सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
एक सौ छठहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ छवें अध्याय के श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद)
“कालकवृक्षीय मुनिका विदेहराज तथा कोसलराजकुमारमें मेल कराना और विदेहराजका कोसलराजको अपना जामाता बना लेना”
राजाने कहा--ब्रह्मन! मैं कपट और दम्भका आश्रय लेकर जीवित नहीं रहना चाहता। अधर्मके सहयोगसे मुझे बहुत बड़ी सम्पत्ति मिलती हो तो भी मैं उसकी इच्छा नहीं करता ।। १ ।।
भगवन! मैंने तो पहलेसे ही इन सब दुर्गुणोंका परित्याग कर दिया है, जिससे किसीका मुझपर संदेह न हो और सबका सम्पूर्णरूपसे हित हो ।। २ ।।
मैं दया-धर्मका आश्रय लेकर ही इस जगतमें जीना चाहता हूँ। मुझसे यह अधर्माचरण कदापि नहीं हो सकता, और ऐसा उपदेश देना आपको भी शोभा नहीं देता ।। ३ ।।
मुनिने कहा--राजकुमार! तुम जैसा कहते हो, वैसे ही गुणोंसे सम्पन्न भी हो। तुम धार्मिक स्वभावसे युक्त हो और अपनी बुद्धिके द्वारा बहुत कुछ देखने तथा समझनेकी शक्ति रखते हो ।। ४ ।।
मैं तुम्हारे और राजा जनक-दोनोंके ही हितके लिये अब स्वयं ही प्रयत्न करूँगा और तुम दोनोंमें ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करा दूँगा, जो अमिट और चिरस्थायी हो ।। ५ ।।
तुम्हारा जन्म उच्चकुलमें हुआ है। तुम दयालु, अनेक शाम्त्रोंके ज्ञाता तथा राज्यसंचालनकी कलामें कुशल हो। तुम्हारे-जैसे योग्य पुरुषको कौन अपना मन्त्री नहीं बनायेगा? ।। ६ ।।
राजकुमार! तुम्हें राज्यसे भ्रष्ट कर दिया गया है। तुम बड़ी भारी विपत्तिमें पड़ गये हो तथापि तुमने क्रूरताको नहीं अपनाया, तुम दयायुक्त बर्तावसे ही जीवन बिताना चाहते हो ।। ७ ||
तात! सत्यप्रतिज्ञ विदेहगज जनक जब मेरे आश्रमपर पधारेंगे, उस समय मैं उन्हें जो भी आज्ञा दूँगा, उसे वे निःसंदेह पूर्ण करेंगे || ८ ।।
तदनन्तर मुनिने विदेहतज जनकको बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा--'राजन्! यह राजकुमार राज-वंशमें उत्पन्न हुआ है, इसकी आन्तरिक बातोंको भी मैं जानता हूँ || ९ ।।
“इसका हृदय दर्पणके समान शुद्ध और शरत्कालके चन्द्रमाकी भाँति उज्ज्वल है। मैंने इसकी सब प्रकारसे परीक्षा कर ली है। इसमें मैं कोई पाप या दोष नहीं देख रहा हूँ ।। १० ।।
“अत: इसके साथ अवश्य ही तुम्हारी संधि हो जानी चाहिये। तुम जैसा मुझपर विश्वास करते हो, वैसा ही इसपर भी करो। कोई भी राज्य बिना मन्त्रीके तीन दिन भी नहीं चलाया जा सकता ।। ११ ||
“मन्त्री वही हो सकता है, जो शूरवीर अथवा बुद्धिमान् हो। शौर्य और बुद्धिसे ही लोक और परलोक दोनोंका सुधार होता है। राजन! उभयलोककी सिद्धि ही राज्यका प्रयोजन है। इसे अच्छी तरह देखो और समझो ।। १२ ।।
“जगतमें धर्मात्मा राजाओंके लिये अच्छे मन्त्रीके समान दूसरी कोई गति नहीं है। यह राजकुमार महामना है। इसने सत्पुरुषोंके मार्गका आश्रय लिया है ।। १३।।
“यदि तुमने धर्मको सामने रखकर इसे सम्मान-पूर्वक अपनाया तो तुमसे सेवित होकर यह तुम्हारे शत्रुओंके भारी-से-भारी समुदायोंको काबूमें कर सकता है ।। १४ ।।
“यदि यह अपने बाप-दादोंके राज्यके लिये युद्धमें तुम्हें जीतनेकी इच्छा रखकर तुम्हारे साथ संग्राम छेड़ दे तो क्षत्रियके लिये यह स्वधर्मका पालन ही होगा ॥। १५ ।।
उस समय तुम भी विजयाभिलाषी राजाके व्रतमें स्थित हो इसके साथ युद्ध करोगे ही। अतः मेरी आज्ञा मानकर इसके हित-साधनमें तत्पर हो जाओ और युद्ध किये बिना ही इसे वशमें कर लो || १६ ।।
“अनुचित लोभका परित्याग करके तुम धर्मपर ही दृष्टि रखो, कामना अथवा द्रोहसे भी अपने धर्मका परित्याग न करो ।। १७ ।।
“तात! किसीकी भी न तो सदा जय होती है और न नित्य पराजय ही होती है। जैसे राजा दूसरे मनुष्योंको जीतकर उसका तथा उसकी सम्पत्तिका उपभोग करता है, वैसे ही दूसरोंको भी उसे अपनी सम्पत्ति भोगनेका अवसर देना चाहिये ।। १८ ।।
“वत्स! अपनेमें भी जय और पराजय दोनोंको देखना चाहिये। जो दूसरोंकी सम्पत्ति छीनकर उसके पास कुछ भी शेष नहीं रहने देते, उन्हें उस सर्वस्वापहरणरूपी पापसे अपने लिये भी सदा भय बना रहता है” | १९ ||
मुनिके इस प्रकार कहनेपर राजाने उन पूजनीय ब्राह्मणशिरोमणि महर्षिका पूजन और आदर-सत्कार करके उनकी बातका अनुमोदन करते हुए इस तरह उत्तर दिया ।। २० ।।
“कोई महाबुद्धिमान-जैसी बात कह सकता है, कोई महाविद्वान-जैसी वाणी बोल सकता है, तथा दूसरोंका कल्याण चाहनेवाला महापुरुष जैसा उपदेश दे सकता है, वैसी ही बात आपने कही है। यह हम दोनोंके लिये ही शिरोधार्य करने योग्य है || २१ ।।
“भगवन्! आपने मेरे लिये जो-जो आदेश दिया है, उसका मैं उसी रूपमें पालन करूँगा। यह मेरे लिये परम कल्याणकी बात है। इसके सम्बन्धमें मुझे दूसरा कोई विचार नहीं करना है” || २२ ।।
तदनन्तर मिथिलानरेशने कोसल-राजकुमारको अपने निकट बुलाकर कहा--नृपश्रेष्ठ! मैंने धर्म और नीतिका सहारा लेकर सम्पूर्ण जगत्पर विजय पायी है, परंतु आज तुमने अपने गुणोंसे मुझे भी जीत लिया। अतः तुम अपनी अवज्ञा न करके एक विजयी वीरके समान बर्ताव करो ।। २३-२४ ।।
“मैं तुम्हारी बुद्धिका अनादर नहीं करता, तुम्हारे पुरुषार्थकी अवहेलना नहीं करता और विजयी हूँ, यह सोचकर तुम्हारा तिरस्कार भी नहीं करता; अतः तुम विजयी वीरके समान बर्ताव करो ।| २५ ||
“राजन! तुम मेरेद्वारा भलीभाँति सम्मानित होकर मेरे घर पधारो।” इतना कहकर वे दोनों परस्पर विश्वस्त हो उन ब्रह्मर्षिकी पूजा करके घरकी ओर चल दिये || २६ ।।
विदेहराजने कोसल-राजकुमारको आदरपूर्वक अपने महलके भीतर ले जाकर अपने उस पूजनीय अतिथिका पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय तथा मधुपर्कके द्वारा पूजन किया ||
तत्पश्चात् उनके साथ अपनी पुत्रीका विवाह कर दिया और दहेजमें नाना प्रकारके रत्न भेंट किये। यही राजाओंका परम धर्म है, जय और पराजय तो अनित्य हैं ।। २८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें कालकवृक्षीय गुनिका उपदेशविषयक एक सौ छठा अध्याय पूरा हआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
एक सौ सातवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सातवें अध्याय के श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद)
“गणततन्त्र राज्यका वर्णन और उसकी नीति”
युधिष्ठिरने कहा--परंतप भरतनन्दन! आपने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शाद्रोंके धर्ममय आचार, धन, जीविकाके उपाय तथा धर्म आदिके फल बताये हैं। राजाओंके धन, कोश, कोश-संग्रह, शत्रुविजय, मन्त्रीके गुण और व्यवहार, प्रजावर्गकी उन्नति, संधि-विग्रह आदि छः: गुणोंके प्रयोग, सेनाके बर्ताव, दुष्टोंकी पहचान, सत्पुरुषोंके लक्षण, जो अपने समान, अपनेसे हीन तथा अपनेसे उत्कृष्ट हैं--उन सब लोगोंके यथावत् लक्षण, मध्यम वर्गको संतुष्ट रखनेके लिये उन्नतिशील राजाको कैसे रहना चाहिये--इसका निर्देश, दुर्बल पुरुषको अपनाने और उसके लिये जीविकाकी व्यवस्था करनेकी आवश्यकता--इन सब विषयोंका आपने देशाचार और शास्त्रके अनुसार संक्षेपसे धर्मके अनुकूल प्रतिपादन किया है || १--५ ||
बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ पितामह! आपने विजया-भिलाषी राजाके बर्तावका भी वर्णन कर दिया है। अब मैं गणों (गणतन्त्र राज्यों)-का बर्ताव एवं वृतान्त सुनना चाहता हूँ ।। ६
भारत! गणतलन्त्र-राज्योंकी जनता जिस प्रकार अपनी उन्नति करती है, जिस प्रकार आपसमें मतभेद या फूट नहीं होने देती, जिस तरह शत्रुओंपर विजय पाना चाहती है और जिस उपायसे उसे सुहृदोंकी प्राप्ति होती है--ये सारी बातें सुननेके लिये मेरी बड़ी इच्छा है ।। ७ ।।
मैं देखता हूँ, संघबद्ध राज्योंक विनाशका मूल कारण है आपसकी फूट। मेरा विश्वास है कि बहुत-से मनुष्योंके जो समुदाय हैं, उनके लिये किसी गुप्त मन्त्रणा या विचारको छिपाये रखना बहुत ही कठिन है ।।
“परंतप राजन! इन सारी बातोंको मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ। किस प्रकार वे संघ या गण आपसमें फूटते नहीं हैं, यह मुझे बताइये ।। ९ ।।
भीष्मजीने कहा--भरतश्रेष्ठ! नरेश्वर! गणोंमें, कुलोंमें तथा राजाओंमें वैरकी आग प्रज्वलित करनेवाले ये दो ही दोष हैं--लोभ और अमर्ष ।। १० ।।
पहले एक मनुष्य लोभका वरण करता है (लोभवश दूसरेका धन लेना चाहता है), तदनन्तर दूसरेके मनमें अर्मष पैदा होता है; फिर वे दोनों लोभ और अमर्षसे प्रभावित हुए व्यक्ति समुदाय, धन और जनकी बड़ी भारी हानि उठाकर एक-दूसरेके विनाशक बन जाते हैं ।। ११ ।।
वे भेद लेनेके लिये गुप्तचरोंको भेजते हैं, गुप्त मन्त्रणाएँ करते तथा सेना एकत्र करनेमें लग जाते हैं। साम, दान और भेदनीतिके प्रयोग करते हैं, तथा जन-संहार, अपार धनराशिके व्यय एवं अनेक प्रकारके भय उपस्थित करनेवाले विविध उपायोंद्वारा एक-दूसरेको दुर्बल कर देते हैं || १२ ।।
संघबद्ध होकर जीवन-निर्वाह करनेवाले गणराज्यके सैनिकोंको भी यदि समयपर भोजन और वेतन न मिले तो भी वे फूट जाते हैं। फूट जानेपर सबके मन एक-दूसरेके विपरीत हो जाते हैं और वे सबके सब भयके कारण शत्रुओंके अधीन हो जाते हैं ।। १३ ।
आपसमें फूट होनेसे ही संघ या गणराज्य नष्ट हुए हैं। फूट होनेपर शत्रु उन्हें अनायास ही जीत लेते हैं; अत: गणोंको चाहिये कि वे सदा संघबद्ध--एकमत होकर ही विजयके लिये प्रयत्न करें || १४ ।।
जो सामूहिक बल और पुरुषार्थसे सम्पन्न हैं, उन्हें अनायास ही सब प्रकारके अभीष्ट पदार्थोंकी प्राप्ति हो जाती है। संघबद्ध होकर जीवन-निर्वाह करनेवाले लोगोंके साथ संघसे बाहरके लोग भी मैत्री स्थापित करते हैं ।।
ज्ञानवृद्ध पुरुष गणराज्यके नागरिकोंकी प्रशंसा करते हैं। संघबद्ध लोगोंके मनमें आपसमें एक-दूसरेको ठगनेकी दुर्भावना नहीं होती। वे सभी एक-दूसरेकी सेवा करते हुए सुखपूर्वक उन्नति करते हैं ।। १६ ।।
गणराज्यके श्रेष्ठ नागरिक शास्त्रके अनुसार धर्मानुकूल व्यवहारोंकी स्थापना करते हैं। वे यथोचित दृष्टिसे सबको देखते हुए उन्नतिकी दिशामें आगे बढ़ते जाते हैं || १७ ।।
गणराज्यके श्रेष्ठ पुरुष पुत्रों और भाइयोंको भी यदि वे कुमार्गपर चलें तो दण्ड देते हैं। सदा उन्हें उत्तम शिक्षा प्रदान करते हैं और शिक्षित हो जानेपर उन सबको बड़े आदरसे अपनाते हैं। इसलिये वे विशेष उन्नति करते हैं ।। १८ ।।
महाबाहु युधिष्ठिर! गणराज्यके नागरिक गुप्तचर या दूतका काम करने, राज्यके हितके लिये गुप्त मन्त्रणा करने, विधान बनाने तथा राज्यके लिये कोश-संग्रह करने आदिके लिये सदा उद्यत रहते हैं, इसीलिये सब ओरसे उनकी उन्नति होती है ।। १९ ।।
नरेश्वर! संघराज्यके सदस्य सदा बुद्धिमान, शूरवीर, महान् उत्साही और सभी कार्योमें दृढ़ पुरुषार्थका परिचय देनेवाले लोगोंका सदा सम्मान करते हुए राज्यकी उन्नतिके लिये उद्योगशील बने रहते हैं। इसीलिये वे शीघ्र आगे बढ़ जाते हैं || २० ।।
गणराज्यके सभी नागरिक धनवान, शूरवीर, अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता तथा शास्त्रोंके पारंगत विद्वान होते हैं। वे कठिन विपत्तिमें पड़कर मोहित हुए लोगोंका उद्धार करते रहते हैं ।। २१ ।।
भरतश्रेष्ठ! संघराज्यके लोगोंमें यदि क्रोध, भेद (फूट), भय, दण्डप्रहार, दूसरोंको दुर्बल बनाने, बन्धनमें डालने या मार डालनेकी प्रवृत्ति पैदा हो जाय तो वह उन्हें तत्काल शत्रुओंके वशमें डाल देती है ।। २२ ।।
राजन! इसलिये तुम्हें गणराज्यके जो प्रधान-प्रधान अधिकारी हैं, उन सबका सम्मान करना चाहिये; क्योंकि लोकयात्राका महान् भार उनके ऊपर अवलम्बित है ।।
शत्रुसूदन! भारत! गण या संघके सभी लोग गुप्त मन्त्रणा सुननेके अधिकारी नहीं हैं। मन्त्रणाको गुप्त रखने तथा गुप्तचरोंकी नियुक्तिका कार्य प्रधान-प्रधान व्यक्तियोंके ही अधीन होता है ।। २४ ।।
गणके मुख्य-मुख्य व्यक्तियोंको परस्पर मिलकर समस्त गणराज्यके हितका साधन करना चाहिये; अन्यथा यदि संघमें फूट होकर पृथक्-पृथक् कई दलोंका विस्तार हो जाय तो उसके सभी कार्य बिगड़ जाते और बहुत-से अनर्थ पैदा हो जाते हैं || २५½ ।।
परस्पर फूटकर पृथक्-पृथक् अपनी शक्तिका प्रयोग करनेवाले लोगोंमें जो मुख्य-मुख्य नेता हों, उनका संघराज्यके विद्वान् अधिकारियोंको शीघ्र ही दमन करना चाहिये || २६½।।
कुलोंमें जो कलह होते हैं, उनकी यदि कुलके वृद्ध पुरुषोंने उपेक्षा कर दी तो वे कलह गणोंमें फ़ूट डालकर समस्त कुलका नाश कर डालते हैं || २७½।।
भीतरी भय दूर करके संघकी रक्षा करनी चाहिये। यदि संघमें एकता बनी रहे तो बाहरका भय उसके लिये नि:सार है (वह उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता)। राजन! भीतरका भय तत्काल ही संघराज्यकी जड़ काट डालता है | २८½ ।।
|अकमस्मात् पैदा हुए क्रोध और मोहसे अथवा स्वाभाविक लोभसे भी जब संघके लोग आपसमें बातचीत करना बंद कर दें, तब यह उनकी पराजयका लक्षण है ।। २९½।।
जाति और कुलमें सभी एक समान हो सकते हैं; परंतु उद्योग, बुद्धि और रूपसम्पत्तिमें सबका एक-सा होना सम्भव नहीं है। शत्रुलोग गणराज्यके लोगोंमें भेदबुद्धि पैदा करके तथा उनमेंसे कुछ लोगोंको धन देकर भी समूचे संघमें फूट डाल देते हैं; अत: संघबद्ध रहना ही गणराज्यके नागरिकोंका महान् आश्रय है ।। ३०-३२ |।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें गणराज्यका बर्तावविषयक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
एक सौ आठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ आठवें अध्याय के श्लोक 1-33 का हिन्दी अनुवाद)
“माता-पिता तथा गुरुकी सेवाका महत्त्व”
युधिष्ठिरने पूछा--भारत! धर्मका यह मार्ग बहुत बड़ा है तथा इसकी बहुत-सी शाखाएँ हैं इन धर्मोमेंसे किसको आप विशेषरूपसे आचरणमें लानेयोग्य समझते हैं? ।। १ ।।
सब धर्मोमें कौन-सा कार्य आपको श्रेष्ठ जान पड़ता है, जिसका अनुष्ठान करके मैं इहलोक और परलोकमें भी परम धर्मका फल प्राप्त कर सकूँ? ।। २ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! मुझे तो माता-पिता तथा गुरुजनोंकी पूजा ही अधिक महत्त्वकी वस्तु जान पड़ती है। इसलोकमें इस पुण्य कार्यमें संलग्न होकर मनुष्य महान् यश और श्रेष्ठ लोक पाता है ।। ३ ।।
तात युधिष्ठिर! भलीभाँति पूजित हुए वे माता-पिता और गुरुजन जिस कामके लिये आज्ञा दें, वह धर्मके अनुकूल हो या विरुद्ध, उसका पालन करना ही चाहिये ।। ४ ।।
जो उनकी आज्ञाके पालनमें संलग्न है, उसके लिये दूसरे किसी धर्मके आचरणकी आवश्यकता नहीं है। जिस कार्यके लिये वे आज्ञा दें, वही धर्म है ऐसा धर्मात्माओंका निश्चय है ।। ५ ।।
ये माता-पिता और गुरुजन ही तीनों लोक हैं, यही तीनों आश्रम हैं, यही तीनों वेद हैं तथा ये ही तीनों अग्नियाँ हैं ।। ६ ।।
पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, माता दक्षिणाग्नि मानी गयी है और गुरु आहवनीय अग्निका स्वरूप है। लौकिक अग्नियोंसे माता-पिता आदि त्रिविध अग्नियोंका गौरव अधिक है ।। ७ ।।
यदि तुम इन तीनोंकी सेवामें कोई भूल नहीं करोगे तो तीनों लोकोंको जीत लोगे। पिताकी सेवासे इस लोकको, माताकी सेवासे परलोकको तथा नियमपूर्वक गुरुकी सेवासे ब्रह्मलोकको भी लाँध जाओगे || ८½ ।।
भरतनन्दन! इसलिये तुम त्रिविध लोकस्वरूप इन तीनोंके प्रति उत्तम बर्ताव करो। तुम्हारा कल्याण हो। ऐसा करनेसे तुम्हें यश और महान् फल देनेवाले धर्म की प्राप्ति होगी ।। ९½ ।।
इन तीनोंकी आज्ञाका कभी उल्लंघन न करे, इनको भोजन करानेके पहले स्वयं भोजन न करे, इनपर कोई दोषारोपण न करे और सदा इनकी सेवामें संलग्न रहे। यही सबसे उत्तम पुण्यकर्म है। नृपश्रेष्ठ) इनकी सेवासे तुम कीर्ति, पवित्र यश और उत्तमलोक सब कुछ प्राप्त कर लोगे ।। १०-११ ।।
जिसने इन तीनोंका आदर कर लिया, उसके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंका आदर हो गया और जिसने इनका अनादर कर दिया, उसके सम्पूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो जाते हैं || १२ ।।
शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! जिसने इन तीनों गुरुजनोंका सदा अपमान ही किया है, उसके लिये न तो यह लोक सुखद है और न परलोक ।। १३ ।।
न इस लोकमें और न परलोकमें ही उसका यश प्रकाशित होता है। परलोकमें जो अन्य कल्याणमय सुखकी प्राप्ति बतायी गयी है, वह भी उसे सुलभ नहीं होती है ।। १४ ।।
मैं तो सारा शुभ कर्म करके इन तीनों गुरुजनोंको ही समर्पित कर देता था। इससे मेरे उन सभी शुभ कर्मोका पुण्य सौगुना और हजारगुना बढ़ गया है। युधिष्ठिर! इसीसे तीनों लोक मेरी दृष्टिके सामने प्रकाशित हो रहे हैं | १५½।।
आचार्य सदा दस श्रोत्रियोंसे बढ़कर है। उपाध्याय (विद्यागुरु) दस आचार्योसे अधिक महत्त्व रखता है, पिता दस उपाध्यायोंसे बढ़कर है और माताका महत्त्व दस पिताओंसे भी अधिक है। वह अकेली ही अपने गौरवके द्वारा सारी पृथ्वीको भी तिरस्कृत कर देती है। अतः माताके समान दूसरा कोई गुरु नहीं है ।।
परंतु मेरा विश्वास यह है कि गुरुका पद पिता और मातासे भी बढ़कर है; क्योंकि माता-पिता तो केवल इस शरीरको जन्म देनेके ही उपयोगमें आते हैं ।।
भारत! पिता और माता केवल शरीरको ही जन्म देते हैं; परंतु आचार्यका उपदेश प्राप्त करके जो द्वितीय जन्म उपलब्ध होता है, वह दिव्य है, अजर-अमर है ।। १९½ ।।
पिता-माता यदि कोई अपराध करें तो भी वे सदा अवध्य ही हैं; क्योंकि पुत्र या शिष्य पिता-माता और गुरुका अपराध करके भी उनकी दृष्टिमें दूषित नहीं होते हैं। वे गुरुजन पुत्र या शिष्यपर स्नेहवश दोषारोपण नहीं करते; बल्कि सदा उसे धर्मके मार्गपर ही ले जानेका प्रयत्न करते हैं। ऐसे पिता-माता आदि गुरुजनोंका महत्त्व महर्षियोंसहित देवता ही जानते हैं || २०-२१ ।।
जो सत्य कर्म (के द्वारा यथार्थ उपदेश) के द्वारा पुत्र या शिष्यको कवचकी भाँति ढक लेता है, सत्यस्वरूप वेदका उपदेश देता और असत्यकी रोक-थाम करता है, उस गुरुको ही पिता और माता समझे और उसके उपकारको जानकर कभी उससे द्रोह न करे || २२
जो लोग विद्या पढ़कर गुरुका आदर नहीं करते, निकट रहकर मन, वाणी और क्रियाद्वारा गुरुकी सेवा नहीं करते, उन्हें गर्भके बालककी हत्यासे भी बढ़कर पाप लगता है। संसारमें उनसे बड़ा पापी दूसरा कोई नहीं है। जैसे गुरुओंका कर्तव्य है, शिष्यको आत्मोन्नतिके पथपर पहुँचाना, उसी तरह शिष्योंका धर्म है गुरुओंका पूजन करना ।। २३ ।।
अतः जो पुरातन धर्मका फल पाना चाहते हैं, उन्हें चाहिये कि वे गुरुओंकी पूजा-अर्चा करें और प्रयत्नपूर्वक उन्हें आवश्यक वस्तुएँ लाकर दें ।। २४ ।।
मनुष्य जिस कर्मसे पिताको प्रसन्न करता है, उसीके द्वारा प्रजापति ब्रह्माजीभी प्रसन्न होते हैं तथा जिस बर्तावसे वह माताको प्रसन्न कर लेता है, उसीके द्वारा समूची पृथ्वीकी भी पूजा हो जाती है || २५ ।।
जिस कर्मसे शिष्य उपाध्याय (विद्यागुरु) को प्रसन्न करता है, उसीके द्वारा परब्रह्म परमात्माकी पूजा सम्पन्न हो जाती है; अतः गुरु माता-पितासे भी अधिक पूजनीय हैं।।
गुरुओंके पूजित होनेपर पितरोंसहित देवता और ऋषि भी प्रसन्न होते हैं; इसलिये गुरु परम पूजनीय है ।।
किसी भी बर्तावके कारण गुरु अपमानके योग्य नहीं होता। इसी तरह माता और पिता भी अनादरके योग्य नहीं हैं। जैसे गुरु माननीय हैं, वैसे ही माता-पिता भी हैं ।।
वे तीनों कदापि अपमानके योग्य नहीं हैं। उनके किये हुए किसी भी कार्यकी निन्दा नहीं करनी चाहिये। गुरुजनोंके इस सत्कारको देवता और महर्षि भी अपना सत्कार मानते हैं ।। २९ ।।
अध्यापक, पिता और माताके प्रति जो मन-वाणी और क्रियाद्दारा द्रोह करते हैं, उन्हें भ्रूणहत्यासे भी महान् पाप लगता है। संसारमें उससे बढ़कर दूसरा कोई पापाचारी नहीं है | ३० ।।
जो पिता-माताका औरस पुत्र है और पाल-पोसकर बड़ा कर दिया गया है, वह यदि अपने माता-पिताका भरण-पोषण नहीं करता है तो उसे भ्रूणहत्यासे भी बढ़कर पाप लगता है और जगतमें उससे बड़ा पापात्मा दूसरा कोई नहीं है ।। ३१ ।।
मित्रद्रोही, कृतघ्न, स्त्रीहत्यारे और गुरुघाती--इन चारोंके पापका प्रायश्चित्त हमारे सुननेमें नहीं आया है ।।
ये सारी बातें जो इस जगत्में पुरुषके द्वारा पालनीय हैं, यहाँ विस्तारके साथ बतायी गयी हैं। यही कल्याणकारी मार्ग है। इससे बढ़कर दूसरा कोई कर्तव्य नहीं है। सम्पूर्ण धर्मोंका अनुसरण करके यहाँ सबका सार बताया गया है ।। ३३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें माता-पिता और गुरुका माहात्म्यविषयक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
एक सौ नवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ नवें अध्याय के श्लोक 1-32½ का हिन्दी अनुवाद)
“सत्य-असत्यका विवेचन, धर्मका लक्षण तथा व्यावहारिक नीतिका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--भरतनन्दन! धर्ममें स्थित रहनेकी इच्छावाला मनुष्य कैसा बर्ताव करे? विद्वन्! मैं इस बातको जानना चाहता हूँ। भरतश्रेष्ठी आप मुझसे इसका वर्णन कीजिये ।। १ ।।
राजन्! सत्य और असत्य--ये दोनों सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त करके स्थित हैं; किंतु धर्मपर विश्वास करनेवाला मनुष्य इन दोनोंमेंसे किसका आचरण करे? ।। २ ।।
क्या सत्य है और क्या झूठ? तथा कौन-सा कार्य सनातन धर्मके अनुकूल है? किस समय सत्य बोलना चाहिये और किस समय झूठ? ।। ३ ।।
भीष्मजीने कहा--भारत! सत्य बोलना अच्छा है। सत्यसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है; परतु लोकमें जिसे जानना अत्यन्त कठिन है, उसीको मैं बता रहा हूँ ।। ४ ।।
जहाँ झूठ ही सत्यका काम करे (किसी प्राणीको संकटसे बचावे) अथवा सत्य ही झूठ बन जाय (किसीके जीवनको संकटमें डाल दे); ऐसे अवसरोंपर सत्य नहीं बोलना चाहिये। वहाँ झूठ बोलना ही उचित है ।। ५ ।।
जिसमें सत्य स्थिर न हो, ऐसा मूर्ख मनुष्य ही मारा जाता है। सत्य और असत्यका निर्णय करके सत्यका पालन करनेवाला पुरुष ही धर्मज्ञ माना जाता है || ६ ।।
जो नीच है, जिसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है तथा जो अत्यन्त कठोर स्वभावका है, वह मनुष्य भी कभी अंधे पशुको मारनेवाले बलाक नामक व्याधकी भाँति महान पुण्य प्राप्त कर लेता है- । ७ ।।
कैसा आश्चर्य है कि धर्मकी इच्छा रखनेवाला मूर्ख (तपस्वी) (सत्य बोलकर भी) अधर्मके फलको प्राप्त हो जाता है। (कर्णपर्व अध्याय ६९) और गंगाके तटपर रहनेवाले एक उल्लूकी भाँति कोई (हिंसा करके भी) महान् पुण्य प्राप्त कर लेता है* ।। ८ ।।
युधिष्ठिर! तुम्हारा यह पिछला प्रश्न भी ऐसा ही है। इसके अनुसार धर्मके स्वरूपका विवेचन करना या समझना बहुत कठिन है; इसीलिये उसका प्रतिपादन करना भी दुष्कर ही है; अत: धर्मके विषयमें कोई किस प्रकार निश्चय करे? ।। ९ ।।
प्राणियोंके अभ्युदय और कल्याणके लिये ही धर्मका प्रवचन किया गया है; अतः जो इस उद्देश्यसे युक्त हो अर्थात् जिससे अभ्युदय और नि:श्रेयस सिद्ध होते हों, वही धर्म है, ऐसा शास्त्रवेत्ताओंका निश्चय है ।। १० ।।
धर्मका नाम “धर्म” इसलिये पड़ा है कि वह सबको धारण करता है--अधोगतिमें जानेसे बचाता है और जीवनकी रक्षा करता है। धर्मने ही सारी प्रजाको धारण कर रखा है; अत: जिससे धारण और पोषण सिद्ध होता हो, वही धर्म है; ऐसा धर्मवेत्ताओंका निश्चय है ।। ११ ।।
प्राणियोंकी हिंसा न हो, इसके लिये धर्मका उपदेश किया गया है; अत: जो अहिंसासे युक्त हो, वही धर्म है, ऐसा धर्मात्माओंका निश्चय है ।। १२ ।।
राजन! कुरुश्रेष्ठ! अहिंसा, सत्य, अक्रोध, तपस्या दान, मन, और इन्द्रियोंका संयम, विशुद्ध बुद्धि, किसीके दोष न देखना, किसीसे डाह और जलन न रखना तथा उत्तम शीलस्वभावका परिचय देना--ये धर्म हैं, देवाधिदेव परमेष्ठी ब्रह्माजीने इन्हींको सनातन धर्म बताया है। जो मनुष्य इस सनातन धर्ममें स्थित है, उसे ही कल्याणका दर्शन होता है ।।
वेदमें जिसका प्रतिपादन किया गया है, वही धर्म है, यह एक श्रेणीके विद्वानोंका मत है; किंतु दूसरे लोग धर्मका यह लक्षण नहीं स्वीकार करते हैं। हम किसी भी मतपर दोषारोपण नहीं करते। इतना अवश्य है कि वेदमें सभी बातोंका विधान नहीं है || १३ ।।
जो अन्यायसे अपहरण करनेकी इच्छा रखकर किसी धनीके धनका पता लगाना चाहते हों, उन लुटेरोंसे उसका पता न बतावे और यही धर्म है, ऐसा निश्चय रखे ।। १४ ।।
यदि न बतानेसे उस धनीका बचाव हो जाता हो तो किसी तरह वहाँ कुछ बोले ही नहीं; परंतु यदि बोलना अनिवार्य हो जाय और न बोलनेसे लुटेरोंके मनमें संदेह पैदा होने लगे तो वहाँ सत्य बोलनेकी अपेक्षा झूठ बोलनेमें ही कल्याण है; यही इस विषयमें विचारपूर्वक निर्णय किया गया है || १५½।।
यदि शपथ खा लेनेसे भी पापियोंके हाथसे छुटकारा मिल जाय तो वैसा ही करे। जहाँतक वश चले, किसी तरह भी पापियोंके हाथमें धन न जाने दे; क्योंकि पापाचारियोंको दिया हुआ धन दाताको भी पीड़ित कर देता है || १६-१७ ।।
जो कर्जदारको अपने अधीन करके उससे शारीरिक सेवा कराकर धन वसूल करना चाहता है, उसके दावेको सही साबित करनेके लिये यदि कुछ लोगोंको गवाही देनी पड़े और वे गवाह अपनी गवाहीमें कहने योग्य सत्य बातको न कहें तो वे सब-के-सब मिथ्यावादी होते हैं || १८½ ।।
परंतु प्राण-संकटके समय, विवाहके अवसरपर, दूसरेके धनकी रक्षाके लिये तथा धर्मकी रक्षाके लिये असत्य बोला जा सकता है || १९½ ।।
कोई नीच मनुष्य भी यदि दूसरोंकी कार्यसिद्धिकी इच्छासे धर्मके लिये भीख माँगने आवे तो उसे देनेकी प्रतिज्ञा कर लेनेपर अवश्य ही धनका दान देना चाहिये। इस प्रकार धनोपार्जन करनेवाला यदि कपटपूर्ण व्यवहार करता है तो वह दण्डका पात्र होता है || २०½।।
जो कोई धर्मसाधक मनुष्य धार्मिक आचारसे भ्रष्ट हो पापमार्गका आश्रय ले, उसे अवश्य दण्डके द्वारा मारना चाहिये || २१½ ।।
जो दुष्ट धर्ममार्गसे भ्रष्ट होकर आसुरी प्रवृत्तिमें लगा रहता है और स्वधर्मका परित्याग करके पापसे जीविका चलाना चाहता है, कपटसे जीवन-निर्वाह करनेवाले उस पापात्माको सभी उपायोंसे मार डालना चाहिये; क्योंकि सभी पापात्माओंका यही विचार रहता है कि जैसे बने, वैसे धनको लूट-खसोट कर रख लिया जाय || २२-२३½ ।।
ऐसे लोग दूसरोंके लिये असहा हो उठते हैं। इनका अन्न न तो स्वयं भोजन करे और न इन्हें ही अपना अन्न दे; क्योंकि ये छल-कपटके द्वारा पतनके गर्तमें गिर चुके हैं और देवलोक तथा मनुष्यलोक दोनोंसे वंचित हो प्रेतोंके समान अवस्थाको पहुँच गये हैं। इतना ही नहीं, वे यज्ञ और तपस्यासे भी हीन हैं; अतः तुम कभी उनका संग न करो ।। २४-२५।।
पापियोंका तो यही निश्चय होता है कि धर्म कोई वस्तु नहीं है; ऐसे लोगोंको जो मार डाले, उसे पाप नहीं लगता ।। २७ ।।
पापी मनुष्य अपने कर्मसे ही मरा हुआ है; अतः उसको जो मारता है, वह मरे हुएको ही मारता है। उसके मारनेका पाप नहीं लगता; अतः जो कोई भी मनुष्य इन हतबुद्धि पापियोंके वधका नियम ले सकता है ।।
जैसे कौए और गीध होते हैं, वैसे ही कपटसे जीविका चलानेवाले लोग भी होते हैं। वे मरनेके बाद इन्हीं योनियोंमें जन्म लेते हैं || २९ ।।
जो मनुष्य जिसके साथ जैसा बर्ताव करे, उसके साथ भी उसे वैसा ही बर्ताव करना चाहिये; यह धर्म (न्याय) है। कपटपूर्ण आचरण करनेवालेको वैसे ही आचरणके द्वारा दबाना उचित है और सदाचारीको सद्व्यवहारके द्वारा ही अपनाना चाहिये ।। ३० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें सत्यासत्यविभागविषयक एक सौ नवाँ अध्याय पूरा हआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २½ श्लोक मिलाकर कुल ३२½ “लोक हैं)
टीका टिप्पणी ;–
- देखिये कर्णपर्व अध्याय ६९ श्लोक ३८ से ४५ तक।
- गंगाके तटपर किसी सर्पिणीने सहस्रों अण्डे देकर रख दिये थे। उन अण्डोंको एक उल्लूने रातमें फोड़-फोड़कर नष्ट कर दिया। इससे वह महान् पुण्यका भागी हुआ; अन्यथा उन अण्डोंसे हजारों विषैले सर्प पैदा होकर कितने ही लोगोंका विनाश कर डालते।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
एक सौ दसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ दसवें अध्याय के श्लोक 1-33½ का हिन्दी अनुवाद)
“सदाचार और ईश्वरभक्ति आदिको दु:खोंसे छूटनेका उपाय बताना”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जगतके जीव भिन्न-भिन्न भावोंके द्वारा जहाँ-तहाँ नाना प्रकारके कष्ट उठा रहे हैं; अतः जिस उपायसे मनुष्य इन दुःखोंसे छुटकारा पा सके, वह मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--'राजन् जो द्विज अपने मनको वशमें करके शास्त्रोक्त चारों आश्रमोंमें रहते हुए उनके अनुसार ठीक-ठीक बर्ताव करते हैं, वे दुःखोंके पार हो जाते हैं ।। २ ।।
जो दम्भयुक्त आचरण नहीं करते, जिनकी जीविका नियमानुकूल चलती है और जो विषयोंके लिये बढ़ती हुई इच्छाको रोकते हैं, वे दुःखोंको लाँघ जाते हैं ।। ३ ।।
जो दूसरोंके कटु वचन सुनाने या निन््दा करनेपर भी स्वयं उन्हें उत्तर नहीं देते, मार खाकर भी किसीको मारते नहीं तथा स्वयं देते हैं, परंतु दूसरोंसे माँगते नहीं; वे भी दुर्गम संकटसे पार हो जाते हैं ।। ४ ।।
जो प्रतिदिन अतिथियोंको अपने घरमें सत्कारपूर्वक ठहराते हैं, कभी किसीके दोष नहीं देखते हैं तथा नित्य नियमपूर्वक वेदादि सदग्रन्थोंका स्वाध्याय करते रहते हैं, वे दुर्गम संकटोंसे पार हो जाते हैं ।। ५ ।।
जो धर्मज्ञ पुरुष सदा माता-पिताकी सेवामें लगे रहते हैं और दिनमें कभी सोते नहीं हैं, वे सभी दु:खोंसे छूट जाते हैं ।। ६ ।।
जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी पाप नहीं करते हैं और किसी भी प्राणीको कष्ट नहीं पहुँचाते हैं, वे भी संकट से पार हो जाते हैं ।। ७ ।।
जो रजोगुणसम्पन्न राजा लोभवश प्रजाके धनका अपहरण नहीं करते हैं और अपने राज्यकी सब ओरसे रक्षा करते हैं, वे भी दुर्गम दु:खोंको लाँघ जाते हैं || ८ ।।
जो गृहस्थ प्रतिदिन अग्निहोत्र करते और ऋतुकालमें अपनी ही स्त्रीके साथ धर्मानुकूल समागम करते हैं, वे दुःखोंसे छूट जाते हैं || ९ ।।
जो शूरवीर युद्धस्थलमें मृत्युका भय छोड़कर धर्मपूर्वक विजय पाना चाहते हैं, वे सभी दुःखोंसे पार हो जाते हैं || १० ।।
जो लोग प्राण जानेका अवसर उपस्थित होनेपर भी सत्य बोलना नहीं छोड़ते, वे सम्पूर्ण प्राणियोंके विश्वासपात्र बने रहकर सभी दु:खोंसे पार हो जाते हैं ।।
जिनके शुभ कर्म दिखावेके लिये नहीं होते, जो सदा मीठे वचन बोलते और जिनका धन सत्कर्मोके लिये बँधा हुआ है, वे दुर्गम संकटोंसे पार हो जाते हैं ।।
जो अनध्यायके अवसरोंपर वेदोंका स्वाध्याय नहीं करते और तपस्यामें ही लगे रहते हैं, वे उत्तम तपस्वी ब्राह्मण दुस्तर विपत्तिसे छुटकारा पा जाते हैं ।। १३ ।।
जो तपस्या करते, कुमारावस्थासे ही ब्रह्मचर्यके पालनमें तत्पर रहते और विद्या एवं वेदोंके अध्ययन-सम्बन्धी व्रतको पूर्ण करके स्नातक हो चुके हैं, वे दुस्तर दु:खोंको तर जाते है ।। १४ ।।
जिनके रजोगुण और तमोगुण शान्त हो गये हों तथा जो विशुद्ध सत्त्वगुणमें स्थित हैं, वे महात्मा दुर्लघ्य संकटोंको भी लाँघ जाते हैं || १५ ।।
जिनसे कोई भयभीत नहीं होता, जो स्वयं भी किसीसे भय नहीं मानते तथा जिनकी दृष्टिमें यह सारा जगत् अपने आत्माके ही तुल्य है, वे दुस्तर संकटोंसे तर जाते हैं। ।।१६।।
जो दूसरोंकी सम्पत्तिसे ईर्ष्यावश जलते नहीं हैं और ग्राम्य विषय-भोगसे निवृत्त हो गये हैं, वे मनुष्योंमें श्रेष्ठ साधु पुरुष दुस्तर विपत्तिसे छुटकारा पा जाते हैं ।।१७।।
जो सब देवताओंको प्रणाम करते और सभी धर्मोको सुनते हैं, जिनमें श्रद्धा और शान्ति विद्यमान है, वे सम्पूर्ण दुःखोंसे पार हो जाते हैं || १८ ।।
जो दूसरोंसे सम्मान नहीं चाहते, जो स्वयं ही दूसरोंको सम्मान देते हैं और सम्माननीय पुरुषोंको नमस्कार करते हैं, वे दुर्लघ्य संकटोंसे पार हो जाते हैं ।।१९।।
जो संतानकी इच्छा रखकर प्रत्येक तिथिपर विशुद्ध हृदयसे पितरोंका श्राद्ध करते हैं, वे दुर्गम विपत्तिसे छुटकारा पा जाते हैं ।। २० ।।
जो क्रोधको काबूमें रखते हैं, क्रोधी मनुष्योंको शान्त करते और स्वयं किसी भी प्राणीपर कुपित नहीं होते हैं, वे दुर्लघ्य संकटोंसे पार हो जाते हैं || २१ ।।
जो मानव जन्मसे ही सदाके लिये मधु, मांस और मदिराका त्याग कर देते हैं, वे भी दुस्तर दुःखोंसे छूट जाते हैं || २२ ।।
जिनका भोजन स्वादके लिये नहीं, जीवनयात्राका निर्वाह करनेके लिये होता है, जो विषयवासनाकी तृप्तिके लिये नहीं, संतानकी इच्छासे मैथुनमें प्रवृत्त होते हैं तथा जिनकी वाणी केवल सत्य बोलनेके लिये है, वे समस्त संकटोंसे पार हो जाते हैं || २३ ।।
जो समस्त प्राणियोंके स्वामी तथा जगत्की उत्पत्ति और प्रलयके हेतुभूत भगवान् नारायणमें भक्तिभाव रखते हैं, वे दुस्तर दुःखोंसे तर जाते हैं || २४ ।।
युधिष्ठि!! ये जो कमल पुष्पके समान कुछ-कुछ लाल रंगके नेत्रोंसे सुशोभित पीताम्बरधारी महाबाह श्रीकृष्ण हैं, जो तुम्हारे सुहृदू् भाई, मित्र और सम्बन्धी भी हैं, यही साक्षात् नारायण हैं ।। २५ ।।
इनका स्वरूप अचिन्त्य है। ये पुरुषोत्तम भगवान् गोविन्द इन सम्पूर्ण लोकोंको इच्छापूर्वक चमड़ेकी भाँति आच्छादित किये हुए हैं ।। २६ ।।
पुरुषप्रवर युधिष्ठिर! वे ही ये दुर्धर्ष वीर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण साक्षात् वैकुण्ठधामके निवासी श्रीविष्णु हैं। राजन! ये इस समय तुम्हारे और अर्जुनके प्रिय तथा हितसाधनमें संलग्न हैं || २७ ।।
जो भक्त पुरुष यहाँ इन भगवान् श्रीहरि--नारायण देवकी शरण लेते हैं, वे दुस्तर संकटोंसे तर जाते हैं। इस विषयमें कोई संशय नहीं है || २८ ।।
भारत! जो इन कमलनयन श्रीकृष्णको सम्पूर्ण भक्तिभावसे अपने सारे कर्म समर्पित कर देते हैं, वे दुर्गग संकटोंको लाँघ जाते हैं ।।
जो यज्ञोंद्वारा आराधनाके योग्य हैं, उन साधुप्रतिपालक विश्वविधाता भगवान् ब्रह्माको जो नमस्कार करते हैं, वे समस्त दुःखोंसे छुटकारा पा जाते हैं ।।
विष्णु, इन्द्र शिव तथा लोकपितामह ब्रह्मा नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, उन देवाधिदेव परमेश्वरकी जो सदा आराधना करते हैं, वे दुर्गण संकटोंसे पार हो जाते हैं ।।
जो लोग इस दुर्गातितरण नामक अध्यायको पढ़ते और सुनते हैं तथा ब्राह्मणोंके सामने इसकी चर्चा करते हैं, वे दुर्गम संकटोंसे पार हो जाते हैं || २९ ।।
निष्पाप युधिष्ठिर! इस प्रकार मैंने यहाँ संक्षेपसे उस कर्तव्यका प्रतिपादन किया है, जिसका पालन करनेसे मनुष्य इहलोक और परलोकमें समस्त दु:खोंसे छुटकारा पा जाते हैं ।। ३० ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें दुर्गीतितरण नामक एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३½ श्लोक मिलाकर कुल ३३½ “लोक हैं)
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