सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
इक्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इक्यानबेवें अध्याय के श्लोक 1-60 का हिन्दी अनुवाद)
“उतथ्यके उपदेशमें धर्मांचरणका महत्त्व और राजाके धर्मका वर्णन”
उतथ्य कहते हैं--राजन्! राजा धर्मका आचरण करे और मेघ समयपर वर्षा करता रहे। इस प्रकार जो सम्पत्ति बढ़ती है, वह प्रजावर्गका सुखपूर्वक भरण-पोषण करती है ।। १ |।
यदि धोबी कपड़ोंकी मैल उतारना नहीं जानता अथवा रौँगे हुए वस्त्रोंको धोकर शुद्ध एवं उज्ज्वल बनानेकी कला उसे नहीं ज्ञात है तो उसका होना न होना बराबर है ।। २ ।।
इसी प्रकार श्रेष्ठ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा चौथे शूद्र वर्णके मनुष्य यदि अपने-अपने पृथक्-पृथक् कर्मोंकोी जानकर उनमें संलग्न नहीं रहते हैं, तो उनका होना न होना एक-सा ही है ।। ३ ।।
शूद्रमें द्विजोंकी सेवा, वैश्यमें कृषि, राजा या क्षत्रियमें दण्डनीति तथा ब्राह्मणोंमें ब्रह्मचर्य, तपस्या, वेदमन्त्र और सत्यकी प्रधानता है ।। ४ ।।
इनमें जो क्षत्रिय वस्त्रोंकी मैल दूर करनेवाले धोबीके समान चरित्रदोषको दूर करना जानता है, वही प्रजावर्गका पिता और वही प्रजाका अधिपति है ।। ५ ।।
भरतश्रेष्ठ! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग--ये सब-के-सब राजाके आचरणोंमें स्थित हैं। राजा ही युगोंका प्रवर्तक होनेके कारण युग कहलाता है ।। ६ ।।
जब राजा प्रमाद करता है, तब चारों वर्ण, चारों वेद और चारों आश्रम सभी मोहमें पड़ जाते हैं ।। ७ ।।
जब राजा प्रमादी हो जाता है, तब गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि--ये तीन अग्नि; ऋक्, साम और यजु--ये तीन वेद एवं दक्षिणाओंके साथ सम्पूर्ण यज्ञ भी विकृत हो जाते हैं ।। ८ ।।
राजा ही प्राणियोंका कर्ता (जीवनदाता) और राजा ही उनका विनाश करनेवाला है। जो धर्मात्मा है, वह प्रजाका जीवनदाता है और जो पापात्मा है, वह उसका विनाश करनेवाला है ।। ९ ।।
जब राजा प्रमाद करने लगता है, तब उसकी स्त्री, पुत्र, बान्धव तथा सुहृद् सब मिलकर शोक करते हैं ।।
राजाके पापपरायण हो जानेपर उसके हाथी, घोड़े, गौ, ऊँट, खच्चर और गदहे आदि सभी पशु दु:ख पाते हैं ।। ११ ।।
मान्धाता! कहते हैं कि विधाताने दुर्बल प्राणियोंकी रक्षाके लिये ही बलसम्पन्न राजाकी सृष्टि की है। निर्बल प्राणियोंका महान् समुदाय राजाके बलपर टिका हुआ है ।। १२
भूपाल! राजा जिन प्राणियोंको अन्न आदि देकर उनकी सेवा करता है और जो प्राणी राजासे सम्बन्ध रखते हैं, वे सब-के-सब उस राजाके अधर्मपरायण होनेपर शोक प्रकट करने लगते हैं ।। १३ ।।
दुर्बल मनुष्य, मुनि और विषधर सर्प--इन सबकी दृष्टिको मैं अत्यन्त दुःसह मानता हूँ; इसलिये तुम किसी दुर्बल प्राणीको न सताना ।। १४ ।।
तात! तुम दुर्बल प्राणियोंको सदा ही अपमानका पात्र न समझना, दुर्बलोंकी आँखें तुम्हें बन्धु-बान्धवों-सहित जलाकर भस्म न कर डालें, इसके लिये सदा सावधान रहना ।। १५
दुर्बल मनुष्य जिसको अपनी क्रोधाग्निसे जला डालते हैं, उसके कुलमें फिर कोई अंकुर नहीं जमता। वे जड़मूलसहित दग्ध कर देते हैं; अतः तुम दुर्बलोॉंको कभी न सताना ।। १६ ||
निर्बल प्राणी बलवानसे श्रेष्ठ है, क्योंकि जो अत्यन्त बलवान् है, उसके बलसे भी निर्बलका बल अधिक है। निर्बलके द्वारा दग्ध किये गये बलवानका कुछ भी शेष नहीं रह जाता || १७ ||
यदि अपमानित, हताहत तथा गाली-गलौजसे तिरस्कृत होनेवाला दुर्बल मनुष्य राजाको अपने रक्षकके रूपमें नहीं उपलब्ध कर पाता तो वहाँ दैवका दिया हुआ दण्ड राजाको मार डालता है ॥। १८ ।।
तात! तुम युद्धमें संलग्न होकर दुर्बल मनुष्यको कर लेनेके द्वारा अपने उपभोगका विषय न बनाना। जैसे आग अपने आश्रयभूत काष्ठको जला देती है, उसी प्रकार दुर्बलोंकी दृष्टि तुम्हें दग्ध न कर डाले ।। १९ |।
झूठे अपराध लगाये जानेपर रोते हुए दीन-दुर्बल मनुष्योंके नेत्रोंसे जो आँसू गिरते हैं, वे मिथ्या कलंक लगानेके कारण उन अपराधियोंके पुत्रों और पशुओंका नाश कर डालते हैं ।। २० ।।
यदि पापका फल अपनेको नहीं मिला तो वह पुत्रों तथा नाती-पोतोंको अवश्य मिलता है। जैसे पृथ्वीमें बोया हुआ बीज तुरंत फल नहीं देता, उसी प्रकार किया हुआ पाप भी तत्काल फल नहीं देता (समय आनेपर ही उसका फल मिलता है) ।। २१ ।।
सताया जानेवाला दुर्बल मनुष्य जहाँ अपने लिये कोई रक्षक नहीं पाता है, वहाँ सतानेवाले पापीको दैवकी ओरसे भयंकर दण्ड प्राप्त होता है ।। २२ ।।
जब बाहर गावोंके लोग एक समूह बनाकर भिक्षुकरूपसे ब्राह्मणोंके समान भिक्षा माँगने लगते हैं, तब वैसे लोग एक दिन राजाका विनाश कर डालते हैं || २३ ।।
जब राजाके बहुत-से कर्मचारी देशमें अन्यायपूर्ण बर्ताव करने लगते हैं, तब वह महान् पाप राजाको ही लगता है ।। २४ ।।
यदि कोई राजा या राजकीय कर्मचारी दीनतापूर्ण याचना करती हुई प्रजाओंकी उस प्रार्थाको ठुकराकर स्वेच्छासे अथवा धनके लोभवश कोई-न-कोई युक्ति करके उनके धनका अपहरण कर ले तो वह राजाके महान् विनाशका सूचक है || २५ ।।
जब कोई महान् वृक्ष पैदा होता और क्रमश: बढ़ता है, तब बहुत-से प्राणी (पक्षी) आकर उसपर बसेरे लेते हैं और जब उस वृक्षको काटा या जला दिया जाता है, तब उसपर रहनेवाले सभी जीव निराश्रय हो जाते हैं | २६ ।।
जब राज्यमें रहनेवाले लोग राजाके गुणोंका बखान करते हुए वैदिक संस्कारोंके साथ उत्तम धर्मका आचरण करते हैं, उस समय राजा पापमुक्त हो जाता है तथा जब वे ही लोग धर्मके विषयमें मोहित हो जानेके कारण अधर्माचरण करने लगते हैं, उस समय राजा शीघ्र ही पुण्यसे हीन हो जाता है ।। २७ ।।
जहाँ पापी मनुष्य प्रकटरूपसे निर्भय विचरते हैं, वहाँ सत्पुरुषोंकी दृष्टिमें समझा जाता है कि राजाको कलियुगने घेर लिया है; किंतु जब राजा दुष्ट मनुष्योंको दण्ड देता है, तब उसका राज्य सब ओरसे उन्नत होने लगता है || २८ ।।
जो राजा अपने मन्त्रियोंका यथार्थरूपसे सम्मान करके उन्हें मन्त्रणा अथवा युद्धके काममें नियुक्त करता है, उसका राज्य दिनोंदिन बढ़ता है और वह चिरकालतक समूची पृथ्वीका राज्य भोगता है ।। २९ ।।
जो राजा अपने कर्मचारी अथवा प्रजाका पुण्यकर्म देखकर तथा उनकी सुन्दर वाणी सुनकर उन सबका यथायोग्य सम्मान करता है, वह परम उत्तम धर्मको प्राप्त कर लेता है ।। ३० |।
राजा जब उसको यथायोग्य विभाग देकर स्वयं उपभोग करता है, मन्त्रियोंका अनादर नहीं करता है और बलके घमंडमें चूर रहनेवाले दुष्ट पुरुष या शत्रुको मार डालता है, तब उसका यह सब कार्य राजधर्म कहलाता है ।। ३१ ।।
जब वह मन, वाणी और शरीरके द्वारा सबकी रक्षा करता है और पुत्रके भी अपराधको क्षमा नहीं करता, तब उसका वह बर्ताव भी 'राजाका धर्म” कहा जाता है ।। ३२ ।।
जब राजा दुर्बल मनुष्योंको यथावश्यक वस्तुएँ देकर पीछे स्वयं भोजन करता है, तब वे दुर्बल मनुष्य बलवान हो जाते हैं। वह त्याग राजाका धर्म कहा गया है || ३३ ।।
जब राजा समूचे राष्ट्रकी रक्षा करता है, डाकू और लुटेरोंको मार भगाता है तथा संग्राममें विजयी होता है, तब वह सब राजाका धर्म कहा जाता है ।। ३४ ।।
प्रिय-से-प्रिय व्यक्ति भी यदि क्रिया अथवा वाणीद्वारा पाप करे तो राजाको चाहिये कि उसे भी क्षमा न करे अर्थात् उसे भी यथायोग्य दण्ड दे। जो ऐसा बर्ताव है, वह राजाका धर्म कहलाता है | ३५ |।
जब राजा व्यापारियोंकी पुत्रके समान रक्षा करता है और धर्मकी मर्यादाको भंग नहीं करता, तब वह भी राजाका धर्म कहलाता है ।। ३६ ||
जब वह राग और द्वेषका अनादर करके पर्याप्त दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा श्रद्धापूर्वक यजन करता है, तब वह राजाका धर्म कहा जाता है || ३७ ।।
जब वह दीन, अनाथ और वृद्धोंके आँसू पोंछता है और इस बर्तावद्वारा सब लोगोंके हृदयमें हर्ष उत्पन्न करता है, तब उसका वह सदभाव राजाका धर्म कहलाता है ।। ३८
वह जो मित्रोंकी वृद्धि, शत्रुओंका नाश और साधु पुरुषोंका समादर करता है, उसे राजाका धर्म कहते हैं || ३९ ।।
राजा जो प्रेमपूर्वक सत्यका पालन करता है, प्रतिदिन भूदान देता है और अतिथियों तथा भरण-पोषणके योग्य व्यक्तियोंका सत्कार करता है, वह राजाका धर्म कहलाता है || ४० ।।
जिसमें निग्रह* और अनुग्रहः दोनों प्रतिष्ठित हों, वह राजा इहलोक और परलोकमें मनोवांछित फल पाता है ।। ४१ ।।
मान्धाता! राजा दुष्टोंको दण्ड देनेके कारण यम तथा धार्मिकोंपर अनुग्रह करनेके कारण उनके लिये परमेश्वरके समान है। जब वह अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखता है, तब शासनमें समर्थ होता है और जब संयममें नहीं रखता, तब मर्यादासे नीचे गिर जाता है ।।
जब राजा ऋत्विकू, पुरोहित और आचार्यका बिना अवहेलनाके सत्कार करके उनको उचित बर्तावके साथ अपनाता है, तब वह राजाका धर्म कहलाता है ।। ४३ ।।
जैसे यमराज सभी प्राणियोंपर समानरूपसे शासन करते हैं, उसी प्रकार राजाको भी बिना किसी भेदभावके समस्त प्रजाओंपर विधिपूर्वक नियन्त्रण रखना चाहिये ।। ४४ ।।
पुरुषप्रवर! राजाकी उपमा सब प्रकारसे हजार नेत्रोंवाले इन्द्रसे दी जाती है; अतः राजा जिस धर्मको भलीभाँति समझकर निश्चित कर देता है वही श्रेष्ठ धर्म माना गया है ।। ४५ ।।
राजन! तुम सावधान होकर क्षमा, विवेक, धृति और बुद्धिकी शिक्षा ग्रहण करो। समस्त प्राणियोंकी शक्ति तथा भलाई-बुराईको भी सदा जाननेकी इच्छा करो ।।
समस्त प्राणियोंको अपने अनुकूल बनाये रखना, दान देना और मीठे वचन बोलना सीखो। नगर और बाहर गाँववाले लोगोंकी तुम्हें इस प्रकार रक्षा करनी चाहिये, जिससे उन्हें सुख मिले ।। ४७ ।।
तात! जो दक्ष नहीं है, वह राजा कभी प्रजाकी रक्षा नहीं कर सकता; क्योंकि यह राज्यका संचालनरूप अत्यंत दुष्कर कार्य बहुत बड़ा भार है ।। ४८ ।।
राज्यकी रक्षा तो वही राजा कर सकता है, जो बुद्धिमान् और शूरवीर होनेके साथ ही दण्ड देनेकी नीतिको भी जानता हो। जो दण्ड देनेसे हिचकता हो, वह नपुंसक और बुद्धिहीन नरेश कदापि राज्यकी रक्षा नहीं कर सकता ।। ४९ ।।
तुम्हें रूपवानू, कुलीन, कार्यदक्ष, राजभक्त एवं बहुज्ञ मन्त्रियोंक साथ रहकर तापसों और आशश्रम-वासियोंकी भी सम्पूर्ण बुद्धियों (सारे विचारों) की परीक्षा करनी चाहिये ।। ५० ।।
ऐसा करनेसे तुमको सम्पूर्ण भूतोंके परम धर्मका ज्ञान हो जायगा; फिर स्वदेशमें रहो या परदेशमें, कहीं भी तुम्हारा धर्म नष्ट नहीं होगा ।। ५१ ।।
इस तरह विचार करनेसे अर्थ और कामकी अपेक्षा धर्म ही श्रेष्ठ सिद्ध होता है। धर्मात्मा पुरुष इहलोकमें और परलोकमें भी सुख भोगता है ।। ५२ ।।
यदि मनुष्योंका सम्मान किया जाय तो वे सम्मान-दाताके हितके लिये अपने पुत्रों और स्त्रियोंको भी छोड़ देते हैं। समस्त प्राणियोंको अपने पक्षमें मिलाये रखना, दान देना, मीठे वचन बोलना, प्रमादका त्याग करना तथा बाहर और भीतरसे पवित्र रहना--से राजाका ऐश्वर्य बढ़ानेवाले बहुत बड़े साधन हैं। मान्धाता! तुम इन सब बातोंकी ओरसे कभी प्रमाद न करना ।।
राजाको सदा सावधान रहना चाहिये। वह शत्रुका तथा अपना भी छिद्र देखे और यह प्रयत्न करे कि शत्रु मेरा छिद्र अच्छी तरह न देखने पाये; परंतु यदि शत्रुके छिठ्रों (दुर्बलताओं) का पता लग जाय तो वह उसपर चढ़ाई कर दे ।। ५५ ||
इन्द्र, यम, वरुण तथा सम्पूर्ण राजर्षियोंका यही बर्ताव है, तुम भी इसका निरन्तर पालन करो ।। ५६ |।
पुरुषप्रवर महाराज! राजर्षियोंद्वारा सेवित उस आचारका तुम पालन करो और शीघ्र ही प्रकाशयुक्त दिव्य मार्गका आश्रय लो ।। ५७ ||
भारत!+ महातेजस्वी देवता, ऋषि, पितर और गन्धर्व इहलोक और परलोकमें भी धर्मपरायण राजाके यशका गान करते रहते हैं ।। ५८ ।।
भीष्मजी कहते हैं--भरतनन्दन! उतथ्यके इस प्रकार उपदेश देनेपर मान्धाताने निःशंक होकर उनकी आज्ञाका पालन किया और सारी पृथ्वीका एकछत्र राज्य पा लिया ।। ५९ ||
पृथ्वीनाथ! मान्धाताकी ही भाँति तुम भी अच्छी तरह धर्मका पालन करते हुए इस पृथ्वीकी रक्षा करो; फिर तुम भी स्वर्गलोकमें स्थान प्राप्त कर लोगे || ६० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें उतथ्यगीताविषयक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टीका टिप्पणी ;-
- दुष्टोंको दण्ड देनेका स्वभाव।
- दीन-दुखियों तथा साधु पुरुषोंके प्रति दया एवं सहानुभूति।
-* उतथ्यने राजा मान्धाताकों उपदेश दिया है और मान्धाता सूर्यवंशी नरेश थे, इसलिये उनके उद्देश्यसे 'भारत' सम्बोधन पद यद्यपि उचित नहीं है तथापि यह प्रसंग भीष्मजी युधिष्ठिरको सुनाते हैं; अतः यह समझना चाहिये कि युधिष्ठिरके उद्देश्यसे उन्होंने यहाँ 'भारत' विशेषणका प्रयोग किया है।
महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
बानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) बानबेवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“राजाके धर्मपूर्वक आचारके विषयमें वामदेवजीका वसुमनाको उपदेश”
युधिष्ठटिरने पूछा--कुरुश्रेष्ठ पितामह! धर्मात्मा राजा यदि धर्ममें स्थित रहना चाहे तो उसे किस प्रकार बर्ताव करना चाहिये? यह मैं आपसे पूछता हूँ; आप मुझे बताइये ।। १
भीष्मजीने कहा--राजन्! इस विषयमें लोग तत्त्वज्ञानी महात्मा वामदेवजीद्वारा दिये हुए उपदेशरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं || २ ।।
वसुमना नामक एक प्रसिद्ध राजा हो गये हैं, जो ज्ञानवान, धैर्यवान् और पवित्र आचारविचारवाले थे। उन्होंने एक दिन तपस्वी महर्षि वामदेवजीसे पूछा-- ।।
'भगवन्! मैं किस बर्तावका पालन करता रहूँ, जिससे अपने धर्मसे कभी न गिरूँ। आप अपने अर्थ और धर्मयुक्त वचनोंद्वारा मुझे इसी बातका उपदेश दीजिये” ।। ४ ।।
तब तपस्वी पुरुषोंमें श्रेष्ठ तेजस्वी महर्षि वामदेवने नहुषपुत्र ययातिके समान सुखपूर्वक बैठे हुए सुवर्णकी-सी कान्तिवाले राजा वसुमनासे कहा ।। ५ |।।
वामदेवजी बोले--राजन्! तुम धर्मका ही अनुसरण करो। धर्मसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है; क्योंकि धर्ममें स्थित रहनेवाले राजा इस सारी पृथ्वीको जीत लेते हैं ।। ६ ।
जो भूपाल धर्मको अर्थ-सिद्धिकी अपेक्षा भी बड़ा मानता है और उसीको बढ़ानेमें अपने मन और बुद्धिका उपयोग करता है, वह धर्मके कारण बड़ी शोभा पाता है || ७ ।।
इसके विपरीत जो राजा अधर्मपर ही दृष्टि रखकर बलपूर्वक उसमें प्रवृत्त होता है, उसे धर्म और अर्थ दोनों पुरुषार्थ शीघ्र छोड़कर चल देते हैं || ८ ।।
जो दुष्ट एवं पापिष्ठ मन्त्रियोंकी सहायतासे धर्मको हानि पहुँचाता है, वह सब लोगोंका वध्य हो जाता है और अपने परिवारके साथ ही शीघ्र संकटमें पड़ जाता है ।।
जो राजा अर्थ-सिद्धिकी चेष्टा नहीं करता और स्वेच्छाचारी हो बढ़-बढ़कर बातें बनाता है, वह सारी पृथ्वीका राज्य पाकर भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।। १० ।।
परंतु जो कल्याणकारी गुणोंको ग्रहण करनेवाला, अनिन्दक, जितेन्द्रिय और बुद्धिमान् होता है, वह राजा उसी प्रकार वृद्धिको प्राप्त होता है, जैसे नदियोंके प्रवाहसे समुद्र || ११ ।।
राजाको चाहिये कि वह सदा धर्म, अर्थ, काम, बुद्धि और मित्रोंसे सम्पन्न होनेपर भी कभी अपनेको पूर्ण न माने--सदा उन सबके संग्रहको बढ़ानेकी ही चेष्टा करे || १२ ।।
राजाकी जीवनयात्रा इन्हीं सबोंपर अवलम्बित है। इन सबको सुनने और ग्रहण करनेसे राजाको यश, कीर्ति, लक्ष्मी और प्रजाकी प्राप्ति होती है ।। १३ ।।
जो इस प्रकार धर्मके प्रति आग्रह रखनेवाला एवं धर्म और अर्थका चिन्तन करनेवाला है तथा अर्थपर भलीभाँति विचार करके उसका सेवन करता है, वह निश्चय ही महान् फलका भागी होता है ।। १४
जो दुःसाहसी, दान न देनेवाला और स्नेहशून्य तथा दण्डके द्वारा प्रजाको बार-बार सताता है, वह राजा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है || १५ ।।
जो बुद्धिहीन राजा पाप करके भी अपनी बुद्धिके द्वारा अपनेको पापी नहीं समझता, वह इस लोकमें अपकीर्तिसे कलंकित हो परलोकमें नरकका भागी होता है || १६ ।।
जो सबका मान करनेवाला, दानी, स्नेहयुक्त तथा दूसरोंके वशवर्ती होकर रहता है, उसपर यदि कोई संकट आ जाय तो सब लोग उसे अपना ही संकट मानकर उसको मिटानेकी चेष्टा करते हैं || १७ ।।
जिसको धर्मके विषयमें शिक्षा देनेवाला कोई गुरु नहीं है और जो दूसरोंसे भी कुछ नहीं पूछता है तथा धन मिल जानेपर सुखभोगमें आसक्त हो जाता है, वह दीर्घकालतक सुख नहीं भोग पाता है | १८ ।।
जो धर्मके विषयमें गुरुको प्रधान मानकर उनके उपदेशके अनुसार चलता है, जो स्वयं ही अर्थ-सम्बन्धी सारे कार्योंको देखता है तथा सब प्रकारके लाभोंमें धर्मको ही प्रधान लाभ समझता है, वह चिरकालतक सुखका उपभोग करता है ।। १९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वामदेवजीकी गीताविषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
तिरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तिरानबेवें अध्याय के श्लोक 1-39 का हिन्दी अनुवाद)
“वामदेवजीके द्वारा राजोचित बतावका वर्णन”
वामदेवजी कहते हैं--राजन्! जिस राज्यमें अत्यन्त बलवान राजा दुर्बल प्रजापर अधर्म या अत्याचार करने लगता है, वहाँ उसके अनुचर भी उसी बर्तावको अपनी जीविकाका साधन बना लेते हैं ।। १ ।।
वे उस पापप्रवर्तक राजाका ही अनुसरण करते हैं; अतः उद्दण्ड मनुष्योंसे भरा हुआ वह राष्ट्र शीघ्र ही नष्ट हो जाता है |। २ ।।
अच्छी अवस्थामें रहनेपर मनुष्यके जिस बर्तावका दूसरे लोग भी आश्रय लेते हैं, संकटमें पड़ जानेपर उसी मनुष्यके उसी बर्तावको उसके स्वजन भी नहीं सहन करते हैं ।। ३ ।।
दुःसाहसी प्रकृतिवाला जो राजा जहाँ कुछ उह्ण्डतापूर्ण बर्ताव करता है, वहाँ शास्त्रोक्त मर्यादाका उल्लंघन करनेवाला वह राजा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।।
जो क्षत्रिय राज्यमें रहनेवाले विजित या अविजित मनुष्योंकी अत्यन्त आचरणमें लायी हुई वृत्तिका अनुवर्तन नहीं करता (अर्थात् उन लोगोंको अपने परम्परागत आचार-विचारका पालन नहीं करने देता) वह क्षत्रिय-धर्मसे गिर जाता है ।। ५ ।।
यदि कोई राजा पहलेका उपकारी हो और किसी कारणवश वर्तमानकालमें द्वेष करने लगा हो तो उस समय जो भूपाल उसे युद्धमें बंदी बनाकर द्वेषवश उसका सम्मान नहीं करता, वह भी क्षत्रियधर्मसे गिर जाता है ।।
राजा यदि समर्थ हो तो उत्तम सुखका अनुभव करे और करावे तथा आपत्तिमें पड़ जाय तो उसके निवारणका प्रयत्न करे। ऐसा करनेसे वह सब प्राणियोंका प्रिय होता है और कभी राजलक्ष्मीसे भ्रष्ट नहीं होता ।।
राजाको चाहिये कि यदि किसीका अप्रिय किया हो तो फिर उसका प्रिय भी करे। इस प्रकार यदि अप्रिय पुरुष भी प्रिय करने लगता है तो थोड़े ही समयमें वह प्रिय हो जाता है ।। ८ ।।
मिथ्या भाषण करना छोड़ दे, बिना याचना या प्रार्थना किये ही दूसरोंका प्रिय करे। किसी कामनासे, क्रोधसे तथा द्वेषसे भी धर्मका त्याग न करे ।। ९ |।
विद्वान राजा छल-कपट छोड़कर ही बर्ताव करे। सत्यको कभी न छोड़े। इन्द्रिय-संयम, धर्माचरण, सुशीलता, क्षत्रियधर्म तथा प्रजाके हितका कभी परित्याग न करे। यदि कोई कुछ पूछे तो उसका उत्तर देनेमें संकोच न करे, बिना विचारे कोई बात मुँहसे न निकाले, किसी काममें जल्दबाजी न करे और किसीकी निन्दा न करे, ऐसा बर्ताव करनेसे शत्रु भी अपने वशमें हो जाता है || १० ।।
यदि अपना प्रिय हो जाय तो बहुत प्रसन्न न हो और अप्रिय हो जाय तो अत्यन्त चिन्ता न करे। यदि आर्थिक संकट आ पड़े तो प्रजाके हितका चिन्तन करते हुए तनिक भी संतप्त नहो | ११ |।
जो भूपाल अपने गुणोंसे सदा सबका प्रिय करता है, उसके सभी कर्म सफल होते हैं और सम्पत्ति कभी उसका साथ नहीं छोड़ती ।। १२ ।।
राजा सदा सावधान रहकर अपने उस सेवकको हर तहरसे अपनावे, जो प्रतिकूल कार्योसे अलग रहता हो और राजाका निरन्तर प्रिय करनेमें ही संलग्न हो || १३ ।।
जो बड़े-बड़े काम हों, उनपर जितेन्द्रिय, अत्यन्त अनुगत, पवित्र आचार-विचारवाले, शक्तिशाली और अनुरक्त पुरुषको नियुक्त करे || १४ ।।
इसी प्रकार जिसमें वे सब गुण मौजूद हों, जो राजाको प्रसन्न भी रख सकता हो तथा स्वामीका कार्य सिद्ध करनेके लिये सतत सावधान रहता हो, उसको धनकी व्यवस्थाके कार्यमें लगावे ।। १५
मूर्ख, इन्द्रियलोलुप, लोभी, दुराचारी, शठ, कपटी, हिंसक, दुर्बद्धि, अनेक शास्त्रोंके ज्ञानसे शून्य, उच्चभावनासे रहित, शराबी, जुआरी, स्त्रीलम्पट और मृगयासक्त पुरुषको जो राजा महत्त्वपूर्ण कार्योंपर नियुक्त करता है, वह लक्ष्मीसे हीन हो जाता है ।। १६-१७
जो नरेश अपने शरीरकी रक्षा करके रक्षणीय पुरुषोंकी भी सदा रक्षा करता है, उसकी प्रजा अभ्युदयशील होती है और वह राजा भी निश्चय ही महान् फलका भागी होता है ।। १८ ।।
जो राजा अपने अप्रसिद्ध सुहृदोंके द्वारा गुप्तरूपसे समस्त भूपतियोंकी अवस्थाका निरीक्षण कराता है, वह अपने इस बर्तावके द्वारा सर्वश्रेष्ठ हो जाता है ।। १९
किसी बलवान् शत्रुका अपकार करके हम दूर जाकर रहेंगे, ऐसा समझकर निश्चिन्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि जैसे बाज पक्षी झपट्टा मारता है, उसी प्रकार ये दूरस्थ शत्रु भी असावधानीकी अवस्थामें टूट पड़ते हैं ।।
राजा अपनेको दृढ़मूल (अपनी राजधानीको सुरक्षित) करके विरोधी लोगोंको दूर रखकर अपनी शक्तिको समझ ले; फिर अपनेसे दुर्बल शत्रुपर ही आक्रमण करे। जो अपनेसे प्रबल हों, उनपर आक्रमण न करे || २१ ।।
पराक्रमसे इस पृथ्वीको प्राप्त करके धर्मपरायण राजा अपनी प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करे तथा युद्धमें शत्रुओंका संहार कर डाले ।। २२ ।।
राजन्! इस जगत्के सभी पदार्थ अन्तमें नष्ट होनेवाले हैं; यहाँ कोई भी वस्तु नीरोग या अविनाशी नहीं है। इसलिये राजाको धर्मपर स्थित रहकर प्रजाका धर्मके अनुसार ही पालन करना चाहिये ।। २३ ।।
रक्षाके स्थान दुर्ग आदि, युद्ध, धर्मके अनुसार राज्यका शासन, मन्त्र-चिन्तन तथा यथासमय सबको सुख प्रदान करना--इन पाँचोंके द्वारा राज्यकी वृद्धि होती है ।। २४ ।।
जिसकी ये सब बातें गुप्त या सुरक्षित रहती हैं, वह राजा समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ माना जाता है। इनके पालनमें सदा संलग्न रहनेवाला नरेश ही इस पृथ्वीकी रक्षा कर सकता है ।। २५ ।।
एक ही पुरुष इन सभी बातोंपर सदा ध्यान नहीं रख सकता, इसलिये इन सबका भार सुयोग्य अधिकारियोंको सौंपकर राजा चिरकालतक इस भूतलका राज्य भोग सकता है ।। २६ ।।
जो पुरुष दानशील, सबके लिये सम्यक् विभागपूर्वक आवश्यक वस्तुओंका वितरण करनेवाला, मृदुलस्वभाव, शुद्ध आचार-विचारवाला तथा मनुष्योंका त्याग न करनेवाला होता है, उसीको लोग राजा बनाते हैं || २७ ।।
जो कल्याणकारी उपदेश सुनकर अपने मतका आग्रह छोड़ उस ज्ञानको ग्रहण कर लेता है, उसके पीछे यह सारा जगत् चलता है || २८ ।।
जो मनके प्रतिकूल होनेके कारण अपने ही प्रयोजनकी सिद्धि चाहनेवाले सुहृदकी बात नहीं सहन करता और अपनी अर्थसिद्धिके विरोधी वचनोंको भी सुनता है, सदा अनमनासा रहता है, जो बुद्धिमान् शिष्ट पुरुषोंद्वारा आचरणमें लाये हुए बर्तावका सदा सेवन नहीं करता एवं पराजित या अपराजित व्यक्तियोंको उनके परम्परागत आचारका पालन नहीं करने देता, वह क्षत्रिय-धर्मसे गिर जाता है ।। २९-३० ।।
जिसको कभी कैद किया गया हो ऐसे मन्त्रीसे, विशेषतः स्त्रियोंसे, विषम पर्वतसे, दुर्गम स्थानसे तथा हाथी, घोड़े और सर्पसे सदा सावधान रहकर राजा अपनी रक्षा करे ।। ३१ ।।
जो प्रधान मन्त्रियोंका त्याग करके निम्नश्रेणीके मनुष्योंको अपना प्रिय बनाता है, वह संकटके घोर समुद्रमें पड़कर पीड़ित हो कहीं आश्रय नहीं पाता है ।।
जो द्वेषवश कल्याणकारी गुणोंवाले अपने सजातीय बन्धुओं एवं कुटुम्बीजनोंका सम्मान नहीं करता, जिसका चित्त चंचल है तथा जो क्रोधको दृढ़ता-पूर्वक पकड़े रहनेवाला है, वह सदा मृत्युके समीप निवास करता है ।। ३३ ।।
जो राजा हृदयको प्रिय लगनेवाले न होनेपर भी गुणवान् पुरुषोंको प्रीतिजनक बर्तावद्वारा अपने वशमें कर लेता है, वह दीर्घकालतक यशस्वी बना रहता है ।।
राजाको चाहिये कि वह असमयमें कर लगाकर धन-संग्रहकी चेष्टा न करे। कोई अप्रिय कार्य हो जानेपर कभी चिन्ताकी आगमें न जले और प्रिय कार्य बन जानेपर अत्यन्त हर्षसे फूल न उठे और अपने शरीरको नीरोग बनाये रखनेके कार्यमें तत्पर रहे || ३५ ।।
इस बातका ध्यान रखे कि कौन राजा मुझसे प्रेम रखते हैं? कौन भयके कारण मेरा आश्रय लिये हुए हैं? इनमेंसे कौन मध्यस्थ हैं और कौन-कौन नरेश मेरे शत्रु बने हुए हैं? । ३६ ।।
राजा स्वयं बलवान् होकर भी कभी अपने दुर्बल शत्रुका विश्वास न करे; क्योंकि ये असावधानीकी दशामें बाज पक्षीकी तरह झपट्टा मारते हैं || ३७ ।।
जो पापात्मा मनुष्य अपने सर्वगुणसम्पन्न और सर्वदा प्रिय वचन बोलनेवाले स्वामीसे भी अकारण द्रोह करता है, उसपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये ।। ३८ ।।
नहुषपुत्र राजा ययातिने मानवमात्रके हितमें तत्पर हो इस राजोपनिषद्का वर्णन किया है। जो इसमें निष्ठा रखकर इसके अनुसार चलता है, वह बड़े-बड़े शत्रुओंका विनाश कर डालता है ।। ३९ |।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजध्मनुशासनपर्वमें वामदेवगीताविषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
चौरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चौरानबेवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“वामदेवके उपदेशमें राजा और राज्यके लिये हितकर बर्ताव”
वामदेवजी कहते हैं--नरेश्वर! राजा युद्धके सिवा किसी और ही उपायसे पहले अपनी विजय-वृद्धिकी चेष्टा करे; युद्धसे जो विजय प्राप्त होती है, उसे निम्न श्रेणीकी बताया गया है ।। १ ।।
यदि राज्यकी जड़ मजबूत न हो तो राजाको अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति--अनधिकृत देशोंपर अधिकारकी इच्छा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि जिसके मूलमें ही दुर्बलता है, उस राजाको वैसा लाभ होना सम्भव नहीं है || २ ।।
जिस राजाका देश समृद्धिशाली, धनधान्यसे सम्पन्न, राजाको प्रिय माननेवाले मनुष्योंसे परिपूर्ण और हृष्ट-पुष्ट मन्त्रियोंस सुशोभित है, उसीकी जड़ मजबूत समझनी चाहिये ।। ३ ।।
जिसके सैनिक संतुष्ट, राजाके द्वारा सान्त्वना-प्राप्त और शत्रुओंको धोखा देनेमें चतुर हों, वह भूपाल थोड़ी-सी सेनाके द्वारा भी पृथ्वीपर विजय पा लेता है ।।
जिस स्थानपर शत्रुपक्षकी सेना अधिक प्रबल हो, वहाँ पहले सामनीतिका ही प्रयोग करना उचित है। यदि उससे काम न चले तो धन या उपहार देनेकी नीतिको अपनाना चाहिये। इस दाननीतिके मूलमें भी यदि भेदनीतिका समावेश हो अर्थात् शत्रुओंमें फूट डालनेकी चेष्टा की जा रही हो तो उसे उत्तम माना गया है ।।
जब राजा साम, दान और भेद--तीनोंका प्रयोग निष्फल देखे, तब शत्रुकी दुर्बलताका पता लगाकर दूसरा कोई विचार मनमें न लाते हुए दण्डनीतिका ही प्रयोग करे--शत्रुके साथ युद्ध छेड़ दे ।।
जिसके नगर और जनपदमें रहनेवाले लोग समस्त प्राणियोंपर दया करनेवाले और धन-धान्यसे सम्पन्न होते हैं, उस राजाकी जड़ मजबूत समझी जाती है ।।
ये नगर और जनपदके लोग राष्ट्रके कार्यकी सिद्धि करनेवाले और उसके विरोधी भी होते हैं। उद्ण्ड और विनयशील भी होते हैं। उन सबको प्रयत्नपूर्वक अपने वशमें करना चाहिये ।।
चाण्डाल, म्लेच्छ, पाखण्डी, शास्त्र-विरुद्ध कर्म करनेवाले, बलवान, सभी आश्रमोंके निवासी तथा गायक और नर्तक--इन सबको प्रयत्नपूर्वक वशमें करना चाहिये। जिसके राज्यमें ये सब लोग धन-धान्यकी वृद्धि करनेवाले और आय बढ़ानेमें सहायक होकर रहते हैं, उस राजाकी जड़ मजबूत समझी जाती है ।।
बुद्धिमान् राजा जब अपने प्रतापको प्रकाशित करनेका उपयुक्त अवसर समझे, तभी दूसरेका राज्य और धन लेनेकी चेष्टा करे ।। ६ ।।
जिसके वैभव-भोग दिनोंदिन बढ़ रहे हों, जो सब प्राणियोंपर दया रखता हो, काम करनेमें फुर्तीला हो और अपने शरीरकी रक्षाका ध्यान रखता हो, उस राजाकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती है ।। ७ ।।
जो अच्छा बर्ताव करनेवाले स्वजनोंके प्रति मिथ्या व्यवहार करता है, वह इस बर्तावद्वारा कुल्हाड़ीसे जंगलकी भाँति अपने आपका ही उच्छेद कर डालता है ।। ८ ।।
यदि राजा कभी किसी द्वेष करनेवालेको दण्ड न दे तो उससे द्वेष करनेवालोंकी कमी नहीं होती है; परंतु जो क्रोधको मारनेकी कला जानता है, उसका कोई द्वेषी नहीं रहता है।।९।।
जिसे श्रेष्ठ पुरुष बुरा समझते हों, बुद्धिमान राजा वैसा कर्म कभी न करे। जिस कार्यको सबके लिये कल्याणकारी समझे, उसीमें अपने आपको लगावे ।।
जो राजा अपना कर्तव्य पूर्ण करके ही सुखका अनुभव करना चाहता है, उसका न तो दूसरे लोग अनादर करते हैं और न वह स्वयं ही संतप्त होता है ।। ११ ।।
जो राजा प्रजाके प्रति ऐसा बर्ताव करता है, वह इहलोक और परलोक दोनोंको जीतकर विजयमें प्रतिष्ठित होता है ।। १२ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! वामदेवजीके इस प्रकार उपदेश देनेपर राजा वसुमना सब कार्य उसी प्रकार करने लगे। यदि तुम भी ऐसा ही आचरण करोगे तो निः:संदेह लोक और परलोक दोनों सुधार लोगे || १३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वामदेवगीताविषयक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल १८ श्लोक हैं)
महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
पंचानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पंचानबेवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
विजयाभिलाषी राजाके धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीतिका वर्णन
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यदि कोई क्षत्रिय राजा दूसरे क्षत्रिय नरेशपर युद्धमें विजय पाना चाहे तो उसे अपनी जीतके लिये किस धर्मका पालन करना चाहिये? इस समय यही मेरा आपसे प्रश्न है, आप मुझे इसका उत्तर दीजिये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! पहले राजा सहायकोंके साथ अथवा बिना सहायकोंके ही जिसपर विजय पाना चाहता हो, उस राज्यमें जाकर वहाँके लोगोंसे कहे कि मैं तुम्हारा राजा हूँ और सदा तुमलोगोंकी रक्षा करूँगा, मुझे धर्मके अनुसार कर दो अथवा मेरे साथ युद्ध करो। उसके ऐसा कहनेपर यदि वे उस समागत नरेशका अपने राजाके रूपमें वरण कर लें तो सबकी कुशल हो ।। २-३ ।।
नरेश्वर! यदि वे क्षत्रिय न होकर भी किसी प्रकार विरोध करें तो वर्ण-विपरीत कर्ममें लगे हुए उन सब मनुष्योंका सभी उपायोंसे दमन करना चाहिये ।। ४ ।।
यदि उस देशका क्षत्रिय शस्त्रहीन हो और अपनी रक्षा करनेमें भी अपनेको अत्यन्त असमर्थ मानता हो तो वहाँका क्षत्रियेतर मनुष्य भी देशकी रक्षाके लिये शस्त्र ग्रहण कर सकता है ।। ५ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यदि कोई क्षत्रिय राजा दूसरे क्षत्रिय राजापर चढ़ाई कर दे तो उस समय उसे उसके साथ किस प्रकार युद्ध करना चाहिये यह मुझे बताइये ।। ६ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! जो कवच बाँधे हुए न हो, उस क्षत्रियके साथ रणभूमिमें युद्ध नहीं करना चाहिये। एक योद्धा दूसरे एकाकी योद्धासे कहे “तुम मुझपर शस्त्र छोड़ो। मैं भी तुमपर प्रहार करता हूँ” || ७ ।।
यदि वह कवच बाँधकर सामने आ जाय तो स्वयं भी कवच धारण कर ले। यदि विपक्षी सेनाके साथ आवे तो स्वयं भी सेनाके साथ आकर शत्रुकोी ललकारे ।। ८ ।।
यदि वह छलसे युद्ध करे तो स्वयं भी उसी रीतिसे उसका सामना करे और यदि वह धर्मसे युद्ध आरम्भ करे तो धर्मसे ही उसका सामना करना चाहिये ।।
घोड़ेके द्वारा रथीपर आक्रमण न करे। रथीका सामना रथीको ही करना चाहिये। यदि शत्रु किसी संकटमें पड़ जाय तो उसपर प्रहार न करे। डरे और पराजित हुए शत्रुपर भी कभी प्रहार नहीं करना चाहिये || १० ।।
युद्धमें विषलिप्त और कर्णी बाणका प्रयोग नहीं करना चाहिये। ये दुष्टोंके अस्त्र हैं। यथार्थ रीतिसे ही युद्ध करना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति युद्धमें किसीका वध करना चाहता हो तो उसपर क्रोध नहीं करना चाहिये (किंतु यथायोग्य प्रतीकार करना चाहिये) ।। ११
जब श्रेष्ठ पुरुषोंमें परस्पर भेद होनेसे कोई श्रेष्ठ पुरुष संकटमें पड़ जाय, तब उसपर प्रहार नहीं करना चाहिये। जो बलहीन और संतानहीन हो, उसपर तो किसी प्रकार भी आघात न करे ।। १२ ।।
जिसके शस्त्र टूट गये हों, जो विपत्तिमें पड़ गया हो, जिसके धनुषकी डोरी कट गयी हो तथा जिसके वाहन मार डाले गये हों, ऐसे मनुष्यपर भी प्रहार न करे। ऐसा पुरुष यदि अपने राज्यमें या अधिकारमें आ जाय तो उसके घावोंकी चिकित्सा करानी चाहिये अथवा उसे उसके घर पहुँचा देना चाहिये ।। १३ ।।
किंतु जिसके कोई घाव न हो, उसे न छोड़े। यह सनातनधर्म है। अत: धर्मके अनुसार युद्ध करना चाहिये, यह स्वायम्भुव मनुका कथन है ।। १४ ।।
सज्जनोंका धर्म सदा सत्पुरुषोंमें ही रहा है। अतः उसका आश्रय लेकर उसे नष्ट न करे। धर्मयुद्धमें तत्पर हुआ जो क्षत्रिय अधर्मसे विजय पाता है, छल-कपटको जीविकाका साधन बनानेवाला वह पापी स्वयं ही अपना नाश करता है || १५½ ।।
यह तो दुष्टोंका काम है। श्रेष्ठ पुरुषको तो दुष्टोपर भी धर्मसे ही विजय पानी चाहिये। धर्मपूर्वक युद्ध करते हुए मर जाना भी अच्छा है; परंतु पापकर्मके द्वारा विजय पाना अच्छा नहीं है ।। १६½।।
राजन! जैसे पृथ्वीमें बोये हुए बीजका फल तत्काल नहीं मिलता, उसी प्रकार किये हुए पापका भी फल तुरंत नहीं मिलता है; परंतु जब वह फल प्राप्त होता है, तब मूल और शाखा दोनोंको जलाकर भस्म कर देता है ।।
पापी मनुष्य पापकर्मके द्वारा धन पाकर हर्षसे खिल उठता है। वह पापी चोरीसे ही बढ़ता हुआ पापमें आसक्त हो जाता है और यह समझकर कि धर्म है ही नहीं, पवित्रात्मा पुरुषोंकी हँसी उड़ाता है। धर्ममें उसकी तनिक भी श्रद्धा नहीं रह जाती और पापके ही द्वारा वह विनाशके मुखमें जा पड़ता है। वह अपनेको देवताओं-सा अजर-अमर मानता है; परंतु उसे वरुणके पाशोंमें बँधना पड़ता है ।। १८--२० ।।
जैसे चमड़ेकी थैली हवा भरनेसे फूल जाती है, वैसे ही पापी भी पापसे फूल उठता है। वह पुण्यकर्ममें कभी प्रवृत्त ही नहीं होता है, तदनन्तर जैसे नदीके तटपर खड़ा हुआ वृक्ष वहाँसे जड़सहित उखड़कर नदीमें बह जाता है, उसी प्रकार वह पापी भी समूल नष्ट हो जाता है ।| २१ ।।
पत्थरपर पटके हुए घड़ेके समान उसके टूक-टूक हो जाते हैं और सभी लोग उसकी निन्दा करते हैं; अतः राजाको चाहिये कि वह धर्मपूर्वक ही धन और विजय प्राप्त करनेकी इच्छा करे || २२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें विजयाथिलाषी राजाका बर्तावविषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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