सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
छियालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छियालीसवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर और श्रीकृष्णका संवाद, श्रीकृष्णद्वारा भीष्मकी प्रशंसा और युधिष्ठिरको उनके पास चलनेका आदेश”
युधिष्ठिरने पूछा ;— अमितपराक्रमी, जगत्के आश्रयदाता पुरुषोत्तम! आप यह किसका ध्यान कर रहे हैं? यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है! इस त्रिलोकीका कुशल तो है न? आप तो जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—तीनों अवस्थाओंसे परे तुरीय ध्यानमार्गका आश्रय लेकर स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरोंसे ऊपर उठ गये हैं। इससे मेरे मनको बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आप के शरीरमें रहनेवाली और श्वास-प्रश्वास आदि पाँच कर्म करनेवाली प्राणवायु अवरुद्ध हो गयी है। आपने अपनी प्रसन्न इन्द्रियोंको मनमें स्थापित कर दिया है॥३॥
गोविन्द! मन तथा वाक् आदि सम्पूर्ण इन्द्रियाँ आपके द्वारा बुद्धिमें लीन कर दी गयी हैं। समस्त गुणोंको और इन्द्रियोंके अनुग्राहक देवताओंको आपने क्षेत्रज्ञ आत्मामें स्थापित कर दिया है। आपके रोंगटे खड़े हो गये हैं। जरा भी हिलते नहीं हैं। बुद्धि तथा मन भी स्थिर हैं। माधव! आप काठ, दीवार और पत्थरकी तरह निश्चेष्ट हो गये हैं। भगवन्! देवदेव! जैसे वायुशून्य स्थानमें रखे हुए दीपककी लौ काँपती नहीं, एकतार जलती रहती है, उसी तरह आप भी स्थिर हैं मानो पाषाणकी मूर्ति हों।
देव! यदि मैं सुननेका अधिकारी होऊँ और यदि यह आपका कोई गोपनीय रहस्य न हो तो मेरे इस संशयका निवारण कीजिये; इसके लिये मैं आपकी शरणमें आकर बारंबार याचना करता हूँ।
पुरुषोत्तम! आप ही इस जगत्को बनाने और विलीन करनेवाले हैं। आप ही क्षर और अक्षर पुरुष हैं। आपका न आदि है और न अन्त। आप ही सबके आदि कारण हैं।
मैं आपकी शरणमें आया हुआ भक्त हूँ और माथा टेककर आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ प्रभो! इस ध्यानका यथार्थ तत्त्व मुझे बता दीजिये, युधिष्ठिरकी यह प्रार्थना सुनकर मन, बुद्धि तथा इन्द्रियोंको अपने स्थानमें स्थापित करके इन्द्रके छोटे भाई भगवान् श्रीकृष्ण मुस्कराते हुए इस प्रकार बोले।
(ध्यानमग्न श्रीकृष्णसे युधिष्ठिर प्रश्न कर रहे हैं)
श्रीकृष्णने कहा ;— राजन्! बाण-शय्यापर पड़े हुए पुरुषसिंह भीष्म, जो इस समय बुझती हुई आगके समान हो रहे हैं, मेरा ध्यान कर रहे हैं; इसलिये मेरा मन भी उन्हींमें लगा हुआ है। बिजलीकी गड़गड़ाहटके समान जिनके धनुषकी टंकारको देवराज इन्द्र भी नहीं सह सके थे, उन्हीं भीष्मके चिन्तनमें मेरा मन लगा हुआ है। जिन्होंने काशीपुरीमें समस्त राजाओंके समुदायको वेगपूर्वक परास्त करके काशिराजकी तीनों कन्याओंका अपहरण किया था, उन्हीं भीष्मके पास मेरा मन चला गया है।
जो लगातार तेईस दिनोंतक भृगुनन्दन परशुरामजीके साथ युद्ध करते रहे, तो भी परशुरामजी जिन्हें परास्त न कर सके, उन्हीं भीष्मके पास मैं मनके द्वारा पहुँच गया था, वे भीष्मजी अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी वृत्तियोंको एकाग्रकर बुद्धिके द्वारा मनका संयम करके मेरी शरणमें आ गये थे; इसीलिये मेरा मन भी उन्हींमें जा लगा था। तात! भूपाल! जिन्हें गंगादेवीने विधिपूर्वक अपने गर्भमें धारण किया था और जिन्हें महर्षि वसिष्ठके द्वारा वेदोंकी शिक्षा प्राप्त हुई थी, उन्हीं भीष्मजीके पास मैं मन-ही-मन पहुँच गया था, जो महातेजस्वी बुद्धिमान् भीष्म दिव्यास्त्रों तथा अंगोंसहित चारों वेदोंको धारण करते हैं, उन्हींके चिन्तनमें मेरा मन लगा हुआ था।
पाण्डुकुमार! जो जमदग्निनन्दन परशुरामजीके प्रिय शिष्य तथा सम्पूर्ण विद्याओंके आधार हैं, उन्हीं भीष्मजीका मैं मन-ही-मन चिन्तन करता था, भरतश्रेष्ठ! वे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंकी बातें जानते हैं। धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ उन्हीं भीष्मका मैं मन-ही-मन चिन्तन करने लगा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छियालिसवें अध्याय के श्लोक 20-35 का हिन्दी अनुवाद)
पार्थ! जब पुरुषसिंह भीष्म अपने कर्मोंके अनुसार स्वर्गलोकमें चले जायँगे, उस समय यह पृथ्वी अमावास्याकी रात्रिके समान श्रीहीन हो जायगी। अतः महाराज युधिष्ठिर! आप भयानक पराक्रमी गंगानन्दन भीष्मके पास चलकर उनके चरणोंमें प्रणाम कीजिये और आपके मनमें जो संदेह हो उसे पूछिये। पृथ्वीनाथ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों विद्याओंको, होता, उद्गाता, ब्रह्मा और अध्वर्युसे सम्बन्ध रखनेवाले यज्ञादि कर्मोंको, चारों आश्रमोंके धर्मोंको तथा सम्पूर्ण राजधर्मोंको उनसे पूछिये, कौरववंशका भार सँभालनेवाले भीष्मरूपी सूर्य जब अस्त हो जायँगे, उस समय सब प्रकारके ज्ञानोंका प्रकाश नष्ट हो जायगा; इसलिये मैं आपको वहाँ चलनेके लिये कहता हूँ। भगवान् श्रीकृष्णका वह उत्तम और यथार्थ वचन सुनकर धर्मज्ञ युधिष्ठिरका गला भर आया और वे आँसू बहाते हुए वहाँ श्रीकृष्णसे कहने लगे,
युधिष्ठिर बोले ;— ‘माधव! भीष्मजीके प्रभावके विषयमें आप जैसा कहते हैं, वह सब ठीक है। उसमें मुझे भी संदेह नहीं है। ‘महातेजस्वी केशव! मैंने महात्मा ब्राह्मणोंके मुखसे भी भीष्मजीके महान् सौभाग्य और प्रभावका वर्णन सुना है। ‘शत्रुसूदन! यादवनन्दन! आप सम्पूर्ण जगत्के विधाता हैं। आप जो कुछ कह रहे हैं, उसमें भी सोचने-विचारनेकी आवश्यकता नहीं है। ‘माधव! यदि आपका विचार मेरे ऊपर अनुग्रह करनेका है तो हमलोग आपको ही आगे करके भीष्मजीके पास चलेंगे।
‘महाबाहो! सूर्यके उत्तरायण होते ही कुरुकुलभूषण भीष्म देवलोकको चले जायँगे; अतः उन्हें आपका दर्शन अवश्य प्राप्त होना चाहिये। ‘आप आदिदेव तथा क्षर-अक्षर पुरुष हैं। आपका दर्शन उनके लिये महान् लाभकारी होगा; क्योंकि आप ब्रह्ममयी निधि हैं’।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! धर्मराजका यह वचन सुनकर मधुसूदन श्रीकृष्णने पास ही खड़े हुए सात्यकिसे कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;— ‘मेरा रथ जोतकर तैयार किया जाय’ आज्ञा पाते ही सात्यकि श्रीकृष्णके पाससे तुरंत बाहर निकल गये और दारुकसे बोले,
सात्यकि ने कहा ;— ‘भगवान् श्रीकृष्णका रथ तैयार करो’ राजसिंह! सात्यकिका यह वचन सुनकर दारुकने मरकत, चन्द्रकान्त तथा सूर्यकान्त मणियोंकी ज्योतिर्मयी तरंगोंसे विभूषित उस उत्तम रथको, जिसका एक-एक अंग सुनहरे साजोंसे सजाया गया था तथा जिसके पहियोंपर सोनेके पत्र जड़े गये थे, जोतकर तैयार किया और हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्णको इसकी सूचना दी। वह शीघ्रगामी रथ सूर्यकी किरणोंके पड़नेसे उद्भासित हो तुरंतके उगे हुए सूर्यके समान प्रकाशित होता था, उसके भीतरी भागको नाना प्रकारकी विचित्र मणियोंसे विभूषित किया गया था। वह प्रतापी रथ विचित्र गरुड़चिह्नित ध्वजा और पताकासे सुशोभित था। उसमें सोनेके साजबाजसे सजे हुए अंगोंवाले, मनके समान वेगशाली, सुग्रीव और शैब्य आदि सुन्दर घोड़े जुते हुए थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें महापुरुषस्तुतिविषयक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
सैंतालीसवाँ अध्याय
“भीष्मद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति—भीष्मस्तवराज”
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सैंतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
जनमेजयने पूछा ;— बाणशय्यापर सोये हुए भरतवंशियोंके पितामह भीष्मजीने किस प्रकार अपने शरीरका त्याग किया और उस समय उन्होंने किस योगकी धारणा की?
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! कुरुश्रेष्ठ! तुम सावधान, पवित्र और एकाग्रचित्त होकर महात्मा भीष्मके देहत्यागका वृत्तान्त सुनो, राजन्! जब दक्षिणायन समाप्त हुआ और सूर्य उत्तरायणमें आ गये, तब माघमासके शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिको रोहिणीनक्षत्रमें मध्याह्नके समय भीष्मजीने ध्यान-मग्न होकर अपने मनको परमात्मामें लगा दिया, चारों ओर अपनी किरणें बिखेरनेवाले सूर्यके समान सैकड़ों बाणोंसे छिदे हुए भीष्म उत्तम शोभासे सुशोभित होने लगे, अनेकानेक श्रेष्ठ ब्राह्मण उन्हें घेरकर बैठे थे।
वेदोंके ज्ञाता व्यास, देवर्षि नारद, देवस्थान, वात्स्य, अश्मक, सुमन्तु, जैमिनि, महात्मा पैल, शाण्डिल्य, देवल, बुद्धिमान् मैत्रेय, असित, वसिष्ठ, महात्मा कौशिक (विश्वामित्र), हारीत, लोमश, बुद्धिमान् दत्तात्रेय, बृहस्पति, शुक्र, महामुनि च्यवन, सनत्कुमार, कपिल, वाल्मीकि, तुम्बुरु, कुरु, मौद्गल्य, भृगुवंशी परशुराम, महामुनि तृणबिन्दु, पिप्पलाद, वायु, संवर्त, पुलह, कच, कश्यप, पुलस्त्य, क्रतु, दक्ष, पराशर, मरीचि, अंगिरा, काश्य, गौतम, गालव मुनि, धौम्य, विभाण्ड, माण्डव्य, धौम्र, कृष्णानुभौतिक, श्रेष्ठ ब्राह्मण उलूक, महामुनि मार्कण्डेय, भास्करि, पूरण, कृष्ण और परम धार्मिक सूत—ये तथा और भी बहुत-से सौभाग्यशाली महात्मा मुनि, जो श्रद्धा, शम, दम आदि गुणोंसे सम्पन्न थे, भीष्मजीको घेरे हुए थे। इन ऋषियोंके बीचमें भीष्मजी ग्रहोंसे घिरे हुए चन्द्रमाके समान शोभा पा रहे थे। पुरुषसिंह भीष्म शरशय्यापर ही पड़े-पड़े हाथ जोड़ पवित्र भावसे मन, वाणी और क्रियाद्वारा भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करने लगे, ध्यान करते-करते वे हृष्ट-पुष्ट स्वरसे भगवान् मधुसूदनकी स्तुति करने लगे। वाग्वेत्ताओंमें श्रेष्ठ, शक्तिशाली, परम धर्मात्मा भीष्मने हाथ जोड़कर योगेश्वर, पद्मनाभ, सर्वव्यापी, विजयशील जगदीश्वर वासुदेवकी इस प्रकार स्तुति आरम्भ की।
भीष्मजी बोले ;— मैं श्रीकृष्णके आराधनकी इच्छा मनमें लेकर जिस वाणीका प्रयोग करना चाहता हूँ, वह विस्तृत हो या संक्षिप्त, उसके द्वारा वे पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों। जो स्वयं शुद्ध हैं, जिनकी प्राप्तिका मार्ग भी शुद्ध है, जो हंसस्वरूप, तत् पदके लक्ष्यार्थ परमात्मा और प्रजापालक परमेष्ठी हैं, मैं सब ओरसे सम्बन्ध तोड़ केवल उन्हींसे नाता जोड़कर सब प्रकारसे उन्हीं सर्वात्मा श्रीकृष्णकी शरण लेता हूँ।
उनका न आदि है न अन्त। वे ही परब्रह्म परमात्मा हैं। उनको न देवता जानते हैं न ऋषि। एकमात्र सबका धारण-पोषण करनेवाले ये भगवान् श्रीनारायण हरि ही उन्हें जानते हैं। नारायणसे ही ऋषिगण, सिद्ध, बड़े-बड़े नाग, देवता तथा देवर्षि भी उन्हें अविनाशी परमात्माके रूपमें जानने लगे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सैंतालीसवें अध्याय के श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद)
देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग भी जिनके विषयमें यह नहीं जानते हैं कि ‘ये भगवान् कौन हैं तथा कहाँसे आये हैं?’ उन्हींमें सम्पूर्ण प्राणी स्थित हैं और उन्हींमें उनका लय होता है। जैसे डोरेमें मनके पिरोये होते हैं, उसी प्रकार उन भूतेश्वर परमात्मामें समस्त त्रिगुणात्मक भूत पिरोये हुए हैं।
भगवान् सदा नित्य विद्यमान (कभी नष्ट न होनेवाले) और तने हुए एक सुदृढ़ सूतके समान हैं। उनमें यह कार्य-कारणरूप जगत् उसी प्रकार गुँथा हुआ है, जैसे सूतमें फूलकी माला। यह सम्पूर्ण विश्व उनके ही श्रीअंगमें स्थित है; उन्होंने ही इस विश्वकी सृष्टि की है। उन श्रीहरिके सहस्रों सिर, सहस्रों चरण और सहस्रों नेत्र हैं, वे सहस्रों भुजाओं, सहस्रों मुकुटों तथा सहस्रों मुखोंसे देदीप्यमान रहते हैं।
वे ही इस विश्वके परम आधार हैं। इन्हींको नारायणदेव कहते हैं। वे सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म और स्थूलसे भी स्थूल हैं। वे भारी-से-भारी और उत्तमसे भी उत्तम हैं। वाकों और अनुवाकोंमें2, निषदों और उपनिषदोंमें4 तथा सच्ची बात बतानेवाले साममन्त्रोंमें उन्हींको सत्य और सत्यकर्मा कहते हैं। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध—इन चार दिव्य गोपनीय और उत्तम नामोंद्वारा ब्रह्म, जीव, मन और अहंकार—इन चार स्वरूपोंमें प्रकट हुए उन्हीं भक्तप्रतिपालक भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की जाती है, जो सबके अन्तःकरणमें विद्यमान हैं।
भगवान् वासुदेवकी प्रसन्नताके लिये ही नित्य तपका अनुष्ठान किया जाता है; क्योंकि वे सबके हृदयोंमें विराजमान हैं। वे सबके आत्मा, सबको जाननेवाले, सर्वस्वरूप, सर्वज्ञ और सबको उत्पन्न करनेवाले हैं। जैसे अरणि प्रज्वलित अग्निको प्रकट करती है, उसी प्रकार देवकीदेवीने इस भूतलपर रहनेवाले ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञोंकी रक्षाके लिये उन भगवान्को वसुदेवजीके तेजसे प्रकट किया था।
सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके अनन्यभावसे स्थित रहनेवाला साधक मोक्षके उद्देश्यसे अपने विशुद्ध अन्तःकरणमें जिन पापरहित शुद्ध-बुद्ध परमात्मा गोविन्दका ज्ञानदृष्टिसे साक्षात्कार करता है, जिनका पराक्रम वायु और इन्द्रसे बहुत बढ़कर है, जो अपने तेजसे सूर्यको भी तिरस्कृत कर देते हैं तथा जिनके स्वरूपतक इन्द्रिय, मन और बुद्धिकी भी पहुँच नहीं हो पाती, उन प्रजापालक परमेश्वरकी मैं शरण लेता हूँ। पुराणोंमें जिनका ‘पुरुष’ नामसे वर्णन किया गया है, जो युगोंके आरम्भमें ‘ब्रह्म’ और युगान्तमें ‘संकर्षण’ कहे गये हैं, उन उपास्य परमेश्वरकी हम उपासना करते हैं।
जो एक होकर भी अनेक रूपोंमें प्रकट हुए हैं, जो इन्द्रियों और उनके विषयोंसे ऊपर उठे होनेके कारण ‘अधोक्षज’ कहलाते हैं, उपासकोंकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं, यज्ञादि कर्म और पूजनमें लगे हुए अनन्य भक्त जिनका यजन करते हैं, जिन्हें जगत्का कोषागार कहा जाता है, जिनमें सम्पूर्ण प्रजाएँ स्थित हैं, पानीके ऊपर तैरनेवाले जलपक्षियोंकी तरह जिनके ही ऊपर इस सम्पूर्ण जगत्की चेष्टाएँ हो रही हैं, जो परमार्थ सत्यस्वरूप और एकाक्षर ब्रह्म (प्रणव) हैं, सत् और असत्से विलक्षण हैं, जिनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है, जिन्हें न देवता ठीक-ठीक जानते हैं और न ऋषि, अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए सम्पूर्ण देवता, असुर, गन्धर्व, सिद्ध, ऋषि, बड़े-बड़े नागगण जिनकी सदा पूजा किया करते हैं, जो दुःखरूपी रोगकी सबसे बड़ी ओषधि हैं, जन्म-मरणसे रहित, स्वयम्भू एवं सनातन देवता हैं, जिन्हें इन चर्म-चक्षुओंसे देखना और बुद्धिके द्वारा सम्पूर्णरूपसे जानना असम्भव है, उन भगवान् श्रीहरि नारायण देवकी मैं शरण लेता हूँ। जो इस विश्वके विधाता और चराचर जगत्के स्वामी हैं, जिन्हें संसारका साक्षी और अविनाशी परमपद कहते हैं, उन परमात्माकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
जो सुवर्णके समान कान्तिमान्, अदितिके गर्भसे उत्पन्न, दैत्योंके नाशक तथा एक होकर भी बारह रूपोंमें प्रकट हुए हैं, उन सूर्यस्वरूप परमेश्वरको नमस्कार है। जो अपनी अमृतमयी कलाओंसे शुक्लपक्षमें देवताओंको और कृष्णपक्षमें पितरोंको तृप्त करते हैं तथा जो सम्पूर्ण द्विजोंके राजा हैं, उन सोमस्वरूप परमात्माको नमस्कार है। अग्नि जिनके मुख हैं, वे देवता सम्पूर्ण जगत्को धारण करते हैं, जो हविष्यके सबसे पहले भोक्ता हैं, उन अग्निहोत्रस्वरूप परमेश्वरको नमस्कार है। जो अज्ञानमय महान् अन्धकारसे परे और ज्ञानालोकसे अत्यन्त प्रकाशित होनेवाले आत्मा हैं, जिन्हें जान लेनेपर मनुष्य मृत्युसे सदाके लिये छूट जाता है, उन ज्ञेयरूप परमेश्वरको नमस्कार है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सैंतालीसवें अध्याय के श्लोक 42-60 का हिन्दी अनुवाद)
उक्थनामक बृहत् यज्ञके समय, अग्न्याधानकालमें तथा महायागमें ब्राह्मणवृन्द जिनका ब्रह्मके रूपमें स्तवन करते हैं, उन वेदस्वरूप भगवान्को नमस्कार है।
ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद जिसके आश्रय हैं, पाँच प्रकारका हविष्य जिसका स्वरूप है, गायत्री आदि सात छन्द ही जिसके सात तन्तु हैं, उस यज्ञके रूपमें प्रकट हुए परमात्माको प्रणाम है।
चार1, चार2, दो3, पाँच4 और दो[५]—इन सत्रह अक्षरोंवाले मन्त्रोंसे जिन्हें हविष्य अर्पण किया जाता है, उन होमस्वरूप परमेश्वरको नमस्कार है। जो ‘यजुः’ नाम धारण करनेवाले वेदरूपी पुरुष हैं, गायत्री आदि छन्द जिनके हाथ-पैर आदि अवयव हैं, यज्ञ ही जिनका मस्तक है तथा ‘रथन्तर’ और ‘बृहत्’ नामक साम ही जिनकी सान्त्वनाभरी वाणी है, उन स्तोत्ररूपी भगवान्को प्रणाम है।
जिन्होंने तारामय संग्राममें दानवराज कालनेमिका वध करके देवराज इन्द्रको सारा राज्य दे दिया था, उन मुख्यात्मा श्रीहरिको नमस्कार है। जो समस्त प्राणियोंके शरीरमें साक्षीरूपसे स्थित हैं तथा सम्पूर्ण क्षर (नाशवान्) भूतोंमें अक्षर (अविनाशी) स्वरूपसे विराजमान हैं, उन साक्षी परमात्माको नमस्कार है। महादेव! आपको नमस्कार है। भक्तवत्सल! आपको नमस्कार है। सुब्रह्मण्य (विष्णु)! आपको नमस्कार है। परमेश्वर! आप मुझपर प्रसन्न हों। प्रभो! आपने अव्यक्त और व्यक्तरूपसे सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त कर रखा है। मैं सहस्रों नेत्र धारण करनेवाले, सर्वलोकमहेश्वर, हिरण्यनाभ, यज्ञाङ्गस्वरूप, अमृतमय, सब ओर मुखवाले और कमलनयन पुरुषोत्तम श्रीनारायणदेवकी शरण लेता हूँ।
जिनके हृदयमें मंगलभवन देवेश्वर श्रीहरि विराजमान हैं, उनका सभी कार्योंमें सदा मंगल ही होता है—कभी किसी भी कार्यमें अमंगल नहीं होता। भगवान् विष्णु मंगलमय हैं, मधुसूदन मंगलमय हैं, कमलनयन मंगलमय हैं और गरुडध्वज मंगलमय हैं। जिनका सारा व्यवहार केवल धर्मके ही लिये है, उन वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा जो मोक्षके साधनभूत वैदिक उपायोंसे काम लेकर संतोंकी धर्म-मर्यादाका प्रसार करते हैं, उन सत्यस्वरूप परमात्माको नमस्कार है। जो भिन्न-भिन्न धर्मोंका आचरण करके अलग-अलग उनके फलोंकी इच्छा रखते हैं, ऐसे पुरुष पृथक् धर्मोंके द्वारा जिनकी पूजा करते हैं, उन धर्मस्वरूप भगवान्को प्रणाम है।
जिस अनङ्गकी प्रेरणासे सम्पूर्ण अंगधारी प्राणियोंका जन्म होता है, जिससे समस्त जीव उन्मत्त हो उठते हैं, उस कामके रूपमें प्रकट हुए परमेश्वरको नमस्कार है। जो स्थूल जगत्में अव्यक्त रूपसे विराजमान है, बड़े-बड़े महर्षि जिसके तत्त्वका अनुसंधान करते रहते हैं, जो सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञके रूपमें बैठा हुआ है, उस क्षेत्ररूपी परमात्माको प्रणाम है। जो सत्, रज और तम—इन तीन गुणोंके भेदसे त्रिविध प्रतीत होते हैं, गुणोंके कार्यभूत सोलह विकारोंसे आवृत होनेपर भी अपने स्वरूपमें ही स्थित हैं, सांख्यमतके अनुयायी जिन्हें सत्रहवाँ तत्त्व (पुरुष) मानते हैं, उन सांख्यरूप परमात्माको नमस्कार है। जो नींदको जीतकर प्राणोंपर विजय पा चुके हैं और इन्द्रियोंको अपने वशमें करके शुद्ध सत्त्वमें स्थित हो गये हैं, वे निरन्तर योगाभ्यासमें लगे हुए योगिजन जिनके ज्योतिर्मय स्वरूपका साक्षात्कार करते हैं, उन योगरूप परमात्माको प्रणाम है। पाप और पुण्यका क्षय हो जानेपर पुनर्जन्मके भयसे मुक्त हुए शान्तचित्त संन्यासी जिन्हें प्राप्त करते हैं, उन मोक्षरूप परमेश्वरको नमस्कार है।
सृष्टिके एक हजार युग बीतनेपर प्रचण्ड ज्वालाओंसे युक्त प्रलयकालीन अग्निका रूप धारण कर जो सम्पूर्ण प्राणियोंका संहार करते हैं, उन घोररूपधारी परमात्माको प्रणाम है। इस प्रकार सम्पूर्ण भूतोंका भक्षण करके जो इस जगत्के जलमय कर देते हैं और स्वयं बालकका रूप धारण कर अक्षयवटके पत्तेपर शयन करते हैं, उन मायामय बालमुकुन्दको नमस्कार है।
जिसपर यह विश्व टिका हुआ है, वह ब्रह्माण्ड-कमल जिन पुण्डरीकाक्ष भगवान्की नाभिसे प्रकट हुआ है, उन कमलरूपधारी परमेश्वरको प्रणाम है। सृष्टिके एक हजार युग बीतनेपर प्रचण्ड ज्वालाओंसे युक्त प्रलयकालीन अग्निका रूप धारण कर जो सम्पूर्ण प्राणियोंका संहार करते हैं, उन घोररूपधारी परमात्माको प्रणाम है।
इस प्रकार सम्पूर्ण भूतोंका भक्षण करके जो इस जगत्के जलमय कर देते हैं और स्वयं बालकका रूप धारण कर अक्षयवटके पत्तेपर शयन करते हैं, उन मायामय बालमुकुन्दको नमस्कार है। जिसपर यह विश्व टिका हुआ है, वह ब्रह्माण्ड-कमल जिन पुण्डरीकाक्ष भगवान्की नाभिसे प्रकट हुआ है, उन कमलरूपधारी परमेश्वरको प्रणाम है।
जिनके हजारों मस्तक हैं, जो अन्तर्यामीरूपसे सबके भीतर विराजमान हैं, जिनका स्वरूप किसी सीमामें आबद्ध नहीं है, जो चारों समुद्रोंके मिलनेसे एकार्णव हो जानेपर योगनिद्राका आश्रय लेकर शयन करते हैं, उन योगनिद्रारूप भगवान्को नमस्कार है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सैंतालीसवें अध्याय के श्लोक 61-74 का हिन्दी अनुवाद)
जिनके मस्तकके बालोंकी जगह मेघ हैं, शरीरकी सन्धियोंमें नदियाँ हैं और उदरमें चारों समुद्र हैं, उन जलरूपी परमात्माको प्रणाम है। सृष्टि और प्रलयरूप समस्त विकार जिनसे उत्पन्न होते हैं और जिनमें ही सबका लय होता है, उन कारणरूप परमेश्वरको नमस्कार है। जो रातमें भी जागते रहते हैं और दिनके समय साक्षीरूपमें स्थित रहते हैं तथा जो सदा ही सबके भले-बुरेको देखते रहते हैं, उन द्रष्टारूपी परमात्माको प्रणाम है।
जिन्हें कोई भी काम करनेमें रुकावट नहीं होती, जो धर्मका काम करनेको सर्वदा उद्यत रहते हैं तथा जो वैकुण्ठधामके स्वरूप हैं, उन कार्यरूप भगवान्को नमस्कार है। जिन्होंने धर्मात्मा होकर भी क्रोधमें भरकर धर्मके गौरवका उल्लंघन करनेवाले क्षत्रिय-समाजका युद्धमें इक्कीस बार संहार किया, कठोरताका अभिनय करनेवाले उन भगवान् परशुरामको प्रणाम है।
जो प्रत्येक शरीरके भीतर वायुरूपमें स्थित हो अपनेको प्राण-अपान आदि पाँच स्वरूपोंमें विभक्त करके सम्पूर्ण प्राणियोंको क्रियाशील बनाते हैं, उन वायुरूप परमेश्वरको नमस्कार है। जो प्रत्येक युगमें योगमायाके बलसे अवतार धारण करते हैं और मास, ऋतु, अयन तथा वर्षोंके द्वारा सृष्टि और प्रलय करते रहते हैं, उन कालरूप परमात्माको प्रणाम है। ब्राह्मण जिनके मुख हैं, सम्पूर्ण क्षत्रिय-जाति भुजा है, वैश्य जंघा एवं उदर हैं और शूद्र जिनके चरणोंके आश्रित हैं, उन चातुर्वर्ण्यरूप परमेश्वरको नमस्कार है।
अग्नि जिनका मुख है, स्वर्ग मस्तक है, आकाश नाभि है, पृथ्वी पैर है, सूर्य नेत्र हैं और दिशाएँ कान हैं, उन लोकरूप परमात्माको प्रणाम है। जो कालसे परे हैं, यज्ञसे भी परे हैं और परेसे भी अत्यन्त परे हैं, जो सम्पूर्ण विश्वके आदि हैं; किंतु जिनका आदि कोई भी नहीं है, उन विश्वात्मा परमेश्वरको नमस्कार है। जो मेघमें विद्युत् और उदरमें जठरानलके रूपमें स्थित हैं, जो सबको पवित्र करनेके कारण पावक तथा स्वरूपतः शुद्ध होनेसे ‘शुचि’ कहलाते हैं, समस्त भक्ष्य पदार्थोंको दग्ध करनेवाले वे अग्निदेव जिनके ही स्वरूप हैं, उन अग्निमय परमात्माको नमस्कार है। वैशेषिक दर्शनमें बताये हुए रूप, रस आदि गुणोंके द्वारा आकृष्ट हो जो लोग विषयोंके सेवनमें प्रवृत्त हो रहे हैं, उनकी उन विषयोंकी आसक्तिसे जो रक्षा करनेवाले हैं, उन रक्षकरूप परमात्माको प्रणाम है।
जो अन्न-जलरूपी ईंधनको पाकर शरीरके भीतर रस और प्राणशक्तिको बढ़ाते तथा सम्पूर्ण प्राणियोंको धारण करते हैं, उन प्राणात्मा परमेश्वरको नमस्कार है। प्राणोंकी रक्षाके लिये जो भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेह्य—चार प्रकारके अन्नोंका भोग लगाते हैं और स्वयं ही पेटके भीतर अग्निरूपमें स्थित भोजनको पचाते हैं, उन पाकरूप परमेश्वरको प्रणाम है। जिनका नरसिंहरूप दानवराज हिरण्यकशिपुका अन्त करनेवाला था, उस समय जिनके नेत्र और कंधेके बाल पीले दिखायी पड़ते थे, बड़ी-बड़ी दाढ़ें और नख ही जिनके आयुध थे, उन दर्परूपधारी भगवान् नरसिंहको प्रणाम है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सैंतालीसवें अध्याय के श्लोक 74-94 का हिन्दी अनुवाद)
जिन्हें न देवता, न गन्धर्व, न दैत्य और न दानव ही ठीक-ठीक जान पाते हैं, उन सूक्ष्मस्वरूप परमात्माको नमस्कार है। जो सर्वव्यापक भगवान् श्रीमान् अनन्त नामक शेषनागके रूपमें रसातलमें रहकर सम्पूर्ण जगत्के अपने मस्तकपर धारण करते हैं, उन वीर्यरूप परमेश्वरको प्रणाम है। जो इस सृष्टि-परम्पराकी रक्षाके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंको स्नेहपाशमें बाँधकर मोहमें डाले रखते हैं, उन मोहरूप भगवान्को नमस्कार है। अन्नमयादि पाँच कोषोंमें स्थित आन्तरतम आत्माका ज्ञान होनेके पश्चात् विशुद्ध बोधके द्वारा विद्वान् पुरुष जिन्हें प्राप्त करते हैं, उन ज्ञानस्वरूप परब्रह्मको प्रणाम है। जिनका स्वरूप किसी प्रमाणका विषय नहीं है, जिनके बुद्धिरूपी नेत्र सब ओर व्याप्त हो रहे हैं तथा जिनके भीतर अनन्त विषयोंका समावेश है, उन दिव्यात्मा परमेश्वरको नमस्कार है।
जो जटा और दण्ड धारण करते हैं, लम्बोदर शरीरवाले हैं तथा जिनका कमण्डलु ही तूणीरका काम देता है, उन ब्रह्माजीके रूपमें भगवान्को प्रणाम है। जो त्रिशूल धारण करनेवाले और देवताओंके स्वामी हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो महात्मा हैं तथा जिन्होंने अपने शरीरपर विभूति रमा रखी है, उन रुद्ररूप परमेश्वरको नमस्कार है।
जिनके मस्तकपर अर्धचन्द्रका मुकुट और शरीरपर सर्पका यज्ञोपवीत शोभा दे रहा है, जो अपने हाथमें पिनाक और त्रिशूल धारण करते हैं, उन उग्ररूपधारी भगवान् शंकरको प्रणाम है। जो सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा और उनकी जन्म-मृत्युके कारण हैं, जिनमें क्रोध, द्रोह और मोहका सर्वथा अभाव है, उन शान्तात्मा परमेश्वरको नमस्कार है। जिनके भीतर सब कुछ रहता है, जिनसे सब उत्पन्न होता है, जो स्वयं ही सर्वस्वरूप हैं, सदा ही सब ओर व्यापक हो रहे हैं और सर्वमय हैं, उन सर्वात्माको प्रणाम है।
इस विश्वकी रचना करनेवाले परमेश्वर! आपको प्रणाम है। विश्वके आत्मा और विश्वकी उत्पत्तिके स्थानभूत जगदीश्वर! आपको नमस्कार है। आप पाँचों भूतोंसे परे हैं और सम्पूर्ण प्राणियोंके मोक्षस्वरूप ब्रह्म हैं।
तीनों लोकोंमें व्याप्त हुए आपको नमस्कार है, त्रिभुवनसे परे रहनेवाले आपको प्रणाम है, सम्पूर्ण दिशाओंमें व्यापक आप प्रभुको नमस्कार है; क्योंकि आप सब पदार्थोंसे पूर्ण भण्डार हैं। संसारकी उत्पत्ति करनेवाले अविनाशी भगवान् विष्णु! आपको नमस्कार है। हृषीकेश! आप सबके जन्मदाता और संहारकर्ता हैं। आप किसीसे पराजित नहीं होते।
मैं तीनों लोकोंमें आपके दिव्य जन्म-कर्मका रहस्य नहीं जान पाता; मैं तो तत्त्वदृष्टिसे आपका जो सनातन रूप है, उसीकी ओर लक्ष्य रखता हूँ। स्वर्गलोक आपके मस्तकसे, पृथ्वीदेवी आपके पैरोंसे और तीनों लोक आपके तीन पगोंसे व्याप्त हैं, आप सनातन पुरुष हैं। दिशाएँ आपकी भुजाएँ, सूर्य आपके नेत्र और प्रजापति शुक्राचार्य आपके वीर्य हैं। आपने ही अत्यन्त तेजस्वी वायुके रूपमें ऊपरके सातों मार्गोंको रोक रखा है। जिनकी कान्ति अलसीके फूलकी तरह साँवली है, शरीरपर पीताम्बर शोभा देता है, जो अपने स्वरूपसे कभी च्युत नहीं होते, उन भगवान् गोविन्दको जो लोग नमस्कार करते हैं, उन्हें कभी भय नहीं होता, भगवान् श्रीकृष्णको एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञोंके अन्तमें किये गये स्नानके समान फल देनेवाला होता है। इसके सिवा प्रणाममें एक विशेषता है—दस अश्वमेध करनेवालेका तो पुनः इस संसारमें जन्म होता है, किंतु श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवाला मनुष्य फिर भव-बन्धनमें नहीं पड़ता।
जिन्होंने श्रीकृष्ण-भजनका ही व्रत ले रखा है, जो श्रीकृष्णका निरन्तर स्मरण करते हुए ही रातको सोते हैं और उन्हींका स्मरण करते हुए सबेरे उठते हैं, वे श्रीकृष्णस्वरूप होकर उनमें इस तरह मिल जाते हैं, जैसे मन्त्र पढ़कर हवन किया हुआ घी अग्निमें मिल जाता है। जो नरकके भयसे बचानेके लिये रक्षामण्डलका निर्माण करनेवाले और संसाररूपी सरिताकी भँवरसे पार उतारनेके लिये काठकी नावके समान हैं, उन भगवान् विष्णुको नमस्कार है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सैंतालीसवें अध्याय के श्लोक 95-112 का हिन्दी अनुवाद)
जो ब्राह्मणोंके प्रेमी तथा गौ और ब्राह्मणोंके हितकारी हैं, जिनसे समस्त विश्वका कल्याण होता है, उन सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् गोविन्दको प्रणाम है। ‘हरि’ ये दो अक्षर दुर्गम पथमें संकटके समय प्राणोंके लिये राह-खर्चके समान हैं, संसाररूपी रोगसे छुटकारा दिलानेके लिये औषधके तुल्य हैं तथा सब प्रकारके दुःख-शोकसे उद्धार करनेवाले हैं।
जैसे सत्य विष्णुमय है, जैसे सारा संसार विष्णुमय है, जिस प्रकार सब कुछ विष्णुमय है, उस प्रकार इस सत्यके प्रभावसे मेरे सारे पाप नष्ट हो जायँ, देवताओंमें श्रेष्ठ कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण! मैं आपका शरणागत भक्त हूँ और अभीष्ट गतिको प्राप्त करना चाहता हूँ; जिसमें मेरा कल्याण हो, वह आप ही सोचिये। जो विद्या और तपके जन्मस्थान हैं, जिनको दूसरा कोई जन्म देनेवाला नहीं है, उन भगवान् विष्णुका मैंने इस प्रकार वाणीरूप यज्ञसे पूजन किया है। इससे वे भगवान् जनार्दन मुझपर प्रसन्न हों। नारायण ही परब्रह्म हैं, नारायण ही परम तप हैं। नारायण ही सबसे बड़े देवता हैं और भगवान् नारायण ही सदा सब कुछ हैं।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! उस समय भीष्मजीका मन भगवान् श्रीकृष्णमें लगा हुआ था, उन्होंने ऊपर बतायी हुई स्तुति करनेके पश्चात् ‘नमः श्रीकृष्णाय’ कहकर उन्हें प्रणाम किया, भगवान् भी अपने योगबलसे भीष्मजीकी भक्तिको जानकर उनके निकट गये और उन्हें तीनों लोकोंकी बातोंका बोध करानेवाला दिव्य ज्ञान देकर लौट आये, योगी पुरुष प्राणत्यागके समय जिन्हें बड़े यत्नसे अपने हृदयमें स्थापित करते हैं, उन्हीं श्रीहरिको अपने सामने देखते हुए भीष्मजीने जीवनका फल प्राप्त करके अपने प्राणोंका परित्याग किया था।
जब भीष्मजीका बोलना बंद हो गया, तब वहाँ बैठे हुए ब्रह्मवादी महर्षियोंने आँखोंमें आँसू भरकर गद्गद कण्ठसे परम बुद्धिमान् भीष्मजीकी भूरि-भूरि प्रशंसा की, वे ब्राह्मणशिरोमणि सभी महर्षि पुरुषोत्तम भगवान् केशवकी स्तुति करते हुए धीरे-धीरे भीष्मजीकी बारंबार सराहना करने लगे। इधर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण भीष्मजीके भक्तियोगको जानकर सहसा उठे और बड़े हर्षके साथ रथपर जा बैठे।
एक रथसे सात्यकि और श्रीकृष्ण चले तथा दूसरे रथसे महामना युधिष्ठिर और अर्जुन, भीमसेन और नकुल-सहदेव तीसरे रथपर सवार हुए। चौथे रथसे कृपाचार्य, युयुत्सु और शत्रुओंको तपानेवाला सारथि संजय—ये तीनों चल दिये। वे पुरुषप्रवर पाण्डव और श्रीकृष्ण नगराकार रथोंद्वारा उनके पहियोंके गम्भीर घोषसे पृथ्वीको कँपाते हुए बड़े वेगसे गये। उस समय बहुत-से ब्राह्मण मार्गमें पुरुषोत्तम श्रीकृष्णकी स्तुति करते और भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न-मनसे उसे सुनते थे। दूसरे बहुत-से लोग हाथ जोड़कर उनके चरणोंमें प्रणाम करते और केशिहन्ता केशव मन ही-मन आनन्दित हो उन लोगोंका अभिनन्दन करते थे,
जो मनुष्य शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले यदुकुलनन्दन श्रीकृष्णकी इस स्तुतिको याद करते, पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे इस शरीरका अन्त होनेपर भगवान् श्रीकृष्णमें प्रवेश कर जाते हैं। चक्रधारी श्रीहरि उनके सारे पापोंका नाश कर डालते हैं। गङ्गानन्दन भीष्मने पूर्वकालमें जिसका गान किया था, अद्भुतकर्मा विष्णुका वही यह स्तवराज पूरा हुआ। यह बड़े बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है।
यह स्तोत्रराज पापियोंके समस्त पापोंका नाश करनेवाला है, संसार-बन्धनसे छूटनेकी इच्छावाला जो मनुष्य इसका पवित्रभावसे पाठ करता है, वह निर्मल सनातन लोकौंको भी लाँघकर परमात्मा श्रीकृष्णके अमृतमय धामको चला जाता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें भीष्मस्तवराजविषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टीका टिप्पणी ;—
- सामान्यतः कर्ममात्रको प्रकाशित करनेवाले मन्त्रोंको ‘वाक’ कहते हैं।
- मन्त्रोंके अर्थको खोलकर बतानेवाले ब्राह्मणग्रन्थोंके जो वाक्य हैं, उनका नाम ‘अनुवाक’ है।
- कर्मके अंग आदिसे सम्बन्ध रखनेवाले देवता आदिका ज्ञान करानेवाले वचन ‘निषद्’ कहलाते हैं।
- विशुद्ध आत्मा एवं परमात्माका ज्ञान करानेवाले वचनोंकी ‘उपनिषद्’ संज्ञा है।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
अड़तालीसवाँ अध्याय
“परशुरामजीद्वारा होनेवाले क्षत्रियसंहारके विषयमें राजा युधिष्ठिरका प्रश्न”
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अड़तालीसवें अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण, राजा युधिष्ठिर, कृपाचार्य आदि सब लोग तथा शेष चारों पाण्डव ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित एवं शीघ्रगामी घोड़ोंद्वारा संचालित नगराकार विशाल रथोंसे शीघ्रतापूर्वक कुरुक्षेत्रकी ओर बढ़े, वे सब लोग केश, मज्जा और हड्डियोंसे भरे हुए कुरुक्षेत्रमें उतरे, जहाँ महामनस्वी क्षत्रियवीरोंने अपने शरीरका त्याग किया था।
वहाँ हाथियों और घोड़ोंके शरीरों तथा हड्डियोंके अनेकानेक पहाड़ों-जैसे ढेर लगे हुए थे। सब ओर शंखके समान सफेद नरमुण्डोंकी खोपड़ियाँ फैली हुई थीं। उस भूमिमें सहस्रों चिताएँ जली थीं, कवच और अस्त्र-शस्त्रोंसे वह स्थान ढका हुआ था। देखनेपर ऐसा जान पड़ता था, मानो वह कालके खान-पानकी भूमि हो और कालने वहाँ खान-पान करके उच्छिष्ट करके छोड़ दिया हो। जहाँ झुंड-के-झुंड भूत विचर रहे थे और राक्षसगण निवास करते थे, उस कुरुक्षेत्रको देखते हुए वे सभी महारथी शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ रहे थे।
रास्तेमें चलते-चलते ही महाबाहु भगवान् यादवनन्दन श्रीकृष्ण युधिष्ठिरको जमदग्निकुमार परशुरामजीका पराक्रम सुनाने लगे—
श्री कृष्ण बोले ;- ‘कुन्तीनन्दन! ये जो पाँच सरोवर कुछ दूरसे दिखायी देते हैं, ‘राम-ह्रद’ के नामसे प्रसिद्ध हैं। इन्हींमें उन्होंने क्षत्रियोंके रक्तसे अपने पितरोंका तर्पण किया था। ‘शक्तिशाली परशुरामजी इक्कीस बार इस पृथ्वीको क्षत्रियोंसे शून्य करके यहीं आनेके पश्चात् अब उस कर्मसे विरत हो गये हैं’।
युधिष्ठिरने पूछा ;— प्रभो! आपने यह बताया है कि पहले परशुरामजीने इक्कीस बार यह पृथ्वी क्षत्रियोंसे सूनी कर दी थी, इस विषयमें मुझे बहुत बड़ा संदेह हो गया है। अमित पराक्रमी यदुनाथ! जब परशुरामजीने क्षत्रियोंका बीजतक दग्ध कर दिया, तब फिर क्षत्रिय-जातिकी उत्पत्ति कैसे हुई? यदुपुङ्गव! महात्मा भगवान् परशुरामने क्षत्रियोंका संहार किसलिये किया और उसके बाद इस जातिकी वृद्धि कैसे हुई? वक्ताओंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! महारथयुद्धके द्वारा जब करोड़ों क्षत्रिय मारे गये होंगे, उस समय उनकी लाशोंसे यह सारी पृथ्वी ढक गयी होगी। यदुसिंह! भृगुवंशी महात्मा परशुरामने पूर्वकालमें कुरुक्षेत्रमें यह क्षत्रियोंका संहार किसलिये किया? गरुडध्वज श्रीकृष्ण! इन्द्रके छोटे भाई उपेन्द्र! आप मेरे संदेहका निवारण कीजिये; क्योंकि कोई भी शास्त्र आपसे बढ़कर नहीं है।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! राजा युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर गदाग्रज भगवान् श्रीकृष्णने अप्रतिम तेजस्वी युधिष्ठिरसे वह सारा वृत्तान्त यथार्थरूपसे कह सुनाया कि किस प्रकार यह सारी पृथ्वी क्षत्रियोंकी लाशोंसे ढक गयी थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें परशुरामके उपाख्यानका आरम्भविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
उनचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनचासवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“परशुरामजीके उपाख्यानमें क्षत्रियोंके विनाश और पुनः उत्पन्न होनेकी कथा”
भगवान् श्रीकृष्ण बोले ;— कुन्तीनन्दन! मैंने महर्षियोंके मुखसे परशुरामजीके प्रभाव, पराक्रम तथा जन्मकी कथा जिस प्रकार सुनी है, वह सब आपको बताता हूँ, सुनिये, जिस प्रकार जगदग्निनन्दन परशुरामने करोड़ों क्षत्रियोंका संहार किया था, पुनः जो क्षत्रिय राजवंशोंमें उत्पन्न हुए, वे अब फिर भारतयुद्धमें मारे गये। प्राचीनकालमें जह्नुनामक एक राजा हो गये हैं, उनके पुत्रका नाम था अज। पृथ्वीनाथ! अजसे बलाकाश्व नामक पुत्रका जन्म हुआ। बलाकाश्वके कुशिक नामक पुत्र हुआ। कुशिक बड़े धर्मज्ञ थे।
वे इस भूतलपर सहस्रनेत्रधारी इन्द्रके समान पराक्रमी थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैं एक ऐसा पुत्र प्राप्त करूँ, जो तीनों लोकोंका शासक होनेके साथ ही किसीसे पराजित न हो, उत्तम तपस्या आरम्भ की, उनकी भयंकर तपस्या देखकर और उन्हें शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न करनेमें समर्थ जानकर लोकपालोंके स्वामी सहस्र नेत्रोंवाले पाकशासन इन्द्र स्वयं ही उनके पुत्ररूपमें अवतीर्ण हुए। राजन्! कुशिकका वह पुत्र गाधिनामसे प्रसिद्ध हुआ।
प्रभो! गाधिके एक कन्या थी, जिसका नाम था सत्यवती। राजा गाधिने अपनी इस कन्याका विवाह भृगुपुत्र ऋचीकके साथ कर दिया। कुरुनन्दन! सत्यवती बड़े शुद्ध आचार-विचारसे रहती थी। उसकी शुद्धतासे प्रसन्न हो ऋचीक मुनिने उसे तथा राजा गाधिको भी पुत्र देनेके लिये चरु तैयार किया। भृगुवंशी ऋचीकने उस समय अपनी पत्नी सत्यवतीको बुलाकर कहा,
ऋचीक मुनि ने कहा ;— ‘यह चरु तो तुम खा लेना और यह दूसरा अपनी माँको खिला देना।
‘तुम्हारी माताके जो पुत्र होगा, वह अत्यन्त तेजस्वी एवं क्षत्रियशिरोमणि होगा। इस जगत्के क्षत्रिय उसे जीत नहीं सकेंगे। वह बड़े-बड़े क्षत्रियोंका संहार करनेवाला होगा। ‘कल्याणि! तुम्हारे लिये जो यह चरु तैयार किया है, यह तुम्हे धैर्यवान्, शान्त एवं तपस्यापरायण श्रेष्ठ ब्राह्मण पुत्र प्रदान करेगा’। अपनी पत्नीसे ऐसा कहकर भृगुनन्दन श्रीमान् ऋचीक मुनि तपस्यामें तत्पर हो जंगलमें चले गये। इसी समय तीर्थयात्रा करते हुए राजा गाधि अपनी पत्नीके साथ ऋचीक मुनिके आश्रमपर आये। राजन्! उस समय सत्यवती वह दोनों चरु लेकर शान्तभावसे माताके पास गयी और बड़े हर्षके साथ पतिकी कही हुई बातको उससे निवेदित किया। कुन्तीकुमार! सत्यवतीकी माताने अज्ञानवश अपना चरु तो पुत्रीको दे दिया और उसका चरु लेकर भोजनद्वारा अपनेमें स्थित कर लिया।
तदनन्तर सत्यवतीने अपने तेजस्वी शरीरसे एक ऐसा गर्भ धारण किया, जो क्षत्रियोंका विनाश करनेवाला था और देखनेमें बड़ा भयंकर जान पड़ता था। सत्यवतीके गर्भगत बालकको देखकर भृगुश्रेष्ठ ऋचीकने अपनी उस देवरूपिणी पत्नीसे कहा,
ऋचीक मुनि ने कहा ;— ‘भद्रे! तुम्हारी माताने चरु बदलकर तुम्हें ठग लिया। तुम्हारा पुत्र अत्यन्त क्रोधी और क्रूरकर्म करनेवाला होगा। ‘परंतु तुम्हारा भाई ब्राह्मणस्वरूप एवं तपस्यापरायण होगा। तुम्हारे चरुमें मैंने सम्पूर्ण महान् तेज ब्रह्मकी प्रतिष्ठा की थी और तुम्हारी माताके लिये जो चरु था, उसमें सम्पूर्ण क्षत्रियोचित बल-पराक्रमका समावेश किया गया था, परंतु कल्याणि! चरुके बदल देनेसे अब ऐसा नहीं होगा। तुम्हारी माताका पुत्र तो ब्राह्मण होगा और तुम्हारा क्षत्रिय’
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनचासवें अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)
पतिके ऐसा कहनेपर महाभागा सत्यवती उनके चरणोंमें सिर रखकर गिर पड़ी और काँपती हुई बोली,
सत्यवती बोली ;— ‘प्रभो! भगवन्! आज आप मुझसे ऐसी बात न कहें कि तुम ब्राह्मणाधम पुत्र उत्पन्न करोगी’।
ऋचीक बोले ;— कल्याणि! मैंने यह संकल्प नहीं किया था कि तुम्हारे गर्भसे ऐसा पुत्र उत्पन्न हो। परंतु चरु बदल जानेके कारण तुम्हें भयंकर कर्म करनेवाले पुत्रको जन्म देना पड़ रहा है।
सत्यवती बोली ;— मुने! आप चाहें तो सम्पूर्ण लोकोंकी नयी सृष्टि कर सकते हैं; फिर इच्छानुसार पुत्र उत्पन्न करनेकी तो बात ही क्या है? अतः प्रभो! मुझे तो शान्त एवं सरल स्वभाववाला पुत्र ही प्रदान कीजिये।
ऋचीक बोले ;— भद्रे! मैंने कभी हास-परिहासमें भी झूठी बात नहीं कही है; फिर अग्निकी स्थापना करके मन्त्रयुक्त चरु तैयार करते समय मैंने जो संकल्प किया है, वह मिथ्या कैसे हो सकता है? कल्याणि! मैंने तपस्याद्वारा पहले ही यह बात देख और जान ली है कि तुम्हारे पिताका समस्त कुल ब्राह्मण होगा।
सत्यवती बोली ;— प्रभो! आप जप करनेवाले ब्राह्मणोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं, आपका और मेरा पौत्र भले ही उग्र स्वभावका हो जाय; परंतु पुत्र तो मुझे शान्तस्वभावका ही मिलना चाहिये।
ऋचीक बोले ;— सुन्दरी! मेरे लिये पुत्र और पौत्रमें कोई अन्तर नहीं है। भद्रे! तुमने जैसा कहा है, वैसा ही होगा।
श्रीकृष्ण बोले ;— राजन्! तदनन्तर सत्यवतीने शान्त, संयमपरायण और तपस्वी भृगुवंशी जमदग्निको पुत्रके रूपमें उत्पन्न किया। कुशिकनन्दन गाधिने विश्वामित्र नामक पुत्र प्राप्त किया, जो सम्पूर्ण ब्राह्मणोचित गुणोंसे सम्पन्न थे और ब्रह्मर्षि पदवीको प्राप्त हुए।
ऋचीकने तपस्याके भंडार जमदग्निको जन्म दिया और जमदग्निने अत्यन्त उग्र स्वभाववाले जिस पुत्रको उत्पन्न किया, वही ये सम्पूर्ण विद्याओं तथा धनुर्वेदके पारङ्गत विद्वान् प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी क्षत्रियहन्ता परशुरामजी हैं। परशुरामजीने गन्धमादन पर्वतपर महादेवजीको संतुष्ट करके उनसे अनेक प्रकारके अस्त्र और अत्यन्त तेजस्वी कुठार प्राप्त किये।
उस कुठारकी धार कभी कुण्ठित नहीं होती थी। वह जलती हुई आगके समान उद्दीप्त दिखायी देता था। उस अप्रमेय शक्तिशाली कुठारके कारण परशुरामजी सम्पूर्ण लोकोंमें अप्रतिम वीर हो गये। इसी समय राजा कृतवीर्यका बलवान् पुत्र अर्जुन हैहयवंशका राजा हुआ, जो एक तेजस्वी क्षत्रिय था। दत्तात्रेयजीकी कृपासे राजा अर्जुनने एक हजार भुजाएँ प्राप्त की थीं। वह महातेजस्वी चक्रवर्ती नरेश था। उस परम धर्मज्ञ नरेशने अपने बाहुबलसे पर्वतों और द्वीपोंसहित इस सम्पूर्ण पृथ्वीको युद्धमें जीतकर अश्वमेध यज्ञमें ब्राह्मणोंको दान कर दिया था।
कुन्तीनन्दन! एक समय भूखे-प्यासे हुए अग्निदेवने पराक्रमी सहस्रबाहु अर्जुनसे भिक्षा माँगी और अर्जुनने अग्निको वह भिक्षा दे दी। तत्पश्चात् बलशाली अग्निदेव कार्तवीर्य अर्जुनके बाणोंके अग्रभागसे गाँवों, गोष्ठों, नगरों और राष्ट्रोंको भस्म कर डालनेकी इच्छासे प्रज्वलित हो उठे। उन्होंने उस महापराक्रमी नरेश कार्तवीर्यके प्रभावसे पर्वतों और वनस्पतियोंको जलाना आरम्भ किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनचासवें अध्याय के श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद)
हवाका सहारा पाकर उत्तरोत्तर प्रज्वलित होते हुए अग्निदेवने हैहयराजको साथ लेकर महात्मा आपवके सूने एवं सुरम्य आश्रमको जलाकर भस्म कर दिया। महाबाहु अच्युत! कार्तवीर्यके द्वारा अपने आश्रमके जला दिये जानेपर शक्तिशाली आपव मुनिको बड़ा रोष हुआ। उन्होंने कृतवीर्यपुत्र अर्जुनको शाप देते हुए कहा,
आपव मुनि बोले ;— ‘अर्जुन! तुमने मेरे इस विशाल वनको भी जलाये बिना नहीं छोड़ा, इसलिये संग्राममें तुम्हारी इन भुजाओंको परशुरामजी काट डालेंगे’। भारत! अर्जुन महातेजस्वी, बलवान्, नित्य शान्ति-परायण, ब्राह्मण-भक्त शरणागतोंको शरण देनेवाला, दानी और शूरवीर था। अतः उसने उस समय उन महात्माके दिये हुए शापपर कोई ध्यान नहीं दिया। शापवश उसके बलवान् पुत्र ही पिताके वधमें कारण बन गये। भरतश्रेष्ठ! उस शापके ही कारण सदा क्रूरकर्म करनेवाले वे घमंडी राजकुमार एक दिन जमदग्नि मुनिकी होमधेनुके बछड़ेको चुरा ले आये। उस बछड़ेके लाये जानेकी बात बुद्धिमान् हैहय-राज कार्तवीर्यको मालूम नहीं थी, तथापि उसीके लिये महात्मा परशुरामका उसके साथ घोर युद्ध छिड़ गया।
राजेन्द्र! तब रोषमें भरे हुए प्रभावशाली जमदग्निनन्दन परशुरामने अर्जुनकी उन भुजाओंको काट डाला और इधर-उधर घूमते हुए उस बछड़ेको वे हैहयोंके अन्तःपुरसे निकालकर अपने आश्रममें ले आये।
नरेश्वर! अर्जुनके पुत्र बुद्धिहीन और मूर्ख थे। उन्होंने संगठित हो महात्मा जमदग्निके आश्रमपर जाकर भल्लोंके अग्रभागसे उनके मस्तकको धड़से काट गिराया। उस समय यशस्वी परशुरामजी समिधा और कुशा लानेके लिये आश्रमसे दूर चले गये थे। पिताके इस प्रकार मारे जानेसे परशुरामके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने इस पृथ्वीको क्षत्रियोंसे सूनी कर देनेकी भीषण प्रतिज्ञा करके हथियार उठाया।
भृगुकुलके सिंह पराक्रमी परशुरामने पराक्रम प्रकट करके कार्तवीर्यके सभी पुत्रों तथा पौत्रोंका शीघ्र ही संहार कर डाला,। राजन्! परम क्रोधी परशुरामने सहस्रों हैहयोंका वध करके इस पृथ्वीपर रक्तकी कीच मचा दी।
इस प्रकार शीघ्र ही पृथ्वीको क्षत्रियोंसे हीन करके महातेजस्वी परशुराम अत्यन्त दयासे द्रवित हो वनमें ही चले गये। तदनन्तर कई हजार वर्ष बीत जानेपर एक दिन वहाँ स्वभावतः क्रोधी परशुरामपर आक्षेप किया गया।
महाराज! विश्वामित्रके पौत्र तथा रैभ्यके पुत्र महातेजस्वी परावसुने भरी सभामें आक्षेप करते हुए कहा,
परावसु ने कहा ;— ‘राम! राजा ययातिके स्वर्गसे गिरनेके समय जो प्रतर्दन आदि सज्जन पुरुष यज्ञमें एकत्र हुए थे, क्या वे क्षत्रिय नहीं थे? तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी है। तुम व्यर्थ ही जनताकी सभामें डींग हाँका करते हो कि मैंने क्षत्रियोंका अन्त कर दिया। मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरोंके भयसे ही पर्वतकी शरण ली है। इस समय पृथ्वीपर सब ओर पुनः सैकड़ों क्षत्रिय भर गये हैं’।
राजन्! परावसुकी बात सुनकर भृगुवंशी परशुरामने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकड़ों क्षत्रियोंको छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनचासवें अध्याय के श्लोक 61-80 का हिन्दी अनुवाद)
नरेश्वर! उन्होंने पुनः उन सबके छोटे-छोटे बच्चों-तकको शीघ्र ही मार डाला। जो बच्चे गर्भमें रह गये थे, उन्हींसे पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुरामजी एक-एक गर्भके उत्पन्न होनेपर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रोंको बचा सकी थीं॥ इस प्रकार शक्तिशाली परशुरामजीने इस पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियोंसे हीन करके अश्वमेध यज्ञ किया और उसकी समाप्ति होनेपर दक्षिणाके रूपमें यह सारी पृथ्वी उन्होंने कश्यपजीको दे दी।
राजन्! तदनन्तर कुछ क्षत्रियोंको बचाये रखनेकी इच्छासे कश्यपजीने स्रुक् लिये हुए हाथसे संकेत करते हुए यह बात कही,
काश्यपजी ने कहा ;— ‘महामुने! अब तुम दक्षिण समुद्रके तटपर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्यमें निवास न करना’। (यह सुनकर परशुरामजी चले गये) समुद्रने सहसा जमदग्निकुमार परशुरामजीके लिये जगह खाली करके शूर्पारक देशका निर्माण किया; जिसे अपरान्तभूमि भी कहते हैं। महाराज! कश्यपने पृथ्वीको दानमें लेकर उसे ब्राह्मणोंके अधीन कर दिया और वे स्वयं विशाल वनके भीतर चले गये॥
भरतश्रेष्ठ! फिर तो स्वेच्छाचारी वैश्य और शूद्र श्रेष्ठ द्विजोंकी स्त्रियोंके साथ अनाचार करने लगे। सारे जीवजगत्में अराजकता फैल गयी। बलवान् मनुष्य दुर्बलोंको पीड़ा देने लगे। उस समय ब्राह्मणोंमेंसे किसीकी प्रभुता कायम न रही, कालक्रमसे दुरात्मा मनुष्य अपने अत्याचारोंसे पृथ्वीको पीड़ित करने लगे। इस उलट-फेरसे पृथ्वी शीघ्र ही रसातलमें प्रवेश करने लगी; क्योंकि उस समय धर्मरक्षक क्षत्रियोंद्वारा विधिपूर्वक पृथिवीकी रक्षा नहीं की जा रही थी॥
भयके मारे पृथ्वीको रसातलकी ओर भागती देख महामनस्वी कश्यपने अपने ऊरुओंका सहारा देकर उसे रोक दिया। कश्यपजीने ऊरुसे इस पृथ्वीको धारण किया था; इसलिये यह उर्वी नामसे प्रसिद्ध हुई। उस समय पृथ्वीदेवीने कश्यपजीको प्रसन्न करके अपनी रक्षाके लिये यह वर माँगा कि मुझे भूपाल दीजिये।
पृथ्वी बोली ;— ब्रह्मन्! मैंने स्त्रियोंमें कई क्षत्रियशिरोमणियोंको छिपा रखा है। मुने! वे सब हैहयकुलमें उत्पन्न हुए हैं, जो मेरी रक्षा कर सकते हैं। प्रभो! उनके सिवा पुरुवंशी विदूरथका भी एक पुत्र जीवित है, जिसे ऋक्षवान् पर्वतपर रीछोंने पालकर बड़ा किया है।
इसी प्रकार अमित शक्तिशाली यज्ञपरायण महर्षि पराशरने दयावश सौदासके पुत्रकी जान बचायी है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रोंके समान सब कर्म करता है; इसलिये ‘सर्वकर्मा’ नामसे विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करे॥
राजा शिबिका एक महातेजस्वी पुत्र बचा हुआ है, जिसका नाम है गोपति। उसे वनमें गौओंने पाल-पोसकर बड़ा किया है। मुने! आपकी आज्ञा हो तो वही मेरी रक्षा करे। प्रतर्दनका महाबली पुत्र वत्स भी राजा होकर मेरी रक्षा कर सकता है। उसे गोशालामें बछड़ोंने पाला था, इसलिये उसका नाम ‘वत्स’ हुआ है।
दधिवाहनका पौत्र और दिविरथका पुत्र भी गङ्गातटपर महर्षि गौतमके द्वारा सुरक्षित है॥
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनचासवें अध्याय के श्लोक 81-89 का हिन्दी अनुवाद)
महातेजस्वी महा भाग बृहद्रथ महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न है। उसे गृध्रकूट पर्वतपर लंगूरोंने बचाया था। राजा मरुत्तके वंशमें भी कई क्षत्रिय बालक सुरक्षित हैं, जिनकी रक्षा समुद्रने की है। उन सबका पराक्रम देवराज इन्द्रके तुल्य है॥
ये सभी क्षत्रिय बालक जहाँ-तहाँ विख्यात हैं। वे सदा शिल्पी और सुनार आदि जातियोंके आश्रित होकर रहते हैं। यदि वे क्षत्रिय मेरी रक्षा करें तो मैं अविचल भावसे स्थिर हो सकूँगी। इन बेचारोंके बाप-दादे मेरे ही लिये युद्धमें अनायास ही महान् कर्म करनेवाले परशुरामजीके द्वारा मारे गये हैं॥ महामुने! मुझे उन राजाओंसे उऋण होनेके लिये उनके इन वंशजोंका सत्कार करना चाहिये। मैं धर्मकी मर्यादाको लाँघनेवाले क्षत्रियके द्वारा कदापि अपनी रक्षा नहीं चाहती। जो अपने धर्ममें स्थित हो, उसीके संरक्षणमें रहूँ, यही मेरी इच्छा है; अतः आप इसकी शीघ्र व्यवस्था करें।
श्रीकृष्ण कहते हैं ;— राजन्! तदनन्तर पृथ्वीके बताये हुए उन सब पराक्रमी क्षत्रिय भूपालोंको बुलाकर कश्यपजीने उनका भिन्न-भिन्न राज्योंपर अभिषेक कर दिया। उन्हींके पुत्र-पौत्र बढ़े, जिनके वंश इस समय प्रतिष्ठित हैं। पाण्डुनन्दन! तुमने जिसके विषयमें मुझसे पूछा था, वह पुरातन वृत्तान्त ऐसा ही है।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिरसे इस प्रकार वार्तालाप करते हुए यदुकुल-तिलक महात्मा श्रीकृष्ण उस रथके द्वारा भगवान् सूर्यके समान सम्पूर्ण दिशाओंमें प्रकाश फैलाते हुए शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ते चले गये॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें परशुरामोपाख्यानविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
पचासवाँ अध्याय
“श्रीकृष्णद्वारा भीष्मजीके गुण-प्रभावका सविस्तर वर्णन”
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पचासवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! परशुरामजीका वह अलौकिक कर्म सुनकर राजा युधिष्ठिरको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे भगवान् श्रीकृष्णसे बोले,
युधिष्ठिर बोले ;— ‘वृष्णिनन्दन! महात्मा परशुरामका पराक्रम तो इन्द्रके समान अत्यन्त अद्भुत है, जिन्होंने क्रोध करके यह सारी पृथ्वी क्षत्रियोंसे सूनी कर दी, ‘क्षत्रियोंके कुलका भार वहन करनेवाले श्रेष्ठ पुरुष परशुरामजीके भयसे उद्विग्न हो छिपे हुए थे और गाय, समुद्र, लंगूर, रीछ तथा वानरोंद्वारा उनकी रक्षा हुई थी॥
‘अहो! यह मनुष्यलोक धन्य है और इस भूतलके मनुष्य बड़े भाग्यवान् हैं, जहाँ द्विजवर परशुरामजीने ऐसा धर्मसंगत कार्य किया’, तात! युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण इस प्रकार बातचीत करते हुए उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँ प्रभावशाली गङ्गानन्दन भीष्म बाणशय्यापर सोये हुए थे। उन्होंने देखा कि भीष्मजी शरशय्यापर सो रहे हैं और अपनी किरणोंसे घिरे हुए सायंकालिक सूर्यके समान प्रकाशित होते हैं॥
जैसे देवता इन्द्रकी उपासना करते हैं, उसी प्रकार बहुत-से महर्षि ओघवती नदीके तटपर परम धर्ममय स्थानमें उनके पास बैठे हुए थे। श्रीकृष्ण, धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर, अन्य चारों पाण्डव तथा कृपाचार्य आदि सब लोग दूरसे ही उन्हें देखकर अपने-अपने रथसे उतर गये और चंचल मनको काबूमें करके सम्पूर्ण इन्द्रियोंको एकाग्र कर वहाँ बैठे हुए महामुनियोंकी सेवामें उपस्थित हुए। श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा अन्य राजाओंने व्यास आदि महर्षियोंको प्रणाम करके गङ्गानन्दन भीष्मको मस्तक झुकाया। तदनन्तर वे सभी यदुवंशी और कौरव नरश्रेष्ठ बूढ़े गङ्गानन्दन भीष्मजीका दर्शन करके उन्हें चारों ओरसे घेरकर बैठ गये॥ इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने मन-ही-मन कुछ दुखी हो बुझती हुई आगके समान दिखायी देनेवाले गङ्गानन्दन भीष्मको सुनाकर इस प्रकार कहा,
श्रीकृष्ण ने कहा ;— ‘वक्ताओंमें श्रेष्ठ भीष्मजी! क्या आपकी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ पहलेकी ही भाँति प्रसन्न हैं? आपकी बुद्धि व्याकुल तो नहीं हुई है? ‘आपको बाणोंकी चोट सहनेका जो कष्ट उठाना पड़ा है उससे आपके शरीरमें विशेष पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्योंकि मानसिक दुःखसे शारीरिक दुःख अधिक प्रबल होता है—उसे सहना कठिन हो जाता है।
‘प्रभो! आपने निरन्तर धर्ममें तत्पर रहनेवाले पिता शान्तनुके वरदानसे मृत्युको अपने अधीन कर लिया है। जब आपकी इच्छा हो तभी मृत्यु हो सकती है अन्यथा नहीं। यह आपके पिताके वरदानका ही प्रभाव है, मेरा नहीं,।
‘राजन्! यदि शरीरमें कोई महीन-से-महीन भी काँटा गड़ जाय तो वह भारी वेदना पैदा करता है। फिर जो बाणोंके समूहसे चुन दिया गया है, उस आपके शरीरकी पीड़ाके विषयमें तो कहना ही क्या है? ‘भरतनन्दन! अवश्य ही आपके सामने यह कहना उचित न होगा कि ‘सभी प्राणियोंके जन्म और मरण प्रारब्धके अनुसार नियत हैं। अतः आपको दैवका विधान समझकर अपने मनमें कोई दुःख नहीं मानना चाहिये।’ आपको कोई क्या उपदेश देगा? आप तो देवताओंको भी उपदेश देनेमें समर्थ हैं।
‘पुरुषप्रवर भीष्म! आप ज्ञानमें सबसे बढ़े-चढ़े हैं। आपकी बुद्धिमें भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ प्रतिष्ठित है। ‘महामते! प्राणियोंका संहार कब होता है? धर्मका क्या फल है? और उसका उदय कब होता है? ये सारी बातें आपको ज्ञात हैं; क्योंकि आप धर्मके प्रचुर भण्डार हैं॥
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उनचासवें अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)
‘आप एक समृद्धिशाली राज्यके अधिकारी थे, आपके संपूर्ण अङ्ग ठीक थे, किसी अङ्गमें कोई न्यूनता नहीं थी; आपको कोई रोग भी नहीं था और आप हजारों स्त्रियोंके बीचमें रहते थे, तो भी मैं आपको ऊर्ध्वरेता (अखण्ड ब्रह्मचर्यसे सम्पन्न) ही देखता हूँ।
‘तात! पृथ्वीनाथ! मैंने तीनों लोकोंमें सत्यवादी, एकमात्र धर्ममें तत्पर, शूरवीर, महापराक्रमी तथा बाण-शय्यापर शयन करनेवाले आप शान्तनुनन्दन भीष्मके सिवा दूसरे किसी ऐसे प्राणीको ऐसा नहीं सुना है, जिसने शरीरके लिये स्वभावसिद्ध मृत्युको अपनी तपस्यासे रोक दिया हो। ‘सत्य, तप, दान और यज्ञके अनुष्ठानमें, वेद, धनुर्वेद तथा नीतिशास्त्रके ज्ञानमें, प्रजाके पालनमें, कोमलतापूर्ण बर्ताव, बाहर-भीतरकी शुद्धि, मन और इन्द्रियोंके संयम तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके हितसाधनमें आपके समान मैंने दूसरे किसी महारथीको नहीं सुना है॥
आप सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व, असुर, यक्ष और राक्षसोंको एकमात्र रथके द्वारा ही जीत सकते थे, इसमें संशय नहीं है। ‘महाबाहो भीष्म! आप वसुओंमें वासव (इन्द्र) के समान हैं। ब्राह्मणोंने सदा आपको आठ वसुओंके अंशसे उत्पन्न नवाँ वसु बताया है। आपके समान गुणोंमें कोई नहीं है।
पुरुषप्रवर! आप कैसे हैं और क्या हैं, यह मैं जानता हूँ। आप पुरुषोंमें उत्तम और अपनी शक्तिके लिये देवताओंमें भी विख्यात हैं। ‘नरेन्द्र! मनुष्योंमें आपके समान गुणोंसे युक्त पुरुष इस पृथ्वीपर न तो मैंने कहीं देखा है और न सुना ही है। ‘राजन्! आप अपने सम्पूर्ण गुणोंके द्वारा तो देवताओंसे भी बढ़कर हैं तथा तपस्याके द्वारा चराचर लोकोंकी भी सृष्टि कर सकते हैं।
‘फिर अपने लिये उत्तम गुणसम्पन्न लोकोंकी सृष्टि करना आपके लिये कौन बड़ी बात है? अतः भीष्म! आपसे यह निवेदन है कि ये ज्येष्ठ पाण्डव अपने कुटुम्बीजनोंके वधसे बहुत संतप्त हो रहे हैं। आप इनका शोक दूर करें, ‘भारत! शास्त्रोंमें चारों वर्णों और आश्रमोंके लिये जो-जो धर्म बताये गये हैं, वे सब आपको विदित हैं। चारों विद्याओंमें जिन धर्मोंका प्रतिपादन किया गया है तथा चारों होताओंके जो कर्तव्य बताये गये हैं, वे भी आपको ज्ञात हैं॥
‘गङ्गानन्दन! योग और सांख्यमें जो सनातन धर्म नियत हैं तथा चारों वर्णोंके लिये जो अविरोधी धर्म बताया गया है, जिसका सभी लोग सेवन करते हैं, वह सब आपको व्याख्यासहित ज्ञात है। विलोम कमसे उत्पन्न हुए वर्णसंकरोंका जो धर्म है, उससे भी आप अपरिचित नहीं हैं। देश, जाति और कुलके धर्मोंका क्या लक्षण है, उसे आप अच्छी तरह जानते हैं। वेदोंमें प्रतिपादित तथा शिष्ट पुरुषोंद्वारा कथित धर्मोंको भी आप सदासे ही जानते हैं। ‘इतिहास और पुराणोंके अर्थ आपको पूर्णरूपसे ज्ञात हैं। सारा धर्मशास्त्र सदा आपके मनमें स्थित है।
‘पुरुषप्रवर! संसारमें जो कोई संदेहग्रस्त विषय हैं, उनका समाधान करनेवाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। ‘नरेन्द्र! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके हृदयमें जो शोक उमड़ आया है, उसे आप अपनी बुद्धिके द्वारा दूर कीजिये। आप-जैसे उत्तम बुद्धिके विस्तारवाले पुरुष ही मोहग्रस्त मनुष्यके शोकसंतापको दूर करके उसे शान्ति दे सकते हैं’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें श्रीकृष्णवाक्यविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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