सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
छत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“स्वायम्भुव मनुके कथनानुसार धर्मका स्वरूप, पापसे शुद्धिके लिये प्रायश्चित्त, अभक्ष्य वस्तुओंका वर्णन तथा दानके अधिकारी एवं अनधिकारीका विवेचन”
युधिष्ठिरने पूछा ;— पितामह! क्या भक्ष्य है और क्या अभक्ष्य? किस वस्तुका दान उत्तम माना जाता है? कौन दानका पात्र है अथवा कौन अपात्र? यह सब मुझे बताइये,
व्यासजी बोले ;— राजन्! इस विषयमें लोग प्रजापति मनु और सिद्ध पुरुषोंके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। पहलेकी बात है एक समय बहुत-से व्रतपरायण तपस्वी ऋषि एकत्र हो प्रजापति राजा मनुके पास गये और उन बैठे हुए नरेशसे धर्मकी बात पूछते हुए बोले—
ऋषि बोले ;- ‘प्रजापते! अन्न क्या है? पात्र कैसा होना चाहिये? दान, अध्ययन और तपका क्या स्वरूप है? क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य? यह सब हमें बताइये’ उनके इस प्रकार पूछनेपर भगवान् स्वायम्भुव मनुने कहा,
मनु ने कहा ;-— ‘महर्षियो! मैं संक्षेप और विस्तारके साथ धर्मका यथार्थ स्वरूप बताता हूँ, आपलोग सुनें,
‘जिनके दोषोंका विशेषरूपसे उल्लेख नहीं हुआ है, ऐसे कर्म बन जानेपर उनके दोषके निवारणके लिये जप, होम, उपवास, आत्मज्ञान, पवित्र नदियोंमें स्नान तथा जहाँ जप-होम आदिमें तत्पर रहनेवाले बहुत-से पुण्यात्मा पुरुष रहते हों, उस स्थानका सेवन—ये सामान्य प्रायश्चित्त हैं। ये सारे कर्म पुण्यदायक हैं। पर्वत, सुवर्णप्राशन (सोनेसे स्पर्श कराये हुए जलका पान), रत्न आदिसे मिश्रित जलमें स्नान, देव-स्थानोंकी यात्रा और घृतपान—ये सब मनुष्यको शीघ्र ही पवित्र कर देते हैं, इसमें संशय नहीं है।
‘विद्वान् पुरुष कभी गर्व न करे और यदि दीर्घायुकी इच्छा हो तो तीन रात तप्तकृच्छ्रव्रतकी विधिसे गरम-गरम दूध, घृत और जल पीये,
‘बिना दी हुई वस्तुको न लेना, दान, अध्ययन और तपमें तत्पर रहना, किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना, सत्य बोलना, क्रोध त्याग देना और यज्ञ करना—ये सब धर्मके लक्षण हैं। ‘एक ही क्रिया देश और कालके भेदसे धर्म या अधर्म हो जाती है! चोरी करना, झूठ बोलना एवं हिंसा करना आदि अधर्म भी अवस्थाविशेषमें धर्म माने गये हैं। ‘इस प्रकार विज्ञ पुरुषोंकी दृष्टिमें धर्म और अधर्म दोनों ही देश-कालके भेदसे दो-दो प्रकारके हैं। धर्माधर्ममें जो अप्रवृत्ति और प्रवृत्ति होती हैं, ये भी लोक और वेदके भेदसे दो प्रकारकी हैं (अर्थात् लौकिकी अप्रवृत्ति और लौकिकी प्रवृत्ति, वैदिकी अप्रवृत्ति और वैदिकी प्रवृत्ति)।
‘वैदिकी अप्रवृत्ति (निवृत्ति-धर्म)-का फल है अमृतत्व (मोक्ष) और वैदिकी प्रवृत्ति अर्थात् सकाम कर्मका फल है जन्म-मरणरूप संसार। लौकिकी अप्रवृत्ति और प्रवृत्ति—ये दोनों यदि अशुभ हों तो उनका फल भी अशुभ समझे तथा शुभ हों तो उनका फल भी शुभ जानना चाहिये; क्योंकि ये दोनों ही शुभ और अशुभरूप होती हैं॥
‘देवताओंके निमित्त, दैवयुक्त (शास्त्रीय कर्म), प्राण और प्राणदाता—इन चारोंकी अपेक्षापूर्वक जो कुछ किया जाता है, उससे अशुभका भी शुभ ही फल होता है। ‘प्राणोंपर संशय न होनेकी स्थितिमें अथवा किसी प्रत्यक्ष लाभके लिये जो यहाँ अशुभ कर्म बन जाता है, उसे इच्छापूर्वक करनेके कारण उसके दोषकी निवृत्तिके लिये प्रायश्चित्तका विधान है। ‘यदि क्रोध और मोहके वशीभूत होकर मनको प्रिय या अप्रिय लगनेवाले अशुभ कार्य हो जाते हैं तो उनके निवारणके लिये दृष्टान्तप्रतिपादक शास्त्रकी दृष्टियोंसे उपवास आदिके द्वारा शरीरको सुखाना ही करने योग्य प्रायश्चित्त माना गया है। इसके सिवा, हविष्यान्न-भोजन, मन्त्रोंके जप तथा अन्यान्य प्रायश्चित्तोंसे भी क्रोध आदिके कारण किये गये पापकी शान्ति होती है।
‘यदि राजा दण्डनीय पुरुषको दण्ड न दे तो उसे अपनी शुद्धिके लिये एक रातका उपवास करना चाहिये। यदि पुरोहित राजाको ऐसे अवसरपर कर्तव्यका उपदेश न दे तो उसे तीन रातका उपवास करना चाहिये,
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छत्तीसवें अध्याय के श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)
‘यदि पुत्र आदिकी मृत्युके कारण शोक करनेवाला पुरुष आमरण उपवास करनेके लिये बैठ जाय अथवा शस्त्र आदिसे आत्मघातकी चेष्टा करे; परंतु उसकी मृत्यु न हो, उस दशामें भी उस निन्द्यकर्मके लिये जो चेष्टा की गयी थी, उसके दोषकी निवृत्तिके लिये उसे तीन रातका उपवास बताना चाहिये, ‘परंतु जो पुरुष अपनी जाति, आश्रम तथा कुलके धर्मोंका सर्वथा परित्याग कर देते हैं और जो लोग धर्ममात्रको छोड़ बैठते हैं उनके लिये कोई धर्म (प्रायश्चित्त) नहीं है। अर्थात् किसी भी प्रायश्चित्तसे उनकी शुद्धि नहीं हो सकती है।
‘यदि प्रायश्चित्तकी आवश्यकता पड़ जाय और धर्मके निर्णयमें संदेह उपस्थित हो जाय तो वेद और धर्म-शास्त्रको जाननेवाले दस अथवा निरन्तर धर्मका विचार करनेवाले तीन ब्राह्मण उस प्रश्नपर विचार करके जो कुछ कहें, उसे ही धर्म मानना चाहिये, ‘बैल, मिट्टी, छोटी-छोटी चीटियाँ, श्लेष्मातक1 (लसोड़ा) और विष—ये सब ब्राह्मणोंके लिये अभक्ष्य हैं। ‘काँटोंसे रहित जो मत्स्य हैं, वे भी ब्राह्मणोंके लिये अभक्ष्य हैं। कच्छप और उसके सिवा अन्य चार पैरवाले सभी जीव अभक्ष्य हैं। मेढ़क और जलमें उत्पन्न होनेवाले अन्य जीव भी अभक्ष्य ही हैं।
‘भास, हंस, गरुड़, चक्रवाक, बतख, बगुले, कौए, मद्गु2, गीध, बाज, उल्लू, कच्चे मांस खानेवाले दाढ़ोंसे युक्त सभी हिंसक पशु, चार पैरवाले जीव और पक्षी तथा दोनों ओर दाँत और चार दाढ़ोंवाले सभी जीव अभक्ष्य हैं। भेड़, घोड़ी, गदही, ऊँटनी, दस दिनके भीतरकी ब्यायी हुई गाय, मानवी स्त्री और हिरनियोंका दूध ब्राह्मण न पीये ‘यदि किसीके यहाँ मरणाशौच या जननाशौच हो गया हो तो उसके यहाँ दस दिनोंतक कोई अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिये, इसी प्रकार ब्यायी हुई गायका दूध भी यदि दस दिनके भीतरका हो तो उसे नहीं पीना चाहिये।
‘राजाका अन्न तेज हर लेता है, शूद्रका अन्न ब्रह्मतेजको नष्ट कर देता है, सुनारका तथा पति और पुत्रसे हीन युवतीका अन्न आयुका नाश करता है। ‘व्याजखोरका अन्न विष्ठाके समान है और वेश्याका अन्न वीर्यके समान। जो अपनी स्त्रीके पास किसी उपपतिका आना सह लेते हैं, उन कायरोंका तथा सदा स्त्रीके वशीभूत रहनेवाले पुरुषोंका अन्न भी वीर्यके ही तुल्य है।
‘जिसने यज्ञकी दीक्षा ली हो उसका अन्न अग्निषोमीय होमविशेषके पहले अग्राह्य है। कंजूस, यज्ञ बेचनेवाले, बढ़ई, चमार या मोची, व्यभिचारिणी स्त्री, धोबी, वैद्य तथा चौकीदारका अन्न भी खाने योग्य नहीं है।
‘जिन्हें किसी समाज या गाँवने दोषी ठहराया हो, जो नर्तकीके द्वारा अपनी जीविका चलाते हों, छोटे भाईका ब्याह हो जानेपर भी कुँवारे रह गये हों, बंदी (चारण या भाट)-का काम करते हों या जुआरी हों, ऐसे लोगोंका अन्न भी ग्रहण करने योग्य नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छत्तीसवें अध्याय के श्लोक 30-50 का हिन्दी अनुवाद)
‘बायें हाथसे लाया अथवा परोसा गया अन्न, बासी भात, शराब मिला हुआ, जूठा और घरवालोंको न देकर अपने लिये बचाया हुआ अन्न भी अखाद्य ही है।
‘इसी प्रकार जो पदार्थ आटे, ईखके रस, साग या दूधको बिगाड़कर या सड़ाकर बनाये गये हों, सत्तू, भूने हुए जौ और दहीमिश्रित सत्तू इन्हें विकृत करके बनाये हुए पदार्थ यदि बहुत देरके बने हों तो उन्हें नहीं खाना चाहिये।
‘खीर, खिचड़ी, फलका गूदा और पूए यदि देवताके उद्देश्यसे न बनाये गये हों तो गृहस्थ ब्राह्मणोंके लिये खाने-पीने योग्य नहीं हैं। गृहस्थको चाहिये कि वह पहले देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों (अतिथियों), पितरों और घरके देवताओंका पूजन करके पीछे अपने भोजन करे।
‘जैसे गृहत्यागी संन्यासी घरके प्रति अनासक्त होता है, उसी प्रकार गृहस्थको भी ममता और आसक्ति छोड़कर ही घरमें रहना चाहिये। जो इस प्रकार सदाचारका पालन करते हुए अपनी प्रिय पत्नीके साथ घरमें निवास करता है, वह धर्मका पूरा-पूरा फल प्राप्त कर लेता है। ‘धर्मात्मा पुरुषको चाहिये कि वह यशके लोभसे, भयके कारण अथवा अपना उपकार करनेवालेको दान न दे अर्थात् उसे जो दिया जाय वह दान नहीं है, ऐसा समझना चाहिये। जो नाचने-गानेवाले, हँसी-मजाक करनेवाले (भाँड़ आदि), मदमत्त, उन्मत्त, चोर, निन्दक, गूँगे, कान्तिहीन, अङ्गहीन, बौने, दुष्ट, दूषित कुलमें उत्पन्न तथा व्रत एवं संस्कारसे शून्य हों, उन्हें भी दान न दे। श्रोत्रियके सिवा वेदज्ञानशून्य ब्राह्मणको दान नहीं देना चाहिये।
‘जो उत्तम विधिसे दिया न गया हो तथा जिसे उत्तम विधिके साथ ग्रहण न किया गया हो, वह देना और लेना दोनों ही देने और लेनेवालेके लिये अनर्थकारी होते हैं। ‘जैसे खैरकी लकड़ी या पत्थरकी शिलाका सहारा लेकर समुद्र पार करनेवाला मनुष्य बीचमें ही डूब जाता है, उसी प्रकार अविधिपूर्वक दान देने और लेनेवाले यजमान और पुरोहित दोनों डूब जाते हैं।
‘जैसे गीली लकड़ीसे ढकी हुई आग प्रज्वलित नहीं होती, उसी प्रकार तपस्या, स्वाध्याय तथा सदाचारसे हीन ब्राह्मण यदि दान ग्रहण कर ले तो वह उसे पचा नहीं सकता। ‘जैसे मनुष्यकी खोपड़ीमें भरा हुआ जल और कुत्तेकी खालमें रखा हुआ दूध आश्रयदोषसे अपवित्र होता है, उसी प्रकार सदाचारहीन ब्राह्मणका शास्त्रज्ञान भी आश्रय-स्थानके दोषसे दूषित हो जाता है। ‘जो ब्राह्मण वेदज्ञानसे शून्य और शास्त्रज्ञानसे रहित होता हुआ भी दूसरोंमें दोष नहीं देखता तथा संतुष्ट रहता है, उसे तथा व्रतशून्य दीन-हीनको भी दया करके दान देना चाहिये।
‘पर जो दूसरोंका बुरा करनेवाला हो वह यदि दीन हो तो भी उसे दया करके नहीं देना चाहिये। यह शिष्टोंका आचार है और यही धर्म है। ‘वेदविहीन ब्राह्मणोंको दिया हुआ दान अपात्रदोषसे निरर्थक हो जाता है, इसमें कोई विचार करनेकी बात नहीं है। ‘जैसे लकड़ीका हाथी और चामका बना हुआ मृग हो, उसी प्रकार वेदशास्त्रोंके अध्ययनसे शून्य ब्राह्मण है। ये तीनों नाममात्र धारण करते हैं (परंतु नामके अनुसार काम नहीं देते)। ‘जैसे नपुंसक मनुष्य स्त्रियोंके पास जाकर निष्फल होता है, गाय गायसे ही संयुक्त होनेपर कोई फल नहीं दे सकती और जैसे बिना पंखका पक्षी उड़ नहीं सकता, उसी प्रकार वेदमन्त्रोंके ज्ञानसे शून्य ब्राह्मण भी व्यर्थ ही होता है।
‘जिस प्रकार अन्तहीन ग्राम, जलरहित कुँआ और राखमें की हुई आहुति व्यर्थ होती है, उसी प्रकार मूर्ख ब्राह्मणको दिया हुआ दान भी व्यर्थ ही है। ‘मूर्ख ब्राह्मण देवताओंके यज्ञ और पितरोंके श्राद्धका नाश करनेवाला होता है। वह धनका अपहरण करनेवाला शत्रु है। वह दान देनेवालोंको उत्तम लोकमें नहीं पहुँचा सकता’। भरतभूषण युधिष्ठिर! यह सब वृत्तान्त तुम्हें यथावत् रूपसे थोड़ेमें बताया गया। यह महत्त्वपूर्ण प्रसंग सबको सुनना चाहिये॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें व्यासवाक्यविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टीका टिप्पणी,,--------
- 1-श्लेष्मातकके वैद्यकमें अनेक नाम आये हैं, उनमेंसे एक नाम ‘द्विजकुत्सित’ भी है। इससे सिद्ध होता है कि वह द्विजातिमात्रके लिये अभक्ष्य है।
- 2-मद्गु एक प्रकारके जलचर पक्षीका नाम है।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
सैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“व्यासजी तथा भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे महाराज युधिष्ठिरका नगरमें प्रवेश”
युधिष्ठिर बोले ;— भगवन्! महामुने! द्विजश्रेष्ठ! मैं चारों वर्णोंके सम्पूर्ण धर्मोंका तथा राजधर्मका भी विस्तारपूर्वक वर्णन सुनना चाहता हूँ। द्विजश्रेष्ठ! आपत्तिकालमें मुझे कैसी नीतिसे काम लेना चाहिये? धर्मके अनुकूल मार्गपर दृष्टि रखते हुए मैं किस प्रकार इस पृथ्वीपर विजय पा सकता हूँ? भक्ष्य और अभक्ष्यसे रहित, उपवासस्वरूप प्रायश्चित्तकी यह चर्चा बड़ी उत्सुकता पैदा करनेवाली है। यह मेरे हृदयमें हर्ष-सा उत्पन्न कर रही है। एक ओर धर्मका आचरण और दूसरी ओर राज्यका पालन—ये दोनों सदा एक दूसरेके विरुद्ध हैं। यह सोचकर मुझे निरन्तर चिन्ता बनी रहती है और मेरे चित्तपर मोह छा रहा है।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— महाराज! तब वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ व्यासजीने सर्वज्ञ महात्माओंमें सबसे प्राचीन नारदजीकी ओर देखकर युधिष्ठिरसे कहा,
व्यास जी ने कहा ;— ‘महाबाहु नरेश्वर! यदि तुम धर्मका पूर्णरूपसे विवेचन सुनना चाहते हो तो कुरुकुलके वृद्ध पितामह भीष्मके पास जाओ, ‘गङ्गापुत्र भीष्म सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता और सर्वज्ञ हैं। वे धर्म-रहस्यके विषयमें तुम्हारे मनमें स्थित हुए सम्पूर्ण संदेहोंका निवारण करेंगे, ‘जिन्हें दिव्य नदी त्रिपथगा गङ्गादेवीने जन्म दिया है, जिन्होंने इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंका साक्षात् दर्शन किया है तथा जिन शक्तिशाली भीष्मने बृहस्पति आदि देवर्षियोंको बारम्बार अपनी सेवाद्वारा संतुष्ट करके राजनीतिका अध्ययन किया है, उनके पास चलो। ‘शुक्राचार्य जिस शास्त्रको जानते हैं तथा देवगुरु विप्रवर बृहस्पतिको जिस शास्त्रका ज्ञान है, वह सम्पूर्ण शास्त्र कुरुश्रेष्ठ भीष्मने व्याख्यासहित प्राप्त किया है।
‘ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करके महाबाहु भीष्मने भृगुवंशी च्यवन तथा महर्षि वसिष्ठसे वेदाङ्गोंसहित वेदोंका अध्ययन किया है। ‘इन्होंने पूर्वकालमें ब्रह्माजीके ज्येष्ठ पुत्र उद्दीप्त तेजस्वी सनत्कुमारजीसे, जो अध्यात्मगतिके तत्त्वको जाननेवाले हैं, अध्यात्मज्ञानकी शिक्षा पायी थी। ‘पुरुषप्रवर भीष्मने मार्कण्डेयजीके मुखसे सम्पूर्ण यतिधर्मका ज्ञान प्राप्त किया है और परशुराम तथा इन्द्रसे अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा पायी है। ‘मनुष्योंमें उत्पन्न होकर भी इन्होंने मृत्युको अपनी इच्छाके अधीन कर लिया है। संतानहीन होनेपर भी उनको प्राप्त होनेवाले पुण्य-लोक देवलोकमें विख्यात हैं।
‘पुण्यात्मा ब्रह्मर्षि सदा उनके सभासद रहे हैं। ज्ञानयज्ञमें कोई भी ऐसी बात नहीं है, जिसका उन्हें ज्ञान न हो। ‘सूक्ष्म धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले वे धर्मवेत्ता भीष्म तुम्हें धर्मका उपदेश देंगे। वे धर्मज्ञ महात्मा अपने प्राणोंका परित्याग करें, इसके पहले ही तुम इनके पास चलो’ उनके ऐसा कहनेपर परम बुद्धिमान् दूरदर्शी कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने वक्ताओंमें श्रेष्ठ सत्यवतीनन्दन व्यासजीसे कहा॥१७॥
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सैतीसवें अध्याय के श्लोक 17-49 का हिन्दी अनुवाद)
युधिष्ठिर बोले :— मुने! मैं अपने भाई-बन्धुओंका यह महान् एवं रोमाञ्चकारी संहार करके सम्पूर्ण लोकोंका अपराधी बन गया हूँ। मैंने इस सम्पूर्ण भूमण्डलका विनाश किया है। भीष्मजी सरलतापूर्वक युद्ध करनेवाले थे तो भी मैंने युद्धमें उन्हें छलसे मरवा डाला। अब फिर उन्हींसे मैं अपनी शङ्काओंको पूछूँ, क्या इसके योग्य मैं रह गया हूँ? अब मैं किस हेतुसे उन्हें मुँह दिखा सकता हूँ?
वैशम्पायनजी कहते हैं :— जनमेजय! तब परम बुद्धिमान् महाबाहु यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्णने चारों वर्णोंके हितकी इच्छासे नृपतिशिरोमणि युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहा।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले :— नृपश्रेष्ठ! अब आप अत्यन्त हठपूर्वक शोकको ही पकड़े न रहें। भगवान् व्यास जो आज्ञा देते हैं, वही करें। महाबाहो! जैसे वर्षाकालमें लोग मेघकी ओर टकटकी लगाये देखते हैं। उससे जलकी याचना करते हैं, उसी प्रकार ये सारे ब्राह्मण और आपके ये महातेजस्वी भाई आपसे धैर्य धारण करनेकी प्रार्थना करते हुए आपके पास बैठे हैं। महाराज! मरनेसे बचे हुए राजालोग और चारों वर्णोंकी प्रजाओंसे युक्त यह सारा कुरुजाङ्गल देश इस समय आपकी सेवामें उपस्थित है।
शत्रुओंको मारने और संताप देनेवाले नरेश! इन महामना ब्राह्मणोंका प्रिय करनेके लिये भी आपको इनकी बात मान लेनी चाहिये। आप अमित तेजस्वी गुरुदेव व्यासकी आज्ञासे हम सुहृदोंका और द्रौपदीका प्रिय कीजिये तथा सम्पूर्ण जगत्के हितसाधनमें लग जाइये।
वैशम्पायनजी कहते हैं :— जनमेजय! श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर कमलनयन महामनस्वी राजा युधिष्ठिर सम्पूर्ण जगत्के हितके लिये उठ खड़े हुए। पुरुषसिंह! साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण, द्वैपायन व्यास, देवस्थान, अर्जुन तथा अन्य बहुत-से लोगोंके समझाने-बुझाने पर महायशस्वी युधिष्ठिरने मानसिक दुःख और संतापको त्याग दिया, पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने श्रेष्ठ पुरुषोंके उपदेशको सुना था। वेद-शास्त्रोंके ज्ञानकी तो वे निधि ही थे। सुने हुए शास्त्रों तथा सुनने योग्य नीतिग्रन्थोंके विचारमें भी वे कुशल थे। उन्होंने अपने कर्तव्यका निश्चय करके मनमें पूर्ण शान्ति पा ली थी।
नक्षत्रोंसे घिरे हुए चन्द्रमाके समान राजा युधिष्ठिर वहाँ आये हुए सब लोगोंसे घिरकर धृतराष्ट्रको आगे करके अपनी राजधानी हस्तिनापुरको चल दिये।
नगरमें प्रवेश करते समय धर्मज्ञ कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरने देवताओं तथा सहस्रों ब्राह्मणोंका पूजन किया। तदनन्तर कम्बल और मृगचर्मसे ढके हुए एक नूतन उज्ज्वल रथपर जिसकी पवित्र मन्त्रोंद्वारा पूजा की गयी थी तथा जिसमें शुभ लक्षणसम्पन्न सोलह सफेद बैल जुते हुए थे, वे बन्दीजनोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए उसी प्रकार सवार हुए, जैसे चन्द्रदेव अपने अमृतमय रथपर आरूढ़ होते हैं।
भयानक पराक्रमी कुन्तीपुत्र भीमसेनने उन बैलोंकी रास सँभाली। अर्जुनने तेजस्वी श्वेत छत्र धारण किया। रथके ऊपर तना हुआ वह श्वेत छत्र आकाशमें तारिकाओंसे व्याप्त श्वेत बादलके समान शोभा पाता था। उस समय माद्रीके वीर पुत्र नकुल और सहदेवने चन्द्रमाकी किरणोंके समान चमकीले रत्नभूषित श्वेत चँवर और व्यजन हाथोंमें ले लिये॥
राजन्! वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हुए वे पाँचों भाई रथपर बैठकर मूर्तिमान् पाँच महाभूतोंके समान दिखायी देते थे। नरेश्वर! मनके समान वेगशाली घोड़ोंसे जुते हुए शुभ्र रथपर आरूढ़ हो युयुत्सु ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिरके पीछे-पीछे चले। शैब्य और सुग्रीव नामक घोड़ोंसे जुते हुए सुन्दर सुवर्णमय रथपर आरूढ़ हो सात्यकिसहित श्रीकृष्ण भी कौरवोंके पीछे-पीछे गये। भरतनन्दन! कुन्तीपुत्र धर्मराज युधिष्ठिरके ज्येष्ठ पिता (ताऊ) गान्धारीसहित पालकीमें बैठकर उनके आगे-आगे जा रहे थे,
इन सबके पीछे कुन्ती और द्रौपदी आदि कुरुकुलकी वे सभी स्त्रियाँ यथायोग्य भिन्न-भिन्न सवारियोंपर चढ़कर चल रही थीं। इनके पीछे विदुरजी थे, जो इन सबकी देखभाल करते थे। तदनन्तर इन सबके पीछे हाथी और घोड़ोंसे विभूषित बहुतसे रथी, पैदल और घुड़सवार सैनिक चल रहे थे, इस प्रकार वैतालिकों, सूतों और मागधोंद्वारा सुन्दर वाणीमें अपनी स्तुति सुनते हुए राजा युधिष्ठिरने हस्तिनापुर नगरमें प्रवेश किया।
महाबाहु युधिष्ठिरकी यह सामूहिक यात्रा (जुलूस) इस भूतलपर अनुपम थी। उसमें हृष्ट-पुष्ट मनुष्य भरे हुए थे। भीड़-पर-भीड़ बढ़ती चली जाती थी और बड़े जोरसे जयघोष एवं कोलाहल हो रहा था, राजा युधिष्ठिरकी इस यात्राके समय नगरनिवासी मनुष्योंने समूचे नगर तथा वहाँकी सड़कोंको अच्छी तरहसे सजा दिया था। सफेद मालाओं तथा पताकाओंसे नगरभूमिकी अद्भुत शोभा हो रही थी। राजमार्गको झाड़-बुहारकर वहाँ छिड़काव किया गया था और धूपोंकी सुगन्ध फैलायी गयी थी।
राजमहलके आस-पास चारों ओर सुगन्धित चूर्ण बिखेरे गये थे, नाना प्रकारके फूलों, बेलों और पुष्पहारोंकी बन्दनवारोंसे उसे अच्छी तरह सुसज्जित किया गया था, नगरके द्वारपर जलसे भरे हुए नूतन एवं सुदृढ़ कलश रखे गये थे और जगह-जगह सफेद फूलोंके गुच्छे रख दिये गये थे। अपने सुहृदोंसे घिरे हुए पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने इस प्रकार सजे सजाये द्वारवाले नगर—हस्तिनापुरमें प्रवेश किया। उस समय सुन्दर वचनोंद्वारा उनकी स्तुति की जा रही थी।
“इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरका नगरप्रवेशविषयक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ”
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
अड़तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अड़तीसवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“नगर-प्रवेशके समय पुरवासियों तथा ब्राह्मणोंद्वारा राजा युधिष्ठिरका सत्कार और उनपर आक्षेप करनेवाले चार्वाकका ब्राह्मणोंद्वारा वध”
वैशम्पायनजी कहते हैं :— जनमेजय! कुन्ती-पुत्रोंके हस्तिनापुरमें प्रवेश करते समय उन्हें देखनेके लिये दस लाख नगरनिवासी सड़कोंपर एकत्र हो गये। राजन्! जैसे चन्द्रोदय होनेपर महासागर उमड़ने लगता है, उसी प्रकार जिसके चौराहे खूब सजाये गये थे, वह राजमार्ग मनुष्योंकी उमड़ती हुई भीड़से बड़ी शोभा पा रहा था।
भरतनन्दन! सड़कोंके आस-पास जो रत्नविभूषित विशाल भवन थे, वे स्त्रियोंसे भरे होने के कारण उनके भारी भारसे काँपते हुए-से जान पड़ते थे। वे नारियाँ लजाती हुई-सी धीरे-धीरे युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा पाण्डुपुत्र माद्रीकुमार नकुल सहदेवकी प्रशंसा करने लगीं॥
वे बोलीं,— ‘कल्याणि! पाञ्चालराजकुमारी! तुम धन्य हो, जो इन पाँच महान् पुरुषोंकी सेवामें उसी प्रकार उपस्थित रहती हो, जैसे गौतमवंशमें उत्पन्न हुई जटिला अनेक महर्षियोंकी सेवा करती हैं। भाविनि! तुम्हारे सभी पुण्यकर्म अमोघ हैं और समस्त व्रतचर्या सफल है'। महाराज! इस प्रकार उस समय सारी स्त्रियाँ द्रुपदकुमारी कृष्णाकी प्रशंसा करती थीं। भारत! एक दूसरीके प्रति कहे जानेवाले उनके प्रशंसा-वचनों और प्रीतिजनित शब्दोंसे उस समय सारा नगर व्याप्त हो रहा था। राजन्! उस सजे सजाये शोभासम्पन्न राजमार्गको यथोचित रूपसे लाँघकर राजा युधिष्ठिर राजभवनके समीप जा पहुँचे।
तदनन्तर मन्त्री-सेनापति आदि प्रकृतिवर्गके सभी लोग, नगरवासी और जनपदनिवासी मनुष्य इधर-उधरसे आकर कानोंको सुख देनेवाली बातें कहने लगे,— ‘शत्रुओंका संहार करनेवाले राजेन्द्र! बड़े सौभाग्यकी बात है कि आप विजयी हो रहे हैं, आपने धर्मके प्रभाव तथा बलसे अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया—यह बड़े हर्षका विषय है। ‘महाराज! आप सैकड़ों वर्षोंतक हमारे राजा बने रहें। जैसे इन्द्र स्वर्गलोकका पालन करते हैं, उसी प्रकार आप भी धर्मपूर्वक अपनी प्रजाकी रक्षा करें’।
इस प्रकार राजकुलके द्वारपर माङ्गलिक द्रव्योंद्वारा पूजित हो ब्राह्मणोंके दिये हुए आशीर्वाद सब ओरसे ग्रहण करके राजा युधिष्ठिर देवराज इन्द्रके महलके समान राजभवनमें प्रविष्ट हुए, जो श्रद्धा और विजयसे सम्पन्न था। वहाँ पहुँचकर वे रथसे नीचे उतरे, राजमहलके भीतर प्रवेश करके श्रीमान् नरेशने कुलदेवताओंका दर्शन किया और रत्न, चन्दन तथा माला आदिसे सर्वथा उनकी पूजा की।
इसके बाद महायशस्वी श्रीमान् राजा युधिष्ठिर महलसे बाहर निकले। वहाँ उन्हें बहुत-से ब्राह्मण खड़े दिखायी दिये, जो हाथमें मङ्गलद्रव्य लिये खड़े थे। जैसे तारोंसे घिरे हुए निर्मल चन्द्रमाकी शोभा होती है, उसी प्रकार आशीर्वाद देनेकी इच्छावाले ब्राह्मणोंसे घिरे हुए राजा युधिष्ठिरकी उस समय बड़ी शोभा हो रही थी। कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने गुरु धौम्य तथा ताऊ धृतराष्ट्रको आगे करके उन सभी ब्राह्मणोंका विधिपूर्वक पूजन किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अड़तीसवें अध्याय के श्लोक 17- 37 का हिन्दी अनुवाद)
राजेन्द्र! इन्होंने फूल, मिठाई, रत्न, बहुत-से सुवर्ण, गौओं, वस्त्रों तथा उनकी इच्छा पूछ-पूछ कर मँगाये हुए नाना प्रकारके मनोवाञ्छित पदार्थोंद्वारा उन सबका यथोचित सत्कार किया। भारत! इसके बाद पुण्याहवाचनका गम्भीर घोष होने लगा, जो आकाशको स्तब्ध-सा किये देता था। वह पवित्र शब्द कानोंको सुख देनेवाला तथा सुहृदोंको प्रसन्नता प्रदान करनेवाला था।
राजन्! उस समय वेदवेत्ता विद्वान् ब्राह्मणोंने हंसके समान हर्ष-गद्गद स्वरसे जो प्रचुर अर्थ, पद एवं अक्षरोंसे युक्त वाणी कही थी, वह वहाँ सबको स्पष्ट सुनायी दे रही थी। नरेश्वर! तदनन्तर दुन्दुभियों और शंखोंकी मनोरम ध्वनि होने लगी, जय-जयकार करनेवालोंका गम्भीर घोष वहाँ प्रकट होने लगा, जब सब ब्राह्मण चुपचाप खड़े हो गये, तब ब्राह्मणका वेष बनाकर आया हुआ चार्वाक नामक राक्षस राजा युधिष्ठिरसे कुछ कहनेको उद्यत हुआ।
वह दुर्योधनका मित्र था। उसने संन्यासी ब्राह्मणके वेषमें अपने असली रूपको छिपा रखा था। उसके हाथमें अक्षमाला थी और मस्तकपर शिखा। उसने त्रिदण्ड धारण कर रखा था। वह बड़ा ढीठ और निर्भय था, राजेन्द्र! तपस्या और नियममें लगे रहनेवाले और आशीर्वाद देनेके इच्छुक उन समस्त ब्राह्मणोंसे, जिनकी संख्या हजारसे भी अधिक थी, घिरा हुआ वह दुष्ट राक्षस महात्मा पाण्डवोंका विनाश चाहता था। उसने उन सब ब्राह्मणोंसे अनुमति लिये बिना ही राजा युधिष्ठिरसे कहा।
चार्वाक बोला :— राजन्! ये सब ब्राह्मण मुझपर अपनी बात कहनेका भार रखकर मेरेद्वारा ही तुमसे कह रहे हैं—‘कुन्तीनन्दन! तुम अपने भाई-बन्धुओंका वध करनेवाले एक दुष्ट राजा हो। तुम्हें धिक्कार है! ऐसे पुरुषके जीवनसे क्या लाभ? इस प्रकार यह बन्धु-बान्धवोंका विनाश करके गुरुजनोंकी हत्या करवाकर तो तुम्हारा मर जाना ही अच्छा है, जीवित रहना नहीं’।
वे ब्राह्मण उस दुष्ट राक्षसकी यह बात सुनकर उसके वचनोंसे तिरस्कृत हो व्यथित हो उठे और मन-ही-मन उसके कथनकी निन्दा करने लगे। प्रजानाथ! इसके बाद वे सभी ब्राह्मण तथा राजा युधिष्ठिर अत्यन्त उद्विग्न और लज्जित हो गये। प्रतिवादके रूपमें उनके मुँहसे एक शब्द भी नहीं निकला। वे सभी कुछ देरतक चुप रहे,
तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिरने कहा :— ब्राह्मणो! मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करके विनीतभावसे यह प्रार्थना करता हूँ कि आपलोग मुझपर प्रसन्न हों। इस समय मुझपर सब ओरसे बड़ी भारी विपत्ति आ गयी है; अतः आपलोग मुझे धिक्कार न दें।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— राजन्! प्रजानाथ! उनकी यह बात सुनकर सब ब्राह्मण बोल उठे—‘महाराज! यह हमारी बात नहीं कह रहा है। हम तो यह आशीर्वाद देते हैं कि ‘आपकी राजलक्ष्मी सदा बनी रहे” उन वेदवेत्ता ब्राह्मणोंका अन्तःकरण तपस्यासे निर्मल हो गया था। उन महात्माओंने ज्ञानदृष्टिसे उस राक्षसको पहचान लिया।
ब्राह्मण बोले :— धर्मात्मन्! यह दुर्योधनका मित्र चार्वाक नामक राक्षस है, जो संन्यासीके रूपमें यहाँ आकर उसका हित करना चाहता है। हमलोग आपसे कुछ नहीं कहते हैं। आपका इस तरहका भय दूर हो जाना चाहिये। हम आशीर्वाद देते हैं कि ‘भाइयोंसहित आपको कल्याणकी प्राप्ति हो’।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! तदनन्तर क्रोधसे आतुर हुए उन सभी शुद्धात्मा ब्राह्मणोंने उस पापात्मा राक्षसको बहुत फटकारा और अपने हुङ्कारोंसे उसे नष्ट कर दिया। ब्रह्मवादी महात्माओंके तेजसे दग्ध होकर वह राक्षस गिर पड़ा, मानो इन्द्रके वज्रसे जलकर कोई अंकुरयुक्त वृक्ष धराशायी हो गया हो।
तत्पश्चात् राजाद्वारा पूजित हुए वे ब्राह्मण उनका अभिनन्दन करके चले गये और पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर अपने सुहृदोंसहित बड़े हर्षको प्राप्त हुए।
“इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें चार्वाकका वधविषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ”
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
उन्तालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) उन्तालीसवें अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“चार्वाकको प्राप्त हुए वर आदिका श्रीकृष्णद्वारा वर्णन”
वैशम्पायनजी कहते हैं :— जनमेजय! तदनन्तर सर्वदर्शी देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने वहाँ भाइयोंसहित खड़े हुए राजा युधिष्ठिरसे कहा।
श्रीकृष्ण बोले ;— तात! इस संसारमें ब्राह्मण मेरे लिये सदा ही पूजनीय हैं। ये पृथ्वीपर विचरनेवाले देवता हैं। कुपित होने पर इनकी वाणीमें विषका-सा प्रभाव होता है। ये सहज ही प्रसन्न होते और दूसरोंको भी प्रसन्न करते है।
राजन्! महाबाहो! पहले सत्ययुग की बात है, चार्वाक राक्षसने बहुत वर्षोंतक बदरिकाश्रममें तपस्या की, भरतनन्दन! जब ब्रह्माजीने उससे बारंबार वर माँगनेका अनुरोध किया, तब उसने यही वर माँगा कि मुझे किसी भी प्राणीसे भय न हो, जगदीश्वर ब्रह्माजीने उसे यह परम उत्तम वर देते हुए कहा कि ‘तुम्हें ब्राह्मणका अपमान करनेके सिवा और कहीं किसीसे भय नहीं है’ इस तरह उन्होंने उसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी ओरसे अभयदान दे दिया। वर पाकर वह अमित पराक्रमी महाबली और दुःसह कर्म करनेवाला पापात्मा राक्षस देवताओंको संताप देने लगा, तब उसके बलसे तिरस्कृत हुए सब देवताओंने एकत्र हो ब्रह्माजीसे उसके वधके लिये प्रार्थना की,
भरतनन्दन! तब ब्रह्माजी,ने देवताओंसे कहा,
ब्रह्मा जी ने कहा :— ‘मैंने ऐसा विधान कर दिया है जिससे शीघ्र ही उस राक्षसकी मृत्यु हो जायगी, ‘मनुष्योंमें राजा दुर्योधन उसका मित्र होगा और उसीके स्नेहसे बँधकर वह राक्षस ब्राह्मणोंका अपमान कर बैठेगा, ‘उसके विरुद्धाचरणसे तिरस्कृत हो रोषमें भरे हुए वाक्शक्तिसे सम्पन्न ब्राह्मण वहीं उस पापीको जला देंगे। इससे उसका नाश हो जायगा’।
नृपश्रेष्ठ! भरतभूषण! अब आप शोक न करें। यह वही राक्षस चार्वाक ब्रह्मदण्डसे मारा जाकर पृथ्वीपर पड़ा है। राजन्! आपने क्षत्रियधर्मके अनुसार भाई-बन्धुओंका वध किया है। वे महामनस्वी क्षत्रियशिरोमणि वीर स्वर्गलोकमें चले गये हैं। अच्युत! अब आप अपने कर्तव्यका पालन करें। आपके मनमें ग्लानि न हो। आप शत्रुओंको मारिये, प्रजाकी रक्षा कीजिये और ब्राह्मणोंका आदर सत्कार करते रहिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें चार्वाकको प्राप्त हुए वरदान आदिका वर्णनविषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
चालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चालीसवें अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिरका राज्याभिषेक”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! तदनन्तर कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर खेद और चिन्तासे रहित हो पूर्वकी ओर मुँह करके प्रसन्नतापूर्वक सुवर्णके सुन्दर सिंहासनपर विराजमान हुए। तत्पश्चात् शत्रुओंका दमन करनेवाले सात्यकि और भगवान् श्रीकृष्ण सोनेके जगमगाते हुए सुन्दर आसनपर उन्हींकी ओर मुँह करके बैठे। राजा युधिष्ठिरको बीचमें करके महामनस्वी भीमसेन और अर्जुन दो मणिमय मनोहर पीठोंपर विराजमान हुए। एक ओर हाथी दाँतके बने हुए स्वर्णविभूषित शुभ्र सिंहासनपर नकुल और सहदेवके साथ माता कुन्ती भी बैठ गयीं।
इसी प्रकार सुधर्मा, विदुर, धौम्य और कुरुराज धृतराष्ट्र अग्निके समान तेजस्वी पृथक्-पृथक् सिंहासनोंपर विराजमान हुए, युयुत्सु, संजय और यशस्विनी गान्धारी—ये सब लोग उधर ही बैठे जिस ओर राजा धृतराष्ट्र थे। धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरने सिंहासनपर बैठकर श्वेत पुष्प, स्वस्तिक, अक्षत, भूमि, सुवर्ण, रजत एवं मणिका स्पर्श किया,
इसके बाद मन्त्री, सेनापति आदि सभी प्रकृतियोंने पुरोहितको आगे करके बहुत-सी माङ्गलिक सामग्री साथ लिये धर्मराज युधिष्ठिरका दर्शन किया। मिट्टी, सुवर्ण, तरह-तरहके रत्न, राज्याभिषेककी सामग्री, सब प्रकारके आवश्यक सामान, सोने, चाँदी, ताँबे और मिट्टीके बने हुए जलपूर्ण कलश, फूल, लाजा (खील), कुशा, गोरस, शमी, पीपल और पलाशकी समिधाएँ, मधु, घृत, गूलरकी लकड़ीका स्रुवा तथा स्वर्णजटित शंख—ये सब वस्तुएँ वे संग्रह करके लाये थे,
भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे पुरोहित धौम्यजीने एक वेदी बनायी जो पूर्व और उत्तर दिशाकी ओर नीची थी। उसे गोबरसे लीपकर कुशके द्वारा उसपर रेखा की। इस प्रकार वेदीका संस्कार करके सर्वतोभद्र नामक एक चौकीपर बाघम्बर एवं श्वेत वस्त्र बिछाकर उसके ऊपर महात्मा युधिष्ठिर तथा द्रुपदकुमारी कृष्णाको बिठाया। उस चौकीके पाये और बैठनेके आधार बहुत मजबूत थे। सुवर्णजटित होनेके कारण वह आसन प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था। बुद्धिमान् पुरोहितने वेदीपर अग्निको स्थापित करके उसमें विधि और मन्त्रके साथ आहुति दी,
तत्पश्चात् दशार्हवंशी श्रीकृष्णने उठकर जिसकी पूजा की गयी थी, वह पाञ्चजन्य शंख हाथमें ले उसके जलसे पृथ्वीपति कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरका अभिषेक किया। फिर राजा धृतराष्ट्र तथा प्रकृतिवर्गके अन्य सब लोगोंने भी अभिषेकका कार्य सम्पन्न किया। श्रीकृष्णकी आज्ञासे पाञ्चजन्य शंखद्वारा अभिषेक हो जानेपर भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिरका मुख इतना सुन्दर दिखायी देने लगा, मानो नेत्रोंसे अमृतकी वर्षा कर रहा हो।
तदनन्तर वहाँ बाजा बजानेवाले लोग पणव, आनक तथा दुन्दुभिकी ध्वनि करने लगे। धर्मराज युधिष्ठिरने भी धर्मानुसार वह सारा स्वागत सत्कार स्वीकार किया, बहुत दक्षिणा देनेवाले राजा युधिष्ठिरने वेदाध्ययनसे सम्पन्न तथा धैर्य और शीलसे संयुक्त ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर उनका विधिपूर्वक पूजन किया और उन्हें एक हजार अशर्फियाँ दान कीं। राजन्! इससे प्रसन्न होकर उन ब्राह्मणोंने उनके कल्याणका आशीर्वाद दिया और जय-जयकार की। वे सभी ब्राह्मण हंसके समान गम्भीर स्वरमें बोलते हुए राजा युधिष्ठिरकी इस प्रकार प्रशंसा करने लगे,—
ब्राह्मण कहने लगे ;- ‘पाण्डुनन्दन महाबाहु युधिष्ठिर! तुम्हारी विजय हुई—यह बड़े भाग्यकी बात है। महातेजस्वी नरेश! तुमने पराक्रमसे अपना धर्मानुकूल राज्य प्राप्त कर लिया—यह भी सौभाग्यका ही सूचक है। ‘गाण्डीवधारी अर्जुन, पाण्डुपुत्र भीमसेन, तुम और माद्रीपुत्र पाण्डुकुमार नकुल-सहदेव—ये सभी शत्रुओंपर विजय पाकर इस वीरविनाशक संग्रामसे कुशलपूर्वक बच गये, इसे भी महान् सौभाग्यकी ही बात समझनी चाहिये। भारत! अब आगे जो कार्य करने हैं, उन सबको शीघ्र पूर्ण कीजिये’।
भरतनन्दन! तत्पश्चात् समागत सज्जनोंने धर्मराज युधिष्ठिरका पुनः सत्कार किया। फिर उन्होंने सुहृदोंके साथ अपने विशाल राज्यका भार हाथोंमें ले लिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरका राज्याभिषेकविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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