सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इक्यासीवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“कुट॒म्बीजनोंमें दलबंदी होनेपर उस कुलके प्रधान पुरुषको क्या करना चाहिये? इसके विषयमें श्रीकृष्ण और नारदजीका संवाद”
युधिष्ठिर ने पूछा ;-- पितामह! यदि सजातीय बन्धुओं और सगे-सम्बन्धियोंके समुदायको पारस्परिक स्पर्धाके कारण वशमें करना असम्भव हो जाय, कुट॒म्बीजनोंमें ही यदि दो दल हों तो एकका आदर करनेसे दूसरा दल रुष्ट हो ही जाता है। ऐसी परिस्थितिके कारण यदि मित्र भी शत्रु बन जाय, तब उन सबके चित्तको किस प्रकार वशमें किया जा सकता है?।
भीष्मजीने कहा ;-- युधिष्ठिर! इस विषयमें मनीषी पुरुष देवर्षि नारद और भगवान् श्रीकृष्णके भूतपूर्व संवादरूप इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं।
एक समय भगवान् श्रीकृष्णने कहा ;-- देवर्षे! जो व्यक्ति सुहृद् न हो, जो सुहृद् तो हो किंतु पण्डित न हो तथा जो सुहृद् और पण्डित तो हो किंतु अपने मनको वशमें न कर सका हो--ये तीनों ही परम गोपनीय मन्त्रणाको सुनने या जाननेके अधिकारी नहीं हैं। स्वर्गमें विचरनेवाले नारदजी! मैं आपके सौहार्दपर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करूँगा। मनुष्य किसी व्यक्तिमें बुद्धि-बलकी पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है।
मैं अपनी प्रभुता प्रकाशित करके जाति-भाइयों, कुटुम्बीजनोंको अपना दास बनाना नहीं चाहता। मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग ही अपने उपभोगमें लाता हूँ, शेष आधा भाग कुट॒म्बीजनोंके लिये ही छोड़ देता हूँ। और उनकी कड़वी बातोंको सुनकर भी क्षमा कर देता हूँ। देवर्ष! जैसे अग्निको प्रकट करनेकी इच्छावाला पुरुष अरणीकाष्ठका मन्थन करता है, उसी प्रकार इन कुटुम्बीजनोंका कटुवचन मेरे हृदयको सदा मथता और जलाता रहता है।
नारदजी! बड़े भाई बलराममें सदा ही असीम बल है; वे उसीमें मस्त रहते हैं। छोटे भाई गदमें अत्यन्त सुकुमारता है (अतः वह परिश्रमसे दूर भागता है); रह गया बेटा प्रद्युम्न, सो वह अपने रूप-सौन्दर्यके अभिमानसे ही मतवाला बना रहता है। इस प्रकार इन सहायकोंके होते हुए भी मैं असहाय हूँ। नारदजी! अन्धक तथा वृष्णिवंशमें और भी बहुत-से वीर पुरुष हैं, जो महान् सौभाग्यशाली, बलवान एवं दुःसह पराक्रमी हैं, वे सब-के-सब सदा उद्योगशील बने रहते हैं। ये वीर जिसके पक्षमें न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्षमें ये चले जायँ, वह सारा-का-सारा समुदाय ही विजयी हो जाय। परंतु आहुक और अक्रूरने आपसमें वैमनस्य रखकर मुझे इस तरह अवरुद्ध कर दिया है कि मैं इनमेंसे किसी एकका पक्ष नहीं ले सकता।
आपसमें लड़नेवाले आहुक और अक्रूर दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिये इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या होगी? और वे दोनों ही जिसके सुहृद् न हों, उसके लिये भी इससे बढ़कर और दु:ख क्या हो सकता है? (क्योंकि ऐसे मित्रोंका न रहना भी महान् दुःखदायी होता है)। महामते! जैसे दो जुआरियोंकी एक ही माता एककी जीत चाहती है तो दूसरेकी भी पराजय नहीं चाहती, उसी प्रकार मैं भी इन दोनों सुहृदोंमेंसे एककी विजयकामना करता हूँ तो दूसरेकी भी पराजय नहीं चाहता। नारदजी! इस प्रकार मैं सदा उभय पक्षका हित चाहनेके कारण दोनों ओरसे कष्ट पाता रहता हूँ। ऐसी दशामें मेरा अपना तथा इन जाति-भाइयोंका भी जिस प्रकार भला हो, वह उपाय आप बतानेकी कृपा करें।
नारदजीने कहा ;-- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! आपत्तियाँ दो प्रकारकी होती हैं--एक बाहा और दूसरी आशभ्यन्तर। वे दोनों ही स्वकृतः* और परकृत+-भेदसे दो-दो प्रकारकी होती हैं। अक्रूर और आहुकसे उत्पन्न हुई यह कष्टदायिनी आपत्ति जो आपको प्राप्त हुई है, आभ्यन्तर है और अपनी ही करतूतोंसे प्रकट हुई है। ये सभी जिनके नाम आपने गिनाये हैं, आपके ही वंशके हैं। आपने स्वयं जिस ऐश्वर्यको प्राप्त किया था, उसे किसी प्रयोजनवश या स्वेच्छासे अथवा कटुवचनसे डरकर दूसरेको दे दिया। सहायशाली श्रीकृष्ण! इस समय उग्रसेनको दिया हुआ वह ऐश्वर्य दृढ़मूल हो चुका है। उमग्रसेनके साथ जातिके लोग भी सहायक हैं; अत: उगले हुए अन्नकी भाँति आप उस दिये हुए ऐश्वर्यको वापस नहीं ले सकते।
श्रीकृष्ण! अक्रूर और उग्रसेनके अधिकारमें गये हुए राज्यको भाई-बन्धुओंमें फूट पड़नेके भयसे अन्यकी तो कौन कहे इतने शक्तिशाली होकर स्वयं भी आप किसी तरह वापस नहीं ले सकते। बड़े प्रयत्नसे अत्यन्त दुष्कर कर्म महान् संहाररूप युद्ध करनेपर राज्यको वापस लेनेका कार्य सिद्ध हो सकता है, परंतु इसमें धनका बहुत व्यय और असंख्य मनुष्योंका पुन: विनाश होगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इक्यासीवें अध्याय के श्लोक 19–30 का हिन्दी अनुवाद)
अतः श्रीकृष्ण! आप एक ऐसे कोमल शस्त्रसे, जो लोहेका बना हुआ न होनेपर भी हृदयको छेद डालनेमें समर्थ है, परिमार्जनः और अनुमार्जनः करके उन सबकी जीभ उखाड़ लें--उन्हें मूक बना दें (जिससे फिर कलहका आरम्भ न हो)।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा ;-- मुने! बिना लोहेके बने हुए उस कोमल शस्त्रको मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्ज और अनुमार्जज करके इन सबकी जिलह्ठलाको उखाड़ लूँ।
नारदजीने कहा ;-- श्रीकृष्णप! अपनी शक्तिके अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) करना--यही बिना लोहेका बना हुआ शस्त्र है। जब सजातीय बन्धु आपके प्रति कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मनको शान्त कर दें।
जो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मनको वशमें नहीं किया है तथा जो सहायकोंसे सम्पन्न नहीं है, वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता। अतः आप ही इस गुरुतर भारको हृदयसे उठाकर वहन करें। समतल भूमिपर सभी बैल भारी भार वहन कर लेते हैं; परंतु दुर्गण भूमिपर कठिनाईसे वहन करनेयोग्य गुरुतर भारको अच्छे बैल ही ढोते हैं।
केशव! आप इस यादवसंघके मुखिया हैं। यदि इसमें फ़ूट हो गयी तो इस समूचे संघका विनाश हो जायगा; अतः आप ऐसा करें जिससे आपको पाकर इस संघका--इस यादवगणततन्त्र राज्यका मूलोच्छेद न हो जाय। बुद्धि, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रहके बिना तथा धन वैभवका त्याग किये बिना कोई गण अथवा संघ किसी बुद्धिमान् पुरुषकी आज्ञाके अधीन नहीं रहता है। श्रीकृष्ण! सदा अपने पक्षकी ऐसी उन्नति होनी चाहिये जो धन, यश तथा आयुकी वृद्धि करनेवाली हो और कुट॒म्बीजनोंमेंसे किसीका विनाश न हो। यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा ही कीजिये। प्रभो! संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय--इन छहों गुणोंके यथासमय प्रयोगसे तथा शत्रुपर चढ़ाई करनेके लिये यात्रा करनेपर वर्तमान या भविष्यमें क्या परिणाम निकलेगा? यह सब आपसे छिपा नहीं है। महाबाहु माधव! कुकुर, भोज, अन्धक और वृष्णिवंशके सभी यादव आपमें प्रेम रखते हैं। दूसरे लोग और लोकेश्वर भी आपमें अनुराग रखते हैं। औरोंकी तो बात ही क्या है? बड़ेबड़े ऋषि-मुनि भी आपकी बुद्धिका आश्रय लेते हैं।
आप समस्त प्राणियोंके गुरु हैं। भूत, वर्तमान और भविष्यको जानते हैं। आप-जैसे यदुकुलतिलक महापुरुषका आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें श्रीकृष्ण-नारदसंवाद नामक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टीका टिप्पणी;-
- जो आपत्तियाँ स्वत: अपने ही करतूतोंसे आती हैं, उन्हें स्वकृत कहते हैं।
- जिन्हें लानेमें दूसरे लोग निमित्त बनते हैं, वे विपत्तियाँ परकृत कहलाती हैं।
- क्षमा, सरलता और कोमलताके द्वारा दोषोंको दूर करना “परिमार्जन” कहलाता है।
- यथायोग्य सेवा-सत्कारके द्वारा हृदयमें प्रीति उत्पन्न करना, “अनुमार्जन” कहा गया है।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) बयासीवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“मन्त्रियोंकी परीक्षाके विषयमें तथा राजा और राजकीय मनुष्योंसे सतर्क रहनेके विषयमें कालकवृक्षीय मुनिका उपाख्यान”
भीष्मजी कहते हैं :-- भरतनन्दन! यह राजा अथवा राजनीतिकी पहली वृत्ति है, अब दूसरी सुनो। जो कोई मनुष्य राजाके धनकी वृद्धि करे, उसकी राजाको सदा रक्षा करनी चाहिये। भरतवंशी युधिष्छिर! यदि मन्त्री राजाके खजानेसे धनका अपहरण करता हो और कोई सेवक अथवा राजाके द्वारा पालित हुआ दूसरा कोई मनुष्य राजकीय कोषके नष्ट होनेका समाचार राजाको बतावे, तब राजाको उसकी बात एकान्तमें सुननी चाहिये और मन्त्रीसे उसके जीवनकी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि चोरी करनेवाले मन्त्री अपना भंडाफोड़ करनेवाले मनुष्यको प्राय: मार डाला करते हैं।
जो राजाके खजानेकी रक्षा करनेवाला है, उस पुरुषको राजकीय कोष लूटनेवाले सब लोग एकमत होकर सताने लगते हैं। यदि राजाके द्वारा उसकी रक्षा नहीं की जाय तो वह बेचारा बेमौत मारा जाता है। इस विषयमें जानकार लोग, कालकवृक्षीय मुनिने कोसलराजको जो उपदेश दिया था, उसी प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं।
हमने सुना है कि राजा क्षेमदर्शी जब कोसल प्रदेशके राजसिंहासनपर आसीन थे, उन्हीं दिनों कालक-वृक्षीय मुनि उस राज्यमें पधारे थे। उन्होंने क्षेमदर्शीके सारे देशमें, उस राज्यका समाचार जाननेके लिये एक कौएको पिंजड़ेमें बाँधकर साथ ले बड़ी सावधानीके साथ बारंबार चक्कर लगाया। घूमते समय वे लोगोंसे कहते थे, 'सज्जनो! तुमलोग मुझसे वायसी विद्या (कौओंकी बोली समझनेकी कला) सीखो। मैंने सीखी है, इसलिये कौए मुझसे भूत, भविष्य तथा इस समय जो वर्तमान है, वह सब बता देते हैं!।
यही कहते हुए वे बहुतेरे मनुष्योंके साथ उस राष्ट्रमें सब ओर घूमते फिरे। उन्होंने राजकार्यमें लगे हुए समस्त कर्मचारियोंका दुष्कर्म अपनी आँखों देखा। उस राष्ट्रके सारे व्यवसायोंको जानकर तथा राजकीय कर्मचारियोंद्वारा राजाकी सम्पत्तिके अपहरण होनेकी सारी घटनाओंका जहाँ-तहाँसे पता लगाकर वे उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षि अपनेको सर्वज्ञ घोषित करते हुए उस कौएको साथ ले राजासे मिलनेके लिये आये। कोसल नरेश के निकट उपस्थित हो मुनिने सज-धजकर बैठे हुए राजमन्त्रीसे कौएके कथनका हवाला देते हुए कहा,
मुनि ने कहा ;-- “तुमने अमुक स्थानपर राजाके अमुक धनकी चोरी की है। अमुक-अमुक व्यक्ति इस बातको जानते हैं, जो इसके साक्षी हैं'। हमारा यह कौआ कहता है कि “तुमने राजकीय कोषका अपहरण किया है; अतः तुम अपने इस अपराधको शीत्र स्वीकार करो”। इसी प्रकार मुनिने राजाके खजानेसे चोरी करनेवाले अन्य कर्मचारियोंसे भी कहा --तुमने चोरी की है। मेरे इस कौएकी कही हुई कोई भी बात कभी और कहीं भी झूठी नहीं सुनी गयी है”।
कुरुश्रेष्ठ! इस प्रकार मुनिके द्वारा तिरस्कृत हुए सभी राजकर्मचारियोंने अँधेरी रातमें सोये हुए मुनिके उस कौएको बाणसे बींधकर मार डाला। अपने कौएको पिंजड़ेमें बाणसे विदीर्ण हुआ देखकर ब्राह्मणने पूर्वाह्गमें राजा क्षेमदर्शीसे इस प्रकार कहा,--
मुनि ने कहा ;- “राजन्! आप प्रजाके प्राण और धनके स्वामी हैं। मैं आपसे अभयकी याचना करता हूँ। यदि आज्ञा हो तो मैं आपके हितकी बात कहूँ। “आप मेरे मित्र हैं। मैं आपके ही हितके लिये आपके प्रति सम्पूर्ण हृदयसे भक्तिभाव रखकर यहाँ आया हूँ। आपकी जो हानि हो रही है, उसे देखकर मैं बहुत संतप्त हूँ।
'जैसे सारथि अच्छे घोड़ेको सचेत करता है, उसी प्रकार यदि कोई मित्र मित्रको समझानेके लिये आया हो, मित्रकी हानि देखकर जो अत्यन्त दुखी हो और उसे सहन न कर सकनेके कारण जो हठपूर्वक अपने सुहृद् राजाका हितसाधन करनेके लिये उसके पास आकर कहे कि “राजन! तुम्हारे इस धनका अपहरण हो रहा है” तो सदा ऐश्वर्य और उन्नतिकी इच्छा रखनेवाले विज्ञ एवं सुहृद् पुछषको अपने उस हितकारी मित्रकी बात सुननी चाहिये और उसके अपराधको क्षमा कर देना चाहिये!
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इक्यासीवें अध्याय के श्लोक 19–30 का हिन्दी अनुवाद)
तब राजाने मुनिको इस प्रकार उत्तर दिया,
राजा ने कहा ;-- 'ब्राह्मण! आप जो कुछ कहना चाहें, मुझसे निर्भय होकर कहें। अपने हितकी इच्छा रखनेवाला मैं आपको क्षमा क्यों नहीं करूँगा? विप्रवर! आप जो चाहें, कहिये। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि आप मुझसे जो कोई भी बात कहेंगे, आपकी उस आज्ञाका मैं पालन करूँगा”।
मुनि बोले ;-- महाराज! आपके कर्मचारियोंमेंसे कौन अपराधी है और कौन निरपराध? इस बातका पता लगाकर तथा आपपर आपके सेवकोंकी ओरसे ही अनेक भय आने वाले हैं, यह जानकर प्रेमपूर्वक राज्यका सारा समाचार बतानेके लिये मैं आपके पास आया था।
नीतिशास्त्रके आचार्योने राजसेवकोंके इस दोषका पहलेसे ही वर्णन कर रखा है कि जो राजाकी सेवा करनेवाले लोग हैं, उनके लिये यह पापमयी जीविका अगतिक गति है, अर्थात् जिन्हें कहीं भी सहारा नहीं मिलता, वे राजाके सेवक होते हैं। जिसका राजाओंके साथ मेल-जोल हो गया, उसकी विषधर सर्पोके साथ सड्ति हो गयी, ऐसा नीतिज्ञोंका कथन है। राजाके जहाँ बहुतसे मित्र होते हैं, वहीं उनके अनेक शत्रु भी हुआ करते हैं। राजाके आश्रित होकर जीविका चलानेवालोंको उन सभीसे भय बताया गया है। राजन! स्वयं राजासे भी उन्हें घड़ी-घड़ीमें खतरा रहता है।
राजाके पास रहनेवालोंसे कभी कोई प्रमाद हो ही नहीं, यह तो असम्भव है, परंतु जो अपना भला चाहता हो उसे किसी तरह उसके पास जान-बूझकर प्रमाद नहीं करना चाहिये। यदि सेवकके द्वारा असावधानीके कारण कोई अपराध बन गया तो राजा पहलेके उपकारको भुलाकर कुपित हो उससे द्वेष करने लगता है और जब राजा अपनी मर्यादासे भ्रष्ट हो जाय तो उस सेवकके जीवनकी आशा नहीं रह जाती। जैसे जलती हुई आगके पास मनुष्य सचेत होकर जाता है, उसी प्रकार शिक्षित पुरुषको राजाके पास सावधानीसे रहना चाहिये।
राजा प्राण और धन दोनोंका स्वामी है। जब वह कुपित होता है तो विषधर सर्पके समान भयंकर हो जाता है; अतः मनुष्यको चाहिये कि “मैं जीवित नहीं हूँ” ऐसा मानकर अर्थात् अपनी जानको हथेलीपर लेकर सदा बड़े यत्नसे राजाकी सेवा करे।
मुँहसे कोई बुरी बात न निकल जाय, कोई बुरा काम न बन जाय, खड़ा होते, किसी आसनपर बैठते, चलते, संकेत करते तथा किसी अंगके द्वारा कोई चेष्टा करते समय असभ्यता अथवा बेअदबी न हो जाय, इसके लिये सदा सतर्क रहना चाहिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इक्यासीवें अध्याय के श्लोक 31-50 का हिन्दी अनुवाद)
यदि राजाको प्रसन्न कर लिया जाय तो वह देवताकी भाँति सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध कर देता है और यदि कुपित हो जाय तो जलती हुई आगकी भाँति जड़-मूलसहित भस्म कर डालता है। राजन्! यमराजने जो यह बात कही है, वह ज्यों-की-त्यों ठीक है; फिर भी मैं तो बारंबार आपके महान् अर्थका साधन करूँगा ही। मेरे जैसा मन्त्री आपत्तिकालमें बुद्धिद्वारा सहायता देता है। राजन्! मेरा यह कौआ भी आपके कार्यसाधनमें संलग्न था; किंतु मारा गया (सम्भव है मेरी भी वही दशा हो)। परंतु इसके लिये मैं आपकी और आपके प्रेमियोंकी निन््दा नहीं करता। मेरा कहना तो इतना ही है कि आप स्वयं अपने हित और अनहितको पहचानिये। प्रत्येक कार्यको अपनी आँखोंसे देखिये। दूसरोंकी देख-भालपर विश्वास न कीजिये।
जो लोग आपका खजाना लूट रहे हैं और आपके ही घरमें रहते हैं, वे प्रजाकी भलाई चाहनेवाले नहीं हैं। वैसे लोगोंने मेरे साथ वैर बाँध लिया है। राजन्! जो आपका विनाश करके आपके बाद इस राज्यको अपने हाथमें लेना चाहता है, उसका वह कर्म अन्तःपुरके सेवकोंसे मिलकर कोई षड्यन्त्र करनेसे ही सफल हो सकता है; अन्यथा नहीं (अत: आपको सावधान हो जाना चाहिये)। नरेश्वर! मैं उन विरोधियोंके भयसे दूसरे आश्रममें चला जाऊँगा। प्रभो! उन्होंनें मेरे लिये ही बाणका संधान किया था; किंतु वह उस कौएपर जा गिरा।
मैं कोई कामना लेकर यहाँ नहीं आया था तो भी छल-कपटकी इच्छा रखनेवाले षड्यन्त्रकारियोंने मेरे कौएको मारकर यमलोक पहुँचा दिया। राजन! तपस्याके द्वारा प्राप्त हुई दूरदर्शिनी दृष्टिसे मैंने यह सब देखा है। यह राजनीति एक नदीके समान है। राजकीय पुरुष उसमें मगर, मत्स्य, तिमिड्रलसमूहों और ग्राहोंके समान हैं। बेचारे कौएके द्वारा मैं किसी तरह इस नदीसे पार हो सका हूँ।
जैसे हिमालयकी कन्दरामें ढूँठ, पत्थर और काँटे होते हैं, उसके भीतर सिंह और व्याप्रोंका भी निवास होता है तथा इन्हीं सब कारणोंसे उसमें प्रवेश पाना या रहना अत्यन्त कठिन एवं दुःसह हो जाता है, उसी प्रकार दुष्ट अधिकारियोंके कारण इस राज्यमें किसी भले मनुष्यका रहना मुश्किल है। अन्धकारमय दुर्गको अग्निके प्रकाशसे तथा जल-दुर्गको नौकाओंद्वारा पार किया जा सकता है; परंतु राजारूपी दुर्गसे पार होनेके लिये विद्वान् पुरुष भी कोई उपाय नहीं जानते हैं।
आपका यह राज्य गहन अन्धकारसे आच्छन्न और दु:खसे परिपूर्ण है। आप स्वयं भी इस राज्यपर विश्वास नहीं कर सकते; फिर मैं कैसे करूँगा। अतः यहाँ रहनेमें किसीका कल्याण नहीं है। यहाँ भले-बुरे सब एक समान हैं। इस राज्यमें बुराई करनेवाले और भलाई करनेवालेका भी वध हो सकता है, इसमें संशय नहीं है।
न्यायकी बात तो यह है कि बुराई करनेवालेको ही मारा जाय और पुण्य--श्रेष्ठ कर्म करनेवालेको किसी तरह भी कोई कष्ट न होने पावे, परंतु यहाँ ऐसा नहीं होता; अत: इस राज्यमें स्थिरभावसे निवास करना किसीके लिये भी उचित नहीं है। विद्वान् पुरुषको यहाँसे अति शीघ्र हट जाना चाहिये। राजन! सीता नामसे प्रसिद्ध एक नदी है, जिसमें नाव भी डूब जाती है, वैसी ही यहाँकी राजनीति भी है (इसमें मेरे जैसे सहायकोंके भी डूब जानेकी आशडूका है)। मैं तो इसे समस्त प्राणियोंका विनाश करनेवाली फाँसी ही समझता हूँ।
आप शहदके छत्तेसे युक्त पेड़की उस ऊँची डालीके समान हैं, जहाँसे नीचे गिरनेका ही भय है। आप विष मिलाये हुए भोजनके तुल्य हैं, आपका भाव असज्जनोंके समान है, सज्जनोंके तुल्य नहीं है। भूपाल! आप विषैले सर्पोसे घिरे हुए कुएँके समान हैं, राजन! आपकी अवस्था उस मीठे जलवाली नदीके समान हो गयी है, जिसके घाटतक पहुँचना कठिन है, जिसके दोनों किनारे बहुत ऊँचे हों और वहाँ करीलके झाड़ तथा बेंतकी वल्लरियाँ सब ओर छा रही हों।
जैसे कुत्तों, गीधों और गीदड़ोंसे घिरा हुआ राजहंस बैठा हो, उसी तरह दुष्ट कर्मचारियोंसे आप घिरे हुए हैं। जैसे लताओंका विशाल समूह किसी महान् वृक्षका आश्रय लेकर बढ़ता है, फिर धीरे-धीरे उस वृक्षको लपेट लेता है और उसका अतिक्रमण करके उससे भी ऊँचेतक फैल जाता है, फिर वही सूखकर भयानक ईंधन बन जाता है, तब दारुण दावानल उसी ईंधनके सहारे उस विशाल वृक्षको भी जला डालता है, राजन्! आपके मन्त्री भी उन्हीं सूखी लताओंके समान हो गये हैं अर्थात् आपके ही आश्रयसे बढ़कर आपहीके विनाशका कारण बन रहे हैं। अतः आप उनका शोधन कीजिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इक्यासीवें अध्याय के श्लोक 51–70 का हिन्दी अनुवाद)
नरेश्वर! आपने ही जिन्हें मंत्री बनाया और आपने जिनका पालन किया, वे आपसे ही कपटभाव रखकर आपके ही हितका विनाश करना चाहते हैं। मैं राजाके साथ रहनेवाले अधिकारियोंका शील-स्वभाव जानना चाहता था, इसलिये सदा सशड्क रहकर बड़ी सावधानीके साथ यहाँ रहा हूँ। ठीक उसी तरह, जैसे कोई साँपवाले मकानमें रहता हो अथवा किसी शूरवीरकी पत्नीके घरमें घुस गया हो।
क्या इस देशके राजा जितेन्द्रिय हैं? क्या इनके अंदर रहनेवाले सेवक इनके वशरमें हैं? क्या यहाँकी प्रजाओंका राजापर प्रेम है? और राजा भी क्या अपनी प्रजाओंपर प्रेम रखते हैं? नृपश्रेष्ठ! इन्हीं सब बातोंको जाननेकी इच्छासे मैं आपके यहाँ आया था। जैसे भूखेको भोजन अच्छा लगता है, उसी प्रकार आपका दर्शन मुझे बड़ा प्रिय लगता है; परंतु जैसे प्यास न रहनेपर पानी अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार आपके ये मन्त्री मुझे अच्छे नहीं जान पड़ते हैं। मैं आपकी भलाई करनेवाला हूँ, यही इन मन्त्रियोंने मुझमें बड़ा भारी दोष पाया है और इसीलिये ये मुझसे द्वेष रखने लगे हैं। इसके सिवा दूसरा कोई इनके रोषका कारण नहीं है। मुझे अपने इस कथनकी सत्यतामें कोई संदेह नहीं है। यद्यपि मैं इन लोगोंसे द्रोह नहीं करता तो भी मेरे प्रति इन लोगोंकी दोष-दृष्टि हो गयी है। जिसकी पूँछ दबा दी गयी हो, उस सर्पके समान दुष्ट हृदयवाले शत्रुसे सदा डरते रहना चाहिये (इसलिये अब मैं यहाँ रहना नहीं चाहता)।
राजाने कहा ;-- विप्रवर! आपपर आनेवाले भय अथवा संकटका विशेषरूपसे निवारण करते हुए मैं आपको बड़े आदर-सत्कारके साथ अपने यहाँ रखूँगा। आप मेरे द्वारा सम्मानित हो बहुत कालतक मेरे महलमें निवास कीजिये। ब्रह्मन! जो आपको मेरे यहाँ नहीं रहने देना चाहते हैं, वे स्वयं ही मेरे घरमें नहीं रहने पायेंगे अब इन विरोधियोंका दमन करनेके लिये जो आवश्यक कर्त्तव्य हो, उसे आप स्वयं ही सोचिये और समझिये।
भगवन्! जिस तरह राजदण्डको मैं अच्छी तरह धारण कर सकूँ और मेरे द्वारा अच्छे ही कार्य होते रहें, वह सब सोचकर आप मुझे कल्याणके मार्गपर लगाइये।
मुनिने कहा ;-- राजन्! पहले तो कौएको मारनेका जो अपराध है, इसे प्रकट किये बिना ही एक-एक मन्त्रीको उसका अधिकार छीनकर दुर्बल कर दीजिये। उसके बाद अपराधके कारणका पूरा-पूरा पता लगाकर क्रमशः: एक-एक व्यक्तिका वध कर डालिये। नरेश्वर! जब बहुत-से लोगोंपर एक ही तरहका दोष लगाया जाता है तो वे सब मिलकर एक हो जाते हैं और उस दशामें वे बड़े-बड़े कण्टकोंको भी मसल डालते हैं, अतः यह गुप्त विचार दूसरोंपर प्रकट न हो जाय, इसी भयसे मैं तुम्हें इस प्रकार एक-एक करके विरोधियोंके वधकी सलाह दे रहा हूँ।
महाराज! हमलोग ब्राह्मण हैं। हमारा दण्ड भी बहुत कोमल होता है। हम स्वभावसे ही दयालु होते हैं; अत: अपने ही समान आपका और दूसरोंका भी भला चाहते हैं। राजन्! अब मैं आपको अपना परिचय देता हूँ। मैं आपका सम्बन्धी हूँ। मेरा नाम है कालकवृक्षीय मुनि। मैं आपके पिताका आदरणीय एव सत्यप्रतिज्ञ मित्र हूँ। नरेश्वरर आपके पिताके स्वर्गवास हो जानेके पश्चात् जब आपके राज्यपर भारी संकट आ गया था, तब अपनी समस्त कामनाओंका परित्याग करके मैंने (आपके हितके लिये) तपस्या की थी। आपके प्रति स्नेह होनेके कारण मैं फिर यहाँ आया हूँ और आपको ये सब बातें इसलिये बता रहा हूँ कि आप फिर किसीके चक्करमें न पड़ जायेँ।
महाराज! आपने सुख और दु:ख दोनों देखे हैं। यह राज्य आपको दैवेच्छासे प्राप्त हुआ है तो भी आप इसे केवल मन्त्रियोंपर छोड़कर क्यों भूल कर रहे हैं?। तदनन्तर पुरोहितके कुलमें उत्पन्न विप्रवर कालकवृक्षीय मुनिके पुनः आ जानेसे राजपरिवारमें मंगलपाठ एवं आनन्दोत्सव होने लगा। कालकवृक्षीय मुनिने अपने बुद्धिबलसे यशस्वी कोसलनरेशको भूमण्डलका एकच्छत्र सम्राट् बनाकर अनेक उत्तम यज्ञोंद्वारा यजन किया।
भारत! कोसलराजने भी पुरोहितका हितकारी वचन सुना और उन्होंने जैसा कहा, वैसा ही किया। इससे उन्होंने समस्त भूमण्डलपर विजय प्राप्त कर ली।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें मन्त्रियोंकी परीक्षाके प्रसड़में कालकवृक्षीय मुनिका उपाख्यानविषयक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
तिरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तिरासीवें अध्याय के श्लोक 1-57 का हिन्दी अनुवाद)
“सभासद् आदिके लक्षण, गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणाकी विधि एवं स्थानका निर्देश”
युधिष्ठिरने पूछा ;-- प्रजापालक पितामह! राजाके सभासद्, सहायक, सुहृद, परिच्छद (सेनापति आदि) तथा मन्त्री कैसे होने चाहिये?।
भीष्मजीने कहा ;-- बेटा! जो लज्जाशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, सरल और किसी विषयपर अच्छी तरह प्रवचन करनेमें समर्थ हों, ऐसे ही लोग तुम्हारे सभासद् होने चाहिये। भरतनन्दन युधिष्ठिर! मन्त्रियोंको, अत्यन्त शूरवीर पुरुषोंको, विद्वान् ब्राह्मणोंको, पूर्णतया संतुष्ट रहनेवालॉंको और सभी कार्योंके लिये उत्साह रखनेवालोंको--इन सब लोगोंको तुम सभी आपत्तियोंके समय सहायक बनानेकी इच्छा करना।
जो कुलीन हो, जिसका सदा सम्मान किया जाय, जो अपनी शक्तिको छिपावे नहीं तथा राजा प्रसन्न हो या अप्रसन्न हो, पीड़ित हो अथवा हताहत हो, प्रत्येक अवस्थामें जो बारंबार उसका अनुसरण करता हो, वही सुहृद् होने योग्य है। जो उत्तम कुल और अपने ही देशमें उत्पन्न हुए हों, बुद्धिमान, रूपवान्, बहुज्ञ, निर्भय और अनुरक्त हों, वे ही तुम्हारे परिच्छद (सेनापति आदि) होने चाहिये।
तात! जो निन्दित कुलमें उत्पन्न, लोभी, क्रूर और निर्लज्ज हैं, वे तभीतक तुम्हारी सेवा करेंगे, जबतक उनके हाथ गीले रहेंगे। अच्छे कुलमें उत्पन्न, शीलवान्, इशारे समझनेवाले, निल्लुरतारहित (दयालु), देशकालके विधानको समझनेवाले और स्वामीके अभीष्ट कार्यकी सिद्धि तथा हित चाहनेवाले मनुष्योंको राजा सदा सभी कार्योंके लिये अपना मन्त्री बनावे। तुम जिन्हें अपना प्रिय मानते हो, उन्हें धन, सम्मान, अर्घ्य, सत्कार तथा भिन्न-भिन्न प्रकारके भोगोंद्वारा संतुष्ट करो, जिससे वे तुम्हारे प्रियजन धन और सुखके भागी हों।
जिनका सदाचार नष्ट नहीं हुआ है, जो विद्वान, सदाचारी और उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हैं; जिन्हें सदा तुमसे अभीष्ट वस्तुके लिये प्रार्थना करनेकी आवश्यकता पड़ती है तथा जो श्रेष्ठ और सत्यवादी हैं, वे कभी तुम्हारा साथ नहीं छोड़ सकते। जो अनार्य और मन्दबुद्धि हैं, जिन्हें की हुई प्रतिज्ञाके पालनका ध्यान नहीं रहता तथा जो कई बार अपनी प्रतिज्ञासे गिर चुके हैं, उनसे अपनेको सुरक्षित रखनेके लिये तुम्हें सदा सावधान रहना चाहिये। एक ओर एक व्यक्ति हो और दूसरी ओर एक समूह हो तो समूहको छोड़कर एक व्यक्तिको ग्रहण करनेकी इच्छा न करे। परंतु जो एक मनुष्य बहुत मनुष्योंकी अपेक्षा गुणोंमें श्रेष्ठ हो और इन दोनोंमेंसे एकको ही ग्रहण करना पड़े तो ऐसी परिस्थितिमें कल्याण चाहनेवाले पुरुषको उस एकके लिये समूहको त्याग देना चाहिये।
श्रेष्ठ पुरुषका लक्षण इस प्रकार है ;-- जिसका पराक्रम देखा जाता हो, जिसके जीवनमें कीर्तिकी प्रधानता हो, जो अपनी प्रतिज्ञापर स्थिर रहता हो, सामर्थ्यशाली पुरुषोंका सम्मान करता हो, जो स्पर्धाके अयोग्य पुरुषोंसे ईर्ष्या न रखता हो, कामना, भय, क्रोध अथवा लोभसे भी धर्मका उल्लंघन न करता हो, जिसमें अभिमानका अभाव हो, जो सत्यवान्, क्षमाशील, जितात्मा तथा सम्मानित हो और जिसकी सभी अवस्थाओंमें परीक्षा कर ली गयी हो, ऐसा पुरुष ही तुम्हारी गुप्त मन्त्रणामें सहायक होना चाहिये। कुन्तीनन्दन! उत्तम कुलमें जन्म होना, सदा श्रेष्ठ कुलके सम्पर्कमें रहना, सहनशीलता, कार्यदक्षता, मनस्विता, शूरता, कृतज्ञता और सत्यभाषण--ये ही श्रेष्ठ पुरुषके लक्षण हैं। ऐसा बर्ताव करनेवाले विज्ञ पुरुषके शत्रु भी प्रसन्न हो जाते हैं और उसके साथ मैत्री स्थापित कर लेते हैं।
इसके बाद मनको वशमें रखनेवाला शुद्धबुद्धि और ऐश्वर्यकामी भूपाल अपने मन्त्रियोंक गुण और अवगुणकी परीक्षा करे। जिनके साथ कोई-न-कोई सम्बन्ध हो, जो अच्छे कुलमें उत्पन्न, विश्वासपात्र, स्वदेशीय, घूस न खानेवाले तथा व्यभिचार-दोषसे रहित हों, जिनकी सब प्रकारसे भलीभाँति परीक्षा ले ली गयी हो, जो उत्तम जातिवाले, वेदके मार्गपर चलनेवाले, कई पीढ़ियोंसे राजकीय सेवा करनेवाले तथा अहड़कारशून्य हों, ऐसे ही लोगोंको अपनी उन्नति चाहनेवाला ऐश्वर्यकामी पुरुष मन्त्री बनावे। जिनमें विनययुक्त बुद्धि, सुन्दर स्वभाव, तेज, वीरता, क्षमा, पवित्रता, प्रेम, धृति और स्थिरता हो, उनके इन गुणोंकी परीक्षा करके यदि वे राजकीय कार्यभारको सँभालनेमें प्रौढ़ तथा निष्कपट सिद्ध हों तो राजा उनमेंसे पाँच व्यक्तियोंको चुनकर अर्थमन्त्री बनावे।
राजन! जो बोलनेमें कुशल, शौर्यसम्पन्न, प्रत्येक बातको ठीक-ठीक समझनेमें निपुण, कुलीन, सत्त्वयुक्त, संकेत समझनेवाले, निष्ठरतासे रहित (दयालु), देश और कालके विधानको जाननेवाले तथा स्वामीके कार्य एवं हितकी सिद्धि चाहनेवाले हों, ऐसे पुरुषोंको सदा सभी प्रयोजनोंकी सिद्धिके लिये मन्त्री बनाना चाहिये। तेजोहीन मन्त्रीके सम्पर्कमें रहनेवाला राजा कभी कर्तव्य और अकर्तव्यका निर्णय नहीं कर सकता। वैसा मन्त्री सभी कार्योमें अवश्य ही संशय उत्पन्न कर देता है।
इसी प्रकार जो मन्त्री उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेपर भी शास्त्रोंका बहुत कम ज्ञान रखता हो, वह धर्म, अर्थ और कामसे संयुक्त होकर भी गुप्त मन्त्रणाकी परीक्षा नहीं कर सकता। वैसे ही जो अच्छे कुलमें उत्पन्न नहीं है, वह भले ही अनेक शास्त्रोंका विद्वान् हो, किंतु नायकरहित सैनिक तथा नेत्रहीन मनुष्यकी भाँति वह छोटे-छोटे कार्योंमें भी मोहित हो जाता है--कर्तव्याकर्तव्यका विवेक नहीं कर पाता। जिसका संकल्प स्थिर नहीं है, वह बुद्धिमान, शास्त्रज्ञ और उपायोंका जानकार होनेपर भी किसी कार्यको दीर्घकालमें भी पूरा नहीं कर सकता।
जिसकी बुद्धि खोटी है तथा जिसे शास्त्रोंका बिल्कुल ज्ञान नहीं है, वह केवल मन्त्रीका कार्य हाथमें ले लेने मात्रसे सफल नहीं हो सकता। विशेष कार्योंके विषयमें उसका दिया हुआ परामर्श युक्तिसंगत नहीं होता है। जिस मन्त्रीका राजाके प्रति अनुराग न हो, उसका विश्वास करना ठीक नहीं है; अतः अनुरागरहित मन्त्रीके सामने अपने गुप्त विचारको प्रकट न करे।
वह कपटी मन्त्री यदि गुप्त विचारोंको जान ले तो अन्य मन्त्रियोंक साथ मिलकर राजाको उसी प्रकार पीड़ा देता है, जैसे आग हवासे भरे हुए छेदोंमें घुसकर समूचे वृक्षको भस्म कर डालती है। राजा एक बार कुपित होकर मन्त्रीको उसके स्थानसे हटा देता है और रोषमें भरकर वाणीद्वारा उसपर आक्षेप भी करता है; परंतु फिर अन्तमें प्रसन्न हो जाता है।
राजाके इन सब बर्तावोंको वही मन्त्री सह सकता है, जिसका उसके प्रति अनुराग हो। अनुरागशून्य मन्त्रियोंका क्रोध वजपातके समान भयंकर होता है। जो मन्त्री स्वामीका प्रिय करनेकी इच्छासे उसके उन सभी बर्तावोंको सह लेता है, वही अनुरक्त है। वह राजाके सुख-दुःखको अपना ही सुख-दुःख मानता है। ऐसे ही मनुष्यसे राजाको सभी कार्योंमें सलाह पूछनी चाहिये।
जो अनुरक्त हो, अन्यान्य गुणोंसे सम्पन्न हो और बुद्धिमान् हो, वह भी यदि सरल स्वभावका न हो तो राजाकी गुप्त सलाहको सुननेका अधिकारी नहीं है। जिसका शत्रुओंके साथ सम्बन्ध हो तथा अपने राज्यके नागरिकोंके प्रति जिसकी अधिक आदरबुद्धि न हो, ऐसे मनुष्यको सुहृद् नहीं मानना चाहिये। वह भी गुप्त सलाह सुननेका अधिकारी नहीं है। जो मूर्ख, अपवित्र, जड, शत्रुसेवी, बढ़-बढ़कर बातें बनानेवाला, क्रोधी और लोभी है तथा सुहृद् नहीं है, उसको भी गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकार नहीं है।
जो कोई अनुरक्त, अनेक शास्त्रोंका विद्वान् और सबके द्वारा सम्मानित हो तथा जिसको भलीभाँति भेंट दी गयी हो, वह भी यदि नया आया हुआ हो तो गुप्त मन्त्रणा सुननेके योग्य नहीं है। जिसके पिताको अधर्माचरणके कारण पहले अपमानपूर्वक निकाल दिया गया हो और उसका वह पुत्र सम्मानपूर्वक पिताके पदपर प्रतिष्ठित कर दिया गया हो, तो वह भी गुप्त सलाह सुननेका अधिकारी नहीं है।
जो थोड़े-से भी अनुचित कार्यके कारण दण्डित करके निर्धन कर दिया गया हो, वह सुहृद् एवं अन्यान्य गुणोंसे सम्पन्न होनेपर भी गुप्त मन्त्रणा सुननेके योग्य नहीं है। जिसकी बुद्धि तीव्र और धारणाशक्ति प्रबल हो, जो अपने ही देशमें उत्पन्न, शुद्ध आचरणवाला और दिद्दान् हो तथा सब तरहके कार्योंमें परीक्षा करनेपर निर्दोष सिद्ध हुआ हो, वह गुप्त सलाह सुननेका अधिकारी है। जो ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न, अपने और शशत्रुओंके पक्षके लोगोंकी प्रकृतिको परखनेवाला तथा राजाका अपने आत्माके समान अभिन्न सुहृद् हो, वह गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है। जो सत्यवादी, शीलवान, गम्भीर, लज्जाशील, कोमल स्वभाववाला तथा बाप-दादोंके समयसे ही राजाकी सेवा करता आया है, वह भी गुप्त मन्त्रणा सुननेका अधिकारी है।
जो संतोषी, सत्पुरुषोंद्वारा सम्मानित, सत्यपरायण, शूरवीर, पापसे घृणा करनेवाला, राजकीय मन्त्रणाको समझनेवाला, समयकी पहचान रखनेवाला तथा शौर्यसम्पन्न है, वह भी गुप्त मन्त्रणाको सुननेकी योग्यता रखता है। नरेश्वर! जो राजा चिरकालतक दण्ड धारण करनेकी इच्छा रखता हो, उसे अपनी गुप्त सलाह उसी व्यक्तिको बतानी चाहिये, जो शक्तिशाली हो और सारे जगत्के समझा-बुझाकर अपने वशमें कर सकता हो। नगर और जनपदके लोग जिसपर धर्मतः विश्वास करते हों तथा जो कुशल योद्धा और नीतिशास्त्रका विद्वान् हो, वही गुप्त सलाह सुननेका अधिकारी है।
इसलिये जो उपर्युक्त सभी गुणोंसे सम्पन्न, सबके द्वारा सम्मानित, प्रकृतिको परखनेवाले तथा महान् पदकी इच्छा रखनेवाले हों, ऐसे पुरुषोंको ही मन्त्रीके पदपर नियुक्त करना चाहिये। राजाके मन्त्रियोंकी संख्या कम-से-कम तीन होनी चाहिये। अपनी तथा शत्रुकी प्रकृतियोंमें जो दोष या दुर्बलता हो, उनपर मन्त्रियोंको दृष्टि रखनी चाहिये; क्योंकि मन्त्रियोंकी मन्त्रणा (उनकी दी हुई नेक सलाह) ही राजाके राष्ट्रकी जड़ है। उसीके आधारपर राज्यकी उन्नति होती है।
राजा ऐसा प्रयत्न करे कि उसका छिढद्र शत्रु न देख सके; परंतु वह शत्रुकी सारी दुर्बलताओंको जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अड़ोंको समेटे रहता है, उसी तरह राजाको भी अपने गुप्त विचारों तथा छिद्रोंको छिपाये रखना चाहिये।
जो बुद्धिमान् मन्त्री हैं, वे राज्यके गुप्त मन्त्रको छिपाये रखते हैं; क्योंकि मन्त्र ही राजाका कवच है और सदस्य आदि दूसरे लोग मन्त्रणाके अंग हैं। विद्वान् पुरुष कहते हैं कि राज्यका मूल है गुप्तचर और उसका सार है गुप्त मन्त्रणा। मन्त्रीलोग तो यहाँ अपनी जीविकाके लिये ही राजाका अनुसरण करते हैं।
जो मद और क्रोधको जीतकर मान और ईष्यासे रहित हो गये हैं तथा जो कायिक, वाचिक, मानसिक, कर्मकृत और संकेतजनित--इन पाँचों प्रकारके छलोंको लाँधकर ऊपर उठे हुए हैं, ऐसे मन्त्रियोंके साथ ही राजाको सदा गुप्त मन्त्रणा करनी चाहिये। राजा पहले सदा तीनों मन्त्रियोंकी पृथक्ू-पृथक् सलाह जानकर उसपर मनोयोगपूर्वक विचार करे। तत्पश्चात् बादमें होनेवाली मन्त्रणाके समय अपने तथा दूसरोंके निश्चयको राजगुरुकी सेवामें निवेदन करे।
राजा सावधान होकर धर्म, अर्थ और कामके ज्ञाता ब्राह्मणगुरुके समीप जा उनका उत्तर जाननेके लिये उनकी राय पूछे। जब वे कोई निर्णय दे दें और वह सब लोगोंको एक मतसे स्वीकार हो जाय, तब राजा दूसरे किसी विचारमें न पड़कर उसी मन्त्रमार्ग (विचारपद्धति) को कार्यरूपमें परिणत करे। मन्त्रतत्त्वके अर्थका निश्चयात्मक ज्ञान रखनेवाले विद्वान कहते हैं कि सदा इसी तरह मन्त्रणा करे और जो विचार प्रजाको अपने अनुकूल बनानेमें अधिक प्रबल जान पड़े, सर्वदा उसे ही काममें ले।
जहाँ गुप्त विचार किया जाता हो, वहाँ या उसके अगल-बगल, आगे-पीछे और ऊपरनीचे भी किसी तरह बौने, कुबड़े, दुबले, लँगड़े, अन्धे, गूँगे, स्त्री और हीजड़े--ये न आने पावें। महलके ऊपरी मंजिलपर चढ़कर अथवा सूने एवं खुले हुए समतल मैदानमें जहाँ कुशकास--घास-पात बढ़े हुए न हों, ऐसी जगह बैठकर वाणी और शरीरके सारे दोषोंका परित्याग करके उपयुक्त समयमें भावी कार्यके सम्बन्धमें गुप्त विचार करना चाहिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें सभासद् आदिके लक्षणोंका कथनविषयक तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
चौरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चौरासीवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“इन्द्र और बृहस्पतिके संवादमें सान्त्वनापूर्ण मधुर वचन बोलनेका महत्त्व”
भीष्मजी कहते हैं ;-- युधिष्ठिर! इस विषयमें मनस्वी पुरुष इन्द्र और बृहस्पतिके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, वह सुनो।
इन्द्रने पूछा ;-- ब्रह्मन! वह कौन-सी ऐसी एक वस्तु है, जिसका नाम एक ही पदका है और जिसका भलीभाँति आचरण करनेवाला पुरुष समस्त प्राणियोंका प्रिय होकर महान् यश प्राप्त कर लेता है।
बृहस्पतिजीने कहा ;-- इन्द्र! जिसका नाम एक ही पदका है, वह एकमात्र वस्तु है सान्त्वना (मधुर वचन बोलना)। उसका भलीभाँति आचरण करनेवाला पुरुष समस्त प्राणियोंका प्रिय होकर महान् यश प्राप्त कर लेता है। शक्र! यही एक वस्तु सम्पूर्ण जगत्के लिये सुखदायक है। इसको आचरणमें लानेवाला मनुष्य सदा समस्त प्राणियोंका प्रिय होता है। जो मनुष्य सदा भौंहें टेढ़ी किये रहता है, किसीसे कुछ बातचीत नहीं करता, वह शान्तभाव (मृदुभाषी होनेके गुण) को न अपनानेके कारण सब लोगोंके द्वेषका पात्र हो जाता है।
जो सभीको देखकर पहले ही बात करता है और सबसे मुसकराकर ही बोलता है, उसपर सब लोग प्रसन्न रहते हैं। जैसे बिना व्यज्जन (साग-दाल आदि) का भोजन मनुष्यको संतुष्ट नहीं कर सकता, उसी प्रकार मधुर वचन बोले बिना दिया हुआ दान भी प्राणियोंको प्रसन्न नहीं कर पाता है।
शक्र! मधुर वचन बोलनेवाला मनुष्य लोगोंकी कोई वस्तु लेकर भी अपनी मधुर वाणीद्वारा इस सम्पूर्ण जगत्को वशमें कर लेता है। अतः किसीको दण्ड देनेकी इच्छा रखनेवाले राजाको भी उससे सान्त्वनापूर्ण मधुर वचन ही बोलना चाहिये। ऐसा करके वह अपना प्रयोजन तो सिद्ध कर ही लेता है और उससे कोई मनुष्य उद्विग्न भी नहीं होता है।
यदि अच्छी तरहसे सान्त्वनापूर्ण, मधुर एवं स्नेहयुक्त वचन बोला जाय और सदा सब प्रकारसे उसीका सेवन किया जाय तो उसके समान वशीकरणका साधन इस जगत्में नि:संदेह दूसरा कोई नहीं है।
भीष्मजी कहते हैं;-- कुन्तीनन्दन! अपने पुरोहित बृहस्पतिके ऐसा कहनेपर इन्द्रने सब कुछ उसी तरह किया। इसी प्रकार तुम भी इस सान्त्वनापूर्ण वचनको भलीभाँति आचरणमें लाओ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें इन्द्र और ब॒हस्पतिका संवादविषयक चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
पचासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पचासीवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“राजाकी व्यावहारिक नीति, मन्त्रिमण्डलका संघटन, दण्डका औचित्य तथा दूत, द्वारपाल, शिरोरक्षक, मन्त्री और सेनापतिके गुण”
युधिष्ठटिरने पूछा ;-- राजेन्द्र! इस जगतमें राजा किस प्रकार धर्मविशेषके द्वारा प्रजाका पालन करे, जिससे वह लोगोंका प्रेम और अक्षय कीर्ति प्राप्त कर सके?।
भीष्मजीने कहा ;-- राजन्! जो राजा बाहर-भीतरसे पवित्र रहकर शुद्ध व्यवहारसे प्रजापालनमें तत्पर रहता है, वह धर्म और कीर्ति प्राप्त करके इहलोक और परलोक दोनोंको सुधार लेता है।
युधिष्ठिरे पूछा ;-- महामते! राजाको किस-किस प्रकारके लोगोंसे किस-किस प्रकारका बर्ताव काममें लाना चाहिये? मेरे इस प्रश्नचका आप यथावत््रूपसे समाधान करें। मेरी तो ऐसी मान्यता है कि पहले आपने पुरुषके लिये जिन गुणोंका वर्णन किया है, वे सब किसी एक पुरुषमें नहीं मिल सकते।
भीष्मजीने कहा ;-- महा प्राज्ञ! परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर! तुम जैसा कहते हो, वह ठीक ऐसा ही है। वस्तुत: इन सभी शुभ गुणोंसे सम्पन्न किसी एक पुरुषका मिलना कठिन है। इसलिये तुम जिस भावसे जैसे मन्त्रियोंको संगठित करोगे अर्थात् करना चाहते हो, उनका दुर्लभ शील-स्वभाव जैसा होना चाहिये--इस बातको मैं प्रयत्नपूर्वक संक्षेपसे बताऊँगा।
राजाको चाहिये कि जो वेदविद्याके विद्वान, निर्भीक, बाहर-भीतरसे शुद्ध एवं स्नातक हों, ऐसे चार ब्राह्मण, शरीरसे बलवान् तथा शस्त्रधारी आठ क्षत्रिय, धन-धान्यसे सम्पन्न इक्कीस वैश्य, पवित्र आचार-विचारवाले तीन विनयशील शूद्र तथा आठः गुणोंसे युक्त एवं पुराणविद्याको जाननेवाला एक सूत जातिका मनुष्य--इन सब लोगोंका एक मन्त्रिमण्डल बनावे। उस सूतकी अवस्था लगभग पचास वर्षकी हो और वह निर्भीक, दोषदृष्टिसे रहित, श्रुतियों और स्मृतियोंके ज्ञानसे सम्पन्न, विनयशील, समदर्शी, वादी-प्रतिवादीके मामलोंका निपटारा करनेमें समर्थ, लोभरहित और अत्यन्त भयंकर सातः प्रकारके दुर्व्यसनोंसे बहुत दूर रहनेवाला हो। ऐसे आठ मन्त्रियोंके बीचमें राजा गुप्त मन्त्रणा करे।इन सबकी रायसे जो बात निश्चित हो, उसको देशमें प्रचारित करे और राष्ट्रके प्रत्येक नागरिकको इसका ज्ञान करा दे। युधिष्ठिर! इस प्रकारके व्यवहारसे तुम्हें सदा प्रजावर्गकी देख-रेख करनी चाहिये।
राजन! तुमको किसीका कोई गुप्त धन ग्रहण नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह तुम्हारे कर्तव्य--न्यायधर्मका नाश करनेवाला होगा। यदि कहीं वास्तवमें तुम्हारे न्यायधर्मका नाश हुआ तो वह अधर्म तुम्हें और तुम्हारे मन्त्रियोंको बड़े कष्टमें डाल देगा। फिर तो तुम्हें अन्यायी मानकर राष्ट्रकी सारी प्रजा तुमसे उसी प्रकार दूर भागेगी, जैसे बाज पक्षीके डरसे दूसरे पक्षी भागते हैं तथा जैसे टूटी हुई नाव समुद्रमें कहाँकी कहाँ बह जाती है, उसी प्रकार प्रजा धीरे-धीरे तुम्हारा राज्य छोड़कर अन्यत्र चली जायगी।
जो राजा अन्याय एवं अधर्मपूर्वक प्रजाका पालन करता है, उसके हृदयमें भय बना रहता है तथा उसका परलोक भी बिगड़ जाता है। नरश्रेष्ठ! धर्म ही जिसकी जड़ है, उस धर्मासन अथवा न्यायासनपर बैठकर जो राजा, मन्त्री अथवा राजकुमार धर्म-पूर्वक प्रजाकी रक्षा नहीं करता तथा राजाका अनुसरण करनेवाले राज्यके दूसरे अधिकारी भी यदि अपनेको सामने रखकर प्रजाके साथ उचित बर्ताव नहीं करते हैं तो वे राजाके साथ ही स्वयं भी नरकमें गिर जाते हैं। बलवानोंके बलात्कार (अत्याचार) से पीड़ित हो अत्यन्त दीनभावसे पुकार मचाते हुए अनाथ मनुष्योंको आश्रय देनेवाला उनका संरक्षक या स्वामी राजा ही होता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पचासीवें अध्याय के श्लोक 19–34 का हिन्दी अनुवाद)
जब कोई अभियोग उपस्थित हो और उसमें उभय पक्षद्वारा दो प्रकारकी बातें कही जायूँ, तब उसमें यथार्थताका निर्णय करनेके लिये साक्षीका बल श्रेष्ठ माना गया है (अर्थात् मौकेका गवाह बुलाकर उससे सच्ची बात जाननेका प्रयत्न करना चाहिये)। यदि कोई गवाह न हो तथा उस मामलेकी पैरवी करनेवाला कोई मालिक-मुख्तार न दिखायी दे तो राजाको स्वयं ही विशेष प्रयत्न करके उसकी छानबीन करनी चाहिये। तत्पश्चात् अपराधियोंको अपराधके अनुरूप दण्ड देना चाहिये। अपराधी धनी हो तो उसको उसकी सम्पत्तिसे वज्चित कर दे और निर्धन हो तो उसे बन्दी बनाकर कारागारमें डाल दे।
जो अत्यन्त दुराचारी हों, उन्हें मार-पीटकर भी राजा राहपर लानेका प्रयत्न करे तथा जो श्रेष्ठ पुरुष हों, उन्हें मीठी वाणीसे सान्त्वना देते हुए सुख-सुविधाकी वस्तुएँ अर्पित करके उनका पालन करे। जो राजाका वध करनेकी इच्छा करे, जो गाँव या घरमें आग लगावे, चोरी करे अथवा व्यभिचारद्वारा वर्णसंकरता फैलानेका प्रयत्न करे, ऐसे अपराधीका वध अनेक प्रकारसे करना चाहिये।
प्रजानाथ! जो भलीभाँति विचार करके अपराधीको उचित दण्ड देता है और अपने कर्त्तव्यपालनके लिये सदा उद्यत रहता है, उस राजाको वध और बन्धनका पाप नहीं लगता, अपितु उसे सनातन धर्मकी ही प्राप्ति होती है। जो अज्ञानी नरेश बिना विचारे स्वेच्छापूर्वक दण्ड देता है, वह इस लोकमें तो अपयशका भागी होता है और मरनेपर नरकमें पड़ता है। राजा दूसरेके अपराधपर दूसरोंको दण्ड न दे, बल्कि शास्त्रके अनुसार विचार करके अपराध सिद्ध होता हो तो अपराधीको कैद करे और सिद्ध न होता हो तो उसे मुक्त कर दे।
राजा कभी किसी आपकत्तिमें भी किसीके दूतकी हत्या न करे। दूतका वध करनेवाला नरेश अपने मन्त्रियोंसहित नरकमें गिरता है। क्षत्रियधर्ममें तत्पर रहनेवाला जो राजा अपने स्वामीके कथनानुसार यथार्थ बातें कहनेवाले दूतको मार डालता है, उसके पितरोंको भ्रूणहत्याके फलका भोग करना पड़ता है। राजाके दूतको कुलीन, शीलवान्, वाचाल, चतुर, प्रिय वचन बोलनेवाला, संदेशको ज्यों का-त्यों कह देनेवाला तथा स्मरणशक्तिसे सम्पन्न--इस प्रकार सात गुणोंसे युक्त होना चाहिये।
राजाके द्वारकी रक्षा करनेवाले प्रतीहारी (द्वारपाल) में भी ये ही गुण होने चाहिये। उसका शिरोरक्षक (अथवा अड़्रक्षक) भी इन्हीं गुणोंसे सम्पन्न हो। सन्धि-विग्रहके अवसरको जाननेवाला, धर्मशास्त्रका तत्त्वज्ञ, बुद्धिमान, धीर, लज्जावान रहस्यको गुप्त रखनेवाला, कुलीन, साहसी तथा शुद्ध हृदयवाला मन्त्री ही उत्तम माना जाता है। सेनापति भी इन्हीं गुणोंसे युक्त होना चाहिये।
इनके सिवा वह व्यूहरचना (मोर्चाबंदी), यन्त्रोंके प्रयोग तथा नाना प्रकारके अन्यान्य अस्त्र-शस्त्रोंकी चलानेकी कलाका तत्त्वज्ञ-विशेष जानकार हो, पराक्रमी हो, सर्दी, गर्मी, आँधी और वषकि कष्टको धैर्यपूर्वक सहनेवाला तथा शत्रुओंके छिद्रको समझनेवाला हो।
राजा दूसरोंके मनमें अपने ऊपर विश्वास पैदा करे; परंतु स्वयं किसीका भी विश्वास न करे। राजेन्द्र! अपने पुत्रोंपर भी पूरा-पूरा विश्वास करना अच्छा नहीं माना गया है। निष्पाप युधिष्ठिर! यह नीतिशास्त्रका तत्त्व है, जिसे मैंने तुम्हें बताया है। किसीपर भी पूरा विश्वास न करना नरेशोंका परम गोपनीय गुण बताया जाता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें मंत्रीविभागविषयक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टीका टिप्पणी;-
- सेवा करनेको सदा तैयार रहना, कही हुई बातको ध्यानसे सुनना, उसे ठीक-ठीक समझना, याद रखना, किस कार्यका कैसा परिणाम होगा-इसपर तर्क करना, यदि अमुक प्रकारसे कार्य सिद्ध न हुआ तो क्या करना चाहिये?--इस तरह वितर्क करना, शिल्प और व्यवहारकी जानकारी रखना और तत्त्वका बोध होना--ये आठ गुण पौराणिक सूतमें होने चाहिये।
- शिकार, जूआ, परस्त्रीप्रसंग और मदिरापान--ये चार कामजनित दोष और मारना, गाली बकना तथा दूसरेकी चीज खराब कर देना--ये तीन क्रोधजनित दोष मिलकर सात दुर्व्यसन माने गये हैं।
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