सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के छप्पनवें अध्याय से साठवें अध्याय तक (From the 56 chapter to the 60 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))



सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

छप्पनवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छप्पनवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिरके पूछनेपर भीष्मके द्वारा राजधर्मका वर्णन, राजाके लिये पुरुषार्थ और सत्यकी आवश्यकता, ब्राह्मणोंकी अदण्डनीयता तथा राजाकी परिहासशीलता और मृदुतासे प्रकट होनेवाले दोष”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और भीष्मको प्रणाम करके युधिष्ठिरने समस्त गुरुजनोंकी अनुमति ले इस प्रकार प्रश्न किया।

    युधिष्ठिर बोले ;— पितामह! धर्मज्ञ विद्वानोंकी यह मान्यता है कि राजाओंका धर्म श्रेष्ठ है। मैं इसे बहुत बड़ा भार मानता हूँ, अतः भूपाल! आप मुझे राजधर्मका उपदेश कीजिये। पितामह! राजधर्म सम्पूर्ण जीवजगत्‌का परम आश्रय है; अतः आप राजधर्मोंका ही विशेषरूपसे वर्णन कीजिये। कुरुनन्दन! राजाके धर्मोंमें धर्म, अर्थ और काम तीनोंका समावेश है, और यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण मोक्षधर्म भी राजधर्ममें निहित है। जैसे घोड़ोंको काबूमें रखनेके लिये लगाम और हाथीको वशमें करनेके लिये अकुंश है, उसी प्रकार समस्त संसारको मर्यादाके भीतर रखनेके लिये राजधर्म आवश्यक है; वह उसके लिये प्रग्रह अर्थात् उसको नियन्त्रित करनेमें समर्थ माना गया है।

    प्राचीन राजर्षियोंद्वारा सेवित उस राजधर्ममें यदि राजा मोहवश प्रमाद कर बैठे तो संसारकी व्यवस्था ही बिगड़ जाय और सब लोग दुखी हो जायँ। जैसे सूर्यदेव उदय होते ही घोर अन्धकारका नाश कर देते हैं, उसी प्रकार राजधर्म मनुष्योंके अशुभ आचरणोंका, जो उन्हें पुण्य लोकोंसे वञ्चित कर देते हैं, निवारण करता है। अतः भरतश्रेष्ठ पितामह! आप सबसे पहले मेरे लिये राजधर्मोंका ही वर्णन कीजिये; क्योंकि आप धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ हैं। परंतप पितामह! हम सब लोगोंको आपसे ही शास्त्रोंके उत्तम सिद्धान्तका ज्ञान हो सकता है। भगवान् श्रीकृष्ण भी आपको ही बुद्धिमें सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।

    भीष्मजीने कहा ;— महान् धर्मको नमस्कार है। विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार है। अब मैं ब्राह्मणोंको नमस्कार करके सनातन धर्मोंका वर्णन आरम्भ करूँगा।

    युधिष्ठिर! अब तुम नियमपूर्वक एकाग्र हो मुझसे सम्पूर्णरूपसे राजधर्मोंका वर्णन सुनो, तथा और भी जो कुछ सुनना चाहते हो, उसका श्रवण करो। कुरुश्रेष्ठ! राजाको सबसे पहले प्रजाका रञ्जन अर्थात् उसे प्रसन्न रखनेकी इच्छासे देवताओं और ब्राह्मणोंके प्रति शास्त्रोक्त विधिके अनुसार बर्ताव करना चाहिये (अर्थात् वह देवताओंका विधिपूर्वक पूजन तथा ब्राह्मणोंका आदर-सत्कार करे)। कुरुकुलभूषण! देवताओं और ब्राह्मणोंका पूजन करके राजा धर्मके ऋणसे मुक्त होता है और सारा जगत् उसका सम्मान करता है। बेटा युधिष्ठिर! तुम सदा पुरुषार्थके लिये प्रयत्नशील रहना। पुरुषार्थके बिना केवल प्रारब्ध राजाओंका प्रयोजन नहीं सिद्ध कर सकता।

     यद्यपि कार्यकी सिद्धिमें प्रारब्ध और पुरुषार्थ—ये दोनों साधारण कारण माने गये हैं, तथापि मैं पुरुषार्थको ही प्रधान मानता हूँ। प्रारब्ध तो पहलेसे ही निश्चित बताया गया है। अतः यदि आरम्भ किया हुआ कार्य पूरा न हो सके अथवा उसमें बाधा पड़ जाय तो इसके लिये तुम्हें अपने मनमें दुःख नहीं मानना चाहिये। तुम सदा अपने आपको पुरुषार्थमें ही लगाये रखो। यही राजाओंकी सर्वोत्तम नीति है। सत्यके सिवा दूसरी कोई वस्तु राजाओंके लिये सिद्धिकारक नहीं है। सत्यपरायण राजा इहलोक और परलोकमें भी सुख पाता है।

    राजेन्द्र! ऋषियोंके लिये भी सत्य ही परम धन है। इसी प्रकार राजाओंके लिये सत्यसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा साधन नहीं है, जो प्रजावर्गमें उसके प्रति विश्वास उत्पन्न करा सके। जो राजा गुणवान्, शीलवान्, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाला, कोमलस्वभाव, धर्मपरायण, जितेन्द्रिय, देखनेमें प्रसन्नमुख और बहुत देनेवाला उदारचित्त है, वह कभी राजलक्ष्मीसे भ्रष्ट नहीं होता।

   कुरुनन्दन! तुम सभी कार्योंमें सरलता एवं कोमलताका अवलम्बन करना, परंतु नीतिशास्त्रकी आलोचनासे यह ज्ञात होता है कि अपने छिद्र, अपनी मन्त्रणा तथा अपने कार्य-कौशल—इन तीन बातोंको गुप्त रखनेमें सरलताका अवलम्बन करना उचित नहीं है।

    जो राजा सदा सब प्रकारसे कोमलतापूर्ण बर्ताव करने वाला ही होता है, उसकी आज्ञाका लोग उल्लघंन कर जाते हैं, और केवल कठोर बर्ताव करनेसे भी सब लोग उद्विग्न हो उठते हैं; अतः तुम आवश्यकतानुसार कठोरता और कोमलता दोनोंका अवलम्बन करो।

   दाताओंमें श्रेष्ठ बेटा पाण्डुकुमार युधिष्ठिर! तुम्हें ब्राह्मणोंको कभी दण्ड नहीं देना चाहिये; क्योंकि संसारमें ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ प्राणी है।  राजेन्द्र! कुरुनन्दन! महात्मा मनुने अपने धर्मशास्त्रोंमें दो श्लोकोंका गान किया है, तुम उन दोनोंको अपने हृदयमें धारण करो।

    ‘अग्नि जलसे, क्षत्रिय ब्राह्मणसे और लोहा पत्थरसे प्रकट हुआ है। इनका तेज अन्य सब स्थानोंपर तो अपना प्रभाव दिखाता है; परंतु अपनेको उत्पन्न करनेवाले कारणसे टक्कर लेनेपर स्वयं ही शान्त हो जाता है। ‘जब लोहा पत्थरपर चोट करता है, आग जलको नष्ट करने लगती है और क्षत्रिय ब्राह्मणसे द्वेष करने लगता है, तब ये तीनों ही दुःख उठाते हैं। अर्थात् ये दुर्बल हो जाते हैं। महाराज! ऐसा सोचकर तुम्हें ब्राह्मणोंको सदा नमस्कार ही करना चाहिये; क्योंकि वे श्रेष्ठ ब्राह्मण पूजित होनेपर भूतलके ब्रह्मको अर्थात् वेदको धारण करते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छप्पनवें अध्याय के श्लोक 27–40 का हिन्दी अनुवाद)

    पुरुषसिंह! यद्यपि ऐसी बात है, तथापि यदि ब्राह्मण भी तीनों लोकोंका विनाश करनेके लिये उद्यत हो जायँ तो ऐसे लोगोंको अपने बाहु-बलसे परास्त करके सदा नियन्त्रणमें ही रखना चाहिये। तात! नरेश्वर! इस विषयमें दो श्लोक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें पूर्वकालमें महर्षि शुक्राचार्यने गाया था। महाराज! तुम एकाग्रचित्त होकर उन दोनों श्लोकोंको सुनो। ‘वेदान्तका पारङ्गत विद्वान् ब्राह्मण ही क्यों न हो; यदि वह शस्त्र उठाकर युद्धमें सामना करनेके लिये आ रहा हो तो धर्मपालनकी इच्छा रखनेवाले राजाको अपने धर्मके अनुसार ही युद्ध करके उसे कैद कर लेना चाहिये।

    ‘जो राजा उसके द्वारा नष्ट होते हुए धर्मकी रक्षा करता है, वह धर्मज्ञ है। अतः उसे मारनेसे वह धर्मका नाशक नहीं माना जाता। वास्तवमें क्रोध ही उनके क्रोधसे टक्कर लेता है’। नरश्रेष्ठ! यह सब होनेपर भी ब्राह्मणोंकी तो सदा रक्षा ही करनी चाहिये; यदि उनके द्वारा अपराध बन गये हों तो उन्हें प्राणदण्ड न देकर अपने राज्यकी सीमासे बाहर करके छोड़ देना चाहिये।

   प्रजानाथ! इनमें कोई कलङ्कित हो तो उसपर भी कृपा ही करनी चाहिये। ब्रह्महत्या, गुरुपत्नीगमन, भ्रूणहत्या तथा राजद्रोहका अपराध होनेपर भी ब्राह्मणको देशसे निकाल देनेका ही विधान है—उसे शारीरिक दण्ड कभी नहीं देना चाहिये। जो मनुष्य ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति रखते हैं, वे सबके प्रिय होते हैं। राजाओंके लिये ब्राह्मणके भक्तोंका संग्रह करनेसे बढ़कर दूसरा कोई कोश नहीं है।

     महाराज! मरु (जलरहित भूमि), जल, पृथ्वी, वन, पर्वत और मनुष्य—इन छः प्रकारके दुर्गोंमें मानवदुर्ग ही प्रधान है। शास्त्रोंके सिद्धान्तको जाननेवाले विद्वान् उक्त सभी दुर्गोंमें मानव दुर्गको ही अत्यन्त दुर्लंघ्य मानते हैं। अतः विद्वान् राजाको चारों वर्णोंपर सदा दया करनी चाहिये, धर्मात्मा और सत्यवादी नरेश ही प्रजाको प्रसन्न रख पाता है। बेटा! तुम्हें सदा और सब ओर क्षमाशील ही नहीं बने रहना चाहिये; क्योंकि क्षमाशील हाथीके समान कोमल स्वभाववाला राजा दूसरोंको भयभीत न कर सकनेके कारण अधर्मके प्रसारमें ही सहायक होता है। महाराज! इसी बातके समर्थनमें बार्हस्पत्य-शास्त्रका एक प्राचीन श्लोक पढ़ा जाता है। मैं उसे बता रहा हूँ, सुनो।

    ‘नीच मनुष्य क्षमाशील राजाका सदा उसी प्रकार तिरस्कार करते रहते हैं, जैसे हाथीका महावत उसके सिरपर ही चढ़े रहना चाहता है’॥ जैसे वसन्त ऋतुका तेजस्वी सूर्य न तो अधिक ठंडक पहुँचाता है और न कड़ी धूप ही करता है, उसी प्रकार राजाको भी न तो बहुत कोमल होना चाहिये और न अधिक कठोर ही।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छप्पनवें अध्याय के श्लोक  41–55 का हिन्दी अनुवाद)

महाराज! प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और अताम—इन चारों प्रमाणोंके द्वारा सदा अपने-परायेकी पहचान करते रहना चाहिये। प्रचुर दक्षिणा देनेवाले नरेश्वर! तुम्हें सभी प्रकारके व्यसनोंको1 त्याग देना चाहिये; परंतु साहस आदिका भी सर्वथा प्रयोग न किया जाय, ऐसी बात नहीं है (क्योंकि शत्रुविजय आदिके लिये उसकी आवश्यकता है); अतः सभी प्रकारके व्यसनोंकी आसक्तिका परित्याग करना चाहिये।

   व्यसनोंमें आसक्त हुआ राजा सदा सब लोगोंके अनादरका पात्र होता है और जो भूपाल सबके प्रति अत्यन्त द्वेष रखता है, वह सब लोगोंको उद्वेगयुक्त कर देता है। महाराज! राजाका प्रजाके साथ गर्भिणी स्त्रीका-सा बर्ताव होना चाहिये। किस कारणसे ऐसा होना उचित है, यह बताता हूँ, सुनो।

    जैसे गर्भवती स्त्री अपने मनको अच्छे लगने-वाले प्रिय भोजन आदिका भी परित्याग करके केवल गर्भस्थ बालकके हितका ध्यान रखती है, उसी प्रकार धर्मात्मा राजाको भी चाहिये कि निःसंदेह वैसा ही बर्ताव करे। कुरुश्रेष्ठ! राजा अपनेको प्रिय लगनेवाले विषयका परित्याग करके जिसमें सब लोगोंका हित हो वही कार्य करे। पाण्डुनन्दन! तुम्हें कभी भी धैर्यका त्याग नहीं करना चाहिये। जो अपराधियोंको दण्ड देनेमें संकोच नहीं करता और सदा धैर्य रखता है, उस राजाको कभी भय नहीं होता। वक्ताओंमें श्रेष्ठ राजसिंह! तुम्हें सेवकोंके साथ अधिक हँसी-मजाक नहीं करना चाहिये; इसमें जो दोष है, वह मुझसे सुनो। राजासे जीविका चलानेवाले सेवक अधिक मुँहलगे हो जानेपर मालिकका अपमान कर बैठते हैं। वे अपनी मर्यादामें स्थिर नहीं रहते और स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन करने लगते हैं।

    वे जब किसी कार्यके लिये भेजे जाते हैं तो उसकी सिद्धिमें संदेह उत्पन्न कर देते हैं। राजाकी गोपनीय त्रुटियोंको भी सबके सामने ला देते हैं। जो वस्तु नहीं माँगनी चाहिये उसे भी माँग बैठते हैं, तथा राजाके लिये रक्खे हुए भोज्य पदार्थोंको स्वयं खा लेते हैं। राज्यके अधिपति भूपालको कोसते हैं, उनके प्रति क्रोधसे तमतमा उठते हैं; घूस लेकर और धोखा देकर राजाके कार्योंमें विघ्न डालते हैं।

    वे जाली आज्ञापत्र जारी करके राजाके राज्यको जर्जर कर देते हैं। रनवासके रक्षकोंसे मिल जाते हैं अथवा उनके समान ही वेशभूषा धारण करके वहाँ घूमते फिरते हैं। राजाके पास ही मुँह बाकर जँभाई लेते और थूकते हैं, नृपश्रेष्ठ! वे मुँहलगे नौकर लाज छोड़कर मनमानी बातें बोलते हैं। नृपशिरोमणे! परिहासशील कोमलस्वभाववाले राजाको पाकर सेवकगण उसकी अवहेलना करते हुए उसके घोड़े, हाथी अथवा रथको अपनी सवारीके काममें लाते हैं। आम दरबारमें बैठकर दोस्तोंकी तरह बराबरीका बर्ताव करते हुए कहते हैं कि ‘राजन्! आपसे इस कामका होना कठिन है, आपका यह बर्ताव बहुत बुरा है’॥

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छप्पनवें अध्याय के श्लोक  56–61 का हिन्दी अनुवाद)

     इस बातसे यदि राजा कुपित हुए तो वे उन्हें देखकर हँस देते हैं और उनके द्वारा सम्मानित होनेपर भी वे धृष्ट सेवक प्रसन्न नहीं होते। इतना ही नहीं, वे सेवक परस्पर स्वार्थ-साधनके निमित्त राजसभामें ही राजाके साथ विवाद करने लगते हैं।

    राजकीय गुप्त बातों तथा राजाके दोषोंको भी दूसरों पर प्रकट कर देते हैं। राजाके आदेशकी अवहेलना करके खिलवाड़ करते हुए उसका पालन करते हैं। पुरुषसिंह! राजा पास ही खड़ा-खड़ा सुनता रहता है निर्भय होकर उसके आभूषण पहनने, खाने, नहाने और चन्दन लगाने आदिका मजाक उड़ाया करते हैं। भारत! उनके अधिकारमें जो काम सौंपा जाता है, उसको वे बुरा बताते और छोड़ देते हैं। उन्हें जो वेतन दिया जाता है, उससे वे संतुष्ट नहीं होते हैं और राजकीय धनको हड़पते रहते हैं।

जैसे लोग डोरेमें बँधी हुई चिड़ियाके साथ खेलते हैं, उसी प्रकार वे भी राजाके साथ खेलना चाहते हैं और साधारण लोगोंसे कहा करते हैं कि ‘राजा तो हमारा गुलाम है’। युधिष्ठिर! राजा जब परिहासशील और कोमल-स्वभावका हो जाता है, तब ये ऊपर बताये हुए तथा दूसरे दोष भी प्रकट होते हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टीका टिप्पणी ;–

  1. व्यसन अठारह प्रकारके बताये गये हैं। इनमें दस तो कामज हैं, और आठ क्रोधज। शिकार, जूआ, दिनमें सोना, परनिन्दा, स्त्रीसेवन, मद, वाद्य, गीत, नृत्य और मदिरापान—ये दस कामज व्यसन बताये गये हैं। चुगली, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, असूया, अर्थदूषण, वाणीकी कठोरता और दण्डकी कठोरता—ये आठ क्रोधज व्यसन कहे गये हैं। 

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

सत्तावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सत्तावनवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“राजाके धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्तावका वर्णन”

    भीष्मजी कहते हैं ;— युधिष्ठिर! राजाको सदा ही उद्योगशील होना चाहिये। जो उद्योग छोड़कर स्त्रीकी भाँति बेकार बैठा रहता है, उस राजाकी प्रशंसा नहीं होती है। प्रजानाथ! इस विषयमें भगवान् शुक्राचार्यने एक श्लोक कहा है, उसे मैं बता रहा हूँ। तुम यहाँ एकाग्रचित्त होकर मुझसे उस श्लोकको सुनो, जैसे साँप बिलमें रहनेवाले चूहोंको निगल जाता है, उसी प्रकार दूसरोंसे लड़ाई न करनेवाले राजा तथा विद्याध्ययन आदिके लिये घर छोड़कर अन्यत्र न जानेवाले ब्राह्मणको पृथ्वी निगल जाती है (अर्थात् वे पुरुषार्थ-साधन किये बिना ही मर जाते हैं)’। अतः नरश्रेष्ठ! तुम इस बातको अपने हृदयमें धारण कर लो, जो संधि करनेके योग्य हों, उनसे संधि करो और जो विरोधके पात्र हों, उनका डटकर विरोध करो।

    राज्यके सात अङ्ग हैं—राजा, मन्त्री, मित्र, खजाना, देश, दुर्ग और सेना। जो इन सात अङ्गोंसे युक्त राज्यके विपरीत आचरण करे, वह गुरु हो या मित्र, मार डालनेके ही योग्य है। राजेन्द्र! पूर्वकालमें राजा मरुत्तने एक प्राचीन श्लोकका गान किया था, जो बृहस्पतिके मतानुसार राजाके अधिकारके विषयमें प्रकाश डालता है। ‘घमंडमें भरकर कर्तव्य और अकर्तव्यका ज्ञान न रखनेवाला तथा कुमार्गपर चलनेवाला मुनष्य यदि अपना गुरु हो तो उसे भी दण्ड देनेका सनातन विधान है’।

    बाहुके पुत्र बुद्धिमान् राजा सगरने तो पुरवासियोंके हितकी इच्छासे अपने ज्येष्ठ पुत्र असमंजाका भी त्याग कर दिया था। नरेश्वर! असमंजा पुरवासियोंके बालकोंको पकड़कर सरयूनदीमें डुबा दिया करता था; अतः उसके पिताने उसे दुत्कारकर घरसे बाहर निकाल दिया। उद्दालक ऋषिने अपने प्रिय पुत्र महातपस्वी श्वेतकेतुको केवल इस अपराधसे त्याग दिया कि वह ब्राह्मणोंके साथ मिथ्या एवं कपटपूर्ण व्यवहार करता था। अतः इस लोकमें प्रजावर्गको प्रसन्न रखना ही राजाओंका सनातन धर्म है। सत्यकी रक्षा और व्यवहारकी सरलता ही राजोचित कर्तव्य है। दूसरोंके धनका नाश न करे। जिसको जो कुछ देना हो, उसे वह समयपर दिलानेकी व्यवस्था करे। पराक्रमी, सत्यवादी और क्षमाशील बना रहे—ऐसा करनेवाला राजा कभी पथभ्रष्ट नहीं होता।

     जिसने अपने मनको वशमें कर लिया है, क्रोधको जीत लिया है तथा शास्त्रोंके सिद्धान्तका निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके प्रयत्नमें निरन्तर लगा रहता है, जिसे तीनों वेदोंका ज्ञान है तथा जो अपने गुप्त विचारोंको दूसरोंपर प्रकट नहीं होने देता है, वही राजा होने योग्य है, प्रजाकी रक्षा न करनेसे बढ़कर राजाओंके लिये दूसरा कोई पाप नहीं है। राजाको चारों वर्णोंके धर्मोंकी रक्षा करनी चाहिये, प्रजाको धर्मसंकरतासे बचाना राजाओंका सनातन धर्म है।

    राजा किसीपर भी विश्वास न करे। विश्वसनीय व्यक्तिका भी अत्यन्त विश्वास न करे। राजनीतिके छः गुण होते हैं—सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय। इन सबके गुण-दोषोंका अपनी बुद्धिद्वारा सदा निरीक्षण करे। शत्रुओंके छिद्र देखनेवाले राजाकी सदा ही प्रशंसा की जाती है। जिसे धर्म, अर्थ और कामके तत्त्वका ज्ञान है तथा जिसने शत्रुओंकी गुप्त बातोंको जानने और उनके मन्त्री आदिको फोड़नेके लिये गुप्तचर लगा रखा है, वह भी प्रशंसाके ही योग्य है।

    राजाको उचित है कि वह सदा अपने कोषागारको भरा-पूरा रखनेका प्रयत्न करता रहे, उसे न्याय करनेमें यमराज और धन-संग्रह करनेमें कुबेरके समान होना चाहिये। वह स्थान, वृद्धि तथा क्षयके हेतुभूत दस1 वर्गोंका सदा ज्ञान रखे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सत्तावनवें अध्याय के श्लोक 19–32 का हिन्दी अनुवाद)

     जिनके भरण-पोषणका प्रबन्ध न हो उनका पोषण राजा स्वयं करे और उसके द्वारा जिनका भरण-पोषण चल रहा हो, उन सबकी देखभाल रखे। राजाको सदा प्रसन्नमुख रहना और मुसकराते हुए वार्तालाप करना चाहिये। राजाको वृद्ध पुरुषोंकी उपासना (सेवा या संग) करनी चाहिये, वह आलस्यको जीते और लोलुपताका परित्याग करे। सत्पुरुषोंके व्यवहारमें मन लगावे। संतुष्ट होने योग्य स्वभाव बनाये रखे। वेश-भूषा ऐसी रखे, जिससे वह देखनेमें अत्यन्त मनोहर जान पड़े।

   साधुपुरुषोंके हाथसे कभी धन न छीने। असाधु पुरुषोंसे दण्डके रूपमें धन लेना चाहिये; साधु पुरुषोंको तो धन देना चाहिये। स्वयं दुष्टोंपर प्रहार करे, दानशील बने, मनको वशमें रखे, सुरम्य साधनसे युक्त रहे, समय-समयपर धनका दान और उपभोग भी करे तथा निरन्तर शुद्ध एवं सदाचारी बना रहे।

     जो शूरवीर एवं भक्त हों, जिन्हें विपक्षी फोड़ न सकें, जो कुलीन, नीरोग एवं शिष्ट हों तथा शिष्ट पुरुषोंसे सम्बन्ध रखते हों, जो आत्मसम्मानकी रक्षा करते हुए दूसरोंका कभी अपमान न करते हों, धर्मपरायण, विद्वान्, लोकव्यवहारके ज्ञाता और शत्रुओंकी गतिविधिपर दृष्टि रखनेवाले हों, जिनमें साधुता भरी हो तथा जो पर्वतोंके समान अटल रहनेवाले हों, ऐसे लोगोंको ही राजा सदा अपना सहायक बनावे और उन्हें ऐश्वर्यका पुरस्कार दे। उन्हें अपने समान ही सुखभोगकी सुविधा प्रदान करे, केवल राजोचित छत्र धारण करना और सबको आज्ञा प्रदान करना—इन दो बातोंमें ही वह उन सहायकोंकी अपेक्षा अधिक रहे।

     प्रत्यक्ष और परोक्षमें भी उनके साथ राजाका एक-सा ही बर्ताव होना चाहिये। ऐसा करनेवाला नरेश इस जगत्‌में कभी कष्ट नहीं उठाता। जो राजा सबपर संदेह करता और सबका सर्वस्व हर लेता है, वह लोभी और कुटिल राजा एक दिन अपने ही लोगोंके हाथसे शीघ्र मारा जाता है।

    जो भूपाल बाहर-भीतरसे शुद्ध रहकर प्रजाके हृदयको अपनानेका प्रयत्न करता है, वह शत्रुओंका आक्रमण होनेपर भी उनके वशमें नहीं पड़ता, यदि उसका पतन हुआ भी तो वह सहायकोंको पाकर शीघ्र ही उठ खड़ा होता है। जिसमें क्रोधका अभाव होता है, जो दुर्व्यसनोंसे दूर रहता है, जिसका दण्ड भी कठोर नहीं होता तथा जो अपनी इन्द्रियोंपर विजय पा लेता है, वह राजा हिमालयके समान सम्पूर्ण प्राणियोंका विश्वासपात्र बन जाता है।

     जो बुद्धिमान्, त्यागी, शत्रुओंकी दुर्बलता जाननेके प्रयत्नमें तत्पर, देखनेमें सुन्दर, सभी वर्णोंके न्याय और अन्यायको समझनेवाला, शीघ्र कार्य करनेमें समर्थ, क्रोधपर विजय पानेवाला, आश्रितोंपर कृपा करनेवाला, महामनस्वी, कोमल स्वभावसे युक्त, उद्योगी, कर्मठ तथा आत्मप्रशंसासे दूर रहनेवाला है, जिस राजाके आरम्भ किये हुए सभी कार्य सुन्दर रूपसे समाप्त होते दिखायी देते हैं, वह समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ है॥

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सत्तावनवें अध्याय के श्लोक 33–45 का हिन्दी अनुवाद)

    जैसे पुत्र अपने पिताके घरमें निर्भीक होकर रहते हैं, उसी प्रकार जिस राजाके राज्यमें मनुष्य निर्भय होकर विचरते हैं, वह सब राजाओंमें श्रेष्ठ है। जिसके राज्य अथवा नगरमें निवास करनेवाले लोग (चोरोंसे भय न होनेके कारण) अपने धनको छिपाकर न रखते हों तथा न्याय और अन्यायको समझते हों, वह राजा समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ है।

     जिसके राज्यमें निवास करनेवाले लोग विधिपूर्वक सुरक्षित एवं पालित होकर अपने-अपने कर्ममें संलग्न, शरीरमें आसक्ति न रखनेवाले और जितेन्द्रिय हों, अपने वशमें रहते हों, शिक्षा देने और ग्रहण करने योग्य हों, आज्ञा पालन करते हों, कलह और विवादसे दूर रहते हों और दान देनेकी रुचि रखते हों, वह राजा श्रेष्ठ है।

    जिस भूपालके राज्यमें कूटनीति, कपट, माया तथा ईर्ष्याका सर्वथा अभाव हो उसीके द्वारा सनातन धर्मका पालन होता है। जो ज्ञान एवं ज्ञानियोंका सत्कार करता है, शास्त्रके ज्ञातव्य विषयको समझने तथा परहित-साधन करनेमें संलग्न रहता है, सत्पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाला और स्वार्थत्यागी है, वही राजा राज्य चलानेके योग्य समझा जाता है।

      जिसके गुप्तचर, गुप्त विचार, निश्चय किए हुए करने योग्य कर्म और किये हुए कर्म शत्रुओंद्वारा कभी जाने न जा सकें, वही राजा राज्य पानेका अधिकारी है।

   भारत! महात्मा भार्गवने पूर्वकालमें किसी राजाके प्रति राजोचित कर्तव्यका वर्णन करते समय इस श्लोकका गान किया था। ‘मनुष्य पहले राजाको प्राप्त करे। उसके बाद पत्नीका परिग्रह और धनका संग्रह करे। लोकरक्षक राजाके न होनेपर कैसे भार्या सुरक्षित रहेगी और किस तरह धनकी रक्षा हो सकेगी?’

    राज्य चाहनेवाले राजाओंके लिये राज्यमें प्रजाओंकी भलीभाँति रक्षाको छोड़कर और कोई सनातन धर्म नहीं है, रक्षा ही जगत्‌को धारण करनेवाली है॥ राजेन्द्र! प्राचेतस मनुने राजधर्मके विषयमें ये दो श्लोक कहे हैं। तुम एकचित होकर उन दोनों श्लोकोंको यहाँ सुनो।

   राजेन्द्र! प्राचेतस मनुने राजधर्मके विषयमें ये दो श्लोक कहे हैं। तुम एकचित होकर उन दोनों श्लोकोंको यहाँ सुनो। ‘जैसे समुद्रकी यात्रामें टूटी हुई नौकाका त्याग कर दिया जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि वह उपदेश न देनेवाले आचार्य, वेदमन्त्रोंका उच्चारण न करनेवाले ऋत्विज्, रक्षा न कर सकने-वाले राजा, कटु वचन बोलनेवाली स्त्री, गाँवमें रहनेकी इच्छा रखनेवाले ग्वाले और जंगलमें रहनेकी कामना करनेवाले नाई—इन छः व्यक्तियोंका त्याग कर दे’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टीका टिप्पणी ;—

  1. यदि शत्रुपर चढ़ाई की जाय और वह अपनेसे बलवान् सिद्ध हो तो उससे मेल कर लेना ‘सन्धि’ नामक गुण है। यदि दोनोंमें समान बल हो तो लड़ाई जारी रखना ‘विग्रह’ है। यदि शत्रु दुर्बल हो तो उस अवस्थामें उसके दुर्ग आदिपर जो आक्रमण किया जाता है, उसे ‘यान’ कहते हैं। यदि अपने ऊपर शत्रुकी ओरसे आक्रमण हो और शत्रुका पक्ष प्रबल जान पड़े तो उस समय अपनेको दुर्ग आदिमें छिपाये रखकर जो आत्मरक्षा की जाती है, वह ‘आसन’ कहलाता है। यदि चढ़ाई करनेवाला शत्रु मध्यम श्रेणीका हो तो ‘द्वैधीभाव’ का सहारा लिया जाता है। उसमें ऊपरसे दूसरा भाव दिखाया जाता है और भीतर दूसरा ही भाव रखा जाता है। जैसे आधी सेना दुर्गमें रखकर आत्मरक्षा करना और आधीको भेजकर शत्रुओंके अन्न आदि सामग्रीपर कब्जा करना आदि कार्य ‘द्वैधीभाव’ नीतिके अन्तर्गत हैं। आक्रमणकारीसे पीड़ित होनेपर किसी मित्र राजाका सहारा लेकर उसके साथ लड़ाई छेड़ना ‘समाश्रय’ कहलाता है। 

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

अट्ठावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अट्ठावनवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्मद्वारा राज्यरक्षाके साधनोंका वर्णन तथा संध्याके समय युधिष्ठिर आदिका विदा होना और रास्तेमें स्नान-संध्यादि नित्यकर्मसे निवृत्त होकर हस्तिनापुरमें प्रवेश”

    भीष्मजी कहते हैं ;— युधष्ठिर! यह मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, राजधर्मरूपी दूधका माखन है। भगवान् बृहस्पति इस न्यायानुकूल धर्मकी ही प्रशंसा करते हैं। इनके सिवा भगवान् विशालाक्ष, महातपस्वी शुक्राचार्य, सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्र, प्राचेतस मनु, भगवान् भरद्वाज और मुनिवर गौरशिरा—ये सभी ब्राह्मणभक्त और ब्रह्मवादी लोग राजशास्त्रके प्रणेता हैं, ये सब राजाके लिये प्रजापालनरूप धर्मकी ही प्रशंसा करते हैं। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ कमलनयन युधिष्ठिर! इस रक्षात्मक धर्मके साधनोंका वर्णन करता हूँ, सुनो॥

    युधिष्ठिर! गुप्तचर (जासूस) रखना, दूसरे राष्ट्रोंमें अपना प्रतिनिधि (राजदूत) नियुक्त करना, सेवकोंको उनके प्रति ईर्ष्या न रखते हुए समयपर वेतन और भत्ता देना, युक्तिसे कर लेना, अन्यायसे प्रजाके धनको न हड़पना, सत्पुरुषोंका संग्रह करना, शूरता, कार्यदक्षता, सत्यभाषण, प्रजाका हित-चिन्तन, सरल या कुटिल उपायोंसे भी शत्रुपक्षमें फूट डालना, पुराने घरोंकी मरम्मत एवं मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराना, दीन-दुखियोंकी देखभाल करना, समयानुसार शारीरिक और आर्थिक दोनों प्रकारके दण्डका प्रयोग करना, साधु पुरुषोंका त्याग न करना, कुलीन मनुष्योंको अपने पास रखना, संग्रहयोग्य वस्तुओंका संग्रह करना, बुद्धिमान् पुरुषोंका सेवन करना, पुरस्कार आदिके द्वारा सेनाका हर्ष और उत्साह बढ़ाना, नित्य-निरन्तर प्रजाकी देख-भाल करना, कार्य करनेमें कष्टका अनुभव न करना, कोषको बढ़ाना, नगरकी रक्षाका पूरा प्रबन्ध करना, इस विषयमें दूसरोंके विश्वासपर न रहना, पुरवासियोंने अपने विरुद्ध कोई गुटबंदी की हो तो उसमें फूट डलवा देना, शत्रु, मित्र और मध्यस्थोंपर यथोचित दृष्टि रखना, दूसरोंके द्वारा अपने सेवकोंमें भी गुटबंदी न होने देना, स्वयं ही अपने नगरका निरीक्षण करना, स्वयं किसीपर भी पूरा विश्वास न करना, दूसरोंको आश्वासन देना, नीतिधर्मका अनुसरण करना, सदा ही उद्योगशील बने रहना, शत्रुओंकी ओरसे सावधान रहना और नीच कर्मों तथा दुष्ट पुरुषोंको सदाके लिये त्याग देना—ये सभी राज्यकी रक्षाके साधन हैं॥

     बृहस्पतिने राजाओंके लिये उद्योगके महत्त्वका प्रतिपादन किया है। उद्योग ही राजधर्मका मूल है। इस विषयमें जो श्लोक हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो। ‘देवराज इन्द्रने उद्योगसे ही अमृत प्राप्त किया, उद्योगसे ही असुरोंका संहार किया तथा उद्योगसे ही देवलोक और इहलोकमें श्रेष्ठता प्राप्त की। ‘जो उद्योगमें वीर है, वह पुरुष केवल वाग्वीर पुरुषोंपर अपना आधिपत्य जमा लेता है। वाग्वीर विद्वान् उद्योगवीर पुरुषोंका मनोरञ्जन करते हुए उनकी उपासना करते हैं।

    ‘जो राजा उद्योगहीन होता है, वह बुद्धिमान् होनेपर भी विषहीन सर्पके समान सदैव शत्रुओंके द्वारा परास्त होता रहता है। ‘बलवान् पुरुष कभी दुर्बल शत्रुकी भी अवहेलना न करे अर्थात् उसे छोटा समझकर उसकी ओरसे लापरवाही न दिखावे; क्योंकि आग थोड़ी-सी हो तो भी जला डालती है और विष कम मात्रामें हो तो भी मार डालता है। ‘चतुरङ्गिणी सेनाके एक अङ्गसे भी सम्पन्न हुआ शत्रु दुर्गका आश्रय लेकर समृद्धिशाली राजाके समूचे देशको भी संतप्त कर डालता है’।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अट्ठावनवें अध्याय के श्लोक 19–30 का हिन्दी अनुवाद)

     राजाके लिये जो गोपनीय रहस्यकी बात हो, शत्रुओंपर विजय पानेके लिये वह जो लोगोंका संग्रह करता हो, विजयके ही उद्देश्यसे उसके हृदयमें जो कार्य छिपा हो अथवा उसे जो न करने योग्य असत्-कार्य करना हो, वह सब कुछ उसे सरलभावसे ही छिपाये रखना चाहिये। वह लोगोंमें अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखनेके लिये सदा धार्मिक कर्मोंका अनुष्ठान करे॥

    राज्य एक बहुत बड़ा तन्त्र है। जिन्होंने अपने मनको वशमें नहीं किया है, ऐसे क्रूर-स्वभाववाले राजा उस विशाल तन्त्रको सँभाल नहीं सकते। इसी प्रकार जो बहुत कोमल प्रकृतिके होते हैं, वे भी इसका भार वहन नहीं कर सकते। उनके लिये राज्य बड़ा भारी जंजाल हो जाता है।

    युधिष्ठिर! राज्य सबके उपभोगकी वस्तु है; अतः सदा सरल भावसे ही उसकी सँभाल की जा सकती है। इसलिये राजामें क्रूरता और कोमलता दोनों भावोंका सम्मिश्रण होना चाहिये। प्रजाकी रक्षा करते हुए राजाके प्राण चले जायँ तो भी वह उसके लिये महान् धर्म है। राजाओंके व्यवहार और बर्ताव ऐसे ही होने चाहिये।

    कुरुश्रेष्ठ! यह मैंने तुम्हारे सामने राजधर्मोंका लेशमात्र वर्णन किया है। अब तुम्हें जिस बातमें संदेह हो, वह पूछो।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! भीष्मजीका यह वक्तव्य सुनकर भगवान् व्यास, देवस्थान, अश्म, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण, कृपाचार्य, सात्यकि और संजय बड़े प्रसन्न हुए और हर्षसे खिले हुए मुखोंद्वारा साधुवाद देते हुए धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ पुरुषसिंह भीष्मजीकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।

     तत्पश्चात् कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिरने मन-ही-मन दुखी हो दोनों नेत्रोंमें आँसू भरकर धीरेसे भीष्मजीके चरण छूए और कहा,

     युधिष्ठिर ने कहा ;— ‘पितामह! इस समय भगवान् सूर्य अपनी किरणोंद्वारा पृथ्वीके रसका शोषण करके अस्ताचलको जा रहे हैं; इसलिये अब मैं कल आपसे अपना संदेह पूछूँगा’। तदनन्तर ब्राह्मणोंको प्रणाम करके भगवान् श्रीकृष्ण, कृपाचार्य तथा युधिष्ठिर आदिने महानदी गङ्गाके पुत्र भीष्मजीकी परिक्रमा की। फिर वे प्रसन्नतापूर्वक अपने रथोंपर आरूढ़ हो गये।

    फिर दृषद्वती नदीमें स्नान करके उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वे शत्रुसंतापी वीर विधिपूर्वक संध्या, तर्पण और जप आदि मङ्गलकारी कर्मोंका अनुष्ठान करके वहाँसे हस्तिनापुरमें चले आये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिर आदिका अपने निवासस्थानको प्रस्थानविषयक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

उनसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनसठवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्रह्माजीके नीतिशास्त्रका तथा राजा पृथुके चरित्रका वर्णन”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! तदनन्तर दूसरे दिन सबेरे उठकर पाण्डव और यदुवंशी वीर पूर्वाह्णकालके नित्यकर्म पूर्ण करनेके अनन्तर नगराकार विशाल रथोंपर सवार हो हस्तिनापुरसे चल दिये।

     निष्पाप नरेश! कुरुक्षेत्रमें जा रथियोंमें श्रेष्ठ गङ्गा-नन्दन भीष्मजीके पास पहुँचकर उनसे सुखपूर्वक रात बीतनेका समाचार पूछकर व्यास आदि महर्षियोंको प्रणाम करके उन सबके द्वारा अभिनन्दित हो वे पाण्डव और श्रीकृष्ण भीष्मजीको सब ओरसे घेरकर उनके पास ही बैठ गये। तब महातेजस्वी राजा धर्मराज युधिष्ठिरने भीष्मजीका विधिपूर्वक पूजन करके उनसे दोनों हाथ जोड़कर कहा।

    युधिष्ठिर बोले ;— शत्रुओंको संताप देनेवाले भरत-वंशी नरेश! लोकमें जो यह राजा शब्द चल रहा है, इसकी उत्पत्ति कैसे हुई है? यह मुझे बतानेकी कृपा करें।

    जिसे हम राजा कहते हैं, वह सभी गुणोंमें दूसरोंके समान ही है। उसके हाथ, बाँह और गर्दन भी औरोंकी ही भाँति हैं। बुद्धि और इन्द्रियाँ भी दूसरे लोगोंके ही तुल्य हैं। उसके मनमें भी दूसरे मनुष्योंके समान ही सुख-दुःखका अनुभव होता है। मुँह, पेट, पीठ, वीर्य, हड्डी, मज्जा, मांस, रक्त, उच्छ्‌वास, निःश्वास, प्राण, शरीर, जन्म और मरण आदि सभी बातें राजामें भी दूसरोंके समान ही हैं। फिर वह विशिष्ट बुद्धि रखनेवाले अनेक शूरवीरोंपर अकेला ही कैसे अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है?।

     अकेला होनेपर भी वह शूरवीर एवं सत्पुरुषोंसे भरी हुई इस सारी पृथ्वीका कैसे पालन करता है और कैसे सम्पूर्ण जगत्‌की प्रसन्नता चाहता है?। यह निश्चित रूपसे देखा जाता है कि एकमात्र राजाकी प्रसन्नतासे ही सारा जगत् प्रसन्न होता है और उस एकके ही व्याकुल होनेपर सब लोग व्याकुल हो जाते हैं। भरतश्रेष्ठ! इसका क्या कारण है? यह मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ। वक्ताओंमें श्रेष्ठ पितामह! यह सारा रहस्य मुझे यथावत् रूपसे बताइये।

   प्रजानाथ! यह सारा जगत् जो एक ही व्यक्तिको देवताके समान मानकर उसके सामने नतमस्तक हो जाता है, इसका कोई स्वल्प कारण नहीं हो सकता।

    भीष्मजीने कहा ;— पुरुषसिंह! आदि सत्ययुगमें जिस प्रकार राजा और राज्यकी उत्पत्ति हुई, वह सारा वृत्तान्त तुम एकाग्र होकर सुनो। पहले न कोई राज्य था, न राजा, न दण्ड था और न दण्ड देनेवाला, समस्त प्रजा धर्मके द्वारा ही एक-दूसरेकी रक्षा करती थी।  भारत! सब मनुष्य धर्मके द्वारा परस्पर पालित और पोषित होते थे। कुछ दिनोंके बाद सब लोग पारस्परिक संरक्षणके कार्यमें महान् कष्टका अनुभव करने लगे; फिर उन सबपर मोह छा गया।

   नरश्रेष्ठ! जब सारे मनुष्य मोहके वशीभूत हो गये, तब कर्तव्याकर्तव्यके ज्ञानसे शून्य होनेके कारण उनके धर्मका नाश हो गया। भरतभूषण! कर्तव्याकर्तव्यका ज्ञान नष्ट हो जानेपर मोहके वशीभूत हुए सब मनुष्य लोभके अधीन हो गये। फिर जो वस्तु उन्हें प्राप्त नहीं थी, उसे पानेका वे प्रयत्न करने लगे। प्रभो! इतनेहीमें वहाँ काम नामक दूसरे दोषने उन्हें घेर लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनसठवें अध्याय के श्लोक 19–30 का हिन्दी अनुवाद)

     युधिष्ठिर! कामके अधीन हुए उन मनुष्योंपर क्रोध नामक शत्रुने आक्रमण किया। क्रोधके वशीभूत होकर वे यह न जान सके कि क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य? राजेन्द्र! उन्होंने अगम्यागमन, वाच्य-अवाच्य, भक्ष्य-अभक्ष्य तथा दोष-अदोष कुछ भी नहीं छोड़ा। इस प्रकार मनुष्यलोकमें धर्मका विप्लव हो जानेपर वेदोंके स्वाध्यायका भी लोप हो गया। राजन्! वैदिक ज्ञानका लोप होनेसे यज्ञ आदि कर्मोंका भी नाश हो गया। इस प्रकार जब वेद और धर्मका नाश होने लगा, तब देवताओंके मनमें भय समा गया। पुरुषसिंह! वे भयभीत होकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये।

    लोकपितामह भगवान् ब्रह्माको प्रसन्न करके दुःखके वेगसे पीड़ित हुए समस्त देवता उनसे हाथ जोड़कर बोले,

     देवता बोले ;— ‘भगवन्! मनुष्यलोकमें लोभ, मोह आदि दूषित भावोंने सनातन वैदिक ज्ञानको विलुप्त कर डाला है; इसलिये हमें बड़ा भय हो रहा है। ‘ईश्वर! तीनों लोकोंके स्वामी परमेश्वर! वैदिक ज्ञानका लोप होनेसे यज्ञ-धर्म नष्ट हो गया। इससे हम सब देवता मनुष्योंके समान हो गये हैं।

    ‘मनुष्य यज्ञ आदिमें घीकी आहुति देकर हमारे लिये ऊपरकी ओर वर्षा करते थे और हम उनके लिये नीचेकी ओर पानी बरसाते थे; परंतु अब उनके यज्ञकर्मका लोप हो जानेसे हमारा जीवन संशयमें पड़ गया है। ‘पितामह! अब जिस उपायसे हमारा कल्याण हो सके, वह सोचिये। आपके प्रभावसे हमें जो दैवस्वभाव प्राप्त हुआ था, वह नष्ट हो रहा है’॥ तब भगवान् ब्रह्माने उन सब देवताओंसे कहा,

     ब्रह्मा जी बोले ;— ‘सुरश्रेष्ठगण! तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये। मैं तुम्हारे कल्याणका उपाय सोचूँगा’। तदनन्तर ब्रह्माजीने अपनी बुद्धिसे एक लाख अध्यायोंका एक ऐसा नीतिशास्त्र रचा, जिसमें धर्म, अर्थ और कामका विस्तारपूर्वक वर्णन है। जिसमें इन वर्गोंका वर्णन हुआ है, वह प्रकरण ‘त्रिवर्ग’ नामसे विख्यात है। चौथा वर्ग मोक्ष है; उसके प्रयोजन और गुण इन तीनों वर्गोंसे भिन्न हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनसठवें अध्याय के श्लोक 31–46 का हिन्दी अनुवाद)

    मोक्षका त्रिवर्ग दूसरा बताया गया है। उसमें सत्त्व, रज और तमकी गणना है। दण्डजनित त्रिवर्ग उससे भिन्न है। स्थान, वृद्धि और क्षय—ये ही उसके भेद हैं (अर्थात् दण्डसे धनियोंकी स्थिति, धर्मात्माओंकी वृद्धि और दुष्टोंका विनाश होता है)। ब्रह्माजीके नीतिशास्त्रमें आत्मा, देश, काल, उपाय, कार्य और सहायक—इन छः वर्गोंका वर्णन है। ये छहों नीतिद्वारा संचालित होनेपर उन्नतिके कारण होते हैं।

   भरतश्रेष्ठ! उस ग्रन्थमें वेदत्रयी (कर्मकाण्ड), आन्वीक्षिकी (ज्ञानकाण्ड), वार्ता (कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य) और दण्डनीति—इन विपुल विद्याओंका निरूपण किया गया है। ब्रह्माजीके उस नीतिशास्त्रमें मन्त्रियोंकी रक्षा (उन्हें कोई फोड़ न ले, इसके लिये सतर्कता), प्रणिधि (राजदूत), राजपुत्रके लक्षण, गुप्तचरोंके विचरणके विविध उपाय, विभिन्न स्थानोंमें विभिन्न प्रकारके गुप्तचरोंकी नियुक्ति, साम, दान, भेद, दण्ड और उपेक्षा—इन पाँचों उपायोंका पूर्णरूपसे प्रतिपादन किया गया है॥ सब प्रकारकी मन्त्रणा, भेदनीतिके प्रयोगके प्रयोजन, मन्त्रणामें होनेवाले भ्रम या उसके फूटनेके भय तथा मन्त्रणाकी सिद्धि और असिद्धिके फलका भी इस शास्त्रमें वर्णन है।

     संधिके तीन भेद हैं—उत्तम, मध्यम और अधम, इनकी क्रमशः वित्तसंधि, सत्कारसंधि और भयसंधि—ये तीन संज्ञाएँ हैं। धन लेकर जो संधि की जाती है, वह वित्तसंधि उत्तम है। सत्कार पाकर की हुई दूसरी संधि मध्यम है और भयके कारण की जानेवाली तीसरी संधि अधम मानी गयी है। इन सबका उस ग्रन्थमें विस्तारपूर्वक वर्णन है।

     शत्रुओंपर चढ़ाई करनेके चार, अवसर, त्रिवर्गके विस्तार, धर्म-विजय, अर्थ-विजय तथा आसुर-विजयका भी उक्त ग्रन्थमें पूर्णरूपसे वर्णन किया गया है। मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, सेना और कोष—इन पाँच वर्गोंके उत्तम, मध्यम और अधम भेदसे तीन प्रकारके लक्षणोंका भी प्रतिपादन किया गया है॥ प्रकट और गुप्त दो प्रकारकी सेनाओंका भी वर्णन किया गया है। उनमें प्रकट सेना आठ प्रकारकी बतायी गयी है और गुप्त सेनाका विस्तार बहुत अधिक कहा गया है।

    कुरुवंशी पाण्डुनन्दन! हाथी, घोड़े, रथ, पैदल, बेगारमें पकड़े गये बोझ ढोनेवाले लोग, नौकारोही, गुप्तचर तथा कर्तव्यका उपदेश करनेवाले गुरु—ये सेनाके प्रकट आठ अङ्ग हैं॥ सेनाके गुप्त अङ्ग हैं जङ्गम (सर्पादिजनित) और अजङ्गम (पेड़-पौधोंसे उत्पन्न) विष आदि चूर्णयोग अर्थात् विनाशकारक ओषधियाँ।

     यह गोपनीय दण्डसाधन (विष आदि) शत्रुपक्षके लोगोंके वस्त्र आदिके साथ स्पर्श कराने अथवा उनके भोजनमें मिला देनेके उपयोगमें आता है। विभिन्न मन्त्रोंके जपका प्रयोग भी पूर्वोक्त नीतिशास्त्रमें बताया गया है। इसके सिवा इस ग्रन्थमें शत्रु, मित्र और उदासीनका भी बारंबार वर्णन किया गया है॥ तथा मार्गके समस्त गुण, भूमिके गुण, आत्मरक्षाके उपाय, आश्वासन तथा रथ आदिके निर्माण और निरीक्षण आदिका भी वर्णन है। सेनाको पुष्ट करनेवाले अनेक प्रकारके योग, हाथी, घोड़ा, रथ और मनुष्य-सेनाकी भाँति-भाँतिकी व्यूह-रचना, नाना प्रकारके युद्धकौशल, जैसे ऊपर उछल जाना, नीचे झुककर अपनेको बचा लेना, सावधान होकर भलीभाँति युद्ध करना, कुशलतापूर्वक वहाँसे निकल भागना—इन सब उपायोंका भी इस ग्रन्थमें वर्णन है। भरतश्रेष्ठ! शस्त्रोंके संरक्षण और प्रयोगके ज्ञानका भी उसमें उल्लेख है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनसठवें अध्याय के श्लोक 47-60 का हिन्दी अनुवाद)

     पाण्डुकुमार! विपत्तिसे सेनाओंका उद्धार करना, सैनिकोंका हर्ष और उत्साह बढ़ाना, पीड़ा और आपत्तिके समय पैदल सैनिकोंकी स्वामिभक्तिकी परीक्षा करना—इन सब बातोंका उस शास्त्रमें वर्णन किया गया है। दुर्गके चारों ओर खाईं खुदवाना, सेनाका युद्धके लिये सुसज्जित होना तथा रणयात्रा करना, चोरों और भयानक जंगली लुटेरोंद्वारा शत्रुके राष्ट्रको पीड़ा देना, आग लगानेवाले, जहर देनेवाले, छद्मवेशधारी लोगोंद्वारा भी शत्रुको हानि पहुँचाना तथा एक-एक शत्रुदलके प्रधान-प्रधान लोगोंमें भेद उत्पन्न करना, फसल और पौधोंको काट लेना, हाथियोंको भड़काना, लोगोंमें आतङ्क उत्पन्न करना, शत्रुओंमें अनुरक्त पुरुषको अनुनय आदिके द्वारा फोड़ लेना और शत्रुपक्षके लोगोंमें अपने प्रति विश्वास उत्पन्न कराना आदि उपायोंसे शत्रुके राष्ट्रको पीड़ा देनेकी कलाका भी ब्रह्माजीके उक्त ग्रन्थमें वर्णन किया गया है। 

     सात अङ्गोंसे युक्त राज्यके ह्रास, वृद्धि और समान भावसे स्थिति, दूतके सामर्थ्यसे होनेवाली अपनी और अपने राष्ट्रकी वृद्धि, शत्रु, मित्र और मध्यस्थोंका विस्तारपूर्वक सम्यक् विवेचन, बलवान् शत्रुओंको कुचल डालने तथा उनसे टक्कर लेनेकी विधि आदिका उक्त ग्रन्थमें वर्णन किया गया है। शासनसम्बन्धी अत्यन्त सूक्ष्म व्यवहार, कण्टक-शोधन (राज्यकार्यमें विघ्न डालनेवालेको उखाड़ फेंकना), परिश्रम, व्यायाम-योग तथा धनके त्याग और संग्रहका भी उसमें प्रतिपादन किया गया है।

    जिनके भरण-पोषणका कोई उपाय न हो, उनके जीवननिर्वाहका प्रबन्ध करना, जिनके भरण-पोषणकी व्यवस्था राज्यकी ओरसे की गयी हो उनकी देखभाल करना, समयपर धनका दान करना, दुर्व्यसनमें आसक्त न होना आदि विविध विषयोंका उस ग्रन्थमें उल्लेख है। राजाके गुण, सेनापतिके गुण, अर्थ, धर्म और कामके साधन तथा उनके गुण-दोषका भी उसमें निरूपण किया गया है।

     भाँति-भाँतिकी दुश्चेष्टा, अपने सेवकोंकी जीविकाका विचार, सबके प्रति सशङ्क रहना, प्रमादका परित्याग करना, अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करना, प्राप्त हुई वस्तुको सुरक्षित रखते हुए उसे बढ़ाना और बढ़ी हुई वस्तुका सुपात्रोंको विधिपूर्वक दान देना—यह धनका पहला उपयोग है। धर्मके लिये धनका त्याग उसका दूसरा उपयोग है, कामभोगके लिये उसका व्यय करना तीसरा और संकट-निवारणके लिये उसे खर्च करना उसका चौथा उपयोग है। इन सब बातोंका उस ग्रन्थमें भलीभाँति वर्णन किया गया है।

    कुरुश्रेष्ठ! क्रोध और कामसे उत्पन्न होनेवाले जो यहाँ दस प्रकारके भयंकर व्यसन हैं, उनका भी इस ग्रन्थमें उल्लेख है। भरतश्रेष्ठ! नीतिशास्त्रके आचार्योंने जो मृगया, द्यूत, मद्यपान और स्त्रीप्रसङ्ग—ये चार प्रकारके कामजनित व्यसन बताये हैं, उन सबका इस ग्रन्थमें ब्रह्माजीने प्रतिपादन किया है॥

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनसठवें अध्याय के श्लोक 61-78 का हिन्दी अनुवाद)

   वाणीकी कटुता, उग्रता, दण्डकी कठोरता, शरीरको कैद कर लेना, किसीको सदाके लिये त्याग देना और आर्थिक हानि पहुँचाना—ये छः प्रकारके क्रोधजनित व्यसन उक्त ग्रन्थमें बताये गये हैं।

    नाना प्रकारके यन्त्रों और उनकी क्रियाओंका भी वर्णन किया गया है। शत्रुके राष्ट्रको कुचल देना, उसकी सेनाओंपर चोट करना और उनके निवास-स्थानोंको नष्ट-भ्रष्ट कर देना—इन सब बातोंका भी इस ग्रन्थमें उल्लेख है। शत्रुकी राजधानीके चैत्य वृक्षोंका विध्वंस करा देना, उसके निवास-स्थान और नगरपर चारों ओरसे घेरा डालना आदि उपायोंका तथा कृषि एवं शिल्प आदि कर्मोंका उपदेश, रथके विभिन्न अवयवोंका निर्माण, ग्राम और नगर आदिमें निवास करनेकी विधि तथा जीवननिर्वाहके अनेक उपायोंका भी उक्त ग्रन्थमें वर्णन है।

    युधिष्ठिर! ढोल, नगारे, शंख, भेरी आदि रणवाद्योंको बजाने, मणि, पशु, पृथ्वी, वस्त्र, दास-दासी तथा सुवर्ण—इन छः प्रकारके द्रव्योंका अपने लिये उपार्जन करने तथा शत्रुपक्षकी इन वस्तुओंका विनाश कर देनेका भी इस शास्त्रमें उल्लेख है।

    अपने अधिकारमें आये हुए देशोंमें शान्ति स्थापित करना, सत्पुरुषोंका सत्कार करना, विद्वानोंके साथ एकता (मेल-जोल) बढ़ाना, दान और होमकी विधिको जानना, माङ्गलिक वस्तुओंका स्पर्श करना, शरीरको वस्त्र और आभूषणोंसे सजाना, भोजनकी व्यवस्था करना और सर्वदा आस्तिक बुद्धि रखना—इन सब बातोंका भी उस ग्रन्थमें वर्णन है। मनुष्य अकेला होकर भी किस प्रकार उत्थान (उन्नति) करे? इसका विचार, सत्यता, उत्सवों और समाजोंमें मधुर वाणीका प्रयोग तथा गृहसम्बन्धी क्रियाएँ—इन सबका वर्णन किया गया है।

   भरतवंशके सिंह युधिष्ठिर! समस्त न्यायालयोंमें जो प्रत्यक्ष और परोक्ष विचार होते हैं तथा वहाँ जो राजकीय पुरुषोंके व्यवहार होते हैं, उन सबका प्रतिदिन निरीक्षण करना चाहिये। इसका भी उक्त शास्त्रमें उल्लेख है। ब्राह्मणोंको दण्ड न देनेका, अपराधियोंको युक्तिपूर्वक दण्ड देनेका, अपने पीछे जिनकी जीविका चलती हो उनकी, अपने जाति-भाइयोंकी तथा गुणवान् पुरुषोंकी भी उन्नति करनेका उस ग्रन्थमें उल्लेख है। राजन्! पुरवासियोंकी रक्षा, राज्यकी वृद्धि तथा द्वादश राजमण्डलोंके विषयमें जो चिन्तन किया जाता है, उसका भी इस ग्रन्थमें उल्लेख हुआ है।

    वैद्यक शास्त्रके अनुसार बहत्तर प्रकारकी शारीरिक चिकित्सा तथा देश, जाति और कुलके धर्मोंका भी भलीभाँति वर्णन किया गया है॥प्रचुर दक्षिणा देनेवाले युधिष्ठिर! इस ग्रन्थमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका, इनकी प्राप्तिके उपायोंका तथा नाना प्रकारकी धन-लिप्साका भी वर्णन है। इस ग्रन्थमें कोशकी वृद्धि करनेवाले जो कृषि, वाणिज्य आदि मूल कर्म हैं, उनके करनेका प्रकार बताया गया है। मायाके प्रयोगकी विधि समझायी गयी है। स्रोतजल और अस्थिरजलके दोषोंका वर्णन किया गया है॥

   राजसिंह! जिन-जिन उपायोंद्वारा यह जगत् सन्मार्गसे विचलित न हो, उन सबका इस नीतिशास्त्रमें प्रतिपादन किया गया है। इस शुभ शास्त्रका निर्माण करके जगत्‌के स्वामी भगवान् ब्रह्मा बड़े प्रसन्न हुए और इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंसे इस प्रकार बोले,

    ब्रह्मा जी बोले ;— ‘देवगण! सम्पूर्ण जगत्‌के उपकार तथा धर्म, अर्थ एवं कामकी स्थापनाके लिये वाणीका सारभूत यह विचार यहाँ प्रकट किया गया। ‘दण्ड-विधानके साथ रहनेवाली यह नीति सम्पूर्ण जगत्‌की रक्षा करनेवाली है। यह दुष्टोंके निग्रह और साधु पुरुषोंके प्रति अनुग्रहमें तत्पर रहकर सम्पूर्ण जगत्‌में प्रचलित होगी।

    ‘इस शास्त्रके अनुसार दण्डके द्वारा जगत्‌का सन्मार्गपर स्थापन किया जाता है अथवा राजा इसके अनुसार प्रजावर्गमें दण्डकी स्थापना करता है; इसलिये यह विद्या दण्डनीतिके नामसे विख्यात है। इसका तीनों लोकोंमें विस्तार होगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनसठवें अध्याय के श्लोक 79–100 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘यह विद्या संधि-विग्रह आदि छहों गुणोंका सारभूत है। महात्माओंमें इसका स्थान सबसे आगे होगा। इस शास्त्रमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थोंका निरूपण किया गया है’। तदनन्तर सबसे पहले भगवान् शङ्करने इस नीतिशास्त्रको ग्रहण किया। वे बहुरूप, विशालाक्ष, शिव, स्थाणु, उमापति आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं॥

     विशालाक्ष भगवान् शिवने प्रजावर्गकी आयुका ह्रास होता जानकर ब्रह्माजीके रचे हुए इस महान् अर्थसे भरे हुए शास्त्रको संक्षिप्त किया था; इसलिये इसका नाम ‘वैशालाक्ष’ हो गया। फिर इसे इन्द्रने ग्रहण किया।

    महातपस्वी सुब्रह्मण्य भगवान् पुरन्दरने जब इसका अध्ययन किया, उस समय इसमें दस हजार अध्याय थे। फिर उन्होंने भी इसका संक्षेप किया, जिससे यह पाँच हजार अध्यायोंका ग्रन्थ हो गया। तात! वही ग्रन्थ ‘बाहुदन्तक’ नामक नीतिशास्त्रके रूपमें विख्यात हुआ।

    इसके बाद सामर्थ्यशाली बृहस्पतिने अपनी बुद्धिसे इसका संक्षेप किया, तबसे इसमें तीन हजार अध्याय रह गये। यही ‘बार्हस्पत्य’ नामक नीतिशास्त्र कहलाता है। फिर महायशस्वी, योगशास्त्रके आचार्य तथा अमित बुद्धिमान् शुक्राचार्यने एक हजार अध्यायोंमें उस शास्त्रका संक्षेप किया।

    इस प्रकार मनुष्योंकी आयुका ह्रास होता जानकर जगत्‌के हितके लिये महर्षियोंने इस शास्त्रका संक्षेप किया है। तदनन्तर देवताओंने प्रजापति भगवान् विष्णुके पास जाकर कहा,

    देवता बोले ;— ‘भगवन्! मनुष्योंमें जो एक पुरुष सबसे श्रेष्ठ पद प्राप्त करनेका अधिकारी हो, उसका नाम बताइये’। तब प्रभावशाली भगवान् नारायणदेवने भलीभाँति सोच-विचारकर अपने तेजसे एक मानस पुत्रकी सृष्टि की, जो विरजाके नामसे विख्यात हुआ।  पाण्डुनन्दन! महाभाग विरजाने पृथ्वीपर राजा होनेकी इच्छा नहीं की। उनकी बुद्धिने संन्यास लेनेका ही निश्चय किया।

   विरजाके कीर्तिमान् नामक एक पुत्र हुआ। वह भी पाँचों विषयोंसे ऊपर उठकर मोक्षमार्गका ही अवलम्बन करने लगा। कीर्तिमान्‌के पुत्र हुए कर्दम। वे भी बड़ी भारी तपस्यामें लग गये।

   प्रजापति कर्दमके पुत्रका नाम अनङ्ग था, जो कालक्रमसे प्रजाका संरक्षण करनेमें समर्थ, साधु तथा दण्डनीतिविद्यामें निपुण हुआ। अनङ्गके पुत्रका नाम था अतिबल। वह भी नीतिशास्त्रका ज्ञाता था, उसने विशाल राज्य प्राप्त किया। राज्य पाकर वह इन्द्रियोंका गुलाम हो गया।

    राजन्! मृत्युकी एक मानसिक कन्या थी, जिसका नाम था सुनीथा। जो अपने रूप और गुणके लिये तीनों लोकोंमें विख्यात थी। उसीने वेनको जन्म दिया था। वेन राग-द्वेषके वशीभूत हो प्रजाओंपर अत्याचार करने लगा। तब वेदवादी ऋषियोंने मन्त्रपूत कुशोंद्वारा उसे मार डाला। फिर वे ही ऋषि मन्त्रोच्चारणपूर्वक वेनकी दाहिनी जङ्घाका मन्थन करने लगे। उससे इस पृथ्वीपर एक नाटे कदका मनुष्य उत्पन्न हुआ, जिसकी आकृति बेडौल थी।

    वह जले हुए खम्भेके समान जान पड़ता था। उसकी आँखें लाल और काले बाल थे। वेदवादी महर्षियोंने उसे देखकर कहा,

     महर्षि बोले ;— ‘निषीद’ बैठ जाओ। उसीसे पर्वतों और वनोंमें रहनेवाले क्रूर निषादोंकी उत्पत्ति हुई तथा दूसरे जो विन्ध्यगिरिके निवासी लाखों म्लेच्छ थे, उनका भी प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद फिर महर्षियोंने वेनके दाहिने हाथका मन्थन किया। उससे एक दूसरे पुरुषका प्राकट्य हुआ, जो रूपमें देवराज इन्द्रके समान थे।

   वे कवच धारण किये, कमरमें तलवार बाँधे तथा धनुष और बाण लिये प्रकट हुए थे। उन्हें वेदों और वेदान्तोंका पूर्ण ज्ञान था। वे धनुर्वेदके भी पारङ्गत विद्वान् थे। राजन्! नरश्रेष्ठ वेनकुमारको सारी दण्डनीतिका स्वतः ज्ञान हो गया। तब उन्होंने हाथ जोड़कर अन महर्षियोंसे कहा,

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनसठवें अध्याय के श्लोक 101-118 का हिन्दी अनुवाद)

    वेनकुमार बोले ; – ‘महात्माओ! धर्म और अर्थका दर्शन करानेवाली अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि मुझे स्वतः प्राप्त हो गयी है। मुझे इस बुद्धिके द्वारा आपलोगोंकी कौन-सी सेवा करनी है, यह मुझे यथार्थ रूपसे बताइये। ‘आपलोग मुझे जिस किसी भी प्रयोजनपूर्ण कार्यके लिये आज्ञा देंगे, उसे मैं अवश्य पूरा करूँगा। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये’। तब वहाँ देवताओं और उन महर्षियोंने उनसे कहा,

    महर्षि बोले ;— ‘वेननन्दन! जिस कार्यमें नियमपूर्वक धर्मकी सिद्धि होती हो, उसे निर्भय होकर करो। ‘प्रिय और अप्रियका विचार छोड़कर काम, क्रोध, लोभ और मानको दूर हटाकर समस्त प्राणियोंके प्रति समभाव रखो। ‘लोकमें जो कोई भी मनुष्य धर्मसे विचलित हो, उसे सनातन धर्मपर दृष्टि रखते हुए अपने बाहुबलसे परास्त करके दण्ड दो।‘साथ ही यह प्रतिज्ञा करो कि ‘मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा भूतलवर्ती ब्रह्म (वेद) का निरन्तर पालन करूँगा।

    ‘वेदमें दण्डनीतिसे सम्बन्ध रखनेवाला जो नित्य धर्म बताया गया है, उसका मैं निःशंक होकर पालन करूँगा। कभी स्वच्छन्द नहीं होऊँगा’। ‘परंतप प्रभो! साथ ही यह प्रतिज्ञा करो कि ‘ब्राह्मण मेरे लिये अदण्डनीय होंगे तथा मैं सम्पूर्ण जगत्‌के वर्णसंकरता और धर्मसंकरतासे बचाऊँगा’।

    तब वेनकुमारने उन देवताओं तथा उन अग्रवर्ती ऋषियोंसे कहा,

  वेनकुमार बोले ;— ‘नरश्रेष्ठ महात्माओ! महाभाग ब्राह्मण मेरे लिये सदा वन्दनीय होंगे’। उनके ऐसा कहनेपर उन वेदवादी महर्षियोंने उनसे इस प्रकार कहा,

    महर्षि बोले ;— ‘एवमस्तु’। फिर शुक्राचार्य उनके पुरोहित हुए, जो वैदिक ज्ञानके भण्डार हैं। वालखिल्यगण तथा सरस्वतीतटवर्ती महर्षियोंके समुदायने उनके मन्त्रीका कार्य सँभाला। महर्षि भगवान् गर्ग उनके दरबारके ज्योतिषी हुए। मनुष्योंमें यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि स्वयं राजा पृथु भगवान् विष्णुसे आठवीं पीढ़ीमें थे। उनके जन्मसे पहले ही सूत और मागध नामक दो बन्दी (स्तुतिपाठक) उत्पन्न हुए थे।

    वेनके पुत्र प्रतापी राजा पृथुने उन दोनोंको प्रसन्न होकर पुरस्कार दिया। सूतको अनूप देश सागरतटवर्ती प्राप्त) और मागधको मगध देश प्रदान किया। सुना जाता है कि पृथुके समय यह पृथ्वी बहुत ऊँची-नीची थी। उन्होंने ही इसे भलीभाँति समतल बनाया था।

    महाराज! सभी मन्वन्तरोंमें यह पृथ्वी ऊँची-नीची हो जाती है; उस समय वेनकुमार पृथुने धनुषकी कोटिद्वारा चारों ओरसे शिलासमूहोंको उखाड़ डाला और उन्हें एक स्थानपर संचित कर दिया; इसीलिये पर्वतोंकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई बढ़ गयी। भगवान् विष्णु, देवताओंसहित इन्द्र, ऋषिसमूह, प्रजापतिगण तथा ब्राह्मणोंने पृथुका राजाके पदपर अभिषेक किया।

  पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर! उस समय साक्षात् पृथ्वी देवी रत्नोंकी भेंट लेकर उनकी सेवामें उपस्थित हुई थी। सरिताओंके स्वामी समुद्र, पर्वतोंमें श्रेष्ठ हिमवान् तथा देवराज इन्द्रने अक्षय धन समर्पित किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनसठवें अध्याय के श्लोक 119–136 का हिन्दी अनुवाद)

    सुवर्णमय पर्वत महामेरुने स्वयं आकर उन्हें सुवर्णकी राशि भेंट की। मनुष्योंपर सवारी करनेवाले यक्षराक्षसराज भगवान् कुबेरने भी उन्हें इतना धन दिया, जो उनके धर्म, अर्थ और कामका निर्वाह करनेके लिये पर्याप्त हो। पाण्डुनन्दन! वेनपुत्र पृथुके चिन्तन करते ही उनकी सेवामें घोड़े, रथ, हाथी और करोड़ों मनुष्य प्रकट हो गये।

    उनके राज्यमें किसीको बुढ़ापा, दुर्भिक्ष तथा आधि-व्याधिका कष्ट नहीं था। राजाकी ओरसे रक्षाकी समुचित व्यवस्था होनेके कारण वहाँ कभी किसीको सर्पों, चोरों तथा आपसके लोगोंसे भय नहीं प्राप्त होता था। जिस समय वे समुद्रमें होकर चलते थे, उस समय उसका जल स्थिर हो जाता था। पर्वत उन्हें रास्ता दे देते थे, उनके रथकी ध्वजा कभी टूटी नहीं।

    उन्होंने इस पृथ्वीसे सत्रह प्रकारके धान्योंका दोहन किया था, यक्षों, राक्षसों और नागोंमेंसे जिसको जो वस्तु अभीष्ट थी, वह उन्होंने पृथ्वीसे दुह ली थी। उन महात्माने सम्पूर्ण जगत्‌में धर्मकी प्रधानता स्थापित कर दी थी। उन्होंने समस्त प्रजाओंका रंजन किया था; इसलिये वे ‘राजा’ कहलाते थे।ब्राह्मणोंको क्षतिसे बचानेके कारण वे क्षत्रिय कहे जाने लगे। उन्होंने धर्मके द्वारा इस भूमिको प्रथित किया—इसकी ख्याति बढ़ायी; इसलिये बहुसंख्यक मनुष्योंद्वारा यह ‘पृथ्वी’ कहलायी।

    भरतनन्दन! स्वयं सनातन भगवान् विष्णुने उनके लिये यह मर्यादा स्थापित की कि ‘राजन्! कोई भी तुम्हारी आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सकेगा’। राजा पृथुकी तपस्यासे प्रसन्न हो भगवान् विष्णुने स्वयं उनके भीतर प्रवेश किया था। समस्त नरेशोंमेंसे राजा पृथुको ही यह सारा जगत् देवताके समान मस्तक झुकाता था। नरेश्वर! इसलिये तुम्हें गुप्तचर नियुक्त करके राज्यकी अवस्थापर दृष्टिपात करते हुए सदा दण्डनीतिके द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्रकी रक्षा करनी चाहिये, जिससे कोई इसपर आक्रमण करनेका साहस न कर सके।

     राजेन्द्र! चित्त और क्रियाद्वारा समभाव रखनेवाले राजाका किया हुआ शुभ कर्म प्रजाके भलेके लिये ही होता है। उसके दैवी गुणके सिवा और क्या कारण हो सकता है, जिससे सारा देश उस एक ही व्यक्तिके अधीन रहे?। उस समय भगवान् विष्णुके ललाटसे एक सुवर्णमय कमल प्रकट हुआ, जिससे बुद्धिमान् धर्मकी पत्नी श्रीदेवीका प्रादुर्भाव हुआ।

     पाण्डुनन्दन! धर्मके द्वारा श्रीदेवीसे अर्थकी उत्पत्ति हुई। तदनन्तर धर्म, अर्थ और श्री—तीनों ही राज्यमें प्रतिष्ठित हुए। तात! पुण्यका क्षय होनेपर मनुष्य स्वर्गलोकसे पृथिवीपर आता और दण्डनीतिविशारद राजाके रूपमें जन्म लेता है।

    वह मनुष्य इस भूतलपर भगवान् विष्णुकी महत्तासे युक्त तथा बुद्धिसम्पन्न हो विशेष माहात्म्य प्राप्त कर लेता है। तदनन्तर उसे देवताओंद्वारा राजाके पदपर स्थापित हुआ मानकर कोई भी उसकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करता। यह सारा जगत् उस एक ही व्यक्तिके वशमें स्थित रहता है, उसके ऊपर यह जगत् अपना शासन नहीं चला सकता।

    राजेन्द्र! शुभ कर्मका परिणाम शुभ ही होता है, कभी तो अन्य मनुष्योंके समान होनेपर भी एक-मात्र राजाकी आज्ञामें यह सारा जगत् स्थित रहता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनसठवें अध्याय के श्लोक 137–145 का हिन्दी अनुवाद)

    जिसने राजाका सौम्य मुख देख लिया, वह उसके अधीन हो गया। प्रत्येक मनुष्य राजाको सौभाग्यशाली, धनवान् और रूपवान् देखता है। पूर्वोक्त दण्डकी महत्तासे ही स्पष्ट लक्षणोंवाली नीति तथा न्यायोचित आचारका अधिक प्रचार होता है, जिससे यह सारा जगत् व्याप्त है।

    युधिष्ठिर! पुराणशास्त्र, महर्षियोंकी उत्पत्ति, तीर्थ-समूह, नक्षत्रसमुदाय, ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रम, होता आदि चार प्रकारके ऋत्विजोंसे सम्पन्न होनेवाले यज्ञकर्म, चारों वर्ण और चारों विद्याओंका पूर्वोक्त नीतिशास्त्रमें प्रतिपादन किया गया है।

     इतिहास, वेद, न्याय—इन सबका उसमें पूरा-पूरा वर्णन है। तप, ज्ञान, अहिंसाका तथा जो सत्य, असत्यसे परे है उसका और वृद्धजनोंकी सेवा, दान, शौच, उत्थान तथा समस्त प्राणियोंपर दया आदि सभी विषयोंका उस ग्रन्थमें वर्णन है॥

     पाण्डुनन्दन! अधिक क्या कहा जाय? जो कुछ इस पृथ्वीपर है और जो इसके नीचे है, उस सबका ब्रह्माजीके पूर्वोक्त शास्त्रमें समावेश किया गया है, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! प्रजानाथ! तबसे जगत्‌में विद्वानोंने सदाके लिये यह घोषणा कर दी है कि ‘देव और नरदेव (राजा) दोनों समान हैं’।

    भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार राजाओंका जो कुछ महत्त्व है, वह सब मैंने सम्पूर्ण रूपसे तुम्हें बता दिया। अब इस विषयमें तुम्हारे लिये और क्या जानना शेष रह गया है?।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें सूत्राध्यायविषयक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टीका टिप्पणी ;—

  1. शत्रुपर चढ़ाई करनेके चार अवसर ये हैं—(१) अपने मित्रोंकी वृद्धि। (२) अपने कोशका भरपूर संग्रह। (३) शत्रुके मित्रोंका नाश। (४) शत्रुके कोशकी हानि।
  2. पहला शत्रु राजा, दूसरा मित्र राजा, तीसरा शत्रुका मित्र राजा, चौथा मित्रका मित्र राजा, पाँचवाँ शत्रुके मित्रका मित्र राजा, छठा अपने पृष्ठभागकी रक्षाके लिये स्वयं उपस्थित हुआ राजा, सातवाँ शत्रुकी सहायता एवं पृष्ठपोषणके लिये स्वयं उपस्थित राजा, आठवाँ अपने पक्षमें बुलानेपर आया हुआ राजा, नवाँ शत्रुपक्षमें बुलानेपर आया हुआ राजा, दसवाँ स्वयं विजयाभिलाषी नरेश, ग्यारहवाँ अपने और शत्रु दोनोंकी ओरसे मध्यस्थ राजा, बारहवाँ सबसे अधिक शक्तिशाली एवं उदासीन राजा—ये द्वादश राजमण्डल कहे गये हैं।

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

साठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) साठवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“वर्ण-धर्मका वर्णन”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिरने मनको वशमें करके गङ्गानन्दन पितामह भीष्मको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर पूछा,

     युधिष्ठिर बोले ;— ‘पितामह! कौन-से ऐसे धर्म हैं, जो सभी वर्णोंके लिये उपयोगी हो सकते हैं। चारों वर्णोंके पृथक्-पृथक् धर्म कौन-से हैं? चारों वर्णोंके साथ ही चारों आश्रमोंके भी धर्म कौन हैं तथा राजाके द्वारा पालन करने योग्य कौन-कौन-से धर्म माने गये हैं?।

    ‘राष्ट्रकी वृद्धि कैसे होती है, राजाका अभ्युदय किस उपायसे होता है? भरतश्रेष्ठ! पुरवासियों और भरण-पोषण करने योग्य सेवकोंकी उन्नति भी किस उपायसे होती है?। ‘राजाको किस प्रकारके कोश, दण्ड, दुर्ग, सहायक, मन्त्री, ऋत्विक्, पुरोहित और आचार्योंका त्याग कर देना चाहिये?।

    ‘पितामह! किसी आपत्तिके आनेपर राजाको किन लोगोंपर विश्वास करना चाहिये और किन लोगोंसे अपने शरीरकी दृढ़तापूर्वक रक्षा करनी चाहिये? यह मुझे बताइये’।

    भीष्मजीने कहा ;— महान् धर्मको नमस्कार है, विश्वविधाता श्रीकृष्णको नमस्कार है। अब मैं उपस्थित ब्राह्मणोंको नमस्कार करके सनातन धर्मका वर्णन आरम्भ करता हूँ।

   किसीपर क्रोध न करना, सत्य बोलना, धनको बाँटकर भोगना, क्षमाभाव रखना, अपनी ही पत्नीके गर्भसे संतान पैदा करना, बाहर-भीतरसे पवित्र रहना, किसीसे द्रोह न करना, सरलभाव रखना और भरण-पोषणके योग्य व्यक्तियोंका पालन करना—ये नौ सभी वर्णोंके लिये उपयोगी धर्म हैं। अब मैं केवल ब्राह्मणका जो धर्म है, उसे बता रहा हूँ॥ महाराज! इन्द्रिय-संयमको ब्राह्मणोंका प्राचीन धर्म बताया गया है। इसके सिवा, उन्हें सदा वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय करना चाहिये; क्योंकि इसीसे उनके सब कर्मोंकी पूर्ति हो जाती है।

     यदि अपने वर्णोचित कर्ममें स्थित, शान्त और ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त ब्राह्मणको किसी प्रकारके असत् कर्मका आश्रय लिये बिना ही धन प्राप्त हो जाय तो वह उस धनसे विवाह करके संतानकी उत्पत्ति करे अथवा उस धनको दान और यज्ञमें लगा दे। धनको बाँटकर ही भोगना चाहिये, ऐसा सत्पुरुषोंका कथन है॥

    ब्राह्मण केवल वेदोंके स्वाध्यायसे ही कृतकृत्य हो जाता है। वह दूसरा कर्म करे या न करे। सब जीवोंके प्रति मैत्रीभाव रखनेके कारण वह मैत्र कहलाता है॥ भरतनन्दन! क्षत्रियका भी जो धर्म है, वह तुम्हें बता रहा हूँ। राजन्! क्षत्रिय दान तो करे, किंतु किसीसे याचना न करे; स्वयं यज्ञ करे, किंतु पुरोहित बनकर दूसरोंका यज्ञ न करावे।

     वह अध्ययन करे, किंतु अध्यापक न बने, प्रजाजनोंका सब प्रकारसे पालन करता रहे। लुटेरों और डाकुओंका वध करनेके लिये सदा तैयार रहे। रणभूमिमें पराक्रम प्रकट करे। इन राजाओंमें जो भूपाल बड़े-बड़े यज्ञ करनेवाले तथा वेदशास्त्रोंके ज्ञानसे सम्पन्न हैं और जो युद्धमें विजय प्राप्त करनेवाले हैं, वे ही पुण्यलोकोंपर विजय प्राप्त करनेवालोंमें उत्तम हैं। जो क्षत्रिय शरीरपर घाव हुए बिना ही समर-भूमिसे लौट आता है, उसके इस कर्मकी पुरातन धर्मको जाननेवाले विद्वान् प्रशंसा नहीं करते हैं।

      इस प्रकार युद्धको ही क्षत्रियोंके लिये प्रधान मार्ग बताया गया है, उसके लिये लुटेरोंके संहारसे बढ़कर दूसरा कोई श्रेष्ठतम कर्म नहीं है। यद्यपि दान, अध्ययन और यज्ञ—इनके अनुष्ठानसे भी राजाओंका कल्याण होता है, तथापि युद्ध उनके लिये सबसे बढ़कर है; अतः विशेषरूपसे धर्मकी इच्छा रखनेवाले राजाको सदा ही युद्धके लिये उद्यत रहना चाहिये॥

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) साठवें अध्याय के श्लोक 19–30 का हिन्दी अनुवाद)

     राजा समस्त प्रजाओंको अपने-अपने धर्मोंमें स्थापित करके उनके द्वारा शान्तिपूर्ण समस्त कर्मोंका धर्मके अनुसार अनुष्ठान करावे। राजा दूसरा कर्म करे या न करे, प्रजाकी रक्षा करने-मात्रसे वह कृतकृत्य हो जाता है। उसमें इन्द्र देवता-सम्बन्धी बलकी प्रधानता होनेसे राजा ‘ऐन्द्र’ कहलाता है। अब वैश्यका जो सनातन धर्म है, वह तुम्हें बता रहा हूँ। दान, अध्ययन, यज्ञ और पवित्रतापूर्वक धनका संग्रह ये वैश्यके कर्म हैं॥

     वैश्य सदा उद्योगशील रहकर पुत्रोंकी रक्षा करनेवाले पिताके समान सब प्रकारके पशुओंका पालन करे। इन कर्मोंके सिवा वह और जो कुछ भी करेगा, वह उसके लिये विपरीत कर्म होगा। पशुओंके पालनसे वैश्यको महान् सुखकी प्राप्ति हो सकती है। प्रजापतिने पशुओंकी सृष्टि करके उनके पालनका भार वैश्यको सौंप दिया था।

    ब्राह्मण और राजाको उन्होंने सारी प्रजाके पोषणका भार सौंपा था। अब मैं वैश्यकी उस वृत्तिका वर्णन करूँगा, जिससे उसका जीवन-निर्वाह हो।

     वैश्य यदि राजा या किसी दूसरेकी छः दुधारू गौओंका एक वर्षतक पालन करे तो उनमेंसे एक गौका दूध वह स्वयं पीये (यही उसके लिये वेतन है)। यदि दूसरेकी एक सौ गौओंका वह पालन करे तो सालभरमें एक गाय और एक बैल मालिकसे वेतनके रूपमें ले ले। यदि उन पशुओंके दूध आदि बेचनेसे धन प्राप्त हो तो उसमें सातवाँ भाग वह अपने वेतनके रूपमें ग्रहण करे। सींग बेचनेसे जो धन मिले, उसमेंसे भी वह सातवाँ भाग ही ले; परंतु पशुविशेषका बहुमूल्य खुर बेचनेसे जो धन प्राप्त हो, उसका सोलहवाँ भाग ही उसे ग्रहण करना चाहिये।

    दूसरेके अनाजकी फसलों तथा सब प्रकारके बीजोंकी रक्षा करनेपर वैश्यको उपजका सातवाँ भाग वेतनके रूपमें ग्रहण करना चाहिये। यह उसके लिये वार्षिक वेतन है। वैश्यके मनमें कभी यह संकल्प नहीं उठना चाहिये कि ‘मैं पशुओंका पालन नहीं करूँगा’।   जबतक वैश्य पशुपालनका कार्य करना चाहे, तबतक मालिकको दूसरे किसीके द्वारा किसी तरह भी वह कार्य नहीं कराना चाहिये, भारत! अब मैं शूद्रका भी धर्म तुम्हें बता रहा हूँ॥

    प्रजापतिने अन्य तीनों वर्णोंके सेवकके रूपमें शूद्रकी सृष्टि की है; अतः शूद्रके लिये तीनों वर्णोंकी सेवा ही शास्त्र-विहित कर्म है। वह उन तीनों वर्णोंकी सेवासे ही महान् सुखका भागी हो सकता है। अतः शूद्र इन तीनों वर्णोंकी क्रमशः सेवा करे।

    शूद्रको कभी किसी प्रकार भी धनका संग्रह नहीं करना चाहिये; क्योंकि धन पाकर वह महान् पापमें प्रवृत्त हो जाता है, और अपनेसे श्रेष्ठतम पुरुषोंको भी अपने अधीन रखने लगता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) साठवें अध्याय के श्लोक 31–45 का हिन्दी अनुवाद)

    धर्मात्मा शूद्र राजाकी आज्ञा लेकर अपनी इच्छाके अनुसार कोई धार्मिक कृत्य कर सकता है। अब मैं उसकी वृत्तिका वर्णन करूँगा, जिससे उसकी आजीविका चल सकती है।

     तीनों वर्णोंको शूद्रका भरण-पोषण अवश्य करना चाहिये; क्योंकि वह भरण-पोषण करने योग्य कहा गया है। अपनी सेवामें रहनेवाले शूद्रको उपभोगमें लाये हुए छाते, पगड़ी, अनुलेपन, जूते और पंखे देने चाहिये। फटे-पुराने कपड़े, जो अपने धारण करने योग्य न रहें, वे द्विजातियोंद्वारा शूद्रको ही दे देने योग्य हैं; क्योंकि धर्मतः वे सब वस्तुएँ शूद्रकी ही सम्पत्ति हैं।

    द्विजातियोंमेंसे जिस किसीकी सेवा करनेके लिये कोई शूद्र आवे, उसीको उसकी जीविकाकी व्यवस्था करनी चाहिये; ऐसा धर्मज्ञ पुरुषोंका कथन है।

    यदि स्वामी संतानहीन हो तो सेवा करनेवाले शूद्रको ही उसके लिये पिण्डदान करना चाहिये। यदि स्वामी बूढ़ा या दुर्बल हो तो उसका सब प्रकारसे भरण-पोषण करना चाहिये। किसी आपत्तिमें भी शूद्रको अपने स्वामीका परित्याग नहीं करना चाहिये। यदि स्वामीके धनका नाश हो जाय तो शूद्रको अपने कुटुम्बके पालनसे बचे हुए धनके द्वारा उसका भरण-पोषण करना चाहिये।

    शूद्रका अपना कोई धन नहीं होता। उसके सारे धनपर उसके स्वामीका ही अधिकार होता है। भरतनन्दन! यज्ञका अनुष्ठान तीनों वर्णों तथा शूद्रके लिये भी आवश्यक बताया गया है। शूद्रके यज्ञमें स्वाहाकार, वषट्‌कार तथा वैदिक मन्त्रोंका प्रयोग नहीं होता है।

    अतः शूद्र स्वयं वैदिक व्रतोंकी दीक्षा न लेकर पाकयज्ञों (बलिवैश्वदेव आदि) द्वारा यजन करे। पाकयज्ञकी दक्षिणा पूर्णपात्रमयी बतायी गयी है। हमने सुना है कि पैजवन नामक शूद्रने ऐन्द्राग्न यज्ञकी विधिसे मन्त्रहीन यज्ञका अनुष्ठान करके उसकी दक्षिणाके रूपमें एक लाख पूर्णपात्र दान किये थे। भरतनन्दन! ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोंका जो यज्ञ है वह सब सेवाकार्य करनेके कारण शूद्रका भी है ही (उसे भी उसका फल मिलता ही है; अतः उसे पृथक् यज्ञ करनेकी आवश्यकता नहीं है)। सम्पूर्ण यज्ञोंमें पहले श्रद्धारूप यज्ञका ही विधान है॥

    क्योंकि श्रद्धा सबसे बड़ा देवता है। वही यज्ञ करने-वालोंको पवित्र करती है। ब्राह्मण साक्षात् यज्ञ करानेके कारण परम देवता माने गये हैं। सभी वर्णोंके लोग अपने-अपने कर्मद्वारा एक-दूसरेके यज्ञोंमें सहायक होते हैं॥

    सभी वर्णके लोगोंने यहाँ यज्ञोंका अनुष्ठान किया है और उनके द्वारा वे मनोवाञ्छित फलोंसे सम्पन्न हुए हैं। ब्राह्मणोंने ही तीनों वर्णोंकी संतानोंकी सृष्टि की है। जो देवताओंके भी देवता हैं, वे ब्राह्मण जो कुछ कहें, वही सबके लिये परम हितकारक है; अतः अन्य वर्णोंके लोग ब्राह्मणोंके बताये अनुसार ही सब यज्ञोंका अनुष्ठान करें, अपनी इच्छासे न करें।

   ऋक्, साम और यजुर्वेदका ज्ञाता ब्राह्मण सदा देवताके समान पूजनीय है। दास या शूद्र ऋक्, यजु और सामके ज्ञानसे शून्य होता है; तो भी वह ‘प्राजापत्य’ (प्रजापतिका भक्त) कहा गया है। तात! भरतनन्दन! मानसिक संकल्पद्वारा जो भावनात्मक यज्ञ होता है, उसमें सभी वर्णोंका अधिकार है।

     इस मानसिक यज्ञ करनेवाले यजमानके यज्ञमें देवता और मनुष्य सभी भाग ग्रहण करनेकी अभिलाषा रखते हैं; क्योंकि उसका यज्ञ श्रद्धाके कारण परम पवित्र होता है; अतः श्रद्धाप्रधान यज्ञ करनेका अधिकार सभी वर्णोंको प्राप्त है॥

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) साठवें अध्याय के श्लोक 46–54 का हिन्दी अनुवाद)

     ब्राह्मण अपने कर्मोंद्वारा ही सदा दूसरे वर्णोंके लिये अपने-अपने देवताके समान है; अतः वह दूसरे वर्णोंका यज्ञ न करता हो, ऐसी बात नहीं है। जिस यज्ञमें वैश्य आचार्य आदिके रूपमें कार्य कर रहा हो, वह निकृष्ट माना गया है। विधाताने केवल ब्राह्मणको ही तीनों वर्णोंका यज्ञ करानेके लिये उत्पन्न किया है।

     विधाता एकमात्र ब्राह्मणसे ही अन्य तीन वर्णोंकी सृष्टि करते हैं, अतः शेष तीन वर्ण भी ब्राह्मणके समान ही सरल तथा उनके जाति-भाई या कुटुम्बी हैं। क्षत्रिय आदि तीनों वर्ण ब्राह्मणकी संतान ही हैं। जैसे ऋक्, यजुः और साम एकमात्र अकारसे ही प्रकट होनेके कारण परस्पर अभिन्न हैं, उसी प्रकार उन सभी वर्णोंमें तत्त्वका निश्चय किया जाय तो एकमात्र ब्राह्मण ही उन सबके रूपमें प्रकट हुआ है, अतः ब्राह्मणके साथ सबकी अभिन्नता है॥

    राजेन्द्र! प्राचीन बातोंको जाननेवाले विद्वान् इस विषयमें यज्ञकी अभिलाषा रखनेवाले वैखानस मुनियोंकी कही हुई एक गाथाका उल्लेख किया करते हैं, जो यज्ञके सम्बन्धमें गायी गयी है॥

    ‘सूर्यके उदय होनेपर अथवा सूर्योदयसे पहले ही श्रद्धालु एवं जितेन्द्रिय मनुष्य जो धर्मके अनुसार अग्निमें आहुति देता है, उसमें श्रद्धा ही प्रधान हेतु है॥ (बह्‌वृच ब्राह्मणमें सोलह प्रकारके अग्निहोत्र बताये गये हैं) होताका किया हुआ जो हवन वायुदेवताके उद्देश्यसे होता है, वह स्कन्नसंज्ञक होम प्रथम है और उससे भिन्न जो स्कन्नसंज्ञक होम है, वह अन्तिम या सबसे उत्कृष्ट है। इसी प्रकार रौद्र आदि बहुत-से यज्ञ हैं, जो नाना प्रकारके कर्मफल देनेवाले हैं। उन षोडश प्रकारके अग्निहोत्रोंको जो जानता है, वही यज्ञ-सम्बन्धी निश्चयात्मक ज्ञानसे सम्पन्न है। ऐसा ज्ञानी एवं श्रद्धालु द्विज ही यज्ञ करनेका अधिकारी है।

    यदि कोई चोर हो, पापी हो अथवा पापाचारियोंमें भी सबसे महान् हो तो भी जो यज्ञ करना चाहता है, उसे सभी लोग ‘साधु’ ही कहते हैं॥ ऋषि भी उसकी प्रशंसा करते हैं। यह यज्ञ-कर्म श्रेष्ठ है, इसमें कोई संदेह नहीं है; अतः सभी वर्णके लोगोंको सदा सब प्रकारसे यज्ञ करना चाहिये, यही शास्त्रोंका निर्णय है। तीनों लोकोंमें यज्ञके समान कुछ भी नहीं है; इसलिये मनुष्यको दोषदृष्टिका परित्याग करके शास्त्रीय विधिका आश्रय ले अपनी शक्ति और इच्छाके अनुसार उत्तम श्रद्धापूर्वक यज्ञका अनुष्ठान करना चाहिये, ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वर्णाश्रमधर्मका वर्णनविषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टीका टिप्पणी ;—

  1. पूर्णपात्रका परिमाण इस प्रकार है—आठ मुठ्ठी अन्नको ‘किंचित्’ कहते हैं, आठ किंचित्‌का एक ‘पुष्कल’ होता है और चार पुष्कलका एक ‘पूर्णपात्र’ होता है। इस प्रकार दे सौ छप्पन मुट्ठीका एक पूर्णपात्र होता है।

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