सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के इक्यावनवें अध्याय से पचपनवें अध्याय तक (From the 51 chapter to the 55 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))



सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

इक्यावनवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इक्यावनवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्मके द्वारा श्रीकृष्णकी स्तुति तथा श्रीकृष्णका भीष्मकी प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिरके लिये धर्मोपदेश करनेका आदेश”

      वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! परम बुद्धिमान् वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णका वचन सुनकर भीष्मजीने अपना मुँह कुछ ऊपर उठाया और हाथ जोड़कर कहा,

    भीष्मजी बोले ;— सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्ति और प्रलयके अधिष्ठान भगवान् श्रीकृष्ण! आपको नमस्कार है। हृषीकेश! आप ही इस जगत्‌की सृष्टि और संहार करनेवाले हैं। आपकी कभी पराजय नहीं होती। इस विश्वकी रचना करनेवाले परमेश्वर! आपको नमस्कार है। विश्वके आत्मा और विश्वकी उत्पत्तिके स्थान-भूत जगदीश्वर! आपको नमस्कार है। आप पाँचों भूतोंसे परे और सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये मोक्षस्वरूप हैं।

    तीनों लोकोंमें व्याप्त हुए आपको नमस्कार है। तीनों गुणोंसे अतीत आपको प्रणाम है। योगेश्वर! आपको नमस्कार है। आप ही सबके परम आधार हैं। पुरुषप्रवर! आपने मेरे सम्बन्धमें जो बात कही है, उससे मैं तीनों लोकोंमें व्याप्त हुए आपके दिव्य भावोंका साक्षात्कार कर रहा हूँ। गोविन्द! आपका जो सनातन रूप है, उसे भी मैं देख रहा हूँ। आपने ही अत्यन्त तेजस्वी वायुका रूप धारण करके ऊपरके सातों लोकोंको व्याप्त कर रखा है। स्वर्गलोक आपके मस्तकसे और वसुन्धरा देवी आपके पैरोंसे व्याप्त हैं। दिशाएँ आपकी भुजाएँ हैं। सूर्य नेत्र हैं और शुक्राचार्य आपके वीर्यमें प्रतिष्ठित हैं। आपका श्रीविग्रह तीसीके फूलकी भाँति श्याम है। उसपर पीताम्बर शोभा दे रहा है, वह कभी अपनी महिमासे च्युत नहीं होता। उसे देखकर हम अनुमान करते हैं कि बिजलीसहित मेघ शोभा पा रहा है। मैं आपकी शरणमें आया हुआ आपका भक्त हूँ, और अभीष्ट गतिको प्राप्त करना चाहता हूँ। कमलनयन! सुरश्रेष्ठ! मेरे लिये जो कल्याणकारी उपाय हो उसीका संकल्प कीजिये।

     श्रीकृष्ण बोले ;— राजन्! पुरुषप्रवर! मुझमें आपकी पराभक्ति है। इसीलिये मैंने आपको अपने दिव्य स्वरूपका दर्शन कराया है। भारत! राजेन्द्र! जो मेरा भक्त नहीं है अथवा भक्त होनेपर भी सरल स्वभावका नहीं है। जिसके मनमें शान्ति नहीं है, उसे मैं अपने स्वरूपका दर्शन नहीं कराता। आप मेरे भक्त तो हैं ही। आपका स्वभाव भी सरल है। आप इन्द्रिय-संयम, तपस्या, सत्य और दानमें तत्पर रहनेवाले तथा परम पवित्र हैं। भूपाल! आप अपने तपोबलसे ही मेरा दर्शन करनेके योग्य हैं। आपके लिये वे दिव्य लोक प्रस्तुत हैं जहाँसे फिर इस लोकमें नहीं आना पड़ता।

   कुरुवीर भीष्म! अब आपके जीवनके कुल छप्पन दिन शेष हैं। तदनन्तर आप इस शरीरका त्याग करके अपने शुभ कर्मोंके फलस्वरूप उत्तम लोकोंमें जायँगे। देखिये, ये प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी देवता और वसु विमानोंमें बैठकर आकाशमें अदृश्यरूपसे रहते हुए सूर्य उत्तरायण होने और आपके आनेकी बाट जोहते हैं। पुरुषोंमें प्रमुख वीर! जब भगवान् सूर्य कालवश दक्षिणायनसे लौटते हुए उत्तर दिशाके मार्गपर लौटेंगे, उस समय आप उन्हीं लोकोंमें जाइयेगा जहाँ जाकर ज्ञानी पुरुष फिर इस संसारमें नहीं लौटते हैं। वीर भीष्म! जब आप परलोकमें चले जाइयेगा उस समय सारे ज्ञान लुप्त हो जायँगे; अतः ये सब लोग आपके पास धर्मका विवेचन करानेके लिये आये हैं। ये सत्यपरायण युधिष्ठिर बन्धुजनोंके शोकसे अपना सारा शास्त्रज्ञान खो बैठे हैं; अतः आप इन्हें धर्म, अर्थ और योगसे युक्त यथार्थ बातें सुनाकर शीघ्र ही इनका शोक दूर कीजिये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें श्रीकृष्णवाक्यविषयक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

बावनवाँ अध्याय

“भीष्मका अपनी असमर्थता प्रकट करना, भगवान्‌का उन्हें वर देना तथा ऋषियों एवं पाण्डवोंका दूसरे दिन आनेका संकेत करके वहाँसे विदा होकर अपने-अपने स्थानोंको जाना”

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) बावनवें अध्याय के श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद)

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! श्रीकृष्णाका यह धर्म और अर्थसे युक्त हितकर वचन सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्मने दोनों हाथ जोड़कर कहा,

   भीष्मजी ने कहा ;— ‘लोकनाथ! महाबाहो! शिव! नारायण! अच्युत! आपका यह वचन सुनकर मैं आनन्दके समुद्रमें निमग्न हो गया हूँ। ‘भला’ मैं आपके समीप क्या कह सकूँगा? जब कि वाणीका सारा विषय आपकी वेदमयी वाणीमें प्रतिष्ठित है। ‘देव! लोकमें कहीं भी जो कुछ कर्तव्य किया जाता है, वह सब आप बुद्धिमान् परमेश्वरसे ही प्रकट हुआ है। ‘जो मनुष्य देवराज इन्द्रके निकट देवलोकका वृत्तान्त बतानेका साहस कर सके, वही आपके सामने धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी बात कह सकता है। ‘मधुसूदन! इन बाणोंके गड़नेसे जो जलन हो रही है, उसके कारण मेरे मनमें बड़ी व्यथा है। सारा शरीर पीड़ाके मारे शिथिल हो गया है और बुद्धि कुछ काम नहीं दे रही है। ‘गोविन्द! ये बाण विष और अग्निके समान मुझे निरन्तर पीड़ा दे रहे हैं; अतः मुझमें कुछ भी कहनेकी शक्ति नहीं रह गयी है। ‘मेरा बल शरीरको छोड़ता-सा जान पड़ता है। ये प्राण निकलनेको उतावले हो रहे हैं। मेरे मर्मस्थानोंमें बड़ी पीड़ा हो रही है; अतः मेरा चित्त भ्रान्त हो गया है। 

      ‘दुर्बलताके कारण मेरी जीभ तालूमें सट जाती है, ऐसी दशामें मैं कैसे बोल सकता हूँ? दशार्हकुलकी वृद्धि करनेवाले प्रभो! आप मुझपर पूर्णरूपसे प्रसन्न हो जाइये। ‘महाबाहो! क्षमा कीजिये। मैं बोल नहीं सकता। आपके निकट प्रवचन करनेमें बृहस्पतिजी भी शिथिल हो सकते हैं; फिर मेरी क्या बिसात है? ‘मधुसूदन! मुझे न तो दिशाओंका ज्ञान है और न आकाश एवं पृथ्वीका ही भान हो रहा है। केवल आपके प्रभावसे ही जी रहा हूँ। ‘इसलिये आप स्वयं ही जिसमें धर्मराजका हित हो, वह बात शीघ्र बताइये; क्योंकि आप शास्त्रोंके भी शास्त्र हैं। ‘श्रीकृष्ण! आप जगत्‌के कर्ता और सनातन पुरुष हैं। आपके रहते हुए मेरे-जैसा कोई भी मनुष्य कैसे उपदेश कर सकता है? क्या गुरुके रहते हुए शिष्य उपदेश देनेका अधिकारी है?’

    भगवान् श्रीकृष्ण बोले ;— भीष्मजी! आप कुरुकुलका भार वहन करनेवाले, महापराक्रमी, परम धैर्यवान्, स्थिर तथा सर्वार्थदर्शी हैं; आपका यह कथन सर्वथा युक्तिसंगत है। गङ्गानन्दन भीष्म! प्रभो! बाणोंके आघातसे होनेवाली पीड़ाके विषयमें जो आपने कहा है, उसके लिये आप मेरी प्रसन्नतासे दिये हुए इस ‘वर’ को ग्रहण करें। गङ्गाकुमार! अब आपको न ग्लानि होगी न मूर्छा; न दाह होगा न रोग, भूख और प्यासका कष्ट भी नहीं रहेगा। अनघ! आपके अन्तःकरणमें सम्पूर्ण ज्ञान प्रकाशित हो उठेंगे। आपकी बुद्धि किसी भी विषयमें कुण्ठित नहीं होगी।

    भीष्म! आपका मन मेघके आवरणसे मुक्त हुए चन्द्रमाकी भाँति रजोगुण और तमोगुणसे रहित होकर सदा सत्त्वगुणमें स्थित रहेगा।  आप जिस-जिस धर्मयुक्त या अर्थयुक्त विषयका चिन्तन करेंगे, उसमें आपकी बुद्धि सफलतापूर्वक आगे बढ़ती जायगी। अमितपराक्रमी नृपश्रेष्ठ! आप दिव्य दृष्टि पाकर स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज और जरायुज—इन चारों प्रकारके प्राणियोंको देख सकेंगे। भीष्म! ज्ञानदृष्टिसे सम्पन्न होकर आप संसारबन्धनमें पड़नेवाले सम्पूर्ण जीवसमुदायको उसी तरह यथार्थ रूपसे देख सकेंगे, जैसे मत्स्य निर्मल जलमें सब कुछ देखता रहता है।

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! तदनन्तर व्याससहित सम्पूर्ण महर्षियोंने ऋक्, यजु तथा सामवेदके मन्त्रोंसे भगवान् श्रीकृष्णका पूजन किया। तत्पश्चात् जहाँ गङ्गापुत्र भीष्म और पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके साथ वृष्णिवंशी भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान थे, वहाँ आकाशसे सभी ऋतुओंमें खिलनेवाले दिव्य पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। सब प्रकारके बाजे बजने लगे, अप्सराओंके समुदाय गीत गाने लगे। वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं देखा जाता था जो अहितकर और अनिष्टकारक हो। शीतल, सुखद, मन्द, पवित्र एवं सर्वथा सुगन्धयुक्त वायु चल रही थी, सम्पूर्ण दिशाएँ शान्त थीं और उनमें रहनेवाले पशु एवं पक्षी शान्तभावसे मनोहर वचन बोल रहे थे। इसी समय दो ही घड़ीमें भगवान् सहस्रकिरणमाली दिवाकर पश्चिम दिशाके एकान्त प्रदेशमें वहाँके वनप्रान्तको दग्ध करते हुए-से दिखायी दिये।

    तब सभी महर्षियोंने उठकर भगवान् श्रीकृष्ण, भीष्म तथा राजा युधिष्ठिरसे विदा माँगी।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) बावनवें अध्याय के श्लोक 28–34 का हिन्दी अनुवाद)

    इसके बाद पाण्डवोंसहित श्रीकृष्ण, सात्यकि, संजय तथा शरद्वान्‌के पुत्र कृपाचार्यने उन सबको प्रणाम किया। उनके द्वारा भलीभाँति पूजित हुए वे धर्मपरायण महर्षि, ‘हमलोग फिर कल सबेरे यहाँ आयँगे’ ऐसा कहकर तुरंत ही अपने-अपने अभीष्ट स्थानको चले गये। इसी प्रकार श्रीकृष्ण और पाण्डव भी गङ्गानन्दन भीष्मजीसे जानेकी आज्ञा ले उनकी परिक्रमा करके अपने मङ्गलमय रथोंपर जा बैठे।

    सुवर्णनिर्मित विचित्र कूबरोंवाले रथों, पर्वताकार मतवाले हाथियों, गरुड़के समान तीव्रगतिसे चलनेवाले घोड़ों तथा हाथमें धुनष-बाण आदि लिये हुए पैदल सैनिकोंसे युक्त वह विशाल सेना रथोंके आगे और पीछे भी बहुत दूरतक फैलकर वैसी ही शोभा पाने लगी, जैसे ऋक्षवान् पर्वतके पास पहुँचकर पूर्व और पश्चिम दिशामें भी प्रवाहित होनेवाली महानदी नर्मदा सुशोभित होती है। इसके बाद पूर्व दिशाके आकाशमें भगवान् चन्द्रदेवका उदय हुआ, जो उस सेनाका हर्ष बढ़ा रहे थे और सूर्यने जिन बड़ी-बड़ी ओषधियोंका रस पी लिया था, उन सबको अपनी सुधावर्षी किरणों-द्वारा पुनः उनके स्वाभाविक गुणोंसे सम्पन्न कर रहे थे। तदनन्तर वे यदुकुलके श्रेष्ठ वीर तथा पाण्डव सुरपुरके समान शोभा पानेवाले हस्तिनापुरमें प्रवेश करके यथायोग्य श्रेष्ठ महलोंके भीतर चले गये। ठीक उसी तरह, जैसे थके-मादे सिंह विश्रामके लिये पर्वतकी कन्दराओंमें प्रवेश करते हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिर आदिका आगमनविषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

तिरपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तिरपनवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“भगवान् श्रीकृष्णकी प्रातश्चर्या, सात्यकिद्वारा उनका संदेश पाकर भाइयोंसहित युधिष्ठिरका उन्हींके साथ कुरुक्षेत्रमें पधारना”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! तदनन्तर मधुसूदन भगवान् श्रीकृष्ण एक सुन्दर शय्याका आश्रय लेकर सो गये। जब आधा पहर रात बीतनेको बाकी रह गयी, तब वे जागकर उठ बैठे।  तत्पश्चात् ध्यानमार्गमें स्थित हो माधव सम्पूर्ण ज्ञानोंको प्रत्यक्ष करके अपने सनातन ब्रह्मस्वरूपका चिन्तन करने लगे। इसी समय स्तुति और पुराणोंके ज्ञाता, मधुरकण्ठवाले, सुशिक्षित सूत-मागध और वन्दीजन विश्वनिर्माता, प्रजापालक उन भगवान् वासुदेवकी स्तुति करने लगे। हाथसे वीणा आदि बजानेवाले पुरुष स्तुतिपाठ करने लगे, गायक गीत गाने लगे और सहस्रों मनुष्य शंख एवं मृदङ्ग बजाने लगे।

    वीणा, पणव तथा मुरलीका अत्यन्त मनोरम स्वर इस तरह सुनायी देने लगा, मानो उस महलका अट्टहास सब ओर फैल रहा हो। तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिरके भवनसे भी मधुर, मङ्गलमयी वाणी तथा गीत-वाद्यकी ध्वनि प्रकट होने लगी। तत्पश्चात् अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होने वाले महाबाहु भगवान् श्रीकृष्णने शय्यासे उठकर स्नान किया, फिर गूढ़ गायत्री-मन्त्रका जप करके हाथ जोड़े हुए अग्निके समीप जा बैठे।

   वहाँ अग्निहोत्र करनेके अनन्तर भगवान् माधवने चारों वेदोंके विद्वान् एक हजार ब्राह्मणोंको बुलाकर प्रत्येकको एक-एक हजार गौएँ दान कीं और उनसे वेदमन्त्रोंका पाठ एवं स्वस्तिवाचन कराया। इसके बाद माङ्गलिक वस्तुओंका स्पर्श करके भगवान्‌ने स्वच्छ दर्पणमें अपने स्वरूपका दर्शन किया और सात्यकिसे कहा,

     श्रीकृष्ण ने कहा ;— ‘शिनिनन्दन! जाओ, राजमहलमें जाकर पता लगाओ कि महातेजस्वी राजा युधिष्ठिर भीष्मजीके दर्शनार्थ चलनेके लिये तैयार हो गये क्या?’ श्रीकृष्णकी आज्ञा पाकर सात्यकि तुरंत वहाँसे चल दिये और राजा युधिष्ठिरके पास जाकर बोले,

    सात्यकि बोले ;— ‘राजन्! परम बुद्धिमान् भगवान् वासुदेवका श्रेष्ठ रथ जुतकर तैयार हो गया है। श्रीजनार्दन शीघ्र ही गङ्गानन्दन भीष्मके समीप जानेवाले हैं। ‘महातेजस्वी धर्मराज! भगवान् श्रीकृष्ण आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब आप जो उचित समझें, वह कार्य कर सकते हैं’। सात्यकिके इस प्रकार कहनेपर धर्मपुत्र युधिष्ठिरने अर्जुनको यह आदेश दिया।

      युधिष्ठिर बोले ;— अनुपम तेजस्वी अर्जुन! मेरा श्रेष्ठ रथ जोतकर तैयार कराओ। आज सैनिकोंको हमारे साथ नहीं जाना चाहिये। केवल हमलोगोंको ही चलना है। धनंजय! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भीष्मजीको अधिक भीड़ बढ़ाकर कष्ट देना उचित नहीं है। अतः आगे चलनेवाले सैनिकोंको भी जानेके लिये मना कर देना चाहिये।

     कुन्तीनन्दन! आजसे गङ्गाकुमार भीष्मजी धर्मके अत्यन्त गूढ़ रहस्यका उपदेश करेंगे। अतः मैं भिन्न-भिन्न रुचि रखनेवाले साधारण जनसमाजको वहाँ नहीं जुटाना चाहता।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! युधिष्ठिरकी आज्ञा शिरोधार्य करके कुन्तीकुमार नरश्रेष्ठ अर्जुनने वैसा ही किया। फिर आकर उन्हें सूचना दी कि महाराजका श्रेष्ठ रथ तैयार है। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब एक रथपर आरूढ़ हो श्रीकृष्णके निवासस्थानपर गये, मानो समस्त महाभूत मूर्तिमान् होकर पधारे हों।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तिरपनवें अध्याय के श्लोक 19–28 का हिन्दी अनुवाद)

   महात्मा पाण्डवोंके पदार्पण करनेपर सात्यकिसहित बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण भी एक ही रथपर आरूढ़ हो गये। रथपर बैठे-बैठे ही उन सबने बातचीत की, और एक-दूसरेसे रात्रिके सुखपूर्वक व्यतीत होनेका कुशल-समाचार पूछा। फिर वे नरश्रेष्ठ मेघगर्जनाके समान गम्भीर घोष करनेवाले श्रेष्ठ रथोंद्वारा वहाँसे चल पड़े।

   दारुकने वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णके बलाहक, मेघपुष्प, शैब्य और सुग्रीव नामक घोड़ोंको हाँका। राजन्! उस समय दारुकद्वारा हाँके गये श्रीकृष्णके वे घोड़े अपनी टापोंके अग्रभागसे पृथ्वीपर चिह्न बनाते हुए बड़े वेगसे दौड़े। उन अश्वोंका बल और वेग महान् था। वे आकाशको पीते हुए-से उड़ चले, और बात-की-बातमें सम्पूर्ण धर्मके क्षेत्रभूत कुरुक्षेत्रमें जा पहुँचे।

    तदनन्तर वे सब लोग उस स्थानपर गये जहाँपर प्रभावशाली भीष्मजी बाणशय्यापर सो रहे थे। जैसे देवताओंसे घिरे हुए ब्रह्माजी शोभा पाते हैं, उसी प्रकार महर्षियोंके साथ भीष्मजी सुशोभित हो रहे थे। तत्पश्चात् रथसे उतरकर भगवान् श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, भीमसेन, गाण्डीवधारी अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा सात्यकिने अपने-अपने दाहिने हाथोंको उठाकर ऋषियोंके प्रति सम्मानका भाव प्रदर्शित किया।

    नक्षत्रोंसे घिरे हुए चन्द्रमाकी भाँति भाइयोंसे घिरे हुए राजा युधिष्ठिर गङ्गानन्दन भीष्मके समीप गये, मानो देवराज इन्द्र ब्रह्माजीके निकट पधारे हों। शर-शय्यापर सोये हुए महाबाहु भीष्मजी वैसे ही दिखायी दे रहे थे, मानो सूर्यदेव आकाशसे पृथ्वीपर गिर पड़े हों। युधिष्ठिरने उसी अवस्थामें उनका दर्शन किया। उस समय वे भयसे काँप उठे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिर आदिका भीष्मके समीप गमनविषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

चौवनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चौवनवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“भगवान् श्रीकृष्ण और भीष्मजीकी बातचीत”

     जनमेजयने पूछा ;— महामुने! धर्मात्मा, महापराक्रमी, सत्यप्रतिज्ञ, जितात्मा, धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले महाभाग शान्तनुनन्दन गङ्गाकुमार पुरुषसिंह देवव्रत भीष्म जब वीरशय्यापर सो रहे थे और पाण्डव उनकी सेवामें आकर उपस्थित हो गये थे, उस समय वीर पुरुषोंके उस समागमके अवसरपर, जब कि उभयपक्षकी सम्पूर्ण सेनाएँ मारी जा चुकी थीं, कौन-कौनसी बातें हुईं? यह मुझे बतानेकी कृपा करें।

     वैशम्पायनजीने कहा ;— नरेश्वर! कौरवकुलका भार वहन करनेवाले भीष्मजी जब बाणशय्यापर सो रहे थे, उस समय वहाँ नारद आदि सिद्ध महर्षि भी पधारे थे। महाभारत-युद्धमें जो लोग मरनेसे बच गये थे, वे युधिष्ठिर आदि राजा तथा धृतराष्ट्र, श्रीकृष्ण, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव—ये सभी महामनस्वी पुरुष पृथ्वीपर गिरे हुए सूर्यके समान प्रतीत होनेवाले, भरतवंशियोंके पितामह, गङ्गानन्दन भीष्मजीके पास जाकर बारंबार शोक प्रकट करने लगे।

    तब दिव्य दृष्टि रखनेवाले देवर्षि नारदने दो घड़ीतक कुछ सोच-विचारकर समस्त पाण्डवों तथा मरनेसे बचे हुए अन्य नरेशोंको सम्बोधित करके कहा,

     नारद जी ने कहा ;— ‘भरतनन्दन युधिष्ठिर तथा अन्य भूपालगण! मैं आप लोगोंको समयोचित कर्तव्य बता रहा हूँ। आपलोग गङ्गानन्दन भीष्मजीसे धर्म और ब्रह्मके विषयमें प्रश्न कीजिये, क्योंकि अब ये भगवान् सूर्यके समान अस्त होनेवाले हैं। ‘भीष्मजी अपने प्राणोंका परित्याग करना चाहते हैं, अतः आप सब लोग इनसे अपने मनकी बातें पूछ लें; क्योंकि ये चारों वर्णोंके सम्पूर्ण एवं विभिन्न धर्मोंको जानते हैं। ‘भीष्मजी अत्यन्त वृद्ध हो गये हैं और अपने शरीरका त्याग करके उत्तम लोकोंमें पदार्पण करनेवाले हैं; अतः आप लोग शीघ्र ही इनसे अपने मनके संदेह पूछ लें’।

      वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! नारदजीके ऐसा कहनेपर सब नरेश भीष्मजीके निकट आ गये; परंतु उन्हें उनसे कुछ पूछनेका साहस नहीं हुआ। वे सभी एक दूसरेका मुँह ताकने लगे। तब पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरने हृषीकेशकी ओर लक्ष्य करके कहा,

    युधिष्ठिर बोले ;— ‘दिव्यज्ञानसम्पन्न देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो पितामहसे प्रश्न कर सके’,

    (फिर श्रीकृष्णसे कहने लगे—) ‘मधुसूदन! यदुश्रेष्ठ! आप ही पहले वार्तालाप आरम्भ कीजिये। तात! आप ही हम सब लोगोंमें सम्पूर्ण धर्मोंके श्रेष्ठ ज्ञाता हैं’। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने दुर्जय भीष्मजीके निकट जाकर इस प्रकार बातचीत की। 

     भगवान् श्रीकृष्ण बोले ;— नृपश्रेष्ठ भीष्मजी! आपकी रात सुखसे बीती है न? क्या आपको सभी ज्ञातव्य विषयोंका सुस्पष्टरूपसे दर्शन करानेवाली निर्मल बुद्धि प्राप्त हो गयी?। निष्पाप भीष्म! क्या आपके अन्तःकरणमें सब प्रकारके ज्ञान प्रकाशित हो रहे हैं? आपके हृदयमें ग्लानि तो नहीं है? आपका मन व्याकुल तो नहीं हो रहा है?

     भीष्मजी बोले ;— वृष्णिनन्दन! आपकी कृपासे मेरे शरीरकी जलन, मनका मोह, थकावट, विकलता, ग्लानि तथा रोग—ये सब तत्काल दूर हो गये थे। परम तेजस्वी पुरुषोत्तम! अब मैं हाथपर रखे हुए फलकी भाँति भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंकी सभी बातें सुस्पष्टरूपसे देख रहा हूँ॥

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चौवनवें अध्याय के श्लोक 19–28 का हिन्दी अनुवाद)

     अच्युत! वेदोंमें जो धर्म बताये गये हैं तथा वेदान्तों (उपनिषदों)-द्वारा जिनको जाना गया है, उन सब धर्मोंको मैं आपके वरदानके प्रभावसे प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। जनार्दन! शिष्ट पुरुषोंने जिस धर्मका उपदेश किया है, वह भी मेरे हृदयमें स्फुरित हो रहा है। देश, जाति और कुलके धर्मोंका भी इस समय मुझे पूर्ण ज्ञान है। चारों आश्रमोंके धर्मोंमें जो सारभूत तत्त्व है, वह भी मेरे हृदयमें प्रकाशित हो रहा है। केशव! इस समय मैं सम्पूर्ण राजधर्मोंको भी भलीभाँति जानता हूँ। जनार्दन! जिस विषयमें जो कुछ भी कहने योग्य बात है, वह सब मैं कहूँगा। आपकी कृपासे मेरे हृदयमें निर्मल मन और कल्याणमयी बुद्धिका आवेश हुआ है। जनार्दन! आपके निरन्तर चिन्तनसे मेरी शक्ति इतनी बढ़ गयी है कि मैं जवान-सा हो गया हूँ। आपके प्रसादसे अब मैं कल्याणकारी उपदेश देनेमें समर्थ हूँ॥ माधव! तो भी मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप स्वयं ही पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको कल्याणकारी उपदेश क्यों नहीं देते हैं? इस विषयमें आप क्या कहना चाहते हैं? यह शीघ्र बताइये।

    भगवान् श्रीकृष्णने कहा ;— कुरुनन्दन! आप मुझे ही यश और श्रेयका मूल समझें। संसारमें जो भी सत् और असत् पदार्थ हैं, वे सब मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं। ‘चन्द्रमा शीतल किरणोंसे सम्पन्न हैं’ यह बात कहनेपर जगत्‌में किसको आश्चर्य होगा? अर्थात् किसीको नहीं होगा। उसी प्रकार सम्पूर्ण यशसे सम्पन्न मुझ परमेश्चरके द्वारा कोई उत्तम उपदेश प्राप्त हो तो उसे सुनकर कौन आश्चर्य करेगा?

    महातेजस्वी भीष्म! मुझे इस जगत्‌में आपके महान् यशकी प्रतिष्ठा करनी है, अतः मैंने अपनी विशाल बुद्धि आपको समर्पित की है। भूपाल! जबतक यह अचला पृथ्वी स्थिर रहेगी, तबतक सम्पूर्ण जगत्‌में आपकी अक्षय कीर्ति विख्यात होती रहेगी।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चौवनवें अध्याय के श्लोक 29–38 का हिन्दी अनुवाद)

    भीष्म! आप पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरके प्रश्न करनेपर उसके उत्तरमें जो कुछ कहेंगे, वह वेदके सिद्धान्तकी भाँति इस भूतलपर मान्य होगा। जो मनुष्य आपके इस उपदेशको प्रमाण मानकर उसे अपने जीवनमें उतारेगा, वह मृत्युके बाद सब प्रकारके पुण्योंका फल प्राप्त करेगा। भीष्म! इसीलिये मैंने आपको दिव्य बुद्धि प्रदान की है कि जिस किसी प्रकारसे भी आपके महान् यशका इस भूतलपर विस्तार हो। जगत्‌में जबतक भूतलपर मनुष्यके यशका विस्तार होता रहता है, तबतक उसकी परलोकमें अचल स्थिति बनी रहती है, यह निश्चय है। भारत! नरेश्वर! मरनेसे बचे हुए ये भूपाल आपके पास धर्मकी जिज्ञासासे बैठे हैं। आप इन सबको धर्मका उपदेश करें।

    आपकी अवस्था सबसे बड़ी है। आप शास्त्रज्ञान तथा सदाचारसे सम्पन्न हैं। साथ ही समस्त राजधर्मों तथा अन्य धर्मोंके ज्ञानमें भी आप कुशल हैं। जन्मसे लेकर आजतक किसीने भी आपमें कोई भी दोष (पाप) नहीं देखा है। सब राजा इस बातको स्वीकार करते हैं कि आप सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता हैं। राजन्! आप इन राजाओंको उसी प्रकार उत्तम नीतिका उपेदश करें, जैसे पिता अपने पुत्रको सद्धर्मकी शिक्षा देता है। आपने देवताओं और ऋषियोंकी सदा उपासना की है; इसलिये आपको अवश्य ही सम्पूर्ण धर्मोंका उपदेश करना चाहिये।

    मनीषी पुरुषोंने यह धर्म बताया है कि ‘श्रेष्ठ विद्वान् पुरुषसे जब कुछ पूछा जाय तो उसे उचित है कि वह सुननेकी इच्छावाले लोगोंको धर्मका उपदेश दे’। प्रभो! जो मनुष्य जानते हुए भी श्रद्धापूर्वक प्रश्न करनेवालेको उपदेश नहीं देता, उसे अत्यन्त दुःखदायक दोषकी प्राप्ति होती है; अतः भरतश्रेष्ठ! धर्मको जाननेकी इच्छावाले अपने पुत्रों और पौत्रोंके पूछनेपर उन्हें सनातन धर्मका उपदेश करें; क्योंकि आप धर्मशास्त्रोंके विद्वान् हैं।

“इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें श्रीकृष्ण-वाक्यविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ”

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

पचपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पचपनवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्मका युधिष्ठिरके गुणकथनपूर्वक उनको प्रश्न करनेका आदेश देना, श्रीकृष्णका उनके लज्जित और भयभीत होनेका कारण बताना और भीष्मका आश्वासन पाकर युधिष्ठिरका उनके समीप जाना”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! श्रीकृष्णकी बात सुनकर कुरुकुलका आनन्द बढ़ानेवाले महातेजस्वी भीष्मजीने कहा,

    भीष्मजी बोले ;— ‘गोविन्द! आप सम्पूर्ण भूतोंके सनातन आत्मा हैं। आपके प्रसादसे मेरी वाक्‌शक्ति सुदृढ़ है और मन भी स्थिर हो गया है; अतः मैं समस्त धर्मोंका प्रवचन करूँगा। ‘धर्मात्मा युधिष्ठिर मुझसे एक-एक करके धर्मोंके विषयमें प्रश्न करें, इससे मुझे प्रसन्नता होगी और मैं सम्पूर्ण धर्मोंका उपदेश कर सकूँगा।

     ‘जिन राजर्षिशिरोमणि धर्मपरायण महात्मा युधिष्ठिरका जन्म होनेपर सभी महर्षि हर्षसे खिल उठे थे, वे ही पाण्डुपुत्र मुझसे प्रश्न करें। ‘जिनके यशका प्रताप सर्वत्र छा रहा है, उन समस्त धर्माचारी कौरवोंमें जिनकी समानता करनेवाला कोई नहीं है, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें। ‘जिनमें धैर्य, इन्द्रियसंयम, ब्रह्मचर्य, क्षमा, धर्म, ओज और तेज सदा विद्यमान रहते हैं, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें। ‘जो सम्बन्धियों, अतिथियों, भृत्यों तथा शरणागतोंका सदा सत्कारपूर्वक विशेष सम्मान करते हैं, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें। ‘जिनमें सत्य, दान, तप, शूरता, शान्ति, दक्षता तथा असम्भ्रम (स्थिरचित्तता)—ये समस्त सद्‌गुण सदा मौजूद रहते हैं, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें। ‘जो न तो कामनासे, न क्रोधसे, न भयसे और न किसी स्वार्थके ही लोभसे अधर्म करते हैं, वे धर्मात्मा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें।

    ‘जिनमें सदा ही सत्य, सदा ही क्षमा और सदा ही ज्ञानकी स्थिति है, जो निरन्तर अतिथिसत्कारके प्रेमी हैं और सत्पुरुषोंको सदा दान देते रहते हैं, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें।

   ‘जिन्होंने शास्त्रोंके रहस्यका श्रवण किया है, जो सदा ही यज्ञ, स्वाध्याय और धर्ममें लगे रहनेवाले तथा क्षमाशील हैं, वे पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें’॥

भगवान् श्रीकृष्ण बोले ;— प्रजानाथ! धर्मराज युधिष्ठिर बहुत लज्जित हैं, वे शापके भयसे डरे होनेके कारण आपके निकट नहीं आ रहे हैं। प्रजापालक भीष्म! ये लोकनाथ युधिष्ठिर जगत्‌का संहार करके शापके भयसे त्रस्त हो उठे हैं; इसीलिये आपके निकट नहीं आते हैं।   पूजनीय, माननीय गुरुजनों, भक्तों तथा अर्घ्य आदिके द्वारा सत्कार करने योग्य सम्बन्धियों एवं बन्धु-बान्धवोंका बाणोंद्वारा भेदन करके भयके मारे ये आपके पास नहीं आ रहे हैं।

    भीष्मजीने कहा ;— श्रीकृष्ण! जैसे दान, अध्ययन और तप ब्राह्मणोंका धर्म है, उसी प्रकार समरभूमिमें शत्रुओंके शरीरको मार गिराना क्षत्रियोंका धर्म है। जो असत्यके मार्गपर चलनेवाले पिता (ताऊ-चाचा), बाबा, भाई, गुरुजन, सम्बन्धी तथा बन्धु-बान्धवोंको संग्राममें मार डालता है, उसका वह कार्य धर्म ही है।

    केशव! जो क्षत्रिय लोभवश धर्ममर्यादाका उल्लंघन करनेवाले पापाचारी गुरुजनोंका भी समराङ्गणमें वध कर डालता है, वह अवश्य ही धर्मका ज्ञाता है। जो लोभवश सनातन धर्ममर्यादाकी ओर दृष्टिपात नहीं करता, उसे जो क्षत्रिय समरभूमिमें मार गिराता है, वह निश्चय ही धर्मज्ञ है।

   जो क्षत्रिय युद्धभूमिमें रक्तरूपी जल, केशरूपी तृण, हाथीरूपी पर्वत और ध्वजरूपी वृक्षोंसे युक्त खूनकी नदी बहा देता है, वह धर्मका ज्ञाता है। संग्राममें शत्रुके ललकारनेपर क्षत्रिय-बन्धुको सदा ही युद्धके लिये उद्यत रहना चाहिये। मनुजीने कहा है कि युद्ध क्षत्रियके लिये धर्मका पोषक, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला और लोकमें यश फैलानेवाला है।

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! भीष्मजीके ऐसा कहनेपर धर्मपुत्र युधिष्ठिर उनके पास जाकर एक विनीत पुरुषके समान उनकी दृष्टिके सामने खड़े हो गये। फिर उन्होंने भीष्मजीके दोनों चरण पकड़ लिये। तब भीष्मजीने उन्हें आश्वासन देकर प्रसन्न किया और उनका मस्तक सूँघकर कहा,

    भीष्मजीने कहा ;—— ‘बेटा! बैठ जाओ’। 

तत्पश्चात् सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ गङ्गानन्दन भीष्मजीने उनसे कहा,

    भीष्म जीने पुनः कहा ;— ‘तात! मैं इस समय स्वस्थ हूँ, तुम मुझसे निर्भय होकर प्रश्न करो। कुरुश्रेष्ठ! तुम भय न मानो’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरको आश्वासनविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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