सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के छाछठवें अध्याय से सत्तरवें अध्याय तक (From the 66 chapter to the 70 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

छाछठवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छाछठवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“राजथधर्मके पालनसे चारों आश्रमोंके धर्मका फल मिलनेका कथन”

    युधिष्ठिर बोले ;-- पितामह! आपने मानवमात्रके लिये जो चार आश्रम पहले बताये थे, वे सब मैंने सुन लिये। अब विस्तारपूर्वक इनकी व्याख्या कीजिये। मेरे प्रश्नके अनुसार इनका स्पष्टीकरण कीजिये।

    भीष्मजी बोले ;-- महाबाहु युधिष्ठिर! साधु पुरुषों-द्वारा सम्मानित समस्त धर्मोका जैसा मुझे ज्ञान है, वैसा ही तुमको भी है। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठि!र! तथापि जो तुम विभिन्न लिड़ों (हेतुओं) से रूपान्तरको प्राप्त हुए सूक्ष्म धर्मके विषयमें मुझसे पूछ रहे हो, उसके विषयमें कुछ निवेदन कर रहा हूँ, सुनो।

     कुन्तीनन्दन! नरश्रेष्ठ! चारों आश्रमोंके धर्मोका पालन करनेवाले सदाचारपरायण पुरुषोंको जिन फलोंकी प्राप्ति होती है, वे ही सब राग-द्वेष छोड़कर दण्डनीतिके अनुसार बर्ताव करनेवाले राजाको भी प्राप्त होते हैं। युधिष्ठिर! यदि राजा सब प्राणियोंपर समान दृष्टि रखनेवाला है तो उसे संन्यासियोंको प्राप्त होनेवाली गति प्राप्त होती है। जो तत्त्वज्ञान, सर्वत्याग, इन्द्रियसंयम तथा प्राणियोंपर अनुग्रह करना जानता है तथा जिसका पहले कहे अनुसार उत्तम आचार-विचार है, उस धीर पुरुषको कल्याणमय गृहस्थाश्रमसे मिलनेवाले फलकी प्राप्ति होती है। पाण्डुनन्दन! इसी प्रकार जो पूजनीय पुरुषोंको उनकी अभीष्ट वस्तुएँ देकर सदा सम्मानित करता है, उसे ब्रह्मचारियोंको प्राप्त होनेवाली गति मिलती है।

    युधिष्ठिर! जो संकटमें पड़े हुए अपने सजातियों, सम्बन्धियों और सुहृदोंका उद्धार करता है, उसे वानप्रस्थ-आश्रममें मिलनेवाले पदकी प्राप्ति होती है। कुन्तीनन्दन! जो जगतके श्रेष्ठ पुरुषों और आश्रमियोंका निरन्तर सत्कार करता है, उसे भी वानप्रस्थ-आश्रमद्वारा मिलनेवाले फलोंकी प्राप्ति होती है। कुन्तीनन्दन! जो नित्यप्रति संध्या-वन्दन आदि नित्यकर्म, पितृश्राद्ध, भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ (अतिथि-सेवा)--इन सबका अनुष्ठान प्रचुर मात्रामें करता रहता है, उसे वानप्रस्थाश्रमके सेवनसे मिलनेवाले पुण्यफलकी प्राप्ति होती है।

    राजेन्द्र! बलिवैश्वदेवके द्वारा प्राणियोंको उनका भाग समर्पित करनेसे, अतिथियोंके पूजनसे तथा देवयज्ञोंके अनुष्ठानसे भी वानप्रस्थ-सेवनका फल प्राप्त होता है। सत्यपराक्रमी पुरुषसिंह युधिष्ठिर! शिष्टपुरुषोंकी रक्षाके लिये अपने शत्रुके राष्ट्रोंको कुचल डालनेवाले राजाको भी वानप्रस्थ-सेवनका फल प्राप्त होता है।

    समस्त प्राणियोंके पालन तथा अपने राष्ट्रकी रक्षा करनेसे राजाको नाना प्रकारके यज्ञोंकी दीक्षा लेनेका पुण्य प्राप्त होता है। राजन्‌! इससे वह संन्यासाश्रमके सेवनका फल प्राप्त करता है। जो प्रतिदिन वेदोंका स्वाध्याय करता है, क्षमाभाव रखता है, आचार्यकी पूजा करता है और गुरुकी सेवामें संलग्न रहता है, उसे ब्रह्माश्रम (संन्यास) द्वारा मिलनेवाला फल प्राप्त होता है। पुरुषसिंह! जो प्रतिदिन इष्ट-मन्त्रका जप और देवताओंका सदा पूजन करता है, उसे उस धर्मके प्रभावसे धर्माश्रमके पालनका अर्थात्‌ गार्हस्थ्य धर्मके पालनका पुण्यफल प्राप्त होता है। जो राजा युद्धमें प्राणोंकी बाजी लगाकर इस निश्चयके साथ शत्रुओंका सामना करता है कि 'या तो मैं मर जाऊँगा या देशकी रक्षा करके ही रहूँगा” उसे भी ब्रह्माश्रम अर्थात्‌ संन्यास-आश्रमके पालनका ही फल प्राप्त होता है।

   भरतनन्दन! जो सदा समस्त प्राणियोंके प्रति माया और कुटिलतासे रहित यथार्थ व्यवहार करता है, उसे भी ब्रह्माश्रम सेवनका ही फल प्राप्त होता है। भारत! जो वानप्रस्थ, ब्राह्मणों तथा तीनों वेदके विद्वानोंको प्रचुर धन दान करता है, उसे वानप्रस्थ-आश्रमके सेवनका फल मिलता है। भरतनन्दन! जो समस्त प्राणियोंपर दया करता है और क्रूरतारहित कर्मामें ही प्रवृत्त होता है, उसे सभी आश्रमोंके सेवनका फल प्राप्त होता है। कुन्तीकुमार युधिष्ठिर! जो बालकों और बूढ़ोंके प्रति दयापूर्ण बर्ताव करता है, उसे भी सभी आश्रमोंके सेवनका फल प्राप्त होता है।

   कुरुनन्दन! जिन प्राणियोंपर बलात्कार हुआ हो और वे शरणमें आये हों, उनका संकटसे उद्धार करनेवाला पुरुष गार्हस्थ्य-धर्मके पालनसे मिलनेवाले पुण्यफलका भागी होता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छाछठवें अध्याय के श्लोक 22–43 का हिन्दी अनुवाद)

    चराचर प्राणियोंकी सब प्रकारसे रक्षा तथा उनकी यथायोग्य पूजा करनेवाले पुरुषको गा्हस्थ्य-सेवनका फल प्राप्त होता है। कुन्तीनन्दन! बड़ी-छोटी पत्नियों, भाइयों, पुत्रों और नातियोंको भी जो राजा अपराध करनेपर दण्ड और अच्छे कार्य करनेपर अनुग्रहरूप पुरस्कार देता है, यही उसके द्वारा गा्हस्थ्य-धर्मका पालन है और यही उसकी तपस्या है। पुरुषसिंह! पूजनके योग्य सुप्रसिद्ध आत्मज्ञानी साधुओंकी पूजा तथा रक्षा गृहस्थाश्रमके पुण्यफलकी प्राप्ति करानेवाली है।

    भरतनन्दन युधिष्ठिर![ जो किसी भी आश्रममें रहनेवाले प्राणियोंको अपने घरमें ठहराकर उनका भोजन आदिसे सत्कार करता है, उस राजाके लिये वही गार्हस्थ्य-धर्मका पालन है। जो पुरुष विधाताद्वारा विहित धर्ममें स्थित होकर यथार्थ रूपसे उसका पालन करता है, वह सभी आश्रमोंके निर्दोष फलको प्राप्त कर लेता है। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! जिस पुरुषमें स्थित हुए सदगुणोंका कभी नाश नहीं होता, उस नरश्रेष्ठको सभी आश्रमोंके पालनमें स्थित बताया गया है।

    युधिष्ठिर! जो राजा स्थान, कुल और अवस्थाका मान रखते हुए कार्य करता है, वह सभी आश्रमोंमें निवास करनेका फल पाता है।  कुन्तीकुमार! पुरुषसिंह! देशधर्म और कुलधर्मका पालन करनेवाला राजा सभी आश्रमोंके पुण्यफलका भागी होता है। नरव्याघ्र नरेश! जो समय-समयपर सम्पत्ति और उपहार देकर समस्त प्राणियोंका सम्मान करता रहता है, वह साधु पुरुषोंके आश्रममें निवासका पुण्यफल पा लेता है। कुन्तीनन्दन! जो राजा मनुप्रोक्त दस धर्मोमें स्थित होकर भी सम्पूर्ण जगत्‌के धर्मपर दृष्टि रखता है, वह सभी आश्रमोंके पुण्य-फलका भागी होता है। भरतनन्दन! जो धर्मकुशल मनुष्य लोकमें धर्मका अनुष्ठान करते हैं, वे जिस राजाके राज्यमें पालित होते हैं, उस राजाको उनके धर्मका छठा अंश प्राप्त होता है।

    पुरुषसिंह! जो राजा धर्ममें ही रमण करनेवाले धर्मपरायण मानवोंकी रक्षा नहीं करते हैं, वे उनके पाप बटोर लेते हैं। निष्पाप युधिष्ठिर! जो लोग इस जगत्‌में राजाओंके सहायक होते हैं, वे सभी उस राज्यमें दूसरोंद्वारा किये गये धर्मका अंश प्राप्त कर लेते हैं।    पुरुषसिंह! शास्त्रज्ञ विद्वान्‌ कहते हैं कि हमलोग जिस गार्हस्थ्य-धर्मका सेवन कर रहे हैं, वह सभी आश्रमोंमें श्रेष्ठ एवं पावन है। उसके विषयमें शास्त्रोंका यह निर्णय सबको विदित है। जो मानव समस्त प्राणियोंके प्रति अपने समान ही भाव रखता है, दण्डका त्याग कर देता है, क्रोधको जीत लेता है, वह इस लोकमें और मृत्युके पश्चात्‌ परलोकमें भी सुख पाता है। राजधर्म एक नौकाके समान है। वह नौका धर्मरूपी समुद्रमें स्थित है। सत्त्वगुण ही उस नौकाका संचालन करनेवाला बल (कर्णधार) है, धर्मशास्त्र ही उसे बाँधनेवाली रस्सी है, त्यागरूपी वायुका सहारा पाकर वह मार्गपर शीघ्रतापूर्वक चलती है, वह नाव ही राजाको संसारसमुद्रसे पार कर देगी।

     मनुष्यके हृदयमें जो-जो कामनाएँ स्थित हैं, उन सबसे जब वह निवृत्त हो जाता है, तब उसकी विशुद्ध सत्त्वगुणमें स्थिति होती है और इसी समय उसे परब्रह्म परमात्माके स्वरूपका साक्षात्कार होता है।  नरेश्वर! पुरुषसिंह! चित्तवृत्तियोंके निरोधरूप योगसे और समभावसे जब अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध एवं प्रसन्न हो जाता है, तब प्रजापालनपरायण राजा उत्तम धर्मके फलका भागी होता है।

    युधिष्ठिर! तुम वेदाध्ययनमें संलग्न रहनेवाले, सत्कर्मपरायण ब्राह्मणों तथा अन्य सब लोगोंके पालन-पोषणका प्रयत्न करो। भरतनन्दन! वनमें और विभिन्न आश्रमोंमें रहकर जो लोग जितना धर्म करते हैं, उनकी रक्षा करनेसे राजा उनसे सौगुने धर्मका भागी होता है।

    पाण्डवश्रेष्ठ! यह तुम्हारे लिये नाना प्रकारका धर्म बताया गया है। पूर्वजोंद्वारा आचरित इस सनातन-धर्मका तुम पालन करो। पुरुषसिंह पाण्डुनन्दन! यदि तुम प्रजाके पालनमें तत्पर रहोगे तो चारों आश्रमोंके, चारों वर्णोके तथा एकाग्रताके धर्मको प्राप्त कर लोगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वरमें चारों आश्रमोंके धर्मका वर्णनविषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

सरसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सरसठवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“राष्ट्रकी रक्षा और उन्नतिके लिये राजाकी आवश्यकताका प्रतिपादन”

      राजा युधिष्ठिरने कहा ;-- पितामह! आपने चारों आश्रमों और चारों वर्णोंके धर्म बतलाये। अब आप मुझे यह बताइये कि समूचे राष्ट्रका--उस राष्ट्रमें निवास करनेवाले प्रत्येक नागरिकका मुख्य कार्य क्या है? 

    भीष्मजी बोले ;-- युथिष्ठिर! राष्ट्र अथवा राष्ट्रवासी प्रजावर्गका सबसे प्रधान कार्य यह है कि वह किसी योग्य राजाका अभिषेक करे, क्योंकि बिना राजाका राष्ट्र निर्बल होता है। उसे डाकू और लुटेरे लूटते तथा सताते हैं। जिन देशोंमें कोई राजा नहीं होता, वहाँ धर्मकी भी स्थिति नहीं रहती है; अतः वहाँके लोग एक-दूसरेको हड़पने लगते हैं; इसलिये जहाँ अराजकता हो, उस देशको सर्वथा धिक्‍्कार है! श्रुति कहती है, “प्रजा जो राजाका वरण करती है, वह मानो इन्द्रका ही वरण करती है,, अतः लोकका कल्याण चाहनेवाले पुरुषको इन्द्रके समान ही राजाका पूजन करना चाहिये।

      मेरी रुचि तो यह है कि जहाँ कोई राजा न हो, उन देशोंमें निवास ही नहीं करना चाहिये। बिना राजाके राज्यमें दिये हुए हविष्यको अग्निदेव वहन नहीं करते। यदि कोई प्रबल राजा राज्यके लोभसे उन बिना राजाके दुर्बल देशोंपर आक्रमण करे तो वहाँके निवासियोंको चाहिये कि वे आगे बढ़कर उसका स्वागत-सत्कार करें। यही वहाँके लिये सबसे अच्छी सलाह हो सकती है; क्योंकि पापपूर्ण अराजकतासे बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। वह बलवान्‌ आक्रमणकारी नरेश यदि शान्त दृष्टिसे देखे तो राज्यकी पूर्णतः भलाई होती है और यदि वह कुपित हो गया तो उस राज्यका सर्वनाश कर सकता है।

    राजन्‌! जो गाय कठिनाईसे दुही जाती है, उसे बड़े-बड़े क्लेश उठाने पड़ते हैं, परंतु जो सुगमतापूर्वक दूध दुह लेने देती है, उसे लोग पीड़ा नहीं देते हैं, आरामसे रखते हैं। जो राष्ट्र बिना कष्ट पाये ही नतमस्तक हो जाता है, वह अधिक संतापका भागी नहीं होता। जो लकड़ी स्वयं ही झुक जाती है, उसे लोग झुकानेका प्रयत्न नहीं करते हैं। वीर! इस उपमाको ध्यानमें रखते हुए दुर्बलको बलवानके सामने नतमस्तक हो जाना चाहिये। जो बलवानको प्रणाम करता है, वह मानो इन्द्रको ही नमस्कार करता है। अतः सदा उन्नतिकी इच्छा रखनेवाले देशको अपनी रक्षाके लिये किसीको राजा अवश्य बना लेना चाहिये। जिनके देशमें अराजकता है, उनके धन और स्त्रियोंपर उन्हींका अधिकार बना रहे, यह सम्भव नहीं है। अराजकताकी स्थितिमें दूसरोंक धनका अपहरण करनेवाला पापाचारी मनुष्य बड़ा प्रसन्न होता है, परंतु जब दूसरे लुटेरे उसका भी सारा धन हड़प लेते हैं, तब वह राजाकी आवश्यकताका अनुभव करता है।

     अराजक देशमें पापी मनुष्य भी कभी कुशलपूर्वक नहीं रह सकते। एकका धन दो मिलकर उठा ले जाते हैं और उन दोनोंका धन दूसरे बहुसंख्यक लुटेरे लूट लेते हैं। अराजकताकी स्थितिमें जो दास नहीं है, उसे दास बना लिया जाता है और स्त्रियोंका बलपूर्वक अपहरण किया जाता है। इसी कारणसे देवताओंने प्रजापालक नरेशोंकी सृष्टि की है।

    यदि इस जगत्‌में भूतलपर दण्डधारी राजा न हो तो जैसे जलमें बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियोंको खा जाती हैं, उसी प्रकार प्रबल मनुष्य दुर्बलोंको लूट खायँ। हमने सुन रखा है कि जैसे पानीमें बलवान मत्स्य दुर्बल मत्स्योंकोी अपना आहार बना लेते हैं, उसी प्रकार पूर्वकालमें राजाके न रहनेपर प्रजावर्गके लोग परस्पर एक-दूसरेको लूटते हुए नष्ट हो गये थे। तब उन सबने मिलकर आपसमें नियम बनाया--यह बात हमारे सुननेमें आयी है। वह नियम इस प्रकार है--“हम लोगोंमेंसे जो भी निछ्लर बोलनेवाला, भयानक दण्ड देनेवाला, परस्त्रीगामी तथा पराये धनका अपहरण करनेवाला हो, ऐसे सब लोगोंको हमें समाजसे बहिष्कृत कर देना चाहिये।” सभी वर्णके लोगोंमें विश्वास उत्पन्न करनेके लिये सामान्यतः ऐसा नियम बनाकर उसका पालन करते हुए वे सब लोग सुखसे रहने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सरसठवें अध्याय के श्लोक 20–39 का हिन्दी अनुवाद)

     (कुछ समयतक इस प्रकार काम चलता रहा; किंतु आगे चलकर पुनः दुर्व्यवस्था फैल गयी) तब दुःखसे पीड़ित हुई सारी प्रजाएँ एक साथ मिलकर ब्रह्माजीके पास गयीं और उनसे कहने लगीं--'भगवन्‌! राजाके बिना तो हमलोग नष्ट हो रहे हैं। आप हमें कोई ऐसा राजा दीजिये, जो शासन करनेमें समर्थ हो, हम सब लोग मिलकर जिसकी पूजा करें और जो निरन्तर हमारा पालन करता रहे”। तब ब्रह्माजीने मनुको राजा होनेकी आज्ञा दी; परंतु मनुने उन प्रजाओंको स्वीकार नहीं किया।

     मनु बोले ;-- भगवन्‌! मैं पापकर्मसे बहुत डरता हूँ। राज्य करना बड़ा कठिन काम है-विशेषतः सदा मिथ्याचारमें प्रवृत्त रहनेवाले मनुष्योंपर शासन करना तो और भी दुष्कर है।

    भीष्मजी कहते हैं ;-- राजन्‌! तब समस्त प्रजाओंने मनुसे कहा--“महाराज! आप डरें मत। पाप तो उन्हींको लगेगा, जो उसे करेंगे। हमलोग आपके कोशकी वृद्धिके लिये प्रति पचास पशुओंपर एक पशु आपको दिया करेंगे। इसी प्रकार सुवर्णका भी पचासवाँ भाग देते रहेंगें। अनाजकी उपजका दसवाँ भाग करके रूपमें देंगे। जब हमारी बहुत-सी कन्याएँ विवाहके लिये उद्यत होंगी, उस समय उनमें जो सबसे सुन्दरी कन्या होगी, उसे हम शुल्कके रूपमें आपको भेंट कर देंगे। जैसे देवता देवराज इन्द्रका अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार प्रधान-प्रधान मनुष्य अपने प्रमुख शस्त्रों और वाहनोंके साथ आपके पीछे-पीछे चलेंगे।

    “प्रजाका सहयोग पाकर आप एक प्रबल, दुर्जय और प्रतापी राजा होंगे। जैसे कुबेर यक्षों तथा राक्षसोंकी रक्षा करके उन्हें सुखी बनाते हैं, उसी प्रकार आप हमें सुरक्षित एवं सुखसे रखेंगे। “आप जैसे राजाके द्वारा सुरक्षित हुई प्रजाएँ जो-जो धर्म करेंगी, उसका चतुर्थ भाग आपको मिलता रहेगा। “राजन! सुखपूर्वक प्राप्त हुए उस महान्‌ धर्मसे सम्पन्न हो आप उसी प्रकार सब ओरसे हमारी रक्षा कीजिये, जैसे इन्द्र देवताओंकी रक्षा करते हैं। “महाराज! आप तपते हुए अंशुमाली सूर्यके समान विजयके लिये यात्रा कीजिये, शत्रुओंका घमंड धूलमें मिला दीजिये और सर्वदा आपकी जय हो”।

    तब महान्‌ सैन्यबलसे घिरे हुए महाकुलीन, महातेजस्वी राजा मनु अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए-से निकले। जैसे देवता देवराज इन्द्रका प्रभाव देखकर प्रभावित हो जाते हैं, उसी प्रकार सब लोग महाराज मनुका महत्त्व देखकर आतंकित हो उठे और अपने-अपने धर्ममें मन लगाने लगे। तदनन्तर वर्षा करनेवाले मेघके समान मनु पापा-चारियोंको शान्त करते और उन्हें अपने वर्णाश्रमोचित कर्मोमें लगाते हुए भूमण्डलपर चारों ओर घूमने लगे। इस प्रकार जो मनुष्य वैभव-वृद्धिकी कामना रखते हों, उन्हें सबसे पहले इस भूमण्डलमें प्रजाजनोंपर अनुग्रह करनेके लिये कोई राजा अवश्य बना लेना चाहिये।

     फिर जैसे शिष्य भक्तिभावसे गुरुको नमस्कार करते हैं तथा जैसे देवता देवराज इन्द्रको प्रणाम करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजाजनोंको अपने राजाके निकट नमस्कार करना चाहिये। इस लोकमें आत्मीयजन जिसका आदर करते हैं, उसे दूसरे लोग भी बहुत मानते हैं और जो स्वजनोंद्वारा तिरस्कृत होता है, उसका दूसरे भी अनादर करते हैं। राजाका यदि दूसरोंके द्वारा पराभव हुआ तो वह समस्त प्रजाके लिये दुःखदायी होता है; इसलिये प्रजाको चाहिये कि वह राजाके लिये छत्र, वाहन, वस्त्र, आभूषण, भोजन, पान, गृह, आसन और शय्या आदि सभी प्रकारकी सामग्री भेंट करे।

इस प्रकार प्रजाकी सहायता पाकर राजा दुर्धर्ष एवं प्रजाकी रक्षा करनेमें समर्थ हो जाता है। राजाको चाहिये कि वह मुसकराकर बातचीत करे। यदि प्रजावर्गके लोग उससे कोई बात पूछें तो वह मधुर वाणीमें उन्हें उत्तर दे। राजा उपकार करनेवालोंके प्रति कृतज्ञ और अपने भक्तोंपर सुदृढ़ स्नेह रखनेवाला हो। उपभोगमें आनेवाली वस्तुओंको यथायोग्य विभाजन करके उन्हें काममें ले। इन्द्रियोंको वशमें रखे। जो उसकी ओर देखे, उसे वह भी देखे एवं स्वभावसे ही मृदु, मधुर और सरल हो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें राष्रके लिये रुजाको नियुक्त करनेकी आवश्यकताका कथनविषयक सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

अड़सठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अड़सठवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“वसुमना और बृहस्पतिके संवादमें राजाके न होनेसे प्रजाकी हानि और होनेसे लाभका वर्णन”

    युधिष्ठिरने पूछा ;-- भरतश्रेष्ठ पितामह! जो मनुष्योंका अधिपति है, उस राजाको ब्राह्मणलोग देवस्वरूप क्‍यों बताते हैं? यह मुझे बतानेकी कृपा करें।

     भीष्मजीने कहा ;-- भारत! इस विषयमें जानकार लोग उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिसके अनुसार राजा वसुमनाने बृहस्पतिजीसे यही बात पूछी थी। कहते हैं, प्राचीन कालमें बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ कोसल-नरेश राजा वसुमनाने शुद्ध बुद्धिवाले महर्षि बृहस्पतिसे कुछ प्रश्न किया। राजा वसुमना सम्पूर्ण लोकोंके हितमें तत्पर रहनेवाले थे। वे विनय प्रकट करनेकी कलाको जानते थे। बृहस्पतिजीके आनेपर उन्होंने उठकर उनका अभिवादन किया और चरणप्रक्षालल आदि सारा विनयसम्बन्धी बर्ताव पूर्ण करके महर्षिकी परिक्रमा करनेके अनन्तर उन्होंने विधिपूर्वक उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। फिर प्रजाके सुखकी इच्छा रखते हुए राजाने धर्मशील बृहस्पतिसे राज्यसंचालनकी विधिके विषयमें इस प्रकार प्रश्न उपस्थित किया।

     वसुमना बोले ;-- महामते! राज्यमें रहनेवाले प्राणियोंकी वृद्धि कैसे होती है? उनका हास कैसे हो सकता है? किस देवताकी पूजा करनेवाले लोगोंको अक्षय सुखकी प्राप्ति हो सकती है?। अमित तेजस्वी कोसलनरेशके इस प्रकार प्रश्न करनेपर महाज्ञानी बृहस्पतिजीने शान्तभावसे राजाके सत्कारकी आवश्यकता बताते हुए इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया।

    बृहस्पतिजीने कहा ;-- महाप्राज्ञ! लोकमें जो धर्म देखा जाता है, उसका मूल कारण राजा ही है। राजाके भयसे ही प्रजा एक-दूसरेको हड़प नहीं लेती है। राजा ही मर्यादाका उल्लंघन करनेवाले तथा अनुचित भोगोंमें आसक्त हो उनकी प्राप्तिके लिये उत्कण्ठित रहनेवाले सारे जगत्‌के लोगोंको धर्मानुकूल शासनद्वारा प्रसन्न रखता है और स्वयं भी प्रसन्नतापूर्वक रहकर अपने तेजसे प्रकाशित होता है।

       राजन! जैसे सूर्य और चन्द्रमाका उदय न होनेपर समस्त प्राणी घोर अन्धकारमें डूब जाते हैं और एक-दूसरेको देख नहीं पाते हैं, जैसे थोड़े जलवाले तालाबमें मत्स्यगण तथा रक्षकरहित उपवनमें पक्षियोंके झुंड परस्पर एक-दूसरेपर बारंबार चोट करते हुए इच्छानुसार विचरण करते हैं, वे कभी तो अपने प्रहारसे दूसरोंको कुचलते और मथते हुए आगे बढ़ जाते हैं और कभी स्वयं दूसरेकी चोट खाकर व्याकुल हो उठते हैं। इस प्रकार आपसमें लड़ते हुए वे थोड़े ही दिनोंमें नष्टप्राय हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है। इसी तरह राजाके बिना वे सारी प्रजाएँ आपसमें लड़-झगड़कर बात-की-बातमें नष्ट हो जायँगी और बिना चरवाहेके पशुओंकी भाँति दुःखके घोर अन्धकारमें डूब जायँगी। यदि राजा प्रजाकी रक्षा न करे तो बलवान मनुष्य दुर्बलोंकी बहू-बेटियोंको हर ले जायाँ और अपने घरबारकी रक्षाके लिये प्रयत्न करनेवालोंको मार डालें।

     यदि राजा रक्षा न करे तो इस जगतमें स्त्री, पुत्र, धन अथवा घरबार कोई भी ऐसा संग्रह सम्भव नहीं हो सकता, जिसके लिये कोई कह सके कि यह मेरा है, सब ओर सबकी सारी सम्पत्तिका लोप हो जाय।  यदि राजा प्रजाका पालन न करे तो पापाचारी लुटेरे सहसा आक्रमण करके वाहन, वस्त्र, आभूषण और नाना प्रकारके रत्न लूट ले जायेँ।

     यदि राजा रक्षा न करे तो धर्मात्मा पुरुषोंपर बारंबार नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी मार पड़े और विवश होकर लोगोंको अधर्मका मार्ग ग्रहण करना पड़े। यदि राजा पालन न करे तो दुराचारी मनुष्य माता, पिता, वृद्ध, आचार्य, अतिथि और गुरुको क्लेश पहुँचावें अथवा मार डालें।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अड़सठवें अध्याय के श्लोक 19–30 का हिन्दी अनुवाद)

    यदि राजा रक्षा न करे तो धनवानोंको प्रतिदिन वध या बन्धनका क्लेश उठाना पड़े और किसी भी वस्तुको वे अपनी न कह सकें। यदि राजा प्रजाका पालन न करे तो अकालमें ही लोगोंकी मृत्यु होने लगे, यह समस्त जगत्‌ डाकुओंके अधीन हो जाय और (पापके कारण) घोर नरकमें गिर जाय। यदि राजा पालन न करे तो व्यभिचारसे किसीको घृणा न हो, खेती नष्ट हो जाय, व्यापार चौपट हो जाय, धर्म डूब जाय और तीनों वेदोंका कहीं पता न चले।

     यदि राजा जगत्‌की रक्षा न करे तो विधिवत पर्याप्त दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञोंका अनुष्ठान बंद हो जाय, विवाह न हो और सामाजिक कार्य रुक जायेँ। यदि राजा पशुओंका पालन न करे तो साँड़ गायोंमें गर्भाधान न करें, दूध-दहीसे भरे हुए घड़े या मटके कभी महे न जायूँ और गोशाले नष्ट हो जायेँ। यदि राजा रक्षा न करे तो सारा जगत्‌ भयभीत, उद्विग्नचित्त, हाहाकारपरायण तथा अचेत हो क्षणभरमें नष्ट हो जाय। यदि राजा पालन न करे तो उनमें विधिपूर्वक दक्षिणाओंसे युक्त वार्षिक यज्ञ बेखटके न चल सकें।

     यदि राजा पालन न करे तो विद्या पढ़कर स्नातक हुए ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करनेवाले और तपस्वी तथा ब्राह्मण लोग चारों वेदोंका अध्ययन छोड़ दें। यदि राजा पालन न करे तो मनुष्य हताहत होकर धर्मका सम्पर्क छोड़ दें और चोर घरका मालमत्ता लेकर अपने शरीर और इन्द्रियोंपर आँच आये बिना ही सकुशल लौट जायूँ। यदि राजा पालन न करे तो चोर और लुटेरे हाथमें रखी हुई वस्तुको भी हाथसे छीन ले जायूँ, सारी मर्यादाएँ टूट जायँ और सब लोग भयसे पीड़ित हो चारों ओर भागते फिरें।

      यदि राजा पालन न करे तो सब ओर अन्याय एवं अत्याचार फैल जाय, वर्णसंकर संतानें पैदा होने लगें और समूचे देशमें अकाल पड़ जाय। राजासे रक्षित हुए मनुष्य सब ओरसे निर्भय हो जाते हैं और अपनी इच्छाके अनुसार घरके दरवाजे खोलकर सोते हैं ।। ३० ।।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अड़सठवें अध्याय के श्लोक 31–50 का हिन्दी अनुवाद)

    यदि धर्मात्मा राजा भलीभाँति पृथ्वीकी रक्षा न करे तो कोई भी मनुष्य गाली-गलौज अथवा हाथसे पीटे जानेका अपमान कैसे सहन करे। यदि पृथ्वीका पालन करनेवाला राजा अपने राज्यकी रक्षा करता है तो समस्त आभूषणोंसे विभूषित हुई सुन्दरी स्त्रियाँ किसी पुरुषको साथ लिये बिना भी निर्भय होकर मार्गसे आती-जाती हैं। जब राजा रक्षा करता है, तब सब लोग धर्मका ही पालन करते हैं, कोई किसीकी हिंसा नहीं करते और सभी एक-दूसरेपर अनुग्रह रखते हैं। जब राजा रक्षा करता है, तब तीनों वर्णोके लोग नाना प्रकारके बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं और मनोयोगपूर्वक विद्याध्ययनमें लगे रहते हैं।

     खेती आदि समुचित जीविकाकी व्यवस्था ही इस जगत्‌के जीवनका मूल है तथा वृष्टि आदिकी हेतुभूत त्रयी विद्यासे ही सदा जगत्‌का धारण-पोषण होता है। जब राजा प्रजाकी रक्षा करता है, तभी वह सब कुछ ठीक ढंगसे चलता रहता है। जब राजा विशाल सैनिक-शक्तिके सहयोगसे भारी भार उठाकर प्रजाकी रक्षाका भार वहन करता है, तब यह सम्पूर्ण जगत्‌ प्रसन्न होता है। जिसके न रहनेपर सब ओरसे समस्त प्राणियोंका अभाव होने लगता है और जिसके रहनेपर सदा सबका अस्तित्व बना रहता है, उस राजाका पूजन (आदर-सत्कार) कौन नहीं करेगा?।

    जो उस राजाके प्रिय एवं हितसाधनमें संलग्न रहकर उसके सर्वलोकभयंकर शासनभारको वहन करता है, वह इस लोक और परलोक दोनोंपर विजय पाता है। जो पुरुष मनसे भी राजाके अनिष्टका चिन्तन करता है, वह निश्चय ही इह लोकमें कष्ट भोगता है और मरनेके बाद भी नरकमें पड़ता है। “यह भी एक मनुष्य है” ऐसा समझकर कभी भी पृथ्वीपालक नरेशकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये; क्योंकि राजा मनुष्यरूपमें एक महान्‌ देवता है।

    राजा ही सदा समयानुसार पाँच रूप धारण करता है। वह कभी अग्नि, कभी सूर्य, कभी मृत्यु, कभी कुबेर और कभी यमराज बन जाता है। जब पापात्मा मनुष्य राजाके साथ मिथ्या बर्ताव करके उसे ठगते हैं, तब वह अग्निस्वरूप हो जाता है और अपने उग्र तेजसे समीप आये हुए उन पापियोंको जलाकर भस्म कर देता है। जब राजा गुप्तचरोंद्वारा समस्त प्रजाओंकी देख-भाल करता है और उन सबकी रक्षा करता हुआ चलता है, तब वह सूर्यरूप होता है।

     जब राजा कुपित होकर अशुद्धाचारी सैकड़ों मनुष्योंका उनके पुत्र, पौत्र और मन्त्रियोंसहित संहार कर डालता है, तब वह मृत्युरूप होता है। जब वह कठोर दण्डके द्वारा समस्त अधार्मिक पुरुषोंको काबूमें करके सन्मार्गपर लाता है और धर्मात्माओंपर अनुग्रह करता है, उस समय वह यमराज माना जाता है। जब राजा उपकारी पुरुषोंको धनरूपी जलकी धाराओंसे तृप्त करता है और अपकार करनेवाले दुष्टोंके नाना प्रकारके रत्नोंको छीन लेता है, किसी राज्यहितैषीको धन देता है तो किसी (राज्यविद्रोही) के धनका अपहरण कर लेता है, उस समय वह पृथिवीपालक नरेश इस संसारमें कुबेर समझा जाता है।

     जो समस्त कार्योमें निपुण, अनायास ही कार्य-साधन करनेमें समर्थ, धर्ममय लोकोंमें जानेकी इच्छा रखनेवाला तथा दोषदृष्टिसे रहित हो, उस पुरुषको अपने देशके शासक नरेशकी निन्दाके काममें नहीं पड़ना चाहिये। राजाके विपरीत आचरण करनेवाला मनुष्य उसका पुत्र, भाई, मित्र अथवा आत्माके तुल्य ही क्‍यों न हो, कभी सुख नहीं पा सकता। वायुकी सहायतासे प्रज्वलित हुई आग जब किसी गाँव या जंगलको जलाने लगे तो सम्भव है कि वहाँका कुछ भाग जलाये बिना शेष छोड़ दे; परंतु राजा जिसपर आक्रमण करता है, उसकी कहीं कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अड़सठवें अध्याय के श्लोक 51–61 का हिन्दी अनुवाद)

    मनुष्यको चाहिये कि राजाकी सारी रक्षणीय वस्तुओंको दूरसे ही त्याग दे और मृत्युकी ही भाँति राजधनके अपहरणसे घृणा करके उससे अपनेको बचानेका प्रयत्न करे। जैसे मृग मारण-मन्त्रका स्पर्श करते ही अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठता है, उसी प्रकार राजाके धनपर हाथ लगानेवाला मनुष्य तत्काल मारा जाता है; अतः बुद्धिमान्‌ पुरुषको चाहिये कि वह अपने ही धनके समान इस जगत्‌में राजाके धनकी भी रक्षा करे। राजाके धनका अपहरण करनेवाले मनुष्य दीर्घकालके लिये विशाल, भयंकर, अस्थिर और चेतनाशक्तिको लुप्त कर देनेवाले नरकमें गिरते हैं। भोज, विराट, सम्राट, क्षत्रिय, भूपति और नृप--इन शब्दोंद्वारा जिस राजाकी स्तुति की जाती है, उस प्रजापालक नरेशकी पूजा कौन नहीं करेगा?।

    इसलिये अपनी उन्नतिकी इच्छा रखनेवाला, मेधावी, स्मरणशक्तिसे सम्पन्न एवं कार्यदक्ष मनुष्य नियमपूर्वक रहकर मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए राजाका आश्रय ग्रहण करे। राजाको उचित है कि वह कृतज्ञ, विद्वान, महामना, राजाके प्रति दृढ़ भक्ति रखनेवाले, जितेन्द्रिय, नित्य धर्मपरायण और नीतिज्ञ मन्त्रीका आदर करे। इसी प्रकार राजा अपने प्रति दृढ़ भक्तिसे सम्पन्न, युद्धकी शिक्षा पाये हुए, बुद्धिमान, धर्मज्ञ, जितेन्द्रिय, शूरवीर और श्रेष्ठ कर्म करनेवाले ऐसे वीर पुरुषको सेनापति बनावे, जो अपनी सहायताके लिये दूसरोंका आश्रय लेनेवाला न हो। राजा मनुष्यको धृष्ट एवं सबल बनाता है और राजा ही उसे दुर्बल कर देता है। राजाके रोषका शिकार बने हुए मनुष्यको कैसे सुख मिल सकता है? राजा अपने शरणागतको सुखी बना देता है।

    (राजा प्रजाओंका प्रथम अथवा प्रधान शरीर है। प्रजा भी राजाका अनुपम शरीर है। राजाके बिना देश और वहाँके निवासी नहीं रह सकते और देशों तथा देशवासियोंके बिना राजा भी नहीं रह सकते हैं) 

    राजा प्रजाका गुरुतर हृदय, गति, प्रतिष्ठा और उत्तम सुख है। नरेन्द्र! राजाका आश्रय लेनेवाले मनुष्य इस लोक और परलोकपर भी पूर्णतः विजय पा लेते हैं। राजा भी इन्द्रियसंयम, सत्य और सौहार्दके साथ इस पृथ्वीका भलीभाँति शासन करके बड़े-बड़े यज्ञोंके अनुष्ठानद्वारा महान्‌ यशका भागी हो स्वर्गलोकमें सनातन स्थान प्राप्त कर लेता है। राजन! बृहस्पतिजीके ऐसा कहनेपर राजाओंमें श्रेष्ठ कोसलनरेश वीर वसुमना अपनी प्रजाओंका प्रयत्नपूर्वक पालन करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें ब॒हस्पतिजीका उपदेशविषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

उन्हत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उन्हत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“राजाके प्रधान कर्तव्योंका तथा दण्डनीतिके द्वारा युगोंके निर्माणका वर्णन”

    युधिष्ठिरने पूछा ;-- पितामह! राजाके द्वारा विशेष रूपसे पालन करने योग्य और कौन-सा कार्य शेष है? उसे गाँवोंकी रक्षा कैसे करनी चाहिये और शत्रुओंको किस प्रकार जीतना चाहिये?। राजा गुप्तचरकी नियुक्ति कैसे करे? सब वर्णोके मनमें किस प्रकार विश्वास उत्पन्न करे? भारत! वह भृत्यों, स्त्रियों और पुत्रोंको भी कैसे कार्यमें लगावे? तथा उनके मनमें भी किस तरह विश्वास पैदा करे?।

    भीष्मजीने कहा ;-- महाराज! क्षत्रिय राजा अथवा राजकार्य करनेवाले अन्य पुरुषको सबसे पहले जो कार्य करना चाहिये, वह सारा राजकीय आचार-व्यवहार सावधान होकर सुनो। राजाको सबसे पहले सदा अपने मनपर विजय प्राप्त करनी चाहिये, उसके बाद शत्रुओंको जीतनेकी चेष्टा करनी चाहिये। जिस राजाने अपने मनको नहीं जीता, वह शत्रुपर विजय कैसे पा सकता है?। श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियोंको वशमें रखना यही मनपर विजय पाना है। जितेन्द्रिय नरेश ही अपने शत्रुओंका दमन कर सकता है। कुरुनन्दन! राजाको किलोंमें, राज्यकी सीमापर तथा नगर और गाँवके बगीचोंमें सेना रखनी चाहिये।

     नरसिंह! इसी प्रकार सभी पड़ावोंपर, बड़े-बड़े गाँवों और नगरोंमें, अन्तःपुरमें तथा राजमहलके आस-पास भी रक्षक सैनिकोंकी नियुक्ति करनी चाहिये। तदनन्तर जिन लोगोंकी अच्छी तरह परीक्षा कर ली गयी हो, जो बुद्धिमान होनेपर भी देखनेमें गूँगे, अंधे और बहरे-से जान पड़ते हों तथा जो भूख-प्यास और परिश्रम सहनेकी शक्ति रखते हों, ऐसे लोगोंको ही गुप्तचर बनाकर आवश्यक कार्योंमें नियुक्त करना चाहिये। महाराज! राजा एकाग्रचित्त हो सब मन्त्रियों, नाना प्रकारके मित्रों तथा पुत्रोंपर भी गुप्तचर नियुक्त करे।

    नगर, जनपद तथा मल्ललोग जहाँ व्यायाम करते हों, उन स्थानोंमें ऐसी युक्तिसे गुप्तचर नियुक्त करने चाहिये, जिससे वे आपसमें भी एक-दूसरेको पहचान न सकें। भरतश्रेष्ठ राजाको अपने गुप्तचरोंद्वारा बाजारों, लोगोंके घूमने-फिरनेके स्थानों, सामाजिक उत्सवों, भिक्षुकोंके समुदायों, बगीचों, उद्यानों, विद्वानोंकी सभाओं, विभिन्न प्रान्तों, चौराहों, सभाओं और धर्मशालाओंमें शत्रुओंके भेजे हुए गुप्तचरोंका पता लगाते रहना चाहिये। पाण्डुनन्दन! इस प्रकार बुद्धिमान्‌ राजा शत्रुके गुप्तचरका टोह लेता रहे। यदि उसने शत्रुके जासूसका पहले ही पता लगा लिया तो इससे उसका बड़ा हित होता है।

     यदि राजाको अपना पक्ष स्वयं ही निर्बल जान पड़े तो मन्त्रियोंस सलाह लेकर बलवान्‌ शत्रुके साथ संधि कर ले।

(पृथ्वीपते! विद्वान्‌ क्षत्रिय, वैश्य तथा अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता ब्राह्मण यदि दण्डनीतिके ज्ञानमें निपुण हों तो इन्हें मन्‍त्री बनाना चाहिये। पहले नीतिशास्त्रका तत्त्व जाननेवाले विद्वान्‌ ब्राह्मणसे किसी कार्यके लिये सलाह पूछनी चाहिये। इसके बाद पृथ्वीपालक नरेशको चाहिये कि वह नीतिज्ञ क्षत्रियसे अभीष्ट कार्यके विषयमें पूछे। तदनन्तर अपने हितमें लगे रहनेवाले शास्त्रज्ञ वैश्य और शूट्रोंसे सलाह ले)

      अपनी हीनता या निर्बलताका पता शत्रुको लगनेसे पहले ही शत्रुके साथ संधि कर लेनी चाहिये। यदि इस संधिके द्वारा कोई प्रयोजन सिद्ध करनेकी इच्छा हो तो विद्दान्‌ एवं बुद्धिमान्‌ राजाको इस कार्यमें विलम्ब नहीं करना चाहिये। जो गुणवान्‌, महान्‌ उत्साही, धर्मज्ञ और साधु पुरुष हों, उन्हें सहयोगी बनाकर धर्मपूर्वक राष्ट्रकी रक्षा करनेवाला नरेश बलवान्‌ राजाओंके साथ संधि स्थापित करे। यदि यह पता लग जाय कि कोई हमारा उच्छेद कर रहा है, तो परम बुद्धिमान्‌ राजा पहलेके अपकारियोंको तथा जनताके साथ द्वेष रखनेवालोंको भी सर्वथा नष्ट कर दे। जो राजा न तो उपकार कर सकता हो और न अपकार कर सकता हो तथा जिसका सर्वथा उच्छेद कर डालना भी उचित नहीं प्रतीत होता हो, उस राजाकी उपेक्षा कर देनी चाहिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उन्हत्तरवें अध्याय के श्लोक 19–40 का हिन्दी अनुवाद)

      यदि शत्रुपर चढ़ाई करनेकी इच्छा हो तो पहले उसके बलाबलके बारेमें अच्छी तरह पता लगा लेना चाहिये। यदि वह मित्रहीन, सहायकों और बन्धुओंसे रहित, दूसरोंके साथ युद्धमें लगा हुआ, प्रमादमें पड़ा हुआ तथा दुर्बल जान पड़े और इधर अपनी सैनिक शक्ति प्रबल हो तो युद्धनिपुण, सुखके साधनोंसे सम्पन्न एवं वीर राजाको उचित है कि अपनी सेनाको यात्राके लिये आज्ञा दे दे। पहले अपनी राजधानीकी रक्षाका प्रबन्ध करके शत्रुपर आक्रमण करना चाहिये।

    बल और पराक्रमसे हीन राजा भी जो अपनेसे अत्यन्त शक्तिशाली नरेश हो उसके अधीन न रहे। उसे चाहिये कि गुप्तरूपसे प्रबल शत्रुको क्षीण करनेका प्रयत्न करता रहे। वह शशस्त्रोंके प्रहारसे घायल करके, आग लगाकर तथा विषके प्रयोगद्वारा मूर्च्छित करके शत्रुके राष्ट्रमें रहनेवाले लोगोंको पीड़ा दे। मन्त्रियों तथा राजाके प्रिय व्यक्तियोंमें कलह प्रारम्भ करा दे। जो बुद्धिमान्‌ राजा राज्यका हित चाहे, उसे सदा युद्धको टालनेका ही प्रयत्न करना चाहिये। नरेश्वर! बृहस्पतिजीने साम, दान और भेद--इन तीन उपायोंसे ही राजाके लिये धनकी आय बतायी है। इन उपायोंसे जो धन प्राप्त किया जा सके, उसीसे विद्वान्‌ राजाको संतुष्ट होना चाहिये। कुरुनन्दन! बुद्धिमान्‌ नरेश प्रजाजनोंसे उन्हींकी रक्षाके लिये उनकी आयका छठा भाग करके रूपमें ग्रहण करे। मत्त, उन्मत्त आदि जो दस- प्रकारके दण्डनीय मनुष्य हैं, उनसे थोड़ा या बहुत जो धन दण्डके रूपमें प्राप्त हो, उसे पुरवासियोंकी रक्षाके लिये ही सहसा ग्रहण कर ले।

     निःसंदेह राजाको चाहिये कि वह अपनी प्रजाको पुत्रों और पौत्रोंकी भाँति स्नेहदृष्टिसे देखे; परंतु जब न्याय करनेका अवसर प्राप्त हो, तब उसे स्नेहवश पक्षपात नहीं करना चाहिये। राजा न्याय करते समय सदा वादी-प्रतिवादीकी बातोंको सुननेके लिये अपने पास सर्वार्थदर्शी विद्वान पुरुषोंको बिठाये रखे; क्योंकि विशुद्ध न्यायपर ही राज्य प्रतिष्ठित होता है। सोने आदिकी खान, नमक, अनाज आदिकी मंडी, नावके घाट तथा हाथियोंके यूथ-इन सब स्थानोंपर होनेवाली आयके निरीक्षणके लिये मन्त्रियोंको अथवा अपना हित चाहनेवाले विश्वसनीय पुरुषोंको राजा नियुक्त करे।

     भलीभाँति दण्ड धारण करनेवाला राजा सदा धर्मका भागी होता है। निरन्तर दण्ड धारण किये रहना राजाके लिये उत्तम धर्म मानकर उसकी प्रशंसा की जाती है। भरतनन्दन! राजाको वेदों और वेदाड़ोंका विद्वान, बुद्धिमान, तपस्वी, सदा दानशील और यज्ञपरायण होना चाहिये।

     ये सारे गुण राजामें सदा स्थिरभावसे रहने चाहिये। यदि राजाका न्यायोचित व्यवहार ही लुप्त हो गया, तो उसे कैसे स्वर्ग प्राप्त हो सकता है और कैसे यश?।बुद्धिमान्‌ पृथ्वीपालक नरेश जब किसी अत्यन्त बलवान राजासे पीड़ित होने लगे, तब उसे दुर्गका आश्रय लेना चाहिये। उस समय प्राप्त कर्तव्यपर विचार करनेके लिये मित्रोंका आश्रय लेकर उनकी सलाहसे पहले तो अपनी रक्षाके लिये उचित व्यवस्था करे; फिर साम, भेद अथवा युद्धमेंसे क्या करना है; इसपर विचार करके उसके उपयुक्त कार्य करे।

    यदि युद्धका ही निश्चय हो तो पशुशालाओंको वनमेंसे उठाकर सड़कोंपर ले आवे, छोटे-छोटे गाँवोंको उठा दे और उन सबको शाखानगरों (कस्बों) में मिला दे। राज्यमें जो धनी और सेनाके प्रधान-प्रधान अधिकारी हों अथवा जो मुख्य-मुख्य सेनाएँ हों, उन सबको बारंबार सान्त्वना देकर ऐसे स्थानोंमें रख दे, जो अत्यन्त गुप्त और दुर्गम हो। राजा स्वयं ही ध्यान देकर खेतोंमें तैयार हुई अनाजकी फसलको कटवाकर किलेके भीतर रखवा ले। यदि किलेमें लाना सम्भव न हो तो उन फसलोंको आग लगाकर जला दे।

    शत्रुके खेतोंमें जो अनाज हों, उन्हें नष्ट करनेके लिये वहींके लोगोंमें फ़ूट डाले अथवा अपनी ही सेनाके द्वारा वह सब नष्ट करा दे, जिससे शत्रुके पास खाद्य-सामग्रीका अभाव हो जाय। नदीके मार्गोंपर जो पुल पड़ते हों उन सबको तुड़वा दे। शत्रुके मार्गमें जो जलाशय हों, उनका सारा जल इधर-उधर बहा दे। जो जल बहाया न जा सके, उसे दूषित कर दे, जिससे वह पीनेयोग्य न रह जाय।

     वर्तमान अथवा भविष्यमें सदा किसी मित्रका कार्य उपस्थित हो तो उसे भी छोड़कर अपने शत्रुके उस शत्रुका आश्रय लेकर रहे जो राज्यकी भूमिके निकटका निवासी हो तथा युद्धमें शत्रुपर आघात करनेके लिये तैयार रहता हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उन्हत्तरवें अध्याय के श्लोक 41-58 का हिन्दी अनुवाद)

   जो छोटे-छोटे दुर्ग हों (जिनमें शत्रुओंके छिपनेकी सम्भावना हो), उन सबका राजा मूलोच्छेद करा डाले और चैत्य (देवालय सम्बन्धी) वृक्षोंकोी छोड़कर अन्य सभी छोटे-छोटे वृक्षोंको कटवा दे। जो वृक्ष बढ़कर बहुत फैल गये हों, उनकी डालियाँ कटवा दे; परंतु देवसम्बन्धी वृक्षोंको सर्वथा सुरक्षित रहने दे। उनका एक पत्ता भी न गिरावे। नगर एवं दुर्गके परकोटोंपर शूरवीर रक्षा-सैनिकोंके बैठनेके लिये स्थान बनावे, ऐसे स्थानोंको 'प्रगण्डी” कहते हैं, इन्हीं प्रगण्डियोंकी एक पाखवाली दीवारोंमें बाहरकी वस्तुओंको देखनेके लिये छोटे-छोटे छिद्र बनवावे, इन छिद्रोंको 'आकाशजननी' कहते हैं (इनके द्वारा तोपोंसे गोलियाँ छोड़ी जाती हैं), इन सबका अच्छी तरहसे निर्माण करावे। परकोटोंके बाहर बनी हुई खाईमें जल भरवा दे और उसमें त्रिशूलयुक्त खंभे गड़वा दे तथा मगरमच्छ और बड़े-बड़े मत्स्य भी डलवा दे। नगरमें हवा आने-जानेके लिये परकोटोंमें सँकरे दरवाजे बनावे और बड़े दरवाजोंकी भाँति उनकी भी सब प्रकारसे रक्षा करे।

    सभी दरवाजोंपर भारी-भारी यन्त्र और तोप सदा लगाये रखे और उन सबको अपने अधिकारमें रखे। किलेके भीतर बहुत-सा ईंधन इकट्ठा कर ले और कुएँ खुदवाये। जल पीनेकी इच्छावाले लोगोंने पहले जो कुएँ बना रखे हों, उनको भी झरवाकर शुद्ध करा दे। घास-फूँससे छाये हुए घरोंको गीली मिट्टीसे लिपवा दे और चैत्रका महीना आते ही आग लगनेके भयसे नगरके भीतरसे घास-फूँस हटवा दे। खेतोंसे भी तृण आदिको हटा दे। राजाको चाहिये कि वह युद्धके अवसरोंपर नगरके लोगोंको रातमें ही भोजन बनानेकी आज्ञा दे। दिनमें अग्निहोत्रको छोड़कर और किसी कामके लिये कोई आग न जलावे। लोहार आदिकी भट्ठियोंमें और सूतिकागृहोंमें भी अत्यन्त सुरक्षित रूपसे आग जलानी चाहिये, आगको घरके भीतर ले जाकर ढककर रखना चाहिये। नगरकी रक्षाके लिये यह घोषणा करा दे कि “जिसके यहाँ दिनमें आग जलायी जाती होगी उसे बड़ा भारी दण्ड दिया जायगा”।

     नरश्रेष्ठस जब युद्ध छिड़ा हो, तब राजाको चाहिये कि वह नगरसे भिखमंगों, गाड़ीवानों, हीजड़ों, पागलों और नाटक करनेवालोंको बाहर निकाल दे; अन्यथा वे बड़ी भारी विपत्ति ला सकते हैं। राजाको चाहिये कि वह चौराहोंपर, तीर्थोमें, सभाओंमें और धर्मशालाओंमें सबकी मनोवृत्तिको जाननेके लिये किसी शुद्ध वर्णवाले पुरुषको (जो वर्णसंकर न हो) गुप्तचर नियुक्त करे। प्रत्येक नरेशको बड़ी-बड़ी सड़कें बनवानी चाहिये और जहाँ जैसी आवश्यकता हो उसके अनुसार जलक्षेत्र और बाजारोंकी व्यवस्था करनी चाहिये ।

      कुरुनन्दन युधिष्ठिर! अन्नके भण्डार, शस्त्रागार, योद्धाओंके निवासस्थान, अश्वशालाएँ, गजशालाएँ, सैनिक शिविर, खाई, गलियाँ तथा राजमहलके उद्यान--इन सब स्थानोंको गुप्तरीतिसे बनवाना चाहिये, जिससे कभी दूसरा कोई देख न सके। शत्रुओंकी सेनासे पीड़ित हुआ राजा धन-संचय तथा आवश्यक वस्तुओंका संग्रह करके रखे। घायलोंकी चिकित्साके लिये तेल, चर्बी, मधु, घी, सब प्रकारके औषध, अड़रे, कुश, मूँज, ढाक, बाण, लेखक, घास और विषयमें बुझाये हुए बाणोंका भी संग्रह करावे।

      इसी प्रकार राजाको चाहिये कि शक्ति, ऋष्टि और प्रास आदि सब प्रकारके आयुधों, कवचों तथा ऐसी ही अन्य आवश्यक वस्तुओंका संग्रह करावे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उन्हत्तरवें अध्याय के श्लोक 59–70 का हिन्दी अनुवाद)

    सब प्रकारके औषध, मूल, फूल तथा विषका नाश करनेवाले, घावपर पट्टी करनेवाले, रोगोंको निवारण करनेवाले और कृत्याका नाश करनेवाले--इन चार प्रकारके वैद्योंका विशेष रूपसे संग्रह करे।   साधारण स्थितिमें राजाको नटों, नर्तकों, पहलवानों तथा इन्द्रजाल दिखानेवालोंको भी अपने यहाँ आश्रय देना चाहिये; क्योंकि ये राजधानीकी शोभा बढ़ाते हैं और सबको अपने खेलोंसे आनन्द प्रदान करते हैं।

यदि राजाको अपने किसी नौकरसे, मन्त्रीसे, पुरवासियोंसे अथवा किसी पड़ोसी राजासे भी कोई संदेह हो जाय तो समयोचित उपायोंद्वारा उन सबको अपने वशमें कर ले। राजेन्द्र! जब कोई अभीष्ट कार्य पूरा हो जाय तो उसमें सहयोग करनेवालोंका बहुत-से धन, यथायोग्य पुरस्कार तथा नाना प्रकारके सान्त्वनापूर्ण मधुर वचनके द्वारा सत्कार करना चाहिये। कुरुनन्दन! राजा शत्रुको ताड़ना आदिके द्वारा खिन्न करके अथवा उसका वध करके फिर उस वंशमें हुए राजाका जैसा शास्त्रोंमें बताया गया है, उसके अनुसार दान-मानादिद्वारा सत्कार करके उससे उऋण हो जाय।

     कुरुनन्दन! राजाको उचित है कि सात वस्तुओंकी अवश्य रक्षा करे। वे सात कौन हैं? यह मुझसे सुनो। राजाका अपना शरीर, मन्त्री, कोश, दण्ड (सेना), मित्र, राष्ट्र और नगर-से राज्यके सात अड़ हैं, राजाको इन सबका प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। पुरुषसिंह! जो राजा छः: गुण, तीन वर्ग और तीन परम वर्ग--इन सबको अच्छी तरह जानता है, वही इस पृथ्वीका उपभोग कर सकता है। युधिष्ठिर! इनमेंसे जो छः गुण कहे गये हैं, उनका परिचय सुनो, शत्रुसे संधि करके शान्तिसे बैठ जाना, शत्रुपर चढ़ाई करना, वैर करके बैठे रहना, शत्रुको डरानेके लिये आक्रमणका प्रदर्शनमात्र करके बैठ जाना, शत्रुओंमें भेद डलवा देना तथा किसी दुर्ग या दुर्जय राजाका आश्रय लेना।

     जिन वस्तुओंको त्रिवर्गके अन्तर्गत बताया गया है, उनको भी यहाँ एकचित्त होकर सुनो। क्षय, स्थान और वृद्धि--ये ही त्रिवर्ग हैं तथा धर्म, अर्थ और काम--इनको परम त्रिवर्ग कहा गया है। इन सबका समयानुसार सेवन करना चाहिये। राजा धर्मके अनुसार चले तो वह पृथ्वीका दीर्घकालतक पालन कर सकता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उन्हत्तरवें अध्याय के श्लोक 71-88 का हिन्दी अनुवाद)

     पृथापुत्र युधिष्ठिर! तुम्हारा कल्याण हो। इस विषयमें साक्षात्‌ बृहस्पतिजीने जो दो श्लोक कहे हैं, उन्हें भी तुम सुनो। सारे कर्तव्योंको पूरा करके पृथ्वीका अच्छी तरह पालन तथा नगर एवं राष्ट्रकी प्रजाका संरक्षण करनेसे राजा परलोकमें सुख पाता है। जिस राजाने अपनी प्रजाका अच्छी तरह पालन किया है, उसे तपस्यासे क्या लेना है? उसे यज्ञोंका भी अनुष्ठान करनेकी क्या आवयकता है? वह तो स्वयं ही सम्पूर्ण धर्मोका ज्ञाता है”।

     युधिष्ठिर! इस विषयमें शुक्राचार्यके कहे हुए कुछ श्लोक हैं, उन्हें सुनो। राजन्‌! उन श्लोकोंमें जो भाव है, वह दण्डनीति तथा त्रिवर्गका मूल है। भार्गवाड्लि-रसकर्म, षोडशाड़ बल, विष, माया, दैव और पुरुषार्थ--ये सभी वस्तुएँ राजाकी अर्थसिद्धिके कारण हैं। राजाको चाहिये, जिसमें पूर्व और उत्तर दिशाकी भूमि नीची हो तथा जो तीनों प्रकारके त्रिवर्गोंसे परिपूर्ण हो उस दुर्गका आश्रय ले राज्यकार्यका भार वहन करे। 

     षडवर्ग, पञ्चवर्ग, दस दोषर और आठ दोष*-.-इन सबको जीतकर त्रिवर्गयुक्त* एवं दस वर्गोके* ज्ञानसे सम्पन्न हुआ राजा देवताओंद्वारा भी जीता नहीं जा सकता। राजा कभी स्त्रियों और मूर्खोंसे सलाह न ले। जिनकी बुद्धि दैवसे मारी गयी है तथा जो वेदोंके ज्ञानसे शून्य हैं, उनकी बात राजा कभी न सुने; क्योंकि उन लोगोंकी बुद्धि नीतिसे विमुख होती है। जिन राज्योंमें स्त्रियोंकी प्रधानता हो और जिन्हें विद्वानोंने छोड़ रखा हो; वे राज्य मूर्ख मन्त्रियोंसे संतप्त होकर पानीकी बूँदके समान सूख जाते हैं।

     जो अपनी दिद्वत्ताके लिये विख्यात हों, सभी कार्योंमें विश्वासके योग्य हों तथा युद्धके अवसरोंपर जिनके कार्य देखे गये हों, ऐसे मन्त्रियोंकी ही बात राजाको सुननी चाहिये। दैव, पुरुषार्थ और त्रिवर्गका आश्रय ले देवताओं तथा ब्राह्मणोंको प्रणाम करके युद्धकी यात्रा करनेवाला राजा विजयी होता है।

     युधिष्ठिरने पूछा ;-- पितामह! दण्डनीति तथा राजा दोनों मिलकर ही कार्य करते हैं। इनमेंसे किसके क्या करनेसे कार्य-सिद्धि होती है? यह मुझे बताइये।

    भीष्मजी बोले ;-- राजन्‌! भरतनन्दन! दण्डनीतिसे राजा और प्रजाके जिस महान्‌ सौभाग्यका उदय होता है, उसका मैं लोकप्रसिद्ध एवं युक्तियुक्त शब्दोंद्वारा वर्णन करता हूँ, तुम यथावत्‌ रूपसे यहाँ उसे सुनो। यदि राजा दण्डनीतिका उत्तम रीतिसे प्रयोग करे तो वह चारों वर्णोको अपने-अपने धर्ममें बलपूर्वक लगाती है और उन्हें अधर्मकी ओर जानेसे रोक देती है।

    इस प्रकार दण्डनीतिके प्रभावसे जब चारों वर्णोके लोग अपने-अपने कर्मोमें संलग्न रहते हैं, धर्ममर्यादामें संकीर्णता नहीं आने पाती और प्रजा सब ओरसे निर्भय एवं कुशलपूर्वक रहने लगती है, तब तीनों वर्णोौंके लोग विधिपूर्वक स्वास्थ्य-रक्षाका प्रयत्न करते हैं। युधिष्ठिर! इसीमें मनुष्योंका सुख निहित है, यह तुम्हें ज्ञात होना चाहिये।

    काल राजाका कारण है अथवा राजा कालका, ऐसा संशय तुम्हें नहीं होना चाहिये। यह निश्चित है कि राजा ही कालका कारण होता है। जिस समय राजा दण्डनीतिका पूरा-पूरा एवं ठीक प्रयोग करता है, उस समय पृथ्वीपर पूर्णरूपसे सत्ययुगका आरम्भ हो जाता है। राजासे प्रभावित हुआ समय ही सत्ययुगकी सृष्टि कर देता है। उस सत्ययुगमें धर्म-ही-धर्म रहता है, अधर्मका कहीं नाम-निशान भी नहीं दिखायी देता तथा किसी भी वर्णकी अधर्ममें रुचि नहीं होती। उस समय प्रजाके योगक्षेम स्वतः सिद्ध होते रहते हैं तथा सर्वत्र वैदिक गुणोंका विस्तार हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है।

    सभी ऋतुएँ सुखदायिनी और आरोग्य बढ़ानेवाली होती हैं। मनुष्योंके स्वर, वर्ण और मन स्वच्छ एवं प्रसन्न होते हैं। इस जगत्‌में उस समय रोग नहीं होते, कोई भी मनुष्य अल्पायु नहीं दिखायी देता, स्त्रियाँ विधवा नहीं होती हैं तथा कोई भी मनुष्य दीन-दुखी नहीं होता है। पृथ्वीपर बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा होता है, ओषधियाँ भी स्वतः उत्पन्न होती हैं; उनकी छाल, पत्ते, फल और मूल सभी शक्तिशाली होते हैं।

   सत्ययुगमें अधर्मका सर्वथा अभाव हो जाता है। उस समय केवल धर्म-ही-धर्म रहता है। युधिष्ठिर! इन सबको सत्ययुगके धर्म समझो।

      जब राजा दण्डनीतिके एक चौथाई अंशको छोड़कर केवल तीन अंशोंका अनुसरण करता है, तब त्रेतायुग प्रारम्भ हो जाता है। उस समय अशुभका चौथा अंश पुण्यके तीन अंशोंके पीछे लगा रहता है। उस अवस्थामें पृथ्वीपर जोतने-बोनेसे ही अन्न पैदा होता है। ओषधियाँ भी उसी तरह पैदा होती हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उन्हत्तरवें अध्याय के श्लोक 89–101 का हिन्दी अनुवाद)

    जब राजा दण्डनीतिके आधे भागको त्यागकर आधेका अनुसरण करता है, तब द्वापर नामक युगका आरम्भ हो जाता है। उस समय पापके दो भाग पुण्यके दो भागोंका अनुसरण करते हैं। पृथ्वीपर जोतनेबोनेसे ही अनाज पैदा होता है; परंतु आधी फसलमें ही फल लगते हैं, आधी मारी जाती है। जब राजा समूची दण्डनीतिका परित्याग करके अयोग्य उपायोंद्वारा प्रजाको वष्ट देने लगता है, तब कलियुगका आरम्भ हो जाता है। कलियुगमें अधर्म तो अधिक होता है; परंतु धर्मका पालन कहीं नहीं देखा जाता। सभी वर्णोका मन अपने धर्मसे च्युत हो जाता है।

     शूद्र भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह करते हैं और ब्राह्मण सेवा वृत्तिसे। प्रजाके योगक्षेमका नाश हो जाता है और सब ओर वर्णसंकरता फैल जाती है। वैदिक कर्म विधिपूर्वक सम्पन्न न होनेके कारण गुणहीन हो जाते हैं। प्रायः सभी ऋतुएँ सुखरहित तथा रोग प्रदान करनेवाली हो जाती हैं। मनुष्योंके स्वर, वर्ण और मन मलिन हो जाते हैं। सबको रोग-व्याधि सताने लगती है और लोग अल्पायु होकर छोटी अवस्थामें ही मरने लगते हैं।

     इस युगमें स्त्रियाँ प्रायः विधवा होती हैं, प्रजा क्रूर हो जाती है, बादल कहीं-कहीं पानी बरसाते हैं और कहीं-कहीं ही धान उत्पन्न होता है। जब राजा दण्डनीतिमें प्रतिष्ठित होकर प्रजाकी भली-भाँति रक्षा करना नहीं चाहता है, उस समय इस पृथ्वीके सारे रस ही नष्ट हो जाते हैं। राजा ही सत्ययुगकी सृष्टि करनेवाला होता है, और राजा ही त्रेता, द्वापर तथा चौथे युग कलिकी भी सृष्टिका कारण है।

    सत्ययुगकी सृष्टि करनेसे राजाको अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है। त्रेताकी सृष्टि करनेसे राजाको स्वर्ग तो मिलता है; परंतु वह अक्षय नहीं होता। द्वापरका प्रसार करनेसे वह अपने पुण्यके अनुसार कुछ कालतक स्वर्गका सुख भोगता है; परंतु कलियुगकी सृष्टि करनेसे राजाको अत्यन्त पापका भागी होना पड़ता है।

     तदनन्तर वह दुराचारी राजा उस पापके कारण बहुत वर्षोतक नरकमें निवास करता है। प्रजाके पापमें ड्ूबकर वह अपयश और पापके फलस्वरूप दुःखका ही भागी होता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उन्हत्तरवें अध्याय के श्लोक 102-105 का हिन्दी अनुवाद)

   अतः विज्ञ क्षत्रियनरेशको चाहिये कि वह सदा दण्डनीतिको सामने रखकर उसके द्वारा अप्राप्त वस्तुको पानेकी इच्छा करे और प्राप्त हुई वस्तुकी रक्षा करे। इसके द्वारा प्रजाके योगक्षेम सिद्ध होते हैं, इसमें संशय नहीं है। यदि दण्डनीतिका ठीक-ठीक प्रयोग किया जाय तो वह बालककी रक्षा करनेवाले माता-पिताके समान लोककी सुन्दर व्यवस्था करनेवाली और धर्ममर्यादा तथा जगत्‌की रक्षामें समर्थ होती है। नरश्रेष्ठ! तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि समस्त प्राणी दण्डनीतिके आधारपर ही टिके हुए हैं। राजा दण्डनीतिसे युक्त हो उसीके अनुसार चले--यही उसका सबसे बड़ा धर्म है। अतः कुरुनन्दन! तुम दण्डनीतिका आश्रय ले धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करो। यदि नीतियुक्त व्यवहारसे रहकर प्रजाकी रक्षा करोगे तो दुर्जय स्वर्गको जीत लोगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें उन्हत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टीका टिप्पणी ;–

मत्त, उन्मत्त आदि दस प्रकारके अपराधियोंके नाम इस प्रकार हैं--

१-मत्त, २-उन्मत्त, ३-दस्यु, ४-तस्कर, ५-प्रतारक, ६-शठ, ७-लम्पट, ८-जुआरी, ९-कृत्रिम लेखक (जालिया) और १०-घूसखोर।

  1. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य--इन छ: आन्तरिक शत्रुओंके समुदायको षड्वर्ग कहते हैं। इनको पूर्णरूपसे जीत लेनेवाला नरेश ही सर्वत्र विजयी होता है।
  2. श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और प्राण--इन पाँच इन्द्रियोंके समूहको ही पञ्चवर्ग कहते हैं। इन सबको क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--इन विषयोंमें आसक्त न होने देना ही इनपर विजय पाना है।
  3. आखेट, जूआ, दिनमें सोना, दूसरोंकी निन्‍्दा करना, स्त्रियोंमें आसक्त होना, मद्य पीना, नाचना, गाना, बाजा बजाना और व्यर्थ घूमना--से कामजनित दस दोष हैं, जिनपर राजाको विजय पाना चाहिये। इनको सर्वथा त्याग देना ही इनपर विजय पाना है।
  4. चुगली, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, दोषदर्शन, अर्थदूषण, वाणीकी कठोरता और दण्डकी कठोरता--ये क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले आठ दोष राजाके लिए त्याज्य हैं।
  5. धर्म, अर्थ और कामको अथवा उत्साहशक्ति, प्रभुशक्ति और मन्त्रशक्तिको त्रिवर्ग कहते हैं।
  6. मंत्री, राष्ट्र, दुरग, कोष और दण्ड--ये पाँच ही अपने और शत्रुवर्गके मिलाकर दस वर्ग कहलाते हैं। इनकी पूरी जानकारी रखनेपर राजाको अपने और शत्रुपक्षके बलाबलका पूर्ण ज्ञान होता है।

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

सत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“राजाको इहलोक और परलोकमें सुखकी प्राप्ति करानेवाले छत्तीस गुणोंका वर्णन”

    युधिष्ठिरने पूछा ;-- आचारके ज्ञाता पितामह! किस प्रकारका आचरण करनेसे राजा इहलोक और परलोकमें भी भविष्यमें सुख देनेवाले पदार्थोको सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकता है?।

     भीष्मजीने कहा ;-- राजन्‌! दया और उदारता आदि गुणोंसे युक्त राजा जिन गुणोंको आचरणमें लाकर उत्कर्ष लाभ कर सकता है, वे छत्तीस प्रकारके गुण हैं। राजाको चाहिये कि वह इन छत्तीस गुणोंसे सम्पन्न होनेकी चेष्टा करे।

(अब मैं क्रमश: उन गुणोंका वर्णन करता हूँ) १-धर्मका आचरण करे, किंतु कटुता न आने दे। २-आस्तिक रहते हुए दूसरोंके साथ प्रेमका बर्ताव न छोड़े। ३-क्रूरताका आश्रय लिये बिना ही अर्थ-संग्रह करे। ४-मर्यादाका अतिक्रमण न करते हुए ही विषयोंको भोगे। ५-दीनता न लाते हुए ही प्रिय भाषण करे। ६-शूरवीर बने, किंतु बढ़-बढ़कर बातें न बनावे। ७-दान दे, परंतु अपात्रको नहीं। ८-साहसी हो, किंतु निष्ठर न हो। ९-दुष्टोंके साथ मेल न करे। १०-बन्धुओंके साथ लड़ाई-झगड़ा न ठाने। ११-जो राजभक्त न हो, ऐसे गुप्तचरसे काम न ले। १२-किसीको कष्ट पहुँचाये बिना ही अपना कार्य करे। १३-दुष्टोंस अपना अभीष्ट कार्य न कहे। १४-अपने गुणोंका स्वयं ही वर्णन न करे। १५श्रेष्ठ पुरुषोंस उनका धन न छीने। १६-नीच पुरुषोंका आश्रय न ले। १७-अपराधकी अच्छी तरह जाँच पड़ताल किये बिना ही किसीको दण्ड न दे। १८गुप्त मन्त्रणाको प्रकट न करे। १९-लोभियोंको धन न दे। २०-जिन्होंने कभी अपकार किया हो, उनपर विश्वास न करे। २१-ईर्ष्यारहित होकर अपनी स्त्रीकी रक्षा करे। २२-राजा शुद्ध रहे; किंतु किसीसे घृणा न करे। २३-स्त्रियोंका अधिक सेवन न करे। २४-शुद्ध और स्वादिष्ट भोजन करे, परंतु अहितकर भोजन न करे। २५-उद्दण्डता छोड़कर विनीतभावसे माननीय पुरुषोंका आदर-सत्कार करे। २६निष्कपटभावसे गुरु-जनोंकी सेवा करे। २७-दम्भहीन होकर देवताओंकी पूजा करे। २८अनिन्दित उपायसे धन-सम्पत्ति पानेकी इच्छा करे। २९-हठ छोड़कर प्रीतिका पालन करे। ३०-कार्य-कुशल हो, किंतु अवसरके ज्ञानसे शून्य न हो। ३१-केवल पिण्ड छुड़ानेके लिये किसीको सान्त्वना या भरोसा न दे। ३२–किसीपर कृपा करते समय आक्षेप न करे। ३३-बिना जाने किसीपर प्रहार न करे। ३४-शत्रुओंको मारकर शोक न करे। ३५अकस्मात्‌ किसीपर क्रोध न करे तथा ३६-कोमल हो, परंतु अपकार करनेवालोंके लिये नहीं।

     युधिष्ठिर! यदि इस लोकमें कल्याण चाहते हो तो राज्यपर स्थित रहकर ऐसा ही बर्ताव करो; क्योंकि इसके विपरीत आचरण करनेवाला राजा बड़ी भारी विपत्ति या भयमें पड़ जाता है। जो राजा यथार्थरूपसे बताये गये इन सभी गुणोंका अनुवर्तन करता है, वह इस जगत्‌में कल्याणका अनुभव करके मृत्युके पश्चात्‌ स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय! पितामह शान्तनुनन्दन भीष्मका यह उपदेश सुनकर पाण्डवोंसे और प्रधान राजाओंसे घिरे हुए बुद्धिमान्‌ राजा युधिष्ठिरने उन्हें प्रणाम किया और उन्होंने जैसा बताया था, वैसा ही किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजध्मानुशासनपर्वमें सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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