सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के इकसठवें अध्याय से पैंसठवें अध्याय तक (From the 61 chapter to the 65 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

इकसठवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इकसठवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“आश्रम-धर्मका वर्णन”

     भीष्मजी कहते हैं ;-- सत्यपराक्रमी महाबाहु युधिष्ठिर! अब तुम चारों आश्रमोंके नाम और कर्म सुनो, ब्रह्मचर्य, महान्‌ आश्रम गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और भैक्ष्यचर्य (संन्यास)--ये चार आश्रम हैं। चौथे आश्रम संन्‍न्यासका अवलम्बन केवल ब्राह्मणोंने किया है।

     (ब्रह्मचर्य-आश्रममें) चूड़ाकरण-संस्कार और उपनयनके अनन्तर द्विजत्वको प्राप्त हो वेदाध्ययन पूर्ण करके (समावर्तनके पश्चात्‌ विवाह करे, फिर) गार्हस्थ्य आश्रममें अग्निहोत्र आदि कर्म सम्पन्न करके इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए मनस्वी पुरुष स्त्रीको साथ लेकर अथवा बिना स्त्रीके ही गृहस्थाश्रमसे कृतकृत्य हो वानप्रस्थाश्रममें प्रवेश करे।  वहाँ धर्मज्ञ पुरुष आरण्यकशास्त्रोंका अध्ययन करके वानप्रस्थ-धर्मका पालन करे। तत्पश्चात्‌ ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक उस आश्रमसे निकल जाय और विधिपूर्वक संन्यास ग्रहण कर ले। इस प्रकार संन्यास लेनेवाला पुरुष अविनाशी ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है।

     राजन! दिद्वान्‌ ब्राह्मणको ऊर्ध्वरेता मुनियोंद्वारा आचरणमें लाये हुए इन्हीं साधनोंका सर्वप्रथम आश्रय लेना चाहिये, प्रजानाथ! जिसने ब्रह्मचर्यका पालन किया है, उस ब्रह्मचारी ब्राह्मणके मनमें यदि मोक्षकी अभिलाषा जाग उठे तो उसे ब्रह्मचर्य-आश्रमसे ही संन्यास ग्रहण करनेका उत्तम अधिकार प्राप्त हो जाता है। संन्यासीको चाहिये कि वह मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए मुनिवृत्तिसे रहे। किसी वस्तुकी कामना न करे। अपने लिये मठ या कुटी न बनवाये। निरन्तर घूमता रहे और जहाँ सूर्यास्त हो वहीं ठहर जाय। प्रारब्धवश जो कुछ मिल जाय, उसीसे जीवन-निर्वाह करे। आशा-तृष्णाका सर्वथा त्याग करके सबके प्रति समान भाव रखे। भोगोंसे दूर रहे और हृदयमें किसी प्रकारका विकार न आने दे। इन्हीं सब धर्मोके कारण इस आश्रमको 'क्षेमाश्रम' (कल्याणप्राप्तिका स्थान) कहते हैं। इस आश्रममें आया हुआ ब्राह्मण अविनाशी ब्रह्मके साथ एकता प्राप्त कर लेता है।

      अब गृहस्थाश्रमके धर्म सुनो--जो वेदोंका अध्ययन पूर्ण करके समस्त वेदोक्त शुभ कर्मोका अनुष्ठान करनेके पश्चात्‌ अपनी विवाहिता पत्नीके गर्भसे संतान उत्पन्न कर उस आश्रमके न्यायोचित भोगोंको भोगता और एकाग्रचित्त हो मुनिजनोचित धर्मसे युक्त दुष्कर गार्हस्थ्य-धर्मका पालन करता है, वह उत्तम है।

     गृहस्थको चाहिये कि वह अपनी ही स्त्रीमें अनुराग रखते हुए संतुष्ट रहे। ऋतुकालमें ही पत्नीके साथ समागम करे। शास्त्रोंकी आज्ञाका पालन करता रहे। शठता और कुटिलतासे दूर रहे। परिमित आहार ग्रहण करे। देवताओंकी आराधनामें तत्पर रहे। उपकार करनेवालोंके प्रति कृतज्ञता प्रकट करे। सत्य बोले। सबके प्रति मृदुभाव रखे। किसीके प्रति क्रूर न बने और सदा क्षमाभाव रखे, गृहस्थाश्रमी पुरुष इन्द्रियोंका संयम करे, गुरुजनों एवं शास्त्रोंकी आज्ञा माने, देवताओं और पितरोंकी तृप्तिके लिये हव्य और कव्य समर्पित करनेमें कभी भूल न होने दे, ब्राह्मणोंको निरन्तर अन्नदान करे, ईर्ष्या-द्वेषसे दूर रहे, अन्य सब आश्रमोंको भोजन देकर उनका पालन-पोषण करता रहे और सदा यज्ञ-यागादिमें लगा रहे।

     तात! इस विषयमें महानुभाव महर्षिगण नारायण-गीतका उल्लेख किया करते हैं जो महान्‌ अर्थसे युक्त और अत्यन्त तपस्यद्वारा प्रेरित होकर कहा गया है। मैं उसका वर्णन करता हूँ, तुम सुनो। “गृहस्थ पुरुष इस लोकमें सत्य, सरलता, अतिथि-सत्कार, धर्म, अर्थ, अपनी पत्नीके प्रति अनुराग तथा सुखका सेवन करे। ऐसा होनेपर ही उसे परलोकमें भी सुख प्राप्त होते हैं, यह मेरा मत है”।

     श्रेष्ठ आश्रम गार्हस्थ्यमें निवास करनेवाले द्विजोंके लिये महर्षिगण यह कर्तव्य बताते हैं कि वह स्त्री और पुत्रोंका भरण-पोषण तथा वेदशास्त्रोंका स्वाध्याय करे। जो ब्राह्मण इस प्रकार स्वभावत: यज्ञपरायण हो, गृहस्थ-धर्मका यथावत्‌ रूपसे पालन करता है, वह गृहस्थ-वृत्तिका अच्छी तरह शोधन करके स्वर्गलोकमें विशुद्ध फलका भागी होता है। उस गृहस्थको देह-त्यागके पश्चात्‌ उसके अभीष्ट मनोरथ अक्षयरूपसे प्राप्त होते हैं। वे उस पुरुषका संकल्प जानकर इस प्रकार अनन्तकालतकके लिये उसकी सेवामें उपस्थित हो जाते हैं, मानो उनके नेत्र, मस्तक और मुख सभी दिशाओंकी ओर हों।

     युधिष्ठिर! ब्रह्मचारीको चाहिये कि वह अकेला ही वेदमन्त्रोंका चिन्तन और अभीष्ट मन्त्रोंका जप करते हुए सारे कार्य सम्पन्न करे, अपने शरीरमें मैल और कीचड़ लगी हो तो भी वह सेवाके लिये उद्यत हो एकमात्र आचार्यकी ही परिचर्यामें संलग्न रहे। ब्रह्मचारी नित्य निरन्तर मन और इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए व्रत एवं दीक्षाके पालनमें तत्पर रहे। वेदोंका स्वाध्याय करते हुए सदा कर्तव्य-कर्मोके पालनपूर्वक गुरु-गृहमें निवास करे।

     निरन्तर गुरुकी सेवामें संलग्न रहकर उन्हें प्रणाम करे। जीवन-निर्वाहके उद्देश्यसे किये जानेवाले यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन तथा दान और प्रतिग्रह--इन छ: कर्मोंसे अलग रहे और किसी भी असत्‌ कर्ममें वह कभी प्रवृत्त न हो। अपने अधिकारका प्रदर्शन करते हुए व्यवहार न करे; द्वेष रखनेवालोंका संग न करे। वत्स युधिष्ठिर! ब्रह्मचारीके लिये यही आश्रम-धर्म अभीष्ट है।

(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधमनुशासनपर्वमें चारों आश्रमोंके धर्मोका वर्णणविषयक एकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

बासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) बासठवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्राह्मणधर्म और कर्तव्यपालनका महत्त्व”

     युधिष्ठिर बोले ;-- पितामह! अब आप ऐसे धर्मोका वर्णन कीजिये; जो कल्याणमय, सुखमय, भविष्यमें अभ्युदयकारी, हिंसारहित, लोकसम्मानित, सुखसाधक तथा मुझ-जैसे लोगोंके लिये सुखपूर्वक आचरणमें लाये जा सकते हों।

    भीष्मजीने कहा ;-- प्रभो! भरतवंशावतंस युधिष्ठिर! चारों आश्रम ब्राह्मणोंके लिये ही विहित हैं। अन्य तीनों वर्णोके लोग उन सभी आश्रमोंका अनुसरण नहीं करते हैं। राजन! क्षत्रियके लिये शास्त्रमें बहुत-से ऐसे स्वर्गसाधक कर्म बताये गये हैं, जो हिंसाप्रधान हैं, जैसे युद्ध। परंतु ये कर्म ब्राह्मणके लिये आदर्श नहीं हो सकते; क्योंकि क्षत्रियके लिये सभी प्रकारके कर्मोका यथोचित विधान है।

     जो ब्राह्मण होकर क्षत्रिय, वैश्य और शूट्रोंके कर्मोका सेवन करता है, वह मन्दबुद्धि पुरुष इस लोकमें निन्दित और परलोकमें नरकगामी होता है। पाण्डुनन्दन! लोकमें दास, कुत्ते, भेड़िये तथा अन्य पशुओंके लिये जो निन्दासूचक संज्ञा दी गयी है, अपने वर्णधर्मके विपरीत कर्ममें लगे हुए ब्राह्मणके लिये भी वही संज्ञा दी जाती है। जो ब्राह्मण यज्ञ करना-कराना, विद्या पढ़ना-पढ़ाना तथा दान लेना और देना--इन छ: कर्मामें ही प्रवृत्त होता है, चारों आश्रमोंमें स्थित हो उनके सम्पूर्ण धर्मोका पालन करता है, धर्ममय कवचसे सुरक्षित होता है और मनको वशमें किये रहता है, जिसके मनमें कोई कामना नहीं होती, जो बाहर-भीतरसे शुद्ध, तपस्यापरायण और उदार होता है, उसे अविनाशी लोक प्राप्त होते हैं।

     जो पुरुष जिस अवस्थामें, जिस देश अथवा कालमें, जिस उद्देश्यसे जैसा कर्म करता है, वह (उसी अवस्थामें वैसे ही देश अथवा कालमें) वैसे भावसे उस कर्मका वैसा ही फल पाता है। राजेन्द्र! वैश्यकी व्याज लेनेवाली वृत्ति, खेती और वाणिज्यके समान तथा क्षत्रियके प्रजापालनरूप कर्मके समान ब्राह्मणोंके लिये वेदाभ्यासरूपी कर्म ही महान्‌ है--ऐसा तुम्हें समझना चाहिये।

    कालके उलट-फेरसे प्रभावित तथा स्वभावसे प्रेरित हुआ मनुष्य विवश-सा होकर उत्तम, मध्यम और अधम कर्म करता है। पहलेके जो कल्याणकारी और अमड्गलकारी शुभाशुभ कर्म हैं, वे ही प्रधान होकर इस शरीरका निर्माण करते हैं। इस शरीरके साथ ही उनका भी अन्त हो जाता है; परंतु जगतमें अपने वर्णाश्रमोचित कर्मके पालनमें तत्पर रहनेवाला पुरुष तो हर अवस्थामें सर्वव्यापी और अविनाशी ही है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वर्णाश्रम धर्मका वर्णनविषयक बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

तिरसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तिरसठवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“वर्णाश्रमधर्मका वर्णन तथा राजधर्मकी श्रेष्ठता”

      भीष्मजी कहते हैं ;-- राजन्‌! धनुषकी डोरी खींचना, शत्रुओंको उखाड़ फेंकना, खेती, व्यापार और पशुपालन करना अथवा धनके उद्देश्यसे दूसरोंकी सेवा करना--ये ब्राह्मणके लिये अत्यन्त निषिद्ध कर्म हैं। मनीषी ब्राह्मण यदि गृहस्थ हो तो उसके लिये वेदोंका अभ्यास और यजन-याजन आदि छ:कर्म ही सेवन करने योग्य हैं। गृहस्थ आश्रमका उद्देश्य पूर्ण कर लेनेपर ब्राह्मणके लिये (वानप्रस्थी होकर) वनमें निवास करना उत्तम माना गया है।

     गृहस्थ ब्राह्मण राजाकी दासता, खेतीके द्वारा धनका उपार्जन, व्यापारसे जीवननिर्वाह, कुटिलता, व्यभिचारिणी स्त्रियोंके साथ व्यभिचारकर्म तथा सूदखोरी छोड़ है। राजन! जो ब्राह्मण दुश्चरित्र, धर्महीन, शूद्रजातीय कुलटा स्त्रीसे सम्बन्ध रखनेवाला, चुगलखोर, नाचनेवाला, राजसेवक तथा दूसरे-दूसरे विपरीत कर्म करनेवाला होता है, वह ब्राह्मणत्वसे गिरकर शूद्र हो जाता है।

      नरेश्वर! उपर्युक्त दुर्गुणोंसे युक्त ब्राह्मण वेदोंका स्वाध्याय करता हो या न करता हो, शूद्रोंक ही समान है। उसे दासकी भाँति पंक्तिसे बाहर भोजन कराना चाहिये। ये राज-सेवक आदि सभी अधम ब्राह्मण शूद्रोंके ही तुल्य हैं। राजन्‌! देवकार्यमें इनका परित्याग कर देना चाहिये।

राजन! जो ब्राह्मण मर्यादाशून्य, अपवित्र, क्रूर स्वभाववाला, हिंसापरायण तथा अपने धर्म और सदाचारका परित्याग करनेवाला है, उसे हव्य-कव्य तथा दूसरे दान देना न देनेके ही बराबर है। अत: नरेश्वर! ब्राह्मणके लिये इन्द्रियसंयम, बाहर-भीतरकी शुद्धि और सरलताके साथसाथ धर्माचरणका ही विधान है। राजन्‌! सभी आश्रम ब्राह्मणोंके लिये ही हैं क्योंकि सबसे पहले ब्राह्मणोंकी ही सृष्टि हुई है।

     जो मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाला, सोमयाग करके सोमरस पीनेवाला, सदाचारी, दयालु, सब कुछ सहन करनेवाला, निष्काम, सरल, मृदु, क्रूरतारहित और क्षमाशील हो, वही ब्राह्मण कहलाने योग्य है। उससे भिन्न जो पापाचारी है, उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिये।

    राजन! पाण्डुनन्दन! धर्मपालनकी इच्छा रखनेवाले सभी लोग, सहायताके लिये शाद्र, वैश्य तथा क्षत्रियकी शरण लेते हैं। अतः जो वर्ण शान्तिधर्म (मोक्ष-साधन)में असमर्थ माने गये हैं, उनको भगवान्‌ विष्णु शान्तिपरक-धर्मका उपदेश करना नहीं चाहते। यदि भगवान्‌ विष्णु यथायोग्य विधान न करें तो लोकमें जो सब लोगोंको यह सुख आदि उपलब्ध है, वह न रह जाय। चारों वर्ण तथा वेदोंके सिद्धान्त टिक न सकें। सम्पूर्ण यज्ञ तथा समस्त लोककी क्रियाएँ बंद हो जायँ तथा आश्रमोंमें रहनेवाले सब लोग तत्काल विनष्ट हो जायूँ,

     पाण्डुनन्दन! जो राजा अपने राज्यमें तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के द्वारा शास्त्रोक्त रूपसे आश्रम-धर्मका सेवन कराना चाहता हो, उसके लिये जानने योग्य जो चारों आश्रमोंके लिये उपयोगी धर्म हैं, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो,- 

    पृथ्वीनाथ! जो शूद्र तीनों वर्णोकी सेवा करके कृतार्थ हो गया है, जिसने पुत्र उत्पन्न कर लिया है, शौच और सदाचारकी दृष्टिसे जिसमें अन्य त्रैवर्णिकोंकी अपेक्षा बहुत कम अन्तर रह गया है अथवा जो मनुप्रोक्त दस धर्मोके पालनमें तत्पर रहा हैः, वह शूद्र यदि राजाकी अनुमति प्राप्त कर ले तो उसके लिये संन्यासको छोड़कर शेष सभी आश्रम विहित हैं। राजेन्द्र! पूर्वोक्त धर्मोॉका आचरण करनेवाले शूद्रके लिये तथा वैश्य और क्षत्रियके लिये भी भिक्षा माँगकर निर्वाह करनेका विधान है। अपने वर्णधर्मका परिश्रमपूर्वक पालन करके कृतकृत्य हुआ वैश्य अधिक अवस्था व्यतीत हो जानेपर राजाकी आज्ञा लेकर क्षत्रियोचित वानप्रस्थ आश्रमोंका ग्रहण करे।

     निष्पाप नरेश! राजाको चाहिये कि पहले धर्माचरण-पूर्वक वेदों तथा राजशास्त्रोंका अध्ययन करे। फिर संतानोत्पादन आदि कर्म करके यज्ञमें सोमरसका सेवन करे। समस्त प्रजाओंका धर्मके अनुसार पालन करके राजसूय, अश्वमेध तथा दूसरे-दूसरे यज्ञोंका अनुष्ठान करे। शास्त्रोंकी आज्ञाके अनुसार सब सामग्री एकत्र करके ब्राह्मणोंको दक्षिणा दे। वक्ताओंमें श्रेष्ठ क्षत्रियशिरोमणि पाण्डुनन्दन! पितृयज्ञों-द्वारा विधिपूर्वक पितरोंका, देवयज्ञोंद्वारा देवताओंका तथा वेदोंके स्वाध्यायद्वारा ऋषियोंका यत्नपूर्वक भली-भाँति पूजन करके अन्तकाल आनेपर जो क्षत्रिय दूसरे आश्रमोंको ग्रहण करनेकी इच्छा करता है, वह क्रमश: आश्रमोंको अपनाकर परम सिद्धिको प्राप्त होता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तिरसठवें अध्याय के श्लोक 22–30 का हिन्दी अनुवाद)

     गृहस्थ-धर्मोका त्याग कर देनेपर भी क्षत्रियको ऋषिभावसे वेदान्तश्रवण आदि संन्यास-धर्मका पालन करते हुए जीवनरक्षाके लिये ही भिक्षाका आश्रय लेना चाहिये, सेवा करानेके लिये नहीं। पर्याप्त दक्षिणा देनेवाले राजसिंह! यह भैक्ष्यचर्या क्षत्रिय आदि तीन वर्णोके लिये नित्य या अनिवार्य कर्म नहीं है। चारों आश्रमवासियोंका कर्म उनके लिये ऐच्छिक ही बताया गया है। राजन! राजधर्म बाहुबलके अधीन होता है। वह क्षत्रियके लिये जगतका श्रेष्ठतम धर्म है, उसका सेवन करनेवाले क्षत्रिय मानवमात्रकी रक्षा करते हैं। अतः तीनों वर्णोंके उपधर्मोंसहित जो अन्यान्य समस्त धर्म हैं। वे राजधर्मसे ही सुरक्षित रह सकते हैं, यह मैंने वेद-शास्त्रसे सुना है।

    नरेश्वर! जैसे हाथीके पदचिह्ममें सभी प्राणियोंके पदचिह्न विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सब धर्मोको सभी अवस्थाओंमें राजधर्मके भीतर ही समाविष्ट हुआ समझो, धर्मके ज्ञाता आर्य पुरुषोंका कथन है कि अन्य समस्त धर्मोंका आश्रय तो अल्प है ही, फल भी अल्प ही है। परंतु क्षात्रधर्मका आश्रय भी महान्‌ है और उसके फल भी बहुसंख्यक एवं परमकल्याणरूप हैं, अत: इसके समान दूसरा कोई धर्म नहीं है।

    सभी धर्मोमें राजधर्म ही प्रधान है; क्योंकि उसके द्वारा सभी वर्णोका पालन होता है। राजन! राजधर्मोमें सभी प्रकारके त्यागका समावेश है और ऋषिगण त्यागको सर्वश्रेष्ठ एवं प्राचीन धर्म बताते हैं। यदि दण्डनीति नष्ट हो जाय तो तीनों वेद रसातलको चले जायँ और वेदोंके नष्ट होनेसे समाजमें प्रचलित हुए सारे धर्मोका नाश हो जाय। पुरातन राजधर्म जिसे क्षात्रधर्म भी कहते हैं, यदि लुप्त हो जाय तो आश्रमोंके सम्पूर्ण धर्मोका ही लोप हो जायगा।

     राजाके धर्मामें सारे त्यागोंका दर्शन होता है, राजधर्मोमें सारी दीक्षाओंका प्रतिपादन हो जाता है, राजधर्ममें सम्पूर्ण विद्याओंका संयोग सुलभ है तथा राजधर्ममें सम्पूर्ण लोकोंका समावेश हो जाता है।

     व्याध आदि नीच प्रकृतिके मनुष्योंद्वारा मारे जाते हुए पशु-पक्षी आदि जीव जिस प्रकार घातकके धर्मका विनाश करनेवाले होते हैं, उसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष यदि राजधर्मसे रहित हो जायाँ तो धर्मका अनुसंधान करते हुए भी वे चोर-डाकुओंके उत्पातसे स्वधर्मके प्रति आदरका भाव नहीं रख पाते हैं और इस प्रकार जगत्‌की हानिमें कारण बन जाते हैं (अत: राजधर्म सबसे श्रेष्ठ है)।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वर्णाश्रम धर्मका वर्णनविषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टीका टिप्पणी ;—

  1. धृति, क्षमा, मनका निग्रह, चोरीका त्याग, बाहर-भीतरकी पवित्रता, इन्द्रियोंका निग्रह, सात्त्विक बुद्धि, सात््विक ज्ञान, सत्यभाषण और क्रोधका अभाव--ये दस धर्मके लक्षण हैं।

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

चौंसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चौसठवें अध्याय के श्लोक 1-30 का हिन्दी अनुवाद)

“राजधर्मकी श्रेष्ठताका वर्णन और इस विषयमें इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाताका संवाद”

    भीष्मजी कहते हैं ;-- पाण्डुनन्दन! चारों आश्रमोंके धर्म, यतिधर्म तथा लौकिक और वैदिक उत्तृष्ट धर्म सभी क्षात्रधर्ममें प्रतिष्ठित हैं। भरतश्रेष्ठ! ये सारे कर्म क्षात्रधर्मपर अवलम्बित हैं। यदि क्षात्रधर्म प्रतेष्ठित न हो तो जगत्‌के सभी जीव अपनी मनोवाञ्छित वस्तु पानेसे निराश हो जायेँ। आश्रमवासियोंका सनातन धर्म अनेक द्वारवाला और अप्रत्यक्ष है, विद्वान्‌ पुरुष शास्त्रोंद्वारा ही उसके स्वरूपका निर्णय करते हैं। अतः दूसरे वक्तालोग जो धर्मके तत्त्वको नहीं जानते, वे सुन्दर युक्तियुक्त वचनोंद्वारा लोगोंके विश्वासको नष्ट कर तब वे श्रोतागण प्रत्यक्ष उदाहरण न पाकर परलोकमें नष्ट- भ्रष्ट हो जाते हैं।

     जो धर्म प्रत्यक्ष है, अधिक सुखमय है, आत्माके साक्षित्वसे युक्त है, छलरहित है तथा सर्वलोकहितकारी है, वह धर्म क्षत्रियोंमें प्रतिष्ठित है  युधिष्ठिर! जैसे तीनों वर्णोके धर्मोका पहले क्षत्रिय-धर्ममें अन्तर्भाव बताया गया है, उसी प्रकार नैछ्िक ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और यति--इन तीनों आश्रमोंमें स्थित ब्राह्मणोंके धर्मोंका गाह्स्थ्याश्रममें समावेश होता है। राजेन्द्र! उत्तम चरित्रों (धर्मों) सहित सम्पूर्ण लोक राजधर्ममें अन्तर्भूत हैं। यह बात मैं तुमसे कह चुका हूँ। किसी समय बहुत-से शूरवीर नरेश दण्डनीतिकी प्राप्तिके लिये सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी महातेजस्वी सर्वव्यापी भगवान्‌ नारायण देवकी शरणमें गये थे।

     वे पूर्वकालमें आश्रमसम्बन्धी एक-एक कर्मकी दण्डनीतिके साथ तुलना करके संशयमें पड़ गये कि इनमें कौन श्रेष्ठ है? अतः सिद्धान्त जाननेके लिये उन राजाओंने भगवान्‌की उपासना की थी। साध्यदेव, वसुगण, अश्विनीकुमार, रुद्रगण, विश्वेदेवगण और मरुद्गण--ये देवता और सिद्धगण पूर्वकालमें आदिदेव भगवान्‌ विष्णुके द्वारा रचे गये हैं, जो क्षात्रधर्ममें ही स्थित रहते हैं।

     मैं इस विषयमें तात्विक अर्थका निश्चय करनेवाला एक धर्ममय इतिहास सुनाऊँगा। पहलेकी बात है, यह सारा जगत्‌ दानवताके समुद्रमें निमगन होकर उच्छुंखल हो चला था। राजेन्द्र! उन्हीं दिनों मान्धाता नामसे प्रसिद्ध एक पराक्रमी पृथ्वीपालक नरेश हुए थे, जिन्होंने आदि, मध्य और अन्तसे रहित भगवान्‌ नारायणदेवका दर्शन पानेकी इच्छासे एक यज्ञका अनुष्ठान किया। राजसिंह! राजा मान्धाताने उस यज्ञमें परमात्मा भगवान्‌ विष्णुके चरणोंकी भावनासे पृथ्वीपर मस्तक रखकर उन्हें प्रणाम किया। उस समय श्रीहरिने देवराज इन्द्रका रूप धारण करके उन्हें दर्शन दिया।

    श्रेष्ठ भूपालोंसे घिरे हुए मान्धाताने उन इन्द्ररूपधारी भगवान्‌का पूजन किया। फिर उन राजसिंह और महात्मा इन्द्रमें महातेजस्वी भगवान्‌ विष्णुके विषयमें यह महान्‌ संवाद हुआ।

     इन्द्र बोले ;-- धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश! आदिदेव पुराणपुरुष भगवान्‌ नारायण अप्रमेय हैं। वे अपनी अनन्त मायाशक्ति, असीम धैर्य तथा अमित बल-पराक्रमसे सम्पन्न हैं, तुम जो उनका दर्शन करना चाहते हो, उसका क्या कारण है? तुम्हें उनसे कौन-सी वस्तु प्राप्त करनेकी इच्छा है?। उन विश्वरूप भगवानको मैं और साक्षात्‌ ब्रह्माजी भी नहीं देख सकते। राजन! तुम्हारे हृदयमें जो दूसरी कामनाएँ हों, उन्हें मैं पूर्ण कर दूँगा; क्योंकि तुम मनुष्योंके राजा हो।

    नरेश्वर! तुम सत्यनिष्ठ, धर्मपरायण, जितेन्द्रिय और शुरवीर हो, देवताओंके प्रति अविचल प्रेमभाव रखते हो, तुम्हारी बुद्धि, भक्ति और उत्तम श्रद्धासे संतुष्ट होकर मैं तुम्हें इच्छानुसार वर दे रहा हूँ।

     मान्धाताने कहा ;-- भगवन्‌! मैं आपके चरणोंमें मस्तक झुकाकर आपको प्रसन्न करके आपकी ही दयासे आदिदेव भगवान्‌ विष्णुका दर्शन प्राप्त कर लूँगा, इसमें संशय नहीं है। इस समय मैं समस्त कामनाओंका परित्याग करके केवल धर्मसम्पादनकी इच्छा रखकर वनमें जाना चाहता हूँ; क्योंकि लोकमें सभी सत्पुरुष अन्तमें इसी सन्मार्गका दिग्दर्शन करा गये हैं।

    विशाल एवं अप्रमेय क्षात्रधर्मके प्रभावसे मैंने उत्तम लोक प्राप्त किये और सर्वत्र अपने यशका प्रचार एवं प्रसार कर दिया; परंतु आदिदेव भगवान्‌ विष्णुसे जिस धर्मकी प्रवृत्ति हुई है, उस लोकश्रेष्ठ धर्मका आचरण करना मैं नहीं जानता।

     इन्द्र बोले ;-- राजन्‌! आदिदेव भगवान्‌ विष्णुसे तो पहले राजधर्म ही प्रवृत्त हुआ है। अन्य सभी धर्म उसीके अंग हैं और उसके बाद प्रकट हुए हैं। जो सैनिक शक्तिसे सम्पन्न राजा नहीं हैं, वे धर्मपरायण होनेपर भी दूसरोंको अनायास ही धर्मविषयक परम गतिकी प्राप्ति नहीं करा सकते। क्षात्रधर्म ही सबसे श्रेष्ठ है। शेष धर्म असंख्य हैं और उनका फल भी विनाशशील है। इस क्षात्रधर्ममें सभी धर्मोका समावेश हो जाता है, इसलिये इसी धर्मको श्रेष्ठ कहते है।

     पूर्वकालमें भगवान्‌ विष्णुने क्षात्रधर्मके द्वारा ही शत्रुओंका दमन करके देवताओं तथा अमिततेजस्वी समस्त ऋषियोंकी रक्षा की थी। यदि वे अप्रमेय भगवान्‌ श्रीहरि समस्त शत्रुरूप असुरोंका संहार नहीं करते तो न कहीं ब्राह्मगोंका पता लगता, न जगतके आदिस्रष्टा ब्रद्माजी ही दिखायी देते। न यह धर्म रहता और न आदि धर्मका ही पता लग सकता था। देवताओंमें सर्वश्रेष्ठ आदिदेव भगवान्‌ विष्णु असुरों-सहित इस पृथ्वीको अपने बल और पराक्रमसे जीत नहीं लेते तो ब्राह्मणोंका नाश हो जानेसे चारों वर्ण और चारों आश्रमोंके सभी धर्मोका लोप हो जाता।

     वे सदासे चले आनेवाले धर्म सैकड़ों बार नष्ट हो चुके हैं, परंतु क्षात्रधर्मने उनका पुनः उद्धार एवं प्रसार किया है। युग-युगमें आदिधर्म (क्षात्रधर्म)-की प्रवृत्ति हुई है; इसलिये इस क्षात्रधर्मको लोकमें सबसे श्रेष्ठ बताते हैं |

युद्धमें अपने शरीरकी आहुति देना, समस्त प्राणियोंपर दया करना, लोकव्यवहारका ज्ञान प्राप्त करना, प्रजाकी रक्षा करना, विषादग्रस्त एवं पीड़ित मनुष्योंको दुःख और कष्टसे छुड़ाना--ये सब बातें राजाओंके क्षात्रधर्ममें ही विद्यमान हैं। जो लोग काम, क्रोधमें फँसकर उच्छुंखल हो गये हैं, वे भी राजाके भयसे ही पाप नहीं कर पाते हैं, तथा जो सब प्रकारके धर्मोंका पालन करनेवाले श्रेष्ठ पुरुष हैं वे राजासे सुरक्षित हो सदाचारका सेवन करते हुए धर्मका सदुपदेश करते हैं।

   राजाओंसे राजधर्मके द्वारा पुत्रकी भाँति पालित होनेवाले जगतके सम्पूर्ण प्राणी निर्भय विचरते हैं, इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार संसारमें क्षात्रधर्म ही सब धर्मोसे श्रेष्ठ सनातन, नित्य, अविनाशी, मोक्षतक पहुँचानेवाला सर्वतोमुखी है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वर्णाश्रम धर्मका वर्णनविषयक चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

पैंसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पैंसठवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाताका संवाद”

     इन्द्र कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार क्षात्रधर्म सब धर्मोमें श्रेष्ठ और शक्तिशाली है। यह सभी धर्मोसे सम्पन्न बताया गया है। तुम जैसे लोकहितैषी उदार पुरुषोंको सदा इस क्षात्रधर्मका ही पालन करना चाहिये। यदि इसका पालन नहीं किया जायगा तो प्रजाका नाश हो जायगा। समस्त प्राणियोंपर दया करनेवाले राजाको उचित है कि वह नीचे लिखे हुए कार्योंको ही श्रेष्ठ धर्म समझे। वह पृथ्वीका संस्कार करावे, राजसूय-अश्वमेधादि यज्ञोंमें अवभूथस्नान करे, भिक्षाका आश्रय न ले, प्रजाका पालन करे और संग्रामभूमिमें शरीरको त्याग दे।

       ऋषि-मुनि त्यागको ही श्रेष्ठ बताते हैं। उसमें भी युद्धमें राजालोग जो अपने शरीरका त्याग करते हैं, वह सबसे श्रेष्ठ त्याग है। सदा राजधर्ममें संलग्न रहनेवाले समस्त भूमिपालोंने जिस प्रकार युद्धमें प्राणत्याग किया है, वह सब तुम्हारी आँखोंके सामने है। क्षत्रिय ब्रह्मचारी धर्मपमालनकी इच्छा रखकर अनेक शास्त्रोंके ज्ञानका उपार्जन तथा गुरुशुश्रूषा करते हुए अकेला ही नित्य ब्रह्मचर्य-आश्रमके धर्मका आचरण करे। यह बात ऋषिलोग परस्पर मिलकर कहते हैं।

     जनसाधारणके लिये व्यवहार आरम्भ होनेपर राजा प्रिय और अप्रियकी भावनाका प्रयत्नपूर्वक परित्याग करे। भिन्न-भिन्न उपायों, नियमों, पुरुषार्थों तथा सम्पूर्ण उद्योगोंके द्वारा चारों वर्णोकी स्थापना एवं रक्षा करनेके कारण क्षात्रधर्म एवं गृहस्थ-आश्रमको ही सबसे श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण धर्मोंसे सम्पन्न बताया गया है; क्योंकि सभी वर्णोके लोग उस क्षात्रधर्मके सहयोगसे ही अपने-अपने धर्मका पालन करते हैं। क्षत्रियधर्मके न होनेसे उन सब धर्मोका प्रयोजन विपरीत होता है; ऐसा कहते हैं। जो लोग सदा अर्थसाधनमें ही आसक्त होकर मर्यादा छोड़ बैठते हैं, उन मनुष्योंको पशु कहा गया है। क्षत्रिय-धर्म अर्थकी प्राप्ति करानेके साथ-साथ उत्तम नीतिका ज्ञान प्रदान करता है; इसलिये वह आश्रम-धर्मोसे भी श्रेष्ठ है।

    तीनों वेदोंके विद्वान ब्राह्मणोंके लिये जो यज्ञादि कार्य विहित हैं तथा उनके लिये जो चारों आश्रम बताये गये हैं--उन्हींको ब्राह्मणका सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा गया है। इसके विपरीत आचरण करनेवाला ब्राह्मण शूद्रके समान ही शस्त्रोंद्वारा वधके योग्य है। राजन! चारों आश्रमोंके जो धर्म हैं तथा वेदोंमें जो धर्म बताये गये हैं, उन सबका अनुसरण ब्राह्मणको ही करना चाहिये। दूसरा कोई शूद्र आदि कभी किसी तरह भी उन धर्मोको नहीं जान सकता,

      जो ब्राह्मण इसके विपरीत आचरण करता है, उसके लिये ब्राह्मणोचित वृत्तिकी व्यवस्था नहीं की जाती। कर्मसे ही धर्मकी वृद्धि होती है। जो जिस प्रकारके धर्मको अपनाता है, वह वैसा ही हो जाता है। जो ब्राह्मण विपरीत कर्ममें स्थित होता है, वह सम्मान पानेका अधिकारी नहीं है। अपने कर्मका आचरण न करनेवाले ब्राह्मणको विश्वास न करने योग्य माना गया है। समस्त वर्णोमें स्थित हुए जो ये धर्म हैं, उन्हें क्षत्रियोंको उन्नतिके शिखरपर पहुँचाना चाहिये। यही क्षत्रियधर्म है, इसीलिये राजधर्म श्रेष्ठ है। दूसरे धर्म इस प्रकार श्रेष्ठ नहीं हैं। मेरे मतमें वीर क्षत्रियोंके धर्मोमें बल और पराक्रमकी प्रधानता है।

    मान्धाता बोले ;-- भगवन! मेरे राज्यमें यवन, किरात, गान्धार, चीन, शबर, बर्बर, शक, तुषार, कड़क, पह्नव, आन्ध्र, मद्रक, पौंड्र, पुलिन्द, रमठ और काम्बोज देशोंके निवासी म्लेच्छषण सब ओर निवास करते हैं, कुछ ब्राह्मणों और क्षत्रियोंकी भी संतानें हैं; कुछ वैश्य और शाद्र भी हैं, जो धर्मसे गिर गये हैं। ये सब-के-सब चोरी और डकैतीसे जीविका चलाते है। ऐसे लोग किस प्रकार धर्मोका आचरण करेंगे? मेरे-जैसे राजाओंको इन्हें किस तरह मर्यादाके भीतर स्थापित करना चाहिये?। भगवन! सुरेश्वर! यह मैं सुनना चाहता हूँ। आप मुझे यह सब बताइये; क्योंकि आप ही हम क्षत्रियोंके बन्धु हैं।

    इन्द्रने कहा ;-- राजन्‌! जो लोग दस्यु-वृत्तिसे जीवन निर्वाह करते हैं, उन सबको अपने माता-पिता, आचार्य, गुरु तथा आश्रमवासी मुनियोंकी सेवा करनी चाहिये। भूमिपालोंकी सेवा करना भी समस्त दस्युओंका कर्तव्य है। वेदोक्त धर्म-कर्मोंका अनुष्ठान भी उनके लिये शास्त्रविहित धर्म है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पैंसठवें अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)

      पितरोंका श्राद्ध करना, कुआँ खुदवाना, जलक्षेत्र चलाना और लोगोंके ठहरनेके लिये धर्मशालाएँ बनवाना भी उनका कर्तव्य है। उन्हें यथासमय ब्राह्मणोंको दान देते रहना चाहिये। अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोधशून्य बर्ताव, दूसरोंकी आजीविका तथा बँटवारेमें मिली हुई पैतृक सम्पत्तिकी रक्षा, स्त्री-पुत्रोंका भरण-पोषण, बाहर-भीतरकी शुद्धि रखना तथा द्रोहभावका त्याग करना--यह उन सबका धर्म है।

     कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको सब प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके ब्राह्मणोंको भरपूर दक्षिणा देनी चाहिये। सभी दस्युओंको अधिक खर्चवाला पाकयज्ञ करना और उसके लिये धन देना चाहिये। निष्पाप नरेश! इस प्रकार प्रजापति ब्रह्माने सब मनुष्योंके कर्तव्य पहले ही निर्दिष्ट कर दिये हैं। उन दस्युओंको भी इनका यथावत्‌ रूपसे पालन करना चाहिये।

    मान्धाता बोले ;-- भगवन्‌! मनुष्यलोकमें सभी वर्णों तथा चारों आश्रमोंमें भी डाकू और लुटेरे देखे जाते हैं, जो विभिन्न वेश-भूषाओंमें अपनेको छिपाये रखते हैं।

     इन्द्र बोले ;-- निष्पाप नरेश! जब राजाकी दुष्टताके कारण दण्डनीति नष्ट हो जाती है और राजधर्म तिरस्कृत हो जाता है, तब सभी प्राणी मोहवश कर्तव्य और अकर्तव्यका विवेक खो बैठते हैं। इस सत्ययुगके समाप्त हो जानेपर नानावेषधारी असंख्य भिक्षुक प्रकट हो जायँगे और लोग आश्रमोंके स्वरूपकी विभिन्न मनमानी कल्पना करने लगेंगे। लोग काम और क्रोधसे प्रेरित होकर कुमार्गपर चलने लगेंगे। वे पुराणप्रोक्त प्राचीन धर्मोके पालनका जो उत्तम फल है, उस विषयकी बात नहीं सुनेंगे। जब महामनस्वी राजालोग दण्डनीतिके द्वारा पापीको पाप करनेसे रोकते रहते हैं, तब सत्सस्‍्वरूप परमोत्कृष्ट सनातन धर्मका हास नहीं होता है।

    जो मनुष्य सम्पूर्ण लोकोंके गुरुस्वरूप राजाका अपमान करता है, उसके किये दान, होम और श्राद्ध कभी सफल नहीं होते हैं। राजा मनुष्योंका अधिपति, सनातन देवस्वरूप तथा धर्मकी इच्छा रखनेवाला होता है। देवता भी उसका अपमान नहीं करते हैं। भगवान्‌ प्रजापतिने जब इस सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि की थी, उस समय लोगोंको सत्कर्ममें लगाने और दुष्कर्मसे निवृत्त करनेके लिये उन्होंने धर्मरक्षाके हेतु क्षात्रबलको प्रतिष्ठित करनेकी अभिलाषा की थी।

     जो पुरुष प्रवृत्त धर्मकी गतिका अपनी बुद्धिसे विचार करता है, वही मेरे लिये माननीय और पूजनीय है; क्योंकि उसीमें क्षात्रधर्म प्रतिष्ठित है।

      भीष्मजी कहते हैं ;-- राजन्‌! मान्धाताको इस प्रकार उपदेश देकर इन्द्ररूपधारी भगवान्‌ विष्णु मरुदगणोंके साथ अविनाशी एवं सनातन परमपद विष्णुधामको चले गये। निष्पाप नरेश्वर! इस प्रकार प्राचीनकालमें भगवान्‌ विष्णुने ही राजधर्मको प्रचलित किया और सत्पुरुषोंद्वारा वह भलीभाँति आचरणमें लाया गया। ऐसी दशामें कौन ऐसा सचेत और बहुश्रुत विद्वान होगा, जो क्षात्रधर्मकी अवहेलना करेगा?। अन्यायपूर्वक क्षत्रिय-धर्मकी अवहेलना करनेसे प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म भी उसी प्रकार बीचमें ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे अन्धा मनुष्य रास्तेमें नष्ट हो जाता है।

     पुरुषसिंह! निष्पाप युधिष्ठिर! विधाताका यह आज्ञाचक्र (राजधर्म) आदि कालमें प्रचलित हुआ और पूर्ववर्ती महापुरुषोंका परम आश्रय बना रहा। तुम भी उसीपर चलो। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम इस क्षात्रधर्मके मार्गपर चलनेमें पूर्णतः समर्थ हो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें इन्द्र और मान्धाताका संवादविषयक पैंयठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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