुष्ठान करनेपर भी कभी अर्थकी सिद्धि होती है, कभी नहीं होती है || ८ ।।
इसके सिवा, कभी दूसरे-दूसरे उपाय भी अर्थके साधक हो जाते हैं और कभी अर्थसाधक कर्म भी विपरीत फल देनेवाला हो जाता है। कभी धन पाकर भी मनुष्य अनर्थकारी कर्मामें प्रवृत्त हो जाता है और धनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे साधन हैं, वे धर्ममें सहायक हो जाते हैं। अतः धर्मसे धन होता है और धनसे धर्म, इस मान्यताके विषयमें अज्ञानमयी निकृष्ट बुद्धिसे मोहित हुआ मूढ़ मानव विश्वास नहीं रखता, इसलिये उसे दोनोंका फल सुलभ नहीं होता ।। ९ ।।
फलकी इच्छा धर्मका मल है, संगृूहीत करके रखना अर्थका मल है और अमोद-प्रमोद कामका मल है, परंतु यह त्रिवर्ग यदि अपने दोषोंसे रहित हो तो कल्याणकारक होता है ।। १० ।।
इस विषयमें जानकार लोग राजा आंगरिष्ठ और कामन्दक मुनिका संवादरूप प्राचीन इतिहास सुनाया करते हैं ।। ११ ।।
एक समयकी बात है, कामन्दक ऋषि अपने आश्रममें बैठे थे। उन्हें प्रणाम करके राजा आंगरिष्ठने प्रश्नके उपयुक्त समय देखकर पूछा-- ।। १२ ।।
“महर्षे! यदि कोई राजा काम और मोहके वशीभूत होकर पाप कर बैठे, किंतु फिर उसे पश्चात्ताप होने लगे तो उसके उस पापको दूर करनेके लिये कौन-सा प्रायश्चित्त है? ।। १३।।
“जो अज्ञानवश अधर्मको ही धर्म मानकर उसका आचरण कर रहा हो, उस लोकविख्यात सम्मानित पुरुषको राजा किस प्रकार उस अधर्मसे दूर हटावे? ।। १४ ।।
कामन्दकने कहा--राजन्! जो धर्म और अर्थका परित्याग करके केवल कामका ही सेवन करता है, उन दोनोंके त्यागसे उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है ।। १५ ।।
बुद्धिका नाश ही मोह है। वह धर्म और अर्थ दोनोंका विनाश करनेवाला है। इससे मनुष्यमें नास्तिकता आती है और वह दुराचारी हो जाता है || १६ ।।
जब राजा दुष्टों और दुराचारियोंको दण्ड देकर काबूमें नहीं करता है, तब सारी प्रजा घरमें रहनेवाले सर्पकी भाँति उस राजासे उद्विग्न हो उठती है ।। १७ ।।
उस दशामें प्रजा उसका साथ नहीं देती। साधु और ब्राह्मण भी उसका अनुसरण नहीं करते हैं। फिर तो उसका जीवन खतरेमें पड़ जाता है और अन्ततोगत्वा वह प्रजाके ही हाथसे मारा भी जाता है ।। १८ ।।
वह अपने पदसे भ्रष्ट और अपमानित होकर दुःखमय जीवन बिताता है। यदि पदश्रष्ट होकर भी वह जीता है तो वह जीवन भी स्पष्टरूपमें मरण ही है ।। १९ ।।
इस अवस्थामें आचार्यगण उसके लिये यह कर्तव्य बतलाते हैं कि वह अपने पापोंकी निन्दा करे, वेदोंका निरन्तर स्वाध्याय करे और ब्राह्मणोंका सत्कार करे || २० |।
धर्मांचरणमें विशेष मन लगावे। उत्तम कुलमें विवाह करे। उदार एवं क्षमाशील ब्राह्मणोंकी सेवामें रहे ।।
वह जलमें खड़ा होकर गायत्रीका जप करे। सदा प्रसन्न रहे। पापियोंको राज्यसे बाहर निकालकर धर्मात्मा पुरुषोंका संग करे || २२ ।।
मीठी वाणी तथा उत्तम कर्मके द्वारा सबको प्रसन्न रखे, दूसरोंके गुणोंका बखान करे और सबसे यही कहे--मैं आपका ही हूँ---आप मुझे अपना ही समझें ।। २३ ।।
जो राजा इस प्रकार अपना आचरण बना लेता है, वह शीघ्र ही निष्पाप होकर सबके सम्मानका पात्र बन जाता है। वह अपने कठिन-से-कठिन पापोंको भी शान्त (नष्ट) कर देता है--इसमें संशय नहीं है || २४ ।।
राजन! गुरुजन तुम्हारे लिये जिस उत्तम धर्मका उपदेश करें, उसका उसी रूपमें पालन करो। गुरुजनोंकी कृपासे तुम परम कल्याणके भागी होओगे ।। २५ ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कामन्दक और आंगरिष्ठका संवादविषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
एक सौ चौबीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ चौबीसवें अध्याय के श्लोक 1-71 का हिन्दी अनुवाद)
“इन्द्र ही: प्रह्नादकी कथा--शीलका प्रभाव, शीलके अ धर्म, सत्य, सदाचार, बल और लक्ष्मीके न रहनेका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--नरश्रेष्ठ पितामह! भूमण्डलके ये सभी मनुष्य सर्वप्रथम धर्मके अनुरूप शीलकी ही अधिक प्रशंसा करते हैं; अतः इस विषयमें मुझे बड़ा भारी संदेह हो गया है ।। १ ।।
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ! यदि मै उसे जान सकूँ तो जिस प्रकार शीलकी उपलब्धि होती है, वह सब सुनना चाहता हूँ ।। २ ।।
भारत! वह शील कैसे प्राप्त होता है? यह सुननेकी मेरी बड़ी इच्छा है। वक्ताओंमें श्रेष्ठ पितामह! उसका क्या लक्षण बताया गया है? यह मुझसे कहिये ।। ३ ।।
भीष्मजीने कहा--दूसरोंको मान देनेवाले महाराज! भरतनन्दन! पहले इन्द्रप्रस्थमें (राजसूययज्ञके समय) भाइयोंसहित तुम्हारी वैसी अदभुत श्री-सम्पत्ति, वह परम उत्तम सभा और समृद्धि देखकर संतप्त हुए दुर्योधनने कौरवसभामें बैठकर पिता धृतराष्ट्रसे अपनी गहरी चिन्ता प्रकट की--सारी मनोव्यथा कह सुनायी। उसने सभामें जो बातें कही थीं, वह सब सुनो ।।
उस समय धृतराष्ट्रने दुर्योधनकी बात सुनकर कर्णसहित उससे इस प्रकार कहा ।। ७ ।।
धृतराष्ट्र बोले--बेटा! तुम किसलिये संतप्त हो रहे हो? यह मैं ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ, सुनकर यदि उचित होगा तो तुम्हें समझानेका प्रयत्न करूँगा ।। ८ ।।
शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले वीर! तुमने भी तो महान् ऐश्वर्य प्राप्त किया है? तुम्हारे समस्त भाई, मित्र और सम्बन्धी सदा तुम्हारी सेवामें उपस्थित रहते हैं ।।
तुम अच्छे-अच्छे वस्त्र ओढ़ते-पहनते हो, पिशितौदन खाते हो और “आजानेय' अश्व (अरबी घोड़े) तुम्हारा रथ खींचते हैं, फिर तुम क्यों सफेद और दुबले हुए जाते हो? ।। १० ।।
दुर्योधनने कहा--पिताजी! युधिष्ठिरके महलमें दस हजार महामनस्वी स्नातक ब्राह्मण प्रतिदिन सोनेकी थालियोंमें भोजन करते हैं || ११ ।।
भारत! दिव्य फल-फूलोंसे सुशोभित वह दिव्य सभा, वे तीतरके समान रंगवाले चितकबरे घोड़े और वे भाँति-भाँतिके दिव्य वस्त्र (अपने पास कहाँ हैं? वह सब) देखकर अपने शत्रु पाण्डवोंके उस कुबेरके समान शुभ एवं विशाल ऐश्वर्यका अवलोकन करके मैं निरन्तर शोकमें डूबा जा रहा हूँ || १२-१३ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--तात! पुरुषसिंह! बेटा! युधिष्ठिरके पास जैसी सम्पत्ति है, वैसी या उससे भी बढ़कर राजलक्ष्मीको यदि तुम पाना चाहते हो तो शीलवान् बनो ।। १४ ।।
इसमें संशय नहीं है कि शीलके द्वारा तीनों लोकोंपर विजय पायी जा सकती है। शीलवानोंके लिये संसारमें कुछ भी असाध्य नहीं है ।। १५ ।।
मान्धाताने एक ही दिनमें, जनमेजयने तीन ही दिनोंमें और नाभागने सात दिनोंमें ही इस पृथ्वीका राज्य प्राप्त किया था ।। १६ ।।
ये सभी राजा शीलवान् और दयालु थे। अतः उनके द्वारा गुणोंके मोल खरीदी हुई यह पृथ्वी स्वयं ही उनके पास आयी थी ।। १७ ।।
दुर्योधनने पूछा--भारत! जिसके द्वारा उन राजाओंने शीघ्र ही भूमण्डलका राज्य प्राप्त कर लिया, वह शील कैसे प्राप्त होता है? यह मैं सुनना चाहता हूँ ।। १८ ।।
धृतराष्ट्र बोले--भरतनन्दन! इस विषयमें एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है, जिसे नारदजीने पहले शीलके प्रसंगमें कहा था ।। १९ ।।
दैत्यराज प्रह्मादने शीलका ही आश्रय लेकर महामना महेन्द्रका राज्य हर लिया और तीनों लोकोंको भी अपने वशमें कर लिया || २० |।
तब महाबुद्धिमान् इन्द्र हाथ जोड़कर बृहस्पतिजीकी सेवामें उपस्थित हुए और उनसे बोले--“भगवन्! मैं अपने कल्याणका उपाय जानना चाहता हूँ/ ।। २१ ।।
कुरुश्रेष्ठ तब भगवान् बृहस्पतिने उन देवेन्द्रको कल्याणकारी परम ज्ञानका उपदेश दिया ।। २२ ।।
तत्पश्चात् इतना ही श्रेय (कल्याणका उपाय) है, ऐसा बृहस्पतिने कहा। तब इन्द्रने फिर पूछा--“इससे विशेष वस्तु क्या है?” | २३ ।।
बृहस्पतिने कहा--तात! सुरश्रेष्ठी इससे भी विशेष महत्त्वपूर्ण वस्तुका ज्ञान महात्मा शुक्राचार्यको है। तुम्हारा कल्याण हो। तुम उन्हींके पास जाकर पुनः उस वस्तुका ज्ञान प्राप्त करो ।। २४ ।।
तब परम तेजस्वी महातपस्वी इन्द्रने प्रसन्नता-पूर्वक शुक्राचार्यसे पुनः: अपने लिये श्रेयका ज्ञान प्राप्त किया || २५ ।।
महात्मा भार्गवने जब उन्हें उपदेश दे दिया, तब इन्द्रने पुनः शुक्राचार्यसे पूछा--'क्या इससे भी विशेष श्रेय है"? ।। २६ ।।
तब सर्वज्ञ शुक्राचार्यने कहा--“महात्मा प्रह्नादको इससे विशेष श्रेयका ज्ञान है।' यह सुनकर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए | २७ ।।
तदनन्तर बुद्धिमान् इन्द्र ब्राह्मणका रूप धारण करके प्रह्नादके पास गये और बोले --'राजन! मैं श्रेय जानना चाहता हूँ || २८ ।।
प्रह्नादने ब्राह्मगसे कहा-- द्विजश्रेष्ठ! त्रिलोकीके राज्यकी व्यवस्थामें व्यस्त रहनेके कारण मेरे पास समय नहीं है, अतः मैं आपको उपदेश नहीं दे सकूँगा” ।। २९ ।।
यह सुनकर ब्राह्मणने कहा--'राजन! जब आपको अवसर मिले, उसी समय मैं आपसे सर्वोत्तम आचरणीय धर्मका उपदेश ग्रहण करना चाहता हूँ" || ३० ।।
ब्राह्मणकी इस बातसे राजा प्रह्नादको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने “तथास्तुट कहकर उसकी बात मान ली और शुभ समयमें उसे ज्ञानका तत्त्व प्रदान किया ।।
ब्राह्मणने भी उनके प्रति यथायोग्य परम उत्तम गुरु-भक्तिपूर्ण बर्ताव किया और उनके मनकी रुचिके अनुसार सब प्रकारसे उनकी सेवा की ।। ३२ ।।
ब्राह्मणने प्रह्लादसे बारंबार पूछा--'धर्मज्ञ! आपको यह त्रिलोकीका उत्तम राज्य कैसे प्राप्त हुआ? इसका कारण मुझे बताइये। महाराज! तब प्रह्नलाद भी ब्राह्मणसे इस प्रकार बोले-- || ३३ ।।
प्रह्नमादने कहा--विप्रवर! “मैं राजा हूँ” इस अभिमानमें आकर कभी ब्राह्मणोंकी निन्दा नहीं करता; बल्कि जब वे मुझे शुक्रनीतिका उपदेश करते हैं, तब मैं संयमपूर्वक उनकी बातें सुनता हूँ और उनकी आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ || ३४ ।।
वे ब्राह्मण विश्वस्त होकर मुझे नीतिका उपदेश देते और सदा संयममें रखते हैं। मैं सदा ही यथाशक्ति शुक्राचार्यके बताये हुए नीतिमार्गपर चलता, ब्राह्मणोंकी सेवा करता, किसीके दोष नहीं देखता और धर्ममें मन लगाता हूँ। क्रोधको जीतकर मन और इन्द्रियोंको काबूमें किये रहता हूँ। अत: जैसे मधुकी मक्खियाँ शहदके छत्तेको फ़ूलोंके रससे सींचती रहती हैं, उसी प्रकार उपदेश देनेवाले ब्राह्मण मुझे शास्त्रके अमृतमय वचनोंसे सींचा करते हैं || ३५-३६ ।।
मैं उनकी नीति-विद्याओंके रसका आस्वादन करता हूँ और जैसे चन्द्रमा नक्षत्रोंपर शासन करते हैं, उसी प्रकार मैं भी अपनी जातिवालोंपर राज्य करता हूँ ।।
ब्राह्मणके मुखमें जो शुक्राचार्यका नीतिवाक्य है, यही इस भूतलपर अमृत है, यही सर्वोत्तम नेत्र है। राजा इसे सुनकर इसीके अनुसार बर्ताव करे || ३८ ।।
इतना ही श्रेय है, यह बात प्रह्नादने उस ब्रह्मवादी ब्राह्मगसे कहा। इसके बाद भी उसके सेवा-शुश्रूषा करनेपर दैत्यराजने उससे यह बात कही-- ।। ३९ |।
द्विजश्रेष्ठ! मैं तुम्हारे द्वारा की हुई यथोचित गुरुसेवासे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। तुम कोई वर माँगो। मैं उसे दूँगा। इसमें संशय नहीं है” || ४० ।।
तब उस ब्राह्मणने दैत्ययाजसे कहा--“आपने मेरी सारी अभिलाषा पूर्ण कर दी'। यह सुनकर प्रह्नाद और भी प्रसन्न हुए और बोले--“कोई वर अवश्य माँगो' ।। ४१ ।।
ब्राह्मण बोला--राजन्! यदि आप प्रसन्न हैं और मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मुझे आपका ही शील प्राप्त करनेकी इच्छा है, यही मेरा वर है ।। ४२ ।।
यह सुनकर दैत्यराज प्रह्नलाद प्रसन्न तो हुए; परंतु उनके मनमें बड़ा भारी भय समा गया। ब्राह्मणके वर माँगनेपर वे सोचने लगे कि यह कोई साधारण तेजवाला पुरुष नहीं है ।। ४३ ।।
फिर भी “एवमस्तु” कहकर प्रह्नादने वह वर दे दिया। उस समय उन्हें बड़ा विस्मय हो रहा था। ब्राह्मणको वह वर देकर वे बहुत दुखी हो गये || ४४ ।।
महाराज! वर देनेके पश्चात् जब ब्राह्मण चला गया, तब प्रह्नादको बड़ी भारी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे--क्या करना चाहिये? परंतु किसी निश्चयपर पहुँच न सके || ४५ ।।
तात! वे चिन्ता कर ही रहे थे कि उनके शरीरसे परम कान्तिमान् छायामय तेज मूर्तिमान् होकर प्रकट हुआ। उसने उनके शरीरको त्याग दिया था ।। ४६ ।।
प्रह्नमादने उस विशालकाय पुरुषसे पूछा--'आप कौन हैं?” उसने उत्तर दिया--“मैं शील हूँ। तुमने मुझे त्याग दिया है, इसलिये मैं जा रहा हूँ” || ४७ ।।
'राजन्! अब मैं उस अनिन्दित श्रेष्ठ ब्राह्मणके शरीरमें निवास करूँगा, जो प्रतिदिन तुम्हारा शिष्य बनकर यहाँ बड़ी सावधानीके साथ रहता था” ।। ४८ ।।
प्रभो! ऐसा कहकर शील अदृश्य हो गया और इन्द्रके शरीरमें समा गया। उस तेजके चले जानेपर प्रह्नादके शरीरसे दूसरा वैसा ही तेज प्रकट हुआ। प्रह्नादने पूछा--/आप कौन हैं? उसने उत्तर दिया--'प्रह्माद! मुझे धर्म समझो। जहाँ वह श्रेष्ठ ब्राह्मण है, वहीं जाऊँगा। दैत्यराज! जहाँ शील होता है, वहीं मैं भी रहता हूँ” || ४९-५०½ ।।
महाराज! तदनन्तर महात्मा प्रह्नादके शरीरसे एक तीसरा पुरुष प्रकट हुआ, जो अपने तेजसे प्रज्वलित-सा हो रहा था || ५१½।।
“आप कौन हैं?' यह प्रश्न होनेपर उस महातेजस्वीने उन्हें उत्तर दिया--“असुरेन्द्र! मुझे सत्य समझो! मैं अब धर्मके पीछे-पीछे जाऊँगा' ।। ५२ $ ।।
सत्यके चले जानेपर प्रह्नादके शरीरसे दूसरा महापुरुष प्रकट हुआ। परिचय पूछनेपर उस महाबलीने उत्तर दिया--प्रह्नाद! मुझे सदाचार समझो। जहाँ सत्य होता है, वहीं मैं भी रहता हूँ ।। ५३-५४ ।।
उसके चले जानेपर प्रह्नादके शरीरसे महान् शब्द करता हुआ पुनः एक पुरुष प्रकट हुआ। उसने पूछनेपर बताया--'मुझे बल समझो। जहाँ सदाचार होता है, वहीं मेरा भी स्थान है! || ५५ ||
नरेश्वर! ऐसा कहकर बल सदाचारके पीछे चला गया। तत्पश्चात् प्रह्नादके शरीरसे एक प्रभामयी देवी प्रकट हुई। दैत्यराजने उससे पूछा--“आप कौन हैं?” वह बोली--'मैं लक्ष्मी हूँ। सत्यपराक्रमी वीर! मैं स्वयं ही आकर तुम्हारे शरीरमें निवास करती थी, परंतु अब तुमने मुझे त्याग दिया; इसलिये चली जाऊँगी; क्योंकि मैं बलकी अनुगामिनी हूँ” || ५६-५७ $ ।।
तब महात्मा प्रह्नादको बड़ा भय हुआ। उन्होंने पुन: पूछा--“कमलालये! तुम कहाँ जा रही हो, तुम तो सत्यव्रता देवी और सम्पूर्ण जगत्की परमेश्वरी हो। वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कौन था? यह मैं ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ || ५८-५९ |।
लक्ष्मीने कहा--प्रभो! तुमने जिसे उपदेश दिया है, उस ब्रह्मचारी ब्राह्मणके रूपमें साक्षात् इन्द्र थे। तीनों लोकोंमें जो तुम्हारा ऐश्वर्य फैला हुआ था, वह उन्होंने हर लिया ।। ६० ||
धर्मज्ञ! तुमने शीलके द्वारा ही तीनों लोकोंपर विजय पायी थी। प्रभो! यह जानकर ही सुरेन्द्रने तुम्हारे शीलका अपहरण कर लिया है ।। ६१ ।।
महाप्राज्ञ! धर्म, सत्य, सदाचार, बल और मैं (लक्ष्मी)--ये सब सदा शीलके ही आधारपर रहते हैं--शील ही इन सबकी जड़ है। इसमे संशय नहीं है ।। ६२ ।।
भीष्मजी कहते हैं--'युधिष्ठिर! यों कहकर लक्ष्मी तथा वे शील आदि समस्त सदगुण इन्द्रके पास चले गये। इस कथाको सुनकर दुर्योधनने पुनः अपने पितासे कहा --'कौरवनन्दन! मैं शीलका तत्त्व जानना चाहता हूँ। शील जिस तरह प्राप्त हो सके, वह उपाय भी मुझे बताइये” ।। ६३-६४ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--नरेश्वर! शीलका स्वरूप और उसे पानेका उपाय--ये दोनों बातें महात्मा प्रह्नादने पहले ही बतायी हैं। मैं संक्षेपसे शीलकी प्राप्तिका उपायमात्र बता रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो || ६५ ।।
मन, वाणी और क्रियाद्वारा किसी भी प्राणीसे द्रोह न करना, सबपर दया करना और यथाशक्ति दान देना--यह शील कहलाता है, जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं | ६६।।
अपना जो भी पुरुषार्थ और कर्म दूसरोंके लिये हितकर न हो अथवा जिसे करनेमें संकोचका अनुभव होता हो, उसे किसी तरह नहीं करना चाहिये ।। ६७ ।।
जो कर्म जिस प्रकार करनेसे भरी सभामें मनुष्यकी प्रशंसा हो, उसे उसी प्रकार करना चाहिये। कुरुश्रेष्ठ! यह तुम्हें थोड़ेमें शीलका स्वरूप बताया गया है ।। ६८ ।।
तात! नरेश्वर! यद्यपि कहीं-कहीं शीलहीन मनुष्य भी राजलक्ष्मीको प्राप्त कर लेते हैं, तथापि वे चिरकालतक उसका उपभोग नहीं कर पाते और जड़मूलसहित नष्ट हो जाते हैं ।। ६९ ||
बेटा! यदि तुम युधिष्ठिरसे भी अच्छी सम्पत्ति प्राप्त करना चाहो तो इस उपदेशको यथार्थरूपसे समझकर शीलवान् बनो || ७० ।।
भीष्मजी कहते हैं--कुन्तीनन्दन! राजा धृतराष्ट्रने अपने पुत्रको यह उपदेश दिया था। तुम भी इसका आचरण करो, इससे तुम्हें भी वही फल प्राप्त होगा ।।७१।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें शीलवर्णनविषयक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ पच्चीसवें अध्याय के श्लोक 1-60 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिरका आशाविषयक प्रश्न--उत्तरमें राजा सुमित्र और ऋषभ नामक ऋषिके इतिहासका आरम्भ, उसमें राजा सुमित्रका एक मृगके पीछे दौड़ना”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आपने पुरुषमें शीलको ही प्रधान बताया है। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि आशाकी उत्पत्ति कैसे हुई? आशा क्या है? यह भी मुझे बताइये ।। १ ।।
शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले पितामह! मेरे मनमें यह महान् संशय उत्पन्न हुआ है। इसका निवारण करनेवाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है ।। २ ।।
पितामह! दुर्योधनपर मेरी बड़ी भारी आशा थी कि युद्धका अवसर उपस्थित होनेपर वह उचित कार्य करेगा। प्रभो! मैं समझता था कि वह युद्ध किये बिना ही मुझे आधा राज्य लौटा देगा ।। ३ ।।
प्रायः सभी मनुष्योंके हृदयमें कोई-न-कोई बड़ी आशा पैदा होती ही है। उसके भंग होनेपर महान् दुःख होता है। किसी-किसीकी मृत्युतक हो जाती है, इसमें संशय नहीं है ।। ४ |।
राजेन्द्र! उस दुरात्मा धृतराष्ट्रपुत्रने मुझ दुर्बुद्धिको हताश कर दिया। देखिये, मैं कैसा मन्दभाग्य हूँ || ५ ।।
राजन! मैं आशाको वृक्षसहित पर्वतसे भी बहुत बड़ी मानता हूँ अथवा वह आकाशसे भी बढ़कर अप्रमेय है ।।
कुरुश्रेष्ठ! वह अचिन्त्य और परम दुर्लभ है--उसे जीतना कठिन है। उसके दुर्लभ या दुर्जय होनेके कारण ही मैं उसे इतनी बड़ी देखता और समझता हूँ। भला, आशासे बढ़कर दुर्लभ और क्या है? ।। ७
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें मैं राजा सुमित्र तथा ऋषभ मुनिका पूर्वघटित इतिहास तुम्हें बताऊँगा। उसे ध्यान देकर सुनो ।। ८ ।।
राजर्षि सुमित्र हैहयवंशी राजा थे। एक दिन वे शिकार खेलनेके लिये वनमें गये। वहाँ उन्होंने झुकी हुई गाँठवाले बाणसे एक मृगको घायल करके उसका पीछा करना आरम्भ किया ।। ९ |।
वह मृग बहुत तेज दौड़नेवाला था। वह राजाका बाण लिये-दिये भाग निकला। राजाने भी बलपूर्वक मृगोंके उस यूथपतिका तुरंत पीछा किया ।। १० ।।
राजेन्द्र! शीघ्रतापूर्वक भागनेवाला वह मृग वहाँसे नीची भूमिकी ओर दौड़ा। फिर दो ही घड़ीमें वह समतल मार्गसे भागने लगा ।। ११ ||
राजा भी नौजवान और हार्दिक बलसे सम्पन्न थे, उन्होंने कवच बाँध रखा था। वे धनुष-बाण और तलवार लिये उसका पीछा करने लगे ।। १२ ।।
उधर वह वनमें विचरनेवाला मृग अकेला ही अनेकों नदों, नदियों, गड्ढों और जंगलोंको बारंबार लाँघता हुआ आगे-आगे भागता जा रहा था ।। १३ ।।
राजन! वह वेगशाली मृग अपनी इच्छासे ही राजाके निकट आ-आकर पुनः बड़े वेगसे आगे भागता था ।।
राजेन्द्र! यद्यपि राजाके बहुत-से बाण उसके शरीरमें धँस गये थे, तथापि वह वनचारी मृग खेल करता हुआ-सा बारंबार उनके निकट आ जाता था ।। १५ ||
राजेन्द्र! वह मृगसमूहोंका सरदार था। उसका वेग बड़ा तीव्र था। वह बारंबार बड़े वेगसे छलाँग मारता और दूरतककी भूमि लाँघ-लाँचकर पुन: निकट आ जाता था ।। १६ |।
तब शत्रुसूदन नरेशने एक बड़ा भयंकर तीखा बाण हाथमें लिया, जो मर्मस्थलोंको विदीर्ण कर देनेवाला था। उस श्रेष्ठ बाणको उन्होंने धनुषपर रखा ।।
यह देख मृगोंका वह यूथपति राजाके बाणका मार्ग छोड़कर दो कोस दूर जा पहुँचा और हँसता हुआ-सा खड़ा हो गया ।। १८ ।।
जब राजाका वह तेजस्वी बाण पृथ्वीपर गिर पड़ा, तब मृग एक महान् वनमें घुस गया, राजाने उस समय भी उसका पीछा नहीं छोड़ा || १९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें ऋषभगीताविषयक एक सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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