सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छिहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“उत्तम-अधम ब्राह्मणोंके साथ राजाका बर्ताव”
युधिष्ठिरने पूछा ;-- पितामह! कुछ ब्राह्मण अपने वर्णोचित कर्मोमें लगे रहते हैं तथा दूसरे बहुत-से ब्राह्मण अपने वर्णके विपरीत कर्ममें प्रवृत्त हो जाते हैं। उन सभी ब्राह्मणोंमें क्या अन्तर है? यह मुझे बताइये।
भीष्मजीने कहा ;-- राजन्! जो विद्वान् उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न तथा सर्वत्र समान दृष्टि रखनेवाले हैं, ऐसे ब्राह्मण ब्रह्माजीके समान कहे गये हैं। नरेश्वर! जो ऋग्, यजु: और सामवेदका अध्ययन करके अपने वर्णोचित कर्मोंमें लगे हुए हैं, वे ब्राह्मणोंमें देवताके समान समझे जाते हैं। राजन्! जो अपने जातीय कर्मसे हीन हो कुत्सित कर्मोंमें लगकर ब्राह्मणत्वसे भ्रष्ट हो चुके हैं, ऐसे लोग ब्राह्मणोंमें शूद्रके तुल्य होते हैं।
जो ब्राह्मण वेदशास्त्रोंके ज्ञानसे शून्य हैं तथा जो अग्निहोत्र नहीं करते हैं, वे सभी शूद्रतुल्य हैं। धर्मात्मा राजाको चाहिये कि इन सब लोगोंसे कर ले और बेगार करावे। न्यायालयमें या कहीं भी लोगोंको बुलाकर लानेका काम करनेवाले, वेतन लेकर देवमन्दिरमें पूजा करनेवाले, नक्षत्र-विद्याद्वारा जीविका चलानेवाले, ग्रामपुरोहित तथा पाँचवें महापथिक (दूर देशके यात्री या समुद्र--यात्रा करनेवाले) ब्राह्मण चाण्डालके तुल्य माने जाते हैं। जो कोई म्लेच्छ देश हैं और जहाँ पापी मनुष्य निवास करते हैं, वहाँ जाकर ब्राह्मण इहलोकमें चाण्डालके तुल्य हो जाता है, और मृत्युके बाद अधोगतिको प्राप्त होता है।
संस्कारभ्रष्ट, म्लेच्छ तथा शूद्रोंका यज्ञ कराकर पतित हुआ अधम ब्राह्मण इस संसारमें अपयश पाता और मरनेके बाद नरकमें गिरता है। जो मूर्ख ब्राह्मण ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंका विप्लव करता है, वह एक कल्पतक नाना प्राणियोंकी विछ्ठाओंका कीड़ा होता है। राजन! ब्राह्मणोंमेंसे जो ऋत्विजू, राजपुरोहित, मन्त्री, राजदूत अथवा संदेशवाहक हों, वे क्षत्रियके समान माने जाते हैं। नरेश्वर! घुड़सवार, हाथीसवार, रथी और पैदल सिपाहीका काम करनेवाले ब्राह्मणोंको वैश्यके समान समझा जाता है।
यदि राजाके खजानेमें कमी हो तो वह इन ब्राह्मणोंसे कर ले सकता है। केवल उन ब्राह्मणोंसे, जो ब्रह्माजी तथा देवताओंके समान बताये गये हैं, कर नहीं लेना चाहिये। राजा ब्राह्मणके सिवा अन्य सब वर्णोके धनका स्वामी होता है, यही वैदिक सिद्धान्त है। ब्राह्मणोंमेंसे जो कोई अपने वर्णके विपरीत कर्म करनेवाले हैं, उनके धनपर भी राजाका ही अधिकार है। राजाको कर्मभ्रष्ट ब्राह्मणोंकी किसी प्रकार उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। बल्कि धर्मपर अनुग्रह करनेके लिये उन्हें दण्ड देना और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी श्रेणीसे अलग कर देना चाहिये।
राजन्! जिस किसी भी राजाके राज्यमें यदि ब्राह्मण चोर बन जाता है तो उसकी इस परिस्थितिके लिये जानकार लोग उस राजाका ही अपराध ठहराते हैं। नरेश्वर! यदि कोई वेदवेत्ता अथवा स्नातक ब्राह्मण जीविकाके अभावमें चोरी करता हो तो राजाको उचित है कि उसके भरण-पोषणकी व्यवस्था करे; यह वेदवेत्ताओंका मत है।
परंतप! यदि जीविकाका प्रबन्ध कर देनेपर भी उस ब्राह्मणमें कोई परिवर्तन न हो-वह पूर्ववत् चोरी करता ही रह जाय तो उसे बन्धु-बान्धवोंसहित उस देशसे निर्वासित कर देना चाहिये। यज्ञ, वेदोंका अध्ययन, किसीकी चुगली न करना, किसी भी प्राणीको मन, वाणी और कियाद्वारा क्लेश न पहुँचाना, अतिथियोंका पूजन करना, इन्द्रियोंको संयममें रखना, सच बोलना, तप करना और दान देना, यह सब ब्राह्मणका लक्षण है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनिशासनपर्वमें छिहत्तरवाॅं अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सतहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“केकयराज तथा राक्षसका उपाख्यान और केकयराज्यकी श्रेष्ठताका विस्तृत वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा ;-- भरतकुलभूषण पितामह! किन-किन मनुष्योंके धनपर राजाका अधिकार होता है? तथा राजाको कैसा बर्ताव करना चाहिये? यह मुझे बताइये।
भीष्मजीने कहा ;-- राजन! ब्राह्मणके सिवा अन्य सभी वर्णोके धनका स्वामी राजा होता है, यह वैदिक मत है। ब्राह्मणोंमें भी जो कोई अपने वर्णके विपरीत कर्म करते हों, उनके धनपर भी राजाका ही अधिकार है। अपने वर्णके विपरीत कर्मोमें लगे हुए ब्राह्मणोंकी राजाको किसी प्रकार उपेक्षा नहीं करनी चाहिये (क्योंकि उन्हें दण्ड देकर भी राहपर लाना राजाका कर्तव्य है)। साधुपुरुष इसीको राजाओंका प्राचीनकालसे चला आता हुआ बर्ताव या धर्म कहते हैं।
नरेश्वर! जिस राजाके राज्यमें कोई ब्राह्मण चोरी करने लग जाता है, वह राजा अपराधी माना जाता है। विचारवान् पुरुष इसे राजाका ही अपराध और पाप समझते हैं। ब्राह्मणमें उक्त दोष आ जाय तो उससे राजा अपने आपको कलडूकित मानते हैं; इसीलिये सभी राजर्षियोंने ब्राह्मणोंकी सदा ही रक्षा की है। इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। जिसमें राक्षसके द्वारा अपहृत होते समय केकयराजके प्रकट किये हुए उद्गारका वर्णन है।
राजन्! एक समयकी बात है, केकयराज वनमें रहकर कठोर व्रतका पालन (तप) और स्वाध्याय किया करते थे। एक दिन उन्हें एक भयंकर राक्षसने पकड़ लिया। यह देख राजाने उस राक्षससे कहा,
राजा ने कहा ;-- मेरे राज्यमें एक भी चोर, कंजूस, शराबी अथवा अन्निहोत्र और यज्ञका त्याग करनेवाला नहीं है तो भी तुम्हारा मेरे शरीरमें प्रवेश कैसे हो गया?। मेरे राज्यमें एक भी ब्राह्मण ऐसा नहीं है जो विद्वान, उत्तम व्रतका पालन करनेवाला, यज्ञमें सोमरस पीनेवाला, अग्निहोत्री और यज्ञकर्ता न हो तो भी तुमने मेरे भीतर कैसे प्रवेश किया?। मेरे राज्यमें समस्त द्विज नाना प्रकारकी उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं। कोई भी ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किये बिना वेदोंका अध्ययन नहीं करता। फिर भी मेरे शरीरके भीतर तुम्हारा प्रवेश कैसे हुआ?।
मेरे राज्यके ब्राह्मण पढ़ते-पढ़ाते, यज्ञ करते-कराते, दान देते और लेते हैं। इस प्रकार वे ब्राह्मणोचित छः कर्मोमें ही संलग्न रहते हैं। मेरे राज्यके सभी ब्राह्मण अपने-अपने कर्ममें तत्पर रहनेवाले हैं। कोमल स्वभाववाले तथा सत्यवादी हैं। उन सबको मेरे राज्यसे वृत्ति मिलती है, तथा वे मेरे द्वारा पूजित होते रहते हैं तो भी तुम्हारा मेरे शरीरके भीतर प्रवेश कैसे सम्भव हुआ?। मेरे राज्यमें जो क्षत्रिय हैं, वे अपने वर्णोचित कर्मोमें लगे रहते हैं, वे वेदोंका अध्ययन तो करते हैं, परंतु अध्यापन नहीं करते; यज्ञ करते हैं, परंतु कराते नहीं हैं तथा दान देते हैं, किंतु स्वयं लेते नहीं हैं। मेरे राज्यके क्षत्रिय याचना नहीं करते; स्वयं ही याचकोंको मुहमाँगी वस्तुएँ देते हैं। सत्यभाषी तथा धर्मसम्पादनमें कुशल हैं। वे ब्राह्मणोंकी रक्षा करते हैं और युद्धमें कभी पीठ नहीं दिखाते हैं तो भी तुम मेरे शरीरके भीतर कैसे प्रविष्ट हो गये?।
मेरे राज्यके वैश्य भी अपने कर्मोमें ही लगे रहते हैं। वे छल-कपट छोड़कर खेती, गोरक्षा और व्यापारसे जीविका चलाते हैं। प्रमादमें न पड़कर सदा सत्कर्मोमें संलग्न रहते हैं। उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले और सत्यवादी हैं। अतिथियोंको देकर खाते हैं, इन्द्रियोंको संयममें रखते हैं, शौचाचारका पालन करते और सबके प्रति सौहार्द बनाये रखते हैं तो भी मेरे भीतर तुम कैसे घुस आये?। मेरे यहाँके शूद्र भी तीनों वर्णोकी यथावत् सेवासे जीवन-निर्वाह करते हैं तथा परदोषदर्शनसे दूर ही रहते हैं। इस प्रकार वे भी अपने कर्मोमें ही स्थित हैं, तथापि तुम मेरे भीतर कैसे घुस आये?।
दीन, अनाथ, वृद्ध, दुर्बल, रोगी तथा स्त्री--इन सबको मैं अन्न-वस्त्र तथा औषध आदि आवश्यक वस्तुएँ देता रहता हूँ, तथापि तुम मेरे शरीरमें कैसे प्रविष्ट हो गये?।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सतहत्तरवें अध्याय के श्लोक 19–34 का हिन्दी अनुवाद)
मैं अपने सुविख्यात कुल-धर्म, देश-धर्म तथा जाति-धर्मकी परम्पराका विधिपूर्वक पालन करता हुआ इन सब धर्मोमेंसे किसीका भी लोप नहीं होने देता, तो भी तुम मेरे भीतर कैसे घुस आये?।
अपने राज्यके तपस्वी मुनियोंकी मैंने सदा ही पूजा और रक्षा की है तथा उन्हें सत्कारपूर्वक आवश्यक वस्तुएँ दी हैं। इतनेपर भी मेरे शरीरके भीतर तुम्हारा प्रवेश कैसे सम्भव हुआ है?।
मैं देवता, पितर तथा अतिथि आदिको उनका भाग अर्पण किये बिना कभी नहीं भोजन करता। परायी स्त्रीसे कभी सम्पर्क नहीं रखता तथा कभी स्वच्छन्द होकर क्रीडा नहीं करता तो भी तुमने मेरे शरीरमें कैसे प्रवेश किया?।
मेरे राज्यमें कोई भी ब्रह्मचर्यका पालन न करनेवाला भिक्षा नहीं माँगता अथवा भिक्षु या संन्यासी ब्रह्मचर्यका पालन किये बिना नहीं रहता। बिना ऋत्विजके मेरे यहाँ होम नहीं होता; फिर तुम कैसे मेरे भीतर घुस आये?।
राज्यसिंहासनपर स्थित होकर भी मैंने सारा राज्यकार्य कर्तव्य-पालनकी दृष्टिसे किया है और कभी सत्यसे मैं विचलित नहीं हुआ हूँ; तो भी मेरे शरीरके भीतर तुम्हारा प्रवेश कैसे हुआ है?।
मैं विद्वानों, वृद्धों तथा तपस्वी जनोंका कभी तिरस्कार नहीं करता हूँ। जब सारा राष्ट्र सोता है, उस समय भी मैं उसकी रक्षाके लिये जागता रहता हूँ, तथापि तुम मेरे शरीरके भीतर कैसे चल आये?।
मैं सब जगह निर्दोष एवं विशुद्ध कर्म करनेवाला हूँ, मुझे कहीं भी दुर्गतिका भय नहीं है। मैं धर्मका आचरण करनेवाला गृहस्थ हूँ। तुम मेरे शरीरके भीतर कैसे आ गये?। मेरे बुद्धिमान् पुरोहित आत्मज्ञानी, तपस्वी तथा सब धर्मोके ज्ञाता हैं। वे सम्पूर्ण राष्ट्रके स्वामी हैं ।। २४ ।।
मैं धन देकर विद्या पानेकी इच्छा रखता हूँ। सत्यके पालन तथा ब्राह्मणोंके संरक्षणद्वारा अभीष्ट अर्थ (पुण्यलोकोंपर अधिकार) पाना चाहता हूँ तथा सेवा-शुश्रूषाद्वारा गुरुजनोंको संतुष्ट करनेके लिये उनके पास जाता हूँ; अतः मुझे राक्षसोंसे कभी भय नहीं है। मेरे राज्यमें कोई स्त्री विधवा नहीं है तथा कोई भी ब्राह्मण अधम, धूर्त, चोर, अनधिकारियोंका यज्ञ करानेवाला और पापाचारी नहीं है; इसलिये मुझे राक्षसोंसे तनिक भी भय नहीं है। मेरे शरीरमें दो अंगुल भी ऐसा स्थान नहीं है, जो धर्मके लिये युद्ध करते समय अस्त्रशस्त्रोंसे घायल न हुआ हो, तथापि तुम मेरे भीतर कैसे घुस आये?।
मेरे राज्यमें रहनेवाले लोग गौओं, ब्राह्मणों तथा यज्ञोंके लिये सदा मड़ल-कामना करते रहते हैं, तो भी तुम मेरे शरीरके भीतर कैसे घुस आये?।
राक्षसने कहा ;-- स्त्रियोंके व्यभिचारसे, राजाओंके अन्यायसे तथा ब्राह्मणोंके कर्मदोषसे प्रजाको भय प्राप्त होता है। जिस देशमें उक्त दोष होते हैं, वहाँ वर्षा नहीं होती। महामारी फैल जाती है, सदा भूखका भय बना रहता है और बड़ा भयानक संग्राम छिड़ जाता है। जहाँ ब्राह्मण संयमपूर्ण जीवन बिता रहे हों वहाँ यक्ष, राक्षस, पिशाच तथा असुरोंसे किसी प्रकार भय नहीं प्राप्त होता। केकयनरेश! तुम सभी अवस्थाओंमें धर्मपर ही दृष्टि रखते हो, इसलिये कुशलपूर्वक घरको जाओ । तुम्हारा कल्याण हो। मैं अब जाता हूँ।
केकयराज! जो राजा गौओं तथा ब्राह्मणोंकी रक्षा करते हैं और प्रजाका पालन करना अपना धर्म समझते हैं, उन्हें राक्षमोंसे भय नहीं है; फिर अग्निसे तो हो ही कैसे सकता है?। जिनके आगे-आगे ब्राह्मण चलते हैं, जिनका सबसे बड़ा बल ब्राह्मण ही हैं, तथा जिनके राज्यके नागरिक अतिथि-सत्कारके प्रेमी हैं, वे नरेश निश्चय ही स्वर्गलोकपर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं।
भीष्मजी कहते हैं ;-- राजन्! इसलिये ब्राह्मणोंकी सदा रक्षा करनी चाहिये। सुरक्षित रहनेपर वे राजाओंकी रक्षा करते हैं। ठीक-ठीक बर्ताव करनेवाले राजाओंको ब्राह्मणोंका आशीर्वाद प्राप्त होता है। अत: राजाओंको चाहिये कि वे विपरीत कर्म करने-वाले ब्राह्मणोंको उनपर अनुग्रह करनेके लिये ही नियन्त्रणमें रखें और उनकी आवश्यकताकी वस्तुएँ उन्हें देते रहें। जो राजा अपने नगर और राष्ट्रकी प्रजाके साथ ऐसा धर्मपूर्ण बर्ताव करता है, वह इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें इन्द्रलोक प्राप्त कर लेता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें केकयराजका उपाख्यानविषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
अठहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अठहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“आप पत्तिकालनमें ब्राह्मणके लिये वैश्यवृत्तिसे निर्वाह करनेकी छूट तथा लुटेरोंसे अपनी और दूसरोंकी रक्षा करनेके लिये सभी जातियोंको शस्त्र धारण करनेका अधिकार एवं रक्षकको सम्मानका पात्र स्वीकार करना”
युधिष्ठिरने पूछा ;-- भरतनन्दन! आपने ब्राह्मणके लिये आपत्तिकालमें क्षत्रियधर्मसे जीविका चलानेकी बात पहले बतायी है। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि ब्राह्मण किसी तरह वैश्य-धर्मसे भी जीवन-निर्वाह कर सकता है या नहीं?।
भीष्मजीने कहा ;-- राजन! यदि ब्राह्मण अपनी जीविका नष्ट होनेपर आपत्तिकालमें क्षत्रियधर्मसे भी जीवननिर्वाह न कर सके तो वैश्यधर्मके अनुसार खेती और गोरक्षाका आश्रय लेकर वह अपनी जीविका चलावे।
युधिष्ठिरने पूछा ;-- भरतश्रेष्ठ] यह तो बताइये कि यदि ब्राह्मण वैश्यधर्मसे जीविका चलाते समय व्यापार भी करे तो किन-किन वस्तुओंका क्रय-विक्रय करनेसे वह स्वर्गलोककी प्राप्तिके अधिकारसे वज्चित नहीं होगा।
भीष्मजीने कहा ;-- तात युधिष्ठिर! ब्राह्मणको मांस, मदिरा, शहद, नमक, तिल, बनायी हुई रसोई, घोड़ा तथा बैल, गाय, बकरा, भेड़ और भैंस आदि पशु--इन वस्तुओंका विक्रय तो सभी अवस्थाओंमें त्याग देना चाहिये; क्योंकि इनको बेचनेसे ब्राह्मण नरकमें पड़ता है।
बकरा अग्निस्वरूप, भेड़ वरुणस्वरूप, घोड़ा सूर्यस्वरूप, पृथ्वी विराट्स्वरूप तथा गौ यज्ञ और सोमका स्वरूप है; अतः इनका विक्रय कभी किसी तरह नहीं करना चाहिये। भरतनन्दन! ब्राह्मणके लिये बनी-बनायी रसोई देकर बदलेमें कच्चा अन्न लेनेकी साधुपुरुष प्रशंसा नहीं करते हैं; किंतु केवल भोजनके लिये कच्चा अन्न देकर उसके बदले पकापकाया अन्न ले सकते हैं। “हम लोग बनी-बनायी रसोई पाकर भोजन कर लेंगे। आप यह कच्चा अन्न लेकर इसे पकाइये' इस भावसे अच्छी तरह विचार करके यदि कच्चे अन्नसे पके-पकाये अन्नको बदल लिया जाय तो इसमें किसी प्रकार भी अधर्म नहीं होता।
युधिष्ठिर! इस विषयमें व्यवहारपरायण मनुष्योंके लिये सनातन कालसे चला आता हुआ धर्म जैसा है, वैसा मैं तुम्हें बतला रहा हूँ सुनो।
मैं आपको यह वस्तु देता हूँ, इसके बदलेमें आप मुझे वह वस्तु दे दीजिये, ऐसा कहकर दोनोंकी रुचिसे जो वस्तुओंकी अदला-बदली की जाती है, उसे धर्म माना जाता है। यदि बलात्कारपूर्वक अदला-बदली की जाय तो वह धर्म नहीं है। प्राचीन कालसे ऋषियों तथा अन्य सत्पुरुषोंके सारे व्यवहार ऐसे ही चले आ रहे हैं। यह सब ठीक है, इसमें संशय नहीं है।
युधिष्ठिरने पूछा ;-- तात! नरेश्वर! यदि सारी प्रजा शस्त्र धारण कर ले और अपने धर्मसे गिर जाय, उस समय क्षत्रियकी शक्ति तो क्षीण हो जायगी। फिर राजा राष्ट्रकी रक्षा कैसे कर सकता है और वह सब लोगोंको किस तरह शरण दे सकता है। मेरे इस संदेहका आप विस्तारपूर्वक समाधान करें।
भीष्मजीने कहा ;-- राजन! ब्राह्मण आदि सभी वर्णोको दान, तप, यज्ञ, प्राणियोंके प्रति द्रोह का अभाव तथा इन्द्रिय-संयमके द्वारा अपने कल्याणकी इच्छा रखनी चाहिये। उनमेंसे जिन ब्राह्मणोंमें वेद-शास्त्रोंका बल हो, वे सब ओरसे उठकर राजाका उसी प्रकार बल बढ़ावें, जैसे देवता इन्द्रका बल बढ़ाते हैं। जिसकी शक्ति क्षीण हो रही हो, उस राजाके लिये ब्राह्मणको ही सबसे बड़ा सहायक बताया गया है; अतः बुद्धिमान नरेशको ब्राह्मणके बलका आश्रय लेकर ही अपनी उन्नति करनी चाहिये। जब भूतलपर विजयी राजा अपने राष्ट्रमें कल्याणमय शासन स्थापित करना चाहता हो, तब उसे चाहिये कि जिस किसी प्रकारसे सभी वर्णके लोगोंको अपने-अपने धर्मका पालन करनेमें लगाये रखे।
युधिष्ठिर! जब डाकू और लुटेरे धर्ममर्यादाका उल्लड्घन करके स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त हुए हों और प्रजामें वर्णसंकरता फैला रहे हों, उस समय इस अत्याचारको रोकनेके लिये यदि सभी वर्णोके लोग हथियार उठा लें तो उन्हें कोई दोष नहीं लगता।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अठहत्तरवें अध्याय के श्लोक 19-28 का हिन्दी अनुवाद)
युधिष्ठिरने पूछा ;-- पितामह! यदि क्षत्रिय जाति ही सब ओससे ब्राह्मणोंके साथ दुर्व्यवहार करने लगे, उस समय उस ब्राह्मणकुलकी रक्षा कौन ब्राह्मण कर सकता है? उनके लिये कौन-सा धर्म (कर्तव्य) है तथा कौन-सा महान् आश्रय?।
भीष्मजीने कहा ;-- राजन्! उस समय ब्राह्मण अपने तपसे, ब्रह्मचर्यसे, शस्त्रसे, बलसे, निष्कपट व्यवहारसे अथवा भेदनीतिसे--जैसे भी सम्भव हो, उसी तरह क्षत्रिय जातिको दबानेका प्रयत्न करे। जब क्षत्रिय ही प्रजाके ऊपर, उसमें भी विशेषतः ब्राह्मणोंपर अत्याचार करने लगे तो उस समय उसे ब्राह्मण ही दबा सकता है; क्योंकि क्षत्रियकी उत्पत्ति ब्राह्मणसे ही हुई है। अग्नि जलसे, क्षत्रिय ब्राह्मणसे और लोहा पत्थरसे पैदा हुआ है। इनका तेज या प्रभाव सर्वत्र काम करता है; परंतु अपनी उत्पत्तिके मूल कारणोंसे मुकाबला पड़नेपर शान्त हो जाता है।
जब लोहा पत्थर काटता है, अग्नि जलके पास जाती है और क्षत्रिय ब्राह्मणसे द्वेष करने लगता है, तब ये तीनों नष्ट हो जाते हैं। यूधिष्ठिर! यद्यपि क्षत्रियोंके तेज और बल प्रचण्ड और अजेय होते हैं, तथापि ब्राह्मणसे टक्कर लेनेपर शान्त हो जाते हैं।
जब ब्राह्मणकी शक्ति मन्द पड़ जाय, क्षत्रियका पराक्रम भी दुर्बल हो जाय और सभी वर्णोके लोग सर्वथा ब्राह्मणोंसे दुर्भाव रखने लगें, उस समय जो लोग ब्राह्मणोंकी, धर्मकी तथा अपने आपकी रक्षाके लिये प्राणोंकी परवा न करके दुष्टोंके साथ क्रोधपूर्वक युद्ध करते हैं, उन मनस्वी पुरुषोंका पवित्र यश सब ओर फैल जाता है; क्योंकि ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये सबको शस्त्र ग्रहण करनेका अधिकार है।
अतिमात्रामें यज्ञ, वेदाध्ययन, तपस्या और उपवासबव्रत करनेवालोंको तथा आत्मशुद्धिके लिये अग्निप्रवेश करनेवाले लोगोंको जिन लोकोंकी प्राप्ति होती है, उनसे भी उत्तम लोक ब्राह्मणके लिये प्राण देनेवाले शूरवीरोंको प्राप्त होते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अठहत्तरवें अध्याय के श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद)
ब्राह्मण भी यदि तीनों वर्णोकी रक्षाके लिये शस्त्र ग्रहण करे तो उसे दोष नहीं लगता। विद्वान् पुरुष इस प्रकार युद्धमें अपने शरीरके त्यागसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं मानते हैं। जो लोग ब्राह्मणोंसे द्वेष करनेवाले दुराचारियोंको दबानेके लिये युद्धकी ज्वालामें अपने शरीरकी आहुति दे डालते हैं, उन वीरोंको नमस्कार है, उनका कल्याण हो। हम लोगोंको उन्हींके समान लोक प्राप्त हो। मनुजीने कहा है कि *वे स्वर्गीय शूरवीर ब्रह्मलोकपर विजय पा जाते है'।
जैसे अश्वमेध यज्ञके अन्तमें अवभूथस्नान करनेवाले मनुष्य पापरहित एवं पवित्र हो जाते हैं, उसी प्रकार युद्धमें शस्त्रोंद्वारा मारे गये वीर अपने पाप नष्ट हो जानेके कारण पवित्र हो जाते हैं। देश-कालकी परिस्थितिके कारण कभी अधर्म तो धर्म हो जाता है और धर्म अधर्मरूपमें परिणत हो जाता है; क्योंकि वह वैसा ही देश काल है।
सबके प्रति मैत्रीका भाव रखनेवाले मनुष्य भी (दूसरोंकी रक्षाके लिये किसी दुष्टके प्रति) क्रूरतापूर्ण बर्ताव करके उत्तम स्वर्गलोकपर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं तथा धर्मात्मा पुरुष किसीकी रक्षाके लिये पाप (हिंसा आदि) करते हुए भी परम गतिको प्राप्त हो जाते हैं। अपनी रक्षाके लिये, अन्य वर्णो्में यदि कोई बुराई आ रही हो तो उसे रोकनेके लिये तथा दुर्दान्त दुष्टोंका दमन करनेके लिये--इन तीन अवसरों पर ब्राह्मण भी शस्त्र ग्रहण करे तो उसे दोष नहीं लगता।
युधिष्ठिरने पूछा ;-- पितामह! नृपश्रेष्ठ! यदि डाकुओंका दल उत्तरोत्तर बढ़ रहा हो, समाजमें वर्णसंकरता फैल रही हो और क्षत्रियके प्रजापालनरूपी कार्यके लिये समस्त वर्णोके लोग कोई उपाय न हढूँढ़ पाते हों, उस अवस्थामें यदि कोई बलवान ब्राह्मण, वैश्य अथवा शाद्र धर्मकी रक्षाके निमित्त दण्ड धारण करके लुटेरोंके हाथसे प्रजाको बचा ले तो वह राजशासनका कार्य कर सकता है या नहीं। अथवा उसे इस कार्यसे रोकना चाहिये या नहीं? मेरा तो मत है कि क्षत्रियसे भिन्न वर्णके लोगोंको भी ऐसे अवसरोंपर अवश्य शस्त्र उठाना चाहिये।
भीष्मजीने कहा ;-- बेटा! जो अपार संकटसे पार लगा दे, नौकाके अभावमें डूबते हुएको जो नाव बनकर सहारा दे, वह शूद्र हो या कोई अन्य, सर्वथा सम्मानके योग्य है। डाकुओंसे पीड़ित होकर कष्ट पाते हुए अनाथ मनुष्यगण जिसकी शरणमें जाकर सुखपूर्वक रह सकें, उसीको अपने बन्धु-वान्धवके समान मानकर बड़ी प्रसन्नताके साथ उसका आदर-सत्कार करना उनके लिये उचित है; क्योंकि कुरुनन्दन! जो निर्भय होकर बारंबार दूसरोंका संकट निवारण कर सके, वही राजोचित सम्मान पानेके योग्य है। जो बोझ न ढो सकें, ऐसे बैलोंसे क्या लाभ? जो दूध न दे, ऐसी गाय किस कामकी? जो बाँझ हो, ऐसी स्त्रीसे क्या प्रयोजन है? और जो रक्षा न कर सके, ऐसे राजासे क्या लाभ है?।
कुन्तीनन्दन! जैसे काठका हाथी, चमड़ेका हिरन, हिजड़ा मनुष्य, ऊसर खेत तथा वर्षा न करनेवाला बादल--ये सब के सब व्यर्थ हैं, उसी प्रकार अपढ़ ब्राह्मण तथा रक्षा न करनेवाला राजा भी सर्वथा निरर्थक हैं। जो सदा सत्पुरुषोंकी रक्षा करे तथा दुष्टोंको दण्ड देकर दुष्कर्म करनेसे रोके, उसे ही राजा बनाना चाहिये; क्योंकि उसीके द्वारा यह सम्पूर्ण जगत् सुरक्षित होता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वरें अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
उन्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उन्यासीवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“ऋषच्विजोंके लक्षण, यज्ञ और दक्षिणाका महत्त्व तथा तपकी श्रेष्ठता”
युधिष्ठिरने पूछा ;-- राजेन्द्र! वक्ताओंमें श्रेष्ठ पितामह! ऋत्विजोंकी उत्पत्ति किस निमित्तसे हुई है? उनके स्वभाव कैसे होने चाहिये? तथा वे किस-किस प्रकारके होते हैं? मुझे ये सब बातें बताइये।
भीष्मजीने कहा ;-- राजन्! जो ब्राह्मण छन्द:शास्त्र, “ऋक्, 'साम” और “'यजु:' नामक तीनों वेद तथा ऋषियोंके रचे हुए स्मृति और दर्शनशास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं, वे ही ऋत्विज' होने योग्य हैं, उन ऋत्विजोंका मुख्य आचार है--राजाके लिये “शान्ति” 'पौष्टिक' आदि कर्मोंका अनुष्ठान। जो सदा एकमात्र यजमानके ही हित-साधनमें तत्पर रहनेवाले, धीर, प्रियवादी, एकदूसरेके सुहृद् तथा सब ओर समान दृष्टि रखनेवाले हैं, वे ही ऋत्विज् होनेके योग्य हैं।
जिनमें क्रूरताका सर्वथा अभाव है, जो सत्यभाषण करनेवाले और सरल हैं, जो व्याज नहीं लेते तथा जिनमें द्रोह और अभिमानका अभाव है, जिनमें लज्जा, सहनशीलता, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह आदि गुण देखे जाते हैं, वे ही पुरोहित कहलाते हैं। इसी तरह जो बुद्धिमान, सत्यको धारण करने-वाला, इन्द्रिय संयमी, किसी भी प्राणीकी हिंसा न करनेवाला तथा राग-द्वेष आदि दोषोंसे दूर रहनेवाला है, जिसके शास्त्रज्ञान, सदाचार और कुल--ये तीनों अत्यन्त शुद्ध एवं निर्दोष हैं; जो अहिंसक और ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त है, वही ब्रह्मके आसनपर बैठनेका अधिकारी है। तात! ये सभी महान् ऋत्विज् यथायोग्य सम्मानके पात्र हैं।
युधिष्ठिरने पूछा ;-- भारत! यह जो यज्ञसम्बन्धी दक्षिणाके विषयमें वेदवाक्य उपलब्ध होता है कि “यह भी देना चाहिये, यह भी देना चाहिये” यह वाक्य किसी सीमित वस्तुपर अवलम्बित नहीं है। अतः दक्षिणामें दिये जानेवाले धनके विषयमें जो यह शास्त्र-वचन है, यह आपत्कालिक धर्मशास्त्रके अनुसार नहीं है। मेरी समझमें तो यह शास्त्रकी आज्ञा भयंकर है; क्योंकि यह इस बातकी ओर नहीं देखती कि दातामें कितने दानकी शक्ति है।
दूसरी ओर वेदकी यह आज्ञा भी सुनी जाती है कि प्रत्येक श्रद्धालु पुरुषको यज्ञ करना चाहिये। यदि दरिद्र श्रद्धाके बलपर यज्ञमें प्रवृत्त हो और उचित दक्षिणा न दे सके तो वह यज्ञ मिथ्या भावसे युक्त होगा; उस दशामें उसकी न्यूनताकी पूर्ति श्रद्धा कैसे कर सकेगी?।
भीष्मजीने कहा ;-- युधिष्ठिर! वेदोंकी निन्दा करनेसे, शठतापूर्ण बर्तावसे तथा छलकपटसे कोई भी महान् पद नहीं पाता है; अतः तुम्हारी बुद्धि ऐसी न हो। तात! दक्षिणा यज्ञोंका अड़ है। वही वेदोक्त यज्ञोंका विस्तार एवं उनमें न्यूनताकी पूर्ति करनेवाली है। दक्षिणाहीन यज्ञ किसी प्रकार भी यजमानका उद्धार नहीं कर सकते। जहाँ धनी और दरिद्रकी शक्तिका प्रश्न है, उधर भी शास्त्रकी दृष्टि है ही। दोनोंके लिये समान दक्षिणा नहीं रखी गयी है। (दरिद्रकी) शक्तिको पूर्णपात्रसे मापा गया है। अर्थात् जहाँ धनीके लिये बहुत धन देनेका विधान है, वहाँ दरिद्रके लिये एक पूर्णपात्र ही दक्षिणामें देनेका विधान कर दिया है; अतः तात! ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोंके लोगोंको अवश्य ही विधिपूर्वक यज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये।
वेदोंका यह सिद्धान्त है कि सोम ब्राह्मणोंका राजा है; परंतु यज्ञके लिये ब्राह्मणलोग उसे भी बेच देनेकी इच्छा रखते हैं। जहाँ यज्ञ आदि कोई अनिवार्य कारण उपस्थित न हो वहाँ व्यर्थ ही उदरपूर्तिके लिये सोमरसका विक्रय अभीष्ट नहीं है। दक्षिणाद्वारा उस सोमरसके साथ खरीद किये हुए यज्ञ-साधनोंसे यजमानके यज्ञका विस्तार होता है। धर्मका आचरण करनेवाले ऋषियोंने इस विषयमें धर्मके अनुसार ऐसा ही विचार व्यक्त किया है।
यज्ञकर्ता पुरुष, यज्ञ और सोमरस--ये तीनों जब न्याय-सम्पन्न होते हैं तब यज्ञका यथार्थरूपसे सम्पादन होता है। अन्यायपरायण पुरुष न दूसरेका भला कर सकता है, न अपना ही। शरीर-निर्वाहमात्रके लिये धन प्राप्त करके यज्ञमें प्रवृत्त हुए महामनस्वी ब्राह्मणोंद्वारा जो यज्ञ सम्पादित होते हैं, वे भी हिंसा आदि दोषोंसे युक्त होनेपर उत्तम फल नहीं देते हैं, ऐसा श्रुतिका सिद्धान्त सुननेमें आता है। अत: यज्ञकी अपेक्षा भी तप श्रेष्ठ है, यह वेदका परम उत्तम वचन है। विद्वान् युधिष्ठिर! मैं तुम्हें तपका स्वरूप बताता हूँ, तुम मुझसे उसके विषयमें सुनो। किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना, सत्य बोलना, क्रूरताको त्याग देना, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखना तथा सबके प्रति दयाभाव बनाये रखना--इन्हींको धीर पुरुषोंने तप माना है। केवल शरीरको सुखाना ही तप नहीं है।
वेदको अप्रामाणिक बताना, शास्त्रोंकी आज्ञाका उललड्घन करना तथा सर्वत्र अव्यवस्था पैदा करना--ये सब दुर्गुण अपना ही नाश करनेवाले हैं। कुन्तीनन्दन! दैवी सम्पदायुक्त होताओंके यज्ञ-सम्बन्धी उपकरण जिस प्रकारके होते हैं, उन्हें सुनो। उनके सहायक चित्ति ही खुक् है, चित्त ही आज्य (घी) है और उत्तम ज्ञान ही पवित्री है। सारी कुटिलता मृत्युका स्थान है और सरलता परब्रह्मकी प्राप्तिका स्थान है। इतना ही ज्ञानका विषय है और सब प्रलापमात्र है, वह किस काम आयेगा?।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनिशासनपर्वमें उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
अस्सीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अस्सीवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“राजाके लिये मित्र और अमित्रकी पहचान तथा उन सबके साथ नीतिपूर्ण बर्तावका और मन्त्रीके लक्षणोंका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा ;-- पितामह! जो छोटे-से-छोटा काम है, उसे भी बिना किसीकी सहायताके अकेले मनुष्यके द्वारा किया जाना कठिन हो जाता है। फिर राजा दूसरेकी सहायताके बिना महान् राज्यका संचालन कैसे कर सकता है?। अत: राजाकी सहायताके लिये जो सचिव (मन्त्री) हो, उसका स्वभाव और आचरण कैसा होना चाहिये? राजा कैसे मन्त्रीपर विश्वास करे और कैसे पर न करे?।
भीष्मजीने कहा ;-- राजन्! राजाके सहायक या मित्र चार प्रकारके होते हैं--१-सहार्थ २-भजमान ३-सहज और ४-कृत्रिम,। इनके सिवा, राजाका एक पाँचवाँ मित्र धर्मात्मा पुरुष होता है, वह किसी एकका पक्षपाती नहीं होता और न दोनों पक्षोंसे वेतन लेकर कपटपूर्वक दोनोंका ही मित्र बना रहता है। जिस पक्षमें धर्म होता है, उसी ओर वह भी हो जाता है अथवा जो धर्मपरायण राजा है, वही उसका आश्रय ग्रहण कर लेता है। ऐसे धर्मात्मा पुरुषको जो कार्य न रुचे, वह उसके सामने नहीं प्रकाशित करना चाहिये; क्योंकि विजयकी इच्छा रखनेवाले राजा कभी धर्ममार्गसे चलते हैं और कभी अधर्ममार्गसे।
उपर्युक्त चार प्रकारके मित्रोंमेंसे भजमान और सहज--ये बीचवाले दो मित्र श्रेष्ठ समझे जाते हैं, किंतु शेष दो की ओरसे सदा सशड्क रहना चाहिये। वास्तवमें तो अपने कार्यको ही दृष्टिमें रखकर सभी प्रकारके मित्रोंसे सदा सतर्क रहना चाहिये। राजाको अपने मित्रोंकी रक्षामें कभी असावधानी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि असावधान राजाका सभी लोग तिरस्कार करते हैं। बुरा मनुष्य भला और भला मनुष्य बुरा हो जाया करता है। शत्रु भी मित्र बन जाता है और मित्र भी बिगड़ जाता है; क्योंकि मनुष्यका चित्त सदैव एक-सा नहीं रहता। अतः उसपर किसी भी समय कोई कैसे विश्वास करेगा? इसलिये जो प्रधान कार्य हो, उसे अपनी आँखोंके सामने पूरा कर देना चाहिये।
किसीपर भी किया हुआ अत्यन्त विश्वास धर्म और अर्थ दोनोंका नाश करनेवाला होता है और सर्वत्र अविश्वास करना भी मृत्युसे बढ़कर है। दूसरोंपर किया हुआ पूरा-पूरा विश्वास अकालमृत्युके समान है; क्योंकि अधिक विश्वास करनेवाला मनुष्य भारी विपत्तिमें पड़ जाता है। वह जिसपर विश्वास करता है, उसीकी इच्छापर उसका जीवन निर्भर होता है। इसलिये राजाको कुछ चुने हुए लोगोंपर विश्वास तो करना चाहिये, पर उनकी ओरसे सशड्क भी रहना चाहिये। तात! यही सनातन नीतिकी गति है। इसे सदा दृष्टिमें रखना चाहिये। “अमुक व्यक्ति मेरे मरनेके बाद राजा हो सकता है और धनकी यह सारी आय अपने हाथमें ले सकता है” ऐसी मान्यता जिसके विषयमें हो (वह भाई, पड़ोसी या पुत्र ही क्यों न हो) उससे सदा सतर्क ही रहना चाहिये; क्योंकि विद्वान् पुरुष उसे शत्रु ही समझते हैं।
वर्षा आदिका जल जिसके खेतसे होकर दूसरेके खेतमें जाता है, उसकी इच्छाके बिना उसके खेतकी आड़ या मेड़को नहीं तोड़ना चाहिये।
इसी प्रकार आड़ न टूटनेसे जिसके खेतमें अधिक जल भर जाता है, वह भयभीत हो उस जलको निकालनेके लिये खेतकी आड़को तोड़ डालना चाहता है। जिसमें ऐसे लक्षण जान पड़ें, उसीको शत्रु समझो, अर्थात् जो अपने राज्यकी सीमाका रक्षक है, वह यदि सीमा तोड़ दे तो अपने राज्यपर भय आ सकता है; अतः उसे भी शत्रु ही समझना चाहिये। जो राजाकी उन्नतिसे कभी तृप्त न हो, उत्तरोत्तर उसकी अधिक उन्नति ही चाहता रहे और अवनति होनेपर बहुत दुखी हो जाय, यही उत्तम मित्रकी पहचान बतायी गयी है।
जिसके विषयमें ऐसी मान्यता हो कि मेरे न रहनेपर यह भी नहीं रहेगा, उसपर पिताके समान विश्वास करना चाहिये। और जब अपनी वृद्धि हो तो यथाशक्ति उसे भी सब ओरसे समृद्धिशाली बनावे। जो धर्मके कार्योमें भी राजाको सदा हानिसे बचानेका प्रयत्न करता है तथा उसकी हानिसे भयभीत हो उठता है, उसके इस स्वभावको ही उत्तम मित्रका लक्षण समझना चाहिये। जो राजाकी हानि और विनाशकी इच्छा रखते हैं, वे उसके शत्रु माने गये हैं। जो मित्रपर विपत्ति आनेकी सम्भावनासे सदा डरता रहता है और उसकी उन्नति देखकर मन-ही-मन ईर्ष्या नहीं करता है, ऐसे मित्रको अपने आत्माके समान बताया गया है।
जिसका रूप-रंग सुन्दर और स्वर मीठा हो, जो क्षमाशील हो, निन्दक न हो तथा कुलीन और शीलवान् हो, वह तुम्हारा प्रधान सचिव होना चाहिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अस्सीवें अध्याय के श्लोक 22–41 का हिन्दी अनुवाद)
जिसकी बुद्धि अच्छी और स्मरणशक्ति तीव्र हो, जो कार्यसाधनमें कुशल और स्वभावत: दयालु हो तथा कभी मान या अपमान हो जानेपर जिसके हृदयमें द्वेष या दुर्भाव नहीं पैदा होता हो, ऐसा मनुष्य यदि ऋत्विज, आचार्य अथवा अत्यन्त प्रशंसित मित्र हो तो वह मन्त्री बनकर तुम्हारे घरमें रहे तथा तुम्हें उसका विशेष आदर सम्मान करना चाहिये। वह तुम्हारे उत्तम-से-उत्तम गोपनीय मन्त्र तथा धर्म और अर्थकी प्रकृति" को भी जाननेका अधिकारी है। उसपर तुम्हारा वैसा ही विश्वास होना चाहिये, जैसा कि एक पुत्रका पितापर होता है।
एक कामपर एक ही व्यक्तिको नियुक्त करना चाहिये, दो या तीनको नहीं; क्योंकि वे आपसमें एक-दूसरेको सहन नहीं कर पाते; एक कार्यपर नियुक्त हुए अनेक व्यक्तियोंमें प्रायः सदा मतभेद हो ही जाता है। जो कीर्तिको प्रधानता देता है और मर्यादाके भीतर स्थित रहता है, जो सामर्थ्यशाली पुरुषोंसे द्वेघ और अनर्थ नहीं करता है, जो कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा क्रोधसे भी धर्मका त्याग नहीं करता, जिसमें कार्यकुशलता तथा आवश्यकताके अनुरूप बातचीत करनेकी पूरी योग्यता हो, वही पुरुष तुम्हारा प्रधानमन्त्री होना चाहिये।
जो कुलीन, शीलसम्पन्न, सहनशील, झूठी आत्मप्रशंसा न करनेवाले, शूरवीर, श्रेष्ठ, विद्वान् तथा कर्तव्य-अकर्तव्यको समझनेमें कुशल हों, उन्हें तुम्हें मन्त्रिपदपर प्रतिष्ठित करना चाहिये। वे तुम्हारे सभी कार्योंमें नियुक्त होनेयोग्य हैं। उन्हें तुम सत्कारपूर्वक सुख और सुविधाकी वस्तुएँ देना। इस प्रकार आदरपूर्वक अपनाये जानेपर वे तुम्हारे अच्छे सहायक सिद्ध होंगे। इन्हें इनकी योग्यताके अनुरूप कर्मोमें पूरा अधिकार देकर लगा दिया जाय तो ये बड़ेबड़े कार्योंके साधनमें तत्पर हो राजाके लिये कल्याणकी वृद्धि कर सकते हैं।
क्योंकि ये सदा परस्पर होड़ लगाकर कार्य करते हैं और एक-दूसरेसे सलाह लेकर अर्थकी सिद्धिके विषयमें विचार करते रहते हैं। युधिष्ठिर! तुम अपने कुटुम्बीजनोंसे सदा उसी प्रकार भय मानना, जैसे लोग मृत्युसे डरते रहते हैं। जिस प्रकार पड़ोसी राजा अपने पासके राजाकी उन्नति देख नहीं सकता, उसी प्रकार एक कुट॒म्बी दूसरे कुटुम्बीका अभ्युदय कभी नहीं सह सकता। महाबाहो! जो सरल, कोमल स्वभाववाला, उदार, लज्जाशील और सत्यवादी है; ऐसे राजाके विनाशका समर्थन कुट॒म्बीके सिवा दूसरा नहीं कर सकता।
जिसके कुटुम्बी या सगे-सम्बन्धी नहीं हैं, वह भी सुखी नहीं होता; इसलिये कुटुम्बीजनोंकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। भाई-बन्धु या कुटुम्बीजनोंसे रहित पुरुषको दूसरे लोग दबाते रहते हैं। दूसरोंके दबानेपर उस मनुष्यको उसके सगे भाई-बन्धु ही सहारा देते हैं। दूसरे लोग किसी सजातीय बन्धुका अपमान करें तो जाति-भाई उसको किसी तरह सहन नहीं कर सकते हैं। यदि सगे-सम्बन्धी भी किसी पुरुषका अपमान करें तो उसकी जातिके लोग उसे अपना ही अपमान समझते हैं। इस प्रकार कुटुम्बीजनोंमें गुण भी हैं और अवगुण भी दिखायी देते हैं। दूसरी जातिका मनुष्य न अनुग्रह करता है, न नमस्कार। इस प्रकार जाति-भाइयोंमें भलाई और बुराई दोनों देखनेमें आती हैं।
राजाका कर्तव्य है कि वह सदा अपने जातीय बन्धुओंका वाणी और क्रियाद्वारा आदर-सत्कार करे। वह प्रतिदिन उनका प्रिय ही करता रहे। कभी कोई अप्रिय कार्य न करे। उनपर विश्वास तो न करे; परंतु विश्वास करनेवालेकी ही भाँति सदा उनके साथ बर्ताव करे। उनमें दोष है या गुण इसका निर्णय करनेकी आवश्यकता नहीं दिखायी देती है।
जो पुरुष सदा सावधान रहकर ऐसा बर्ताव करता है, उसके शत्रु भी प्रसन्न हो जाते हैं और उसके साथ मित्रताका बर्ताव करने लगते हैं। जो कुट॒म्बी, सगे-सम्बन्धी, मित्र, शत्रु तथा मध्यस्थ व्यक्तियोंकी मण्डलीमें सदा इसी नीतिसे व्यवहार करता है, वह चिरकालतक यशस्वी बना रहता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधरमानुशासनपर्वमें अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टीका टिप्पणी ;–
- सहार्थ मित्र उनको कहते हैं, जो किसी शर्तपर एक-दूसरेकी सहायताके लिये मित्रता करते हैं। “अमुक शत्रुपर हम दोनों मिलकर चढ़ाई करें, विजय होनेपर दोनों उसके राज्यको आधा-आधा बाँट लेंगेट--इत्यादि शर्तें सहार्थ मित्रोंमें होती हैं। जिनके साथ परम्परागत वंशसम्बन्धसे मित्रता हो, वे 'भजमान” कहलाते हैं। जन्मसे ही साथ रहनेसे अथवा घनिष्ठ सम्बन्ध होनेके कारण जिनमें परस्पर स्वाभाविक मैत्री हो जाती है वे 'सहज' मित्र कहे गये हैं; और धन आदि देकर अपनाये हुए लोग “कृत्रिम” मित्र कहलाते हैं।
- प्रकृतियाँ तीन प्रकारकी बतायी गयी हैं--अर्थप्रकृति, धर्मप्रकृति तथा अर्थ-धर्मप्रकृति। इनमें अर्थ-प्रकृतिके अन्तर्गत आठ वस्तुएँ हैं-“-खेती, वाणिज्य, दुर्ग, सेतु (पुल), जंगलमें हाथी बाँधनेके स्थान, सोने-चाँदी आदि धातुओंकी खान, करग्रहण और सूने स्थानोंको बसाना। इनके अतिरिक्त जो दुर्गाध्यक्ष, बलाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, सेनापति, पुरोहित, वैद्य और ज्यौतिषी--ये सात प्रकृतियाँ हैं, इनमेंसे “धर्माध्यक्ष' तो धर्मप्रकृति हैं और शेष छ: “अर्थ-धर्मप्रकृति' के अन्तर्गत हैं।
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