सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के इकहत्तरवें अध्याय से पचहत्तरवें अध्याय तक (From the 71 chapter to the 75 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

इकहत्तरवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इकहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“धर्मपूर्वक प्रजाका पालन ही राजाका महान्‌ धर्म है, इसका प्रतिपादन”

    युधिष्ठिरने पूछा ;-- पितामह! किस प्रकार प्रजाका पालन करनेवाला राजा चिन्तामें नहीं पड़ता और धर्मके विषयमें अपराधी नहीं होता, यह मुझे बताइये।

     भीष्मजीने कहा ;-- राजन! मैं संक्षेपसे ही तुम्हारे लिये सनातन राजधर्मोंका वर्णन करूँगा। विस्तारसे वर्णन आरम्भ करूँ तो उन धर्मोका कभी अन्त ही नहीं हो सकता। जब घरपर वेदव्रतपरायण, शास्त्रज्ञ एवं धर्मिष्ठ गुणवान्‌ ब्राह्मण पधारें, उस समय उन्हें देखते ही खड़े हो उनका स्वागत करो। उनके चरण पकड़कर प्रणाम करो और उनकी विधिपूर्वक अर्चन करके पूजा करो। तदनन्तर पुरोहितको साथ लेकर समस्त आवश्यक कार्य सम्पन्न करो।

     पहले संध्या-वन्दन आदि धार्मिक कृत्य पूर्ण करके माड़लिक वस्तुओंका दर्शन करनेके पश्चात्‌ ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराओ और अर्थसिद्धि एवं विजयके लिये उनके आशीर्वाद ग्रहण करो। भरतनन्दन! राजाको चाहिये कि वह सरल स्वभावसे सम्पन्न हो, धैर्य तथा बुद्धिके बलसे सत्यको ही ग्रहण करे और काम-क्रोधका परित्याग कर दे। जो राजा काम और क्रोधका आश्रय लेकर धन पैदा करना चाहता है, वह मूर्ख न तो धर्मको पाता है और न धन ही उसके हाथ लगता है।

     तुम लोभी और मूर्ख मनुष्योंको काम और अर्थके साधनमें न लगाओ। जो लोभरहित और बुद्धिमान हों, उन्हींको समस्त कार्योमें नियुक्त करना चाहिये। जो कार्यसाधनमें कुशल नहीं है और काम तथा क्रोधके वशमें पड़ा हुआ है, ऐसे मूर्ख मनुष्यको यदि अर्थसंग्रहका अधिकारी बना दिया जाय तो वह अनुचित उपायसे प्रजाओंको क्लेश पहुँचाता है। प्रजाकी आयका छठा भाग करके रूपमें ग्रहण करके; उचित शुल्क या टैक्स लेकर, अपराधियोंको आर्थिक दण्ड देकर तथा शास्त्रके अनुसार व्यापारियोंकी रक्षा आदि करनेके कारण उनके दिये हुए वेतन लेकर इन्हीं उपायों तथा मार्गोंसे राजाको धन-संग्रहकी इच्छा रखनी चाहिये।

    प्रजासे धर्मानुकूल कर ग्रहण करके राज्यका नीतिके अनुसार विधिपूर्वक पालन करते हुए राजाको आलस्य छोड़कर प्रजावर्गके योगक्षेमकी व्यवस्था करनी चाहिये। जो राजा आलस्य छोड़कर रण-द्वेषसे रहित हो सदा प्रजाकी रक्षा करता है, दान देता है तथा निरन्तर धर्म एवं न्यायमें तत्पर रहता है, उसके प्रति प्रजावर्गके सभी लोग अनुरक्त होते हैं। राजन! तुम लोभवश अधर्ममार्गसे धन पानेकी कभी इच्छा न करना; क्योंकि जो लोग शास्त्रके अनुसार नहीं चलते हैं, उनके धर्म और अर्थ दोनों ही अस्थिर एवं अनिश्चित होते हैं।

   शास्त्रसे विपरीत चलनेवाला राजा न तो धर्मकी सिद्धि कर पाता है और न अर्थकी ही। यदि उसे धन मिल भी जाय तो वह सारा ही बुरे कामोंमें नष्ट हो जाता है। जो धनका लोभी राजा मोहवश प्रजासे शास्त्रविरुद्ध अधिक कर लेकर उसे कष्ट पहुँचाता है, वह अपने ही हाथों अपना विनाश करता है। जैसे दूध चाहनेवाला मनुष्य यदि गायका थन काट ले तो इससे वह दूध नहीं पा सकता, उसी प्रकार राज्यमें रहनेवाली प्रजाका अनुचित उपायसे शोषण किया जाय तो उससे राष्ट्रकी उन्नति नहीं होती।

    जो दूध देनेवाली गायकी प्रतिदिन सेवा करता है, वही दूध पाता है; इसी प्रकार उचित उपायसे राष्ट्रकी रक्षा करनेवाला राजा ही उससे लाभ उठाता है। युधिष्ठिर! न्यायसंगत उपायसे राष्ट्रको सुरक्षित रखते हुए उसका उपभोग किया जाय अर्थात्‌ करके रूपमें उससे धन लिया जाय तो वह सदा राजाके कोशकी अनुपम वृद्धि करता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इकहत्तरवें अध्याय के श्लोक 19–33 का हिन्दी अनुवाद)

     जैसे माता स्वयं तृप्त रहनेपर ही बालकको यशथेष्ट दूध पिलाती है, उसी प्रकार राजासे सुरक्षित होनेपर ही यह दुधारू गायके समान पृथ्वी राजाके स्वजनों तथा दूसरे लोगोंको सदा अन्न एवं सुवर्ण देती है। युधिष्ठिर! तुम मालीके समान बनो। कोयला बनानेवालेके समान न बनो (माली वृक्षकी जड़को सींचता और उसकी रक्षा करता है, तब उससे फल और फूल ग्रहण करता है, परंतु कोयला बनानेवाला वृक्षको समूल नष्ट कर देता है; उसी प्रकार तुम भी माली बनकर राज्यरूपी उद्यानको सींचकर सुरक्षित रखो और फल-फूलकी तरह प्रजासे न्यायोचित कर लेते रहो, कोयला बनानेवालेकी तरह सारे राज्यको जलाकर भस्म न करो), ऐसा करके प्रजापालनमें तत्पर रहकर तुम दीर्घकालतक राज्यका उपभोग कर सकोगे।

      यदि शत्रुओंके आक्रमणसे तुम्हारे धनका नाश हो जाय तो भी सान्त्वनापूर्ण मधुर वाणीद्वारा ही ब्राह्मणेतर प्रजासे धन लेनेकी इच्छा रखो। भरतनन्दन! धनसम्पन्न अवस्थाकी तो बात ही क्या है? तुम अत्यन्त निर्धन अवस्थामें पड़ जाओ तो भी ब्राह्मणको धनी देखकर उसका धन लेनेके लिये तुम्हारा मन चञ्चल नहीं होना चाहिये।

     राजन! तुम ब्राह्मणोंको सान्त्वना देते और उनकी रक्षा करते हुए उन्हें यथाशक्ति यथायोग्य धन देते रहना, इससे तुम्हें दुर्जय स्वर्गलोककी प्राप्ति होगी। कुरुनन्दन! इस प्रकार तुम धर्मानुकूल बर्ताव करते हुए प्रजाजनोंका पालन करो। इससे परिणाममें सुखद पुण्य तथा चिरस्थायी यश प्राप्त कर लोगे। पाण्डुनन्दन युधिष्ठटिर! तुम धर्मानुकूल बर्ताव करते हुए प्रजाका पालन करते रहो, जिससे युक्त रहकर तुम्हें कभी भी चिन्ता या पश्चात्ताप न हो।

राजा जो प्रजाकी रक्षा करता है, यही उसका सबसे बड़ा धर्म है। समस्त प्राणियोंकी रक्षा तथा उनके प्रति परम दया ही महान्‌ धर्म है। इसलिये जो राजा प्रजापालनमें तत्पर रहकर प्राणियोंपर दया करता है, उसके इस बर्तावको धर्मज्ञ पुरुष परम धर्म मानते हैं। राजा प्रजाकी भयसे रक्षा न करनेके कारण एक दिनमें जिस पापका भागी होता है, उसका परिणाम उसे एक हजार वर्षोंतक भोगना पड़ता है।

     और प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करनेके कारण राजा एक दिनमें जिस धर्मका भागी होता है, उसका फल वह दस हजार वर्षोतक स्वर्गलोकमें रहकर भोगता है। उत्तम यज्ञके द्वारा गृहस्थ-धर्मका, उत्तम स्वाध्यायके द्वारा ब्रह्मचर्यका तथा श्रेष्ठ तपके द्वारा वानप्रस्थ-धर्मका पालन करनेवाला पुरुष जितने पुण्यलोकोंपर अधिकार प्राप्त करता है, धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करनेवाला राजा उन्हें क्षणभरमें पा लेता है।

    कुन्तीनन्दन! इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक धर्मका पालन करो। इससे पुण्यका फल पाकर तुम कभी चिन्तामें नहीं पड़ोगे। पाण्डुनन्दन! धर्मपालन करनेसे स्वर्गलोकमें तुम्हें बड़ी भारी सुख-सम्पत्ति प्राप्त होगी। जो राजा नहीं हैं, उन्हें ऐसे धर्मोॉका लाभ मिलना असम्भव है। इसलिये धर्मात्मा राजा ही ऐसे धर्मका फल पाता है, दूसरा नहीं। तुम धैर्यवान्‌ तो हो ही। यह राज्य पाकर धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करो। यज्ञमें सोमरसद्दवारा इन्द्रको तृप्त करो और मनोवांछित वस्तु प्रदान करके सुहृदोंको संतुष्ट करो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

बहत्तरवाँ अध्याय

“राजाके लिये सदाचारी विद्वान पुरोहितकी आवश्यकता तथा प्रजापालनका महत्त्व”

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) बहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)

     भीष्मजीने कहा ;-- राजन्‌! राजाको चाहिये कि वह एक ऐसे विद्वान ब्राह्यणको अपना पुरोहित बनावे, जो उसके सत्कर्मोंकी रक्षा करे और उसे असत्‌ कर्मसे दूर रखे (तथा जो उसके शुभकी रक्षा और अशुभका निवारण करे)। इस विषयमें विद्वान् लोग इला कुमार पुरूरवा तथा वायुके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं।

   पुरूरवाने पूछा ;-- वायुदेव! ब्राह्मणकी उत्पत्ति किससे हुई है? अन्य तीनों वर्ण भी किससे उत्पन्न हुए हैं तथा ब्राह्मण उन सबसे श्रेष्ठ क्यों है? यह मुझे स्पष्टरूपसे बतानेकी कृपा करें।

    वायुने कहा ;-- नृपश्रेष्ठ! ब्रह्माजीके मुखसे ब्राह्मणकी, दोनों भुजाओंसे क्षत्रियकी तथा दोनों ऊरुओंसे वैश्यकी सृष्टि हुई है। भरतश्रेष्ठ इसके बाद इन तीनों वर्णोकी सेवाके लिये ब्रह्माजीके दोनों पैरोंसे चौथे वर्ण शूद्रकी रचना हुई। ब्राह्मण जन्मकालसे ही भूतलपर धर्मकोषकी रक्षाके लिये अन्य सब वर्णोंका नियन्ता होता है। तदनन्तर ब्रह्माजीने पृथ्वीपर शासन करनेवाले और दण्डधारणमें समर्थ दूसरे वर्ण क्षत्रियको प्रजाजनोंकी रक्षाके लिये नियुक्त किया। वैश्य धन-धान्यके द्वारा इन तीनों वर्णोका पोषण करे और शूद्र शेष तीनों वर्णोंकी सेवामें संलग्न रहे, यह ब्रह्माजीका आदेश है।

    पुरूरवाने पूछा ;-- वायुदेव! धन-धान्यसहित यह पृथ्वी धर्मतः किसकी है? ब्राह्मणकी या क्षत्रियकी? यह मुझे ठीक-ठीक बताइये।

      वायुदेवने कहा ;-- राजन्‌! धर्मनिपुण विद्वान्‌ ऐसा मानते हैं कि उत्तम स्थानसे उत्पन्न और ज्येष्ठ होनेके कारण इस पृथ्वीपर जो कुछ है, वह सब ब्राह्मणका ही है। ब्राह्मण अपना ही खाता, अपना ही पहनता और अपना ही देता है। निश्चय ही ब्राह्मण सब वर्णोंका गुरु, ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है।

     जैसे वाग्दानके अनन्तर पतिके मर जानेपर स्त्री देवरको पति बनाती हैः, उसी प्रकार पृथ्वी ब्राह्मणके बाद ही क्षत्रियका पतिरूपमें वरण करती है, यह तुम्हें मैंने अनादि कालसे प्रचलित प्रथम श्रेणीका नियम बताया है। आपत्तिकालमें इसमें फेर-फार भी हो सकता है।

    यदि तुम स्वधर्म-पालनके फलस्वरूप स्वर्गलोकमें उत्तम स्थानकी खोज कर रहे हो (चाहते हो) तो जितनी भूमिपर तुम विजय प्राप्त करो, वह सब शास्त्र और सदाचारसे सम्पन्न, धर्मज्ञ, तपस्वी तथा स्वधर्मसे संतुष्ट ब्राह्मणको पुरोहित बनाकर सौंप दो, जो कि धनोपार्जनमें आसक्त न हो। तथा जो सर्वतोभावसे परिपूर्ण अपनी बुद्धिके द्वारा राजाको सन्मार्गपर ले जा सके; क्योंकि जो ब्राह्मण उत्तम कुलमें उत्पन्न, विशुद्ध बुद्धिसे युक्त और विनयशील होता है, वह विचित्र वाणी बोलकर राजाको कल्याणके पथपर ले जाता है। जो ब्राह्मणका बताया हुआ धर्म है, उसीको राजा आचरणमें लाता है।

     क्षत्रियधर्ममें तत्पर रहनेवाला, अहंकारशून्य तथा पुरोहितकी बात सुननेके लिये उत्सुक, उतनेसे ही सम्मानको प्राप्त हुआ विद्वान्‌ नरेश चिरकालतक यशस्वी बना रहता है तथा राजपुरोहित उसके सम्पूर्ण धर्मका भागीदार होता है। इस प्रकार राजाके आश्रयमें रहकर सारी प्रजा सदाचारपरायण, अपने-अपने धर्ममें तत्पर और सब ओरसे निर्भय हो जाती है।

      राजाके द्वारा भलीभाँति सुरक्षित हुए मनुष्य राज्यमें जिस धर्मका आचरण करते हैं, उसका एक चौथाई भाग राजा भी प्राप्त कर लेता है। देवता, मनुष्य, पितर, गन्धर्व, नाग और राक्षस--ये सबके सब यज्ञका आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं; परंतु जहाँ कोई राजा नहीं है, उस राज्यमें यज्ञ नहीं होता है। देवता और पितर भी इस मर्त्यलोकसे ही दिये गये यज्ञ और श्राद्धसे जीवन यापन करते हैं। अतः इस धर्मका योगक्षेम राजापर ही अवलम्बित है।

    जब गर्मी पड़ती है, उस समय मनुष्य छायामें, जलमें और वायुमें सुखका अनुभव करता है। इसी प्रकार सर्दी पड़नेपर अग्नि और सूर्यके तापसे तथा कपड़ा ओढ़नेसे उसे सुख मिलता है (परंतु अराजकताका भय उपस्थित होनेपर मनुष्यको कहीं किसी वस्तुसे भी सुख प्राप्त नहीं होता है)। साधारण अवस्थामें प्रत्येक मनुष्यका मन शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धमें आनन्दका अनुभव करता है; परंतु भयभीत मनुष्यको उन सभी भोगोंमें कोई सुख नहीं मिलता है, इसलिये जो अभयदान करनेवाला है, उसीको महान्‌ फलकी प्राप्ति होती है; क्योंकि तीनों लोकोंमें प्राणदानके समान दूसरा कोई दान नहीं है।

    राजा इन्द्र है, राजा यमराज है तथा राजा ही धर्मराज है। राजा अनेक रूप धारण करता है और राजाने ही इस सम्पूर्ण जगत्‌को धारण कर रखा है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

तिहत्तरवाँ अध्याय

“विद्वान सदाचारी पुरोहितकी आवश्यकता तथा ब्राह्मण और क्षत्रियमें मेल रहनेसे लाभविषयक राजा पुरूरवाका उपाख्यान”

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तिहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

     भीष्मजी बोले ;-- राजन्‌। राजाको चाहिये कि धर्म और अर्थकी गतिको अत्यन्त गहन समझकर अविलम्ब किसी ऐसे ब्राह्मणको पुरोहित बना ले, जो विद्वान्‌ और बहुश्रुत हो।

     राजन्‌! जिन राजाओंका पुरोहित धर्मात्मा एवं सलाह देनेमें कुशल होता है और जिनका राजा भी ऐसे ही गुणोंसे सम्पन्न (धर्मपरायण एवं गुप्त बातोंका जाननेवाला) होता है, उन राजा और प्रजाओंका सब प्रकारसे भला होता है। उनके धर्म, अर्थ और काम तीनोंकी निश्चय ही सिद्धि होती है। युधिष्ठिर! इस विषयमें शुक्राचार्यके गाये हुए कुछ श्लोक हैं, उन्हें तुम सुनो। जिस राजाके पास पुरोहित नहीं है, वह उच्छिष्ट (अपवित्र) हो जाता है।

    जिसके पास पुरोहित नहीं है, वह राजा राक्षसों, असुरों, पिशाचों, नागों, पक्षियोंका तथा शत्रुओंका वध्य होता है। पुरोहितको चाहिये कि राजाके लिये जो सदा आवश्यक कर्तव्य हों, जो-जो बड़े बड़े उत्पात होने-वाले हों, जो अभीष्ट तथा माड्रनलिक कृत्य हों तथा जो अन्तःपुरसे सम्बन्ध रखनेवाले वृत्तान्त हों, वे सब राजाको बतावे।

    राजाको प्रिय लगनेवाले जो गीत और नृत्यसम्बन्धी कार्य हों, उनमें करनेयोग्य कर्तव्यका पुरोहित निर्देश करे, बलिवैश्वदेवकर्मका सम्पादन करे। जो राजा अनुकूल नक्षत्रमें उत्पन्न हुआ है तथा राजशास्त्रकी पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर चुका है, उससे भी श्रेष्ठ उसका पुरोहित होना चाहिये।

    जो भिन्न-भिन्न प्रकारके निमित्तों और उत्पातोंका रहस्य जानता हो तथा शत्रुपक्षके विनाशकी प्रणालीका भी जानकार हो, ऐसा श्रेष्ठतम पुरुष राजाका पुरोहित होना चाहिये। यदि राजा और पुरोहित धर्मनिष्ठ, श्रद्धेय तथा तपस्वी हों, एक-दूसरेके प्रति सौहार्द रखते हों और समान ह्ृदयवाले हों तो वे दोनों मिलकर प्रजाकी वृद्धि करते हैं तथा सम्पूर्ण देवताओं एवं पितरोंको तृप्त करके पुत्र और प्रजावर्गको भी अभ्युदयशील बनाते हैं। ऐसे ब्राह्मण (पुरोहित) और क्षत्रिय (राजा) का सम्मान करनेसे प्रजाको सुखकी प्राप्ति होती है। उन दोनोंका अनादर करनेसे प्रजाका विनाश ही होता है, क्योंकि ब्राह्मण और क्षत्रिय सभी वर्णोंके मूल कहे जाते हैं। इस विषयमें राजा पुरूरवा और महर्षि कश्यपके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। युधिष्ठिर! तुम उसे सुनो।

      पुरूरवाने पूछा ;-- महर्षे! ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों साथ रहकर ही सबल होते हैं; परंतु जब ब्राह्मण (पुरोहित) किसी कारणसे क्षत्रियको छोड़ देता है अथवा जब राजा ब्राह्मणका परित्याग कर देता है, तब अन्य वर्णके लोग इन दोनोंमेंसे किसका आश्रय ग्रहण करते हैं? तथा दोनोंमेंसे कौन सबको आश्रय देता है?।

    कश्यपने कहा ;-- राजन! श्रेष्ठ पुरुष इस बातको जानते हैं कि संसारमें जहाँ ब्राह्मण क्षत्रियसे विरोध करता है, वहाँ क्षत्रियका राज्य छिन्न-भिन्न हो जाता है और लुटेरे दल-बलके साथ आकर उसपर अधिकार जमा लेते हैं तथा वहाँ निवास करनेवाले सभी वर्णके लोगोंको अपने अधीन कर लेते हैं। जब क्षत्रिय ब्राह्मणको त्याग देते हैं, तब उनका वेदाध्ययन आगे नहीं बढ़ता, उनके पुत्रोंकी भी वृद्धि नहीं होती, उनके यहाँ दही-दूधका मटका नहीं मथा जाता और न वे यज्ञ ही कर पाते हैं। इतना ही नहीं, उन ब्राह्मणोंके पुत्रोंका वेदाध्ययन भी नहीं हो पाता।

    जो क्षत्रिय ब्राह्मणोंको त्याग देते हैं, उनके घरमें कभी धनकी वृद्धि नहीं होती। उनकी संतानें न तो पढ़ती हैं और न यज्ञ ही करती हैं। वे पदभ्रष्ट होकर डाकुओंकी भाँति लूटपाट करने लगते हैं। वे दोनों ब्राह्मण और क्षत्रिय सदा एक-दूसरेसे मिलकर रहें, तभी वे एक-दूसरेकी रक्षा करनेमें समर्थ होते हैं। ब्राह्मणकी उन्नतिका आधार क्षत्रिय होता है और क्षत्रियकी उन्नतिका आधार ब्राह्मण।

     ये दोनों जातियाँ जब सदा एक-दूसरेके आश्रित होकर रहती हैं, तब बड़ी भारी प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं और यदि इनकी प्राचीन कालसे चली आती हुई मैत्री टूट जाती है, तो सारा जगत्‌ मोहग्रस्त एवं किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। जैसे महान्‌ एवं अगाध समुद्रमें टूटी हुई नौका पार नहीं पहुँच पाती, उसी प्रकार उस अवस्थामें मनुष्य अपनी जीवनयात्राको कुशलपूर्वक पूर्ण नहीं कर पाते हैं। चारों वर्णोंकी प्रजापर मोह छा जाता है और वह नष्ट होने लगती है।

   ब्राह्मणरूपी वृक्षकी यदि रक्षा की जाती है तो वह मधुर सुख और सुवर्णकी वर्षा करता है और यदि उसकी रक्षा नहीं की गयी तो उससे निरन्तर दुःखके आँसुओं और पापकी वृष्टि होती है। जहाँ ब्रह्मचारी ब्राह्मण लुटेरोंके उपद्रवसे विवश हो वेदकी शाखाके स्वाध्यायसे वज्चित होता है और उसके लिये अपनी रक्षा चाहता है, वहाँ इन्द्रदेव यदि पानी बरसावें तो आश्चर्यकी ही बात है (वहाँ प्राय: वर्षा नहीं होती है) तथा महामारी और दुर्भिक्ष आदि दु:सह उपद्रव आ पहुँचते हैं।

     जब पापात्मा मनुष्य किसी स्त्री अथवा ब्राह्मणकी हत्या करके लोगोंकी सभामें साधुवाद या प्रशंसा पाता है तथा राजाके निकट भी पापसे भय नहीं मानता, उस समय क्षत्रिय राजाके लिये बड़ा भारी भय उपस्थित होता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तिहत्तरवें अध्याय के श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)

      इलानन्दन! जब बहुत-से पापी पापाचार करने लगते हैं, तब ये संहारकारी रुद्रदेव प्रकट हो जाते हैं। पापात्मा पुरुष अपने पापोंद्वारा ही रुद्रको प्रकट करते हैं; फिर वे रुद्रदेव साधु और असाधु सब लोगोंका संहार कर डालते हैं।

    पुरूरवाने पूछा ;-- कश्यपजी! ये रुद्रदेव कहाँसे आते हैं और कैसे हैं? इस जगत्‌में तो प्राणियोंद्वारा ही प्राणियोंका वध होता देखा जाता है; फिर ये रुद्रदेव किससे उत्पन्न होते हैं? ये सब बातें मुझे बताइये।

     कश्यपने कहा ;-- राजन्‌! ये रुद्रदेव मनुष्योंके हृदयमें आत्मारूपसे निवास करते हैं और समय आनेपर अपने तथा दूसरेके शरीरोंका नाश करते हैं। विद्वान्‌ पुरुष रुद्रको उत्पात-वायु (तूफानी हवा) के समान वेगवान्‌ कहते हैं और उनका रूप बादलोंके समान बताते हैं।

      पुरूरवाने कहा ;-- कोई भी हवा किसीको आवृत नहीं करती है, न अकेले मेघ ही पानी बरसाता है, रुद्रदेव भी वर्षा नहीं करते हैं। जैसे वायु और बादलको आकाशमें संयुक्त देखा जाता है, उसी प्रकार मनुष्योंमें आत्मा मन, इन्द्रिय आदिसे संयुक्त ही देखा जाता है और वह राग द्वेषके कारण मोहग्रस्त होता है तथा मारा जाता है।

     कश्यपने कहा ;-- जैसे एक घरमें लगी हुई आग प्रज्वलित हो आँगन तथा सारे गाँवको जला देती है, उसी प्रकार ये रुद्रदेव किसी एक प्राणीके भीतर विशेषरूपसे प्रकट हो दूसरोंके मनमें भी मोह उत्पन्न करते हैं; फिर सारे जगतका पुण्य और पापसे सम्बन्ध हो जाता है।

    पुरूरवाने पूछा ;-- यदि पापियोंद्वारा विशेषरूपसे पाप और पुण्यात्माओंद्वारा विशेषरूपसे पुण्य किये जानेपर पुण्य-पापसे रहित आत्माको भी दण्ड भोगना पड़ता है, तब किसलिये कोई पुण्य करे और किसलिये पाप न करे?।

  कश्यपने कहा ;-- पापाचारियोंके संसर्गका त्याग न करनेसे पापहीन-दधर्मात्मा पुरुषोंको भी उनसे मेल-जोल रखनेके कारण उनके समान ही दण्ड भोगना पड़ता है। ठीक उसी तरह, जैसे सूखी लकड़ियोंके साथ मिली होनेसे गीली लकड़ी भी जल जाती है। अतः विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह पापियोंके साथ किसी तरह भी सम्पर्क न स्थापित करे।

    पुरूरवा बोले ;-- इस जगत्‌में पृथ्वी तो पापियों और पुण्यात्माओंको समान रूपसे धारण करती है। सूर्य भी भले-बुरोंको एक-सा ही संताप देते हैं। वायु साधु और दुष्ट दोनोंका स्पर्श करती है और जल पापी एवं पुण्यात्मा दोनोंको पवित्र करता है।

    कश्यपने कहा ;-- राजकुमार! इस लोकमें ही ऐसी बात देखी जाती है, परलोकमें इस प्रकारका बर्ताव नहीं है। जो पुण्य करता है वह और जो पाप करता है वह--दोनों जब मृत्युके पश्चात्‌ परलोकमें जाते हैं तो वहाँ उन दोनोंकी स्थितिमें बड़ा भारी अन्तर हो जाता है।

    पुण्यात्माका लोक मधुरतम सुखसे भरा होता है। वहाँ घीके चिराग जलते हैं। उसमें सुवर्णके समान प्रकाश फैला रहता है। वहाँ अमृतका केन्द्र होता है। उस लोकमें न तो मृत्यु है, न बुढ़ापा है और न दूसरा ही कोई दुःख है। ब्रह्मचारी पुरुष मृत्युके पश्चात्‌ उसी स्वर्गादि लोकमें जाकर आनन्दका अनुभव करता है। पापीका लोक नरक है, जहाँ सदा अँधेरा छाया रहता है। वहाँ प्रतिदिन दुःख तथा अधिक-से-अधिक शोक होता है। पापात्मा पुरुष वहाँ बहुत वर्षोतक कष्ट भोगता हुआ कभी एक स्थानपर स्थिर नहीं रहता और निरन्तर अपने लिये शोक करता रहता है।

     ब्राह्मण और क्षत्रियोंमें परस्पर फूट होनेसे प्रजाको दुःसह दुःख उठाना पड़ता है। इन सब बातोंको समझ-बूझकर राजाको चाहिये कि वह सदाके लिये एक सदाचारी बहुज्ञ पुरोहित बना ही ले। राजा पहले पुरोहितका वरण कर ले। उसके बाद अपना अभिषेक करावे। ऐसा करनेसे ही धर्मका पालन होता है; क्‍योंकि धर्मके अनुसार ब्राह्मण यहाँ सबसे श्रेष्ठ बताया गया है।

     वेदवेत्ता विद्वानोंका यह मत है कि सबसे पहले ब्राह्मणकी ही सृष्टि हुई है; अतः ज्येष्ठ तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेके कारण प्रत्येक उत्कृष्ट वस्तुपर सबसे पहले ब्राह्मणका ही अधिकार होता है। इसलिये ब्राह्मण सब वर्णोका सम्माननीय और पूजनीय है। वही भोजनके लिये प्रस्तुत की हुई सब वस्तुओंको सबसे पहले भोगनेका अधिकारी है। सभी श्रेष्ठ और उत्तम पदार्थोंको धर्मके अनुसार पहले ब्राह्मणकी सेवामें ही निवेदित करना चाहिये। बलवान्‌ राजाको भी अवश्य ऐसा ही करना चाहिये।

     ब्राह्मण क्षत्रियको बढ़ाता है और क्षत्रियसे ब्राह्मणकी उन्नति होती है। अतः राजाको विशेषरूपसे सदा ही ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये; क्योंकि राजपुरोहित राजाका तथा अन्य सब लोगोंका भी स्वामी है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें पुरूरवा और कश्यपका संवादविषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

चौहत्तरवाँ अध्याय

“ब्राह्मण और क्षत्रियके मेलसे लाभका प्रतिपादन करनेवाला मुचुकुन्दका उपाख्यान”

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चौहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

     भीष्मजी कहते हैं ;-- राजन्‌! राष्ट्रका योगक्षेम राजाके अधीन बताया जाता है; परंतु राजाका योगक्षेम पुरोहितके अधीन है। जहाँ ब्राह्मण अपने तेजसे प्रजाके अदृष्ट भयका निवारण करता है और राजा अपने बाहुबलसे दृष्ट भयको दूर करता है, वह राज्य-सुखसे उत्तरोत्तर उन्नति करता है। इस विषयमें विज्ञ पुरुष मुचुकुन्द और राजा कुबेरके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं।

    कहते हैं, पृथ्वीपति राजा मुचुकुन्दने इस पृथ्वीको जीतकर अपने बलकी परीक्षा लेनेके लिये अलकापति कुबेरपर चढ़ाई की। तब राजा कुबेरने उनका सामना करनेके लिये राक्षसोंकी सेना भेजी। उन राक्षसोंने मुचुकुन्दकी सेनाओंको कुचलना आरम्भ किया। इस प्रकार अपनी सेनाको मारी जाती देखकर शत्रुदमन राजा मुचुकुन्दने अपने विद्वान्‌ पुरोहित वसिष्ठजीको इसके लिये उलाहना दिया।

    तब धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महर्षि वसिष्ठजीने घोर तपस्या करके उन राक्षसोंका विनाश कर डाला और राजाके लिये विजय पानेका मार्ग प्राप्त कर लिया। इसके बाद राजा कुबेरने, अपनी सेनाको मरते देखकर राजा मुचुकुन्दको दर्शन दिया और इस प्रकार कहा।

    कुबेर बोले ;-- राजन्‌! पहले भी तुम्हारे समान बलवान राजा हो चुके हैं और उन्हें भी पुरोहितोंकी सहायता प्राप्त थी, परंतु मेरे साथ यहाँ तुम जैसा बर्ताव कर रहे हो, वैसा किसीने नहीं किया था। वे भूपाल भी अस्त्रविद्याके ज्ञाता तथा बलवान्‌ थे और मुझे सुख एवं दु:ख देनेमें समर्थ ईश्वर मानकर मेरे पास आते और मेरी उपासना करते थे। महाराज! यदि तुम्हारी भुजाओंमें कुछ बल है तो उसे दिखाओ। ब्राह्मणके बलपर इतना घमण्ड क्‍यों कर रहे हो?।

    यह सुनकर मुचुकुन्द कुपित हो उठे और धनाध्यक्ष कुबेरसे यह न्याययुक्त, रोषरहित तथा सम्भ्रमशून्य वचन बोले,–

   सम्भ्रमशून्य बोले ;-- “राजराज! ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनोंकी उत्पत्तिका स्थान एक ही है। दोनोंको स्वयम्भू ब्रह्माजीने ही पैदा किया है। यदि उनका बल और प्रयत्न अलग-अलग हो जाय तो वे संसारकी रक्षा नहीं कर सकते। “ब्राह्मणोंमें सदा तप और मन्त्रका बल उपस्थित होता है और क्षत्रियोंमें अस्त्र तथा भुजाओंका।

    “अलकापते! अतः ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनोंको एक साथ मिलकर ही प्रजाका पालन करना चाहिये। मैं भी इसी नीतिके अनुसार कार्य कर रहा हूँ; फिर आप मेरी निन्दा क्‍यों करते हैं?।

तब कुबेरने पुरोहितसहित राजा मुचुकुन्दसे कहा,

     कुबेर ने कहा ;-- 'पृथ्वीपते! मैं ईश्वरकी आज्ञाके बिना न तो किसीको राज्य देता हूँ और न भगवान्‌की अनुमतिके बिना दूसरेका राज्य छीनता ही हूँ। इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो। यद्यपि ऐसी ही बात है तो भी आज मैं तुम्हें इस सारी पृथ्वीका राज्य दे रहा हूँ। तुम मेरी दी हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वीका शासन करो'। उनके ऐसा कहनेपर राजा मुचुकुन्दने इस प्रकार उत्तर दिया।

     मुचुकुन्द बोले ;-- राजाधिराज! मैं आपके दिये हुए राज्यको नहीं भोगना चाहता। मेरी तो यही इच्छा है कि मैं अपने बाहुबलसे उपार्जित राज्यका उपभोग करूँ।

    भीष्मजी कहते हैं ;-- युधिष्ठिर! राजा मुचुकुन्दको बिना किसी घबराहटके इस प्रकार क्षत्रियधर्ममें स्थित हुआ देख कुबेरको बड़ा विस्मय हुआ। तदनन्तर क्षत्रियधर्मका ठीक-ठीक पालन करनेवाले राजा मुचुकुन्दने अपने बाहुबलसे प्राप्त की हुई इस वसुधाका शासन किया।

     इस प्रकार जो धर्मज्ञ राजा पहले ब्राह्मणका आश्रय लेकर उसकी सहायतासे राज्यकार्यमें प्रवृत्त होता है, वह बिना जीती हुई पृथ्वीको भी जीतकर महान्‌ यशका भागी होता है। ब्राह्मणको प्रतिदिन स्नान करके जलसम्बन्धी कृत्य--संध्या-वन्दन, तर्पण आदि कर्म करने चाहिये और क्षत्रियको सदा शस्त्रविद्याका अभ्यास बढ़ाना चाहिये। इस भूतलपर जो कोई भी वस्तु है, वह सब इन्हीं दोनोंके अधीन है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें मुचुकुन्दका उपाख्यानविषयक चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

पचहत्तरवाँ अध्याय

“राजाके कर्तव्यका वर्णन, युधिष्ठिरका राज्यसे विरक्त होना एवं भीष्मजीका पुन: राज्यकी महिमा सुनाना”

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पचहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

    युधिष्ठिरने पूछा ;-- पितामह! राजा जिस वृत्तिसे रहनेपर अपने प्रजाजनोंकी उन्नति करता है और स्वयं भी विशुद्ध लोकोंपर विजय प्राप्त कर लेता है, वह मुझे बताइये।

     भीष्मजीने कहा ;-- भरतनन्दन! राजाको सदा ही दानशील, यज्ञशील, उपवास और तपस्यामें तत्पर एवं प्रजा-पालनमें संलग्न रहना चाहिये। समस्त प्रजाओंका सदा धर्मपूर्वक पालन करनेवाले राजाको घरपर आये हुए धर्मात्मा पुरुषोंका खड़ा होकर स्वागत करना चाहिये और उत्तम वस्तुएँ देकर उनका आदर-सत्कार करना चाहिये ।

     राजाद्वारा जब जिस धर्मका आदर किया जाता है उसका फिर सर्वत्र आदर होने लगता है; क्योंकि राजा जो-जो कार्य करता है, प्रजावर्गको वही करना अच्छा लगता है। राजाको चाहिये कि वह शत्रुओंको यमराजकी भाँति सदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहे। वह डाकुओं और लुटेरोंको सब ओरसे पकड़कर मार डाले। स्वार्थवश किसी दुष्टके अपराधको क्षमा न करे। भारत! राजाद्वारा सुरक्षित हुई प्रजा यहाँ जिस धर्मका आचरण करती है, उसका चौथा भाग राजाको भी मिल जाता है।

    प्रजा जो स्वाध्याय, जो दान, जो होम और जो पूजन करती है, उन पुण्य कर्मोंका एक चौथाई भाग उस प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करनेवाला नरेश प्राप्त कर लेता है। भरतनन्दन! यदि राजा प्रजाकी रक्षा नहीं करता तो उसके राज्यमें प्रजा जो कुछ भी अशुभ कार्य करती है, उस पापकर्मका एक चौथाई भाग राजाको भोगना पड़ता है।

    पृथ्वीपते! कुछ लोगोंका मत है कि उपर्युक्त अवस्थामें राजाको पूरे पापका भागी होना पड़ता है, और कुछ लोगोंका यह निश्चय है कि उसको आधा पाप लगता है। ऐसा राजा क्रूर और मिथ्यावादी समझा जाता है। ऐसे पापसे राजाको किस उपायसे छुटकारा मिलता है, वह बताता हूँ, सुनो। चोरों या लुटेरोंने यदि किसीके धनका अपहरण कर लिया हो और राजा पता लगाकर उस धनको लौटा न सके तो उस असमर्थ नरेशको चाहिये कि वह अपने आश्रयमें रहनेवाले उस मनुष्यको उतना ही धन राजकीय खजानेसे दे दे।

    सभी वर्णके लोगोंको ब्राह्मणोंके धनकी भी रक्षा उसी प्रकार करनी चाहिये जिस प्रकार स्वयं ब्राह्मणोंकी। जो ब्राह्मणोंको कष्ट पहुँचाता हो, उसे राजाको अपने राज्यमें नहीं रहने देना चाहिये। ब्राह्मणके धनकी रक्षा की जानेपर ही सब कुछ रक्षित हो जाता है; क्‍योंकि उन ब्राह्मणोंकी कृपासे राजा कृतार्थ हो जाता है।

    जैसे सब प्राणी मेघोंके और पक्षी वृक्षोंके सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार सब मनुष्य सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाले राजाके आश्रित होकर जीवनयापन करते हैं। जो राजा कामासक्त हो सदा कामका ही चिन्तन करनेवाला, क्रूर और अत्यन्त लोभी होता है, वह प्रजाका पालन नहीं कर सकता।

    युधिष्ठिरने कहा ;-- पितामह! मैं राज्यसे सुख मिलनेकी आशा रखकर कभी एक क्षणके लिये भी राज्य करनेकी इच्छा नहीं करता। मैं तो धर्मके लिये ही राज्यको पसंद करता था; परंतु मालूम होता है कि इसमें धर्म नहीं है। जिसमें धर्म ही नहीं है, उस राज्यसे मुझे क्या लेना है? अतः अब मैं धर्म करनेकी इच्छासे वनमें ही चला जाऊँगा।

    वहाँ वनके पावन प्रदेशोंमें हिंसाका सर्वथा त्याग कर दूँगा और जितेन्द्रिय हो मुनिवृत्तिसे रहकर फल-मूलका आहार करते हुए धर्मकी आराधना करूँगा।

     भीष्मजीने कहा ;-- राजन! मैं जानता हूँ कि तुम्हारी बुद्धिमें दया और कोमलतारूपी गुण ही भरा है; परंतु केवल दया एवं कोमलतासे ही राज्यका शासन नहीं किया जा सकता।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पचहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-37 का हिन्दी अनुवाद)

     तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त कोमल है। तुम बड़े सज्जन और बड़े धर्मात्मा हो। धर्मके प्रति तुम्हारा महान्‌ अनुग्रह है। यह सब होनेपर भी संसारके लोग तुम्हें कायर समझकर अधिक आदर नहीं देंगे। तुम्हारे बाप-दादोंने जिस आचार-व्यवहारको अपनाया था, उसे ही प्राप्त करनेकी तुम भी इच्छा रखो। तुम जिस तरह रहना चाहते हो, वह राजाओंका आचरण नहीं है।

    इस प्रकार व्याकुल॒ताजनित कोमलताका आश्रय लेकर तुम यहाँ प्रजापालनसे सुलभ होनेवाले धर्मके फलको नहीं पा सकोगे। तात! तुम अपनी बुद्धि और विचारसे जैसा आचरण करते हो, तुम्हारे विषयमें ऐसी आशा न तो पाण्डुने की थी और न कुन्तीने ही ऐसी आशा की थी। तुम्हारे पिता पाण्डु तुम्हारे लिये सदा कहा करते थे कि मेरे पुत्रमें शूरता, बल और सत्यकी वृद्धि हो। तुम्हारी माता कुन्ती भी यही इच्छा किया करती थी कि तुम्हारी महत्ता और उदारता बढ़े।

    प्रतिदिन यज्ञ और श्राद्ध--ये दोनों कर्म क्रमश: देवताओं तथा मानव-पितरोंको आनन्दित करनेवाले हैं। देवता और पितर अपनी संतानोंसे सदा इन्हीं कर्मोकी आशा रखते हैं। दान, वेदाध्ययन, यज्ञ तथा प्रजाका पालन--ये धर्मरूप हों या अधर्मरूप। तुम्हारा जन्म इन्हीं कर्मोको करनेके लिये हुआ है।

     कुन्तीनन्दन! यथासमय भार वहन करनेमें लगाये गये पुरुषोंपर जो राज्य आदिका भार रख दिया जाता है, उसे वहन करते समय यद्यपि कष्ट उठाना पड़ता है तथापि उससे उन पुरुषोंकी कीर्ति चिरस्थायी होती है, उसका कभी क्षय नहीं होता। जो मनुष्य सब ओरसे मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर अपने ऊपर रखे हुए कार्यभारको पूर्णरूपसे वहन करता है और कभी लड़खड़ाता नहीं है, उसे कोई दोष नहीं प्राप्त होता; क्योंकि शास्त्रमें कर्म करनेका कथन है; अतः राजाको कर्म करनेसे ही वह सिद्धि प्राप्त हो जाती है (जिसे तुम वनवास और तपस्यासे पाना चाहते हो)। कोई धर्मनिष्ठ हो, गृहस्थ हो, ब्रह्मचारी हो या राजा हो, पूर्णतया धर्मका आचरण नहीं कर सकता (कुछ-न-कुछ अधर्मका मिश्रण हो ही जाता है)।

    कोई काम देखनेमें छोटा होनेपर भी यदि उसमें सार अधिक हो तो वह महान्‌ ही है। न करनेकी अपेक्षा कुछ करना ही अच्छा है; क्योंकि कर्तव्य-कर्म न करनेवालेसे बढ़कर दूसरा कोई पापी नहीं है। जब धर्मज्ञ एवं कुलीन मुनष्य राजाके यहाँ उत्तम ईश्वरभावको अर्थात्‌ मन्त्री आदिके उच्च अधिकारको पाता है, तभी राजाका योग और क्षेम सिद्ध होता है, जो उसके कुशलमड़लका साधक है।

     धर्मात्मा राजा राज्य पानेके अनन्तर किसीको दानसे, किसीको बलसे और किसीको मधुर वाणीद्वारा सब ओरसे अपने वशमें कर ले। जीवन-निर्वाहका कोई उपाय न होनेके कारण जो भयसे पीड़ित रहते हैं, ऐसे कुलीन एवं विद्वान्‌ पुरुष जिस राजाका आश्रय लेकर संतुष्ट हो प्रतिष्ठापूर्वक रहने लगते हैं, उस राजाके लिये इससे बढ़कर धर्मकी बात और क्या होगी?।

   युधिष्ठिर ने पूछा ;-- तात! स्वर्ग-प्राप्तिका उत्तम साधन क्या है? उससे कौन-सी उत्तम प्रसन्नता प्राप्त होती है? तथा उसकी अपेक्षा महान्‌ ऐश्वर्य क्या है? यदि आप इन बातोंको जानते हैं तो मुझे बताइये।

     भीष्मजीने कहा ;-- राजन्‌! भयसे डरा हुआ मनुष्य जिसके पास जाकर एक क्षणके लिये भी भलीभाँति शान्ति पा लेता है, वही हमलोगोंमें स्वर्गलोककी प्राप्तिका सबसे बड़ा अधिकारी है, यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ। इसलिये कुरुश्रेष्ठ! तुम्हीं प्रसन्नतापूर्वक कुरुदेशकी प्रजाके राजा बनो। सत्पुरुषोंकी रक्षा तथा दुष्टोंका संहार करो और इस प्रकार अपने कर्तव्यका पालन करके स्वर्गलोकपर विजय प्राप्त कर लो। तात! जैसे सब प्राणी मेघके और पक्षी स्वादिष्ठ फलवाले वृक्षके सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार साधु पुरुषोंसहित समस्त सुहृदगण तुम्हारे आश्रयमें रहकर अपनी जीविका चलावें।

    जो राजा निर्भय, शूरवीर, प्रहार करनेमें कुशल, दयालु, जितेन्द्रिय, प्रजावत्सल और दानी होता है, उसीका आश्रय लेकर मनुष्य जीवन-निर्वाह करते हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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