सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के छियासिवें अध्याय से नब्बेवें अध्याय तक (From the 86 chapter to the 90 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

छियासीवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छियासीवें अध्याय के श्लोक 1-33 का हिन्दी अनुवाद)

“राजाके निवासयोग्य नगर एवं दुर्गका वर्णन, उसके लिये प्रजापालनसम्बन्धी व्यवहार तथा तपस्वीजनोंके समादरका निर्देश”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! राजाको स्वयं कैसे नगरमें निवास करना चाहिये? वह पहलेसे बनी हुई राजधानीमें रहे या नये नगरका निर्माण कराकर उसमें निवास करे, यह मुझे बताइये? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--भारत! कुन्तीनन्दन! पुत्र, कुटुम्बीजन तथा बन्धुवर्गके साथ राजा जिस नगरमें निवास करे, उसमें जीवन-निर्वाह तथा रक्षाकी व्यवस्थाके सम्बन्धमें तुम्हारा प्रश्न करना न्यायसड्भत है ।। २ ।।

इसलिये मैं तुम्हारे समक्ष दुर्गनिर्माणकी क्रियाका विशेषरूपसे वर्णन करूँगा। तुम इस विषयको सुनकर वैसा ही करना और प्रयत्नपूर्वक दुर्गका निर्माण कराना ।।

जहाँ सब प्रकारकी सम्पत्ति प्रचुरमात्रामें भरी हुई हो तथा जो स्थान बहुत विस्तृत हो, वहाँ छ: प्रकारके दुर्गोका आश्रय लेकर राजाको नये नगर बसाने चाहिये ।।

उन छहों दुर्गोके नाम इस प्रकार हैं--धन्वदुर्ग¹, महीदुर्गः², गिरिदुर्ग³, मनुष्यदुर्ग⁴, जलदुर्ग⁵, तथा वनदुर्ग⁶ || ५ ।।

जिस नगरमें इनमेंसे कोई-न-कोई दुर्ग हो, जहाँ अन्न और अस्त्र-शस्त्रोंकी अधिकता हो, जिसके चारों ओर मजबूत चहारदीवारी और गहरी एवं चौड़ी खाई बनी हो, जहाँ हाथी, घोड़े और रथोंकी बहुतायत हो, जहाँ विद्वान्‌ और कारीगर बसे हों, जिस नगरमें आवश्यक वस्तुओंके संग्रहसे भरे हुए कई भंडार हों, जहाँ धार्मिक तथा कार्यकुशल मनुष्योंका निवास हो, जो बलवान मनुष्य, हाथी और घोड़ोंसे सम्पन्न हो, चौराहे तथा बाजार जिसकी शोभा बढ़ा रहे हों, जहाँका न्याय-विचार एवं न्यायालय सुप्रसिद्ध हो, जो सब प्रकारसे शान्तिपूर्ण हो, जहाँ कहींसे कोई भय या उपद्रव न हो, जिसमें रोशनीका अच्छा प्रबन्ध हो, संगीत और वाद्योंकी ध्वनि होती रहती हो, जहाँका प्रत्येक घर सुन्दर और सुप्रशस्त हो, जिसमें बड़े-बड़े शूरवीर और धनाढ्य लोग निवास करते हों, वेदमन्त्रोंकी ध्वनि गूँजती रहती हो तथा जहाँ सदा ही सामाजिक उत्सव और देवपूजनका क्रम चलता रहता हो, ऐसे नगरके भीतर अपने वशमें रहनेवाले मन्त्रियों तथा सेनाके साथ राजाको स्वयं निवास करना चाहिये ।।६-१०।।

राजाको चाहिये कि वह उस नगरमें कोष, सेना, मित्रोंकी संख्या तथा व्यवहारको बढ़ावे। नगर तथा बाहरके ग्रामोंमें सभी प्रकारके दोषोंको दूर करे ।। ११ ।।

अन्नभण्डार तथा अस्त्र-शस्त्रोंके संग्रहालयको प्रयत्नपूर्वक बढ़ावे, सब प्रकारकी वस्तुओंके संग्रहालयोंकी भी वृद्धि करे, यन्त्रों तथा अस्त्र-शस्त्रोंके कारखानोंकी उन्नति करे ।। १२ ।।

काठ, लोहा, धानकी भूसी, कोयला, बाँस, लकड़ी, सींग, हड्डी, मज्जा, तेल, घी, चरबी, शहद, औषधसमूह, सन, राल, धान्य, अस्त्र-शस्त्र, बाण, चमड़ा, ताँत, बेंत तथा मूँज और बल्वजकी रस्सी आदि सामग्रियोंका संग्रह रखे || १३-१४ ।।

जलाशय (तालाब, पोखरे आदि), उदपान (कुँए, बावड़ी आदि), प्रचुर जलराशिसे भरे हुए बड़े-बड़े तालाब तथा दूधवाले वृक्ष--इन सबकी राजाको सदा रक्षा करनी चाहिये ।। १५ ।।

आचार्य, ऋत्विजू, पुरोहित और महान्‌ धनुर्धरोंका तथा घर बनानेवालोंका, वर्षफल बतानेवाले ज्यौतिषियोंका और वैद्योंका यत्नपूर्वक सत्कार करे ।। १६ ।।

विद्वान, बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, कार्यकुशल, शूर, बहुज्ञ, कुलीन तथा साहस और धैर्यसे सम्पन्न पुरुषोंको यथायोग्य समस्त कर्मोमें लगावे ।। १७ ।।

राजाको चाहिये कि धार्मिक पुरुषोंका सत्कार करे और पापियोंको दण्ड दे। वह सभी वर्णोंको प्रयत्नपूर्वक अपने-अपने कर्मोमें लगावे |। १८ ।।

गुप्तचरोंद्वारा नगर तथा छोटे ग्रामोंक बाहटी और भीतरी समाचारोंको अच्छी तरह जानकर फिर उसके अनुसार कार्य करे || १९ |।

गुप्तचरोंसे मिलने, गुप्त सलाह करने, खजानेकी जाँच-पड़ताल करने तथा विशेषत: अपराधियोंको दण्ड देनेका कार्य राजा स्वयं करे; क्योंकि इन्हींपर सारा राज्य प्रतिष्ठित है || २० ।।

राजाको गुप्तचररूपी नेत्रोंके द्वारा देखकर सदा इस बातकी जानकारी रखनी चाहिये कि मेरे शत्रु, मित्र तथा तटस्थ व्यक्ति नगर और छोटे ग्रामोंमें कब क्या करना चाहते हैं? ।। २१ ।।

उनकी चेष्टाएँ जान लेनेके पश्चात्‌ उनके प्रतीकारके लिये सारा कार्य बड़ी सावधानीके साथ करना चाहिये। राजाको उचित है कि वह अपने भक्तोंका सदा आदर करे और द्वेष रखनेवालोंको कैद कर ले || २२ ।।

उसे प्रतिदिन नाना प्रकारके यज्ञ करना तथा दूसरोंको कष्ट न पहुँचाते हुए दान देना चाहिये। वह प्रजाजनोंकी रक्षा करे और कोई भी कार्य ऐसा न करे जिससे धर्ममें बाधा आती हो ।। २३ ।।

दीन, अनाथ, वृद्ध तथा विधवा स्त्रियोंके योगक्षेम एवं जीविकाका सदा ही प्रबन्ध करे ।। २४ ।।

राजा आश्रमोंमें यथासमय वस्त्र, बर्तन और भोजन आदि सामग्री सदा ही भेजा करे, तथा सबको सत्कार, पूजन एवं सम्मानपूर्वक वे वस्तुएँ अर्पित करे ।।

अपने राज्यमें जो तपस्वी हों, उन्हें अपने शरीर-सम्बन्धी, सम्पूर्ण कार्यसम्बन्धी तथा राष्ट्रसम्बन्धी समाचार प्रयत्नपूर्वक बताया करे और उनके सामने सदा विनीतभावसे रहे || २६ ।।

जिसने सम्पूर्ण स्वार्थोका परित्याग कर दिया है, ऐसे कुलीन एवं बहुश्रुत विद्वान्‌ तपस्वीको देखकर राजा शय्या, आसन और भोजन देकर उसका सम्मान करे ।।

कैसी भी आपत्तिका समय क्‍यों न हो? राजाको तो तपस्वीपर विश्वास करना ही चाहिये; क्योंकि चोर और डाकू भी तपस्वी महात्माओंपर विश्वास करते हैं ।।

राजा उस तपस्वीके निकट अपने धनकी निधियोंको रखे और उससे सलाह भी लिया करे; परंतु बार-बार उसके पास जाना-आना और उसका सड़ न करे, तथा उसका अधिक सम्मान भी न करे (अर्थात्‌ गुप्तरूपसे ही उसकी सेवा और सम्मान करे। लोगोंपर इस बातको प्रकट न होने दे) ।। २९ ।।

राजा अपने राज्यमें, दूसरोंके राज्योंमें, जंगलोंमें तथा अपने अधीन राजाओंके नगरोंमें भी एक-एक भित्न-भन्न तपस्वीको अपना सुहृद्‌ बनाये रखे ।। ३० ।।

उन सबको सत्कार और सम्मानके साथ आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करे। जैसे अपने राज्यके तपस्वीका आदर करे, वैसे ही दूसरे राज्यों तथा जंगलोंमें रहनेवाले तापसोंका भी सम्मान करना चाहिये ।। ३१ ।।

वे उत्तम व्रतका पालन करनेवाले तपस्वी शरणार्थी राजाको किसी भी अवस्थामें इच्छानुसार शरण दे सकते हैं || ३२ ।।

युधिष्ठिर! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार राजाको स्वयं जैसे नगरमें निवास करना चाहिये, उसका लक्षण मैंने यहाँ संक्षेपसे बताया है ।। ३३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें दुर्गपरीक्षाविषयक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टीका टिप्पणी;–

  1. धन्वदुर्गका दूसरा नाम मरुदुर्ग भी है। जिसके चारों ओर बालूका घेरा हो, उस किलेको धन्वदुर्ग कहते हैं।
  2. समतल जमीनके अंदर बना हुआ किला या तहखाना महीदुर्ग कहलाता है।
  3. पर्वतशिखरपर बना हुआ वह किला जो चारों ओरसे उत्तुंग पर्वतमालाओंद्वारा घिरा हुआ हो, गिरिदुर्ग कहलाता है। . 
  4. फौजी किलेका ही नाम मनुष्यदुर्ग है।
  5. जिसके चारों ओर जलका घेरा हो, वह जलदुर्ग कहलाता है।
  6. जो स्थान कटवाँसी आदिके घने जंगलसे घिरा हुआ हो, उसे वनदुर्ग कहा गया है।

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

सत्तासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सत्तासीवें अध्याय के श्लोक 1-40 का हिन्दी अनुवाद)

“राष्ट्रकी रक्षा तथा वृद्धिके उपाय”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ नरेश्वर! अब मैं यह अच्छी तरह जानना चाहता हूँ कि राष्ट्रकी रक्षा तथा उसकी वृद्धि किस प्रकार हो सकती है, अतः आप इसी विषयका वर्णन करें ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! अब मैं बड़े हर्षके साथ तुम्हें राष्ट्रकी रक्षा तथा वृद्धिका सारा रहस्य बता रहा हूँ। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥। २ ।।

एक गाँवका, दस गाँवोंका, बीस गाँवोंका, सौ गाँवोंका तथा हजार गाँवोंका अलगअलग एक-एक अधिपति बनाना चाहिये ।। ३ ।।

गाँवके स्वामीका यह कर्त्तव्य है कि वह गाँववालोंके मामलोंका तथा गाँवमें जो-जो अपराध होते हों, उन सबका वहीं रहकर पता लगावे और उनका पूरा विवरण दस गाँवके अधिपतिके पास भेजे। इसी तरह दस गाँवोंवाला बीस गाँववालेके पास और बीस गाँवोंवाला अपने अधीनस्थ जनपदके लोगोंका सारा वृत्तान्त सौ गाँवोंवाले अधिकारीको सूचित करे। (फिर सौ गाँवोंका अधिकारी हजार गाँवोंके अधिपतिको अपने अधिकृत क्षेत्रोंकी सूचना भेजे। इसके बाद हजार गाँवोंका अधिपति स्वयं राजाके पास जाकर अपने यहाँ आये हुए सभी विवरणोंको उसके सामने प्रस्तुत करे) ।। ४-५ ।।

गाँवोंमें जो आय अथवा उपज हो, वह सब गाँवका अधिपति अपने ही पास रखे (तथा उसमेंसे नियत अंशका वेतनके रूपमें उपभोग करे)। उसीमेंसे नियत वेतन देकर उसे दस गाँवोंके अधिपतिका भी भरण-पोषण करना चाहिये, इसी तरह दस गाँवके अधिपतिको भी बीस गाँवोंके पालकका भरण-पोषण करना उचित है ।। ६ ।।

जो सत्कारप्राप्त व्यक्ति सौ गाँवोंका अध्यक्ष हो, वह एक गाँवकी आमदनीको उपभोगमें ला सकता है। भरतश्रेष्ठ) वह गाँव बहुत बड़ी बस्तीवाला, मनुष्योंसे भरपूर और धन-धान्यसे सम्पन्न हो। भरतनन्दन! उसका प्रबन्ध राजाके अधीनस्थ अनेक अधिपतियोंके अधिकारमें रहना चाहिये || ७½ ।

सहस्र गाँवका श्रेष्ठ अधिपति एक शाखानगर (कस्बे)-की आय पानेका अधिकारी है। उस कस्बेमें जो अन्न और सुवर्णकी आय हो, उसके द्वारा वह इच्छानुसार उपभोग कर सकता है। उसे राष्ट्रवासियोंक साथ मिलकर रहना चहिये ।। ८½।।

इन अधिपतियोंके अधिकारमें जो युद्धसम्बन्धी तथा गाँवोंके प्रबन्धसम्बन्धी कार्य सौंपे गये हों, उनकी देखभाल कोई आलस्यरहित धर्मज्ञ मन्‍्त्री किया करे || ९½ ।।

अथवा प्रत्येक नगरमें एक ऐसा अधिकारी होना चाहिये, जो सभी कार्योंका चिन्तन और निरीक्षण कर सके। जैसे कोई भयंकर ग्रह आकाशमें नक्षत्रोंक ऊपर स्थित हो परिभ्रमण करता है, उसी प्रकार वह अधिकारी उच्चतम स्थानपर प्रतिष्ठित होकर उन सभी सभासद्‌ आदिके निकट परिभ्रमण करे और उनके कार्योकी जाँच-पड़ताल करता रहे || १०-११ ।।

उस निरीक्षकका कोई गुप्तचर राष्ट्रमें घूमता रहे और सभासद्‌ आदिके कार्य एवं मनोभावको जानकर उसके पास सारा समाचार पहुँचाता रहे। रक्षाके कार्यमें नियुक्त हुए अधिकारी लोग प्राय: हिंसक स्वभावके हो जाते हैं। वे दूसरोंकी बुराई चाहने लगते हैं और शठतापूर्वक पराये धनका अपहरण कर लेते हैं। ऐसे लोगोंसे वह सर्वार्थचिन्तक अधिकारी इस सारी प्रजाकी रक्षा करे || १२ ।।

राजाको मालकी खरीद--बिक्री, उसके मँगानेका खर्च, उसमें काम करनेवाले नौकरोंके वेतन, बचत और योग-क्षेमके निर्वाहकी ओर दृष्टि रखकर ही व्यापारियोंपर कर लगाना चाहिये ।। १३ ।।

इसी तरह मालकी तैयारी, उसकी खपत तथा शिल्पकी उत्तम-मध्यम आदि श्रेणियोंका बार-बार निरीक्षण करके शिल्प एवं शिल्पकारोंपर कर लगावे ।। १४ ।।

युधिष्ठिर! महाराजको चाहिये कि वह लोगोंकी हैसियतके अनुसार भारी और हलका कर लगावे। भूपालको उतना ही कर लेना चाहिये, जितनेसे प्रजा संकटमें न पड़ जाय। उनका कार्य और लाभ देखकर ही सब कुछ करना चाहिये ।। १५-१६ ।।

लाभ और कर्म दोनों ही यदि निष्प्रयोजन हुए तो कोई भी काम करनेमें प्रवृत्त नहीं होगा। अतः जिस उपायसे राजा और कार्यकर्ता दोनोंको कृषि, वाणिज्य आदि कर्मके लाभका भाग प्राप्त हो, उसपर विचार करके राजाको सदैव करोंका निर्णय करना चाहिये ।। १७।।

अधिक तृष्णाके कारण अपने जीवनके मूल आधार प्रजाओंके जीवनभूत खेती-बारी आदिका उच्छेद न कर डाले। राजा लोभके दरवाजोंको बंद करके ऐसा बने कि उसका दर्शन प्रजामात्रको प्रिय लगे। यदि राजा अधिक शोषण करनेवाला विख्यात हो जाय तो सारी प्रजा उससे द्वेष करने लगती है || १८-१९ ।।

जिससे सब लोग द्वेष करते हों, उसका कल्याण कैसे हो सकता है? जो प्रजावर्गका प्रिय नहीं होता, उसे कोई लाभ नहीं मिलता। जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं हुई है, उस राजाको चाहिये कि वह गायसे बछड़ेकी तरह राष्ट्रसे धीरे-धीरे अपने उदरकी पूर्ति करे || २०।।

भरतनन्दन युधिष्ठिर! जिस गायका दूध अधिक नहीं दुह्ाा जाता, उसका बछड़ा अधिक कालतक उसके दूधसे पुष्ट एवं बलवान्‌ हो भारी भार ढोनेका कष्ट सहन कर लेता है; परंतु जिसका दूध अधिक दुह लिया गया हो, उसका बछड़ा कमजोर होनेके कारण वैसा काम नहीं कर पाता ।। २१ ।।

इसी प्रकार राष्ट्रका भी अधिक दोहन करनेसे वह दरिद्र हो जाता है; इस कारण वह कोई महान्‌ कर्म नहीं कर पाता। जो राजा स्वयं रक्षामें तत्पर होकर समूचे राष्ट्रपर अनुग्रह करता है और उसकी प्राप्त हुई आयसे अपनी जीविका चलाता है, वह महान्‌ फलका भागी होता है ।।

राजाको चाहिये कि वह अपने देशमें लोगोंके पास इकट्ठे हुए धनको आपत्तिके समय काम आनेके लिये बढ़ावे और अपने राष्ट्रको घरमें रखा हुआ खजाना समझे || २३½ ।।

नगर और ग्रामके लोग यदि साक्षात्‌ शरणमें आये हों या किसीको मध्यस्थ बनाकर उसके द्वारा शरणागत हुए हों, राजा उन सब स्वल्प धनवालोंपर भी अपनी शक्तिके अनुसार कृपा करे ।। २४ ।।

जंगली लुटेरोंको बाह्मजन कहते हैं, उनमें भेद डालकर राजा मध्यमवर्गके ग्रामीण मनुष्योंका सुखपूर्वक उपभोग करे--उनसे राष्ट्रके हितके लिये धन ले, ऐसा करनेसे सुखी और दु:खी दोनों प्रकारके मनुष्य उसपर क्रोध नहीं करते || २५ ।।

राजा पहले ही धन लेनेकी आवश्यकता बताकर फिर अपने राज्यमें सर्वत्र दौरा करे और राष्ट्रपर आनेवाले भयकी ओर सबका ध्यान आकर्षित करे ।। २६ |।

वह लोगोंसे कहे--'सज्जनो! अपने देशपर यह बहुत बड़ी आपत्ति आ पहुँची है। शत्रुदलके आक्रमणका महान्‌ भय उपस्थित है। जैसे बाँसमें फलका लगना बाँसके विनाशका ही कारण होता है, उसी प्रकार मेरे शत्रु बहुत-से लुटेरोंको साथ लेकर अपने ही विनाशके लिये उठकर मेरे इस राष्ट्रको सताना चाहते हैं ।।

“इस घोर आपत्ति और दारुण भयके समय मैं आप लोगोंकी रक्षाके लिये (ऋणके रूपमें) धन माँग रहा हूँ || २९ ।।

“जब यह भय दूर हो जायगा, उस समय सारा धन मैं आपलोगोंको लौटा दूँगा। शत्रु आकर यहाँसे बलपूर्वक जो धन लूट ले जायँगे, उसे वे कभी वापस नहीं करेंगे || ३० ।।

'शत्रुओंका आक्रमण होनेपर आपकी स्त्रियोंपर पहले संकट आयगा। उनके साथ ही आपका सारा धन नष्ट हो जायगा। स्त्री और पुत्रोंकी रक्षाके लिये ही धनसंग्रहकी आवश्यकता होती है || ३१ ।।

जैसे पुत्रोंके अभ्युदयसे पिताको प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार मैं आपके प्रभावसे-आप लोगोंकी बढ़ती हुई समृद्धिशक्तिसे आनन्दित होता हूँ। इस समय राष्ट्रपर आये हुए संकटको टालनेके लिये मैं आप लोगोंसे आपकी शक्तिके अनुसार ही धन ग्रहण करूँगा, जिससे राष्ट्रवासियोंको किसी प्रकारका कष्ट न हो ।। ३२ ।।

'जैसे बलवान बैल दुर्गम स्थानोंमें भी बोझ ढोकर पहुँचाते हैं, उसी प्रकार आप लोगोंको भी देशपर आयी हुई इस आपत्तिके समय कुछ भार उठाना ही चाहिये। किसी विपत्तिके समय धनको अधिक प्रिय मानकर छिपाये रखना आपके लिये उचित न होगा” ।। ३३ ।।

समयकी गतिविधिको पहचाननेवाले राजाको चाहिये कि वह इसी प्रकार स्नेहयुक्त और अनुनयपूर्ण मधुर वचनोंद्वारा समझा-बुझाकर उपयुक्त उपायका आश्रय ले अपने पैदल सैनिकों या सेवकोंको प्रजाजनोंके घरपर धनसंग्रहके लिये भेजे || ३४ ।।

नगरकी रक्षाके लिये चहारदिवारी बनवानी है, सेवकों और सैनिकोंका भरण-पोषण करना है, अन्य आवश्यक व्यय करने हैं, युद्धके भयको टालना है तथा सबके योग-क्षेमकी चिन्ता करनी है, इन सब बातोंकी आवश्यकता दिखाकर राजा धनवान वैश्योंसे कर वसूल करे ।। ३५ ||

यदि राजा वैश्योंके हानि-लाभकी परवा न करके उन्हें करभारसे विशेष कष्ट पहुँचाता है तो वे राज्य छोड़कर भाग जाते और वनमें जाकर रहने लगते हैं; अतः उनके प्रति विशेष कोमलताका बर्ताव करना चाहिये ।। ३६ ।

कुन्तीनन्दन! वैश्योंको सान्त्वना दे, उनकी रक्षा करे, उन्हें धनकी सहायता दे, उनकी स्थितिको सुदृढ़ रखनेका बारंबार प्रयत्न करे, उन्हें आवश्यक वस्तुएँ अर्पित करे और सदा उनके प्रिय कार्य करता रहे || ३७ ।।

भारत! व्यापारियोंको उनके परिश्रमका फल सदा देते रहना चाहिये; क्योंकि वे ही राष्ट्रके वाणिज्य, व्यवसाय तथा खेतीकी उन्नति करते हैं || ३८ ।।

अतः बुद्धिमान्‌ राजा सदा उन वैश्योंपर यत्नपूर्वक प्रेमभाव बनाये रखे। सावधानी रखकर उनके साथ दयालुताका बर्ताव करे और उनपर हलके कर लगावे ।।३९।।

युधिष्ठिर! राजाको वैश्योंके लिये ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये, जिससे वे देशमें सब ओर कुशलपूर्वक विचरण कर सकें। राजाके लिये इससे बढ़कर हितकर काम दूसरा नहीं है || ४० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वनें राष्ट्रकी रक्षा आदिका वर्णनविषयक सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

अट्ठासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अट्ठासीवें अध्याय के श्लोक 1-33 का हिन्दी अनुवाद)

“प्रजासे कर लेने तथा कोश-संग्रह करनेका प्रकार”

युधिष्ठिरने पूछा--परम बुद्धिमान पितामह! जब राजा पूर्णतः: समर्थ हो--उसपर कोई संकट न आया हो, तो भी यदि वह अपना कोश बढ़ाना चाहे तो उसे किस तरहका उपाय काममें लाना चाहिये, यह मुझे बताइये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! धर्मकी इच्छा रखनेवाले राजाको देश और कालकी परिस्थितिका ध्यान रखते हुए अपनी बुद्धि और बलके अनुसार प्रजाके हितसाधनमें संलग्न रहकर उसे अपने अनुशासनमें रखना चाहिये ।। २ ।।

जिस प्रकारसे काम करनेपर प्रजाओंकी तथा अपनी भी भलाई समझमें आवे, वैसे ही समस्त कार्योंका राजा अपने राष्ट्रमें प्रचार करे ।। ३ ।।

जैसे भौंरा धीरे-धीरे फूल एवं वृक्षका रस लेता है, वृक्षको काटता नहीं है, जैसे मनुष्य बछड़ेको कष्ट न देकर धीरे-धीरे गायको दुहता है, उसके थनोंको कुचल नहीं डालता है, उसी प्रकार राजा कोमलताके साथ ही राष्ट्ररूपी गौका दोहन करे, उसे कुचले नहीं ।। ४ ।।

जैसे जोंक धीरे-धीरे शरीरका रक्त चूसती है, उसी प्रकार राजा भी कोमलताके साथ ही राष्ट्रसे कर वसूल करे। जैसे बाधिन अपने बच्चेको दाँतसे पकड़कर इधर-उधर ले जाती है; परंतु न तो उसे काटती है और न उसके शरीरमें पीड़ा ही पहुँचने देती है, उसी तरह राजा कोमल उपायोंसे ही राष्ट्रका दोहन करे ।। ५ |।

जैसे तीखे दाँतोंवाला चूहा सोये हुए मनुष्यके पैरके मांसको ऐसी कोमलतासे काटता है कि वह मनुष्य केवल पैरको कम्पित करता है, उसे पीड़ाका ज्ञान नहीं हो पाता। उसी प्रकार राजा कोमल उपायोंसे ही राष्ट्रसे कर ले, जिससे प्रजा दुखी न हो ।। ६ ।।

वह पहले थोड़ा-थोड़ा कर लेकर फिर धीरे-धीरे उसे बढ़ावे और उस बढ़े हुए करको वसूल करे। उसके बाद समयानुसार फिर उसमें थोड़ी-थोड़ी वृद्धि करते हुए क्रमश: बढ़ाता रहे (ताकि किसीको विशेष भार न जान पड़े) ।। ७ ।।

जैसे बछड़ोंको पहले-पहल बोझ ढोनेका अभ्यास करानेवाला पुरुष उन्हें प्रयत्नपूर्वक नाथता है और धीरे-धीरे उनपर अधिक भार लादता ही रहता है, उसी प्रकार प्रजापर भी करका भार पहले कम रखे; फिर उसे धीरे-धीरे बढ़ावे || ८ ।।

यदि उनको एक साथ नाथकर उनपर भारी भार लादना चाहे तो उन्हें काबूमें लाना कठिन हो जायगा; अतः उचित ढंगसे प्रयत्नपूर्वक एक-एकको नाथकर उन्हें भार ढोनेके उपयोगमें लाना चाहिये। ऐसा करनेसे वे पूरा भार वहन करनेके योग्य हो जायँगे ।। ९ ।।

अतः राजाके लिये भी सभी पुरुषोंको एक साथ वशमें करनेका प्रयत्न दुष्कर है, इसलिये उसे चाहिये कि प्रधान-प्रधान मनुष्योंको मधुर वचनोंद्वारा सान्त्वना देकर वशमें कर ले; फिर अन्य साधारण मनुष्योंको यथेष्ट उपयोगमें लाता रहे || १० ।।

तदनन्तर उन परस्पर विचार करनेवाले मनुष्योंमें भेद डलवाकर राजा सबको सान्त्वना प्रदान करता हुआ बिना किसी प्रयत्नके सुखपूर्वक सबका उपभोग करे ।। ११ ।।

राजाको चाहिये कि परिस्थिति और समयके प्रतिकूल प्रजापर करका बोझ न डाले। समयके अनुसार प्रजाको समझा-बुझाकर उचित रीतिसे क्रमश: कर वसूल करे ।। १२ ।।

राजन! मैं ये उत्तम उपाय बतला रहा हूँ। मुझे छल-कपट या कूटनीतिकी बात बताना यहाँ अभीष्ट नहीं है। जो लोग उचित उपायका आश्रय न लेकर मनमाने तौरपर घोड़ोंका दमन करना चाहते हैं, वे उन्हें कुपित कर देते हैं (इसी तरह जो अयोग्य उपायसे प्रजाको दबाते हैं, वे उनके मनमें रोष उत्पन्न कर देते हैं) || १३ ।।

शराबखाना खोलनेवाले, वेश्याएँ, कुट्टनियाँ, वेश्याओंके दलाल, जुआरी तथा ऐसे ही बुरे पेशे करनेवाले और भी जितने लोग हों, वे समूचे राष्ट्रको हानि पहुँचानेवाले हैं; अतः इन सबको दण्ड देकर दबाये रखना चाहिये। यदि ये राज्यमें टिके रहते हैं तो कल्याणमार्गपर चलनेवाली प्रजाको बड़ी बाधाएँ पहुँचाते हैं || १४-१५ 

मनुजीने बहुत पहलेसे समस्त प्राणियोंके लिये यह नियम बना दिया है कि आपत्तिकालको छोड़कर अन्य समयमें कोई किसीसे कुछ न माँगे || १६ ।।

यदि ऐसी व्यवस्था न होती तो सब लोग भीख माँगकर ही गुजारा करते, कोई भी यहाँ कर्म नहीं करता। ऐसी दशामें ये सम्पूर्ण जगत्‌के लोग निःसंदेह नष्ट हो जाते |। १७ ।।

जो राजा इन सबको नियमके अंदर रखनेमें समर्थ होकर भी इन्हें काबूमें नहीं रखता, वह इनके किये हुए पापका चौथाई भाग स्वयं भोगता है, ऐसा श्रुतिका कथन है ।। १८ 

नरेश्वर! राजा जैसे प्रजाके पापका चतुर्थाश भोगता है उसी प्रकार पुण्यका भी चतुर्थाश उसे प्राप्त होता है; अत: राजाको चाहिये कि वह सदा पापियोंको दण्ड देकर उन्हें दबाये रखे ।। १९ ।।

जो राजा इन पापियोंको नियन्त्रणमें नहीं रखता, वह स्वयं भी पापाचारी माना जाता है तथा जो पापियोंका दमन करता है, वह प्रजाके किये हुए धर्मका चौथाई भाग स्वयं प्राप्त कर लेता है || २० ।।

ऊपर जो मदिरालय तथा वेश्यालय आदि स्थान बताये गये हैं, उनपर रोक लगा देनी चाहिये; क्योंकि इससे कामविषयक आसक्ति बढ़ती है। जो धन-वैभव तथा कल्याणका नाश करनेवाली है। काममें आसक्त हुआ पुरुष कौन-सा ऐसा न करनेयोग्य काम है, जिसे छोड़ दे? ।। २१ ।।

आसक्तिके वशीभूत हुआ मानव मांस खाता, मदिरा पीता और परधन तथा परस्त्रीका अपहरण करता है। साथ ही दूसरोंको भी यही सब करनेका उपदेश देता है || २२ ।।

जिन लोगोंके पास कुछ भी संग्रह नहीं है, वे यदि आपत्तिके समय ही याचना करें तो उन्हें धर्म समझकर और दया करके ही देना चाहिये, किसी भय या दबावमें पड़कर नहीं ।। २३ ।।

तुम्हारे राज्यमें भिखमंगे और लुटेरे न हों; क्योंकि ये प्रजाके धनको केवल छीननेवाले हैं, उनके ऐश्वर्यको बढ़ानेवाले नहीं हैं || २४ ।।

जो सब प्राणियोंपर दया करते और प्रजाकी उन्नतिमें योग देते हैं, वे तुम्हारे राष्ट्रमें निवास करें। जो लोग प्राणियोंका विनाश करनेवाले हैं, वे न रहें ।।

महाराज! जो राजकर्मचारी उचितसे अधिक कर वसूल करते या कराते हों, वे तुम्हारे हाथसे दण्ड पानेके योग्य हैं। दूसरे अधिकारी आकर उन्हें ठीक-ठीक भेंट या कर लेनेका अभ्यास करावें || २६ ।।

खेती, गोरक्षा, वाणिज्य तथा इस तरहके अन्य व्यवसायोंको जो जिस कर्मको करनेमें कुशल हो, तदनुसार अधिक आदमियोंके द्वारा सम्पन्न कराना चाहिये || २७ ।।

मनुष्य यदि कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य आरम्भ कर दे तथा चारों ओर लुतटेरोंके आक्रमणसे कुछ-कुछ प्राण-संशयकी-सी स्थितिमें पहुँच जाय तो इससे राजाकी बड़ी निन्दा होती है ।। २८ ।।

राजाको चाहिये कि वह देशके धनी व्यक्तियोंका सदा भोजन-वस्त्र और अन्नपान आदिके द्वारा आदर-सत्कार करे और उनसे विनयपूर्वक कहे, “आपलोग मेरे सहित मेरी इन प्रजाओंपर कृपादृष्टि रखें” | २९ ।।

भरतनन्दन! धनीलोग राष्ट्रके मुख्य अंग हैं। धनवान्‌ पुरुष समस्त प्राणियोंमें प्रधान होता है, इसमें संशय नहीं है || ३० ।।

विद्वान, शूरवीर, धनी, धर्मनिष्ठ, स्वामी, तपस्वी, सत्यवादी तथा बुद्धिमान्‌ मनुष्य ही प्रजाकी रक्षा करते हैं ।।

अतः भूपाल! तुम समस्त प्राणियोंसे प्रेम रखो तथा सत्य, सरलता, क्रोधहीनता और दयालुता आदि सद्धमोंका पालन करो ।। ३२ ।।

नरेश्वर! ऐसा करनेसे तुम्हें दण्डधारणकी शक्ति, खजाना, मित्र तथा राज्यकी भी प्राप्ति होगी। तुम सत्य और सरलतामें तत्पर रहकर मित्र, कोश और बलसे सम्पन्न हो जाओगे ।। ३३ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वरें कोशसंग्रहके प्रकारका वर्णनविषयक अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

नवासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) नवासीवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

“राजाके कर्तव्यका वर्णन”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! जिन वृक्षोंक फल खानेके काम आते हैं, उनको तुम्हारे राज्यमें कोई काटने न पावे, इसका ध्यान रखना चाहिये। मनीषी पुरुष मूल और फलको धर्मतः ब्राह्मणोंका धन बताते हैं। इसलिये भी उनको काटना ठीक नहीं है ।। १ ।।

ब्राह्मणोंसे जो बच जाये, उसीको दूसरे लोग अपने उपभोगमें लावें। ब्राह्मणका अपराध करके अर्थात्‌ उसे भोग वस्तु न देकर दूसरा कोई किसी प्रकार भी उसका अपहरण न करे ।। २ ।।

राजन! यदि ब्राह्मण अपने लिये जीविकाका प्रबन्ध न होनेसे दुर्बल हो जाय और उस राज्यको छोड़कर अन्यत्र जाने लगे तो राजाका कर्तव्य है कि परिवारसहित उस ब्राह्मणके लिये जीविकाकी व्यवस्था करे ।। ३ ।।

इतनेपर भी यदि वह ब्राह्मण न लौटे तो ब्राह्मणोंके समाजमें जाकर राजा उससे यों कहे --“ब्रह्मन! यदि आप यहाँसे चले जायँगे तो ये प्रजावर्गके लोग किसके आश्रयमें रहकर धर्ममर्यादाका पालन करेंगे?” ।। ४ ।।

इतना सुनकर वह निश्चय ही लौट आयेगा। यदि इतनेपर भी वह कुछ न बोले तो राजाको इस प्रकार कहना चाहिये--“भगवन्‌! मेरे द्वारा जो पहले अपराध बन गये हों, उन्हें आप भूल जाय, कुन्तीनन्दन! इस प्रकार विनयपूर्वक ब्राह्मणको प्रसन्न करना राजाका सनातन कर्तव्य है ।। ५ ।।

लोग कहते हैं कि ब्राह्मणको भोग-सामग्रीका अभाव हो तो उसे भोग अर्पित करनेके लिये निमन्त्रित करे और यदि उसके पास जीविकाका अभाव हो तो उसके लिये जीविकाकी व्यवस्था करे, परंतु मैं इस बातपर विश्वास नहीं करता; (क्योंकि ब्राह्मणमें भोगेच्छाका होना सम्भव नहीं है) || ६ ।।

खेती, पशुपालन और वाणिज्य--ये तो इसी लोकमें लोगोंकी जीविकाके साधन हैं; परंतु तीनों वेद ऊपरके लोकोंमें भी रक्षा करते हैं। वे ही यज्ञोंद्वारा समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और वृद्धिमें हेतु हैं || ७ ।।

जो लोग उस वेदविद्याके अध्ययनाध्यापनमें अथवा वेदोक्त यज्ञ-यागादि कर्मोमें बाधा पहुँचाते हैं, वे डकैत हैं। उन डाकुओंका वध करनेके लिये ही ब्रह्माजीने क्षत्रिय जातिकी सृष्टि की है ।। ८ 

नरेश्वर! कौरवनन्दन! तुम शत्रुओंको जीतो, प्रजाकी रक्षा करो, नाना प्रकारके यज्ञ करते रहो और समरभूमिमें वीरतापूर्वक लड़ो ।। ९ ।।

जो रक्षा करनेके योग्य पुरुषोंकी रक्षा करता है, वही राजा समस्त राजाओंमें शिरोमणि है। जो रक्षाके पात्र मनुष्योंकी रक्षा नहीं करते, उन राजाओंकी जगत्‌को कोई आवश्यकता नहीं है ।। १० ।।

युधिष्ठिर! राजाको सब लोगोंकी भलाईके लिये सदा ही युद्ध करना अथवा उसके लिये उद्यत रहना चाहिये। अतः वह मानवशिरोमणि नरेश शत्रुओंकी गतिविधिको जाननेके लिये मनुष्योंको ही गुप्तचर नियत कर दे ।। ११

युधिष्ठिर! जो लोग अपने अन्तरंग हों, उनसे बाहरी लोगोंकी रक्षा करो और बाहरी लोगोंसे सदा अन्तरंग व्यक्तियोंको बचाओ। इसी प्रकार बाहरी व्यक्तियोंकी बाहरके लोगोंसे और समस्त आत्मीयजनोंकी आत्मीयोंसे सदा रक्षा करते रहो ।। १२ ।।

राजन! तुम सब ओरसे अपनी रक्षा करते हुए ही इस सारी पृथ्वीकी रक्षा करो; क्योंकि विद्वान्‌ पुरुषोंका कहना है कि इन सबका मूल अपना सुरक्षित शरीर ही है | ।।

मुझमें कौन-सी दुर्बलता है, किस तरहकी आसक्ति है और कौन-सी ऐसी बुराई है, जो अबतक दूर नहीं हुई है और किस कारणसे मुझपर दोष आता है? इन सब बातोंका राजाको सदा विचार करते रहना चाहिये || १४ ।।

कलतक मेरा जैसा बर्ताव रहा है, उसकी लोग प्रशंसा करते हैं या नहीं? इस बातका पता लगानेके लिये अपने विश्वासपात्र गुप्तचरोंको पृथ्वीपर सब ओर घुमाते रहना चाहिये ।। १५ ।।

उनके द्वारा यह भी पता लगाना चाहिये कि यदि अबसे लोग मेरे बर्तावको जान लें तो उसकी प्रशंसा करेंगे या नहीं। क्या बाहरके गाँवोंमें और समूचे राष्ट्रमें मेरा यश लोगोंको अच्छा लगता है? ।। १६ 

युधिष्ठिर! जो धर्मज्ञ, धैर्यवान्‌ और संग्राममें कभी पीठ न दिखानेवाले शूरवीर हैं, जो राज्यमें रहकर जीविका चलाते हैं अथवा राजाके आश्रित रहकर जीते हैं तथा जो मन्त्रिगण और तटस्थवर्गके लोग हैं, वे सब तुम्हारी प्रशंसा करें या निन्दा, तुम्हें सबका सत्कार ही करना चाहिये ।। १७-१८ ६ ।।

तात! किसीका कोई भी काम सबको सर्वथा अच्छा ही लगे, ऐसा सम्भव नहीं है, भरतनन्दन! सभी प्राणियोंके शत्रु, मित्र और मध्यस्थ होते हैं ।। १९ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जो बाहुबलमें एक समान हैं और गुणोंमें भी एक समान हैं, उनमेंसे कोई एक मनुष्य सबसे अधिक कैसे हो जाता है, जो अन्य सब मनुष्योंपर शासन करने लगता है? ।। २० ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! जैसे क्रोधमें भरे हुए बड़े-बड़े विषधर सर्प दूसरे छोटे सर्पोंको खा जाते हैं, जिस प्रकार पैरोंसे चलनेवाले प्राणी न चलनेवाले प्राणियोंको अपने उपभोगमें लाते हैं और दाढ़वाले जन्तु बिना दाढ़वाले जीवोंको अपना आहार बना लेते हैं (उसी प्राकृतिक नियमके अनुसार बहुसंख्यक दुर्बल मनुष्योंपर एक सबल मनुष्य शासन करने लगता है) ।। २१ ।।

युधिष्ठिर! इन सभी हिंसक जन्तुओं तथा शत्रुकी ओरसे राजाको सदा सावधान रहना चाहिये; क्योंकि असावधान होनेपर ये गिद्ध पक्षियोंके समान सहसा टूट पड़ते हैं || २२ ।।

ऊँचे या नीचे भावसे माल खरीदनेवाले और व्यापारके लिये दुर्गम प्रदेशोंमें विचरनेवाले वैश्य तुम्हारे राज्यमें करके भारी भारसे पीड़ित हो उद्विग्न तो नहीं होते हैं? || २३ ।।

किसानलोग अधिक लगान लिये जानेके कारण अत्यन्त कष्ट पाकर तुम्हारा राज्य छोड़कर तो नहीं जा रहे हैं। क्योंकि किसान ही राजाओंका भार ढोते हैं और वे ही दूसरे लोगोंका भी भरण-पोषण करते हैं || २४ ।।

इन्हींके दिये हुए अन्नसे देवता, पितर, मनुष्य, सर्प, राक्षस और पशु-पक्षी--सबकी जीविका चलती है ।। २५ ।।

भरतनन्दन! यह मैंने राजाके राष्ट्रके साथ किये जानेवाले बर्तावका वर्णन किया। इसीसे राजाओंकी रक्षा होती है। पाण्डुकुमार! इसी विषयको लेकर मैं आगेकी भी बात कहूँगा ।। २६ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें राष्ट्रकी रक्षाविषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ८९ 

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

नब्बेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) नब्बेवें अध्याय के श्लोक 1-41 का हिन्दी अनुवाद)

“उतथ्यका मान्धाताको उपदेश--राजाके लिये धर्मपालनकी आवश्यकता”

भीष्मजी कहते हैं--राजन! ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ अंगिरापुत्र उतथ्यने युवनाश्चके पुत्र मान्धातासे प्रसन्नतापूर्वक जिन क्षत्रिय-धर्मोका वर्णन किया था, उन्हें सुनो ।। १ ।।

युधिष्ठिर! ब्रह्मज्ञानियोंमें शिरोमणि उतथ्यने जिस प्रकार उन्हें उपदेश दिया था, वह सब प्रसंग पूरा-पूरा तुम्हें बता रहा हूँ, श्रवण करो ।। २ ।।

उतथ्य बोले--मान्धाता! राजा धर्मका पालन और प्रचार करनेके लिये ही होता है, विषय-सुखोंका उपभोग करनेके लिये नहीं। तुम्हें यह जानना चाहिये कि राजा सम्पूर्ण जगत्‌का रक्षक है ।। ३ ।।

यदि राजा धर्माचरण करता है तो देवता बन जाता है, और यदि वह अधर्माचरण करता है तो नरकमें ही गिरता है || ४ ।।

सम्पूर्ण प्राणी धर्मके ही आधारपर स्थित हैं और धर्म राजाके ऊपर प्रतिष्ठित है। जो राजा अच्छी तरह धर्मका पालन और उसके अनुकूल शासन करता है वही दीर्घकालतक इस पृथ्वीका स्वामी बना रहता है ।।

परम धर्मात्मा और श्रीसम्पन्न राजा धर्मका साक्षात्‌ स्वरूप कहलाता है। यदि वह धर्मका पालन नहीं करता तो लोग देवताओंकी भी निन्दा करते हैं और वह धर्मात्मा नहीं, पापात्मा कहलाता है ।। ६ ।।

जो अपने धर्मके पालनमें तत्पर रहते हैं, उन्हींसे अभीष्ट मनोरथकी सिद्धि होती देखी जाती है। सारा संसार उसी मंगलमय धर्मका अनुसरण करता है ।। ७ ।।

जब पापको रोका नहीं जाता, तब जगतमें धार्मिक बर्तावका उच्छेद हो जाता है और सब ओर महान्‌ अधर्म फैल जाता है, जिससे प्रजाको दिन-रात भय बना रहता है ।। ८ ।।

तात! यदि पापकी प्रवृत्तिका निवारण न किया जाय तो यह मेरी वस्तु है, ऐसा कहना श्रेष्ठ पुरुषोंक लिये असम्भव हो जाता है और उस समय कोई भी धार्मिक व्यवस्था टिकने नहीं पाती है ।। ९ ।।

जब जगत्‌में पापका बल बढ़ जाता है, तब मनुष्योंके लिये अपनी स्त्री, अपने पशु और अपने खेत या घरका भी कुछ ठिकाना दिखायी नहीं देता || १० ।।

जब पापको रोका नहीं जाता, तब देवता पूजाको नहीं जानते हैं, पितरोंको स्वधा (श्राद्ध) का अनुभव नहीं होता है तथा अतिथियोंकी कहीं पूजा नहीं होती है ।। ११ ।।

जब पापका निवारण नहीं किया जाता है, तब ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले द्विज वेदोंका अध्ययन छोड़ देते हैं और ब्राह्मण यज्ञोंका अनुष्ठान नहीं कर पाते हैं ।। १२ ।।

महाराज! जब पापका निवारण नहीं किया जाता है, तब बूढ़े जन्तुओंकी भाँति मनुष्योंका मन घबराहटमें पड़ा रहता है ।। १३ ।।

लोक और परलोक दोनोंको दृष्टिमें रखकर महर्षियोंने स्वयं ही राजा नामक एक महान्‌ शक्तिशाली मनुष्यकी सृष्टि की। उन्होंने सोचा था कि “यह साक्षात्‌ धर्मस्वरूप होगा” ।। १४ ।।

अतः: जिसमें धर्म विराज रहा हो, उसीको राजा कहते हैं और जिसमें धर्म (वृष) का लय हो गया हो, उसे देवतालोग “वृषल' मानते हैं || १५ ।।

वृष नाम है भगवान्‌ धर्मका। जो धर्मके विषयमें 'अलम” (बस) कह देता है, उसे देवता “वृषल” समझते हैं; अतः धर्मकी सदा ही वृद्धि करनी चाहिये ।। १६ ।।

धर्मकी वृद्धि होनेपर सदा समस्त प्राणियोंका अभ्युदय होता है और उसका हास होनेपर सबका ह्वास हो जाता है; अतः धर्मका कभी लोप नहीं होने देना चाहिये ।। १७ ।।

नरेन्द्र! धनसे धर्मकी उत्पत्ति होती है। सबको धारण करनेके कारण वह निश्चितरूपसे धर्म कहा गया है। वह धर्म अकर्तव्य (पाप) की सीमाका अन्त करनेवाला माना गया है ।। १८ ।।

ब्रह्माजीने प्राणियोंके कल्याणार्थ ही धर्मकी सृष्टि की है, इसलिये राजाको चाहिये कि अपने देशमें प्रजा-जनोंपर अनुग्रह करनेके लिये धर्मका प्रचार करे ।। १९ ।।

राजसिंह! इसी कारणसे धर्मको सबसे श्रेष्ठ माना गया है। पुरुषप्रवर! जो सद्धर्मके पालनपूर्वक प्रजाका शासन करता है, वही राजा है || २० ।।

भरतभूषण! तुम भी काम और क्रोधकी अवहेलना करके निरन्तर धर्मका ही पालन करो। धर्म ही राजाओंके लिये सबसे बढ़कर कल्याण करनेवाला है || २१ ||

मान्धाता! धर्मका मूल है ब्राह्मण; इसलिये ब्राह्मणोंका सदा सम्मान करना चाहिये, ब्राह्मणोंकी प्रत्येक कामनाको ईर्ष्यारहित होकर पूर्ण करना उचित है ।। २२ ।।

उनकी इच्छा पूर्ण न करनेसे राजाओंके ऊपर भय आता है। राजाके मित्रोंकी वृद्धि नहीं होती, उलटे शत्रु बनते जाते हैं ।। २३ ।।

विरोचनकुमार बलि बाल्यकालसे ही सदा ब्राह्मणोंपर दोषारोपण करते थे; इसलिये उनकी राजलक्ष्मी, जो शत्रुओंको संताप देनेवाली थी, उनके पाससे हट गयी ।। २४ ।।

बलिसे हटकर वह राजलक्ष्मी देवराज इन्द्रके पास चली गयी। फिर इन्द्रके पास उस लक्ष्मीको देखकर राजा बलिको बड़ा पश्चात्ताप होने लगा || २५ ।।

प्रभो! यह अभिमान और असूयाका फल है, अतः मान्धाता! तुम सचेत हो जाओ, कहीं तुम्हारी भी शत्रुतापिनी लक्ष्मी तुमको छोड़ न दे | २६ ।।

राजन! सम्पत्तिका पुत्र है दर्प, जो अधर्मके अंशसे उत्पन्न हुआ है, यह श्रुतिका कथन है। उस दर्पने बहुतसे देवताओं, असुरों और राजर्षियोंका विनाश कर डाला है। अतः भूपाल! अब भी चेतो। जो दर्पको जीत लेता है, वह राजा होता है और जो उससे पराजित हो जाता है, वह दास बन जाता है || २७-२८ ।।

मान्धाता! यदि तुम चिरकालतक राजसिंहासनपर विराजमान रहना चाहते हो तो ऐसा बर्ताव करो, जिससे तुम्हारे द्वारा दर्प और अधर्मका सेवन न हो ।। २९ ।।

मतवाले, प्रमादी, बालक तथा विशेषत: पागलोंसे बचो। उनके निकट-सम्पर्कसे भी दूर रहो और यदि वे एक साथ रहकर सेवा करना चाहें तो उनकी उस सेवासे भी सर्वथा बचे रहो || ३० ।।

इसी तरह जिसको एक बार कैद किया हो, उस मन्त्रीसे, विशेषतः परायी स्त्रियोंसे, ऊँचे-नीचे और दुर्गम पर्वतसे तथा हाथी, घोड़े और सर्पेंसे राजाको बचकर रहना चाहिये। इनकी ओरसे सदा सावधान रहे और रातमें घूमना-फिरना छोड़ दे। कृपणता, अभिमान, दम्भ और क्रोधका भी सर्वथा परित्याग कर दे || ३१-३२ ।।

अपरिचित स्त्रियों, बाँझ स्त्रियों, वेश्याओं, परायी स्त्रियों तथा कुमारी कनन्‍्याओंके साथ राजा मैथुन न करे ।।

जब राजा धर्मकी ओरसे प्रमाद करता है, तब वर्णसंकरताके कारण उत्तम कुलोंमें पापी और राक्षस जन्म लेते हैं। नपुंसक, काने, लँगड़े, लूले, गूँगे तथा बुद्धिहीन बालकोंकी उत्पत्ति होती है। ये तथा और भी बहुत-सी कुत्सित संतानें जन्म लेती हैं। इसलिये राजाको विशेषरूपसे धर्मपरायण एवं सावधान होकर प्रजाके हितसाधनमें तत्पर रहना चाहिये || ३४-३५ ।।

क्षत्रियके प्रमादसे बड़े-बड़े दोष प्रकट होते हैं। वर्णसंकरोंको जन्म देनेवाले पापकर्मोंकी वृद्धि होती है ।।

गर्मीके मौसममें सर्दी और सर्दीके मौसममें गर्मी पड़ने लगती है। कभी सूखा पड़ जाता है, कभी अधिक वर्षा होती है तथा प्रजामें नाना प्रकारके रोग फैल जाते हैं |। ३७ ।।

आकाशमें भयानक ग्रह और धूमकेतु आदि तारे उगते हैं तथा राष्ट्रके विनाशकी सूचना देनेवाले बहुतसे उत्पात दिखायी देने लगते हैं | ३८ ।।

जो राजा अपनी रक्षा नहीं करता, वह प्रजाकी भी रक्षा नहीं कर सकता। पहले उसकी प्रजाएँ क्षीण होती हैं; फिर वह स्वयं भी नष्ट हो जाता है || ३९ ।।

जब दो मनुष्य मिलकर एककी वस्तु छीन लेते हैं, बहुत-से मिलकर दोको लूटते हैं तथा कुमारी कन्याओंपर बलात्कार होने लगता है, उस समय इन सारे अपराधोंका कारण राजाको ही बताया जाता है || ४० ।।

जब राजा धर्म छोड़कर प्रमादमें पड़ जाता है, तब मनुष्योंमेंसे एक भी अपने धनको “यह मेरा है” ऐसा समझकर स्थिर नहीं रह सकता ।। ४१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें उतथ्यगीताविषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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