सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के इकतालीसवें अध्याय से पैंतालीसवें अध्याय तक (From the 41 chapter to the 45 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))



सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

इकतालीसवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इकतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा युधिष्ठिरका धृतराष्ट्रके अधीन रहकर राज्यकी व्यवस्थाके लिये भाइयों तथा अन्य लोगोंको विभिन्न कार्योंपर नियुक्त करना”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! मन्त्री, प्रजा आदिके उस देशकालोचित वचनको सुनकर राजा युधिष्ठिर ने उसका उत्तर देते हुए कहा,

    युधिष्ठिर ने कहा ;— ‘निश्चय ही हम सभी पाण्डव धन्य हैं, जिनके गुणोंका बखान यहाँ पधारे हुए सभी ब्राह्मण कर रहे हैं। हममें वास्तवमें वे गुण हों या न हों, आपलोग हमें गुणवान् बता रहें हैं। ‘हमारा विश्वास है कि आपलोग निश्चय ही हमें अपने अनुग्रहका पात्र समझते हैं, तभी तो ईर्ष्या और द्वेष छोड़कर हमें इस प्रकार गुणसम्पन्न बता रहे हैं।

     ‘महाराज धृतराष्ट्र मेरे पिता (ताऊ) और श्रेष्ठ देवता हैं। जो लोग मेरा प्रिय करना चाहते हों उन्हें सदा उनकी आज्ञाके पालन तथा हित-साधनमें लगे रहना चाहिये। ‘अपने भाई-बन्धुओंका इतना बड़ा संहार करके मैं इन्हीं महाराजके लिये जी रहा हूँ। मुझे नित्य-निरन्तर आलस्य छोड़कर इनकी सेवा-शुश्रूषामें संलग्न रहना है। ‘यदि आप सब सुहृदोंका मुझपर अनुग्रह हो तो आपलोग महाराज धृतराष्ट्रके प्रति वैसा ही भाव और बर्ताव बनाये रखें, जैसा पहले रखते थे। ‘ये ही सम्पूर्ण जगत्‌के, आपलोगोंके और मेरे भी स्वामी हैं। यह सारी पृथ्वी और ये समस्त पाण्डव इन्हींके अधिकारमें हैं। आप सब लोग मेरी इस प्रार्थनाको अपने हृदयमें स्थान दें’।

    इसके बाद राजा युधिष्ठिरने नगर और जनपदके निवासियोंको यह आज्ञा दी कि आपलोग इच्छानुसार अपने-अपने स्थानको पधारें। इस प्रकार उन सबको विदा करके कुरुनन्दन युधिष्ठिरने कुन्तीकुमार भीमसेनको युवराजके पदपर प्रतिष्ठित किया॥

     फिर उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ बुद्धिमान् विदुरजीको मन्त्रणा, कर्तव्यनिश्चय तथा छहों गुणोंके चिन्तनके कार्यमें नियुक्त किया, कौन-सा कार्य हुआ और कौन-सा नहीं हुआ, इसकी जाँच करने तथा आय और व्ययपर विचार करनेके कार्यमें उन्होंने सर्वगुणसम्पन्न वयोवृद्ध संजयको लगाया,

     सेनाकी गणना करना, उसे भोजन और वेतन देना तथा उसके कामकी देखभाल करना—इन सब कार्योंका भार राजा युधिष्ठिरने नकुलको सौंप दिया। महाराज! शत्रुओंके देशपर चढ़ाई करने और दुष्टोंका दमन करनेके कार्यमें युधिष्ठिरने अर्जुनको नियुक्त किया, ब्राह्मणों और देवताओंसे सम्बन्ध रखनेवाले कार्योंपर तथा अन्यान्य ब्राह्मणोचित कर्तव्योंपर सदाके लिये पुरोहितोंमें श्रेष्ठ धौम्यजीकी नियुक्ति की गयी।

     प्रजानाथ! सहदेवको राजा युधिष्ठिरने सदा ही अपने पास रहनेका आदेश दिया। उन्हें सभी अवस्थाओंमें राजाकी रक्षाका काम सौंपा गया था। प्रसन्न हुए महाराज युधिष्ठिरने जिन-जिन लोगोंको जिन-जिन कार्योंके योग्य समझा उन-उनको उन्हीं-उन्हीं कार्योंपर नियुक्त किया।

     तत्पश्चात् शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले धर्मवत्सल धर्मात्मा युधिष्ठिरने विदुर, संजय तथा परम बुद्धिमान् युयुत्सुसे कहा,

    युधिष्ठिर ने कहा ;— ‘आपलोगोंको सदा सावधान रहकर प्रतिदिन उठ-उठकर मेरे ताऊ महाराज धृतराष्ट्रकी सेवाका सारा आवश्यक कार्य यथोचितरूपसे सम्पन्न करना चाहिये, ‘पुरवासियों और जनपदनिवासियोंके भी जो-जो कार्य हों, उन्हें इन्हीं महाराजकी आज्ञा लेकर पृथक्-पृथक् पूर्ण करना चाहिये’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें भीमसेन आदिकी भिन्न-भिन्न कार्योंमें नियुक्तिविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

बयालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) बयालीसवें अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा युधिष्ठिर तथा धृतराष्ट्रका युद्धमें मारे गये सगे-सम्बन्धियों तथा अन्य राजाओंके लिये श्राद्धकर्म करना”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! तदनन्तर उदार बुद्धि राजा युधिष्ठिरने जाति, भाई और कुटुम्बीजनोंमेंसे जो लोग युद्धमें मारे गये थे, उन सबके अलग-अलग श्राद्ध करवाये, महायशस्वी राजा धृतराष्ट्रने अपने पुत्रोंके श्राद्धमें समस्त कमनीय गुणोंसे युक्त अन्न, गो, धन और बहुमूल्य विचित्र रत्न प्रदान किये। युधिष्ठिरने द्रौपदीको साथ लेकर आचार्य द्रोण, महामना कर्ण, धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, राक्षस घटोत्कच, विराट आदि उपकारी सुहृद्, द्रुपद तथा द्रौपदीकुमारोंका श्राद्ध किया।

    उन्होंने प्रत्येकके उद्देश्यसे हजारों ब्राह्मणोंको अलग-अलग धन, रत्न, गौ और वस्त्र देकर संतुष्ट किया, इनके सिवा जो दूसरे भूपाल थे, जिनके सुहृद् या सम्बन्धी जीवित नहीं थे, उन सबके उद्देश्यसे राजा युधिष्ठिरने श्राद्ध-कर्म किया, साथ ही उनके निमित्त पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरने धर्मशालाएँ, प्याऊ-घर और पोखरे बनवाये। इस प्रकार उन्होंने सभी सुहृदोंके श्राद्ध-कर्म सम्पन्न कराये।

     उन सबके ऋणसे मुक्त हो वे लोकमें किसीकी निन्दा या आक्षेपके पात्र नहीं रह गये। राजा युधिष्ठिर धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते हुए कृतकृत्यताका अनुभव करने लगे, धृतराष्ट्र, गान्धारी, विदुर तथा अन्य आदरणीय कौरवोंकी वे पहलेकी ही भाँति सेवा करते और भृत्यजनोंका भी आदर-सत्कार करते थे। वहाँ जो कोई भी स्त्रियाँ थीं, जिनके पति और पुत्र मारे गये थे, उन सबका कृपालु कुरुवंशी राजा युधिष्ठिर बड़े आदरके साथ पालन-पोषण करते थे। दीन-दुखियों और अन्धोंके लिये घर एवं भोजन-वस्त्रकी व्यवस्था करके सबके प्रति कोमलताका बर्ताव करनेवाले सामर्थ्यशाली राजा युधिष्ठिर उनपर बड़ी कृपा रखते थे। इस सारी पृथ्वीको जीतकर शत्रुओंसे उऋण हो शत्रुहीन राजा युधिष्ठिर सुखपूर्वक विहार करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें श्राद्धकर्मविषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

तैंतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तैंतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिरद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! राज्याभिषेकके पश्चात् राज्य पाकर परम बुद्धिमान् युधिष्ठिरने पवित्रभावसे हाथ जोड़कर कमलनयन दशार्हवंशी श्रीकृष्णसे कहा,

    युधिष्ठिर बोले ;— ‘यदुसिंह श्रीकृष्ण! आपकी ही कृपा, नीति, बल, बुद्धि और पराक्रमसे मुझे पुनः अपने बाप-दादोंका यह राज्य प्राप्त हुआ है। शत्रुओंका दमन करनेवाले कमलनयन! आपको बारंबार नमस्कार है। ‘अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले द्विज एकमात्र आपको ही अन्तर्यामी पुरुष एवं उपासना करनेवाले भक्तोंका प्रतिपालक बताते हैं। साथ ही वे नाना प्रकारके नामोंद्वारा आपकी स्तुति करते हैं। ‘यह सम्पूर्ण विश्व आपकी लीलामयी सृष्टि है। आप इस विश्वके आत्मा हैं। आपहीसे इस जगत्‌की उत्पत्ति हुई है। आप ही व्यापक होनेके कारण ‘विष्णु’, विजयी होनेसे ‘जिष्णु’, दुःख और पाप हर लेनेसे ‘हरि’, अपनी ओर आकृष्ट करनेके कारण ‘कृष्ण’, विकुण्ठ धामके अधिपति होनेसे ‘वैकुण्ठ’ तथा क्षर-अक्षर पुरुषसे उत्तम होनेके कारण ‘पुरुषोतम’ कहलाते हैं। आपको नमस्कार है। ‘आप पुराणपुरुष परमात्माने ही सात प्रकारसे अदितिके गर्भमें अवतार लिया है। आप ही पृश्निगर्भके नामसे प्रसिद्ध हैं। विद्वान्‌लोग तीनों युगोंमें प्रकट होनेके कारण आपको ‘त्रियुग’ कहते हैं।

     ‘आपकी कीर्ति परम पवित्र है। आप सम्पूर्ण इन्द्रियोंके प्रेरक हैं। घृत ही जिसकी ज्वाला है—वह यज्ञपुरुष आप ही हैं। आप ही हंस (विशुद्ध परमात्मा) कहे जाते हैं। त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर और आप एक ही हैं। आप सर्वव्यापी होनेके साथ ही दामोदर (यशोदा मैयाके द्वारा बँध जानेवाले नटवरनागर) भी हैं।

      ‘वराह, अग्नि, बृहद्भानु (सूर्य), वृषभ (धर्म), गरुडध्वज, अनीकसाह (शत्रुसेनाका वेग सह सकनेवाले), पुरुष (अन्तर्यामी), शिपिविष्ट (सबके शरीरमें आत्मारूपसे प्रविष्ट) और उरुक्रम (वामन)—ये सभी आपके ही नाम और रूप हैं। ‘सबसे श्रेष्ठ, भयंकर सेनापति, सत्यस्वरूप, अन्नदाता तथा स्वामी कार्तिकेय भी आप ही हैं। आप स्वयं कभी युद्धसे विचलित न होकर शत्रुओंको पीछे हटा देते हैं। संस्कार-सम्पन्न द्विज और संस्कारशून्य वर्णसंकर भी आपके ही स्वरूप हैं। आप कामनाओंकी वर्षा करनेवाले वृष (धर्म) हैं।

      ‘कृष्णधर्म (यज्ञस्वरूप) और सबके आदिकारण आप ही हैं। वृषदर्भ (इन्द्रके दर्पका दलन करनेवाले) और वृषाकपि (हरिहर) भी आप ही हैं। आप ही सिन्धु (समुद्र), विधर्म (निर्गुण परमात्मा), त्रिककुप् (ऊपर-नीचे और मध्य—ये तीन दिशाएँ), त्रिधामा (सूर्य, चन्द्र और अग्नि ये त्रिविध तेज) तथा वैकुण्ठधामसे नीचे अवतीर्ण होनेवाले भी हैं।

      ‘आप सम्राट्, विराट्, स्वराट् और देवराज इन्द्र हैं। यह संसार आपहीसे प्रकट हुआ है। आप सर्वत्र व्यापक, नित्य सत्तारूप और निराकार परमात्मा हैं। आप ही कृष्ण (सबको अपनी ओर खींचनेवाले) और कृष्णवर्त्मा (अग्नि) हैं। ‘आपहीको लोग अभीष्टसाधक, अश्विनीकुमारोंके पिता सूर्य, कपिल मुनि, वामन, यज्ञ, ध्रुव, गरुड़ तथा यज्ञसेन कहते हैं।

     ‘आप अपने मस्तकपर मोरका पंख धारण करते हैं। आप ही पूर्वकालमें राजा नहुष होकर प्रकट हुए थे। आप सम्पूर्ण आकाशको व्याप्त करनेवाले महेश्वर तथा एक ही पैरमें आकाशको नाप लेनेवाले विराट् हैं। आप ही पुनर्वसु नक्षत्रके रूपमें प्रकाशित हो रहे हैं। सुबभ्रु (अत्यन्त पिङ्गल वर्ण), रुक्मयज्ञ (सुवर्णकी दक्षिणासे भरपूर यज्ञ), सुषेण (सुन्दर सेनासे सम्पन्न) तथा दुन्दुभिस्वरूप हैं।

     ‘आप ही गभस्तिनेमि (कालचक्र), श्रीपद्म, पुष्कर, पुष्पधारी, ऋभु, विभु, सर्वथा सूक्ष्म और सदाचार स्वरूप कहलाते हैं। ‘आप ही जलनिधि समुद्र, आप ही ब्रह्मा तथा आप ही पवित्र धाम एवं धामके ज्ञाता हैं। केशव! विद्वान् पुरुष आपको ही हिरण्यगर्भ, स्वधा और स्वाहा आदि नामोंसे पुकारते हैं। ‘श्रीकृष्ण! आप ही इस जगत्‌के आदि कारण हैं और आप ही इसके प्रलयस्थान। कल्पके आरम्भमें आप ही इस विश्वकी सृष्टि करते हैं। विश्वके कारण! यह सम्पूर्ण विश्व आपके ही अधीन है। हाथोंमें धनुष, चक्र और खड्ग धारण करनेवाले परमात्मन्! आपको नमस्कार है’।

      इस प्रकार जब धर्मराज युधिष्ठिरने सभामें यदुकुल-शिरोमणि कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति की, तब उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर भरतभूषण ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिरका उत्तम वचनोंद्वारा अभिनन्दन किया। जो धर्मराज युधिष्ठिरद्वारा वर्णित भगवान् श्रीकृष्णके इन सौ नामोंका पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुतिविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

चवालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चवालीसवें अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“महाराज युधिष्ठिरके दिये हुए विभिन्न भवनोंमें भीमसेन आदि सब भाइयोंका प्रवेश और विश्राम”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने मन्त्री, प्रजा आदि सारी प्रकृतियोंको बिदा किया। राजाकी आज्ञा पाकर सब लोग अपने-अपने घरको चले गये। इसके बाद श्रीमान् महाराज युधिष्ठिरने भयानक पराक्रमी भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेवको सान्त्वना देते हुए कहा,

     युधिष्ठिर ने कहा ;---- ‘बन्धुओ! इस महासमरमें शत्रुओंने नाना प्रकारके शस्त्रोंद्वारा तुम्हारे शरीरको घायल कर दिया है। तुम सब लोग अत्यन्त थक गये हो और शोक तथा क्रोधने तुम्हें संतप्त कर दिया है। ‘भरतश्रेष्ठ वीरो! तुमने मेरे लिये वनमें रहकर जैसे कोई भाग्यहीन मनुष्य दुःख भोगता है, उसी प्रकार दुःख और कष्ट भोगे हैं। ‘अब इस समय तुमलोग सुखपूर्वक जी भरकर इस विजयजनित आनन्दका अनुभव करो। अच्छी तरह विश्राम करके जब तुम्हारा चित्त स्वस्थ हो जाय, तब फिर कल तुम लोगोंसे मिलूँगा’। तदनन्तर धृतराष्ट्रकी आज्ञासे भाई युधिष्ठिरने दुर्योधनका महल भीमसेनको अर्पित किया। वह बहुत-सी अट्‌टालिकाओंसे सुशोभित था। वहाँ अनेक प्रकारके रत्नोंका भण्डार पड़ा था और बहुत-सी दास-दासियाँ सेवाके लिये प्रस्तुत थीं। जैसे इन्द्र अपने भवनमें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार महाबाहु भीमसेन उस महलमें चले गये।

      जैसा दुर्योधनका भवन सजा हुआ था, वैसा ही दुःशासनका भी था। उसमें भी प्रासादमालाएँ शोभा दे रही थीं। वह सोनेकी बंदनवारोंसे सजाया गया था। प्रचुर धन-धान्य तथा दास-दासियोंसे भरा-पूरा था। राजाकी आज्ञासे वह भवन महाबाहु अर्जुनको मिला। दुर्मर्षणका महल तो दुःशासनके घरसे भी सुन्दर था। उसे सोने और मणियोंसे सजाया गया था; अतः वह कुबेरके राजभवनकी भाँति प्रकाशित होता था। महाराज! धर्मपुत्र युधिष्ठिरने अत्यन्त प्रसन्न होकर महान् वनमें कष्ट उठाये हुए, वर पानेके अधिकारी नकुलको दुर्मर्षणका वह सुन्दर भवन प्रदान किया,

    दुर्मुखका श्रेष्ठ भवन तो और भी सुन्दर था। उसे सुवर्णसे सुसज्जित किया गया था। खिले हुए कमलदलके समान नेत्रोंवाली सुन्दर स्त्रियोंकी शय्याओंसे भरा हुआ वह भवन युधिष्ठिरने सदा अपना प्रिय करनेवाले सहदेवको दिया। जैसे कुबेर कैलासको पाकर संतुष्ट हुए थे, उसी प्रकार उस सुन्दर महलको पाकर सहदेवको बड़ी प्रसन्नता हुई। प्रजानाथ! युयुत्सु, विदुर, संजय, सुधर्मा और धौम्य मुनि भी अपने-अपने पहलेके ही घरोंमें गये।

    जैसे व्याघ्र पर्वतकी कन्दरामें प्रवेश करता है, उसी प्रकार सात्यकिसहित पुरुषसिंह श्रीकृष्णने अर्जुनके महलमें पदार्पण किया। वहाँ अपने-अपने स्थानोंपर खान-पानसे संतुष्ट हो वे सब लोग रातभर बड़े सुखसे सोये और सबेरे उठकर राजा युधिष्ठिरकी सेवामें उपस्थित हो गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें गृहोंका विभाजनविषयक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

पैंतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पैंतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिरके द्वारा ब्राह्मणों तथा आश्रितोंका सत्कार एवं दान और श्रीकृष्णके पास जाकर उनकी स्तुति करते हुए कृतज्ञता-प्रकाशन”

    जनमेजयने पूछा ;— विप्रवर! राज्य पानेके पश्चात् धर्मपुत्र महाबाहु युधिष्ठिरने और कौन-कौन-सा कार्य किया था? यह मुझे बतानेकी कृपा करें? महर्षे! तीनों लोकोंके परम गुरु वीरवर भगवान् श्रीकृष्णने भी क्या-क्या किया था? यह भी विस्तारपूर्वक बतावें।

    वैशम्पायनजीने कहा ;— निष्पाप नरेश! भगवान् श्रीकृष्णको आगे करके पाण्डवोंने जो कुछ किया था, उसे ठीक-ठीक बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो, महाराज! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरने राज्य प्राप्त करनेके बाद सबसे पहले चारों वर्णोंको योग्यतानुसार अपने-अपने स्थान (कर्तव्यपालन) में स्थिर किया।

    तत्पश्चात् सहस्रों महामना स्नातक ब्राह्मणोंमेंसे प्रत्येकको पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरने एक-एक हजार स्वर्णमुद्राएँ दिलवायीं, इसी तरह जिनकी जीविकाका भार उन्हींके ऊपर था, उन भृत्यों, शरणागतों तथा अतिथियोंको उन्होंने इच्छानुसार भोग्यपदार्थ देकर संतुष्ट किया। दीन-दुखियों तथा पूछे हुए प्रश्नोंका उत्तर देनेवाले ज्योतिषियोंको भी संतुष्ट किया। अपने पुरोहित धौम्यजीको उन्होंने दस हजार गौएँ, धन, सोना, चाँदी तथा नाना प्रकारके वस्त्र दिये, महाराज! राजाने कृपाचार्यके साथ वही बर्ताव किया, जो एक शिष्यको अपने गुरुके साथ करना चाहिये। नियमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले युधिष्ठिरजीने विदुरजीका भी पूजनीय पुरुषकी भाँति सम्मान किया,

    दाताओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिरने समस्त आश्रित जनोंको खाने-पीनेकी वस्तुएँ, भाँति-भाँतिके कपड़े, शय्या तथा आसन देकर संतुष्ट किया, नृपश्रेष्ठ! महायशस्वी राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार प्राप्त हुए धनका यथोचित विभाग करके उसकी शान्ति की तथा युयुत्सु एवं धृतराष्ट्रका विशेष सत्कार किया। धृतराष्ट्र, गान्धारी तथा विदुरजीकी सेवामें अपना सारा राज्य समर्पित करके राजा युधिष्ठिर स्वस्थ एवं सुखी हो गये॥

     भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार सम्पूर्ण नगरकी प्रजाको प्रसन्न करके वे हाथ जोड़कर महात्मा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके पास गये। उन्होंने देखा, भगवान् श्रीकृष्ण मणियों तथा सुवर्णसे भूषित एक बड़े पलंगपर बैठे हैं, उनकी श्याम सुन्दर छवि नील मेघके समान सुशोभित हो रही है। उनका श्रीविग्रह दिव्य तेजसे उद्‌भासित हो रहा है। एक-एक अङ्ग दिव्य आभूषणोंसे विभूषित है। श्याम शरीरपर रेशमी पीताम्बर धारण किये भगवान् सुवर्णजटित नीलमके समान जान पड़ते हैं।

    उनके वक्षःस्थलपर स्थित हुई कौस्तुभमणि अपना प्रकाश बिखेरती हुई उसी प्रकार उनकी शोभा बढाती है, मानो उगते हुए सूर्य उदयाचलको प्रकाशित कर रहे हों। भगवान्‌की उस दिव्य झाँकीकी तीनों लोकोंमें कहीं उपमा नहीं थी। राजा युधिष्ठिर मानवविग्रहधारी उन परमात्मा विष्णुके समीप जाकर मुसकराते हुए मधुर वाणीमें इस प्रकार बोले,—

   युधिष्ठिर बोले ;— ‘बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ अच्युत! आपकी रात सुखसे बीती है न? सारी ज्ञानेन्द्रियाँ प्रसन्न तो हैं न?

     ‘बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! बुद्धिदेवीने आपका आश्रय लिया है न? प्रभो! हमने आपकी ही कृपासे राज्य पाया है और यह पृथ्वी हमारे अधिकारमें आयी है। भगवन्! आप ही तीनों लोकोंके आश्रय और पराक्रम हैं। आपकी ही दयासे हमने विजय तथा उत्तम यश प्राप्त किये हैं और धर्मसे भ्रष्ट नहीं हुए हैं’। शत्रुओंका दमन करनेवाले धर्मराज युधिष्ठिर इस प्रकार कहते चले जा रहे थे; परंतु भगवान्‌ने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया। वे उस समय ध्यानमें मग्न थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें श्रीकृष्णके प्रति युधिष्ठिरका वचनविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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