सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के एक सौ ग्यारहवें अध्याय से एक सौ पंद्रहवें अध्याय तक (From the 111 chapter to the 115 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ ग्यारहवें अध्याय के श्लोक 1-91 का हिन्दी अनुवाद)

“मनुष्यके स्वभावकी पहचान बतानेवाली बाघ और सियारकी कथा”

युधिष्ठिरने पूछा--तात! बहुत-से कठोर स्वभाववाले मनुष्य ऊपरसे कोमल और शान्त बने रहते हैं तथा कोमल स्वभावके लोग कठोर दिखायी देते हैं, ऐसे मनुष्योंकी मुझे ठीक-ठीक पहचान कैसे हो? ।। १ ।।

भीष्मजी बोले--युधिष्ठि! इस विषयमें जानकार लोग एक बाघ और सियारके संवादरूप प्राचीन आख्यानका उदाहरण दिया करते हैं, उसे ध्यान देकर सुनो ।। २ ।।

पूर्वकालकी बात है, प्रचुर धन-धान्यसे सम्पन्न पुरिका नामकी नगरीमें पौरिक नामसे प्रसिद्ध एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा ही क्रूर और नराधम था, दूसरे प्राणियोंकी हिंसामें ही उसका मन लगता था ।। ३ ।।

धीरे-धीरे उसकी आयु समाप्त हो गयी और वह ऐसी गतिको प्राप्त हुआ, जो किसी भी प्राणीको अभीष्ट नहीं है। वह अपने पूर्वकर्मसे दूषित होकर दूसरे जन्ममें गीदड़ हो गया ।। ४ ।।

उस समय अपने पूर्व जन्मके वैभवका स्मरण करके उस सियारको बड़ा खेद और वैराग्य हुआ। अतः वह दूसरोंके द्वारा दिये हुए मांसको भी नहीं खाता था ।। ५ ।।

अब उसने जीवोंकी हिंसा करनी छोड़ दी, सत्य बोलनेका नियम ले लिया और दृढ़तापूर्वक अपने व्रतका पालन करने लगा। वह नियत समयपर वृक्षोंसे अपने आप गिरे हुए फलोंका आहार करता था ।। ६ |।

व्रत और नियमोंके पालनमें तत्पर हो कभी पत्ता चबा लेता और कभी पानी पीकर ही रह जाता था। उसका जीवन संयममें बँध गया था ।।

वह श्मशानभूमिमें ही रहता था। वहीं उसका जन्म हुआ था, इसलिये वही स्थान उसे पंसद था। उसे और कहीं जाकर रहनेकी रुचि नहीं होती थी ।। ७ ।।

सियारका इस तरह पवित्र आचार-विचारसे रहना उसके सभी जाति-भाइयोंको अच्छा न लगा। यह सब उनके लिये असह्ा हो उठा; इसलिये वे प्रेम और विनयभरी बातें कहकर उसकी बुद्धिको विचलित करने लगे ।। ८ ।।

उन्होंने कहा “भाई सियार! तू तो मांसाहारी जीव है और भयंकर श्मशानभूमिमें निवास करता है, फिर भी पवित्र आचार-विचारसे रहना चाहता है--यह विपरीत निश्चय है ।। ९ ।।

'भैया! अतः तू हमारे ही समान होकर रह। तेरे लिये भोजन तो हमलोग ला दिया करेंगे। तू इस शौचाचारका नियम छोड़कर चुपचाप खा लिया करना। तेरी जातिका जो सदासे भोजन रहा है, वही तेरा भी होना चाहिये” ।। १० ।।

उनकी ऐसी बात सुनकर सियार एकाग्रचित्त हो मधुर, विस्तृत, युक्तियुक्त तथा कोमल वचनोंद्वारा इस प्रकार बोला-- ।। ११ ।।

“बन्धुओ! अपने बुरे आचरणोंसे ही हमारी जातिका कोई विश्वास नहीं करता। अच्छे स्वभाव और आचरणसे ही कुलकी प्रतिष्ठा होती है; अतः मैं भी वही कर्म करना चाहता हूँ, जिससे अपने वंशका यश बढ़े ।। १२ ।।

“यदि मेरा निवास श्मशानभूमिमें है तो इसके लिये मैं जो समाधान देता हूँ, उसको सुनो। आत्मा ही शुभ कर्मोंके लिये प्रेरणा करता है। कोई आश्रम ही धर्मका कारण नहीं हुआ करता ।॥। १३ ।।

क्या यदि कोई आश्रममें रहकर ब्राह्मणकी हत्या करे तो उसे उसका पातक नहीं लगेगा और यदि कोई बिना आश्रमके स्थानमें गोदान करे तो क्या वह व्यर्थ हो जायेगा? ।। १४ ।।

“तुमलोग केवल स्वार्थके लोभसे मांसभक्षणमें रचे-पचे रहते हो। उसके परिणामस्वरूप जो तीन दोष प्राप्त होते हैं, उनकी ओर मोहवश तुम्हारी दृष्टि नहीं जाती ।। १५ ।।

“तुमलोगोंकी जीविका असंतोषसे पूर्ण, निन्दनीय, धर्मकी हानिके कारण दूषित तथा इहलोक और परलोकमें भी अनिष्ट फल देनेवाली है; इसलिये मैं उसे पसंद नहीं करता हूँ ।। १६ ।।

सियारके इस पवित्र आचार-विचारकी चर्चा चारों ओर फैल जानेके कारण एक प्रख्यातपराक्रमी व्याप्रने उसे विद्वान्‌ और विशुद्ध स्वभावका मानकर उसके निकट पदार्पण किया और उसकी अपने अनुरूप पूजा करके स्वयं ही मन्त्री बनानेके लिये उसका वरण किया ।। १७ |।

व्याप्र बोला--सौम्य! मैं तुम्हारे स्‍्वरूपसे परिचित हूँ। तुम मेरे साथ चलो और अपनी रुचिके अनुसार अधिक-से-अधिक भोगोंका उपभोग करो। जो वस्तुएँ प्रिय न हों, उन्हें त्याग देना ।। १८ ।।

परंतु एक बात मैं तुम्हें सूचित कर देता हूँ। सारे संसारमें यह बात प्रसिद्ध है कि हमारी जातिका स्वभाव कठोर होता है; अतः यदि तुम कोमलतापूर्वक व्यवहार करते हुए मेरे हितसाधनमें लगे रहोगे तो अवश्य ही कल्याणके भागी होओगे ।। १९ ।।

महामनस्वी मृगराजके उस कथनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके सियारने कुछ नतमस्तक होकर विनययुक्त वाणीमें कहा ।। २० ।।

सियार बोला--मृगराज! आपने मेरे लिये जो बात कही है, वह सर्वथा आपके योग्य ही है तथा आप जो धर्म और अर्थसाधनमें कुशल एवं शुद्ध स्वभाववाले सहायकों (मन्त्रियों) की खोज कर रहे हैं, यह भी उचित ही है ।। २१ ।।

वीर! मन्त्रीके बिना एकाकी राजा विशाल राज्यका शासन नहीं कर सकता। यदि शरीरको सुखा देनेवाला कोई दुष्ट मन्त्री मिल गया तो उसके द्वारा भी शासन नहीं चलाया जा सकता ।। २२ ||

महाभाग! इसके लिये आपको चाहिये कि जिनका आपके प्रति अनुराग हो, जो नीतिके जानकार, सद्धाव-सम्पन्न, परस्पर गुटबंदीसे रहित, विजयकी अभिलाषासे युक्त, लोभरहित, कपटनीतिमें कुशल, बुद्धिमान, स्वामीके हितसाधनमें तत्पर और मनस्वी हों, ऐसे व्यक्तियोंको सहायक या सचिव बनाकर आप पिता और गुरुके समान उनका सम्मान करें ।। २३-२४ ।।

मृगराज! मुझे तो संतोषके सिवा और कोई वस्तु रुचती ही नहीं है। मैं सुख, भोग और उनके आधारभूत ऐश्वर्यको नहीं चाहता || २५ ।।

मृगराज! मुझे तो संतोषके सिवा और कोई वस्तु रुचती ही नहीं है। मैं सुख, भोग और उनके आधारभूत ऐश्वर्यको नहीं चाहता || २५ ।।

आपके पुराने सेवकोंके साथ मेरे शीलस्वभावका मेल नहीं खायेगा। वे दुष्ट स्वभावके जीव हैं। अतः मेरे निमित्त वे लोग आपके कान भरते रहेंगे || २६ ।।

आप अन्यान्य तेजस्वी प्राणियोंके भी स्पृहणीय आश्रय हैं। आपकी बुद्धि सुशिक्षित है। आप महान्‌ भाग्यशाली तथा अपराधियोंके प्रति भी दयालु हैं || २७ ।।

आप दूरदर्शी, महान्‌ उत्साही, स्थूललक्ष्य (जिसका उद्देश्य बहुत स्पष्ट हो वह), महाबली, कृतार्थ, सफलतापूर्वक कार्य करनेवाले तथा भाग्यसे अलंकृत हैं || २८ ।।

इधर मैं अपने आपमें ही संतुष्ट रहनेवाला हूँ। मैंने ऐसी जीविका अपनायी है, जो अत्यन्त दुःखमयी है। मैं राजसेवाके कार्यसे अनभिज्ञ और वनमें स्वच्छन्दतापूर्वक घूमनेवाला हूँ || २९ ।।

जो राजाके आश्रयमें रहते हैं, उन्हें राजाकी निन्‍्दासे सम्बन्ध रखनेवाले सभी दोष प्राप्त होते हैं। इधर मेरे जैसे वनवासियोंकी व्रतचर्या सर्वयधा असंग और भयसे रहित होती है ।। ३० ।।

राजा जिसे अपने सामने बुलाता है, उसके हृदयमें जो भय खड़ा होता है, वह वनमें फल-मूल खाकर संतुष्ट रहनेवाले लोगोंके मनमें नहीं होता || ३१ ।।

एक जगह बिना किसी भयके केवल जल मिलता है और दूसरी जगह अन्तमें भय देनेवाला स्वादिष्ट अन्न प्राप्त होता है--इन दोनोंको यदि विचार करके मैं देखता हूँ तो मुझे वहाँ ही सुख जान पड़ता है, जहाँ कोई भय नहीं है || ३२ ।।

राजाओंने किन्हीं वास्तविक अपराधोंके कारण उतने सेवकोंको दण्ड नहीं दिया होगा, जितने कि लोगोंके झूठे लगाये गये दोषोंसे कलंकित होकर राजाके हाथसे मारे गये हैं ।। ३३ ।।

मृगराज! यदि आप मुझसे मन्त्रित्वका कार्य लेना ही ठीक समझते हैं तो मैं आपसे एक शर्त कराना चाहता हूँ, उसीके अनुसार आपको मेरे साथ बर्ताव करना उचित होगा ।। ३४ ।।

मेरे आत्मीयजनोंका आपको सम्मान करना होगा। मेरी कही हुई हितकर बातें आपको सुननी होंगी। मेरे लिये जो जीविकाकी व्यवस्था आपने की है, वह आपहीके पास सुस्थिर एवं सुरक्षित रहे || ३५ ।।

मैं आपके दूसरे मन्त्रियोंक साथ बैठकर कभी कोई परामर्श नहीं करूँगा; क्योंकि दूसरे नीतिज्ञ मन्त्री मुझसे ईर्ष्या करते हुए मेरे प्रति व्यर्थकी बातें कहने लगेंगे |। ३६ ।।

मैं अकेला एकान्तमें अकेले आपसे मिलकर आपको हितकी बातें बताया करूँगा। आप भी अपने जाति-भाइयोंके कार्योंमें मुझसे हिताहितकी बात न पूछियेगा ।। ३७ ।।

मुझसे सलाह लेनेके बाद यदि आपके पहलेके मन्त्रियोंकी भूल प्रमाणित हो तो भी उन्हें प्राणदण्ड न दीजियेगा तथा कभी क्रोधमें आकर मेरे आत्मीयजनोंपर भी प्रहार न कीजियेगा ।। ३८ ।।

“अच्छा, ऐसा ही होगा” यह कहकर शेरने उसका बड़ा सम्मान किया। सियार बाघराजाके बुद्धिदायक सचिवके पदपर प्रतिष्ठित हो गया ।। ३९ ।।

सियार बहुत अच्छा कार्य करने लगा और उसको अपने सभी कार्योमें बड़ी प्रशंसा प्राप्त होने लगी। इस प्रकार उसे सम्मानित होता देख पहलेके राजसेवक संगठित हो बारंबार उससे द्वेष करने लगे || ४० ।।

उनके मनमें दुष्टता भरी थी। वे सियारके पास मित्रभावसे आते और उसे समझाबुझाकर प्रसन्न करके अपने ही समान दोषके पथपर चलानेकी चेष्टा करते थे ।।

उसके आनेके पहले वे और ही प्रकारसे रहा करते थे। दूसरोंका धन हड़प लिया करते थे, परंतु अब वैसा नहीं कर सकते थे। सियारने उन सबपर ऐसी कड़ी पाबंदी लगा दी थी कि वे किसीकी कोई भी वस्तु लेनेमें असमर्थ हो गये थे || ४२ ।।

उनकी यही इच्छा थी कि सियार भी डिग जाय; इसलिये वे तरह-तरहकी बातोंमें उसे फुसलाते और बहुत-सा धन देनेका लोभ देकर उसकी बुद्धिको प्रलोभनमें फँसाना चाहते थे ।। ४३ ।।

पंरतु सियार बड़ा बुद्धिमान था। अत: वह उनके प्रलोभनमें आकर धैर्यसे विचलित नहीं हुआ। तब दूसरे-दूसरे सभी सेवकोंने मिलकर उसके विनाशके लिये प्रतिज्ञा की और तदनुसार प्रयत्न आरम्भ कर दिया ।। ४४ ।।

एक दिन उन सेवकोंने शेरके खानेके लिये जो मांस तैयार करके रखा गया था, उसके स्थानसे हटाकर सियारके घरमें रख दिया ।। ४५ ।।

जिसने जिस उद्देश्यसे उस मांसको चुराया और जिसने ऐसा करनेकी सलाह दी, वह सब कुछ सियारको मालूम हो गया तो भी किसी कारणवश उसने चुपचाप सह लिया ।। ४६ ।।

मन्त्रीपदपर आते समय सियारने यह शर्त करा ली थी कि राजन! यदि आप मुझसे मैत्री चाहते हैं तो किसीके बहकावेमें आकर मेरा विनाश न कर डालियेगा ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! उधर शेरको जब भूख लगी और वह भोजनके लिये उठा, तब उसके खानेके लिये जो परोसा जानेवाला था, वह मांस उसे नहीं दिखायी दिया ।। ४८ ।।

तब मृगराजने सेवकोंको आज्ञा दी कि चोरका पता लगाओ। तब जिनकी यह करतूत थी, उन्हीं लोगोंने उस मांसके बारेमें शेरको बताया--“महाराज! अपनेको अत्यन्त बुद्धिमान्‌ और पण्डित माननेवाले आपके मन्त्री महोदयने ही इस मांसका अपहरण किया है” ।। ४९ *3॥

सियारकी यह चपलता सुनकर शेर गुस्सेसे भर गया। उससे यह बात सही नहीं गयी; अतः मृगराजने उसका वध करनेका ही विचार कर लिया || ५० ६ ।।

उसका यह छिटद्र देखकर पहलेके मन्त्री आपसमें कहने लगे, वह हम सब लोगोंकी जीविका नष्ट करनेपर तुला हुआ है; अतः हम भी उससे बदला लें, ऐसा निश्चय करके वे उसके अपराधोंका वर्णन करने लगे-- ।।

“महाराज! जब उसके द्वारा ऐसा कर्म किया जा सकता है, तब वह और क्या नहीं कर सकता? स्वामीने पहले उसके बारेमें जैसा सुन रक्‍्खा है, वह वैसा नहीं है ।।

“वह बातोंसे ही धर्मात्मा बना हुआ है। स्वभावसे तो बड़ा क्रूर है। भीतरसे यह बड़ा पापी है; परंतु ऊपरसे धर्मात्मापनका ढोंग बनाये हुए है। उसका सारा आचार-विचार व्यर्थ दिखावेके लिये है || ५४ ।।

“उसने तो अपना काम बनाने और पेट भरनेके लिये ही व्रत करनेमें परिश्रम किया है। यदि आपको विश्वास न हो तो यह लीजिये, हम अभी उसके यहाँ से मांस ले आकर दिखाते हैं ।। ५५ ||

ऐसा कहकर वे क्षणभरमें ही सियारके घरसे उस मांसको उठा लाये। मांसके अपहरणकी बात जानकर और उन सेवकोंकी बातें सुनकर शेरने उस समय यह आज्ञा दे दी कि सियारको प्राणदण्ड दे दिया जाय || ५६½।।

शेरकी यह बात सुनकर उसकी माता हितकर वचनोंद्वारा उसे समझानेके लिये वहाँ आयी और बोली--'बेटा! इसमें कुछ कपटपूर्ण षड्यन्त्र हुआ मालूम पड़ता है; अतः तुम्हें इसपर विश्वास नहीं करना चाहिये ।।

“काममें लाग-डाँट हो जानेसे जिनके मनमें शुद्धभाव नहीं है, वे लोग निर्दोषपर ही दोषारोपण करते हैं। किसीको अपनेसे ऊँची अवस्थामें देख कर कोई-कोई ईरष्ष्यावश सहन नहीं कर पाते। यही वैरभाव उत्पन्न करनेवाली प्रक्रिया है ।। ५९ ।।

“कोई कितना ही शुद्ध और उद्योगी क्‍यों न हो, लोग उसपर दोषारोपण कर ही देते हैं। अपने धार्मिक कर्मोमें लगे हुए वनवासी मुनिके भी शत्रु, मित्र और उदासीन--ये तीन पक्ष पैदा हो जाते हैं ।। ६०½।।

“'लोभी लोग निर्लोभीसे, कायर बलवानोंसे, मूर्ख विद्वानोंसे, दरिद्र बड़े-बड़े धनियोंसे, पापाचारी धर्मात्माओंसे और कुरूप सुन्दर रूपवालोंसे द्वेष करते हैं | ६१-६२ ।।

“विद्वानोंमें भी बहुत-से ऐसे अविवेकी, लोभी और कपटी होते हैं, जो बृहस्पतिके समान बुद्धि रखनेवाले निर्दोष व्यक्तिमें भी दोष ढूँढ निकालते हैं || ६३ ।।

एक ओर तो तुम्हारे सूने घरसे मांसकी चोरी हुई है और दूसरी ओर एक व्यक्ति ऐसा है, जो देनेपर भी मांस लेना नहीं चाहता--इन दोनों बातोंपर पहले अच्छी तरह विचार करो ।। ६४ ।।

संसारमें बहुतसे असभ्य प्राणी सभ्यकी तरह और सभ्यलोग असभ्यके समान देखे जाते हैं। इस तरह अनेक प्रकारके भाव दृष्टिगोचर होते हैं; अतः उनकी परीक्षा कर लेनी उचित है ।। ६५ ।।

“आकाश आऔँंधी की हुई कड़ाहीके तले (भीतरी भागों) के समान दिखायी देता है और जुगनू अग्निके सदृश दृष्टिगोचर होता है; परंतु न तो आकाशमें तल है और न जुगनूमें अग्नि ही है ।। ६६ |।

“इसलिये प्रत्यक्ष दिखायी देनवाली वस्तुकी भी परीक्षा करनी उचित है। जो परीक्षा लेकर भले-बुरेकी जाँच करके किसी कार्यके लिये आज्ञा देता है, उसे पीछे पछताना नहीं पड़ता ।। ६७ ।।

“बेटा! यदि शक्तिशाली राजा दूसरेको मरवा डाले तो यह उसके लिये कोई कठिन काम नहीं है; परंतु शक्तिशाली पुरुषोंमें यदि क्षमाका भाव हो तो संसारमें उसीकी बड़ाई की जाती है और उसीसे राजाओंका यश बढ़ता है ।। ६८ ।।

बेटा! तुमने ही इस सियारको मन्त्रीके पदपर बिठाया है, और तुम्हारे सामन्तोंमें भी इसकी ख्याति बढ़ गयी है। कोई सुपात्र व्यक्ति बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होता है। यह सियार तुम्हारा हितैषी सुहृद्‌ है; इसलिये तुम इसकी रक्षा करो || ६९ ।।

'जो दूसरोंके मिथ्या कलंक लगानेपर किसी निर्दोषको भी दण्ड देता है, वह दुष्ट मन्त्रियोंवाला राजा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है” || ७० ।॥।

तदनन्तर उन्हीं शत्रुओंके समूहमेंसे किसी धर्मात्मा सियारने (जो शेरका गुप्तचर बना था,) आकर गीदड़के साथ जो यह छल-कपट किया गया था, वह सब सिंहको कह सुनाया ।। ७१ ||

इससे शेरको सियारकी सच्चरित्रताका पता चल गया और उसने उसका सत्कार करके उसे इस अभियोगसे मुक्त कर दिया। इतना ही नहीं, मृगराजने स्नेहपूर्वक बारंबार अपने सचिवको गलेसे लगाया ।। ७२ ।।

तत्पश्चात्‌ नीतिशास्त्रके ज्ञाता सियारने मृगरगाजकी आज्ञा लेकर अमर्षसे संतप्त हो उपवास करके प्राण त्याग देनेका विचार किया ।। ७३ ।।

शेरने धर्मात्मा गीदडड़का भलीभाँति आदर-सत्कार करके उसे उपवाससे रोक दिया। उस समय उसके नेत्र स्नेहसे खिल उठे थे || ७४ ।।

सियारने देखा, मालिकका हृदय स्नेहसे आकुल हो रहा है, तब उसने उसे प्रणाम करके अश्रुगद्वद वाणीसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया-- || ७५ ||

“महाराज! पहले तो आपने मुझे सम्मान दिया और पीछे अपमानित कर दिया, शत्रुओंकी-सी अवस्थामें डाल दिया; अत: अब मैं आपके पास रहनेके योग्य नहीं हूँ ।। ७६ ।।

“जो अपने पदसे गिरा दिये जानेके कारण असंतुष्ट हों, अपमानित किये गये हों, जो स्वयं राजासे पुरस्कृत होकर दूसरोंके द्वारा कलंक लगाये जानेके कारण उस आदरसे वंचित कर दिये गये हों, जो क्षीण, लोभी, क्रोधी, भयभीत और धोखेमें डाले गये हों, जिनका सर्वस्व छीन लिया गया हो, जो मानी हों, जिनकी आय छिन गयी हो, जो महत्त्वपूर्ण पद पाना चाहते हों, जिन्हें सताया गया हो, जो किसी राजापर आनेवाले संकटसमूहकी प्रतीक्षा कर रहे हों, छिपे रहते हों और मनमें कपटभाव रखते हों, वे सभी सेवक शत्रुओंका काम बनानेवाले होते हैं || ७७--७९ ।।

जब मैं एक बार अपने पदसे भ्रष्ट और अपमानित हो गया, तब पुनः: आप मुझपर कैसे विश्वास कर सकेंगे? अथवा मैं ही कैसे आपके पास रह सकूँगा? ।।

आपने योग्य समझकर मुझे अपनाया और मन्त्रीके पदपर बिठाकर मेरी परीक्षा ली। इसके बाद अपनी की हुई प्रतिज्ञाको तोड़कर मेरा अपमान किया ।। ८१ ।।

“पहले भरी सभामें शीलवान्‌ कहकर जिसका परिचय दिया गया हो, प्रतिज्ञाकी रक्षा करनेवाले पुरुषको उसका दोष नहीं बताना चाहिये || ८२ ।।

“जब मैं इस प्रकार यहाँ अपमानित हो गया तो अब आपपर मेरा विश्वास न होगा और आप भी मुझपर विश्वास नहीं कर सकेंगे। ऐसी दशामें आपसे मुझे सदा भय बना रहेगा || ८३ ।।

“आप मुझपर संदेह करेंगे और मैं आपसे डरता रहूँगा, इधर पराये दोष ढूँढनेवाले आपके भूत्यलोग मौजूद ही हैं। इनका मुझपर तनिक भी स्नेह नहीं है तथा इन्हें संतुष्ट रखना भी मेरे लिये अत्यन्त कठिन है। साथ ही यह मन्त्रीका कर्म भी अनेक प्रकारके छलकपटसे भरा हुआ है ।। ८४ ।।

'प्रेमका बन्धन बड़ी कठिनाईसे टूटता है, पर जब वह एक बार टूट जाता है, तब बड़ी कठिनाईसे जुट पाता है। जो प्रेम बारंबार टूटता और जुड़ता रहता है, उसमें स्नेह नहीं होता ।। ८५ |।

'ऐसा मनुष्य कोई एक ही होता है, जो अपने या दूसरेके हितमें रत न रहकर स्वामीके ही हितमें संलग्न दिखायी देता हो; क्योंकि अपने कार्यकी अपेक्षा रखकर स्वार्थसाधनका उद्देश्य लेकर प्रेम करनेवाले तो बहुत होते हैं, परंतु शुद्धभावसे स्नेह रखनेवाले मनुष्य अत्यन्त दुर्लभ हैं ।। ८६ ।।

“योग्य मनुष्यको पहचानना राजाओंके लिये अत्यन्त दुष्कर है; क्योंकि उनका चित्त चंचल होता है, सैकड़ोंमेंसे कोई एक ही ऐसा मिलता है, जो सब प्रकारसे सुयोग्य होता हुआ भी संदेहसे परे हो || ८७ ।।

“मनुष्यके उत्कर्ष और अपकर्ष (उन्नति और अवनति) अकस्मात्‌ होते हैं, किसीका भला करके बुरा करना और उसे महत्त्व देकर नीचे गिराना, यह सब ओछी बुद्धिका परिणाम है” ।। ८८ ।।

इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मुक्तियोंसे युक्त सान्त्वनापूर्ण वचन कहकर सियारने बाघराजाको प्रसन्न कर लिया और उसकी अनुमति लेकर वह वनमें चला गया ।। ८९ 

वह बड़ा बुद्धिमान्‌ था; अतः शेरकी अनुनय-विनय न मानकर मृत्युपर्यन्त निराहार रहनेका व्रत ले एक स्थानपर बैठ गया और अन्तमें शरीर त्यागकर स्वर्गधाममें जा पहुँचा || ९० ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें व्याप्र और गीदड़का संवादविषयक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ९१ “लोक हैं।)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ बारहवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“एक तपस्वी ऊँटके आलस्यका कुपरिणाम और राजाका कर्तव्य”

युधिष्ठिरने पूछा--समस्त धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ पितामह! राजाको क्‍या करना चाहिये? क्या करनेसे वह सुखी हो सकता है? यह मुझे यथार्थरूपसे बताइये? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--नरेश्वर! राजाका जो कर्तव्य है और जो कुछ करके वह सुखी हो सकता है, उस कार्यका निश्चय करके अब मैं तुम्हें बतलाता हूँ, उसे सुनो ।।२।।

युधिष्ठिर! हमने एक ऊँटका जो महान वृत्तान्त सुन रखा है, उसे तुम सुनो। राजाको वैसा बर्ताव नहीं करना चाहिये ।।३।।

प्राजापत्ययुग (सत्ययुग) में एक महान्‌ ऊँट था। उसको पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण था। उसने कठोर व्रतके पालनका नियम लेकर वनमें बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की ।।४।।

उस तपस्याके अन्तमें पितामह भगवान्‌ ब्रह्मा बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उससे वर माँगनेके लिये कहा ।।५।।

ऊँट बोला--भगवन्‌! आपकी कृपासे मेरी यह गर्दन बहुत बड़ी हो जाय, जिससे जब मैं चरनेके लिये जाऊँ तो सौ योजनसे अधिक दूरतककी खाद्य वस्तुएँ ग्रहण कर सकूँ ।। ६ ।।

वरदायक महात्मा ब्रह्माजीने 'एवमस्तु” कहकर उसे मुँहमाँगा वर दे दिया। वह उत्तम वर पाकर ऊँट अपने वनमें चला गया ।। ७ ।।

उस खोटी बुद्धिवाले ऊँटने वरदान पाकर कहीं आने-जानेमें आलस्य कर लिया। वह दुरात्मा कालसे मोहित होकर चरनेके लिये कहीं जाना ही नहीं चाहता था ।। ८ ।।

एक समयकी बात है, वह अपनी सौ योजन लंबी गर्दन फैलाकर चर रहा था, उसका मन चरनेसे कभी थकता ही नहीं था। इतनेमें ही बड़े जोरसे हवा चलने लगी ।। ९ ।।

वह पशु किसी गुफामें अपनी गर्दन डालकर चर रहा था, इसी समय सारे जगत्‌के जलसे आप्लावित करती हुई बड़ी भारी वर्षा होने लगी ।। १० ।।

वर्षा आरम्भ होनेपर भूख और थकावटसे कष्ट पाता हुआ एक गीदड़ अपनी स्त्रीके साथ शीघ्र ही उस गुहामें आ घुसा। वह जलसे पीड़ित था, सर्दीसे उसके सारे अंग अकड़ गये थे || ११ ।।

भरतश्रेष्ठ) वह मांसजीवी गीदड़ अत्यन्त भूखके कारण कष्ट पा रहा था, अतः उसने ऊँटकी गर्दनका मांस काट-काटकर खाना आरम्भ कर दिया ।। १२ ।।

जब उस पशुको यह मालूम हुआ कि उसकी गर्दन खायी जा रही है, तब वह अत्यन्त दुखी हो उसे समेटनेका प्रयत्न करने लगा ।। १३ ।।

वह पशु जबतक अपनी गर्दनको ऊपर-नीचे समेटनेका यत्न करता रहा, तबतक ही सत्रीसहित सियारने उसे काटकर खा लिया ।। १४ ।।

इस प्रकार ऊँटको मारकर खा जानेके पश्चात्‌ जब आँधी और वर्षा बंद हो गयी, तब वह गीदड़ गुफाके मुहानेसे निकल गया ।। १५ ।।

इस तरह उस मूर्ख ऊँटकी मृत्यु हो गयी। देखो, उसके आलस्यके क्रमसे कितना महान्‌ दोष प्राप्त हो गया ।।

इसलिये तुम्हें भी ऐसे आलस्यको त्याग करके इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए बुद्धिपूर्वक बर्ताव करना उचित है। मनुजीका कथन है कि “विजयका मूल बुद्धि ही है” | १७ ।।

भारत! बुद्धिबलसे किये गये कार्य श्रेष्ठ हैं। बाहुबलसे किये जानेवाले कार्य मध्यम हैं। जाँघ अर्थात्‌ पैरके बलसे किये गये कार्य जघन्य (अधम कोटिके) हैं तथा मस्तकसे भार ढोनेका कार्य सबसे निम्न श्रेणीका है ।। १८ ।।

जो जितेन्द्रिय और कार्यदक्ष है, उसीका राज्य स्थिर रहता है। मनुजीका कथन है कि संकटमें पड़े हुए राजाकी विजयका मूल बुद्धि-बल ही है ।। १९ ।।

निष्पाप युधिष्ठिर! जो गुप्त मन्त्रणा सुनता है, जिसके सहायक अच्छे हैं तथा जो भलीभाँति जान-बूझकर कोई कार्य करता है, उसके पास ही धन स्थिर रहता है। सहायकोंसे सम्पन्न नरेश ही समूची पृथ्वीका शासन कर सकता है ।। २० ।।

महेन्द्रके समान प्रभावशाली नरेश! पूर्वकालमें राज्य-संचालनकी विधिको जाननेवाले सत्पुरुषोंने यह बात कही थी। मैंने भी शास्त्रीय दृष्टिके अनुसार तुम्हें यह बात बतायी है। राजन! इसे अच्छी तरह समझकर इसीके अनुसार चलो ।। २१ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनिशासनपर्वमें ऊँटकी गर्दनकी कथाविषयक एक सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११२ ॥

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ तेरहवें अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

शक्तिशाली शत्रुके सामने बेंतकी भाँति नतमस्तक होनेका उपदेश--सरिताओं और समुद्रका संवाद

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ) राजा एक दुर्लभ राज्यको पाकर भी सेना और खजाना आदि साधनोंसे रहित हो तो सभी दृष्टियोंसे अत्यन्त बढ़े-चढ़े हुए शत्रुके सामने कैसे टिक सकता है? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--भारत! इस विषयमें विज्ञ पुरुष सरिताओं तथा समुद्रके संवादरूप एक प्राचीन उपाख्यानका दृष्टान्त दिया करते हैं ।। २ ।।

एक समयकी बात है, दैत्योंके निवासस्थान और सरिताओंके स्वामी समुद्रने सम्पूर्ण नदियोंसे अपने मनका एक संदेह पूछा ।। ३ ।।

समुद्रने कहा--नदियो! मैं देखता हूँ कि जब बाढ़ आनेके कारण तुमलोग लबालब भर जाती हो, तब विशालकाय वृक्षोंको जड़-मूल और शाखाओंसहित उखाड़कर अपने प्रवाहमें बहा लाती हो; परंतु उनमें बेंतका कोई पेड़ नहीं दिखायी देता ।। ४ ।।

बेंतका शरीर तो नहींके बराबर बहुत पतला है। उसमें कुछ दम नहीं होता है और वह तुम्हारे खास किनारेपर जमता है; फिर भी तुम उसे न ला सकी, क्या कारण है? क्या तुम अवहेलनावश उसे कभी नहीं लायीं अथवा उसने तुम्हारा कोई उपकार किया है? ।। ५ ।।

इस विषयमें तुम सब लोगोंका विचार मैं सुनना चाहता हूँ, क्या कारण है कि बेंतका वृक्ष तुम्हारे इन तटोंको छोड़कर नहीं आता है? ।। ६ ।।

इस प्रकार प्रश्न होनेपर गंगानदीने सरिताओंके स्वामी समुद्रसे यह उत्तम अर्थपूर्ण, युक्तियुक्त तथा मनको ग्रहण करनेवाली बात कही ।। ७ ।।

गंगा बोली--नदीश्वर! ये वृक्ष अपने-अपने स्थानपर अकड़कर खड़े रहते हैं, हमारे प्रवाहके सामने मस्तक नहीं झुकाते। इस प्रतिकूल बर्तावके कारण ही उन्हें नष्ट होकर अपना स्थान छोड़ना पड़ता है; परंतु बेंत ऐसा नहीं है ।। ८ ।।

बेंत नदीके वेगको आते देख झुक जाता है, पर दूसरे वृक्ष ऐसा नहीं करते; अतः वह सरिताओंका वेग शान्त होनेपर पुनः अपने स्थानमें ही स्थित हो जाता है ।। ९ ।।

बेंत समयको पहचानता है, उसके अनुसार बर्ताव करना जानता है, सदा हमारे वशमें रहता है, कभी उद्दण्डता नहीं दिखाता और अनुकूल बना रहता है। उसमें कभी अकड़ नहीं आती; इसीलिये उसे स्थान छोड़कर यहाँ नहीं आना पड़ता है। ।।१०।।

जो पौधे, वृक्ष या लता-गुल्म हवा और पानीके वेगसे झुक जाते तथा वेग शान्त होनेपर सिर उठाते हैं, उनका कभी पराभव नहीं होता ।। ११ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इसी प्रकार जो राजा बलमें बढ़े-चढ़े तथा बन्धनमें डालने और विनाश करनेमें समर्थ शत्रुके प्रथम वेगको सिर झुकाकर नहीं सह लेता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।। १२ ।।

जो बुद्धिमान्‌ राजा अपने तथा शत्रुके सार-असार, बल तथा पराक्रमको जानकर उसके अनुसार बर्ताव करता है, उसकी कभी पराजय नहीं होती है ।।१३।।

इस प्रकार विद्वान्‌ राजा जब शत्रुके बलको अपनेसे अधिक समझे, तब बेंतका ही ढंग अपना ले; अर्थात्‌ उसके सामने नतमस्तक हो जाय। यही बुद्धिमानीका लक्षण है ।।१४।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमानुशासनपर्वमें सारिताओं और समुद्रका संवादविषयक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ चौदहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ चौदहवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

 “दुष्ट मनुष्यद्वारा की हुई निन्दाको सह लेनेसे लाभ”

युधिष्ठिर ने पूछा--शत्रुदमन भारत! यदि कोई ढीठ मूर्ख मधुर या तीखे शब्दोंमें भरी सभाके बीच किसी दिद्वान्‌ पुरुषकी निन्दा करने लगे, तो वह उसके साथ कैसा बर्ताव करे? ।।१।।

भीष्मजीने कहा--भूपाल! सुनो, इस विषयमें सदासे जैसी बात कही जाती है, उसे बता रहा हूँ। विशुद्ध चित्तवाला पुरुष इस जगतमें सदा ही मूर्ख मनुष्यके कठोर वचनोंको सहन करता है ।।२।।

जो निन्दा करनेवाले पुरुषके ऊपर क्रोध नहीं करता, वह उसके पुण्यको प्राप्त कर लेता है। वह सहनशील मनुष्य अपना सारा पाप उस क्रोधी पुरुषपर ही धो डालता है।।३।।

अच्छे पुरुषको चाहिये कि वह टिटिहरी या रोगीकी तरह टाँय-टाँय करते हुए उस निन्दाकारी पुरुषकी उपेक्षा कर दे। इससे वह सब लोगोंके द्वेषका पात्र बन जायगा और उसके सारे सत्कर्म निष्फल हो जायँगे ।।४।।

वह मूर्ख तो उस पापकर्मके द्वारा सदा अपनी प्रशंसा करते हुए कहता है कि मैंने अमुक सम्मानित पुरुषको भरी सभामें ऐसी-ऐसी बातें सुनायीं कि वह लाजसे गड़ गया, उसका मुख सूख गया और वह अधमरा-सा हो गया, इस प्रकार निन्दनीय कर्म करके वह अपनी प्रशंसा करता है और तनिक भी लजाता नहीं है ।।५।।

ऐसे नराधमकी यत्नपूर्वक उपेक्षा कर देनी चाहिये। मूर्ख मनुष्य जो कुछ भी कह दे, विद्वान पुरुषको वह सब सह लेना चाहिये ।।७।।

जैसे वनमें कौआ व्यर्थ ही काँव-काँव किया करता है, उसी तरह मूर्ख मनुष्य भी अकारण ही निन्दा करता है। वह प्रशंसा करे या निन्दा, किसीका क्‍या भला या बुरा करेगा? अर्थात्‌ कुछ भी नहीं कर सकेगा ।। ८ ।।

यदि पापाचारी पुरुषके कटुवचन बोलनेपर बदलेमें वैसे ही वचनोंका प्रयोग किया जाय तो उससे केवल वाणीद्वारा कलहमात्र होगा। जो हिंसा करना चाहता है, उसका गाली देनेसे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा ।। ९ ।।

मयूर जब नाच दिखाता है, उस समय वह अपने गुप्त अंगोंको भी उघाड़ देता है। इसी प्रकार जो मूर्ख अनुचित आचरण करता है वह उस कुचेष्टाद्वारा अपने छिपे हुए दोषोंको प्रकट करता है ।। १० ।।

संसारमें जिसके लिये कुछ भी कह देना या कर डालना असम्भव नहीं है, ऐसे मनुष्यसे उस भले मनुष्यको बात भी नहीं करनी चाहिये जो अपने सत्कर्मके द्वारा विशुद्ध समझा जाता है || ११ ।।

जो सामने आकर गुण गाता है और परोक्षमें निन्दा करता है, वह मनुष्य संसारमें कुत्तेके सामन है। उसके लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं || १२ ।।

परोक्षमें परनिन्दा करनेवाला मनुष्य सैकड़ों मनुष्योंको जो कुछ दान देता है और होम करता है, उन सब अपने कर्मोको तत्काल नष्ट कर देता है || १३ ।।

इसलिये बुद्धिमान्‌ पुरुषको चाहिये कि वह वैसे पापपूर्ण विचारवाले पुरुषको तत्काल त्याग दे। वह कुत्तेके मांसके समान साधु पुरुषोंके लिये सदा ही त्याज्य है ।।

जैसे साँप अपने फनको ऊँचा उठाकर प्रकाशित करता है, उसी प्रकार जनसमुदायमें किसी महापुरुषकी निन्दा करनेवाला दुरात्मा अपने ही दोषोंको प्रकट करता है ।।

जो परनिन्दारूप अपना कार्य करनेवाले दुष्ट पुरुषसे बदला लेना चाहता है, वह राखमें लोटनेवाले मूर्ख गदहेके सामन केवल दु:खमें निमग्न होता है ।। १६ ।।

जो सदा लोगोंकी निन्दामें ही तत्पर रहता है, वह मनुष्यके शरीररूप घरमें रहनेवाला भेड़िया है। वह सदा अशान्त बना रहता है। मतवाले हाथीके समान चीत्कार करता है और अत्यन्त भंयकर कुत्तेके समान काटनेको दौड़ता है। श्रेष्ठ पुरुषको चाहिये कि उसे सदाके लिये त्याग दे ।। १७ ।।

वह मूर्खोद्वारा सेवित पथपर चलनेवाला है। इन्द्रिय-संयम और विनयसे कोसों दूर है। उसने शत्रुताका व्रत ले रखा है। वह सदा सबकी अवनति चाहता है। उस पापात्मा एवं पापबुद्धि मनुष्यको धिक्‍्कार है ।। १८ 

यदि ऐसे दुष्ट मनुष्य किसीपर आक्रमण करके उसकी निन्दा करने लगें और उसे सुनकर भला मनुष्य उसका उत्तर देनेके लिये उद्यत हो तो उसे रोककर कहे कि तुम दुखी न होओ; क्‍योंकि स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य उच्च पुरुषका नीचके साथ होनेवाले संयोगकी अर्थात्‌ बराबरीकी निन्दा करते हैं ।। १९ ।।

यदि क्रूर स्वभावका मूर्ख मनुष्य कुपित हो जाय तो वह थप्पड़ मार सकता है, मुँहपर धूल अथवा भूसी झोंक सकता है और दाँत निकालकर डरा सकता है। उसके द्वारा सारी कुचेष्टाएँ सम्भव हैं || २० ।।

जो इस दृष्टान्तको सदा पढ़ता या सुनता रहता है और जो मनुष्य सभामें किसी अत्यन्त दुष्टात्माद्वारा की हुई निन्‍्दाको सह लेता है, वह दुर्जन मनुष्यसे कभी वाणीद्वारा होनेवाले निन्दाजनित किंचिन्मात्र दुःखका भी भागी नहीं होता  ।।२१।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ पंद्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ पंद्रहवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा तथा राजसेवकोंके आवश्यक गुण”

युधिष्ठटिर बोले--'परमबुद्धिमान्‌ पितामह! मेरे मनमें यह एक महान्‌ संशय बना हुआ है। राजन! आप मेरे उस संदेहका निवारण करें; क्योंकि आप हमारे वंशके प्रवर्तक हैं ।। १ |।

तात! आपने दुरात्मा और दुराचारी पुरुषोंके बोलचालकी चर्चा की है; इसीलिये मैं आपसे कुछ निवेदन कर रहा हूँ ।। २ ।।

आप मुझे ऐसा कोई उपाय बताइये जो हमारे इस राज्यतन्त्रके लिये हितकारक, कुलके लिये सुखदायक, वर्तमान और भविष्यमें भी कल्याणकी वृद्धि करनेवाला, पुत्र और पौत्रोंकी परम्पराके लिये हितकर, राष्ट्रकी उन्नति करनेवाला तथा अन्न, जल और शरीरके लिये भी लाभकारी हो ।। ३-४ ।।

जो राजा अपने राज्यपर अभिषिक्त हो देशमें मित्रोंसे घिरा हुआ रहता है, तथा जो हितैषी सुहृदोंसे भी सम्पन्न है, वह किस प्रकार अपनी प्रजाको प्रसन्न रखे? ।।५।।

जो असदू वस्तुओंके संग्रहमें अनुरक्त है, स्नेह और रागके वशीभूत हो गया है और इन्द्रियोंपर वश न चलनेके कारण सज्जन बननेकी चेष्टा नहीं करता, उस राजाके उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए समस्त सेवक भी विपरीत गुणवाले हो जाते हैं। ऐसी दशामें सेवकोंके रखनेका जो फल धनकी वृद्धि आदि है, उससे वह राजा सर्वथा वंचित रह जाता है। ।।६-७।।

मेरे इस संशयका निवारण करके आप दुर्बोध राजधर्मोंका वर्णन कीजिये; क्योंकि आप बुद्धिमें साक्षात्‌ बृहस्पतिके समान हैं ।।८।।

पुरुषसिंह! हमारे कुलके हितमें तत्पर रहनेवाले आप ही हमें ऐसा उपदेश दे सकते हैं। दूसरे हमारे हितैषी महाज्ञानी विदुरजी हैं, जो हमें सर्वदा सदुपदेश दिया करते हैं ।। ९ ।।

आपके मुखसे कुलके लिये हितकारी तथा राज्यके लिये कल्याणकारी उपदेश सुनकर मैं अक्षय अमृतसे तृप्त होनेके समान सुखसे सोऊँगा ।।१०।।

कैसे सर्वगुणसम्पन्न सेवक राजाके निकट रहने चाहिये और किस कुलमें उत्पन्न हुए कैसे सैनिकोंके साथ राजाको युद्धकी यात्रा करनी चाहिये? ।। ११ ।।

सेवकोंके बिना अकेला राजा राज्यकी रक्षा नहीं कर सकता; क्योंकि उत्तम कुलमें उत्पन्न सभी लोग इस राज्यकी अभिलाषा करते हैं ।। १२ ।।

भीष्मजीने कहा--तात भरतनन्दन! कोई भी सहायकोंके बिना अकेले राज्य नहीं चला सकता। राज्य ही क्या? सहायकोंके बिना किसी भी अर्थकी प्राप्ति नहीं होती। यदि प्राप्ति हो भी गयी तो सदा उसकी रक्षा असम्भव हो जाती है (अत: सेवकों या सहायकोंका होना आवश्यक है)। जिसके सभी सेवक ज्ञान-विज्ञानमें कुशल, हितैषी, कुलीन और स्नेही हों, वही राजा राज्यका फल भोग सकता है ।। १३--१५ ||

जिसके मन्त्री कुलीन, धनके लोभसे फोड़े न जा सकनेवाले, सदा राजाके साथ रहनेवाले, उन्हें अच्छी बुद्धि देनेवाले, सत्पुरुष, सम्बन्ध-ज्ञानकुशल, भविष्यका भलीभाँति प्रबन्ध करनेवाले, समयके ज्ञानमें निपुण तथा बीती हुई बातके लिये शोक न करनेवाले हों, वही राजा राज्यके फलका भागी होता है || १६-१७ ।।

जिसके सहायक राजाके सुखमें सुख और दु:खमें दुःख मानते हों, सदा उसका प्रिय करनेवाले हों और राजकीय धन कैसे बढ़े--इसकी चिन्तामें तत्पर तथा सत्यवादी हों, वह राजा राज्यका फल पाता है ।। १८ ।।

जिसका देश दुखी न हो तथा सदा समीपवर्ती बना रहे, जो स्वयं भी छोटे विचारका न होकर सदा सन्मार्गका अवलम्बन करनेवाला हो, वही राजा राज्यका भागी होता है ।। १९ ||

विश्वासपात्र, संतोषी तथा खजाना बढ़ानेका सतत प्रयत्न करनेवाले, खजांचियोंके द्वारा जिसके कोषकी सदा वृद्धि हो रही हो, वही राजाओंमें श्रेष्ठ है ।। २० ।।

यदि लोभवश फूट न सकनेवाले, विश्वासपात्र, संग्रही, सुपात्र एवं निर्लोभ मनुष्य अन्नादि भण्डारकी रक्षामें तत्पर हों तो उसकी विशेष उन्नति होती है। ॥२१॥

जिसके नगरमें कर्मके अनुसार फलकी प्राप्तिका प्रतिपादन करनेवाले शंख-लिखित मुनिके बनाये हुए न्याय-व्यवहारका पालन होता देखा जाता है, वह राजा धर्मके फलका भागी होता है। ॥२२॥

जो राजा राजधर्मको जानता और अपने यहाँ अच्छे लोगोंको जुटाकर रखता है तथा अवसरके अनुसार संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव एवं समाश्रय नामक छ: गुणोंका उपयोग करता है, वह धर्मके फलका भागी होता है। ॥२३॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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