सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के इकतीसवें अध्याय से पैंतीसवें अध्याय तक (From the 31 chapter to the 35 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

इकतीसवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इकतीसवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“सुवर्णष्ठीवीके जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवनका वृत्तान्त”

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय ! तदनन्तर पाण्डु पुत्र राजा युधिष्ठिर ने नारद‌जीसे कहा,

   युधिष्ठिर ने कहा :- 'भगवन्! मैं सुवर्णष्ठीवी के जन्मका वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ'। धर्मराजके ऐसा कहनेपर नारदमुनिने सुवर्णष्ठीवी के जन्म- का यथावत् वृत्तान्त कहना आरम्भ किया,

 नारदजी बोले ;- महाबाहो ! भगवान् श्रीकृष्णने इस विषयमें जैसा कहा है, वह सब सत्य है। इस प्रसङ्गमें जो कुछ शेष है, वह तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैं बता रहा हूँ।मैं और मेरे भानजे महामुनि पर्वत दोनों विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ राजा सुंजयके यहाँ निवास करनेके लिये गये।

     वहाँ राजाने हम दोनोंका शास्त्रीय विधिके अनुसार पूजन किया और हमारे लिये सभी मनोवाञ्छित वस्तुओंके प्राप्त होनेकी सुव्यवस्था कर दी। हम दोनों उनके महलमें रहने लगे, जब वर्षाके चार महीने बीत गये और हमलोगोंके वहाँसे चलनेका समय आया, तब पर्वतने मुझसे समयोचित एवं सार्थक वचन कहा- 

    पर्वत ने कहा ;- मामा ! हमलोग राजा सुंजयके घरमें बड़े आदर-सत्कार- के साथ रहे हैं, अतः ब्रहान् ! इस समय इनका कुछ उपकार करनेकी बात सोचिये, राजन् ! तब मैंने शुभदर्शी पर्वत मुनिसे कहा,

  नारद जी ने कहा :- 'भगिनी पुत्र ! यह सब तुम्हें ही शोभा देता है। राजाको मनोवाञ्छित वर देकर संतुष्ट करो। वे जो-जो चाहते हों, वह सब उन्हें मिले। तुम्हारी राय हो तो हम दोनोंकी तपस्यासे उनके मनोरथकी सिद्धि हो'। कुरुश्रेष्ठ ! तब मेरी अनुमति ले पर्वतने विजयी बीरोंमें श्रेष्ठ राजा सुंजयको बुलाकर कहा,

    पर्वत ने कहा :- नरेश्वर ! हम दोनों तुम्हारे द्वारा सरलतापूर्वक किये गये सत्कारसे बहुत प्रसन्न हैं। हम तुम्हें आशा देते हैं कि तुम इच्छानुसार कोई वर सोचकर माँग लो, महाराज ! कोई ऐसा वर माँग लो, जिससे न तो देव- ताओंकी हिंसा हो और न मनुष्योंका संहार ही हो सके । तुम हमारी दृष्टिमें आदरके योग्य हो'।

सुंजयने कहा ;- ब्रह्मन् ! यदि आप दोनों प्रसन्न हैं तो मैं इतने से ही कृतकृत्य हो गया। यही हमारे लिये महान् फल- दायक परम लाभ सिद्ध हो गया। राजन् ! ऐसी बात कहनेवाले राजा सुंजयसे पर्वतमुनिने फिर कहा, 

     पर्वत ने कहा ;- 'राजन् ! तुम्हारे हृदय में जो चिरकालसे संकल्प हो, वही माँग लो'।

    सुंजय बोले :- भगबन्! मैं एक ऐसा पुत्र पाना चाहता हूँ, जो वीर, बलवान्, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला, आयुष्मान्, परम सौभाग्यशाली और देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी हो।

    पर्वतने कहा ;- राजन् ! तुम्हारा यह मनोरथ पूर्ण होगा, परंतु वह पुत्र दीर्घायु नहीं हो सकेगा; क्योंकि देव- राज इन्द्रको पराजित करनेके लिये तुम्हारे हृदयमें यह संकल्प उठा है। तुम्हारा वह पुत्र सुवर्णष्ठीवी के नामसे विख्यात तथा देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी होगा। तुम्हें देवराजसे सदा उसकी रक्षा करनी चाहिये।

 (सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इकतीसवें अध्याय के श्लोक 18- 47 का हिन्दी अनुवाद)

      महात्मा पर्वतका यह वचन सुनकर सुंजयने उन्हें प्रसन्न करनेकी चेष्टा करते हुए कहा,

    सुंजय ने कहा ;- 'ऐसा न हो। मुने! आपकी तपस्यासे मेरा पुत्र दीर्घजीवी होना चाहिये।' परंतु इन्द्रका ख्याल करके पर्वत मुनि कुछ नहीं बोले, तब मैंने दीन हुए उस नरेशसे कहा,

    नारद जी बोले ;- 'महाराज! संकटके समय मुझे याद करना। मैं तुम्हारे पुत्रको तुमसे मिला दूँगा । पृथ्वीनाथ! चिन्ता न करो। यम राजके वशमें पड़े हुए तुम्हारे उस प्रिय पुत्रको मैं पुनः उस रूपमें लाकर तुम्हें दे दूँगा', राजासे ऐसा कहकर हम दोनों अपने अभीष्ट स्थानको चल दिये और राजा संजयने अपने इच्छानुसार महल में प्रवेश किया।

     तदनन्तर किसी समय राजर्षि संजयके एक पुत्र हुआ, जो अपने तेजसे प्रज्वलित-सा हो रहा था। वह महान् बलशाली था। जैसे सरोवरमें कमल बढ़ता है, उसी प्रकार वह राज- कुमार यथासमय बढ़ने लगा। वह मुखसे स्वर्ण उगलनेके कारण सुवर्णष्ठीवी नामसे प्रसिद्ध हुआ। उसका वह नाम सार्थक था। कुरुश्रेष्ठ ! उसका वह अत्यन्त अद्भुत वृत्तान्त सारे जगत्- में फैल गया। देवराज इन्द्रको भी यह मालूम हो गया कि वह बालक महर्षि पर्वतके वरदानका फल है।

     तदनन्तर अपनी पराजयसे डरकर वृहस्पतिकी सम्मति- के अनुसार चलते हुए बल और वृत्रासुरका वध करनेवाले इन्द्र उस राजकुमारके वधका अवसर देखने लगे, प्रभो ! इन्द्रने मूर्तिमान् होकर सामने खड़े हुए अपने दिव्य अस्त्र वज्रसे कहा, 

     इन्द्र ने कहा ;- 'वज्र ! तुम बाघ बनकर इस राज कुमारको मार डालो । जैसा कि इसके विषयमें पर्वतने बताया है, बड़ा होनेपर सुंजयका यह पुत्र अपने पराक्रमसे मुझे परास्त कर देगा'। इन्द्रके ऐसा कहनेपर शत्रुओंकी नगरीपर विजय पाने- वाला वज्र मौका देखता हुआ सदा उस राजकुमारके आस- पास ही रहने लगा। सुंजय भी देबराजके समान पराक्रमी पुत्र पाकर रानी- सहित बड़े प्रसन्न हुए और निरन्तर वनमें ही रहने लगे, तदनन्तर एक दिन निर्जन वनमें गङ्गाजीके तटपर वह बालक धायको साथ लेकर खेलनेके लिये गया और इधर- उधर दौड़ने लगा।

    उस बालककी अवस्था अभी पाँच वर्षकी थी तो भी वह गजराजके समान पराक्रमी था। वह सहसा उछलकर आये हुए एक महाबली बाघके पास जा पहुँचा। स बाधने वहाँ काँपते हुए राजकुमारको गिराकर पीस डाला। वह प्राणशून्य होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। यह देख- कर घाय चिल्ला उठी, राजकुमारकी हत्या करके देवराज इन्द्रका भेजा हुआ वह वज्ररूपी बाघ मायासे वहीं अदृश्य हो गया । रोती हुई घायका वह आर्तनाद सुनकर राजा सूंजय स्वयं ही उस स्थानपर दौड़े हुए आये। उन्होंने देखा, राजकुमार प्राणशून्य होकर आकाशसे गिरे हुए चन्द्रमाकी भाँति पड़ा है। उसका सारा रक्त बाधके द्वारा पी लिया गया है और वह आनन्दद्दीन हो गया है।

      खूनसे लथपथ हुए उस बालकको गोदमें लेकर व्यथित- चित्त हुए  राजा संजय व्याकुल होकर विलाप करने लगे। तदनन्तर शोकसे पड़ित हो उसकी माताएँ रोती हुई उस स्थानकी ओर दौड़ीं, जहाँ राजा सूंजय विलाप करते थे । उस समय अचेत-से होकर राजाने मेरा ही स्मरण किया। तब मैंने उनका चिन्तन जानकर उन्हें दर्शन दिया ।

पृथ्वीनाथ ! यदुवीर श्रीकृष्णने जो बातें तुम्हारे सामने कही हैं, उन्हींको मैंने उस शोकाकुल राजाको सुनाया। फिर इन्द्रकी अनुमतिसे उस बालकको जीवित भी कर दिया। उसकी वैसी ही होनहार थी। उसे कोई पलट नहीं सकता था।


     तदनन्तर महायशस्वी और शक्तिशाली कुमार सुवर्णष्ठीवी- ने जीवित होकर पिता और माताके चित्तको प्रसन्न किया ।

   नरेश्वर ! उस भयानक पराक्रमी कुमारने पिताके स्वर्ग- वासी हो जानेपर ग्यारह सौ वर्षोंतक राज्य किया। तदनन्तर उस महातेजस्वी राजकुमारने बहुत-सी दक्षिणा- वाले अनेक महायज्ञोंका अनुष्ठान किया और उनके द्वारा देवताओं तथा पितरोंकी तृप्ति की।

     राजन् ! इसके बाद उसने बहुत-से वंशप्रवर्तक पुत्र उत्पन्न किये और दीर्घकालके पश्चात् वह काल-धर्मको प्राप्त हुआ। राजेन्द्र ! तुम भी अपने हृदयमें उत्पन्न हुए इस शोक- को दूर करो तथा भगवान् श्रीकृष्ण और महातपस्वी व्यास- जी जैसा कह रहे हैं, उसके अनुसार अपने बाप-दादोंके राज्य- पर आरूढ़ हो इसका भार वहन करो फिर पुण्यदायक महायज्ञोंका अनुष्ठान करके तुम अभीष्ट लोकमें चले जाओगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें स्वर्णष्ठीवीके जन्मका उपाख्यानविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

बत्तीसवाँ अध्याय

“व्यासजीका अनेक युक्तियोंसे राजा युधिष्ठिरको समझाना”

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) बत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! राजा युधिष्ठिरको चुपचाप शोकमें डूबा हुआ देख धर्मके तत्त्वको जाननेवाले तपोधन श्रीकृष्णद्वैपायनने कहा,

    व्यासजी बोले ;— कमलनयन युधिष्ठिर! राजाओंका धर्म प्रजाजनोंका पालन करना ही है। धर्मका अनुसरण करनेवाले लोगोंके लिये सदा धर्म ही प्रमाण है। अतः राजन्! तुम अपने बाप-दादोंके राज्यको ग्रहण करके उसका धर्मानुसार पालन करो। तपस्या तो ब्राह्मणोंका नित्य धर्म है। यही वेदका निश्चय है।

    भरतश्रेष्ठ! वह सनातन तप ब्राह्मणोंके लिये प्रमाणभूत धर्म है। क्षत्रिय तो उस सम्पूर्ण ब्राह्मण-धर्मकी रक्षा करनेवाला ही है। जो मनुष्य विषयासक्त होकर स्वयं शासन-धर्मका उल्लंघन करता है, वह लोकमर्यादाका नाश करनेवाला है। क्षत्रियको चाहिये कि अपनी दोनों भुजाओंके बलसे उस धर्मद्रोहीका दमन करे।

      जो मोहके वशीभूत हो प्रमाणभूत धर्म और उसका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको अमान्य कर दें, वह सेवक हो या पुत्र, तपस्वी हो या और कोई; सभी उपायोंसे उन पापियोंका दमन करे अथवा उन्हें नष्ट कर डाले। इसके विपरीत आचरण करनेवाला राजा पापका भागी होता है, जो नष्ट होते हुए धर्मकी रक्षा नहीं करता, वह राजा धर्मका घात करनेवाला है।

      पाण्डुनन्दन! तुमने तो उन्हीं लोगोंका सेवकोंसहित वध किया है, जो धर्मका नाश करनेवाले थे। अपने धर्ममें स्थित रहते हुए भी तुम शोक क्यों कर रहे हो? क्योंकि राजाका यह कर्तव्य ही है कि वह धर्मद्रोहियोंका वध करे, सुपात्रोंको दान दे और धर्मके अनुसार प्रजाकी रक्षा करे।

     युधिष्ठिर बोले ;— सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ तपोधन! आपको धर्मके स्वरूपका प्रत्यक्ष ज्ञान है। आप जो बात कह रहे हैं, उसपर मुझे तनिक भी संदेह नहीं है। परंतु ब्रह्मन्! मैंने तो इस राज्यके लिये अनेक अवध्य पुरुषोंका भी वध करा डाला है। मेरे वे ही कर्म मुझे जलाते और पकाते हैं।

    व्यासजीने कहा ;— भरतनन्दन! जो लोग मारे गये हैं, उनके वधका उत्तरदायित्व किसपर है? इस प्रश्नको लेकर चार विकल्प हो सकते हैं। (१) सबका प्रेरक ईश्वर कर्ता है? या (२) वध करनेवाला पुरुष कर्ता है? अथवा (३) मारे जानेवाले पुरुषका हठ (बिना विचारे किसी कामको कर डालनेका दुराग्रही स्वभाव) कर्ता है? अथवा (४) उसके प्रारब्ध कर्मका फल इस रूपमें प्राप्त होनेके कारण प्रारब्ध ही कर्ता है?

    भारत! यदि प्रेरक ईश्वरको कर्ता माना जाय तब तो यही कहना पड़ेगा कि ईश्वरसे प्रेरित होकर ही मनुष्य शुभ या अशुभ कर्म करता है; अतः उसका फल भी ईश्वरको ही मिलना चाहिये।

    जैसे कोई पुरुष वनमें कुल्हाड़ीद्वारा जब किसी वृक्षको काटता है, तब उसका पाप कुल्हाड़ी चलानेवाले पुरुषको ही लगता है। कुल्हाड़ीको किसी प्रकार नहीं लगता। अथवा यदि कहें कि ‘उस कुल्हाड़ीको ग्रहण करनेके कारण चेतन पुरुषको ही उस हिंसाकर्मका फल प्राप्त होगा (जड होनेके कारण कुल्हाड़ीको नहीं)’, तब तो जिसने उस शस्त्रको बनाया और जिसने उसमें डंडा लगाया, वह पुरुष ही प्रधान प्रयोजक होनेके कारण उसीको उस कर्मका फल मिलना चाहिये। चलानेवाले पुरुषपर उसका कोई उत्तरदायित्व नहीं है।

     परंतु कुन्तीनन्दन! यह अभीष्ट नहीं है कि दूसरेके द्वारा किये हुए कर्मका फल दूसरेको मिले (काटनेवालेका अपराध हथियार बनानेवालेपर थोपा जाय); इसलिये सर्वप्रेरक ईश्वरको ही सारे शुभाशुभ कर्मोंका कर्तृत्व और फल सौंप दो। यदि कहो पुण्य और पापकर्मोंका कर्ता उसे करनेवाला पुरुष ही है, दूसरा कोई (ईश्वर) नहीं तो ऐसा माननेपर भी तुमने यह शुभ कर्म ही किया है; क्योंकि तुम्हारे द्वारा पापियों और उनके समर्थकोंका ही वध हुआ है, इसके सिवा, उनके प्रारब्धका फल ही उन्हें इस रूपमें मिला है तुम तो निमित्तमात्र हो।

    राजन्! कोई कहीं भी दैवके विधानका उल्लंघन नहीं कर सकता। अतः दण्ड अथवा शस्त्रद्वारा किया हुआ पाप किसी पुरुषको लागू नहीं हो सकता (क्योंकि वे दैवाधीन होकर ही दण्ड या शस्त्रद्वारा मारे गये हैं) नरेश्वर! यदि ऐसा मानते हो कि युद्ध करनेवाले दो व्यक्तियोंमेंसे एकका मरना निश्चित ही है, अर्थात् वह स्वभाववश हठात् मारा गया है, तब तो स्वभाववादीके अनुसार भूत या भविष्य कालमें किसी अशुभ कर्मसे न तो तुम्हारा सम्पर्क था और न होगा ही॥

     यदि कहो, लोगोंको जो पुण्यफल (सुख) और पापफल (दुःख) प्राप्त होते हैं, उनकी संगति लगानी चाहिये; क्योंकि बिना कारणके तो कोई कार्य हो नहीं सकता; अतः प्रारब्ध ही कर्ता है तो उस कारणभूत प्रारब्धको धर्माधर्म रूप ही मानना होगा, धर्माधर्मका निर्णय शास्त्रसे ही होता है और शास्त्रके अनुसार जगत्‌में उद्दण्ड मनुष्योंको दण्ड देना राजाओंके लिये सर्वथा युक्तिसंगत है; अतः किसी भी दृष्टिसे तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। भारत! नृपश्रेष्ठ! यदि कहो कि यह सब माननेपर भी लोकमें कर्मोंकी आवृत्ति होती ही है—लोग कर्म करते और उनके शुभाशुभ फलोंको पाते ही हैं—ऐसा मेरा मत है; तो इसके उत्तरमें निवेदन है कि इस दशामें भी जिस कर्मके कारण उसके फलरूपसे अशुभकी प्राप्ति होती है, उस पापमूलक कर्मको ही तुम त्याग दो। अपने मनको शोकमें न डुबाओ।

   राजन्! भरतनन्दन! अपना धर्म दोषयुक्त हो तो भी उसमें स्थित रहनेवाले तुम-जैसे धर्मात्मा नरेशके लिये अपने शरीरका परित्याग करना शोभाकी बात नहीं है। कुन्तीनन्दन! यदि युद्ध आदिमें राग-द्वेषके कारण निन्द्यकर्म बन गये हों तो शास्त्रोंमें उन कर्मोंके लिये प्रायश्चित्तका भी विधान है। जो अपने शरीरको सुरक्षित रखता है, वह तो पापनिवारणके लिये प्रायश्चित्त कर सकता है; परंतु जिसका शरीर ही नहीं रहेगा, उसे तो प्रायश्चित्त न कर सकनेके कारण उन पापकर्मोंके फलस्वरूप पराभव (दुःख) ही प्राप्त होगा। भरतवंशी नरेश! यदि जीवित रहोगे तो उन कर्मोंका प्रायश्चित्त कर लोगे और यदि प्रायश्चित्तके बिना ही मर गये तो परलोकमें तुम्हें संतप्त होना पड़ेगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें प्रायश्चित्तविधिविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

तैतीसवाँ अध्याय

“व्यासजीका युधिष्ठिरको समझाते हुए कालकी प्रबलता बताकर देवासुरसंग्रामके उदाहरणसे धर्मद्रोहियोंके दमनका औचित्य सिद्ध करना और प्रायश्चित्त करनेकी आवश्यकता बनाना”

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

   युधिष्ठिर बोले ;— पितामह! अकेले मैंने ही राज्यके लोभमें आकर पुत्र, पौत्र, भाई, चाचा, ताऊ, श्वशुर, गुरु, मामा, बाबा, भानजे, सगे-सम्बन्धी, सुहृद्, मित्र तथा भाई-बन्धु आदि नाना देशोंसे आये हुए बहुसंख्यक क्षत्रियनरेशोंको मरवा डाला। तपोधन! जो अनेक बार सोमरसका पान कर चुके थे और सदा धर्ममें ही तत्पर रहते थे, वैसे वीर भूपालोंका वध करके मैं कौन-सा फल पाऊँगा?

      पितामह! बारंबार इसी चिन्तासे मैं आज भी निरन्तर जल रहा हूँ। उन श्रीसम्पन्न राजसिंहोंसे हीन हुई इस पृथ्वीको, भाई-बन्धुओंके भयंकर वधको तथा सैकड़ों अन्य लोगोंके विनाशको एवं करोड़ों अन्य मानवोंके संहारको देखकर मैं सर्वथा संतप्त हो रहा हूँ। जो अपने पुत्रों, पतियों तथा भाइयोंसे सदाके लिये बिछुड़ गयी हैं, उन सुन्दरी स्त्रियोंकी आज क्या दशा होगी?

     हम घोर विनाशकारी पाण्डवों और वृष्णिवंशियोंको कोसती हुई वे दीन-दुर्बल अबलाएँ पृथ्वीपर पछाड़ खा-खाकर गिरेंगी। अपने पिता, भाई, पति और पुत्रोंको न देखकर वे सारी युवती स्त्रियाँ प्राण त्याग देंगी और यमलोकमें चली जायँगी। द्विजश्रेष्ठ! वे अपने सगे-सम्बन्धियोंके प्रति वात्सल्य रखनेके कारण अवश्य ऐसा ही करेंगी, इसमें मुझे संशय नहीं है। धर्मकी गति सूक्ष्म होनेके कारण निश्चय ही हमें नारीहत्याके पापका भागी होना पड़ेगा। हमने सुहृदोंका वध करके ऐसा पाप कर लिया है, जिसका प्रायश्चित्तसे अन्त नहीं हो सकता; अतः हमें नीचे सिर करके निस्संदेह नरकमें ही गिरना पड़ेगा।

    संतोंमें श्रेष्ठ पितामह! हम घोर तपस्या करके अपने शरीरका परित्याग कर देंगे। आप इसके लिये कोई विशेष आश्रम हो तो बताइये।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! उस समय युधिष्ठिरका यह वचन सुनकर श्रीकृष्णद्वैपायन महर्षि व्यासने इस विषयमें अपनी बुद्धिद्वारा अच्छी तरह विचार करनेके पश्चात् उन पाण्डुकुमारसे कहा।

    व्यासजी बोले ;— राजन्! क्षत्रियशिरोमणे! तुम क्षत्रियधर्मका बारंबार स्मरण करते हुए विषाद न करो; क्योंकि ये सभी क्षत्रिय अपने धर्मके अनुसार मारे गये हैं॥

     वे सम्पूर्ण राजलक्ष्मी और भूमण्डलव्यापी महान् यशको प्राप्त करना चाहते थे; परंतु यमराजके विधानसे प्रेरित हो कालके गालमें चले गये हैं। न तुम, न भीमसेन, न अर्जुन और न नकुल-सहदेव ही उनका वध करनेवाले हैं। कालने बारी-बारीसे आकर अपने नियमके अनुसार उन सभी देहधारियोंके प्राण लिये हैं। कालके माता-पिता नहीं हैं। उसका किसीपर भी अनुग्रह नहीं होता। जो प्रजावर्गके कर्मका साक्षी है, उसी कालने तुम्हारे शत्रुओंका संहार किया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इकतीसवें अध्याय के श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद)

    भरतश्रेष्ठ! कालने इस युद्धको निमित्तमात्र बनाया है। वह जो प्राणियोंद्वारा ही प्राणियोंका वध करता है, वही उसका ईश्वरीय रूप है।राजन्! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि काल जीवके पाप और पुण्यकर्मोंका साक्षी है। वह कर्मकी डोरीका सहारा ले भविष्यमें होनेवाले सुख और दुःखका उत्पादक होता है। वही समयानुसार कर्मोंका फल देता है। महाबाहो! तुम युद्धमें मारे गये उन क्षत्रियोंके भी ऐसे कर्मोंका चिन्तन करो जो उनके विनाशके कारण थे और जिनके होनेसे ही उन्हें कालके अधीन होना पड़ा।

     तुम अपने आचार-व्यवहारपर भी ध्यान दो कि ‘तुम सदा ही नियमपूर्वक उत्तम व्रतके पालनमें लगे रहते थे तो भी विधाताने बलपूर्वक तुम्हें अपने अधीन करके तुम्हारे द्वारा ऐसा निष्ठुर कर्म करवा लिया’ जैसे लोहार या बढ़ईका बनाया हुआ यन्त्र सदा उसके चालकके अधीन रहता है, उसी प्रकार यह सारा जगत् कालयुक्त कर्मकी प्रेरणासे ही सचेष्ट हो रहा है। प्राणी किसी व्यक्त कारणके बिना ही दैवात् उत्पन्न होता है और दैवेच्छासे ही अकस्मात् उसका विनाश हो जाता है। यह सब देखकर शोक और हर्ष करना व्यर्थ है।

     राजन्! तथापि तुम्हारे चित्तमें जो यहाँ उन सबको मरवानेके कारण झूठे ही चिन्ता और पीड़ा हो रही है, इसकी निवृत्तिके लिये प्रायश्चित्त कर देना उचित है, अतः तुम अवश्य प्रायश्चित्त करो, पार्थ! यह बात सुनी जाती है कि पूर्वकालमें देवासुर-संग्रामके अवसरपर बड़े भाई असुर और छोटे भाई देवता आपसमें लड़ गये थे। उनमें भी राजलक्ष्मीके लिये ही बत्तीस हजार वर्षोंतक बड़ा भारी संग्राम हुआ था। देवताओंने खूनसे भीगी हुई इस पृथ्वीको एकार्णवमें निमग्न करके दैत्योंका संहार कर डाला और स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया।

     भारत! इसी प्रकार पृथ्वीको भी अपने अधीन करके देवताओंने तीनों लोकोंमें शालावृक नामसे विख्यात उन अट्ठासी हजार ब्राह्मणोंका भी वध कर डाला, जो वेदोंके पारङ्गत विद्वान् थे और अभिमानसे मोहित होकर दानवोंकी सहायताके लिये उनके पक्षमें जा मिले थे।

    जो धर्मका विनाश चाहते हुए अधर्मके प्रवर्तक हो रहे हों, उन दुरात्माओंका वध करना ही उचित है। जैसे देवताओंने उद्दण्ड दैत्योंका विनाश कर डाला था।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इकतीसवें अध्याय के श्लोक 31-48 का हिन्दी अनुवाद)

      यदि एक पुरुषको मार देनेसे कुटुम्बके शेष व्यक्तियोंका कष्ट दूर हो जाय और एक कुटुम्बका नाश कर देनेसे सारे राष्ट्रमें सुख और शान्ति छा जाय तो वैसा करना सदाचार या धर्मका नाशक नहीं है। नरेश्वर! किसी समय धर्म ही अधर्मरूप हो जाता है और कहीं अधर्मरूप दीखनेवाला कर्म ही धर्म बन जाता है; इसलिये विद्वान् पुरुषको धर्म और अधर्मका रहस्य अच्छी तरह समझ लेना चाहिये।

    पाण्डुनन्दन! तुम वेद-शास्त्रोंके ज्ञाता हो, तुमने श्रेष्ठ पुरुषोंके उपदेश सुने हैं; इसलिये अपने हृदयको स्थिर करो, शोकसे विचलित न होने दो। भारत! तुमने तो उसी मार्गका अनुसरण किया है, जिसपर देवतालोग पहलेसे चल चुके हैं। पाण्डवशिरोमणे! तुम्हारे-जैसे लोग नरकमें नहीं गिरेंगे। शत्रुसंतापी नरेश! तुम इन भाइयों और सुहृदोंको आश्वासन दो, जो पुरुष हृदयमें पापकी भावना रखकर किसी पापकर्ममें प्रवृत्त होता है, उसे करते हुए भी उसी भावनासे भावित रहता है तथा पापकर्म करनेके पश्चात् भी लज्जित नहीं होता, उसमें वह सारा पाप पूर्णरूपसे प्रतिष्ठित हो जाता है, ऐसा शास्त्रका कथन है। उसकेलिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है तथा प्रायश्चित्तसे भी उसके पापकर्मका नाश नहीं होता है।

     तुम तो जन्मसे ही शुद्ध स्वभावके हो। तुम्हारे मनमें युद्धकी इच्छा बिलकुल नहीं थी। शत्रुओंके अपराधसे ही तुम्हें इस कार्यमें प्रवृत्त होना पड़ा। तुम यह युद्धकर्म करके भी निरन्तर पश्चात्ताप ही कर रहे हो। इसके लिये महान् यज्ञ अश्वमेध ही प्रायश्चित्त बताया गया है। महाराज! तुम इस यज्ञका अनुष्ठान करो। ऐसा करनेसे तुम पापरहित हो जाओगे, मरुद्‌गणोंसहित भगवान् पाकशासन इन्द्रने शत्रुओंको जीतकर एक-एक करके सौ बार अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान किया। इससे वे ‘शतक्रतु’ नामसे विख्यात हो गये।

    उनके सारे पाप धुल गये। उन्होंने स्वर्गपर विजय पायी और सुखदायक लोकोंमें पहुँचकर वे इन्द्र सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते हुए मरुद्‌गणोंके साथ शोभा पाने लगे। स्वर्गलोकमें अप्सराओंद्वारा पूजित होनेवाले शचीपति देवराज इन्द्रकी सम्पूर्ण देवता और महर्षि भी उपासना करते हैं।

     अनघ! तुमने भी इस वसुन्धराको अपने पराक्रमसे प्राप्त किया है और भुजाओंके बलसे समस्त राजाओंको परास्त किया है। राजन्! अब तुम अपने सुहृदोंके साथ उनके देश और नगरोंमें जाकर उनके भाइयों, पुत्रों अथवा पौत्रोंको अपने-अपने राज्यपर अभिषिक्त करो।

    जिनके उत्तराधिकारी अभी बालक हों या गर्भमें हों, उनकी प्रजाको समझा-बुझाकर सान्त्वनाद्वारा शान्त करो और सारी प्रजाका मनोरंजन करते हुए इस पृथ्वीका पालन करो। जिन राजाओंके कोई पुत्र नहीं हो, उनकी कन्याओंको ही राज्यपर अभिषिक्त कर दो। ऐसा करनेसे उनकी स्त्रियोंकी मनःकामना पूर्ण होगी और वे शोक त्याग देंगी।

    भारत! इस प्रकार सारे राज्यमें शान्ति स्थापित करके तुम उसी प्रकार अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करो, जैसे पूर्वकालमें विजयी इन्द्रने किया था। क्षत्रियशिरोमणे! वे महामनस्वी क्षत्रिय, जो युद्धमें मारे गये हैं, शोक करनेके योग्य नहीं हैं; क्योंकि वे कालकी शक्तिसे मोहित होकर अपने ही कर्मोंसे नष्ट हुए हैं॥

     कुन्तीकुमार! भरतनन्दन! तुमने क्षत्रियधर्मका पालन किया है और इस समय तुम्हें यह निष्कण्टक राज्य मिला है; अतः अब तुम उस धर्मकी ही रक्षा करो, जो मृत्युके पश्चात् सबका कल्याण करनेवाला है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें प्रायश्चित्तीयोपाख्यान-विषयक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

चौतीसवाँ अध्याय

“जिन कर्मोंके करने और न करनेसे कर्ता प्रायश्चित्तका भागी होता और नहीं होता—उनका विवेचन”

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चौतीसवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

    युधिष्ठिरने पूछा ;— पितामह! किन-किन कर्मोंको करनेसे मनुष्य प्रायश्चित्तका अधिकारी होता है और उनके लिये कौन-सा प्रायश्चित्त करके वह पापसे मुक्त होता है? इस विषयमें यह मुझे बतानेकी कृपा करें।

    व्यासजी बोले ;— राजन्! जो मनुष्य शास्त्रविहित कर्मोंका आचरण न करके निषिद्ध कर्म कर बैठता है, वह उस विपरीत आचरणके कारण प्रायश्चित्तका भागी होता है। जो ब्रह्मचारी सूर्योदय अथवा सूर्यास्तके समयतक सोता रहे तथा जिसके नख और दाँत काले हों, उन सबको प्रायश्चित्त करना चाहिये। कुन्तीनन्दन! इसके सिवा परिवेत्ता (बड़े भाईके अविवाहित रहते हुए विवाह करनेवाला छोटा भाई), परिवित्ति (परिवेत्ताका बड़ा भाई), ब्रह्महत्यारा और जो दूसरोंकी निन्दा करनेवाला है वह तथा छोटी बहिनके विवाहके बाद उसकी बड़ी बहिनसे ब्याह करनेवाला, जेठी बहिनके अविवाहित रहते हुए ही उसकी छोटी बहिनसे विवाह करनेवाला, जिसका व्रत नष्ट हो गया हो वह ब्रह्मचारी, द्विजकी हत्या करनेवाला, अपात्रको दान देनेवाला, सुपात्र ब्राह्मणको दान न देनेवाला, ग्रामका नाश करनेवाला, मांस बेचनेवाला तथा जो आग लगानेवाला है, जो वेतन लेकर वेद पढ़ानेवाला एवं स्त्री और शूद्रका वध करनेवाला है, इनमें पीछेवालोंसे पहलेवाले अधिक पापी हैं तथा पशु-वध करनेवाला, दूसरोंके घरमें आग लगानेवाला, झूठ बोलकर पेट पालनेवाला, गुरुका अपमान और सदाचारकी मर्यादाका उल्लंघन करने वाला ये सभी पापी माने गये हैं। इन्हें प्रायश्चित्त करना चाहिये।

    इनके सिवा, जो लोक और वेदसे विरुद्ध न करनेयोग्य कर्म हैं, उन्हें भी बताता हूँ। तुम एकाग्रचित होकर सुनो और समझो। भारत! अपने धर्मको त्याग देना और दूसरेके धर्मका आचरण करना, यज्ञके अनधिकारीको यज्ञ कराना तथा अभक्ष्य भक्षण करना, शरणागतका त्याग करना और भरण करने योग्य व्यक्तियोंका भरण-पोषण न करना, एवं रसोंको बेचना, पशु-पक्षियोंको मारना और शक्ति रहते हुए भी अग्न्याधान आदि कर्मोंको न करना, नित्य देने योग्य गोग्रास आदि को न देना, ब्राह्मणोंको दक्षिणा न देना और उनका सर्वस्व छीन लेना, धर्मतत्त्वके जाननेवालोंने ये सभी कर्म न करने योग्य बताये हैं।

    राजन्! जो पुरुष पिताके साथ झगड़ा करता है, गुरुकी शय्यापर सोता है, ऋतुकालमें भी अपनी पत्नीके साथ समागम नहीं करता है, वह मनुष्य अधार्मिक होता है॥

    इस प्रकार संक्षेप और विस्तारसे जो ये कर्म बताये गये हैं, उनमेंसे कुछको करनेसे और कुछको न करनेसे मनुष्य प्रायश्चित्तका भागी होता है। अब जिन-जिन कारणोंके होनेपर इन कर्मोंको करते रहनेपर भी मनुष्य पापसे लिप्त नहीं होते, उनका वर्णन सुनो। यदि युद्धस्थलमें वेदवेदान्तोंका पारगामी विद्वान् ब्राह्मण भी हाथमें हथियार लेकर मारनेके लिये आवे तो स्वयं भी उसको मार डालनेकी चेष्टा करे। इससे ब्रह्महत्याका पाप नहीं लगता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चौतीसवें अध्याय के श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)

   कुन्तीनन्दन! इस विषयमें वेदका एक मन्त्र भी पढ़ा जाता है। मैं तुमसे उसी धर्मकी बात कहता हूँ, जो वैदिक प्रमाणसे विहित है। जो ब्राह्मणोचित आचारसे भ्रष्ट होकर आततायी बन गया हो हाथमें हथियार लेकर मारने आ रहा हो, ऐसे ब्राह्मणको मारनेसे ब्रह्महत्याका पाप नहीं लगता। क्रोध ही उसके क्रोधका सामना करता है।

    अनजानमें अथवा प्राणसंकटके समय भी यदि मदिरापान कर ले तो बादमें धर्मात्मा पुरुषोंकी आज्ञाके अनुसार उसका पुनः संस्कार होना चाहिये। कुन्तीनन्दन! यही बात अन्य सब अभक्ष्यभक्षणोंके विषयमें भी कही गयी है। प्रायश्चित्त कर लेनेसे सब शुद्ध हो जाता है। गुरुकी आज्ञासे उन्हींके प्रयोजनकी सिद्धिके लिये गुरुकी शय्यापर शयन करना मनुष्यको दूषित नहीं करता है। उद्दालकने अपने पुत्र श्वेतकेतुको शिष्यद्वारा उत्पन्न कराया था, (चोरी सर्वथा निषिद्ध है) किंतु आपत्तिकालमें कभी गुरुके लिये चोरी करनेवाला पुरुष दोषका भागी नहीं होता है। यदि मनमें कामना रखकर बारंबार उस चौर्य-कर्ममें वह प्रवृत्त न होता हो तो आपत्तिके समय ब्राह्मणके सिवा किसी दूसरेका धन लेनेवाला मनुष्य पापका भागी नहीं होता है। जो स्वयं उस चोरीका अन्न नहीं खाता, वह भी चौर्यदोषसे लिप्त नहीं होता है।

    अपने या दूसरेके प्राण बचानेके लिये, गुरुके लिये, एकान्तमें अपनी स्त्रीके पास विनोद करते समय अथवा विवाहके प्रसङ्गमें झूठ बोल दिया जाय तो पाप नहीं लगता है। यदि किसी कारणसे स्वप्नमें वीर्य स्खलित हो जाय तो इससे ब्रह्मचारीके लिये दुबारा व्रत लेने—उपनयन-संस्कार करानेकी आवश्यकता नहीं है। इसके लिये प्रज्वलित अग्निमें घीका हवन करना प्रायश्चित्त बताया गया है।

    यदि बड़ा भाई पतित हो जाय या संन्यास ले ले तो उसके अविवाहित रहते हुए भी छोटे भाईका विवाह कर लेना दोषकी बात नहीं है। संतान-प्राप्तिके लिये स्त्रीद्वारा प्रार्थना करनेपर यदि कभी परस्त्रीसंगम किया जाय तो वह धर्मका लोप करनेवाला नहीं होता है। मनुष्यको चाहिये कि वह व्यर्थ ही पशुओंका वध न तो करे और न करावे। विधिपूर्वक किया हुआ पशुओंका संस्कार उनपर अनुग्रह है।

   यदि अनजानमें किसी अयोग्य ब्राह्मणको दान दे दिया जाय अथवा योग्य ब्राह्मणको सत्कारपूर्वक दान न दिया जा सके तो वह दोषकारक नहीं होता। यदि व्यभिचारिणी स्त्रीका तिरस्कार किया जाय तो वह दोषकी बात नहीं है। उस तिरस्कारसे स्त्रीकी तो शुद्धि होती है और पति भी दोषका भागी नहीं होता। सोमरसके तत्त्वको जानकर यदि उसका विक्रय किया जाय तो बेचनेवाला दोषका भागी नहीं होता। जो सेवक काम करनेमें असमर्थ हो जाय, उसे छोड़ देनेसे भी दोष नहीं लगता। गौओंकी सुविधाके लिये यदि जंगलमें आग लगायी जाय तो उससे पाप नहीं होता है। भरतनन्दन! ये सब तो मैंने वे कर्म बताये हैं, जिन्हें करनेवाला दोषका भागी नहीं होता है। अब मैं विरतारपूर्वक प्रायश्चित्तोंका वर्णन करूँगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें प्रायश्चित्तके प्रकरणमें चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

पैंतीसवाँ अध्याय

“पापकर्मके प्रायश्चित्तोंका वर्णन”

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पैंतीसवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
    व्यासजी बोले ;— भरतनन्दन! मनुष्य तपसे यज्ञ आदि सत्कर्मोंसे तथा दानके द्वारा पापको धो-बहाकर अपने-आपको पवित्र कर लेता है, परंतु यह तभी सम्भव होता है, जब वह फिर पापमें प्रवृत्त न हो।

      यदि किसीने ब्रह्महत्या की हो तो वह भिक्षा माँगकर एक समय भोजन करे, अपना सब काम स्वयं ही करे, हाथमें खप्पर और खाटका पाया लिये रहे, सदा ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करे, उद्यमशील बना रहे, किसीके दोष न देखे, जमीन पर सोये और लोकमें अपना पापकर्म प्रकट करता रहे। इस प्रकार बारह वर्षतक करनेसे ब्रह्महत्यारा पापमुक्त हो जाता है।
       अथवा प्रायश्चित्त बतानेवाले विद्वानोंकी या अपनी इच्छासे शस्त्रधारी पुरुषोंके अस्त्र-शस्त्रोंका निशाना बन जाय अथवा अपनेको प्रज्वलित आगमें झोंक दे अथवा नीचे सिर किये किसी भी एक वेदका पाठ करते हुए तीन बार सौ-सौ योजनकी यात्रा करे अथवा किसी वेदवेत्ता ब्राह्मणको अपना सर्वस्व समर्पण कर दे या जीवन-निर्वाहके लिये पर्याप्त धन अथवा सब सामानोंसे भरा हुआ घर ब्राह्मणको दान कर दे—इस प्रकार गौओं और ब्राह्मणोंकी रक्षा करनेवाला पुरुष ब्रह्महत्यासे मुक्त हो जाता है। यदि ब्रह्महत्या करनेवाला पुरुष कृच्छ्रव्रतके अनुसार भोजन करे तो छः वर्षोंमें वह शुद्ध हो जाता है और एक-एक मासमें एक-एक कृच्छ्रव्रतका निर्वाह करते हुए भोजन करे तो वह तीन ही वर्षोंमें पापमुक्त हो जाता है।

        यदि एक-एक मासपर भोजनक्रम बदलते हुए अत्यन्त तीव्र कृच्छ्रव्रतके अनुसार अन्न ग्रहण करे तो एक वर्षमें ही ब्रह्महत्यासे छुटकारा मिल सकता है1 इसमें संशय नहीं है। राजन्! इसी प्रकार यदि केवल उपवास करनेवाला मनुष्य हो तो उसकी स्वल्प समयमें ही शुद्धि हो जाती है। अश्वमेध यज्ञ करनेसे भी ब्रह्महत्याका पाप शुद्ध हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। जो इस प्रकारके लोग महायज्ञोंमें अवभृथ-स्नान करते हैं, वे सभी पापमुक्त हो जाते हैं—ऐसा श्रुतिका2 कथन है।

     जो पुरुष ब्राह्मणके लिये युद्धमें प्राण दे देता है, वह भी ब्रह्महत्यासे छूट जाता है। ब्रह्महत्यारा होनेपर भी जो सुपात्र ब्राह्मणोंको एक लाख गौओंका दान करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है॥ जो दूध देनेवाली पचीस हजार कपिला गौओंका दान करता है, वह समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाता है। जब मृत्युकाल निकट हो, उस समय सदाचारी दरिद्र ब्राह्मणोंको दूध देनेवाली एक हजार सवत्सा गौओंका दान करके भी मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो सकता है।

    भूपाल! जो संयम-नियमसे रहनेवाले ब्राह्मणोंको सौ काबुली घोड़ोंका दान करता है, उसे भी पापसे छुटकारा मिल जाता है।  भरतनन्दन! जो एक ब्राह्मणको भी उसकी मनोवांछित वस्तु दे देता है और देकर फिर उसकी कहीं चर्चा नहीं करता, वह भी पापसे मुक्त हो जाता है। जो एक बार मदिरा-पान करके फिर आगके समान गर्म की हुई मदिरा पी लेता है, वह इहलोक और परलोकमें भी अपनेको पवित्र कर लेता है। जलहीन देशमें पर्वतसे गिरकर अथवा अग्निमें प्रवेश करके या महाप्रस्थानकी विधिसे हिमालयमें गलकर प्राण दे देनेसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पैंतीसवें अध्याय के श्लोक 17- 30 का हिन्दी अनुवाद)


    मदिरा पीनेवाला ब्राह्मण ‘बृहस्पति-सव’ नामक यज्ञ करके शुद्ध होनेपर ब्रह्माजीकी सभामें जा सकता है—ऐसा श्रुतिका कथन है। राजन्! जो मदिरा पी लेनेपर ईर्ष्या-द्वेषसे रहित हो भूमिदान करे और फिर कभी उसे न पीये, वह संस्कार करनेके पश्चात् शुद्ध होता है।   गुरुपत्नीगमन करनेवाला मनुष्य तपायी हुई लोहेकी शिलापर सो जाय अथवा अपनी मूत्रेन्द्रिय काटकर ऊपरकी ओर देखता हुआ आगे बढ़ता चला जाय। इस प्रकार शरीर छूट जानेपर वह उस पापकर्मसे मुक्त हो जाता है। स्त्रियाँ भी एक वर्षतक मिताहार एवं संयमपूर्वक रहनेपर उक्त पापकर्मोंसे मुक्त हो जाती हैं। जो महाव्रतका (एक महीनेतक जल न पीनेके नियमका) पालन करता है, ब्राह्मणोंको अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है अथवा गुरुके लिये युद्धमें मारा जाता है, वह अशुभ कर्मके बन्धनसे मुक्त हो जाता है।

    झूठ बोलकर जीविका चलानेवाला तथा गुरुका अपमान करनेवाला पुरुष गुरुजीको मनचाही वस्तु देकर प्रसन्न कर ले तो उस पापसे मुक्त हो जाता है। जिसका ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित हो गया हो, वह ब्रह्मचारी उस दोषकी निवृत्तिके उद्देश्यसे ब्रह्महत्याके लिये बताये हुए व्रतका आचरण करे तथा छः महीनों-तक गोचर्म ओढ़कर रहे; ऐसा करनेपर वह पापसे मुक्त हो सकता है।

     परायी स्त्री तथा पराये धनका अपहरण करनेवाला पुरुष एक वर्षतक कठोर व्रतका पालन करनेपर उस पापसे मुक्त होता है।
जिसके धनका अपहरण करे, उसे अनेक उपाय करके उतना ही धन लौटा दे तो उस पापसे छुटकारा मिल सकता है। बड़े भाईके अविवाहित रहते हुए विवाह करनेवाला छोटा भाई और उसका वह बड़ा भाई—ये दोनों मनको संयममें रखते हुए बारह राततक कृच्छ्रव्रतका अनुष्ठान करनेसे शुद्ध हो जाते हैं।

    इसके सिवा, बड़े भाईका विवाह होनेके बाद पहलेका व्याहा हुआ छोटा भाई पितरोंके उद्धारके निमित्त पुनः विवाह-संस्कार करे; ऐसा करनेसे उस स्त्रीके कारण उसे दोष नहीं प्राप्त होता और न वह स्त्री ही उसके दोषसे लिप्त होती है। चौमासेमें एक दिनका अन्तर देकर भोजन करनेका विधान है। उसके पालनसे स्त्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं, ऐसा धर्मज्ञ पुरुषोंका कथन है।

     यदि अपनी स्त्रीके विषयमें पापाचारकी आशङ्का हो तो विज्ञपुरुषको रजस्वला होनेतक उनके साथ समागम नहीं करना चाहिये। रजस्वला होनेपर वे उसी प्रकार शुद्ध हो जाती हैं, जैसे राखसे माँजा हुआ बर्तन॥

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पैंतीसवें अध्याय के श्लोक 31-51 का हिन्दी अनुवाद)

   यदि काँसेका बर्तन शूद्रके द्वारा जूठा कर दिया जाय अथवा उसे गाय सूँघ ले अथवा किसीके भी कुल्ला करनेसे वह जूठा हो जाय तो वह दस वस्तुओंसे शोधन करनेपर शुद्ध होता है।

    ब्राह्मणके लिये चारों पादोंसे युक्त सम्पूर्ण धर्मके पालनका विधान है। तात्पर्य यह कि वह शौचाचार या आत्मशुद्धिके लिये किये जानेवाले प्रायश्चित्तका पूरा-पूरा पालन करे। क्षत्रियके लिये एक पाद कमका विधान है। इसी तरह वैश्यके लिये उसके दो पाद और शूद्रके लिये एक पादके पालनकी विधि है। (उदाहरणके तौरपर जहाँ ब्राह्मणके लिये चार दिन उपवासका विधान हो, वहाँ क्षत्रियके लिये तीन दिन, वैश्यके लिये दो दिन और शूद्रके लिये एक दिनके उपवासका विधान समझना चाहिये), इसी प्रकार इन पापोंके गौरव और लाघवका निश्चय करना चाहिये। पशु-पक्षियोंका वध और दूसरे-दूसरे बहुत-से वृक्षोंका उच्छेद करके पापयुक्त हुआ पुरुष अपनी शुद्धिके लिये तीन दिन, तीन रात केवल हवा पीकर रहे और अपना पापकर्म लोगोंपर प्रकट करता रहे।

       राजन्! जो स्त्री समागम करनेके योग्य नहीं है, उसके साथ समागम कर लेनेपर प्रायश्चित्तका विधान है। उसे छः महीनेतक गीला वस्त्र पहनकर घूमना और राखके ढेरपर सोना चाहिये। जितने न करनेयोग्य पापकर्म हैं, उन सबके लिये यही विधि है। ब्राह्मणग्रन्थोंमें बतायी हुई विधिसे दृष्टान्त बतानेवाले शास्त्रोंकी युक्तियोंसे इसी तरह पापशुद्धिके लिये प्रायश्चित्त करना चाहिये, जो पवित्र स्थानमें मिताहारी हो हिंसाका सर्वथा त्याग करके राग-द्वेष, मान-अपमान आदिसे शून्य हो मौनभावसे गायत्रीमन्त्रका जप करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। मनुष्यको चाहिये कि वह दिनमें खड़ा रहे, रातमें खुले मैदानमें सोये, तीन बार दिनमें और तीन बार रातमें वस्त्रों सहित जलमें घुसकर स्नान करे और इस व्रतका पालन करते समय स्त्री-शूद्र और पतितसे बातचीत न करे, ऐसा नियम लेनेवाला द्विज अज्ञानवश किये हुए सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।

     मनुष्य शुभ और अशुभ जो कर्म करता है, उसके पाँच महाभूत साक्षी होते हैं। उन शुभ और अशुभ कर्मोंका फल मृत्युके पश्चात् उसे प्राप्त होता है। उन दोनों प्रकारके कर्मोंमें जो अधिक होता है, उसीका फल कर्ताको प्राप्त होता है। इसलिये यदि मनुष्यसे अशुभ कर्म बन जाय तो वह दान, तपस्या और सत्कर्मके द्वारा शुभ फलकी वृद्धि करे, जिससे उसके पास अशुभको दबाकर शुभका ही संग्रह अधिक हो जाय, मनुष्यको चाहिये कि वह शुभ कर्मोंका ही अनुष्ठान करे, पापकर्मसे सर्वथा दूर रहे तथा प्रतिदिन (निष्कामभावसे) धनका दान करे; ऐसा करनेसे वह पापोंसे मुक्त हो जाता है। मैंने तुम्हारे सामने पापके अनुरूप प्रायश्चित्त बतलाया है, परंतु महापातकोंसे भिन्न पापोंके लिये ही ऐसा प्रायश्चित्त किया जाता है।

    राजन्! भक्ष्य, अभक्ष्य, वाच्य और अवाच्य तथा जान-बूझकर और बिना जाने किये हुए पापोंके लिये ये प्रायश्चित्त कहे गये हैं। विज्ञ पुरुषको समझकर इनका अनुष्ठान करना चहिये जान-बूझकर किया हुआ सारा पाप भारी होता है और अनजानमें वैसा पाप बन जानेपर कम दोष लगता है। इस प्रकार भारी और हलके पापके अनुसार ही उसके प्रायश्चित्तका विधान है। शास्त्रोक्त विधिसे प्रायश्चित्त करके सारा पाप दूर किया जा सकता है। परंतु यह विधि आस्तिक और श्रद्धालु पुरुषके लिये ही कही गयी है।

    जिनमें दम्भ और द्वेषकी प्रधानता है, उन नास्तिक और श्रद्धाहीन पुरुषोंके लिये कभी ऐसे प्रायश्चित्तका विधान नहीं देखा जाता है। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ पुरुषसिंह! जो इहलोक और परलोकमें सुख चाहता हो उसे श्रेष्ठ पुरुषोंके आचार तथा उनके उपदेश किये हुए धर्मका सदा ही सेवन करना चाहिये। नरेश्वर! तुमने तो अपने प्राणोंकी रक्षा, धनकी प्राप्ति अथवा राजोचित कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही शत्रुओंका वध किया है; अतः इतना ही पर्याप्त कारण है, जिससे तुम पापमुक्त हो जाओगे, अथवा यदि तुम्हारे मनमें उन अतीत घटनाओंके कारण कोई घृणा या ग्लानि हो तो उनके लिये प्रायश्चित्त कर लेना। परंतु इस प्रकार अनार्य पुरुषोंद्वारा सेवित खेद या रोषके वशीभूत होकर आत्महत्या न करो।

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय! भगवान् व्यासके ऐसा कहनेपर धर्मराज युधिष्ठिरने दो घड़ीतक कुछ सोच-विचार करके तपोधन व्यासजीसे इस प्रकार कहा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें प्रायश्चित्तवर्णनके प्रसङ्गमें पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टीका टिप्पणी ;----- गायके दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर—इन पाँच गव्य-पदार्थोंसे तथा मिट्‌टी, जल, राख, खटाई और आग—इन पाँच वस्तुओंसे पात्रको शुद्ध किया जाता है—यही उसका दस वस्तुओंसे शोधन है।

१. तीन दिन प्रातःकाल, तीन दिन सायंकाल और तीन दिन बिना माँगे जो मिल जाय वह खा लेना तथा तीन दिन उपवास करना—इस प्रकार बारह दिनका कृच्छ्रव्रत होता है। इसी क्रमसे छः वर्षतक रहनेसे ब्रह्महत्या छूट सकती है। यही क्रम यदि तीन-तीन दिनमें परिवर्तित न होकर सम मासोंमें एक-एक सप्ताहमें और विषम मासोंमें आठ-आठ दिनोंमें बदलते हुए एक-एक मासके कृच्छ्रव्रतके अनुसार चले तो तीन वर्षोंमें शुद्धि हो जायगी और यदि एक मास प्रातःकाल, एक मास सायंकाल और एक मास अयाचित भोजन तथा एक मास उपवास—इस प्रकार चार-चार मासके कृच्छ्रव्रतके अनुसार चले तो एक ही वर्षमें ब्रह्महत्याका पाप छूट सकता है।

२. श्रुति इस प्रकार है — ‘सर्वं पाप्मानं तरति तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते’। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें