सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के एक सौ एकवें अध्याय से एक सौ पांचवें अध्याय तक (From the 101 chapter to the 105 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ एकवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ एकवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“भिन्न-भिन्न देशके योद्धाओंके स्वभाव, रूप, बल, आचरण और लक्षणोंका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--'भरतनन्दन! युद्धस्थलमें कैसे स्वभाव, किस तरहके आचरण और कैसे रूपवाले योद्धा ठीक समझे जाते हैं? उनके कवच और अस्त्र-शस्त्र भी कैसे होने चाहिये? ।। १ ।।

भीष्मजी बोले--'राजन! अस्त्र-शस्त्र और वाहन तो योद्धाओंके देश और कुलके आचारके अनुरूप ही होने चाहिये। वीर पुरुष अपने परम्परागत आचारके अनुसार ही सभी कार्योमें प्रवृत्त होता है ।। २ ।।

गान्धार, सिन्धु और सौवीर देशके योद्धा नखर (बघनखे) और प्राससे युद्ध करनेवाले हैं। वे बड़े बलवान्‌ और निडर होते हैं। उनकी सेना सबको लाँघ जानेवाली होती है ।।३।।

उशीनरदेशके वीर सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंमें कुशल और बड़े बलशाली होते हैं। पूर्वदेशके योद्धा हाथीपर सवार होकर युद्ध करनेकी कलामें कुशल हैं। वे कपटयुद्धके भी ज्ञाता हैं || ४ ।।

यवन, काम्बोज और मथुराके आस-पासके रहनेवाले योद्धा मल्लयुद्धमें निपुण होते हैं। तथा दक्षिण देशोंके निवासी हाथोंमें तलवार लिये रहते हैं। (वे तलवार चलाना अच्छा जानते हैं) ।। ५ ।।

प्रायः सभी देशोंमें महान्‌ धैर्यशशाली, महाबली एवं शूरवीर पैदा होते हैं। उन सबका उल्लेख अधिकतर किया जा चुका है। अब तुम मुझसे उनके लक्षण सुनो ।।

जिनकी वाणी, नेत्र तथा चाल-ढाल सिंहों या बाघोंके समान होती है और जिनकी आँखें कबूतर या गौरैयेके समान होती हैं, वे सभी शूरवीर एवं शत्रुसेनाको मथ डालनेवाले होते हैं ।। ७ ।।

जिनका कण्ठस्वर मृगोंके समान और नेत्र बाघ एवं बैलोंके तुल्य होते हैं, वे वीर वेगशाली, असावधान और मूर्ख हुआ करते हैं। जिनका कण्ठनाद किंकिणीके समान मधुर हो, वे स्वभावके बड़े क्रोधी होते हैं ।। ८ ।।

जिनकी गर्जना मेघके समान, मुख क्रोधयुक्त, शरीर ऊँटकी तरह तथा नाक और जीभ टेढ़ी हो, वे बहुत दूरतक दौड़नेवाले तथा सुदूरवर्ती लक्ष्यको भी मार गिरानेवाले होते हैं ।। ९ ।।

जिनका शरीर बिलावके समान कुबड़ा तथा सिरके बाल और देहकी खाल पतले होते हैं, वे शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलानेवाले चंचल और दुर्जय होते हैं || १० ।।

जो गोहटीके समान आँखें बन्द किये रहते हैं, जिनका स्वभाव कोमल होता है तथा जिनके चलनेपर घोड़ेकी टाप पड़ने-जैसी आवाज होती है, वे मनुष्य युद्धके पार पहुँच जाते हैं ।। ११ ।।

जिनके शरीर गठीले, छाती चौड़ी और अंग-प्रत्यंग सुडौल होते हैं, जो युद्धमें डटकर खड़े होनेवाले हैं, वे वीर पुरुष युद्धका धौसा सुनते ही कुपित हो उठते हैं। उन्हें लड़नेभिड़नेमें ही आनन्द आता है ।। १२ ।।

जिनकी आँखें गहरी हैं अथवा बड़ी होनेके कारण निकली हुई-सी प्रतीत होती हैं या जिनके नेत्र पिंगलवर्णके हैं अथवा जिनकी आँखें नेवलेके समान भूरी-भूरी हैं और जिनके मुखपर भौंहें तनी रहती हैं, ऐसे लक्षणोंवाले सभी मनुष्य शूरवीर तथा रणभूमिमें शरीरका त्याग करनेवाले होते हैं ।। १३ ।।

जिनकी आँखें तिरछी, ललाट ऊँचे और ठोड़ी मांसहीन एवं दुबली-पतली है, जिनकी भुजाओंपर वज्रका और अंगुलियोंपर चक्रका चिह्न होता है तथा जिनके शरीरकी नसनाड़ियाँ दिखायी देती हैं, वे युद्ध उपस्थित होते ही बड़े वेगसे शत्रुओंकी सेनामें घुस जाते हैं और मततवाले हाथियोंके समान शत्रुओंके लिये दुर्जय होते हैं | १४-१५ 

जिनके केशोंके अग्रभाग पीले और छितराये हुए हैं, पसलियाँ, ठोड़ी और मुँह लंबे एवं मोटे हैं, कंधे ऊँचे, गर्दन मोटी और पिण्डली भारी हैं, जो देखनेमें विकट जान पढ़ते हैं, सुग्रीव जातिवाले अश्वोंके समान तथा गरुड़ पक्षीकी भाँति उद्धृत स्वभावके हैं, जिनके सिर गोल और मुख विशाल हैं, जो बिलाव-जैसा मुख धारण करते हैं तथा जिनके स्वरमें कठोरता है, वे बड़े क्रोधी होते हैं और युद्धमें गर्जना करते हुए विचरते हैं। उन्हें धर्मका ज्ञान नहीं होता। वे घमंडमें भरे हुए घोर आकृतिवाले दिखायी देते हैं। उनका दर्शन ही बड़ा भयंकर है | १६--१८ ।।

ये सब-के-सब अन्त्यज (कोल-भील आदि) हैं, जो युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते और शरीरका मोह छोड़कर लड़ते हैं। सेनामें ऐसे लोगोंको सदा पुरस्कार देना चाहिये और इन्हें सदा आगे-आगे रखना चाहिये। ये धैर्यपूर्वक शत्रुओंकी मार सहते और उन्हें भी मारते हैं ।।

ये अधर्मी होते हैं, धर्मकी मर्यादा भंग कर देते हैं। इसी तरह ये बारंबार राजापर भी कुपित हो उठते हैं; अतः इन्हें मीठी-मीठी बातोंसे समझा-बुझाकर ही काबूमें करना चाहिये ।। २० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें विजयाभिलाषी राजाका बरताविविषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ दोवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ दोवें अध्याय के श्लोक 1-41 का हिन्दी अनुवाद)

“विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणोंका तथा उत्साही और बलवान सैनिकोंका वर्णन एवं राजाको युद्धसम्बन्धी नीतिका निर्देश”

युधिष्ठिरने पूछा--“भरतश्रेष्ठ] विजय पानेवाली सेनाके कौन-कौन-से शुभ लक्षण होते हैं? यह मैं जानना चाहता हूँ ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--भरतभूषण! विजय पानेवाली सेनाके समक्ष जो-जो शुभ लक्षण प्रकट होते हैं, उन सबका वर्णन करता हूँ, सुनो || २ ।।

कालसे प्रेरित हुए मनुष्यपर पहले दैवका प्रकोप होता है। उसे विद्वान्‌ पुरुष जब ज्ञानमयी दिव्यदृष्टिसे देख लेते हैं, तब उसके प्रतीकारको जाननेवाले वे पुरुष उसके प्रायश्चित्तका विधान--जप, होम आदि मांगलिक कृत्य करते हैं और उस अहितकारक दैवी उपद्रवको शान्त कर देते हैं ।। ३-४ ।।

भरतनन्दन! जिस सेनाके योद्धा और वाहन मनमें प्रसन्न एवं उत्साहयुक्त होते हैं, उसकी उत्तम विजय अवश्य होती है ।। ५ ।।

यदि सेनाकी रणयात्राके समय सैनिकोंके पीछेसे मन्द-मन्द वायु प्रवाहित हो, सामने इन्द्रधनुषका उदय हो, बार-बार बादलोंकी छाया होती रहे और सूर्यकी किरणोंका भी प्रकाश फैलता रहे तथा गीदड़, गीध और कौए भी अनुकूल दिशामें आ जाया तो निश्चय ही उस सेनाको परम उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है ।। ६-७ ।।

यदि बिना धुएँकी आग प्रज्वलित हो, उसकी ज्वाला निर्मल हो और लपटें ऊपरकी ओर उठ रही हों अथवा उस अग्निकी शिखाएँ दाहिनी ओर जाती दिखायी देती हों तथा आहुतियोंकी पवित्र गन्ध प्रकट हो रही हो तो इन सबको भावी विजयका शुभ चिह्न बताया गया है || ८ ।।

जहाँ शंखोंकी गम्भीर ध्वनि और रणभेरीकी ऊँची आवाज फैल रही हो, युद्धकी इच्छा रखनेवाले सैनिक सर्वथा अनुकूल हों तो वहाँके लिये इसे भी भावी विजयका सूचक शुभ लक्षण कहा गया है ।। ९ |।

सेनाके प्रस्थान करते समय अथवा जानेके लिये तैयारी करते समय यदि इष्ट मृग पीछे और बायें आ जायाँ तो इच्छित फल प्रदान करते हैं। तथा युद्ध करते समय दाहिने हो जायाँ तो वे सिद्धिकी सूचना देते हैं; किंतु यदि सामने आ जायाँ तो उस युद्धकी यात्राका निषेध करते हैं ।। १० ।।

जब हंस, क्रौंच, शतपत्र और नीलकण्ठ आदि पक्षी मंगलसूचक शब्द करते हों और सैनिक हर्ष तथा उत्साहसे सम्पन्न दिखायी देते हों तो यह भी भावी विजयका शुभ लक्षण बताया गया है ।। ११ ।।

जिनकी सेना भाँति-भाँतिके शस्त्र, कवच, यन्त्र तथा ध्वजाओंसे सुशोभित हो, जिनके नौजवान सैनिकोंके मुखकी सुन्दर प्रभामयी कान्तिसे प्रकाशित होती हुई सेनाकी ओर शत्रुओंको देखनेका भी साहस न होता हो, वे निश्चय ही शत्रुदलको परास्त कर सकते हैं ।। १२ ।।

जिनके योद्धा स्वामीकी सेवामें उत्साह रखनेवाले, अहंकाररहित, आपसमें एकदूसरेका हित चाहनेवाले तथा शौचाचारका पालन करनेवाले हों, उनकी होनेवाली विजयका यही शुभ लक्षण बताया गया है ।। १३ ।।

जब योद्धाओंके मनको प्रिय लगनेवाले शब्द, स्पर्श और गन्ध सब ओर फैल रहे हों तथा उनके भीतर धैर्यका संचार हो रहा हो तो वह विजयका द्वार माना जाता है ।। १४।।

यदि कौआ युद्धमें प्रवेश करते समय दाहिने भागमें और प्रविष्ट हो जानेके बाद बायें भागमें आ जाय तो शुभ है। पीछेकी ओर होनेसे भी वह कार्यकी सिद्धि करता है; परंतु सामने होनेपर विजयमें बाधा डालता है || १५ ।।

युधिष्ठिर! विशाल चतुरंगिणी सेना एकत्र कर लेनेके बाद भी तुम्हें पहले सामनीतिके द्वारा शत्रुसे सन्धि करनेका ही प्रयास करना चाहिये। यदि वह सफल न हो तो युद्धके लिये प्रयत्न करना उचित है ।।

युधिष्ठिर! विशाल चतुरंगिणी सेना एकत्र कर लेनेके बाद भी तुम्हें पहले सामनीतिके द्वारा शत्रुसे सन्धि करनेका ही प्रयास करना चाहिये। यदि वह सफल न हो तो युद्धके लिये प्रयत्न करना उचित है ।।

भरतनन्दन! युद्ध करके जो विजय प्राप्त होती है, उसे निकृष्ट ही माना गया है। युद्धसम्बन्धी विजय अचानक प्राप्त होती है या दैवेच्छासे; यह बात विचारणीय ही होती है। इसका पहलेसे कोई निश्चय नहीं रहता ।। १७ ।।

यदि विशाल सेनामें भगदड़ मच जाती है तो उसे जलके महान्‌ वेगके समान तथा भयभीत हुए महामृगोंके समान रोकना अत्यन्त कठिन हो जाता है || १८ ।।

विशाल सेना मृगोंके झुंडके समान होती है। उसमें कितने ही बलवान्‌ वीर क्‍यों न भरे हों, कुछ लोग भाग रहे हैं--इतना ही देखकर सब भागने लगते हैं। यद्यपि उन्हें भागनेका कारण नहीं मालूम रहता है ।। १९ ।।

एक-दूसरेको जाननेवाले, हर्ष और उत्साहसे परिपूर्ण, प्राणोंका मोह छोड़ देनेवाले तथा मरने-मारनेके दृढ़ निश्चयसे युक्त पचास शूरवीर भी सारी शत्रु-सेनाका संहार कर सकते हैं || २० ।।

अच्छे कुलमें उत्पन्न, परस्पर संगठित तथा राजाद्वारा सम्मानित पाँच, छः या सात वीर भी यदि दृढ़ निश्चयके साथ युद्धस्थलमें डटे रहें तो युद्धमें शत्रुओंपर भलीभाँति विजय पा सकते हैं || २१ ।।

जबतक किसी तरह सन्धि हो सकती हो, तबतक युद्धको स्वीकार नहीं करना चाहिये। पहले सामनीतिसे समझावे। इससे काम न चले तो भेदनीतिके अनुसार शत्रुओंमें फूट डाले। इसमें भी सफलता न मिले तो दाननीतिका प्रयोग करे--धन देकर शत्रुके सहायकोंको वशमें करनेकी चेष्टा करे। इन तीनों उपायोंके सफल न होनेपर अन्तमें युद्धका आश्रय लेना उचित बताया गया है || २२ ।।

शत्रुकी सेनाको देखते ही कायरोंको भय सताने लगता है, मानो उनके ऊपर प्रज्वलित वज्र गिरनेवाला हो। वे सोचते हैं, न जाने यह सेना किसके ऊपर पड़ेगी? ।। २३ ।।

जो युद्धको उपस्थित हुआ जानकर उसकी ओर दौड़ पड़ते हैं, उन वीरोंके शरीरमें विजयकी आशासे आनन्दजनित पसीनेके बिन्दु प्रकट हो जाते हैं || २४ ।।

राजन! युद्ध उपस्थित होनेपर स्थावर-जंगम प्राणियोंसहित समस्त देश ही व्यथित हो उठता है और अस्त्रोंके प्रतापसे संतप्त हुए देहधारियोंकी मज्जा भी सूखने लगती है || २५ |।

उन देशवासियोंके प्रति कठोरताके साथ-साथ सान्त्वनापूर्ण मधुर वचनोंका बारंबार प्रयोग करना चाहिये; अन्यथा केवल कठोर वचनोंसे पीड़ित हो वे सब ओरसे जाकर शत्रुओंके साथ मिल जाते हैं || २६ ।।

शत्रुके मित्रोंमें फूट डालनेके लिये गुप्तचरोंको भेजना चाहिये और जो शत्रुसे भी बलवान्‌ राजा हो, उसके साथ सन्धि करना श्रेष्ठ है ।। २७ ।।

अन्यथा उसको वैसी पीड़ा नहीं दी जा सकती, जैसी कि उसके शत्रुके साथ सन्धि करके दी जा सकती है। युद्ध इस प्रकार करना चाहिये, जिससे शत्रुपक्ष सब ओरसे संकटमें पड़ जाय ।। २८ ।।

कुन्तीनन्दन! सत्पुरुषोंको ही सदा क्षमा करना आता है, दुष्टोंको नहीं। क्षमा करने और न करनेका प्रयोजन बताता हूँ; इसे सुनो और समझो ।। २९ |।

जो राजा शत्रुओंको जीत लेनेके बाद उनके अपराध क्षमा कर देता है, उसका यश बढ़ता है। उसके प्रति महान्‌ अपराध करनेपर भी शत्रु उसपर विश्वास करते हैं || ३० ।।

शम्बरासुरका मत है कि पहले शत्रुको पीड़ाद्वारा अत्यन्त दुर्बल करके फिर उसके प्रति क्षमाका प्रयोग करना ठीक है; क्योंकि यदि टेढ़ी लकड़ीको बिना गर्म किये ही सीधी किया जाय तो वह फिर ज्यों-की-त्यों हो जाती है || ३१ ।।

परंतु आचार्यगण इस बातकी प्रशंसा नहीं करते हैं; क्योंकि यह साधु पुरुषोंका दृष्टान्त नहीं है। राजाको चाहिये कि वह पुत्रकी ही भाँति अपने शत्रुको भी बिना क्रोध किये ही वशमें करे; उसका विनाश न करे ।। ३२ ।।

युधिष्ठिर! राजा यदि उग्रस्वभावका हो जाय तो वह समस्त प्राणियोंके द्वेषका पात्र बन जाता है और यदि सर्वथा कोमल हो जाय तो सभी उसकी अवहेलना करने लगते हैं; इसलिये उसे आवश्यकतानुसार उग्रता और कोमलता दोनोंसे काम लेना चाहिये ।। ३३ ।।

भरतनन्दन! राजा शत्रुपर प्रहार करनेसे पहले और प्रहार करते समय भी उससे प्रिय वचन ही बोले। प्रहारके बाद भी शोक प्रकट करते और रोते हुए-से उसके प्रति दया दिखावे ।। ३४ ।।

वह शत्रुकी सुनाकर इस प्रकार कहे--“ओह! इस युद्धमें मेरे सिपाहियोंने जो इतने वीरोंको मार डाला है, यह मुझे अच्छा नहीं लगा है; परंतु क्या करूँ? बारंबार कहनेपर भी ये मेरी बात नहीं मानते हैं || ३५ ।।

“अहो! सभी लोग अपने प्राणोंकी रक्षा करना चाहते हैं; अतः ऐसे पुरुषका वध करना उचित नहीं है। संग्राममें पीठ न दिखानेवाले सत्पुरुष इस संसारमें अत्यन्त दुर्लभ हैं। मेरे जिन सैनिकोंने युद्धमें इस श्रेष्ठ वीरका वध किया है, उनके द्वारा मेरा बड़ा अप्रिय कार्य हुआ है। शत्रुपक्षके सामने वाणीद्वारा इस प्रकार खेद प्रकट करके राजा एकान्तमें जानेपर अपने उन बहादुर सिपाहियोंकी प्रशंसा करे, जिन्होंने शत्रुपक्षके प्रमुख वीरोंका वध किया हो ।। ३६-३७ ।।

इसी तरह शत्रुओंको मारनेवाले अपने पक्षके वीरोंमेंसे जो हताहत हुए हों, उनकी हानिके लिये इस प्रकार दुःख प्रकट करे, जैसे अपराधी किया करते हैं। जनमतको अपने अनुकूल करनेकी इच्छासे जिसकी हानि हुई हो, उसकी बाँह पकड़कर सहानुभूति प्रकट करते हुए जोर-जोरसे रोवे और विलाप करे || ३८ ।।

इस प्रकार सब अवस्थाओंमें जो सान्त्वनापूर्ण बर्ताव करता है, वह धर्मज्ञ राजा सब लोगोंका प्रिय एवं निर्भय हो जाता है ।। ३९ ।।

भरतनन्दन! उसके ऊपर सब प्राणी विश्वास करने लगते हैं। विश्वासपात्र हो जानेपर वह सबके निकट रहकर इच्छानुसार सारे राष्ट्रका उपभोग कर सकता है || ४० ।

अतः जो राजा इस पृथ्वीका राज्य भोगना चाहता है, उसे चाहिये कि छल-कपट छोड़कर अपने ऊपर समस्त प्राणियोंका विश्वास उत्पन्न करे और इस भूमण्डलकी सब ओरसे पूर्णरूपसे रक्षा करे || ४१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें सेनानीतिका वर्णनविषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ तीनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ तीनवें अध्याय के श्लोक 1-53 का हिन्दी अनुवाद)

“शत्रुको वशमें करनेके लिये राजाको किस नीतिसे काम लेना चाहिये और दुष्टोंको कैसे पहचानना चाहिये--इसके विषयमें इन्द्र और बृहस्पतिका संवाद”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! पृथ्वीपते! जिसका पक्ष प्रबल और महान्‌ हो, वह शत्रु यदि कोमल स्वभावका हो तो उसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये और यदि वह तीक्ष्ण स्वभावका हो तो उसके साथ पहले किस तरहका बर्ताव करना राजाके लिये उचित है, यह मुझे बताइये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--'युधिष्ठिर! इस विषयमें विद्वान्‌ पुरुष बृहस्पति और इन्द्रके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। २ ।।

एक समयकी बात है, शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले देवराज इन्द्रने बृहस्पतिजीके पास जा उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा ।। ३ ।।

इन्द्र बोले--ब्रह्मन्‌! मैं आलस्यरहित हो अपने शत्रुओंके प्रति कैसा बर्ताव करूँ? उन सबका समूलोच्छेद किये बिना ही उन्हें किस उपायसे वशमें करूँ? ।। ४ ।।

दो सेनाओंमें परस्पर भिड़न्त हो जानेपर विजय दोनों पक्षोंके लिये साधारण-सी वस्तु हो जाती है (अमुक पक्षकी ही जीत होगी, यह नियम नहीं रह जाता)। अतः मुझे क्या करना चाहिये, जिससे शत्रुओंको संताप देनेवाली यह समुज्ज्वल राज्यलक्ष्मी मुझे कभी न छोड़े || ५ ।।

उनके इस प्रकार पूछनेपर धर्म, अर्थ और कामके प्रतिपादनमें कुशल, प्रतिभाशाली तथा राजधर्मके विधानको जाननेवाले बृहस्पतिने इन्द्रको इस प्रकार उत्तर दिया ।। ६ 

बृहस्पतिजी बोले--राजन्‌! कोई भी राजा कभी कलह या युद्धके द्वारा शत्रुओंको वशमें करनेकी इच्छा न करे। असहनशीलता अथवा क्षमाको छोड़ना, यह बालकों या मूर्खोद्वारा सेवित मार्ग है ।। ७ ।।

शत्रुके वधकी इच्छा रखनेवाले राजाको चाहिये कि वह क्रोध, भय और हर्षको अपने मनमें ही रोक ले तथा शत्रुकी सावधान न करे ।। ८ ।।

भीतरसे विश्वास न करते हुए भी बाहरसे विश्वस्त पुरुषकी भाँति अपना भाव प्रदर्शित करते हुए शत्रुकी सेवा करे। सदा उससे प्रिय वचन ही बोले, कभी कोई अप्रिय बर्ताव न करे ।। ९ ।।

पुरंदर! सूखे वैरसे अलग रहे, कण्ठको पीड़ा देनेवाले वाद-विवादको त्याग दे। जैसे व्याध अपने कार्यमें सावधानीके साथ संलग्न हो पक्षियोंको फँसानेके लिये उन्हींके समान बोली बोलता है और मौका पाकर उन पक्षियोंको वशमें कर लेता है, उसी प्रकार उद्योगशील राजा धीरे-धीरे शत्रुओंको वशमें कर ले। तत्पश्चात्‌ उन्हें मार डाले || १०-११

इन्द्र! जो सदा शत्रुओंका तिरस्कार ही करता है, वह सुखसे सोने नहीं पाता। वह दुष्टात्मा नरेश बाँस और घास-फूसमें प्रज्वलित हो चट-चट शब्द करनेवाली आगके समान सदा जागता ही रहता है || १२ ।।

प्रभो! जब युद्धमें विजय एक सामान्य वस्तु है (किसीको भी वह मिल सकती है), तब उसके लिये पहले ही युद्ध नहीं करना चाहिये, अपितु शत्रुको अच्छी तरह विश्वास दिलाकर वशमें कर लेनेके पश्चात्‌ अवसर देखकर उसके सारे मनसूबेको नष्ट कर देना चाहिये ।। १३ ।।

शत्रुके द्वारा उपेक्षा अथवा अवहेलना की जानेपर भी राजा अपने मनमें हिम्मत न हारे। वह मन्त्रियोंसहित मन्त्रवेत्ता महापुरुषोंके साथ कर्त्तव्यका निश्चय करके समय आनेपर जब शत्रुकी स्थिति कुछ डाँवाडोल हो जाय, तब उसपर प्रहार करे और विश्वासपात्र पुरुषोंको भेजकर उनके द्वारा शत्रुकी सेनामें फूट डलवा दे ।।

राजा शत्रुके राज्ययी आदि, मध्य और अन्तिम सीमाको जानकर गुप्तरूपसे मन्त्रियोंके साथ बैठकर अपने कर्तव्यका निश्चय कर तथा शत्रुकी सेनाकी संख्या कितनी है, इसको अच्छी तरह जानते हुए ही उसमें फूट डलवानेकी चेष्टा करे || १६ ।।

राजाको चाहिये कि वह दूर रहकर गुप्तचरोंद्वारा शत्रुकी सेनामें मतभेद पैदा करे। घूस देकर लोगोंको अपने पक्षमें करनेकी चेष्टा करे अथवा उनके ऊपर विभिन्न औषधोंका प्रयोग करे; परंतु किसी तरह भी शत्रुओंके साथ प्रकटरूपसे साक्षात्‌ सम्बन्ध स्थापित करनेकी इच्छा न करे || १७ ।।

अनुकूल अवसर पानेके लिये कालक्षेप ही करता रहे। उसके लिये दीर्घ कालतक भी प्रतीक्षा करनी पड़े तो करे, जिससे शत्रुओंको भलीभाँति विश्वास हो जाय। तदनन्तर मौका पाकर उन्हें मार ही डाले ।। १८ ।।

राजा शत्रुओंपर तत्काल आक्रमण न करे। अवश्यम्भावी विजयके उपायपर विचार करे। न तो उसपर विषका प्रयोग करे और न उसे कठोर वचनोंद्वारा ही घायल करे ।। १९ ||

देवेन्द्र! जो शत्रुको मारना चाहता है, उस पुरुषके लिये बारंबार मौका हाथमें नहीं लगता; अत: जब कभी अवसर मिल जाय, उस समय उसपर अवश्य प्रहार करे ।।

समयकी प्रतीक्षा करनेवाले पुरुषके लिये जो उपयुक्त अवसर आकर भी चला जाता है, वह अभीष्ट कार्य करनेकी इच्छावाले उस पुरुषके लिये फिर दुर्लभ हो जाता है | २१ ।।

श्रेष्ठ पुरुषोंकी सम्मति लेकर अपने बलको सदा बढ़ाता रहे। जबतक अनुकूल अवसर न आये, तबतक अपने मित्रोंकी संख्या बढ़ावे और शत्रुको भी पीड़ा न दे; परंतु अवसर आ जाय तो शत्रुपर प्रहार करनेसे न चूके || २२ ।।

काम, क्रोध तथा अहंकारको त्यागकर सावधानीके साथ बारंबार शत्रुओंके छिठद्रोंको देखता रहे ।। २३ ।।

सुरश्रेष्ठ इन्द्र! कोमलता, दण्ड, आलस्य, असावधानी और शत्रुओंद्वारा अच्छी तरह प्रयोग की हुई माया--ये अनभिज्ञ राजाको बड़े कष्टमें डाल देते हैं || २४ ।।

कोमलता, दण्ड, आलस्य और प्रमाद--इन चारोंको नष्ट करके शत्रुकी मायाका भी प्रतीकार करे। तत्पश्चात्‌ वह बिना विचारे शत्रुओंपर प्रहार कर सकता है || २५ ।।

राजा अकेला ही जिस गुप्त कार्यको कर सके, उसे अवश्य कर डाले; क्‍योंकि मन्त्रीलोग कभी-कभी गुप्त विषयको प्रकाशित कर देते हैं और नहीं तो आपसमें ही एकदूसरेको सुना देते हैं | २६ ।।

जो कार्य अकेले करना असम्भव हो जाय, उसीके लिये दूसरोंके साथ बैठकर विचारविमर्श करे। यदि शत्रु दूरस्थ होनेके कारण दृष्टिगोचर न हो तो उसपर ब्रह्मदण्डका प्रयोग करे और यदि शत्रु निकटवर्ती होनेके कारण दृष्टिगोचर हो तो उसपर चतुरंगिणी सेना भेजकर आक्रमण करे ।। २७ ।।

राजा शत्रुके प्रति पहले भेदनीतिका प्रयोग करे। तत्पश्चात्‌ वह उपयुक्त अवसर आनेपर भिन्न-भिन्न शत्रुके प्रति भिन्न-भिन्न समयमें चुपचाप दण्डनीतिका प्रयोग करे || २८ ।।

यदि बलवान शत्रुसे पाला पड़ जाय और समय उसीके अनुकूल हो तो राजा उसके सामने नतमस्तक हो जाय और जब वह शत्रु असावधान हो, तब स्वयं सावधान और उद्योगशील होकर उसके वधके उपायका अन्वेषण करे ।। २९ |।।

राजाको चाहिये कि वह मस्तक झुकाकर, दान देकर तथा मीठे वचन बोलकर शत्रुका भी मित्रके समान ही सेवन करे। उसके मनमें कभी संदेह न उत्पन्न होने दे || ३० ।।

जिन शत्रुओंके मनमें संदेह उत्पन्न हो गया हो, उनके निकटवर्ती स्थानोंमें रहना या आना-जाना सदाके लिये त्याग दे। राजा उनपर कभी विश्वास न करे; क्योंकि इस जगत्‌में उसके द्वारा तिरस्कृत या क्षतिग्रस्त हुए शत्रुगण सदा बदला लेनेके लिये सजग रहते हैं । ३१ ।।

देवेश्वर! सुरश्रेष्ठ) नाना प्रकारके व्यवहारचतुर लोगोंके ऐश्वर्यपर शासन करना जितना कठिन काम है, उससे बढ़कर दुष्कर कर्म दूसरा कोई नहीं है || ३२ ।।

वैसे भिन्न-भिन्न व्यवहारचतुर लोगोंके ऐश्वर्यपर भी शासन करना तभी सम्भव बताया गया है, जब कि राजा मनोयोगका आश्रय ले सदा इसके लिये प्रयत्नशील रहे और कौन मित्र है तथा कौन शत्रु; इसका विचार करता रहे ।। ३३ ।।

मनुष्य कोमल स्वभाववाले राजाका अपमान करते हैं और अत्यन्त कठोर स्वभाववालेसे भी उद्विग्न हो उठते हैं; अत: तुम न कठोर बनो, न कोमल। समय-समयपर कठोरता भी धारण करो और कोमल भी हो जाओ ।। ३४ ।।

जैसे जलका प्रवाह बड़े वेगसे बह रहा हो और सब ओर जल-ही-जल फैल रहा हो, उस समय नदीतटके विदीर्ण होकर गिर जानेका सदा ही भय रहता है। उसी प्रकार यदि राजा सावधान न रहे तो उसके राज्यके नष्ट होनेका खतरा बना रहता है || ३५ 

पुरंदर! बहुत-से शत्रुओंपर एक ही साथ आक्रमण नहीं करना चाहिये। साम, दान, भेद और दण्डके द्वारा इन शत्रुओंमेंसे एक-एकको बारी-बारीसे कुचलकर शेष बचे हुए शत्रुको पीस डालनेके लिये कुशलतापूर्वक प्रयत्न आरम्भ करे। बुद्धिमान्‌ राजा शक्तिशाली होनेपर भी सब शत्रुओंको कुचलनेका कार्य एक ही साथ आरम्भ न करे ।। ३६-३७।।

जब हाथी, घोड़े और रथोंसे भरी हुई और बहुत-से पैदलों तथा यन्त्रोंसे सम्पन्न, छः“ अंगोंवाली विशाल सेना स्वामीके प्रति अनुरक्त हो, जब शत्रुकी अपेक्षा अपनी अनेक प्रकारसे उन्नति होती जान पड़े, उस समय राजा दूसरा कोई विचार मनमें न लाकर प्रकटरूपसे डाकू और लुटेरोंपर प्रहार आरम्भ कर दे ।। ३८-३९ ।।

शत्रुके प्रति सामनीतिका प्रयोग अच्छा नहीं माना जाता, बल्कि गुप्तरूपसे दण्डनीतिका प्रयोग ही श्रेष्ठ समझा जाता है। शत्रुओंके प्रति न तो कोमलता और न उनपर आक्रमण करना ही सदा ठीक माना जाता है। उनकी खेतीको चौपट करना तथा वहाँके जल आदिमें विष मिला देना भी अच्छा नहीं है। इसके सिवा, सात प्रकृतियोंपर विचार करना भी उपयोगी नहीं है (उसके लिये तो गुप्त दण्डका प्रयोग ही श्रेष्ठ है) || ४० ।।

राजा विश्वस्त मनुष्योंद्वारा शत्रुके नगर और राज्यमें नाना प्रकारके छल और परस्पर वैर-विरोधकी सृष्टि कर दे। इसी तरह छद्मवेषमें वहाँ अपने गुप्तचर नियुक्त कर दे; परंतु अपने यशकी रक्षाके लिये वहाँ अपनी ओरसे चोरी या गुप्त हत्या आदि कोई पापकर्म न होने दे || ४१ ।।

बल और वृत्रासुरको मारनेवाले इन्द्र! पृथ्वीका पालन करनेवाले राजालोग पहले इन शत्रुओंके नगरोंमें विधिपूर्वक व्यवहारमें लायी हुई नीतिका प्रयोग करके दिखावें। इस प्रकार उनके अनुकूल व्यवहार करके वे उनकी राजधानीमें सारे भोगोंपर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं ।। ४२ ।।

देवराज! राजा अपने ही आदमियोंके विषयमें यह प्रचार कर देते हैं कि “ये लोग दोषसे दूषित हो गये हैं; अतः मैंने इन दुष्टोंको राज्यसे बाहर निकाल दिया है। ये दूसरे देशमें चले गये हैं। ऐसा करके उन्हें वह शत्रुओंके राज्यों और नगरोंका भेद लेनेके कार्यमें नियुक्त कर देते हैं। ऊपरसे तो वे उनकी सारी भोग-सामग्री छीन लेते हैं; परंतु गुप्तरूपसे उन्हें प्रचुर धन अर्पित करके उनके साथ कुछ अन्य आत्मीय जनोंको भी लगा देते हैं ।। ४३ 

इसी तरह अन्यान्य शास्त्रज्ञ शास्त्रीय विधिके ज्ञाता सुशिक्षित तथा भाष्यकथाविशारद विद्वानोंको वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत करके उनके द्वारा शत्रुओंपर कृत्याका प्रयोग करावे ।। ४४ ।।

इन्द्रने पूछा--द्विजश्रेष्ठ! दुष्टके कौन-कौन-से लक्षण हैं? मैं दुष्टको कैसे पहचानू? मेरे इस प्रश्नका मुझे उत्तर दीजिये || ४५ ।।

बृहस्पतिजीने कहा--देवराज! जो परोक्षमें किसी व्यक्तिके दोष-ही-दोष बताता है, उसके सदगुणोंमें भी दोषारोपण करता रहता है और यदि दूसरे लोग उसके गुणोंका वर्णन करते हैं तो जो मुँह फेरकर चुप बैठ जाता है, वही दुष्ट माना जाता है || ४६ ।।

चुप बैठनेपर भी उस व्यक्तिकी दुष्टताको इस प्रकार जाना जा सकता है। निःश्वास छोड़नेका कोई कारण न होनेपर भी जो किसीके गुणोंका वर्णन होते समय लंबी-लंबी साँस छोड़े, ओठ चबाये और सिर हिलाये, वह दुष्ट है || ४७ ।

जो बारंबार आकर संसर्ग स्थापित करता है, दूर जानेपर दोष बताता है, कोई कार्य करनेकी प्रतिज्ञा करके भी आँखसे ओझल होनेपर उस कार्यको नहीं करता है और आँखके सामने होनेपर भी कोई बातचीत नहीं करता, उसके मनमें भी दुष्टता भरी है, ऐसा जानना चाहिये ।। ४८ ।।

जो कहींसे आकर साथ नहीं, अलग बैठकर खाता है और कहता है, आजका जैसा भोजन चाहिये, वैसा नहीं बना है (वह भी दुष्ट है)। इस प्रकार बैठने, सोने और चलने-फिरने आदिदमें दुष्ट व्यक्तिके दुष्टतापूर्ण भाव विशेषरूपसे देखे जाते हैं || ४९ ।।

यदि मित्रके पीड़ित होनेपर किसीको स्वयं भी पीड़ा होती हो और मित्रके प्रसन्न रहनेपर उसके मनमें भी प्रसन्नता छायी रहती हो तो यही मित्रके लक्षण हैं। इसके विपरीत जो किसीको पीड़ित देखकर प्रसन्न होता और प्रसन्न देखकर पीड़ाका अनुभव करता है तो समझना चाहिये कि यह शत्रुके लक्षण हैं || ५० ।।

देवेश्वर! इस प्रकार जो मनुष्योंके लक्षण बताये गये हैं, उनको समझना चाहिये। दुष्ट पुरुषोंका स्वभाव अत्यन्त प्रबल होता है ।। ५१ ।।

सुरश्रेष्ठ! देवेश्वर! शास्त्रके सिद्धान्तका यथावत्‌ रूपसे विचार करके ये मैंने तुमसे दुष्ट पुरुषकी पहचान करानेवाले लक्षण बताये हैं ।। ५२ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! शत्रुओंके संहारमें तत्पर रहनेवाले शत्रुनाशक इन्द्रने बृहस्पतिजीका वह यथार्थ वचन सुनकर वैसा ही किया। उन्होंने उपयुक्त समयपर विजयके लिये यात्रा की और समस्त शत्रुओंको अपने अधीन कर लिया ।। ५३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमानुशासनपर्वमें इन्द्र और ब॒हस्पतिका संवादविषयक एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टीका टिप्पणी ;–

  • हाथी, घोड़े, रथ, पैदल, कोश और धनी वैश्य--ये सेनाके छः: अंग हैं।

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ चारवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ चारवें अध्याय के श्लोक 1-58½ का हिन्दी अनुवाद)

“राज्य, खजाना और सेना आदिसे वंचित हुए असहाय क्षेमदर्शी राजाके प्रति कालकवृक्षीय मुनिका वैराग्यपूर्ण उपदेश”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यदि राजा धर्मात्मा हो और उद्योग करते रहनेपर भी धन न पा सके, उस अवस्थामें यदि मन्त्री उसे कष्ट देने लगें और उसके पास खजाना तथा सेना भी न रह जाय तो सुख चाहनेवाले उस राजाको कैसे काम चलाना चाहिये? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें यह क्षेमदर्शीका इतिहास जगतमें बार-बार कहा जाता है। उसीको मैं तुमसे कहूँगा। तुम ध्यान देकर सुनो || २ ।।

हमने सुना है कि प्राचीनकालमें एक बार कोसलराजकुमार क्षेमदर्शीको बड़ी कठिन विपत्तिका सामना करना पड़ा। उसकी सारी सैनिक-शक्ति नष्ट हो गयी। उस समय वह कालकवृक्षीय मुनिके पास गया और उनके चरणोंमें प्रणाम करके उसने उस विपत्तिसे छुटकारा पानेका उपाय पूछा ।। ३ ।।

राजाने इस प्रकार प्रश्न किया--ब्रह्मन्‌! मुनष्य धनका भागीदार समझा जाता है; किंतु मेरे-जैसा पुरुष बार-बार उद्योग करनेपर भी यदि राज्य न पा सके तो उसे क्या करना चाहिये? || ४ ।।

साधुशिरोमणे! आत्मघात करने, दीनता दिखाने, दूसरोंकी शरणमें जाने तथा इसी तरहके और भी नीच कर्म करनेकी बात छोड़कर दूसरा कोई उपाय हो तो वह मुझे बताइये ।। ५ |।

जो मानसिक अथवा शारीरिक रोगसे पीड़ित है, ऐसे मनुष्यको आप-जैसे धर्मज्ञ और कृतज्ञ महात्मा ही शरण देनेवाले होते हैं ।। ६ ।।

मनुष्यको जब कभी विषय-भोगोंसे वैराग्य होता है, तब विरक्त होनेपर वह हर्ष और शोकको त्याग देता है तथा ज्ञानमय धन पाकर नित्य सुखका अनुभव करने लगता है ।। ७ ।।

जिनके सुखका आधार धन है, अर्थात्‌ जो धनसे ही सुख मानते हैं, उन मनुष्योंके लिये मैं निरन्तर शोक करता हूँ; क्योंकि मेरे पास धन बहुत था, परंतु वह सब सपनेमें मिली हुई सम्पत्तिकी तरह नष्ट हो गया ।। ८ ।।

मेरी समझमें जो अपनी विशाल सम्पत्तिको त्याग देते हैं वे अत्यन्त दुष्कर कार्य करते हैं। मेरे पास तो अब धनके नामपर कुछ नहीं है, तो भी मैं उसका मोह नहीं छोड़ पाता हूँ ।। ९ |।

ब्रह्मन! मैं राज्यलक्ष्मीसे भ्रष्ट, दीन और आर्त होकर इस शोचनीय अवस्थामें आ पड़ा हूँ। इस जगत्‌में धनके अतिरिक्त जो सुख हो, उसीका मुझे उपदेश कीजिये ।। १० ।।

बुद्धिमान कोसलराजकुमारके इस प्रकार पूछनेपर महातेजस्वी कालकवृक्षीय मुनिने इस तरह उत्तर दिया ।। ११ ।।

मुनि बोले--राजकुमार! तुम समझदार हो; अतः तुम्हें पहलेसे ही अपनी बुद्धिके द्वारा ऐसा ही निश्चय कर लेना उचित था। इस जगत्‌में “मैं' और “मेरा” कहकर जो कुछ भी समझा या ग्रहण किया जाता है, वह सब अनित्य ही है || १२ ।।

तुम जिस किसी वस्तुको ऐसा मानते हो कि “यह है” वह सब पहलेसे ही समझ लो कि “नहीं है” ऐसा समझनेवाला विद्वान्‌ पुरुष कठिन-से-कठिन विपत्तिमें पड़नेपर भी व्यथित नहीं होता ।। १३ ।।

जो वस्तु पहले थी और होगी, वह सब न तो थी और न होगी ही। इस प्रकार जानने योग्य तत्त्वको जान लेनेपर तुम सम्पूर्ण अधर्मोंसे छुटकारा पा जाओगे ।। १४ ।।

जो वस्तु पहले बहुत बड़े समुदायके अधीन (गणतन्‍्त्र) रह चुकी है तथा जो एकके बाद दूसरेकी होती आयी है, वह सबकी सब तुम्हारी भी नहीं है; इस बातको भलीभाँति समझ लेनेपर किसको बारंबार चिन्ता होगी? ।। १५ ।।

यह राजलक्ष्मी होकर भी नहीं रहती और जिनके पास नहीं होती, उनके पास आ जाती है; परंतु शोककी सामर्थ्य नहीं है कि वह गयी हुई सम्पत्तिको लौटा लावे; अत: किसी तरह भी शोक नहीं करना चाहिये || १६ ।।

राजन्‌! बताओ तो सही, तुम्हारे पिता आज कहाँ हैं? तुम्हारे पितामह अब कहाँ चले गये? आज न तो तुम उन्हें देखते हो और न वे तुम्हें देख पाते हैं || १७ ।।

यह शरीर अनित्य है, इस बातको तुम देखते और समझते हो, फिर उन पूर्वजोंके लिये क्यों निरन्तर शोक करते हो? जरा बुद्धि लगाकर विचार तो करो, निश्चय ही एक दिन तुम भी नहीं रहोगे ।। १८ ।।

नरेश्वर! मैं, तुम, तुम्हारे मित्र और शत्रु--ये हम सब लोग एक दिन नहीं रहेंगे। यह सब कुछ नष्ट हो जायेगा ।। १९ ।।

इस समय जो बीस या तीस वर्षकी अवस्थावाले मनुष्य हैं, ये सभी सौ वर्षके पहले ही मर जायूँगे ।। २० ।।

ऐसी दशामें यदि मनुष्य बहुत बड़ी सम्पत्तिसे न बिछुड़ जाय तो भी उसे “यह मेरा नहीं है' ऐसा समझकर अपना कल्याण अवश्य करना चाहिये ।। २१ ।।

जो वस्तु भविष्यमें मिलनेवाली है, उसे यही माने कि “वह मेरी नहीं है” तथा जो मिलकर नष्ट हो चुकी हो, उसके विषयमें भी यही भाव रखे कि “वह मेरी नहीं थी।” जो ऐसा मानते हैं कि 'प्रारब्ध ही सबसे प्रबल है,” वे ही विद्वान्‌ हैं और उन्हें सत्पुरुषोंका आश्रय कहा गया है ।। २२ ।।

जो धनाढ्य नहीं हैं, वे भी जीते हैं और कोई राज्यका शासन भी करते हैं उनमेंसे कुछ तुम्हारे समान ही बुद्धि और पौरुषसे सम्पन्न हैं तथा कुछ तुमसे बढ़कर भी हो सकते हैं; परंतु वे भी तुम्हारी तरह शोक नहीं करते। अतः तुम भी शोक न करो। क्या तुम बुद्धि और पुरुषार्थमें उन मनुष्योंसे श्रेष्ठ या उनके समान नहीं हो? ।। २३-२४ ।।

राजाने कहा--ब्रह्मन! मैं तो यही समझता हूँ कि वह सारा राज्य मुझे स्वतः अनायास ही प्राप्त हो गया था और अब महान्‌ शक्तिशाली कालने यह सब कुछ छीन लिया है ।। २५ ।।

तपोधन! जैसे जलका प्रवाह किसी वस्तुको बहा ले जाता है, उसी प्रकार कालके वेगसे मेरे राज्यका अपहरण हो गया। उसीके फलस्वरूप मैं इस शोकका अनुभव करता हूँ, और जैसे-तैसे जो कुछ मिल जाता है, उसीसे जीवन-निर्वाह करता हूँ ।। २६ ।।

मुनिने कहा--कोसलराजकुमार! यथार्थ तत्त्वका निश्चय हो जानेपर मनुष्य भविष्य और भूतकालकी किसी भी वस्तुके लिये शोक नहीं करता। इसलिये तुम भी सभी पदार्थोंके विषयमें उसी तरह शोकरहित हो जाओ ।। २७ ।।

मनुष्य पानेयोग्य पदार्थोकी ही कामना करता है। अप्राप्य वस्तुओंकी कदापि नहीं। अतः तुम्हें भी जो कुछ प्राप्त है, उसीका उपभोग करते हुए अप्राप्त वस्तुके लिये कभी चिन्तन नहीं करना चाहिये ।। २८ ।।

कोसलनरेश! क्या तुम दैववश जो कुछ मिल जाय, उसीसे उतने ही आनन्दके साथ रह सकोगे, जैसे पहले रहते थे। आज राजलक्ष्मीसे वंचित होनेपर भी क्या तुम शुद्ध हृदयसे शोकको छोड़ चुके हो? ।। २९ 

जब पहले सम्पत्ति प्राप्त होकर नष्ट हो जाती है, तब उसीके कारण अपनेको भाग्यहीन माननेवाला दुर्बुद्धि मनुष्य सदा विधाताकी निन्‍्दा करता है और प्रारब्धवश प्राप्त हुए पदार्थोंसे उसे संतोष नहीं होता है || ३० ।।

वह दूसरे धनी मनुष्योंको धनके अयोग्य मानता है। इसी कारण उसका यह ईर्ष्पयाजनक दुःख सदा उसके पीछे लगा रहता है || ३१ ।।

राजन! अपनेको पुरुष माननेवाले बहुत-से मनुष्य ईर्ष्या और अहंकारसे भरे होते हैं। कोसलनरेश! क्या तुम ऐसे ईर्ष्यालु तो नहीं हो? ।। ३२ ।।

यद्यपि तुम्हारे पास लक्ष्मी नहीं है तो भी तुम दूसरोंकी सम्पत्ति देखकर सहन करो; क्योंकि चतुर मनुष्य दूसरोंके यहाँ रहनेवाली सम्पत्तिका भी सदा उपभोग करते हैं और जो लोगोंसे द्वेष रखता है, उसके पास सम्पत्ति हो तो भी वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है ।।३३।।

योगधर्मको जाननेवाले धर्मात्मा धीर मनुष्य अपनी सम्पत्ति तथा पुत्र-पौत्रोंका भी स्वयं ही त्याग कर देते हैं ।।३४।।

स्वायम्भुव मनुके वंशमें उत्पन्न हुए शुभ आचार-विचारवाले राजा भरतने नाना प्रकारके रत्नोंसे सम्पन्न अपने समृद्धिशाली राज्यको त्याग दिया था, यह बात मेरे सुननेमें आयी है इसी प्रकार अन्य भूमिपालोंने भी महान्‌ अभ्युदयशाली राज्यका परित्याग किया है। राज्य छोड़कर वे सब-के-सब भूपाल वनमें जंगली फल-मूल खाकर रहते थे। वहीं वे तपस्या और दुःखके पार पहुँच गये। धनकी प्राप्ति निरन्तर प्रयत्नमें लगे रहनेसे होती है, फिर भी वह अत्यन्त अस्थिर है, यह देखकर तथा इसे परम दुर्लभ मानकर भी दूसरे लोग उसका परित्याग कर देते हैं | ३५ ।।

परंतु तुम तो समझदार हो, तुम्हें मालूम है, भोग प्रारब्धके अधीन और अस्थिर हैं, तो भी नहीं चाहनेयोग्य विषयोंको चाहते हो और उनके लिये दीनता दिखाते हुए शोक कर रहे हो ।। ३६ |।

तुम पूर्वोक्त बुद्धिको समझनेकी चेष्टा करो और इन भोगोंको छोड़ो, जो तुम्हें अर्थके रूपमें प्रतीत होनेवाले अनर्थ हैं; क्योंकि वास्तवमें समस्त भोग अनर्थस्वरूप ही हैं || ३७ ।।

इस अर्थ या भोगके लिये ही कितने ही लोगोंके धनका नाश हो जाता है। दूसरे लोग सम्पत्तिको अक्षय सुख मानकर उसे पानेकी इच्छा करते हैं || ३८ ।।

कोई-कोई मनुष्य तो धन-सम्पत्तिमें इस तरह रम जाता है कि उसे उससे बढ़कर सुखका साधन और कुछ जान ही नहीं पड़ता है। अतः वह धनोपार्जनकी ही चेष्टामें लगा रहता है। परंतु दैववश उस मनुष्यका वह सारा उद्योग सहसा नष्ट हो जाता है ।। ३९ ।।

कोसलनरेश! बड़े कष्टसे प्राप्त किया हुआ वह अभीष्ट धन यदि नष्ट हो जाता है तो उसके उद्योगका सिलसिला टूट जाता है और वह धनसे विरक्त हो जाता है। इस प्रकार उस सम्पत्तिको अनित्य समझकर भी भला कौन उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करेगा? ।। ४० ।

उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए कुछ ही मनुष्य ऐसे हैं, जो धर्मकी शरण लेते हैं और परलोकमें सुखकी इच्छा रखकर समस्त लौकिक व्यापारसे उपरत हो जाते हैं || ४१ ।।

कुछ लोग तो ऐसे हैं, जो धनके लोभमें पड़कर अपने प्राणतक गाँवा देते हैं। ऐसे मनुष्य धनके सिवा जीवनका दूसरा कोई प्रयोजन ही नहीं समझते ।। ४२ ।।

देखो, उनकी दीनता और देख लो उनकी मूर्खता, जो इस अनित्य जीवनके लिये मोहवश धनमें ही दृष्टि गड़ाये रहते हैं || ४३ ।।

जब संग्रहका अन्त विनाश ही है, जब जीवनका अन्त मृत्यु ही है और जब संयोगका अन्त वियोग ही है, तब इनकी ओर कौन अपना मन लगायेगा? ।। ४४ ।।

राजन! चाहे मनुष्य धनको छोड़ता है, चाहे धन ही मनुष्यको छोड़ देता है। एक दिन अवश्य ऐसा होता है। इस बातको जाननेवाला कौन मनुष्य धनके लिये चिन्ता करेगा? ।। ४५ |।

दूसरोंपर पड़ी हुई आपत्ति मूर्ख मनुष्यको संतोष प्रदान करती है। वह समझता है कि मैं उस संकटमें नहीं पड़ा हूँ। इस भेददृष्टिके कारण ही उसे कभी शान्ति नहीं मिलती ।।

राजन! दूसरोंके भी धन और सुहृद्‌ नष्ट होते हैं; अतः तुम बुद्धिसे विचारकर देखो कि दूसरे मनुष्योंके समान ही तुम्हारी अपनी आपत्ति भी है ।। ४६ ।।

इन्द्रियोंको संयममें रखो, मनको वशमें करो और वाणीका संयम करके मौन रहा करो। ये मन, वाणी और इन्द्रियाँ दुर्बल हों या अहितकारक, इन्हें विषयोंकी ओर जानेसे रोकनेवाला अपने सिवा दूसरा कोई नहीं है ।।

सारे पदार्थ जब संसर्गमें आते हैं, तभी दृष्टिगोचर होते हैं। दूर हो जानेपर उनका दर्शन सम्भव नहीं हो पाता। ऐसी स्थितिमें ज्ञान और विज्ञानसे तृप्त तथा पराक्रमसे सम्पन्न तुम्हारे-जैसा पुरुष शोक नहीं करता है ।।

तुम्हारी इच्छा तो बहुत थोड़ी है। तुममें चपलताका दोष भी नहीं है। तुम्हारा हृदय कोमल और बुद्धि एक निश्चयपर डटी रहनेवाली है तथा तुम जितेन्द्रिय होनेके साथ ही ब्रह्मचर्यसे सम्पन्न भी हो; अतः तुम्हारे-जैसे पुरुषको शोक नहीं करना चाहिये ।। ४९ ।।

तुमको हाथमें कपाल लेकर भीख माँगनेवालोंकी तथा निर्दय पुरुषोंकी उस कपटभरी वृत्तिकी इच्छा नहीं करनी चाहिये, जो अत्यन्त पापपूर्ण, अनेक दोषोंसे दूषित तथा कायरोंके ही योग्य है ।। ५० ।।

तुम मूल-फलसे जीवन-निर्वाह करते हुए विशाल वनमें अकेले ही विचरण करो। वाणीको संयममें रखकर मन और इन्द्रियोंको काबूमें करो और सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दयाभाव बनाये रखो || ५१ ।।

तुम-जैसे विद्वान्‌ पुरुषके योग्य कार्य तो यह है कि वनमें ईषाके समान बड़े-बड़े दाँतवाले जंगली हाथीके साथ अकेला विचरे और जंगलके ही पत्र, पुष्प तथा फल-मूल खाकर संतुष्ट रहे || ५२ ।।

जैसे क्षुब्ध हुआ महान्‌ सरोवर निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार विशुद्ध बुद्धिवाला मनुष्य क्षुब्ध होनेपर भी निर्मल हो जाता है। अतः राजकुमार! इस अवस्थामें तुम्हारा इस रूपमें आ जाना; अर्थात्‌ तुम्हारे मनमें ऐसे विशुद्ध भावका उदय होना शुभ है। इस प्रकारके जीवनको ही मैं सुखमय समझता हूँ ।। ५३ ।।

राजन! तुम्हारे लिये अब धन-सम्पत्तिकी कोई सम्भावना नहीं है। तुम मन्त्री आदिसे भी रहित हो गये हो तथा दैव भी तुम्हारे प्रतिकूल ही है, ऐसी अवस्थामें तुम अपने लिये किस मार्गका अवलम्बन अच्छा समझते हो? ।। ५४ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें कालकवृक्षीय गुनिका उपदेशविषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४½ श्लोक मिलाकर कुल ५८½ “लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

एक सौ पाचवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ पाचवें अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)

“कालकवृक्षीय मुनिके द्वारा गये हुए राज्यकी प्राप्तिके लिये विभिन्न उपायोंका वर्णन”

मुनिने कहा--राजकुमार! यदि तुम अपनेमें कुछ पुरुषार्थ देखते हो तो मैं तुम्हें राज्यकी प्राप्तिके लिये एक नीति बता रहा हूँ ।। १ ।।

यदि तुम उसे कार्यरूपमें परिणत कर सको, उसके अनुसार ही सारा कार्य करो तो मैं उस नीतिका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ। तुम वह सब पूर्णरूपसे सुनो ।। २ ।।

यदि तुम मेरी बतायी हुई नीतिके अनुसार कार्य करोगे तो तुम्हें पुन: महान्‌ वैभव, राज्य, राज्यकी मन्त्रणा और विशाल सम्पत्तिकी प्राप्ति होगी। राजन्‌! यदि मेरी यह बात तुम्हें रचती हो तो फिरसे कहो, क्या मैं तुमसे इस विषयका वर्णन करूँ? ।। ३½

राजाने कहा--प्रभो! आप अवश्य उस नीतिका वर्णन करें। मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आपके साथ जो समागम प्राप्त हुआ है, यह आज व्यर्थ न हो ४½।।

मुनिने कहा--राजन्‌! तुम दम्भ, काम, क्रोध, हर्ष और भयको त्यागकर हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर शत्रुओंकी भी सेवा करो || ५½।।

तुम पवित्र व्यवहार और उत्तम कर्मद्वारा अपने प्रति विदेहराजका विश्वास उत्पन्न करो। विदेहराज सत्यप्रतिज्ञ हैं; अतः वे तुम्हें अवश्य धन प्रदान करेंगे। यदि ऐसा हुआ तो तुम समस्त प्राणियोंके लिये प्रमाणभूत (विश्वासपात्र) तथा राजाकी दाहिनी बाँह हो जाओगे ।। ६-७ ।।

फिर तो तुम्हें बहुत-से शुद्ध हृदयवाले, दुर्व्यसनोंसे रहित तथा उत्साही सहायक मिल जायँगे। जो मनुष्य शास्त्रके अनुकूल आचरण करता हुआ अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें रखता है, वह अपना तो उद्धार करता ही है, प्रजाको भी प्रसन्न कर लेता है | ८½ ।।

राजा जनक बड़े धीर और श्रीसम्पन्न हैं। जब वे तुम्हारा सत्कार करेंगे, तब सभी लोगोंके विश्वास-पात्र होकर तुम अत्यन्त गौरवान्वित हो जाओगे। उस अवस्थामें तुम मित्रोंकी सेना इकट्ठी करके अच्छे मन्त्रियोंके साथ सलाह लेकर अन्तरंग व्यक्तियों-द्वारा शत्रुदलमें फूट डलवाकर बेलको बेलसे ही फोड़ो (शत्रुके सहयोगसे ही शत्रुका विध्वंस कर डालना) ।। ९-१०½||

अथवा दूसरोंसे मेल करके उन्हींके द्वारा शत्रुके बलका भी नाश कराओ। राजकुमार! जो शुभ पदार्थ अलभ्य हैं, उनमें तथा स्त्री, ओढ़ने-बिछानेके सुन्दर वस्त्र, अच्छे-अच्छे पलंग, आसन, वाहन, बहुमूल्य गृह, तरह-तरहके रस, गन्ध और फल--इन्हीं वस्तुओंमें शत्रुको आसक्त करो। भाँति-भाँतिके पक्षियों और विभिन्न जातिके पशुओंके पालनकी भी आसक्ति शत्रुके मनमें पैदा करो, जिससे यह शत्रु धीरे-धीरे धनहीन होकर स्वतः नष्ट हो जाय || ११--१३ |।

यदि ऐसा करते समय कभी शत्रुकोी उस व्यसनकी ओर जानेसे रोकने या मना करनेकी आवश्यकता पड़े तो वह भी करना चाहिये, अथवा वह उपेक्षाके योग्य हो तो उपेक्षा ही कर देनी चाहिये; किंतु उत्तम नीतिका फल चाहनेवाले राजाको चाहिये कि वह किसी भी दशामें शत्रुपर अपना गुप्त मनोभाव प्रकट न होने दे || १४ ।।

तुम बुद्धिमानोंके विश्वासभाजन बनकर अपने महाशत्रुके राज्यमें सानन्द विचरण करो और कुत्ते, हिरन, तथा कौओंकी तरह- चौकन्ने रहकर निरर्थक बर्तावोंद्वारा विदेहराजके प्रति मित्रधर्मका पालन करो ।।

शत्रुको इतने बड़े-बड़े कार्य करनेकी प्रेरणा दो, जिनका पूरा होना अत्यन्त कठिन हो और बलवान्‌ राजाओंके साथ शत्रुका ऐसा विरोध करा दो, जो किसी विशाल नदीके समान अत्यन्त दुस्तर हो ।। १६ ।।

बड़े-बड़े बगीचे लगवाकर, बहुमूल्य पलंग-बिछौने तथा भोग-विलासके अन्य साथनोंमें खर्च कराकर उसका सारा खजाना खाली करा दो ।। १७ ।।

तुम मिथिलाके प्रसिद्ध ब्राह्मणोंकी प्रशंसा करके उनके द्वारा विदेहराजको बड़े-बड़े यज्ञ और दान करनेका उपदेश दिलाओ। नित्य ही वे ब्राह्मण तुम्हारा उपकार करेंगे और विदेहराजको भेड़ियोंके समान नोच खायेंगे ।। १८ ।।

इसमें संदेह नहीं कि पुण्यशील मानव परम गतिको प्राप्त होता है। उसे स्वर्गलोकमें परम पवित्र स्थानकी प्राप्ति होती है ।। १९ ।।

कोसलराज! धर्म अथवा अधर्म या उन दोनोंमें ही प्रवृत्त रहनेवाले राजाका कोष निश्चय ही खाली हो जाता है। खजाना खाली होते ही राजा अपने शत्रुओंके वशमें आ जाता है || २० ।।

शत्रुके राज्यमें जो फल-मूल और खेती आदि हो, उसे गुप्तरूपसे नष्ट करा दे। इससे उसके शत्रु प्रसन्न होते हैं। यह कार्य किसी मनुष्यका किया हुआ न बतावे। दैवी घटना कहकर इसका वर्णन करे || २१ ।।

इसमें संदेह नहीं कि दैवका मारा हुआ मनुष्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। हो सके तो शत्रुको विश्वजित्‌ नामक यज्ञमें लगा दो और उसके द्वारा दक्षिणारूपमें सर्वस्वदान कराकर उसे निर्धन बना दो || २२ ।।

इससे तुम्हारा मनोरथ सिद्ध होगा। तदनन्तर तुम्हें कष्ट पाते हुए किसी श्रेष्ठपुरुषकी दुरवस्थाका और किसी योगधर्मके ज्ञाता पुण्यात्मा पुरुषकी महिमाका राजाके सामने वर्णन करना चाहिये, जिससे शत्रु राजा अपने राज्यको त्याग देनेकी इच्छा करने लगे। यदि कदाचित्‌ वह प्रकृतिस्थ ही रह जाय, उसके ऊपर वैराग्यका प्रभाव न पड़े, तब अपने नियुक्त किये हुए पुरुषोंद्वारा सर्वशत्रुविनाशक सिद्ध औषधके प्रयोगसे शत्रुके हाथी, घोड़े और मनुष्योंको मरवा डालना चाहिये || २३-२४ ।।

राजकुमार! अपने मनको वशमें रखनेवाला पुरुष यदि धर्मविरुद्ध आचरण करना सह सके तो ये तथा और भी बहुत-से भलीभाँति सोचे हुए कपटपूर्ण प्रयोग हैं, जो उसके द्वारा किये जा सकते हैं || २५ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें कालकवृक्षीय गुनिका उपदेशविषयक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हआ)

टिका टिप्पणी ;–

  1. जैसे कुत्ते बहुत जागते हैं, उसी तरह शत्रुकी गतिविधिको देखनेके लिये बराबर जागता रहे। जिस प्रकार हिरन बहुत चौकन्ने होते हैं, जरा भी भयकी आशंका होते ही भाग जाते हैं, उसी तरह हर समय सावधान रहे। भय आनेके पहले ही वहाँसे खिसक जाय। जैसे कौए प्रत्येक मनुष्यकी चेष्टा देखते रहते हैं, किसीको हाथ उठाते देख तुरंत उड़ जाते हैं; इसी प्रकार शत्रुकी चेष्टापर सदा दृष्टि रखे।

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