सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
छियानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छियानबेवें अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“राजाके छलरहित धर्मयुक्त बर्तावकी प्रशंसा”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि![ किसी भी भूपालको अधर्मके द्वारा पृथ्वीपर विजय प्राप्त करनेकी इच्छा कभी नहीं करनी चाहिये। अधर्मसे विजय पाकर कौन राजा सम्मानित हो सकता है? ।। १ ।।
अधर्मसे पायी हुई विजय स्वर्गसे गिरानेवाली और अस्थायी होती है। भरतश्रेष्ठ! ऐसी विजय राजा और राज्य दोनोंका पतन कर देती है ।। २ ।।
जिसका कवच छित्न-भिन्न हो गया हो, जो “मैं आपका ही हूँ ऐसा कह रहा हो और हाथ जोड़े खड़ा हो अथवा जिसने हथियार रख दिये हों, ऐसे विपक्षी योद्धाको कैद करके मारे नहीं ।। ३ ।।
जो बलके द्वारा पराजित कर दिया गया हो, उसके साथ राजा कदापि युद्ध न करे। उसे कैद करके एक सालतक अनुकूल रहनेकी शिक्षा दे; फिर उसका नया जन्म होता है। वह विजयी राजाके लिये पुत्रके समान हो जाता है (इसलिये एक साल बाद उसे छोड़ देना चाहिये) ।।
यदि राजा किसी कनन््याको अपने पराक्रमसे हरकर ले आवे तो एक सालतक उससे कोई प्रश्न न करे (एक सालके बाद पूछनेपर यदि वह कन्या किसी दूसरेको वरण करना चाहे तो उसे लौटा देना चाहिये)। इसी प्रकार सहसा छलसे अपहरण करके लाये हुए सम्पूर्ण धनके विषयमें भी समझना चाहिये (उसे भी एक सालके बाद उसके स्वामीको लौटा देना चाहिये) ।। ५ ।।
चोर आदि अपराधियोंका धन लाया गया हो तो उसे अपने पास न रखे (सार्वजनिक कार्योमें लगा दे) और यदि गौ छीनकर लायी गयी हो तो उसका दूध स्वयं न पीकर ब्राह्मणोंको पिलावे। बैल हों तो उन्हें ब्राह्मगलोग ही गाड़ी आदिमें जोतें अथवा उन सब अपहृत वस्तुओं या धनका स्वामी आकर क्षमा-प्रार्थना करे तो उसे क्षमा करके उसका धन उसे लौटा देना चाहिये || ६ ।।
राजाको राजाके साथ ही युद्ध करना चाहिये। उसके लिये यही धर्म विहित है। जो राजा या राजकुमार नहीं है, उसे किसी प्रकार भी राजापर अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार नहीं करना चाहिये || ७ ।।
दोनों ओरकी सेनाओंके भिड़ जानेपर यदि उनके बीचमें संधि करानेकी इच्छासे ब्राह्मण आ जाय तो दोनों पक्षवालोंको तत्काल युद्ध बंद कर देना चाहिये ।। ८ ।।
इन दोनोंमेंसे जो कोई भी पक्ष ब्राह्मणका तिरस्कार करता है, वह सनातनकालसे चली आयी हुई मर्यादाको तोड़ता है। यदि अपनेको क्षत्रिय कहनेवाला अधम योद्धा उस मर्यादाका उल्लंघन कर ही डाले तो उसके बादसे उसे क्षत्रियजातिके अंदर नहीं गिनना चाहिये और क्षत्रियोंकी सभामें उसे स्थान भी नहीं देना चाहिये || ९½ ।।
जो कोई धर्मका लोप और मर्यादाको भंग करके विजय पाता है, उसके इस बर्तावका विजयाभिलाषी नरेशको अनुसरण नहीं करना चाहिये। धर्मके द्वारा प्राप्त हुई विजयसे बढ़कर दूसरा कौन-सा लाभ हो सकता है? ।।१०- ११।।
विजयी राजाको चाहिये कि वह मधुर वचन बोलकर और उपभोगकी वस्तुएँ देकर अनार्य (म्लेच्छ आदि) प्रजाको शीघ्रतापूर्वक प्रसन्न कर ले। यही राजाओंकी सर्वोत्तम नीति है ।। १२ ।।
यदि ऐसा न करके अनुचित कठोरताके द्वारा उनपर शासन किया जाता है तो वे दुखी होकर अपने देशसे चले जाते हैं और शत्रु बनकर विजयी राजाकी विपत्तिके समयकी बाट देखते हुए कहीं पड़े रहते हैं || १३ ।।
राजन्! जब विजयी राजापर कोई विपत्ति आ जाती है, तब वे राजापर संकट पड़नेकी इच्छा रखनेवाले लोग विपक्षियोंद्वारा सब प्रकारसे संतुष्ट हो राजाके शत्रुओंका पक्ष ग्रहण कर लेते हैं ।। १४ ।।
शत्रुके साथ छल नहीं करना चाहिये। उसे किसी प्रकार भी अत्यन्त उच्छिन्न करना उचित नहीं है। अत्यन्त क्षत-विक्षत कर देनेपर वह कभी अपने जीवनका त्याग भी कर सकता है | १५ |।
राजा थोड़े-से लाभसे भी संयुक्त होनेपर संतुष्ट हो जाता है। वैसा नरेश निर्दोष जीवनको ही बहुत अधिक महत्त्व देता है ।। १६ ।।
जिस राजाका देश समृद्धिशाली, धन-धान्यसे सम्पन्न तथा राजभक्त होता है और जिसके सेवक एवं मन्त्री संतुष्ट रहते हैं, उसीकी जड़ मजबूत मानी जाती है || १७ ।।
जो राजा ऋत्विज, पुरोहित, आचार्य तथा अन्यान्य पूजाके पात्र शास्त्रज्ञोंका सत्कार करता है, वही लोक-गतिको जाननेवाला कहा जाता है ।। १८ ।।
इसी बर्तावसे देवराज इन्द्रने राज्य पाया था और इसी बर्तावके द्वारा भूपालगण स्वर्गलोकपर विजय पाना चाहते हैं ।। १९ ।।
राजन! पूर्वकालमें राजा प्रतर्दन महासमरमें विजय प्राप्त करके पराजित राजाकी भूमिको छोड़कर शेष सारा धन, अन्न एवं औषध अपनी राजधानीमें ले आये || २०
राजा दिवोदास अनिनिहोत्र, यज्ञका अंगभूत हविष्य तथा भोजन भी हर लाये थे। इसीसे वे तिरस्कृत हुए ।।
भरतनन्दन! राजा नाभागने श्रोत्रिय और तापसके धनको छोड़कर शेष सारा राष्ट्र दक्षिणारूपमें ब्राह्मणोंको दे दिया ।।
युधिष्ठिर! प्राचीन धर्मज्ञ राजाओंके पास जो नाना प्रकारके धन थे, वे सब मुझे भी अच्छे लगते हैं ।। २३
जिस राजाको अपना वैभव बढ़ानेकी इच्छा हो, वह सम्पूर्ण विद्याओंके उत्कर्षद्वारा विजय पानेकी इच्छा करे; दम्भ या पाखण्डद्वारा नहीं ।। २४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें विजयाथिलाषी राजाका बर्तावविषयक छियानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
सत्तानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सत्तानबेवें अध्याय के श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद)
“शुरवीर क्षत्रियोंके कर्तव्यका तथा उनकी आत्मशुद्धि और सदगतिका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--नरेश्वर! क्षत्रियधर्मसे बढ़कर पापपूर्ण दूसरा कोई धर्म नहीं है; क्योंकि राजा किसी देशपर चढ़ाई करने और युद्ध छेड़नेके द्वारा महान् जन-संहार कर डालता है | १ |।
विद्वन! भरतश्रेष्ठल अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि राजाको किस कर्मसे पुण्यलोकोंकी प्राप्ति होती है; अतः यही मुझे बताइये ।। २ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! पापियोंको दण्ड देने और सत्पुरुषोंको आदरपूर्वक अपनानेसे तथा यज्ञोंका अनुष्ठान और दान करनेसे राजा लोग सब प्रकारके दोषोंसे छूटकर निर्मल एवं शुद्ध हो जाते हैं || ३ ।।
जो राजा विजयकी कामना रखकर युद्धके समय प्राणियोंको कष्ट पहुँचाते हैं, वे ही विजय प्राप्त कर लेनेके बाद पुनः सारी प्रजाकी उन्नति करते हैं ।। ४ ।।
वे दान, यज्ञ और तपके प्रभावसे अपने सारे पाप नष्ट कर डालते हैं; फिर तो प्राणियोंपर अनुग्रह करनेके लिये उनके पुण्यकी वृद्धि होती है ।। ५ ।।
जैसे खेतको निरानेवाला किसान जिस खेतकी निराई करता है, उसकी घास आदिके साथ-साथ कितने ही धानके पौधोंको भी काट डालता है तो भी धान नष्ट नहीं होता है (बल्कि निराई करनेके पश्चात् उसकी उपज और बढ़ती है)। इसी प्रकार जो युद्धमें नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार करके राजसैनिक वध करने योग्य शत्रुओंका अनेक प्रकारसे वध करते हैं, राजाके उस कर्मका यही पूरा-पूरा प्रायश्चित्त है कि उस युद्धके पश्चात् उस राज्यके प्राणियोंकी पुनः सब प्रकारसे उन्नति करे || ६-७ ।।
जो राजा समस्त प्रजाको धनक्षय, प्राणनाश और दु:खोंसे बचाता है, लुटेरोंसे रक्षा करके जीवन-दान देता है, वह प्रजाके लिये धन और सुख देनेवाला परमेश्वर माना गया है ।। ८ ।।
वह राजा सम्पूर्ण यज्ञोंद्वारा भगवानकी आराधना करके प्राणियोंको अभय-दान देकर इहलोकमें सुख भोगता है और परलोकमें भी इन्द्रके समान स्वर्गलोकका अधिकारी होता है।। ९।।
ब्राह्मणकी रक्षाका अवसर आनेपर जो आगे बढ़कर शत्रुओंके साथ युद्ध छेड़ देता है और अपने शरीरको यूपकी भाँति निछावर कर देता है, उसका वह त्याग अनन्त दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञके ही तुल्य है ।। १० ।।
जो निर्भय हो शत्रुओंपर बाणोंकी वर्षा करता और स्वयं भी बाणोंका आघात सहता है, उस क्षत्रियके लिये उस कर्मसे बढ़कर देवतालोग इस भूतलपर दूसरा कोई कल्याणकारी कार्य नहीं देखते हैं || ११ ।।
युद्धस्थलमें उस वीर योद्धाकी त्वचाको जितने शस्त्र विदीर्ण करते हैं, उतने ही सर्वकामनापूरक अक्षय लोक उससे प्राप्त होते हैं । १२ ।।
समरभूमिमें उसके शरीरसे जो रक्त बहता है, उस रक्तके साथ ही वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है ।।
युद्धमें बाणोंसे पीड़ित हुआ क्षत्रिय जो-जो दुःख सहता है, उस-उस कष्टके द्वारा उसके तपकी ही उत्तरोत्तर वृद्धि होती है; ऐसी धर्मज्ञ पुरुषोंकी मान्यता है ।।
जैसे समस्त प्राणी बादलसे जीवनदायक जलकी इच्छा रखते हैं, उसी प्रकार शूरवीरसे अपनी रक्षा चाहते हुए डरपोक एवं नीच श्रेणीके मनुष्य युद्धमें वीर योद्धाओंके पीछे खड़े रहते हैं || १५ ।।
अभयकालके समान ही उस भयके समय भी यदि कोई शूरवीर उस भीरु पुरुषकी सकुशल रक्षा कर लेता है तो उसके प्रति वह अपने अनुरूप उपकार एवं पुण्य करता है। यदि पृष्ठवर्ती पुरुषको वह अपने-जैसा न बना सके तो भी पूर्व कथित पुण्यका भागी तो होता ही है ।।
यदि वे रक्षा पाये हुए मनुष्य कृतज्ञ होकर सदैव उस शूरवीरके सामने नतमस्तक होते रहें, तभी उसके प्रति उचित एवं न््यायसंगत कर्तव्यका पालन कर पाते हैं; अन्यथा उनकी स्थिति इसके विपरीत होती है ।। १७ ।।
सभी पुरुष देखनेमें समान होते हैं; परंतु युद्धस्थलमें जब सैनिकोंके परस्पर भिड़नेका समय आता है और चारों ओरसे वीरोंकी पुकार होने लगती है, उस समय उनमें महान् अन्तर दृष्टिगोचर होता है। एक श्रेणीके वीर तो निर्भय होकर शत्रुओंपर टूट पड़ते हैं और दूसरी श्रेणीके लोग प्राण बचानेकी चिन्तामें पड़ जाते हैं || १८ ।।
शूरवीर शत्रुके सम्मुख वेगसे आगे बढ़ता है और भीरु पुरुष पीठ दिखाकर भागने लगता है। वह स्वर्गलोकके मार्गपर पहुँचकर भी अपने सहायकोंको उस संकटके समय अकेला छोड़ देता है ।। १९ ।।
तात! जो लोग रणभूमिमें अपने सहायकोंको छोड़कर कुशलपूर्वक अपने घर लौट जाते हैं, वैसे नराधमोंको तुम कभी पैदा मत करना || २० ।।
उनके लिये इन्द्र आदि देवता अमंगल मनाते हैं। जो सहायकोंको छोड़कर अपने प्राण बचानेकी इच्छा रखता है, ऐसे कायरको उसके साथी क्षत्रिय लाठी या ढेलोंसे पीटें अथवा घासके ढेरकी आगमें जला दें या उसे पशुकी भाँति गला घोटकर मार डालें || २१-२२ ।।
खाटपर सोकर मरना क्षत्रियके लिये अधर्म है। जो क्षत्रिय कफ और मल-मूत्र छोड़ता तथा दुखी होकर विलाप करता हुआ बिना घायल हुए शरीरसे मृत्युको प्राप्त हो जाता है, उसके इस कर्मकी प्राचीन धर्मको जानने-वाले विद्वान् पुरुष प्रशंसा नहीं करते हैं ।। २३-२४ ।।
क्योंकि तात! वीर क्षत्रियोंका घरमें मरण हो, यह उनके लिये प्रशंसाकी बात नहीं है। वीरोंके लिये यह कायरता और दीनता अधर्मकी बात है || २५ ।।
“यह बड़ा दुःख है। बड़ी पीड़ा हो रही है! यह मेरे किसी महान् पापका सूचक है।' इस प्रकार आर्तनाद करना, विकृत-मुख हो जाना, दुर्गन्धित शरीरसे मन्त्रियोंके लिये निरन्तर शोक करना, नीरोग मनुष्योंकी-सी स्थिति प्राप्त करनेकी कामना करना और वर्तमान रुग्णावस्थामें बारंबार मृत्युकी इच्छा रखना--ऐसी मौत किसी स्वाभिमानी वीरके योग्य नहीं है ।। २६-२७ ||
क्षत्रियको तो चाहिये कि अपने सजातीय बन्धुओंसे घिरकर समरांगणमें महान् संहार मचाता हुआ तीखे शस्त्रोंसे अत्यन्त पीड़ित होकर प्राणोंका परित्याग करे--वह ऐसी ही मृत्युके योग्य है ।। २८ ।।
शूरवीर क्षत्रिय विजयकी कामना और शत्रुके प्रति रोषसे युक्त हो बड़े वेगसे युद्ध करता है। शत्रुओंद्वारा क्षत-विक्षत किये जानेवाले अपने अंगोंकी उसे सुध-बुध नहीं रहती है ।। २९ |।
वह युद्धमें लोकपूजित सर्वश्रेष्ठ मृत्यु एवं महान् धर्मको पाकर इन्द्रलोकमें चला जाता है | ३० ।।
शूरवीर प्राणोंका मोह छोड़कर युद्धके मुहानेपर खड़ा होकर सभी उपायोंसे जूझता है और शत्रुकोी कभी पीठ नहीं दिखाता है; ऐसा शूरवीर इन्द्रके समान लोकका अधिकारी होता है || ३१ ।।
शत्रुओंसे घिरा हुआ शूरवीर यदि मनमें दीनता न लावे तो वह जहाँ कहीं भी मारा जाय, अक्षय लोकोंको प्राप्त कर लेता है || ३२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
अट्ठानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अट्ठानबेवें अध्याय के श्लोक 1-74½ का हिन्दी अनुवाद)
“इन्द्र और अम्बरीषके संवादमें नदी और यज्ञके रूपकोंका वर्णन तथा समर भूमि में जूझते हुए मारे जानेवाले शूरवीरोंको उत्तम लोकोंकी प्राप्तिका कथन”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जो शूरवीर शत्रुके साथ डटकर युद्ध करते हैं और कभी पीठ नहीं दिखाते, वे समरांगणमें मृत्युको प्राप्त होकर किन लोकोंमें जाते हैं, यह मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठि! इस विषयमें अम्बरीष और इन्द्रके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।। २ ।।
नाभागपुत्र अम्बरीषने अत्यन्त दुर्लभ स्वर्गलोकमें जाकर देखा कि उनका सेनापति देवलोकमें इन्द्रके साथ विराजमान है ।। ३ ।।
वह सम्पूर्णत: तेजस्वी, दिव्य एवं श्रेष्ठ विमानपर बैठकर ऊपर-ऊपर चला जा रहा था। अपने शक्तिशाली सेनापतिको अपनेसे भी ऊपर होकर जाते देख सुदेवकी उस समृद्धिका प्रत्यक्ष दर्शन करके उदारबुद्धि राजा अम्बरीष आश्चवर्यसे चकित हो उठे और इन्द्रदेवसे बोले || ४-५ |।
अम्बरीषने पूछा--देवराज! मैं समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीका विधिपूर्वक शासन और संरक्षण करता था। शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार धर्मकी कामनासे चारों वर्णोके पालनमें तत्पर रहता था ।। ६ ।।
मैंने घोर ब्रह्मचर्यका पालन करके गुरुके बताये हुए आचार और गुरुकी सेवाके द्वारा धर्मपूर्वक वेदोंका अध्ययन किया तथा राजशास्त्रकी विशेष शिक्षा प्राप्त की ।।
सदा ही अन्न-पान देकर अतिथियोंका, श्राद्धकर्म करके पितरोंका, स्वाध्यायकी दीक्षा लेकर ऋषियोंका तथा उत्तमोत्तम यज्ञोंका अनुष्ठान करके देवताओंका पूजन किया ।। ८ ।
देवेन्द्र! मैं शास्त्रोक्त विधिके अनुसार क्षत्रिय-धर्ममें स्थित होकर सेनाकी देख-भाल करता और युद्धमें शत्रुओंपर विजय पाता था ।। ९ ।।
देवराज! यह सुदेव पहले मेरा सेनापति था। शान्त स्वभावका एक सैनिक था; फिर यह मुझे लाँधचकर कैसे जा रहा है? ।। १० ।।
इन्द्रदेव! इसने न तो बड़े-बड़े यज्ञ किये और न विधिपूर्वक ब्राह्मणोंको ही तृप्त किया। वही यह सुदेव आज मुझको लाँधकर ऊपर-ऊपरसे कैसे जा रहा है? इसे ऐसा ऐश्वर्य कहाँसे प्राप्त हो गया, जो सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है? ।। ११ ।।
इन्द्रने कहा--पृथ्वीनाथ! नरेश्वर! पूर्वकालमें जब आप धर्मके अनुसार भलीभाँति इस पृथ्वीका पालन कर रहे थे, उस समय सुदेवने जो पराक्रम किया था, उसे आपने प्रत्यक्ष देखा था ।।
महीपाल! उन दिनों आपके तीन शत्रु थे--संयम, वियम और महाबली सुयम। वे सबके-सब आपका अहित करनेवाले थे। वे शतशूंग नामक राक्षसके पुत्र थे। लोकोंमें किसीके लिये भी उन तीनों रणदुर्मद राक्षसोंपर विजय पाना कठिन था। सुदेवने उन सबको परास्त कर दिया था ।।
एक समय जब आप देवताओंके हितकी इच्छासे शुभ मुहूर्तमें अश्वमेध नामक महायज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे, उन्हीं दिनों आपके उस यज्ञमें विघ्न डालनेके लिये वे तीनों राक्षस वहाँ आ पहुँचे ।।
उन्होंने सौ करोड़ राक्षसोंकी विशाल सेना साथ लेकर आक्रमण किया और आपकी समस्त प्रजाओंको पकड़कर बंदी बना लिया। उस समय आपकी समस्त प्रजा और सारे सैनिक व्याकुल हो उठे थे ।।
उन दिनों सेनापतिके विरुद्ध मन्त्रीकी बात सुनकर आपने सेनापति सुदेवको अधिकारसे वंचित करके सब कार्योसे अलग कर दिया था ।।
पृथ्वीनाथ! नरेश्वर! फिर उन्हीं मन्त्रियोंकी कपटपूर्ण बात सुनकर आपने उन दुर्जय राक्षसोंके वधके लिये सेनासहित सुदेवको युद्धमें जानेकी आज्ञा दे दी ।।
और जाते समय यह कहा--'राक्षसोंकी सेनाको पराजित करके उनके कैदमें पड़ी हुई प्रजा और सैनिकोंका उद्धार किये बिना तुम यहाँ लौटकर मत आना” ।।
नरेश्वरर आपकी वह बात सुनकर सुदेवने तुरंत ही प्रस्थान किया और वह उस स्थानपर गया, जहाँ आपकी प्रजा बंदी बना ली गयी थी। उसने वहाँ राक्षसोंकी महाभयंकर विशाल सेना देखी ।।
उसे देखकर सेनापति सुदेवने सोचा कि यह विशाल वाहिनी तो इन्द्र आदि देवताओं तथा असुरोंसे भी नहीं जीती जा सकती। महाराज अम्बरीष दिव्य अस्त्र एवं दिव्य बलसे सम्पन्न हैं, परंतु वे इस सेनाके सोलहवें भागका भी संहार करनेमें समर्थ नहीं हैं। जब उनकी यह दशा है, तब मेरे-जैसा साधारण सैनिक इस सेनापर कैसे विजय पा सकता है? ।।
राजन्! यह सोचकर सुदेवने फिर सारी सेनाको वहीं वापस भेज दिया, जहाँ आप उन समस्त कपटी मन्त्रियोंके साथ विराजमान थे ।।
तदनन्तर सुदेवने श्मशानवासी महादेव जगदीश्वर रुद्रदेवकी शरण ली और उन भगवान् वृषभध्वजका स्तवन किया ।।
स्तुति करके वह खड़्ग हाथमें लेकर अपना सिर काटनेको उद्यत हो गया। तब देवाधिदेव महादेवने करुणावश सुदेवका वह खड़्गसहित दाहिना हाथ पकड़ लिया और उसकी ओर स्नेहपूर्वक देखकर इस प्रकार कहा ।।
रुद्र बोले--पुत्र! तुम ऐसा साहस क्यों करना चाहते हो? मुझसे कहो ।।
इन्द्र कहते हैं--राजन्! तब सुदेवने महादेवजीको पृथ्वीपर मस्तक रखकर प्रणाम
किया और इस प्रकार कहा--“भगवन! सुरेश्वर! मैं इस राक्षस सेनाको युद्धमें नहीं जीत सकता; इसलिये इस जीवनको त्याग देना चाहता हूँ। महादेव! जगत्पते! आप मुझ आर्तको शरण दें। मन्त्रियोंसहित महाराज अम्बरीष मुझपर कुपित हुए बैठे हैं। उन्होंने स्पष्टरूपसे आज्ञा दी है कि इस सेनाको पराजित किये बिना तुम लौटकर न आना।” तब महादेवजीने पृथ्वीपर नीचे मुख किये पड़े हुए महामना सुदेवसे समस्त प्राणियोंके हितकी कामनासे कुछ कहनेकी इच्छा की। पहले उन्होंने गुण और शरीरसहित धरनुर्वेदको बुलाकर रथ, हाथी और घोड़ोंसे भरी हुई सेनाका आवाहन किया, जो दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंसे विभूषित थी। इसके बाद उन्होंने उस महान् भाग्यशाली रथको भी वहाँ उपस्थित कर दिया, जिससे उन्होंने त्रिपुरका नाश किया था। फिर पिनाक नामक धनुष, अपना खड्ग तथा अस्त्र भी भगवान् शंकरने दे दिया, जिसके द्वारा उन भगवान् त्रिलोचनने समस्त असुरोंका संहार किया था। तदनन्तर महादेवजीने सेनापति सुदेवसे इस प्रकार कहा ।।
रुद्र बोले--सुदेव! तुम इस रथके कारण देवताओं और असुरोंके लिये भी दुर्जय हो गये हो, परंतु किसी मायासे मोहित होकर अपना पैर पृथ्वीपर न रख देना। इसपर बैठे रहोगे तो समस्त देवताओं और दानवोंको जीत लोगे। यह रथ सहस्रों सूर्योके समान तेजस्वी है। राक्षत और पिशाच ऐसे तेजस्वी रथकी ओर देख भी नहीं सकते; फिर तुम्हारे साथ युद्ध करनेकी तो बात ही क्या है? ।।
इन्द्र कहते हैं--राजन्! तत्पश्चात् सुदेवने उस रथके द्वारा समस्त राक्षसोंको जीतकर बंदी प्रजाओंको बन्धनसे छुड़ा दिया और समस्त शत्रुओंका संहार करके वियमके साथ बाहुयुद्ध करते समय स्वयं भी मारा गया, साथ ही इसने उस युद्धमें वियमको भी मार डाला ।।
इन्द्र बोले--तात! इस सुदेवने बड़े विस्तारके साथ महान् रणयज्ञ सम्पन्न किया था। दूसरा भी जो मनुष्य युद्ध करता है, उसके द्वारा इसी तरह संग्राम-यज्ञ सम्पादित होता है ।। १२ ।।
कवच धारण करके युद्धकी दीक्षा लेनेवाला प्रत्येक योद्धा सेनाके मुहानेपर जाकर इसी प्रकार संग्रामयज्ञका अधिकारी होता है। यह मेरा निश्चित मत है ।। १३ ।।
अम्बरीषने पूछा--शतक्रतो! इस रणयज्ञमें कौन-सा हविष्य है? क्या घृत है? कौनसी दक्षिणा है और इसमें कौन-कौन-से ऋत्विज् बताये गये हैं? यह मुझसे कहिये ।। १४
इन्द्रने कहा--राजन्! इस युद्धयज्ञमें हाथी ही ऋत्विज् हैं, घोड़े अध्वर्यु हैं, शत्रुओंका मांस ही हविष्य है और उनके रक्तको ही घृत कहा जाता है || १५ ।।
सियार, गीध, कौए तथा अन्य मांसभक्षी पक्षी उस यज्ञशालाके सदस्य हैं, जो यज्ञावशिष्ट घृत (रक्त) को पीते और उस यज्ञमें अर्पित हविष्य (मांस) को खाते हैं ।। १६
प्रास, तोमरसमूह, खड्ग, शक्ति, फरसे आदि चमचमाते हुए तीखे और पानीदार शस्त्र यज्ञकर्ताके लिये खुकुका काम देते हैं ।। १७ ।।
धनुषके वेगसे दूरतक जानेके कारण जो विशाल आकार धारण करता है, वह शत्रुके शरीरको विदीर्ण करनेवाला तीखा, सीधा, पैना और पानीदार बाण ही यजमानके हाथमें स्थित महान् ख्रुव है ।। १८ ।।
जो व्याप्रचर्मकी म्यानमें बँधा रहता है, जिसकी मूँठ हाथीके दाँतकी बनी होती है तथा जो गजराजोंके शुण्डदण्डको काट लेता है, वह खड़्ग उस युद्धमें स्फ्यका काम देता है ।। १९ ||
उज्ज्वल और तेज धारवाले, सम्पूर्णतः लोहेके बने हुए तथा तीखे प्रास, शक्ति, ऋष्टि और परशु आदि अस्त्र-शस्त्रोंद्रार जो आघात किया जाता है, वही उस युद्धयज्ञका बहुसंख्यक, अधिक समयसाध्य और कुलीन पुरुषद्वारा संगृहीत नाना प्रकारका द्रव्य है || २०½ |।
वीरोंके शरीरसे संग्रामभूमिमें बड़े वेगसे जो रक्तकी धारा बहती है, वही उस युद्धयज्ञके होममें समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाली समृद्धिशालिनी पूर्णाहुति है ।। २१½।।
सेनाके मुहानेपर जो “काट डालो', फाड़ डालो' आदिका भयंकर शब्द सुना जाता है, वही सामगान है। सैनिकरूपी सामगायक शत्रुओंको यमलोकमें भेजनेके लिये मानो सामगान करते हैं। शत्रुओंकी सेनाका प्रमुख भाग उस वीर यजमानके लिये हविर्धान (हविष्य रखनेका पात्र) बताया गया है ।। २२-२३ ।।
हाथी, घोड़े और कवचधारी वीर पुरुषोंके समूह ही उस युद्धयज्ञके श्येनचित नामक अन्नि हैं ।। २४ ।।
सहसीरों वीरोंके मारे जानेपर जो कबन्ध खड़े दिखायी देते हैं, वे ही मानो उस शूरवीरके यज्ञमें खदिरकाष्ठके बने हुए आठ कोणवाले यूप कहे गये हैं || २५ ।।
राजन! वाणीद्वारा ललकारने और महावतोंके अंकुशोंकी मार खानेपर हाथी जो चिग्घाड़ते हैं, कोलाहल और करतलध्वनिके साथ होनेवाली वह चिग्घाड़नेकी आवाज उस यज्ञमें वषट्कार है। नरेश्वर! संग्राममें जिस दुन्दुभिकी गम्भीर ध्वनि होती है, वही सामवेदके तीन मन्त्रोंका पाठ करनेवाला उदगाता है || २६½।।
जब लुटेरे ब्राह्यणके धनका अपहरण करते हों, उस समय वीर पुरुष उनके साथ किये जानेवाले युद्धमें अपने प्रिय शरीरके त्यागके लिये जो उद्यम करता है अथवा जो देहरूपी यूपका उत्सर्ग करके प्रहार ही कर बैठता है, उसका वह युद्ध ही अनन्त दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञ कहलाता है || २७½।।
जो शूरवीर अपने स्वामीके लिये सेनाके मुहानेपर खड़ा होकर पराक्रम प्रकट करता है और भयसे कभी पीठ नहीं दिखाता, उसको मेरे समान लोकोंकी प्राप्ति होती है ।। २८½।।
जिसके युद्ध-यज्ञकी वेदी नीले चमड़ेकी बनी हुई म्यानके भीतर रखी जानेवाली तलवारों तथा परिघके समान मोटी-मोटी भुजाओंसे बिछ जाती है, उसे वैसे ही लोक प्राप्त होते हैं, जैसे मुझे मिले हैं । २९½।।
जो विजयके लिये युद्धमें डटा रहकर शत्रुकी सेनामें घुस जाता है और दूसरे किसी भी सहायककी अपेक्षा नहीं रखता, उसे मेरे समान ही लोक प्राप्त होते हैं ।।
जिस योद्धाके युद्धरूपी यज्ञमें रक्तकी नदी प्रवाहित होती है, उसके लिये वह अवभृथस्नानके समान पुण्यजनक है। रक्त ही उस नदीकी जलराशि है, नगाड़े ही मेढक और कछुओंके समान हैं, वीरोंकी हड्डियाँ ही छोटे-छोटे कंकड़ और बालूके समान हैं, उसमें प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन है, मांस और रक्त ही उस नदीकी कीच हैं, ढाल और तलवार ही उसमें नौकाके समान हैं, वह भयानक नदी केशरूपी सेवार और घाससे ढकी हुई है। कटे हुए घोड़े, हाथी और रथ ही उसमें उतरनेके लिये सीढ़ी हैं, ध्वजा-पताका तटवर्ती बेंतकी लताके समान हैं, मारे गये हाथियोंको भी वह बहा ले जानेवाली है, रक्तरूपी जलसे वह लबालब भरी है, पार जानेकी इच्छावाले मनुष्योंके लिये वह अत्यन्त दुस्तर है, मरे हुए हाथी बड़े-बड़े मगरमच्छके समान हैं, वह परलोककी ओर प्रवाहित होनेवाली नदी अमंगलमयी प्रतीत होती है, ऋष्टि और खड़ग--ये उससे पार होनेके लिये विशाल नौकाके समान हैं। गीध-कंक और काक छोटी-छोटी नौकाओंके समान हैं, उसके आस-पास राक्षस विचरते हैं तथा वह भीरु पुरुषोंको मोहमें डालनेवाली है । ३१--३५½ ।।
जिसके युद्ध-यज्ञकी वेदी शत्रुओंके मस्तकों, घोड़ोंकी गर्दनों और हाथियोंके कंधोंसे बिछ जाती है, उस वीरको मेरे-जैसे ही लोक प्राप्त होते हैं । ३६½।।
जो वीर शत्रुसेना के मुहानेको पत्नीशाला बना लेता है, मनीषी पुरुष उसके लिये अपनी सेनाके प्रमुख भागको युद्ध-यज्ञके हवनीय पदार्थोके रखनेका पात्र बताते हैं ।।
जिस वीरके लिये दक्षिणदिशामें स्थित योद्धा सदस्य हैं, उत्तरदिशावर्ती योद्धा आग्नीध्र (ऋत्विक्) हैं एवं शत्रुसेना पत्नीस्वरूप है, उसके लिये समस्त पुण्यलोक दूर नहीं हैं ।। ३८½।।
जब अपनी सेना तथा शत्रुसेना एक-दूसरेके सामने व्यूह बनाकर उपस्थित होती है, उस समय दोनोंमेंसे जिसके सम्मुख केवल जनशून्य आकाश रह जाता है, वह निर्जन आकाश ही उस वीरके लिये युद्ध-यज्ञकी वेदी है। उस स्थानपर मानो सदा यज्ञ होता है तथा तीनों वेद और त्रिविध अग्नि सदा ही प्रतिष्ठित रहते हैं ।।
जो योद्धा भयभीत हो पीठ दिखाकर भागता है और उसी अवस्थामें शत्रुओंद्वारा मारा जाता है, वह कहीं भी न ठहरकर सीधा नरकमें गिरता है, इसमें संशय नहीं है || ४०½।।
जिसके रक्तके वेगसे केश, मांस और हड्डियोंसे भरी हुई रणयज्ञकी वेदी आप्लावित हो उठती है, वह वीर योद्धा परम गतिको प्राप्त होता है ।। ४१½।।
जो योद्धा शत्रुके सेनापतिका वध करके उसके रथपर आरूढ़ हो जाता है, वह भगवान् विष्णुके समान पराक्रमशाली, बृहस्पतिके समान बुद्धिमान् तथा शक्तिशाली वीर समझा जाता है || ४२३ ||
जो शत्रुपक्षके सेनापति, उसके पुत्र अथवा उस पक्षके किसी भी सम्मानित वीरको जीते-जी पकड़ लेता है, उसको मेरे-जैसे लोक प्राप्त होते हैं ।। ४३ $ ।।
युद्धस्थलमें मारे गये शूरवीरके लिये किसी प्रकार भी शोक नहीं करना चाहिये। वह मारा गया शूरवीर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है, अतः कदापि शोचनीय नहीं है || ४४ ३ ।।
युद्धमें मारे गये वीरके लिये उसके आत्मीयजन न तो स्नान करना चाहते हैं, न अशौचसम्बन्धी कृत्यका पालन, न अन्नदान (श्राद्ध) करनेकी इच्छा करते हैं, और न जलदान (तर्पण) करनेकी। उसे जो लोक प्राप्त होते हैं, उन्हें मुझसे सुनो || ४५६
युद्धस्थलमें मारे गये शूरवीरकी ओर सहसौ्रों सुन्दरी अप्सराएँ यह आशा लेकर बड़ी उतावलीके साथ दौड़ी जाती हैं कि यह मेरा पति हो जाय || ४६३ ।।
जो युद्धधर्मका निरन्तर पालन करता है, उसके लिये यही तपस्या, पुण्य, सनातनधर्म तथा चारों आश्रमोंके नियमोंका पालन है || ४७६ ||
युद्धमें वृद्ध, बालक और स्त्रियोंका वध नहीं करना चाहिये, किसी भागते हुएकी पीठमें आघात नहीं करना चाहिये, जो मुँहमें तिनका लिये शरण में आ जाय और कहने लगे कि मैं आपका ही हूँ, उसका भी वध नहीं करना चाहिये || ४८ $ ।।
जम्भ, वृत्रासुर, बलासुर, पाकासुर, सैकड़ों माया जाननेवाले विरोचन, दुर्जय वीर नमुचि, विविधमायाविशारद शम्बरासुर, दैत्यवंशी विप्रचित्ति, सम्पूर्ण दानवदल तथा प्रह्नादको भी युद्धमें मारकर मैं देवराजके पदपर प्रतिष्ठित हुआ हूँ ।। ४९-५० ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इन्द्रका यह वचन सुनकर राजा अम्बरीषने मन-ही-मन इसे स्वीकार किया और वे यह मान गये कि योद्धाओंको स्वतः सिद्धि प्राप्त होती है ।। ५१ ||
(इस प्रकार श्रीमह्ााभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें इन्द्र और अम्बरीषका संवादविषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणत्य अधिक पाठके २३½ श्लोक मिलाकर कुछ ७४½ लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
निन्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) निन्यानबेवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“शूरवीरोंको स्वर्ग और कायरोंको नरककी प्राप्तिके विषयमें मिथिलेश्वर जनकका इतिहास”
भीष्मजी कहते हैं--राजन! इसी विषयमें विज्ञ पुरुष उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिससे यह पता चलता है कि किसी समय राजा प्रतर्दन तथा मिथिलेश्वर जनकने परस्पर संग्राम किया था || १ ।।
युधिष्ठिर! यज्ञोपवीतधारी मिथिलापति जनकने रणभूमिमें अपने योद्धाओंको जिस प्रकार उत्साहित किया था, वह सुनो ।। २ ।।
मिथिलाके राजा जनक बड़े महात्मा और सम्पूर्ण तत्त्वोंके ज्ञाता थे। उन्होंने अपने योद्धाओंको योगबलसे स्वर्ग और नरकका प्रत्यक्ष दर्शन कराया और इस प्रकार कहा -- || ३ ||
“वीरो! देखो, ये जो तेजस्वी लोक दृष्टिगोचर हो रहे हैं, ये निर्भय होकर युद्ध करनेवाले वीरोंको प्राप्त होते हैं। ये अविनाशी लोक असंख्य गन्धर्वकन्याओं (अप्सराओं) से भरे हुए हैं और सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति करनेवाले हैं || ४ ।।
“और देखो, ये जो तुम्हारे सामने नरक उपस्थित हुए हैं, युद्धमें पीठ दिखाकर भागनेवालोंको मिलते हैं। साथ ही इस जगतमें उनकी सदा रहनेवाली अपकीर्ति फैल जाती है; अत: अब तुम लोगोंको विजयके लिये प्रयत्न करना चाहिये ।। ५ ।।
“उन स्वर्ग और नरक दोनों प्रकारके लोकोंका दर्शन करके तुम लोग युद्धमें प्राणविसर्जनके लिये दृढ़ निश्चयके साथ डट जाओ और शत्रुओंपर विजय प्राप्त करो। जिसकी कहीं भी प्रतिष्ठा नहीं है, उस नरकके अधीन न होओ ।। ६ ।।
'शूरवीरोंको जो सर्वोत्तम स्वर्गलोकका द्वार प्राप्त होता है, उसमें उनका त्याग ही मूल कारण है'। शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले युधिष्ठिर![ राजा जनकके ऐसा कहनेपर उन योद्धाओंने रणभूमिमें अपने महाराजका हर्ष बढ़ाते हुए उनके शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली; अतः मनस्वी वीरको सदा युद्धके मुहानेपर डटे रहना चाहिये ।। ७-८ ।।
गजारोहियोंके बीचमें रथियोंको खड़ा करे। रथियोंके पीछे घुड़सवारोंकी सेना रखे और उनके बीचमें कवच एवं अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित पैदलोंकी सेना खड़ी करे || ९ ।।
जो राजा अपनी सेनाका इस प्रकार व्यूह बनाता है, वह सदा शत्रुओंपर विजय पाता है; अत: युधिष्ठिर! तुम्हें भी सदा इसी प्रकार व्यूहरचना करनी चाहिये ।। १० ।।
सभी क्षत्रिय उत्तम युद्धके द्वारा स्वर्गलोक प्राप्त करनेकी इच्छा करते हैं; अतः जैसे मकर समुद्रमें क्षोभ उत्पन्न कर देते हैं, उसी प्रकार वे अत्यन्त कुपित हो शत्रुओंकी सेनाओंमें हलचल मचा देते हैं || ११ ।।
यदि अपने सैनिक विषादग्रस्त या शिथिल हो रहे हों तो उनका पूर्ववत् व्यूह बनाकर उन्हें परस्पर स्थापित करे और उन समस्त योद्धाओंका हर्ष एवं उत्साह बढ़ावे। जो भूमि जीत ली गयी हो, उसकी रक्षा करे; परंतु शत्रुओंके जो सैनिक पराजित होकर भाग रहे हों, उनका बहुत दूरतक पीछा नहीं करना चाहिये ।। १२ ।।
राजन्! जो जीवनसे निराश होकर पुनः युद्धके लिये लौट पड़ते हैं, उनका वेग अत्यन्त दुःसह होता है; अतः भागते हुओंके पीछे अधिक नहीं पड़ना चाहिये ।।
शूरवीर जोर-जोरसे भागते हुए योद्धाओंपर प्रहार करना नहीं चाहते हैं; अतः पलायन करनेवाले सैनिकोंका अधिक दूरतक पीछा नहीं करना चाहिये || १४ ।।
चलनेवाले प्राणियोंके अन्न हैं स्थावर, दाँतवाले जीवोंके अन्न हैं बिना दाँतके प्राणी, प्यासोंका अन्न है पानी और शूरवीरोंके अन्न हैं कायर || १५ ।।
वीरों और कायरोंके पेट, पीठ, हाथ और पैर समान ही होते हैं; तो भी कायर पुरुष जगत्में अपमानको प्राप्त होते हैं। अतः भयसे आतुर हुए वे मनुष्य हाथ जोड़कर बारंबार प्रणाम करते हुए सदा शूरवीरोंकी शरणमें आते हैं || १६ ।।
जैसे पुत्र सदा पितापर अवलम्बित होता है, उसी प्रकार यह सारा जगत् शूरवीरकी भुजाओंपर ही टिका हुआ है; इसलिये सभी अवस्थाओंमें वीर पुरुष सम्मान पानेके योग्य है ।। १७ ।।
तीनों लोकोंमें शूरवीरतासे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। शूरवीर सबका पालन करता है और सारा जगत् उसीके आधारपर टिका हुआ है ।। १८ ।॥।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें विजयाथिलाषी राजाका बर्तावविषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
सौवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सौवें अध्याय के श्लोक 1-50 का हिन्दी अनुवाद)
“सैन्यसंचालनकी रीति-नीतिका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ पितामह! विजया-भिलाषी राजालोग जिस प्रकार धर्मका थोड़ा-सा उल्लंघन करके भी अपनी सेनाको आगे ले जाते हैं, वह मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन! किन्हींका मत है कि धर्म सत्यसे ही स्थिर रहता है। दूसरे लोग युक्तिवादसे ही धर्मकी प्रतिष्ठा मानते हैं। किसी-किसीके मतमें श्रेष्ठ आचरणसे ही धर्मकी स्थिति है और कितने ही लोग यथासम्भव साम-दान आदि उपायोंके अवलम्बनसे भी धर्मकी प्रतिष्ठा स्वीकार करते हैं ।। २ ।।
युधिष्ठिर! अब मैं अर्थसिद्धिके साधनभूत धर्मोका वर्णन करूँगा। यदि डाकू और लुटेरे अर्थ और धर्मकी मर्यादा तोड़ने लगें, तब उनके विनाशके लिये वेदोंमें जो साधन बताया गया है, उसका वर्णन आरम्भ करता हूँ। तुम समस्त कार्योकी सिद्धिके लिये उन उपायोंको मुझसे सुनो || ३-४ ।।
भरतनन्दन! बुद्धि दो प्रकारकी होती है। एक सरल, दूसरी कुटिल। राजाको उन दोनोंका ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। जहाँतक सम्भव हो, जान-बूझकर कुटिल बुद्धिका सेवन न करे। यदि वैसी बुद्धि स्वतः आ जाय तो भी उसे हटानेका ही प्रयत्न करे ।। ५ ।।
जो वास्तवमें मित्र नहीं हैं, वे ही भीतरसे राजाके अन्तरंग व्यक्तियोंमें फ़ूट डालनेका प्रयत्न करते हुए ऊपरसे उसकी सेवामें लगे रहते हैं। राजा उनकी इस शठताको समझे और शत्रुओंकी भाँति उनको भी मिटानेका प्रयत्न करे ।। ६ ।।
कुन्तीनन्दन! राजाको चाहिये कि वह गाय, बैल तथा अजगरके चमड़ोंसे हाथियोंकी रक्षाके लिये कवच बनवावे। इसके सिवा लोहेकी कीलें, लोहे, कवच, चँवर, चमकीले और पानीदार शस्त्र, पीले और लाल रंगके कवच, बहुरंगी ध्वजा-पताकाएँ, ऋष्टि, तोमर, खड्ग, तीखे फरसे, फलक और ढाल--इन््हें भारी संख्यामें तैयार कराकर सदा अपने पास रखे || ७--९ |।
यदि शस्त्र तैयार हों और योद्धा भी शत्रुओंसे भिड़नेका दृढ़ निश्चय कर चुके हों, तो चैत्र या मार्गशीर्ष मासकी पूर्णिमाको सेनाका युद्धके लिये उद्यत होकर प्रस्थान करना उत्तम माना गया है || १० ।।
क्योंकि उस समय खेती पक जाती है और भूतलपर जलकी प्रचुरता रहती है। भरतनन्दन! उस समय मौसम भी न तो अधिक ठंडा रहता है और न अधिक गरम ।। ११ ||
इसलिये उसी समय चढ़ाई करे अथवा जिस समय शत्रु संकटमें हो, उसी अवसरपर उसपर आक्रमण कर दे। शत्रुओंको सेनाद्वारा बाधा पहुँचानेके लिये ये ही अवसर अच्छे माने गये हैं ।। १२ ।।
युद्धके लिये यात्रा करते समय मार्ग समतल और सुगम हो तथा वहाँ जल और घास आदि सुलभ हों तो अच्छा समझा जाता है। वनमें विचरनेवाले कुशल गुप्तचरोंको मार्गके विषयमें विशेष जानकारी रहा करती है ।। १३
वन्य पशुओंकी भाँति मनुष्य जंगलमें आसानीसे नहीं चल सकते; इसलिये विजयाभिलाषी राजा सेनाओंमें मार्गदर्शन करानेके लिये उन्हीं गुप्तचरोंको नियुक्त करते हैं ।। १४ ।।
सेनामें सबसे आगे कुलीन एवं शक्तिशाली पैदल सिपाहियोंको रखना चाहिये। शत्रुसे बचावके लिये सैनिकोंके रहनेका स्थान या किला ऐसा होना चाहिये, जहाँ पहुँचना कठिन हो, जिसके चारों ओर जलसे भरी हुई खाईं और ऊँचा परकोटा हो। साथ ही उसके चारों ओर खुला आकाश होना चाहिये ।। १५ ।।
उस स्थानपर शत्रुओंके आक्रमणको रोकनेके लिये सुविधा होनी चाहिये। युद्धकुशल पुरुष सेनाकी छावनी डालनेके लिये खुले मैदानकी अपेक्षा अनेक गुणोंके कारण जंगलके निकटवर्ती स्थानको अधिक लाभदायक मानते हैं। उस वनके समीप ही सेनाका पड़ाव डालना चाहिये ।। १६-१७ ।।
वहाँ व्यूह निर्माण करनेके लिये रथ और वाहनोंसे उतरना तथा पैदल सैनिकोंको छिपाकर रखना सम्भव है। वहाँ रहकर शत्रुओंके प्रहारका जवाब दिया जा सकता है और आपत्तिके समय छिप जानेका भी सुभीता रहता है ।।
योद्धाओंको चाहिये कि वे सप्तर्षियोंको पीछे रखकर पर्वतकी तरह अविचलभावसे युद्ध करें। इस विधिसे आक्रमण करनेवाला राजा दुर्जय शत्रुओंको भी जीतनेकी आशा कर सकता है ।। १९ |।
जिस ओर वायु, जिस ओर सूर्य और जिस ओर शुक्र हों, उसी ओर पृष्ठभाग रखकर युद्ध करनेसे विजय प्राप्त होती है। युधिष्ठिर! यदि ये तीनों भिन्न-भिन्न दिशाओंमें हों तो इनमें पहला-पहला श्रेष्ठ है अर्थात् वायुको पीछे रखकर शेष दोको सामने रखते हुए भी युद्ध किया जा सकता है || २० ।।
घुड़सवार सेनाके लिये युद्धकुशल पुरुष उसी भूमिकी प्रशंसा करते हैं, जिसमें कीचड़, पानी, बाँध और ढेले न हों || २१ ।।
रथसेनाके लिये वह भूमि अच्छी मानी गयी है, जहाँ कीचड़ और गड्ढे न हों। जिस भूमिमें नाटे वृक्ष, बहुत-से घास-फ़्स और जलाशय हों, वह गजारोही योद्धाओंके लिये अच्छी मानी गयी है || २२ ।।
जो भूमि अत्यन्त दुर्गग, अधिक घास-फ़ूसवाली, बाँस और बेंतोंसे भरी हुई तथा पर्वत एवं उपवनोंसे युक्त हो, वह पैदल सेनाओंके योग्य होती है || २३ ।।
भरतनन्दन! जिस सेनामें पैदलोंकी संख्या बहुत अधिक हो, वह मजबूत होती है। जिसमें रथों और घोड़ोंकी संख्या बढ़ी हुई हो, वह सेना अच्छे दिनोंमें (जबकि वर्षा न होती हो) अच्छी मानी जाती है ।। २४ ।।
बरसातमें वही सेना श्रेष्ठ समझी जाती है, जिसमें पैदलों और हाथीसवारोंकी संख्या अधिक हो। इन गुणोंका विचार करके देश और कालको दृष्टिमें रखते हुए सेनाका संचालन करना चाहिये ।। २५ ।।
जो इन सब बातोंपर विचार करके शुभ तिथि और श्रेष्ठ नक्षत्रसे युक्त होकर शत्रुपर चढ़ाई करता है, वह सेनाका ठीक ढंगसे संचालन करके सदा ही विजयलाभ करता है। जो लोग सो रहे हों, प्यासे हों, थक गये हों अथवा इधर-उधर भाग रहे हों, उनपर अघात न करे ।। २६ ।।
शस्त्र और कवच उतार देनेके बाद, युद्धस्थलसे प्रस्थान करते समय, घूमते-फिरते समय और खाने-पीनेके अवसरपर किसीको न मारे। इसी प्रकार जो बहुत घबराये हुए हों, पागल हो गये हों, घायल हों, दुर्बल हो गये हों, निश्चिन्त होकर बैठे हों, दूसरे किसी काममें लगे हों, लेखनका कार्य करते हों, पीड़ासे संतप्त हों, बाहर घूम रहे हों, दूरसे सामान लाकर लोगोंके निकट पहुँचानेका काम करते हों अथवा छावनीकी ओर भागे जा रहे हों, उनपर भी प्रहार न करे || २७-२८ ।।
जो परम्परासे प्राप्त हुए राजद्वारपर रक्षा आदि सेवाका कार्य करते हों अथवा जो राजसेवक मन्त्री आदिके द्वारपर पहरा देते हों तथा किसी यूथके अधिपति हों, उनको भी नहीं मारना चाहिये ।। २९ ।
जो शत्रुकी सेनाको छिलन्न-भिन्न कर डालते हैं और अपनी तितर-बितर हुई सेनाको संगठित करके दृढ़तापूर्वक स्थापित करनेकी शक्ति रखते हैं, ऐसे लोगोंको राजा अपने समान ही भोजन-पानकी सुविधा देकर सम्मानित करे और उन्हें दुगुना वेतन दे || ३०
सेनामें कुछ लोगोंको दस-दस सैनिकोंका नायक बनावे, कुछको सौका तथा किसी प्रमुख और आलस्यरहित वीरको एक हजार योद्धाओंका अध्यक्ष नियुक्त करे || ३१ ।।
तत्पश्चात् मुख्य-मुख्य वीरोंको एकत्र करके यह प्रतिज्ञा करावे कि हम संग्राममें विजय प्राप्त करनेके लिये प्राण रहते एक-दूसरेका साथ नहीं छोड़ेंगे || ३२ ।।
जो लोग डरपोक हों, वे यहींसे लौट जायँ और जो लोग भयानक संग्राम करते हुए शत्रुपक्षके प्रधान वीरका वध कर सकें, वे ही यहाँ ठहरें ।। ३३ ।।
क्योंकि ऐसे डरपोक मनुष्य घमासान युद्धमें शत्रुओंको न तो तितर-बितर करके भगा सकते हैं और न उनका वध ही कर सकते हैं। शूरवीर पुरुष ही युद्धमें अपनी और अपने पक्षके सैनिकोंकी रक्षा करता हुआ शत्रुओंका संहार कर सकता है ।। ३४ ।।
सैनिकोंको यह भी समझा देना चाहिये कि युद्धके मैदानसे भागनेमें कई प्रकारके दोष हैं, एक तो अपने प्रयोजन और धनका नाश होता है। दूसरे भागते समय शत्रुके हाथसे मारे जानेका भय रहता है, तीसरे भागनेवालेकी निनन््दा होती है और सब ओर उसका अपयश फैल जाता है। इसके सिवा युद्धसे भागनेपर लोगोंके मुखसे मनुष्यको तरह-तरहकी अप्रिय और दु:खदायिनी बातें भी सुननी पड़ती हैं || ३५ ।।
जिसके ओठ और दाँत टूट गये हों, जिसने सारे अस्त्र-शस्त्रोंको नीचे डाल दिया हो तथा जिसे शत्रुगण सब ओरसे घेरकर खड़े हों, ऐसा योद्धा सदा हमारे शत्रुओंकी सेनामें ही रहे || ३६ |।
जो लोग युद्धमें पीठ दिखाते हैं, वे मनुष्योंमें अधम हैं; केवल योद्धाओंकी संख्या बढ़ानेवाले हैं। उन्हें इहलोक या परलोकमें कहीं भी सुख नहीं मिलता ।। ३७ ।।
शत्रु प्रसन्नचित्त होकर भागनेवाले योद्धाका पीछा करते हैं तथा तात! विजयी मनुष्य चन्दन और आशभूषणोंद्वारा पूजित होते हैं || ३८ ।।
संग्रामभूमिमें आये हुए शत्रु जिसके यशका नाश कर देते हैं। उसके लिये उस दुःखको मैं मरणसे भी बढ़कर असहा मानता हूँ ।। ३९ ।।
वीरो! तुम लोग युद्धमें विजयको ही धर्म एवं सम्पूर्ण सुखोंका मूल समझो। कायरों या डरपोक मनुष्योंको जिससे भारी ग्लानि होती है, वीर पुरुष उसी प्रहार और मृत्युको सहर्ष स्वीकार करता है ।। ४० ।।
अतः तुम लोग यह निश्चय कर लो कि हम स्वर्गकी इच्छा रखकर संग्राममें अपने प्राणोंका मोह छोड़कर लड़ेंगे। या तो विजय प्राप्त करेंगे या युद्धमें मारे जाकर सदगति पायेंगे || ४१ ।।
जो इस प्रकार शपथ लेकर जीवनका मोह छोड़ देते हैं, वे वीर पुरुष निर्भय होकर शत्रुओंकी सेनामें घुस जाते हैं || ४२
सेनाके कूच करते समय सबसे आगे ढाल-तलवार धारण करनेवाले पुरुषोंकी टुकड़ी रखे। पीछेकी ओर रथियोंकी सेना खड़ी करे और बीचमें राज-स्त्रियोंको रखे || ४३ ।।
उस नगरमें जो वृद्ध पुरुष अगुआ हों, वे शत्रुओंका सामना और विनाश करनेके लिये पैदल सैनिकोंको प्रोत्साहन एवं बढ़ावा दें || ४४ ।।
जो पहलेसे ही अपने शौर्यके लिये सम्मानित, धैर्यवान् और मनस्वी हैं, वे आगे रहें और दूसरे लोग उन्हींके पीछे-पीछे चलें || ४५ ।।
जो डरनेवाले सैनिक हों, उनका भी प्रयत्नपूर्वक उत्साह बढ़ाना चाहिये अथवा वे सेनाका विशेष समुदाय दिखानेके लिये ही आस-पास खड़े रहें || ४६ ।।
यदि अपने पास थोड़े-से सैनिक हों तो उन्हें एक साथ संघबद्ध रखकर युद्ध करनेका आदेश देना चाहिये और यदि बहुत-से योद्धा हों तो उन्हें बहुत दूरतक इच्छानुसार फैलाकर रखना चाहिये। थोड़े-से सैनिकोंको बहुतोंके साथ युद्ध करना हो तो उनके लिये सूचीमुख नामक व्यूह उपयोगी होता है || ४७ ।।
अपनी सेना उत्कृष्ट अवस्थामें हो या निकृष्ट अवस्थामें, बात सच्ची हो या झूठी, हाथ ऊपर उठाकर हल्ला मचाते हुए कहे, “वह देखो, शत्रु भाग रहे हैं, भाग रहे हैं, हमारी मित्रसेना आ गयी। अब निर्भय होकर प्रहार करो” ।। ४८½।।
इतनी बात सुनते ही धैर्यवान् और शक्तिशाली वीर भयंकर सिंहनाद करते हुए शत्रुओंपर टूट पड़ें ।। ४९ ।।
जो लोग सेनाके आगे हों, उन्हें गर्जन-तर्जन करते और किलकारियाँ भरते हुए क्रकच, नरसिंहे, भेरी, मृदंग और ढोल आदि बाजे बजाने चाहिये ।। ५० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वरें सेनानीतिका वर्णनविषयक सौवाँ अध्याय पूरा हआ)
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