सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के एक सौ सोलहवें अध्याय से एक सौ बीसवें अध्याय तक (From the 116 chapter to the 120 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ सौलहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सौलहवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“सज्जनोंके चरित्रके विषयमें दृष्टान्तरूपसे एक महर्षि और कुत्तेकी कथा”

युधिष्ठिरने पूछा ;-- भरतश्रेष्ठ! जहाँ राजाके पास अच्छे कुलमें उत्पन्न सहायक नहीं हैं, वहाँ वह नीच कुलके मनुष्योंको सहायक बना सकता है या नहीं? ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जो लोकमें सत्पुरुषोंके आचरणके सम्बन्धमें सदा उत्तम आदर्श माना जाता है ।। १ ।।

मैंने तपोवनमें इस विषयके अनुरूप बातें सुनी हैं, जिन्हें श्रेष्ठ महर्षियोंने जमदग्निनन्दन परशुरामजीसे कहा था || २

किसी महान्‌ निर्जन वनमें फल-मूलका आहार करके रहनेवाले एक नियमपरायण जितेन्द्रिय महर्षि रहते थे ।। ३ ।।

वे उत्तम व्रतकी दीक्षा लेकर इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह करते हुए प्रतिदिन पवित्रभावसे वेद-शास्त्रोंके स्वाध्यायमें लगे रहते थे। उपवाससे उनका अन्त:करण शुद्ध हो गया था। वे सदा सत्त्वगुणमें स्थित थे ।। ४ ।।

एक जगह बैठे हुए उन बुद्धिमान्‌ महर्षिके सदभावको देखकर सभी वनचारी जीवजन्तु उनके निकट आया करते थे ।। ५ ।।

क्रूर स्वभाववाले सिंह और व्याप्र, बड़े-बड़े मतवाले हाथी, चीते, गैंड़े, भालू तथा और भी जो भयानक दिखायी देनेवाले जानवर थे, वे सब उनके पास आते थे ।। ६ ।।

यद्यपि वे सारे-के-सारे मांसाहारी हिंसक जानवर थे, तो भी उस ऋषिके शिष्यकी भाँति नीचे सिर किये उनके पास बैठते थे, उनके सुख और स्वास्थ्यकी बात पूछते थे और सदा उनका प्रिय करते थे ।। ७ ।।

वे सब जानवर ऋषिसे उनका कुशल-समाचार पूछकर जैसे आते, वैसे लौट जाते थे; परंतु एक ग्रामीण कुत्ता वहाँ उन महामुनिको छोड़कर कहीं नहीं जाता था ॥। ८ ।।

वह उन महामुनिका भक्त और उनमें अनुरक्त था; उपवास करनेके कारण दुर्बल एवं निर्बल हो गया था। वह भी फल-मूल और जलका आहार करके रहता, मनको वशमें रखता और साधु-पुरुषोंके समान जीवन बिताता था ।। ९ |।

महामते! उन महर्षिके चरणप्रान्तमें बैठे हुए उस कुत्तेके मनमें मनुष्यके समान भाव (स्नेह) हो गया। वह उनके प्रति अत्यन्त स्नेहसे बँध गया ।। १० ।।

तदनन्तर एक दिन कोई महाबली रक्तभोजी चीता अत्यन्त प्रसन्न होकर उस कुत्तेको पकड़नेके लिये क्रूर काल एवं यमराजके समान उधर आ निकला ।। ११ ।।

वह बारंबार अपने दोनों जबड़े चाटता और पूँछ फटकारता था, उसे प्यास सता रही थी। उसने मुँह फैला रखा था। भूखसे उसकी व्याकुलता बढ़ गयी थी और वह उस कुत्तेका मांस प्राप्त करना चाहता था ।।

प्रजानाथ! नरेश्वर! उस क्रूर चीतेको आते देख अपनी प्राणरक्षा चाहते हुए वहाँ कुत्तेने मुनिसे जो कुछ कहा, वह सुनो-- ।। १३ ।।

भगवन्‌! यह चीता कुत्तोंका शत्रु है और मुझे मार डालना चाहता है। महामुने! महाबाहो! आप ऐसा करें, जिससे आपकी कृपासे मुझे इस चीतेसे भय न हो। आप सर्वज्ञ हैं, इसमें संशय नहीं है। (अतः मेरी प्रार्थना सुनकर उसको अवश्य पूर्ण करें) || १४½ ।।

वे सिद्धिके ऐश्वर्यसे सम्पन्न मुनि सबके मनोभावको जाननेवाले और समस्त प्राणियोंकी बोली समझनेवाले थे। उन्होंने उस कुत्तेके भयका कारण जानकर उससे कहा ।। १५ ।।

मुनिने कहा--बेटा! अपने लिये मृत्युस्वरूप इस चीतेसे तुम्हें किसी प्रकार भय नहीं करना चाहिये। यह लो, तुम अभी कुत्तेके रूपसे रहित चीता हुए जाते हो || १६ ।।

तदनन्तर मुनिने कुत्तेको चीता बना दिया। उसकी आकृति सुवर्णके समान चमकने लगी। उसका सारा शरीर चितकबरा हो गया और बड़ी-बड़ी दाढ़ें चमक उठीं। अब वह निर्भय होकर वनमें रहने लगा ।। १७ ।।

चीतेने अपने सामने जब अपने ही समान एक पशुको देखा, तब उसका विरोधी भाव क्षणभरमें दूर हो गया ।। १८ ।।

तदनन्तर एक दिन एक महाभयंकर भूखे बाघने उसका रक्त पीनेकी इच्छासे मुँह फैलाकर दोनों जबड़ोंको चाटते हुए उस चीतेका पीछा किया ।। १९ ।।

बड़ी-बड़ी दाढ़ोंसे युक्त वनचारी बाघको भूखसे कुटिल भाव धारण किये देख वह चीता अपने जीवनकी रक्षाके लिये पुन: ऋषिकी शरणमें आया || २० ।।

तब सहवासजनित उत्तम स्नेहका निर्वाह करते हुए महर्षिने चीतेको बाघ बना दिया। अब वह अपने शत्रुओंके लिये अत्यन्त प्रबल हो उठा ।। २१ ।।

प्रजानाथ! तदनन्तर वह बाघ उसे अपने समान रूपमें देखकर मार न सका। उधर वह कुत्ता बलवान्‌ बाघ होकर मांसका आहार करने लगा ।। २२ ।।

महाराज! अब तो उसे फल-मूल खानेकी कभी इच्छा ही नहीं होती थी। जैसे वनराज सिंह प्रतिदिन जन्तुओंका मांस खाना चाहता है, उसी प्रकार वह बाघ भी उस समय मांसभोजी हो गया ।। २३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कुत्ता और ऋषिका संवादविषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं)

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शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ सत्तरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सत्तरहवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“कुत्तेका शरभकी योनिमें जाकर महर्षिके शापसे पुनः कुत्ता हो जाना”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! वह बाघ अपने मारे हुए मृगोंके मांस खाकर तृप्त हो महर्षिकी कुटीके पास ही सो रहा था। इतनेमें ही वहाँ ऊँचे उठे हुए मेघके समान काला एक मदोन्मत्त हाथी आ पहुँचा || १ ।।

उसके गण्डस्थलसे मदकी धारा चू रही थी। उसका कुम्भस्थल बहुत विस्तृत था। उसके ऊपर कमलका चिह्न बना हुआ था, उसके दाँत बड़े सुन्दर थे। वह विशालकाय ऊँचा हाथी मेघके समान गम्भीर गर्जना करता था ।। २ ।।

उस बलाभिमानी मदोनन्‍्मत्त गजराजको आते देख वह बाघ भयभीत हो पुनः ऋषिकी शरणमें गया ।। ३ ।।

तब उन मुनिश्रेष्ठने उस बाघको हाथी बना दिया। उस महामेघके समान हाथीको देखकर वह जंगली हाथी भयभीत होकर भाग गया ।। ४ ।।

तदनन्तर वह हाथी कमलोंके परागसे विभूषित और आनन्दित हो कमलसमूहों तथा शल्लकी लताकी झाड़ियोंमें विचरने लगा ।। ५ ।।

कभी-कभी वह हाथी आश्रमवासी ऋषिके सामने भी घूमा करता था। इस तरह उसका कितनी ही रातोंका समय व्यतीत हो गया ।। ६ ।।

तदनन्तर उस प्रदेशमें एक केसरी सिंह आया, जो अपनी केसरके कारण कुछ लाल-सा जान पड़ता था। पर्वतकी कन्दरामें पैदा हुआ वह भयानक सिंह गजवंशका विनाश करनेवाला काल था || ७ ||

उस सिंहको आते देख वह हाथी उसके भयसे पीड़ित एवं आतुर हो थर-थर काँपने लगा और ऋषिकी शरणमें गया ।। ८ ।।

तब मुनिने उस गजराजको सिंह बना दिया। अब वह समान जातिके सम्बन्धसे जंगली सिंहको कुछ भी नहीं गिनता था ।। ९ ।।

उसे देखकर जंगली सिंह स्वयं ही डर गया। वह सिंह बना हुआ कुत्ता महावनमें उसी आश्रममें रहने लगा || १० ।।

उसके भयसे जंगलके दूसरे पशु डर गये और अपनी जान बचानेकी इच्छासे तपोवनके समीप कभी नहीं दिखायी दिये ।। ११ ।।

तदनन्तर कालयोगसे वहाँ एक बलवान्‌ वनवासी समस्त प्राणियोंका हिंसक शरभ आ पहुँचा, जिसके आठ पैर और ऊपरकी ओर नेत्र थे। वह रक्त पीनेवाला जानवर नाना प्रकारके वन-जन्तुओंके मनमें भय उत्पन्न कर रहा था। वह उस सिंहको मारनेके लिये मुनिके आश्रमपर आया ।। १२-१३ ।।

शरभको आते देख सिंह अत्यन्त भयसे व्याकुल हो काँपता हुआ हाथ जोड़कर मुनिकी शरणमें आया ।।

शत्रुदमन युधिष्ठिर! तब मुनिने उसे बलोन्मत्त शरभ बना दिया। जंगली शरभ उस मुनिनिर्मित अत्यन्त भयंकर एवं बलवान्‌ शरभको सामने देखकर भयभीत हो तुरंत ही उस वनसे भाग गया ।। १४ ½||

इस प्रकार मुनिने उस कुत्तेको उस समय शरभके स्थानमें प्रतिष्ठित कर दिया। वह शरभ प्रतिदिन मुनिके पास सुखसे रहने लगा ।। १५½।।

राजन! उस शरभसे भयभीत हो जंगलके सभी पशु अपनी जान बचानेके लिये डरके मारे सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग गये || १६६ ।।

शरभ भी अत्यन्त प्रसन्न हो सदा प्राणियोंके वधमें तत्पर रहता था। वह मांसभोजी जीव फल-मूल खानेकी कभी इच्छा नहीं करता था ।। १७६ ।।

तदनन्तर एक दिन रक्तकी प्रबल प्याससे पीड़ित वह शरभ, जो कुत्तेकी जातिसे पैदा होनेके कारण कृतघ्न बन गया था, मुनिको ही मार डालनेकी इच्छा करने लगा ।। १८६ ।।

उस पहलेके कुत्ते और वर्तमानकालके शरभने सोचा कि इन महर्षिके प्रभावसे--इनके वाणीद्वारा केवल कह देनेमात्रसे मैंने परम दुर्लभ शरभका शरीर पा लिया, जो समस्त प्राणियोंके लिये भयंकर है ।।

इन मुनीश्वरकी शरण लेकर जीवन धारण करनेवाले दूसरे भी बहुत-से मृग और पक्षी हैं, जो हाथी तथा दूसरे भयानक जन्तुओंसे भयभीत रहते हैं। सम्भव है, ये उन्हें भी कदाचित्‌ शरभका शरीर प्रदान कर दें, जहाँ संसारके सभी प्राणियोंसे श्रेष्ठ बल प्रतिष्ठित है।।

ये चाहें तो कभी पक्षियोंको भी गरुड़का बल दे सकते हैं। अतः दयाके वशीभूत हो जबतक किसी दूसरे जीवपर संतुष्ट या प्रसन्न हो ये उसे ऐसा ही बल नहीं दे देते, तबतक ही इन ब्रह्मर्षिका मैं शीघ्र वध कर डालूँगा। मुनिका वध हो जानेके पश्चात्‌ मैं यहाँ बेखटके रह सकूँगा, इसमें संशय नहीं है ।।

ज्ञाननेत्रोंसे युक्त उन मुनीश्वरने अपनी तपःशक्तिसे शरभके उस मनोभावको जान लिया। जानकर उन महाज्ञानी मुनिने उस कुत्तेसे कहा-- ।। १९½।।

' अरे! तू पहले कुत्ता था, फिर चीता बना, चीतेसे बाघकी योनिमें आया, बाघसे मदोन्मत्त हाथी हुआ, हाथीसे सिंहकी योनिमें आ गया, बलवान्‌ सिंह रहकर फिर शरभका शरीर पा गया || २०-२१ ।।

‘यद्यपि तू नीच कुलमें पैदा हुआ था, तो भी मैंने स्नेहवश तेरा परित्याग नहीं किया। पापी! तेरे प्रति मेरे मनमें कभी पापभाव नहीं हुआ था, तो भी इस प्रकार तू मेरी हत्या करना चाहता है; अतः तू फिर अपनी पूर्वयोनिमें ही आकर कुत्ता हो जा! || २२ ।।

महर्षिके इस प्रकार शाप देते ही वह मुनिजनद्रोही दुष्टात्मा नीच और मूर्ख शरभ फिर कुत्तेके रूपमें परिणत हो गया ।। २३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कुत्ता तथा ऋषिका संवादविषयक एक सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके ७ श्लोक मिलाकर कुल ३० श्लोक हैं।)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ अट्ठारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ अट्ठारहवें अध्याय के श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद)

“राजाके सेवक, सचिव तथा सेनापति आदि और राजाके उत्तम गुणोंका वर्णन एवं उनसे लाभ”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार अपनी योनिमें आकर वह कुत्ता अत्यन्त दीनदशाको पहुँच गया। ऋषिने हुंकार करके उस पापीको तपोवनसे बाहर निकाल दिया ।।

इसी प्रकार बुद्धिमान्‌ राजाको चाहिये कि वह पहले अपने सेवकोंकी सच्चाई, शुद्धता, सरलता, स्वभाव, शास्त्रज्ञान, सदाचार, कुलीनता, जितेन्द्रियता, दया, बल, पराक्रम, प्रभाव, विनय तथा क्षमा आदिका पता लगाकर जो सेवक जिस कार्यके योग्य जान पड़ें, उन्हें उसीमें लगावे और उनकी रक्षाका पूरा-पूरा प्रबन्ध कर दे || २-३ ।।

राजा परीक्षा लिये बिना किसीको भी अपना मन्त्री न बनावे; क्योंकि नीच कुलके मनुष्यका साथ पाकर राजाको न तो सुख मिलता है और न उसकी उन्नति ही होती है ।। ४ ।।

कुलीन पुरुष यदि कभी राजाके द्वारा बिना अपराधके ही तिरस्कृत हो जाय और लोग उसे फोड़ें या उभाड़ें तो भी वह अपनी कुलीनताके कारण राजाका अनिष्ट करनेकी बात कभी मनमें नहीं लाता है ।। ५ ।।

किंतु नीच कुलका मनुष्य साधुस्वभावके राजाका आश्रय पाकर यद्यपि दुर्लभ ऐश्वर्यका भोग करता है तथापि यदि राजाने एक बार भी उसकी निन्दा कर दी तो वह उसका शत्रु बन जाता है ।।

अतः राजा उसीको मन्त्री बनावे, जो कुलीन, सुशिक्षित, विद्वान, ज्ञान-विज्ञानमें पारंगत, सब शास्त्रोंका तत्त्व जाननेवाला, सहनशील, अपने देशका निवासी, कृतज्ञ, बलवान्‌, क्षमाशील, मनका दमन करनेवाला, जितेन्द्रिय, निर्लोभ, जो मिल जाय उसीसे संतोष करनेवाला, स्वामी और उसके मित्रकी उन्नति चाहनेवाला, देश-कालका ज्ञाता, आवश्यक वस्तुओंके संग्रहमें तत्पर, सदा मनको वशमें रखनेवाला, स्वामीका हितैषी, आलस्य-रहित, अपने राज्यमें गुप्तचर लगाये रखनेवाला, संधि और विग्रहके अवसरको समझनेमें कुशल, राजाके धर्म, अर्थ और कामकी उन्नतिका उपाय जाननेवाला, नगर और ग्रामवासी लोगोंका प्रिय, खाईं और सुरंग खुदवाने तथा व्यूह निर्माण करानेकी कलामें कुशल, अपनी सेनाका उत्साह बढ़ानेमें प्रवीण, शकल-सूरत और चेष्टा देखकर ही मनके यथार्थ भावको समझ लेनेवाला, शत्रुओंपर चढ़ाई करनेके अवसरको समझनेमें विशेष चतुर, हाथीकी शिक्षाके यथार्थ तत्त्वको जाननेवाला, अहंकाररहित, निर्भीक, उदार, संयमी, बलवान, उचित कार्य करनेवाला, शुद्ध, शुद्ध पुरुषोंसे युक्त, प्रसन्नमुख, प्रियदर्शन, नेता, नीतिकुशल, श्रेष्ठ गुण और उत्तम चेष्टाओंसे सम्पन्न उद्ण्डतारहित, विनयशील, स्नेही, मृदुभाषी, धीर, शूरवीर, महान ऐश्वर्यसे सम्पन्न तथा देश और कालके अनुसार कार्य करनेवाला हो || ७--१४ ।।

जो राजा ऐसे योग्य पुरुषको सचिव (मन्त्री) बनाता है और उसका कभी अनादर नहीं करता है, उसका राज्य चन्द्रमाकी चाँदनीके समान चारों ओर फैल जाता है ।। १५ ।।

राजाको भी ऐसे ही गुणोंसे युक्त होना चाहिये। साथ ही उसमें शास्त्रज्ञान, धर्मपरायणता तथा प्रजापालनकी लगन भी होनी चाहिये; ऐसा ही राजा प्रजाजनोंके लिये वांछनीय होता है || १६ ।।

राजा धीर, क्षमाशील, पवित्र, समय-समयपर तीक्ष्ण, पुरुषार्थको जाननेवाला, सुननेके लिये उत्सुक, वेदज्ञ, श्रवणपरायण तथा तर्क-वितर्कमें कुशल हो ।। १७ ।।

मेधावी, धारणाशक्तिसे सम्पन्न, यथोचित कार्य करनेवाला, इन्ट्रियसंयमी, प्रिय वचन बोलनेवाला, तथा शत्रुको भी क्षमा प्रदान करनेवाला हो ।। १८ ।।

राजाको दानकी परम्पराका कभी उच्छेद न करनेवाला, श्रद्धालु, दर्शनमात्रसे सुख देनेवाला, दीन-दु:खियोंको सदा हाथका सहारा देनेवाला, विश्वसनीय मन्त्रियोंसे युक्त तथा नीतिपरायण होना चाहिये ।। १९ ।।

वह अहंकार छोड़ दे, द्वन्दोंसे प्रभावित न हो, जो ही मनमें आवे वही न करने लगे, मन्त्रियोंके किये हुए कर्मका अनुमोदन करे और सेवकोंपर प्रेम रखे || २० ।।

अच्छे मनुष्योंका संग्रह करे, जडताको त्याग दे, सदा प्रसन्नमुख रहे, सेवकोंका सदा ख्याल रखे, किसीपर क्रोध न करे, अपना हृदय विशाल बनाये रखे || २१ ।।

न्यायोचित दण्ड दे, दण्डका कभी त्याग न करे, धर्मकार्यका उपदेश दे, गुप्तचररूपी नेत्रोंद्रारा राज्यकी देखभाल करे, प्रजापर कृपादृष्टि रखे तथा सदा ही धर्म और अर्थके उपार्जनमें कुशलतापूर्वक लगा रहे || २२ ।।

ऐसे सैकड़ों गुणोंसे सम्पन्न राजा ही प्रजाके लिये वांछनीय होता है। नरेन्द्र! राज्यकी रक्षामें सहायता देनेवाले समस्त सैनिक भी इसी प्रकार श्रेष्ठ गुण-समूहोंसे सम्पन्न होने चाहिये, इस कार्यके लिये अच्छे पुरुषोंकी ही खोज करनी चाहिये तथा अपनी उन्नतिकी इच्छा रखनेवाले राजाको कभी अपने सैनिकोंका अपमान नहीं करना चाहिये ।। २३-२४

जिसके योद्धा युद्धमें वीरता दिखानेवाले, कृतज्ञ, शस्त्र चलानेकी कलामें कुशल, धर्मशास्त्रके ज्ञानसे सम्पन्न, पैदल सैनिकोंसे घिरे हुए, निर्भय, हाथीकी पीठपर बैठकर युद्ध करनेमें समर्थ, रथचर्यामें निपुण तथा थरनुर्विद्यामें प्रवीण होते हैं, उसी राजाके अधीन इस भूमण्डलका राज्य होता है || २५-२६ ।।

जो जातिभाइयोंका अपमान तथा सेवकोंके प्रति शठता कभी नहीं करता और कार्यसाधनमें कुशल है, उसी राजाके अधिकारमें यह पृथ्वी रहती है ।।

जिस राजामें आलस्य, निद्रा, दुर्व्यसन तथा अत्यन्त हास्यप्रियता--ये दुर्गुण नहीं हैं, उसीके अधिकारमें यह पृथ्वी दीर्घकालतक रहती है ।।

जो बड़े-बूढ़ोंको सेवा करनेवाला, महान्‌ उत्साही, चारों वर्णोंका रक्षक तथा सदा धर्माचरणमें तत्पर रहता है, उसीके पास यह पृथ्वी चिरकालतक स्थिर रहती है ।।

जो राजा नीतिमार्गका अनुसरण करता, सदा ही उद्योगमें तत्पर रहता और शत्रुओंकी अवहेलना नहीं करता, उसके अधिकारमें दीर्घकालतक इस पृथ्वीका राज्य बना रहता है ।।

पूर्वकालमें मनुजीने पुरुषार्थ, दैव तथा उन दोनोंके अनेक भेदोंका वर्णन किया था। वह बताता हूँ, सुनो ।।

कुरुश्रेष्ठस बृहस्पतिजीने नरेशोंके लिये सदा ही उद्योगशील बने रहनेका उपदेश दिया है। तुम सदा नीति और अनीतिके विधानको जानो ।।

जो शत्रुओंके छिद्र देखे, सुहदोंका उपकार करे और सेवकोंकी विशेषताको समझे, वह राज्यके फलका भागी होता है ।।

जो राजा सदा सबके संग्रहमें संलग्न, उद्योगशील और मित्रोंसे सम्पन्न होता है, वही सब राजाओंमें श्रेष्ठ है ।।

भारत! जो उपर्युक्त मनुष्योंका संग्रह करता है, वह केवल एक सहस्र अश्वारोही वीरोंके द्वारा सारी पृथ्वीको जीत सकता है ।। २८ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमानुशासनपर्वमें कुत्ता और ऋषिका संवादविषयक एक सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ७ श्लोक मिलाकर कुल ३५ श्लोक हैं।)

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शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ उन्नीसवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“सेवकोंको उनके योग्य स्थानपर नियुक्त कक: और सत्पुरुषोंका संग्रह करने, कोष बढ़ाने तथा देखभाल करनेके लिये राजाको प्रेरणा”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इस प्रकार जो राजा गुणवान्‌ भृत्योंको अपने-अपने स्थानपर रखते हुए कार्योंमें लगाता है, वह राज्यके यथार्थ फलका भागी होता है ।।

पहले कहे हुए इतिहाससे यह सिद्ध होता है कि कुत्ता अपने स्थानको छोड़कर ऊँचे चढ़ जाय तो न वह विश्वासके योग्य रह जाता है और न कभी उसका सत्कार ही होता है। कुत्तेको उसकी जगहसे उठाकर ऊँचे कदापि न बिठावे; क्योंकि वह दूसरे किसी ऊँचे स्थानपर चढ़कर प्रमाद करने लगता है (इसी प्रकार किसी हीन कुलके मनुष्यको उसकी योग्यता और मर्यादासे ऊँचा स्थान मिल जाय तो वह अहंकारवश उच्छुंखल हो जाता है) ।। २ ।।

जो अपनी जातिके गुणसे सम्पन्न हो अपने वर्णोचित कर्मोमें ही लगे रहते हों, उन्हें मन्त्री बनाना चाहिये; किंतु किसीको भी उसकी योग्यतासे बाहरके कार्यमें नियुक्त करना उचित नहीं है ।। ३ ।।

जो राजा अपने सेवकोंको उनकी योग्यताके अनुरूप कार्य सौंपता है, वह भृत्यके गुणोंसे सम्पन्न हो उत्तम फलका भागी होता है ।। ४ ।।

शरभको शरभकी जगह, बलवान सिंहको सिंहके स्थानमें, बाघको बाघकी जगह तथा चीतेको चीतेके स्थानपर नियुक्त करना चाहिये (तात्पर्य यह कि चारों वर्णोके लोगोंको उनकी मर्यादाके अनुसार कार्य देना उचित है) || ५ ।।

सब सेवकोंको उनके योग्य कार्यमें ही लगाना चाहिये। कर्मफलकी इच्छा करनेवाले राजाको चाहिये कि वह अपने सेवकोंको ऐसे कार्योंमें न नियुक्त करे, जो उनकी योग्यता और मर्यादाके प्रतिकूल पड़ते हों ।।

जो बुद्धिहीन नरेश मर्यादाका उल्लंघन करके अपने भृत्योंको प्रतिकूल कार्योंमें लगाता है, वह प्रजाको प्रसन्न नहीं रख सकता ।। ७ ।।

उत्तम गुणोंकी इच्छा रखनेवाले नरेशको चाहिये कि वह उन सभी मनुष्योंको काममें न लगावे, जो मूर्ख, नीच, बुद्धिहीन, अजितेन्द्रिय और निन्दित कुलमें उत्पन्न हुए हों ।। ८ ।।

साधु, कुलीन, शूरवीर, ज्ञानवानू, अदोषदर्शी, अच्छे स्वभाववाले, पवित्र और कार्यदक्ष मनुष्योंको ही राजा अपना पार्श्चवर्ती सेवक बनावे ।। ९ |।

जो विनीत, कार्यपरायण, शान्तस्वभाव, चतुर, स्वाभाविक शुभ गुणोंसे सम्पन्न तथा अपने-अपने पदपर निन्दासे रहित हों, वे ही राजाओंके बाह्य सेवक होने योग्य हैं || १० ।।

सिंहके पास सदा सिंह ही सेवक रहे। यदि सिंहके साथ सिंहसे भिन्न प्राणी रहने लगता है तो वह सिंहके तुल्य ही फल भोगने लगता है ।। ११ ।।

किंतु जो सिंह कुत्तोंसे घिरा रहकर सिंहोचित कर्म एवं फलमें अनुरक्त रहता है, वह कुत्तोंसे उपासित होनेके कारण सिंहोचित कर्मफलका उपभोग नहीं कर सकता ।। १२ ।।

नरेन्द्र! इसी प्रकार शूरवीर, विद्वान, बहुश्रुत और कुलीन पुरुषोंके साथ रहकर ही सारी पृथ्वीपर विजय पायी जा सकती है ।। १३ ।।

भृत्यवानोंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! भूपालोंको चाहिये कि अपने पास ऐसे किसी भृत्यका संग्रह न करें, जो विद्याहीन, सरलतासे रहित, मूर्ख और दरिद्र हो || १४ ।।

जो मनुष्य स्वामीके कार्यमें तत्पर रहनेवाले हैं, वे धनुषसे छूटे हुए बाणके समान लक्ष्यसिद्धिके लिये आगे बढ़ते हैं। जो सेवक राजाके हित-साधनमें संलग्न रहते हों, राजा मधुर वचन बोलकर उन्हें प्रोत्साहन देता रहे ।। १५ ।।

राजाओंको पूरा प्रयत्न करके निरन्तर अपने कोषकी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि कोष ही उनकी जड़ है, कोष ही उन्हें आगे बढ़ानेवाला होता है ।। १६ ।।

युधिष्ठिर! तुम्हारा अन्न-भण्डार सदा पुष्टिकारक अनाजोंसे भरा रहना चाहिये और उसकी रक्षाका भार श्रेष्ठ पुरुषोंको सौंप देना चाहिये। तुम सदा धन-धान्यकी वृद्धि करनेवाले बनो || १७ ।।

तुम्हारे सभी सेवक सदा उद्योगशील तथा युद्धकी कलामें कुशल हों। घोड़ोंकी सवारी करने अथवा उन्हें हाँकनेमें भी उनको विशेष चतुर होना चाहिये || १८ ।।

कौरवनन्दन! तुम जातिभाइयोंपर ख्याल रखो, मित्रों और सम्बन्धियोंसे घिरे रहो तथा पुरवासियोंके कार्य और हितकी सिद्धिका उपाय ढूँढ़ा करो ।। १९ ।।

तात! यह मैंने तुम्हारे निकट प्रजापालन-विषयक स्थिर बुद्धिका प्रतिपादन किया है और कुत्तेका दृष्टान्त सामने रखा है, अब और क्या सुनना चाहते हो? ।। २० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कुत्ता और ऋषिका संवादविषयक एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ बीसवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“राजथधर्मका साररूपमें वर्णन”

युधिष्ठिने कहा--भारत! राजधर्मके तत्त्वको जाननेवाले पूर्ववर्ती राजाओंने पूर्वकालमें जिनका अनुष्ठान किया है, उन अनेक प्रकारके राजोचित बर्तावोंका आपने वर्णन किया ।। १ |।

भरतश्रेष्ठ! आपने पूर्वपुरुषोंद्वारा आचरित तथा सज्जनसम्मत जिन श्रेष्ठ राजधर्मोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, उन्हींको इस प्रकार संक्षिप्त करके बताइये, जिससे उनका विशेषरूपसे पालन हो सके | २ ।।

भीष्मजी बोले--भूपाल! क्षत्रियके लिये सबसे श्रेष्ठ धर्म माना गया है समस्त प्राणियोंकी रक्षा करना; परंतु यह रक्षाका कार्य कैसे किया जाय, उसको बता रहा हूँ, सुनो ।। ३ ।।

जैसे साँप खानेवाला मोर विचित्र पंख धारण करता है, उसी प्रकार धर्मज्ञ राजाको समय-समयपर अपना अनेक प्रकारका रूप प्रकट करना चाहिये ।। ४ ।।

राजा मध्यस्थ-भावसे रहकर तीक्ष्णता, कुटिल नीति, अभय-दान, सत्य, सरलता तथा श्रेष्ठभावका अवलम्बन करे। ऐसा करनेसे ही वह सुखका भागी होता है ।। ५ ।।

जिस कार्यके लिये जो हितकर हो, उसमें वैसा ही रूप प्रकट करे (उदाहरणके लिये अपराधीको दण्ड देते समय उग्र रूप और दीनोंपर अनुग्रह करते समय शान्त एवं दयालु रूप प्रकट करे)। इस प्रकार अनेक रूप धारण करनेवाले राजाका छोटा-सा कार्य भी बिगड़ने नहीं पाता है ।। ६ ।।

जैसे शरद-ऋतुका मोर बोलता नहीं, उसी प्रकार राजाको भी मौन रहकर सदा राजकीय गुप्त विचारोंको सुरक्षित रखना चाहिये। वह मधुर वचन बोले, सौम्य-स्वरूपसे रहे, शोभासम्पन्न होवे और शास्त्रोंका विशेष ज्ञान प्राप्त करे || ७ ।।

बाढ़के समय जिस ओरसे जल बहकर गाँवोंको डुबा देनेका संकट उपस्थित कर दे, उस स्थानपर जैसे लोग मजबूत बाँध बाँध देते हैं, उसी प्रकार जिन द्वारोंसे संकट आनेकी सम्भावना हो, उन्हें सुदृढ़ बनाने और बंद करनेके लिये राजाको सतत सावधान रहना चाहिये। जैसे पर्वतोंपर वर्षा होनेसे जो पानी एकत्र होकर नदी या तालाबके रूपमें रहता है, उसका उपयोग करनेके लिये लोग उसका आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार राजाको सिद्ध ब्राह्मणोंका आश्रय लेना चाहिये तथा जिस प्रकार धर्मका ढोंगी सिरपर जटा धारण करता है, उसी तरह राजाको भी अपना स्वार्थ सिद्ध करनेकी इच्छासे उच्च लक्षणोंको धारण करना चाहिये ।। ८ ।।

वह सदा अपराधियोंको दण्ड देनेके लिये उद्यत रहे, प्रत्येक कार्य सावधानीके साथ करे, लोगोंके आय-व्यय देखकर ताड़के वृक्षसे रस निकालनेकी भाँति उनसे धनरूपी रस ले (अर्थात्‌ जैसे उस रसके लिये पेड़को काट नहीं दिया जाता, उसी प्रकार प्रजाका उच्छेद न करे) ।। ९ |।।

राजा अपने दलके लोगोंके प्रति विशुद्ध व्यवहार करे। शत्रुके राज्यमें जो खेतीकी फसल हो, उसे अपने दलके घोड़ों और बैलोंके पैरोंसे कुचलवा दे। अपना पक्ष बलवान्‌ होनेपर ही शत्रुओंपर आक्रमण करे और अपनेमें कहाँ कैसी दुर्बलता है, इसका भलीभाँति निरीक्षण करता रहे ।। १० ।।

शत्रुके दोषोंको प्रकाशित करे और उसके पक्षके लोगोंको अपने पक्षमें आनेके लिये विचलित कर दे। जैसे लोग जंगलसे फूल चुनते हैं, उसी प्रकार राजा बाहरसे धनका संग्रह करे ।। ११ ।।

पर्ववके समान ऊँचा सिर करके अविचलभावसे बैठे हुए धनी नरेशोंको नष्ट करे। उनको जताये बिना ही उनकी छायाका आश्रय ले अर्थात्‌ उनके सरदारोंसे मिलकर उनमें फूट डाल दे और गुप्तरूपसे अवसर देखकर उनके साथ युद्ध छेड़ दे || १२ ।।

जैसे मोर आधी रातके समय एकान्त स्थानमें छिपा रहता है, उसी प्रकार राजा वर्षाकालमें शत्रुओंपर चढ़ाई न करके अदृश्यभावसे ही महलमें रहे। मोरके ही गुणको अपनाकर स्त्रियोंसे अलक्षित रहकर विचरे ।। १३ ।।

अपने कवचको कभी न उतारे। स्वयं ही शरीरकी रक्षा करे। घूमने-फिरनेके स्थानोंपर शत्रुओंद्वारा जो जाल बिछाये गये हों, उनका निवारण करे ।। १४ ।।

राजा सुयोग समझे तो जहाँ शत्रुओंका जाल बिछा हो, वहाँ भी अपने-आपको ले जाय। यदि संकटकी सम्भावना हो तो गहन वनमें छिप जाय तथा जो कुटिल चाल चलनेवाले हों, उन क्रोधमें भरे हुए शत्रुओंको अत्यन्त विषैले सर्पोंके समान समझकर मार डाले ।। १५ ||

शत्रुकी सेनाकी पाँख काट डाले--उसे दुर्बल कर दे, श्रेष्ठ पुरुषोंको अपने निकट बसावे। मोरके समान स्वेच्छानुसार उत्तम कार्य करे--जैसे मोर अपने पंख फैलाता है, उसी प्रकार अपने पक्ष (सेना और सहायकों) का विस्तार करे। सबसे बुद्धि--सद्दिचार ग्रहण करे और जैसे टिड्डियोंका दल जंगलमें जहाँ गिरता है, वहाँ वृक्षोंपर पत्तेतक नहीं छोड़ता, उसी प्रकार शत्रुओंपर आक्रमण करके उनका सर्वस्व नष्ट कर दे || १६ ।।

इसी प्रकार बुद्धिमान्‌ राजा अपने स्थानकी रक्षा करनेवाले मोरके समान अपने राज्यका भलीभाँति पालन करे तथा उसी नीतिका आश्रय ले, जो अपनी उन्नतिमें सहायक हो ।। १७ ।।

केवल अपनी बुद्धिसे मनको वशमें किया जाता है। मन्त्री आदि दूसरोंकी बुद्धिके सहयोगसे कर्तव्यका निश्चय किया जाता है और शास्त्रीय बुद्धिसे आत्मगुणकी प्राप्ति होती है। यही शास्त्रका प्रयोजन है ।। १८ ।।

राजा मधुर वाणीद्वारा समझा-बुझाकर अपने प्रति दूसरेका विश्वास उत्पन्न करे। अपनी शक्तिका भी प्रदर्शन करे तथा अपने विचार और बुद्धिसे कर्तव्यका निश्चय करे ।। १९ ।।

राजामें सबको समझा-बुझाकर युक्तिसे काम निकालनेकी बुद्धि होनी चाहिये। वह विद्वान होनेके साथ ही लोगोंको कर्तव्यकी प्रेरणा दे और अकर्तव्यकी ओर जानेसे रोके अथवा जिसकी बुद्धि गूढ़ या गम्भीर है, उस धीर पुरुषको उपदेश देनेकी आवश्यकता ही क्या है? ।। २० ।।

वह बुद्धिमान्‌ राजा बुद्धिमें बृहस्पतिके समान होकर भी किसी कारणवश यदि निम्न श्रेणीकी बात कह डाले तो उसे चाहिये कि जैसे तपाया हुआ लोहा पानीमें डालनेसे शान्त हो जाता है, उसी तरह अपने शान्त स्वभावको स्वीकार कर ले ।। २१ ।।

राजा अपने तथा दूसरेको भी शास्त्रमें बताये हुए समस्त कर्मोमें ही लगावे || २२

कार्यसाधनके उपायको जाननेवाला राजा अपने कार्योंमें कोमल-स्वभाव, विद्वान्‌ तथा शूरवीर मनुष्यको तथा अन्य जो अधिक बलशाली व्यक्ति हों, उनको नियुक्त करे ।। २३ ।।

जैसे वीणाके विस्तृत तार सातों स्वरोंका अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार राजा अपने कर्मचारियोंको योग्यता-नुसार कर्मोमें संलग्न देख उन सबके अनुकूल व्यवहार करे ।। २४ ।।

राजाको चाहिये कि सबका प्रिय करे, किंतु धर्ममें बाधा न आने दे। प्रजागणको “यह मेरा ही प्रियगण है” ऐसा समझनेवाला राजा पर्वतके समान अविचल बना रहता है || २५ ।।

जैसे सूर्य अपनी विस्तृत किरणोंका आश्रय ले सबकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार राजा प्रिय और अप्रियको समान समझकर सुदृढ़ उद्योगका अवलम्बन करके धर्मकी ही रक्षा करे ।। २६ |।

जो लोग कुल, स्वभाव और देशके धर्मको जानते हों, मधुरभाषी हों, युवावस्थामें जिनका जीवन निष्कलंक रहा हो, जो हितसाधनमें तत्पर और घबराहटसे रहित हों, जिनमें लोभका अभाव हो, जो शिक्षित, जितेन्द्रिय, धर्मनिष्ठ तथा धर्म एवं अर्थकी रक्षा करनेवाले हों, उन्हींको राजा अपने समस्त कार्योंमें लगावे || २७-२८ ।।

इस प्रकार राजा सदा सावधान रहकर राज्यके प्रत्येक कार्यका आरम्भ और समाप्ति करे। मनमें संतोष रखे और गुप्तचरोंकी सहायतासे राष्ट्रकी सारी बातें जानता रहे || २९ ।

जिसका हर्ष और क्रोध कभी निष्फल नहीं होता, जो स्वयं ही सारे कार्योकी देखभाल करता है तथा आत्म-विश्वास ही जिसका खजाना है, उस राजाके लिये यह वसुन्धरा (पृथ्वी) ही धन देनेवाली बन जाती है | ३० ।।

जिसका अनुग्रह सबपर प्रकट है तथा जिसका निग्रह (दण्ड देना) भी यथार्थ कारणसे होता है, जो अपनी और अपने राज्यकी सुरक्षा करता है, वही राजा राजधर्मका ज्ञाता है ।। ३१ ।।

जैसे सूर्य उदित होकर प्रतिदिन अपनी किरणोंद्वारा सम्पूर्ण जगत्‌को प्रकाशित करते (या देखते) हैं, उसी प्रकार राजा सदा अपनी दृष्टिसे सम्पूर्ण राष्ट्रका निरीक्षण करे। गुप्तचरोंको बारंबार भेजकर राज्यके समाचार जाने तथा स्वयं अपनी बुद्धिके द्वारा भी सोच-विचारकर कार्य करे ।। ३२ ।।

बुद्धिमान्‌ राजा समय पड़नेपर ही प्रजासे धन ले। अपनी अर्थ-संग्रहकी नीति किसीके सम्मुख प्रकट न करे। जैसे बुद्धिमान मनुष्य गायकी रक्षा करते हुए ही उससे दूध दुहता है, उसी प्रकार राजा सदा पृथ्वीका पालन करते हुए ही उससे धनका दोहन करे ।। ३३ ।।

जैसे मधुमक्खी क्रमश: अनेक फूलोंसे रसका संचय करके शहद तैयार करती है, उसी प्रकार राजा समस्त प्रजाजनोंसे थोड़ा-थोड़ा द्रव्य लेकर उसका संचय करे ।। ३४ ।।

जो धन राज्यकी सुरक्षा करनेसे बचे, उसीको धर्म और उपभोगके कार्यमें खर्च करना चाहिये। शास्त्रज्ञ और मनस्वी राजाको कोषागारके संचित धनसे द्रव्य लेकर भी खर्च नहीं करना चाहिये ।। ३५ ।।

थोड़ा-सा भी धन मिलता हो तो उसका तिरस्कार न करे। शत्रु शक्तिहीन हो तो भी उसकी अवहेलना न करे। बुद्धिसे अपने स्वरूप और अवस्थाको समझे तथा बुद्धिहीनोंपर कभी विश्वास न करे || ३६ ।।

धारणाशक्ति, चतुरता, संयम, बुद्धि, शरीर, धैर्य, शौर्य तथा देश-कालकी परिस्थितिसे असावधान न रहना--ये आठ गुण थोड़े या अधिक धनको बढ़ानेके मुख्य साधन हैं अर्थात्‌ धनरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेके लिये ईंधन हैं || ३७ ।।

थोड़ी-सी भी आग यदि घीसे सिंच जाय तो बढ़कर बहुत बड़ी हो जाती है। एक ही छोटे-से बीजको बो देनेपर उससे सहस्रों बीज पैदा हो जाते हैं। इसी प्रकार महान्‌ आयव्ययके विषयमें विचार करके थोड़े-से भी धनका अनादर न करे || ३८ ।।

शत्रु बालक, जवान अथवा बूढ़ा ही क्‍यों न हो, सदा सावधान न रहनेवाले मनुष्यका नाश कर डालता है। दूसरा कोई धनसम्पन्न शत्रु अनुकूल समयका सहयोग पाकर राजाकी जड़ उखाड़ सकता है। इसलिये जो समयको जानता है, वही समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ है ।। ३९ ||

द्वेष रखनेवाला शत्रु दुर्बल हो या बलवान, राजाकी कीर्ति नष्ट कर देता है, उसके धर्ममें बाधा पहुँचाता है तथा अर्थोपार्जनमें उसकी बढ़ी हुई शक्तिका विनाश कर डालता है; इसलिये मनको वशमें रखनेवाला राजा शत्रुकी ओरसे लापरवाह न रहे || ४० ।।

हानि, लाभ, रक्षा और संग्रहको जानकर तथा सदा परस्पर सम्बन्धित ऐश्वर्य और भोगको भी भलीभाँति समझकर बुद्धिमान्‌ राजाको शत्रुके साथ संधि या विग्रह करना चाहिये; इस विषयपर विचार करनेके लिये बुद्धिमानोंका सहारा लेना चाहिये || ४१ ।।

प्रतिभाशालिनी बुद्धि बलवानको भी पछाड़ देती है। बुद्धिके द्वारा नष्ट होते हुए बलकी भी रक्षा होती है। बढ़ता हुआ शत्रु भी बुद्धिके द्वारा परास्त होकर कष्ट उठाने लगता है। बुद्धिसे सोचकर पीछे जो कर्म किया जाता है, वह सर्वोत्तम होता है ।। ४२ ।।

जिसने सब प्रकारके दोषोंका त्याग कर दिया है, वह धीर राजा यदि किसी वस्तुकी कामना करे तो वह थोड़ा-सा बल लगानेपर भी अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। जो आवश्यक वस्तुओंसे सम्पन्न होनेपर भी अपने लिये कुछ चाहता है अर्थात्‌ दूसरोंसे अपनी इच्छा पूरी करानेकी आश रखता है, वह लोभी और अहंकारी नरेश अपने श्रेयका छोटा-सा पात्र भी नहीं भर सकता ।।

इसलिये राजाको चाहिये कि वह सारी प्रजापर अनुग्रह करते हुए ही उससे कर (धन) वसूल करे। वह दीर्घकालतक प्रजाको सताकर उसपर बिजलीके समान गिरकर अपना प्रभाव न दिखाये || ४४ ।।

विद्या, तप तथा प्रचुर धन--ये सब उद्योगसे प्राप्त हो सकते हैं। वह उद्योग प्राणियोंमें बुद्धिके अधीन होकर रहता है; अतः उद्योगको ही समस्त कार्योंकी सिद्धिका पर्याप्त साधन समझे ।। ४५ ।।

अतः जहाँ ज्ञानेन्द्रियोंमें बुद्धिमान एवं मनस्वी महर्षि निवास करते हैं,- जिसमें इन्द्रियोंक अधिष्ठातृदेवताके रूपमें इन्द्र, विष्णु एवं सरस्वतीका निवास है तथा जिसके भीतर सदा सम्पूर्ण प्राणी वास करते हैं, अर्थात्‌ जो शरीर समस्त प्राणियोंके जीवननिर्वाहका आधार है, विद्वान्‌ पुरुषको चाहिये कि उस मानव-देहकी अवहेलना न करे ।।

राजा लोभी मनुष्यको सदा ही कुछ देकर दबाये रखे; क्योंकि लोभी पुरुष दूसरेके धनसे कभी तृप्त नहीं होता। सत्कर्मोके फलस्वरूप सुखका उपभोग करनेके लिये तो सभी लालायित रहते हैं; परंतु जो लोभी धनहीन है, वह धर्म और काम दोनोंको त्याग देता है || ४७ |।

लोभी मनुष्य दूसरोंके धन, भोग-सामग्री, स्त्री-पुत्र और समृद्धि सबको प्राप्त करना चाहता है। लोभीमें सब प्रकारके दोष प्रकट होते हैं; अत: राजा उसे अपने यहाँ किसी पदपर स्थान न दे ।। ४८ ।।

बुद्धिमान्‌ राजा नीच मनुष्यको देखते ही अपने यहाँसे दूर हटा दे और यदि उसका वश चले तो वह शत्रुओंके सारे उद्योगों तथा कार्योका विध्वंस कर डाले ।। ४९ ।।

पाण्डुनन्दन! धर्मात्मा पुरुषोंमें जो विशेषरूपसे सम्पूर्ण विषयोंका ज्ञाता हो, उसीको मन्त्री बनावे और उसकी सुरक्षाका विशेष प्रबन्ध करे। प्रजाका विश्वास-पात्र और कुलीन राजा नरेशोंको वशमें करनेमें समर्थ होता है ।।

राजाके जो शान्त्रोक्त धर्म हैं, उन्हें संक्षेपसे मैंने यहाँ बताया है। तुम अपनी बुद्धिसे विचार करके उन्हें हृदयमें धारण करो। जो उन्हें गुरुसे सीखकर हृदयमें धारण करता और आचरणमें लाता है, वही राजा अपने राज्यकी रक्षा करनेमें समर्थ होता है ।। ५१ ।।

जिन्हें अन्यायसे उपार्जित, हठसे प्राप्त तथा दैवके विधानके अनुसार उपलब्ध हुआ सुख विधिके अनुरूप प्राप्त हुआ-सा दिखायी देता है, राजधर्मको न जाननेवाले उस राजाकी कहीं गति नहीं है तथा उसका परम उत्तम राज्यसुख चिरस्थायी नहीं होता ।। ५२ ।।

उक्त राजधर्मके अनुसार संधि-विग्रह आदि गुणोंके प्रयोगमें सतत सावधान रहनेवाला नरेश धनसम्पन्न, बुद्धि और शीलके द्वारा सम्मानित, गुणवान्‌ तथा युद्धमें जिनका पराक्रम देखा गया है, उन वीर शत्रुओंको भी कूटकौशलपूर्वक नष्ट कर सकता है ।। ५३ ।।

राजा नाना प्रकारकी कार्यपद्धतियोंद्वारा शत्रु-विजयके बहुत-से उपाय दूँढ़ निकाले। अयोग्य उपायसे काम लेनेका विचार न करे, जो निर्दोष व्यक्तियोंके भी दोष देखता है, वह मनुष्य विशिष्ट सम्पत्ति, महान्‌ यश और प्रचुर धन नहीं पा सकता ।। ५४ ।।

सुहृदोंमेंसे जो दो मित्र प्रेमपूर्वक साथ-साथ एक कार्यमें प्रवृत्त होते हों और साथ-हीसाथ उससे निवृत्त होते हों, उन्हें अच्छी तरह जानकर उन दोनोंमेंसे जो मित्र लौटकर मित्रका गुरुतर भार वहन कर सके, उसीको दिद्वान्‌ पुरुष अत्यन्त स्नेही मित्र मानकर दूसरोंके सामने उसका उदाहरण दें ।। ५५ ।।

नरेश्वर! मेरे बताये हुए इन राजधर्मोका आचरण करो और प्रजाके पालनमें मन लगाओ। इससे तुम सुखपूर्वक पुण्यफल प्राप्त करोगे; क्योंकि सम्पूर्ण जगत्‌का मूल धर्म ही है ।। ५६ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वरमें रजधर्मका वर्णनविषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  1.  इमावेव गौतमभरद्वाजी” इत्यादि श्रुतिके अनुसार सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियेंका गौतम, भरद्वाज, वसिष्ठ और विश्वामित्र आदि महर्षियोंसे सम्बन्ध सूचित होता है।

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