सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) छब्बीसवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिरके द्वारा धनके त्यागकी ही महत्ताका प्रतिपादन”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय। इसी प्रसंग में उदारबुद्धि राजा युधिष्ठिर ने अर्जुन से यह युक्ति युक्त बात कही,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ’पार्थ! तुम जो यह समझते हो कि धन से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है तथा निर्धन को स्वर्ग, सुख और अर्थ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती, यह ठीक नहीं है। ’बहुत से मनुष्य केवल स्वाध्याय यज्ञ करके सिद्धि को प्राप्त हुए देखे जाते हैं। तपस्या में लगे हुए बहुतेरे मुनि ऐसे हो गये हैं, जिन्हें सनातन लोकों की प्राप्ति हुई है। ’धनंजय! सम्पूर्ण धर्मां को जानने वाले जो लोग ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित हो ऋषियों की स्वाध्याय-परम्परा की सदैव रक्षा करते हैं, देवता उन्हें ही ब्राह्मण मानते हैं। अर्जुन! तुम्हें सदा यह समझना चाहिये कि ऋषियों में से कुछ लोग वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय में ही तत्पर रहते हैं, कुछ ज्ञानोपार्जन में संलग्न होते हैं और कुछ लोग धर्म पालन में ही निष्ठा रखते हैं। ’पाण्डुनन्दन! प्रभो! वानप्रस्थों के वचन को जैसा हमने समझा है, उसके अनुसार ज्ञाननिष्ठ महातमओं को ही राज्य के सारे कार्य सौंपने चाहिये। ’भारत! अज, पृश्नि, सिकत,अरूण और केतु नाम वाले ऋषि गणों ने तो स्वाध्याय के द्वारा ही स्वर्ग प्राप्त कर लिया था। ’धनंजय! दान,अध्ययन, यज्ञ और निग्रह - ये सभी कर्म बहुत कठिन हैं । इन बेदोक्त कर्मों का (सकाम भाव से) आश्रय लेकर कलिोग सूर्य के दक्षिण मार्ग से स्वर्ग में जाते हैं। इन कर्मयोगी पुरुषों के लोकों की चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ।
’कुन्ती नन्दन! सूर्य के उत्तर में स्थित जो मार्ग है, जिसे तुम नियम के प्रभाव से देख रहे हो, वहाँ जो ये सनातन लोक प्रकाशित होते हैं, वे निष्काम यज्ञ करने वालों को प्राप्त होते हैं। ’पार्थ! प्राचीन इतिहास को जानने वाले लोग इन दोनों मार्गों में से उत्तर मार्ग की प्रशंसा करते हैं। वास्तव में संतोष ही सबसे बढ़कर स्वर्ग है और संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। ’संतोष से बढ़कर कुछ नहीं है। जिसने क्रोध और हर्ष को जीत लिया है, उसी के हृदय में उस परम वैराग्यरूप संतोष की सम्यक् प्रतिष्ठा होती है और उसे ही सदा उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है। ’इस प्रसंग में लोग राजा ययाति की गायी हुई इन गाथाओं को उदाहरण के तौर पर कहा करते हैं। जिनके द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को उसी प्रकार समेट लिया करता है। ’
राजा ययाति ने कहा था,- ’जब यह पुरुष किसी से नहीं डरता, जब इससे भी किसी को भय नहीं रहता तथा जब यह न तो किसी को चाहता है और न उससे द्वेष ही रखता है, तब ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है। ‘जब यह मन, वाणी और क्रिया द्वारा सम्पूर्ण भूतों के प्रति पाप- बुद्धि का परित्याग कर देता है, तब परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। ’’ जिसके मान और मोह दूर हो गये हैं, जो नाना प्रकार की आसक्तियों से रहित है तथा जिसे आत्मा का ज्ञान प्राप्त हो गया है, उस साधु पुरुष को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है,। ’कुती नन्दन! मैं जो बात कह रहा हूँ, उसे अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को संयम में रखकर सुनो! कुछ लोग धर्म की, कोई सदाचार की और दूसरे कितने ही मनुष्य धन की प्राप्ति के लिये सचेष्ट रहते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद)
’जो धन के लिये चेष्टा करता है, उसका निष्चेष्ट होकर बैठ रहना ही ठीक है, क्यों कि धन और उसके आश्रित धर्म में महान् दोष दिखायी देता है। ’मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ और तुम भी देख सकते हो, जो लोग धनोपार्जन के प्रयत्न में लगे हुए हैं, उनके लिये राज्य कर्मों को छोड़ना अत्यन्त कठिन हो रहा है। ’ जो धन के पीछे पड़े हुए हैं, उनमें साधुता दुर्लभ है; क्यों कि जो लोग दूसरों से द्रोह करते हैं, उन्हीं को धन प्राप्त होता है, ऐसा कहा जाता है तथा वह मिला हुआ धन प्रकारान्तर से प्रतिकूल ही होता है। ’शोक और भय से रहित होने पर भी जो मनुष्य सदाचार से भ्रष्ट है,उसे यदि धन की थोड़ी-सी तृष्णा हो तो वह दूसरों से ऐसा द्रोह करता है कि भ्रण-हत्या जैसे पाप का भी ध्यान नहीं रखता। ’अपना वेतन यथासमय पाते हुए भी जब भृत्यों को संतोष नहीं होता, तब वे स्वामी से अप्रसन्न रहते हैं और वह धनी दुर्लभ धन को पाकर यदि सेवकों को अधिक देता है तो उसे उतना ही अधिक संताप होता है, जितना चोर-डाकुओं से भय के कारण हुआ करता है।
’निर्धन को कौन क्या कह सकता है? वह सब प्रकार के भय से मुक्त हो सुखी रहता है। देवताओं की सम्पत्ति लेकर भी कोई धन से सुखी नहीं हो सकता। ’इस विषय में यज्ञ में ऋत्विजों द्वारा गायी हुई एक गाथा है जो तीनों वेदेां के आश्रित है, वह गाथा लोक में यज्ञ की प्रतिष्ठा करने वाली है। पुरानी बातों को जानने वाले लोग उसे ऐसे अवसरों पर दुहराया करते हैं।
’विधाता ने यज्ञ के लिये ही धन की सृष्टि की है और यज्ञ के लिये उसकी रक्षा करने के निमित्त पुरुष को उत्पन्न किया है; इस लिये सारे धन का यज्ञ कार्य में ही उपयोग करना चाहिये। भोग के लिये धन का उपयोग तो हितकर है और न उत्तम ही।’धनवानों में श्रेष्ठ कुन्ती कुमार धनंजय! विधाता मनुष्यों को स्वार्थ के लिये भी जो धन देते हैं उसे यज्ञार्थ ही समझो। ’इसीलिये बुद्धिमान पुरुष यह समझते हैं कि धन कमी किसी एक के पास स्थिर नहीं रहता; अतः श्रद्धालु मनुष्य को चाहिये कि वह उस धन का दान कर और उसे यज्ञ में लगावे। ’प्राप्त किये हुए धन का दान करना ही उचित बताया है।
उसे भोग में लगाना या संग्रह करके रखना ठीक नहीं है। जिसके सामने बहुत बड़ा कार्य यज्ञ आदि मौजूद है, उसे धन को संग्रह करके रखने की क्या आवश्यकता है? ’जो मन्दबुद्धि मानव अपने धर्म से गिरे हुए मनुष्यों को धन देते हैं, वे मरने के बाद सौ वर्षों तक विष्ठा भोजन करते हैं। ’लोग अधिकारी को धन नहीं देते और अनाधिकारी को दे डालते हैं, योग्य-अयोग्य पात्र का ज्ञान न होने से दानधर्म का सम्पादन भी कठिन है। ’प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो प्रकार की भूलें हुआ करती हैं, जिनहें ध्यान में रखना चाहिये। पहली भूल है अपात्र को धन देना और दूसरी है सुपात्र को धन न देना,।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरका वाक्यत्रिषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
सत्ताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिरको शोकवश शरीर त्याग देनेके लिये उद्यत देख व्यासजीका उन्हें उससे निवारण करके समझाना”
युधिष्ठिर ने व्यास जी से कहा ;- मुनिश्रेष्ठ! इस युद्ध में बालक अभिमन्यु, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, धृष्टद्युम्न, विराट, राजा दु्रपद, धर्मज्ञ, वृषसेन, चेदिराज धृष्टकेतु तथा नाना देशों के निवासी अन्यान्य नरेश भी वीरगति को प्राप्त हुए हैं। मैं जाति- भाइयों का घातक, राज्य का लोभी, अत्यन्त क्रूर और अपने वंश का विनाश करने वाला निकला, यही सब सोचकर मुझे शोक नहीं छोड़ रहा है और मैं अत्यन्त आतुर हो रहा हूँ। जिनकी गोदी में खेलता हुआ मैं लोटपोट हो जाता था, उन्हीं पितामह गंगा नन्दन भीष्म जी को मैंने राज्य के लोभ से मरवा डाला। जब मैंने देखा कि अर्जुन के बज्रोपम बाणों से आह्त हो बूढे़ सिंह के समान मेरे उन्न्ातकाय पुरुष सिंह पितामह कम्पित हो रहे हैं और उन्हें चक्कर-सा आने लगा है, शिखण्डी उनकी ओर देख रहा है और उनका सारा शरीर बाणों से खचाखच भर गया है तो यह देखकर मेरे मन में बड़ी व्यथा हुई।
जो शत्रु दल के रथियों को पीड़ा देने में समर्थ थे, वे पूर्व की ओर मुँह करके चुपचाप बैठे हुए बाणों का आघात सह रहे थे और जैसे पर्वत हिल रहा हो, उसी प्रकार झूम रहे थे। उस समय उनकी यह अवस्था देखकर मुझे मूर्छा-सी आ गयी थ। जिन कुरूकुल शिरोमणि वीर ने कुरुक्षेत्र में महायुद्ध ठान कर हाथ में धनुष- बाण लिये बहुत दिनों तक परशुराम जी के साथ युद्ध किया था, जिन वीर गंगा नन्दन भीष्म ने वाराणसी पुरी में काशिराज की कन्याओं के लिये युद्ध का अवसर उपस्थित होने पर एकमात्र रथ के द्वारा वहाँ एक एकत्र हुए समस्त क्षत्रिय नरेशों को ललकारा था तथा जिन्होंने दुर्जय चक्रवर्ती राजा उग्रायुध को अपने अस्त्रों के प्रताप से दग्ध कर दिया था, उन्हीं को मैंने युद्ध में मरवा डाला। जिन्होंने अपने लिये मृत्यु बनकर आये हुए पांच्चाल राजकुमार शिखण्डी की स्वयं ही रक्षा की और उसे बाणों से धराशायी नहीं किया, उन्हीं पितामह को अर्जुन ने मार गिराया। मुनिश्रेष्ठ! जब मैंने पितामह को खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर पड़ा देखा, उसी समय मुझ पर अत्यन्त भयंकर शोक-ज्वर का आवेश हो गया। जिन्होंने हमें बचपन से पाल-पोसकर बड़ा किया और सब प्रकार से हमारी रक्षा की, उन्हीं को मुझ पापी, राज्य लोभी, गुरुघाती एवं मूर्खन थोड़े समय तक रहने वाले राज्य के लिये मरवा डाला। सम्पूर्ण राजाओं से पूजित, महाधनुर्धर आचार्य के पास जाकर मुझ पापी ने उनके पुत्र के सम्बन्ध में झूठी बात कही।
उस समय गुरु ने मुझ से पूछा था,- ’राजन्! सच बताओ, क्या मेरा पुत्र जीवित है?, उन ब्राह्मण ने सत्य का निर्णय करने के लिये ही मुझसे यह बात पूछी थी। उन की वह बात जब याद आती है तो मेरा सारा शरीर शोकाग्नि से दग्ध होने लगता है। परंतु राज्य के लोभ में अत्यन्त फँसे हुए मुझ पापी गुरु हत्यारे ने मरे हुए हाथी की आड़ लेकर उनसे झूठ बोल दिया और उनके साथ धोखा किया।
मैंने सत्य का चोला उतार फेंका और युद्ध में अश्रत्थामा नामक हाथी के मारे जाने पर गुरुदेव से कह दिया कि ’अश्रत्थामा मारा गया।’ (इससे उन्हें अपने पुत्र के मारे जाने का विश्वास हो गया )। यह अत्यन्त दुष्ष्कर पाप कर्म करके मैं किन लोकों में जाऊँगा? युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले अत्यन्त उग्र पराक्रमी अपने बड़े भाई कर्ण को भी मैंने मरवा दिया-- मुझसे बढ़कर महान् पापाचारी दूसरा कौन होगा?
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद)
मैंने राज्य के लोभ में पड़कर जब पर्वतों पर उत्पन्न् हुए सिंह के समान पराक्रमी अभिमन्यु को द्रोणाचार्य द्वारा सुरक्षित कौरव सेना में झोंक दिया, तभी से भू्रण-हत्या करने वाले पापी के समान में अर्जुन तथा कमल नयन श्रीकृष्ण की ओर आँख उठाकर देख नहीं पाता हूँ। जैसे पृथ्वी पाँच पर्वतों से हीन हो जाय, उसी प्रकार अपने पाँचों पुत्रों से हीन होकर दुःख आतुर हुई द्रोपदी के लिये भी मुझे निरन्तर शोक बना रहता है। अतः मैं पापी, अपराधी तथा सम्पूर्ण भूमण्डलि का विनाश करने वाला हूँ; इसलिये यहीं इसी रूप में बैठा हुआ अपने इस शरीर को सुखा डालूँगा। आप लोग मुझ गुरूघाती को आमरण अनशन के लिये बैठा हुआ समझें, जिससे दूसरे जन्मों मैं फिर अपने कुल का विनाश करने वाला न होऊँ। तपोधनो! अब मैं किसी तरह न तो अन्न् खाऊँगा और न पानी ही पीऊँगा। यहीं रहकर अपने प्यारे प्राणों को सुखा दूँगा। मैं आप लोगों को प्रसन्न् करके आनी ओर से चले जाने की अनुमति देता हूँ। जिसकी जहाँ हो वहाँ अपनी रुचि के अनुसार चला जाय। आप सब लोग मुझे आज्ञा दें कि मैं इस शरीर को अनशन करके त्याग दूँ।
वैशाम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय। अपने बन्धु जनों के शोक से विडल होकर युधिष्ठिर को ऐसी बातें करते देख मुनिवर व्यास जी ने उन्हें रोककर कहा- ’नहीं’ ऐसा नहीं हो सकता,।
व्यास जी ने बोले ;- महाराज! तुम बहुत शोक न करो। प्रभो! मैं पहले की कही हुई बात ही फिर दुहरा रहा हूँ । यह सब प्रारब्धका ही खेल है। जैसे पानी में बुलबुले होते और मिट जाते हैं, उसी प्रकार संसार में उत्पन्न् हुए प्राणियों के जो आपस में संयाग होते हैं, उनका अन्त निश्चय ही वियोग में होता है। सम्पूर्ण संग्रहों का अन्त विनाश है, सारी उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है। आलस्य सुखरूप प्रतीत होता है, परंतु उसका अन्त दुःख है तथा कार्यदक्षता दुःखरूप प्रतीत होती है, परंतु उससे सुख का उदय होता है। इसके सिवा ऐश्वर्य, लक्ष्मी, लज्जा, घृति और कीर्ति - ये कार्यदक्ष पुरुष में ही निवास करती हैं, आलसी में नहीं। न तो सुदृढ़ सुख देने में समर्थ हैं, न शत्रु दुःख देने में।
इसी प्रकार न तो प्रजा धन दे सकती है और न धन सुख दे सकता है। कुन्ती नन्दन! नरेश्वर! विधाता ने जैसे कर्मां के लिये तुम्हारी सृष्टि की है, तुम उन्हीं का अनुष्ठान करो। उन्हीं से तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी। तम कर्मों के (फल के) स्वामी या नियन्ता नहीं हो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में व्यास वाक्य विषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
अट्ठाइसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“अश्मा ऋषि और जनकके संवादद्वारा प्रारब्धकी प्रबलता बतलाते हुए व्यासजी का युधिष्ठिरको समझाना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भाई-बन्धुओं के शोक से संतत हो अपने प्राणों को त्याग देने की इच्छा वाले ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर के शोक को महर्षि व्यास ने इस प्रकार दूर किया।
व्यास जी बोले ;- पुरुष सिंह युधिष्ठिर! इस प्रसंग में जानकार लोग अश्मा ब्राह्मण के गीत सम्बन्धी इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करत हैं, इसे सुनो। एक समय की बात है, दुःख-शोक में डूबे हुए विदेहराज जनक ने ज्ञानी ब्राह्मण अश्मा से अपने मन का संदेह इस प्रकार पूछा।
जनक बोले ;- ब्रह्मन्! कुटुम्बीजन और धन की उत्पत्ति या विनाश होने पर कल्याण चाहने वाले पुरुष को कैसा निश्चय करना चाहिये?
अश्मा ने कहा ;- राजन्! मनुष्य का यह शरीर जब जन्म ग्रहण करता है, तब उसके साथ ही सुख और दुःख भी उसके पीछे लग जाते हैं। इन दोनों में से एक न एक की प्राप्ति तो होती ही है; अतः जो भी सुख या दुःख उपस्थित होता है, वही मनुष्य के ज्ञान को उसी प्रकार हर लेता है, जैसे हवा बादल को उड़ा ले जाती है। इसी से ’मैं कुलीन हूँ, सिद्ध हूँ और कोई साधारण मनुष्य नहीं हूँ’ ये अंहकार की तीन धाराएँ मनुष्य के चित्त को सींचने लगती हैं। फिर वह मनुष्य भोगों में आसक्तचित्त होकर क्रमशः बाप-दादों की रक्खी हुई कमाई को उड़ाकर कंगाल हो जाता है और दूसरों के धन को हड़प लेना अच्छा मानने लगता है। जैसे व्याधे अपने बाणों द्वारा मृगों को आगे बढ़ने से रोकते हैं, उसी प्रकार मर्यादा लाॅघकर अनुचित रूप से दूसरों के धन का अपहरण वाले उस मनुष्य को राजा लोग दण्ड द्वारा वैसे कुमार्ग पर चलने से रोकते हैं। राजन्! जो बीस या तीस वर्ष की उम्र वाले मनुष्य चोरी आदि कुकर्मों में लग जाते हैं, वे सौ वर्ष तक जीवित नहीं रह पाते। जहाँ-तहाँ समस्त प्राणियों के दुःखद् वर्ताव से उन पर जो कुछ बीतता है, उसे देखता हुआ मनुष्य दरिद्रता से प्राप्त होने वाले उन महान् दुःखों का निवारण करने के लिये बुद्धि के द्वारा औषध करे (अर्थात् विचार द्वारा अपने आपको कुमार्ग पर जाने से रोके )।
मनुष्यों को बार-बार मानसिक दुःखों की प्राप्ति के कारण दो ही हैं- चित्त का भ्रम और अनिष्ट की प्राप्ति। तीसरा कोई कारण सम्भव नहीं है। इस प्रकार मनुष्य को इन्हीं दो कारणों से भिन्न-भिन्न प्रकार के दुःख प्राप्त होते हैं। विषयों की आसक्ति से भी ये दुःख प्राप्त होते हैं। बुढ़ापा और मृत्यु- ये दोनों दो भेड़ियों के समान हैं, जो बलवान्, दुर्बल, छोटे और बड़े सभी प्राणियों को खा जाते हैं। कोई भी मनुष्य कभी बुढ़ापे और मौत को लाँघ नहीं सकता। भले ही वह समुद्र पर्यन्त इस सारी पृथ्वी पर विजय पा चुका हो। प्राणियों के निकट जो सुख या दुःख उपस्थित होता है, वह सब उन्हें विवश होकर सहना ही पड़ता है, क्यों कि उसके टालने का कोई उपया नहीं है।
नरेश्वर! पूर्वावस्था, मध्यावस्था अथवा उत्तरावस्था में कभी न कभी वे क्लेश अनिवार्य रूप से प्राप्त होते ही हैं, जिन्हें मनुष्य उनके विपरीत रूप में चाहता है (अर्थात् सुख ही सुख की इच्छा करता है; परंतु उसे कष्ट भी प्राप्त होते ही हैं )। अप्रिय वस्तुओं के साथ संयोग, अत्यन्त प्रिय वस्तुओं का वियोग, अर्थ, अनर्थ, सुख और दुःख- इन सबकी प्राप्ति प्रारब्ध के विधान के अनुसार होती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)
प्राणियों की उत्पत्ति, देहावसान, लाभ और हानि-ये सब प्रारब्ध के ही आधार पर स्थित है। जैसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध स्वभावतः आते जाते रहते हैं, उसी प्रकार मनुष्य सुख और दुःखों को प्रारब्धानुसार पाता रहता है। सभी प्राणियों के लिये बैठना, सोना, चलना-फिरना, उठना और खाना-पीना- ये सभी कार्य समय के अनुार ही नियत रूप से होते रहते हैं। कभी-कभी वैद्य भी रोगी, बलवान् भी दुर्बल और श्रीमान् भी असमर्थ हो जाते हैं, यह समय का उलट फेर बड़ा अद्भुत है। उत्तम कुल में जन्म, बल-पराक्रम, आरोग्य, रूप, सौभाग्य और उपभोग सामग्री- ये सब होनहार के अनुसार ही प्राप्त होते हैं।
जो दरिद्र हैं और संतान की इच्छा नहीं रखते हैं, उनके तो बहुत से पुत्र हो जाते हैं और जो धनवान् हैं, उनमें से किसी-किसी को एक पुत्र भी नहीं प्राप्त होता। विधाता की चेष्टा बड़ी विचित्र है। रोग, अग्नि, जल, शस्त्र, भूख, प्यास, विपत्ति, विष, ज्वर और ऊँचे स्थान से गिरता- ये सब जीव की मृत्यु के निमित्त हैं। जन्म के समय जिसके लिये प्रारब्ध वश जो निमित्त नियत कर दिया गया है, वही उसका सेतु है, अतः उसी के द्वारा वह जाता है अर्थात् परलोक में गमन करता है। कोई इस सेतु का उल्लघंन करता दिखायी नहीं देता अथवा पहले भी किसी ने इसका उल्लंघन किया हो, ऐसा देखने में नहीं आया। कोई-कोई पुरुष जो (तपस्या आदि प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा) दैव के नियन्त्रण में रहने योग्य नहीं है, वह पूर्वोत्त सेतु का उल्लंघन करता भी दिखायी देता है। इस जगत् में धनवान् मनुष्य भी जवानी में ही नष्ट होता दिखायी देता है और क्लेश में पड़ा हुआ दरिद्र भी सौ वर्षों तक जीवित रहकर अत्यन्त वृद्धावस्था में मरता देखा जाता है।
जिनके पास कुछ नहीं है, ऐसे दरिद्र भी दीर्घ जीवी देखे जाते हैं और धनवान् कुल में उत्पन्न हुए मनुष्य भी कीट पतंगों के समान नष्ट होते रहते हैं। जगत् में प्रायः धनवानों को खाने और पचाने की शक्ति ही नहीं रहती है और दरिद्रों में पेट में काठ भी पच जाते हैं। दुरात्मा मनुष्य काल से पे्ररित होकर यह अभिमान करने लगता है कि मैं यह करूँगा। तत्पश्चात् असंतोष वश उसे जो-जो अभीष्ट होता है, उस पापपूर्ण कृत्य को भी वह करने लगता है। विद्वान् पुरुष शिकार करने, जुआ खेलने, स्त्रियों के संसर्ग में रहने और मदिरा पीने के प्रसंगों की बड़ी निन्दा करते हैं, परंतु इन पाप-कर्मों में अनेक शास्त्रों के श्रवण और अध्ययनसे सम्पन्न पुरुष भी संलग्न देखे जाते हैं। इस प्रकार काल के प्रभाव से समस्त प्राणी इष्ट और अनिष्ट पदार्थां को प्राप्त करते रहते हैं, इस इष्ट और अनिष्टकी प्राप्ति का अदृष्ट के सिवा दूसरा कोई कारण नहीं दिखायी देता।
वायु, आकाश, अग्नि,चन्द्रमा, सूर्य, दिन, रात, नक्षत्र, नदी और पर्वतों को काल के सिवा कौन बनाता और धारण करता है? सर्दी,गर्मी और वर्षा का चक्र भी काल से ही चलता है। नरश्रेष्ठ! इसी प्रकार मनुष्यों के सुख-दुःख भी काल से ही प्राप्त होते हैं। वृद्धावस्था और मृत्यु के वश में पडे़ हुए मनुष्य को औषध, मन्त्र, होम और जप भी नहीं बचा पाते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 36-51 का हिन्दी अनुवाद)
जैसे महासागर में एक काठ एक ओर से और दूसरा दूसरी ओर से आकर दोनों थोड़ी देर के लिये मिल जाते हैं तथा मिलकर फिर बिछुड़ भी जाते हैं, इसी प्रकार यहाँ प्राणियों के संयोग-वियोग होते रहते हैं। जगत् में जिन धनवान् पुरुषों की सेवा में बहुत-सी सुन्दरियाँ गीत और वाद्यों के साथ उपस्थित हुआ करती हैं और जो अनाथ मनुष्य दूसरों के अन्न पर जीवन-निर्वाह करते हैं, उन सबके प्रति काल की समान चेष्टा होती है। हमने संसार में अनेक बार जन्म लेकर सहस्त्रों माता-पिता और सैकड़ों स्त्री-पुत्रों के सुख का अनुभव किया है; परंतु अब वे किसके हैं अथवा हम उनमें से किसके हैं? इस जीव का न तो कोई सम्बन्धी होगा और न यह किसी का सम्बन्धी है। जैसे मार्ग में चलने वालों को दूसरे राहगीरों का साथ मिल जाता है, उसी प्रकार यहाँ भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र और सुहृदों का समागम होता है।
अतः विवेकी पुरुष को अपने मनमें यह विचार करना चाहिये कि ’मैं कहाँ हूँ, कहाँ जाऊँगा, कौन हूँ, यहाँ किस लिये आया हूँ और किस लिये किसका शोक करूँ?’ यह संसार चक्र के समान घूमता रहता है। इसमें प्रियजनों का सहवास अनित्य है। यहाँ भ्राता, मित्र, पिता और माता आदि का साथ रास्ते में मिले हुए बटोहियों के समान ही है। यद्यपि विद्वान् पुरुष कहते हैं कि परलोक न तो आँखों के सामने है और न पहले का ही देखा हुआ है, तथापि अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले पुरुष को शास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन न करके उसकी बातों पर विश्वास करना चाहिये। विज्ञ पुरुष पितरों का श्राद्ध और देवताओं का यजन करे। धर्मानुकूल कार्यां का अनुष्ठान और यज्ञ करे तथा विधि पूर्वक धर्म, अर्थ और काम का भी सेवन करें। जिसमें जरा और मृत्युरूपी बडे़-बडे़ ग्राह पड़े हुए हैं, उस गम्भीर काल समुद्र में यह सारा संसार डूब रहा है, किंतु कोई इस बात को समझ नहीं पाता है।
केवल आयुर्वेद का अध्ययन करने वाले बहुत से वैद्य भी परिवार सहित रोगों के शिकार हुए देखे जाते हैं। वे कड़वे-कड़वे काढे़ और नाना प्रकार के घृत पीते रहते हैं तो भी जैसे महासागर अपनी तट-भूमि से आगे नहीं बढ़ता, उसी प्रकार वे मौत को लाँघ नहीं पाते हैं। रसायन जानने वाले वैद्य अपने लिये रसायनों का अच्छी तरह प्रयोग करके भी वृद्धावस्था द्वारा वैसे ही जर्जर हुए दिखायी देते हैं, जैसे श्रेष्ठ हाथियों के आघात से टूटे हुए वृक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। इसी प्रकार शास्त्रों के स्वाध्याय और अभ्यास में लगे हुए विद्वान्,तपस्वी, दानी और यज्ञशील पुरुष भी जरा और मृत्यु को पार नहीं कर पाते हैं। संसार में जन्म लेने वाले सभी प्राणियों के दिन-रात, वर्ष मास और पक्ष एक बार बीतकर फिर वापस नहीं लौटते हैं। मृत्यु के इस विशाल मार्ग का सेवन सभी प्राणियों को करना पड़ता है। इस अनित्य मानव को भी काल से विवश होकर कभी न टलने वाले मृत्यु के मार्ग पर आना ही पड़ता है। (आस्तिक मत के अनुसार)जीव (चेतन) से शरीर की उत्पत्ति हो या (नास्तिकों की मान्यता के अनुसार) से शरीर जीव की। सर्वथा स्त्री-पुत्र आदि या अन्य बन्धुओं के साथ जो समागम होता है, वह रास्ते में मिलने वाले राहगीरों के समान ही है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 52-59 का हिन्दी अनुवाद)
किसी भी पुरुष को कभी किसी के साथ भी सदा एक स्थान में रहने का सुयोग नहीं मिलता । जब अपने शरीर के साथ भी बहुत दिनों तक सम्बन्ध नहीं रहता, तब दूसरे किसी के साथ कैसे रह सकता है? राजन्! आज तुम्हारे पिता कहाँ हैं? आज तुम्हारे पितामह कहाँ गये? निष्पाप नरेश! आज न तो तुम उन्हें देख रहे हो और न वे तुम्हें देखते हैं। कोई भी मनुष्य यहीं से इन स्थूल नेत्रों द्वारा स्वर्ग और नरक को नहीं देख सकता। उन्हें देखने के लिये सत्पुरुषों के पास शास्त्र ही एकमात्र नेत्र हैं, अतः नरेश्वर! तुम यहाँ उस शास्त्र के अनुसार ही आचरण करो। मनुष्य पहले ब्रह्मचर्य का पूर्णरूप से पालन करके गृहस्थ आश्रम स्वीकार करे और पितरों, देवताओं तथा मनुष्यों (अतिथियों) के ऋण से मुक्त होने के लिये संतानोत्पादन तथा यज्ञ करे, किसी के प्रति दोषदृष्टि न रक्खे।
मनुष्य पहले ब्रह्मचर्य का पालन करके संतानोत्पादन के लिये विवाह करे, नेत्र आदि इन्द्रियों को पवित्र रक्खे ओर स्वर्गलोग तथा इहलोक के सुख की आशा छोड़कर हृदय के शोक-संताप को दूर करके यज्ञ-परायण हो परमात्मा की आराधना करता रहे। राजा यदि नियमपूर्वक प्रजा के निकट से करके रूप में द्रव्य ग्रहण करे और राग-द्वेष से रहित हो राजधर्म का पालन करता रहे तो उस धर्मपरायण नरेश का सुयश सम्पूर्ण चराचर लोकों में फैल जाता है। निर्मल बुद्धि वाले विदेहराज जनक अश्मा का यह युक्तिपूर्ण सम्पूर्ण उपदेश सुनकर शोकरहित हो गये और उनकी आज्ञा ले अपने घर को लौट गये। अपने धर्म से कभी च्युत न होने वाले इन्द्रतुल्य पराक्रमी कुन्तीकुमार युधिष्ठिर! तुम भी शोक छोड़कर उठो और हृदय में हर्ष धारण करो। तुमने क्षत्रिय धर्म के अनुसार इस पृथ्वी पर विजय पायी है; अतः इसे भोगो। इसकी अवहेलना न करो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में देवशस्थान वाक्य विषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
उन्नतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! स्बके समझाने बुझाने पर भी जब धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिर मौन हीरह गये, तब पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कहा।
अर्जुन बोले ;- माधव! शत्रुओं को संताप देने वाले ये धर्मपुत्र युधिष्ठिर स्वयं भाई-बन्धुओं के शोक से संतप्त हो शोक के समुद्र में डूब गये हैं, आप इन्हें धीर न बँधाइये। महाबाहु जनार्दन! हम सब लोग पुःन महान् संशय में पड़ गये हैं। आप इनके शोक का नाश कीजिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! महामना अर्जुन के ऐसा कहने पर अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले कमलनयन भगवान गोविन्द राजा युधिष्ठिर की ओर घूमे- उनके सम्मुख हुए। धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं कर सकते थे; क्यों कि श्री कृष्ण बाल्यावस्था से ही उन्हें अर्जुन से भी अधिक प्रिय थे। म्हाबाहु गोविन्द ने युधिष्ठिर की पत्थर के बने हुए खम्भे जैसी चन्दनचर्चित भुजा को हाथ में लेकर उनका मनोरंजन करते हुए इस प्रकारह बोलना आरम्भ किया। उस समय सुन्दर दाँतों और मनोहर नेत्रों से युक्त उनका मुखार विन्द सूर्यादय के समय पूर्णतः विकसित हुए कमल के समान शोभा पा रहा था।
भगवान श्री कृष्ण बोले ;- पुरुष सिंह! तुम शोक न करो। शोक तो शरीर को सुखा देने वाला होता है। इस संग्राम में जो वीर मारे गये हैं, वे फिर सहज ही मिल सकें, यह सम्भव नहीं है। राजन्! जैसे सपने में मिले हुए धन जगने पर मिथ्या हो जाते हैं, उसी प्रकार जो क्षत्रिय महासमर में नष्ट हो गये हैं, उनका दर्शन अब दुर्लभ है। संग्राम में शोभा पाने वाले वे सभी शूरवीर शत्रु का सामना करते हुए पराजित हुए हैं। उनमें से कोई भी पीठ पर चोट खाकर या भागता हुआ नहीं मारा गया है। सभी वीर महायुद्ध में जूझते हुए अपने प्राणों का परित्याग करके अस्त्र-शस्त्रों से पवित्र हो स्वर्गलोक में गये हैं, अतः तुम्हें उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। क्षत्रिय-धर्म में तत्पर रहने वाले, वेद-वेदाताओं के पारंगत वे शेरवीर नरेश पुण्यमयी वीर-गति को प्राप्त हुए हैं। पहले के मरे हुए महानुभाव भूपतियों का चरित्र सुनकर तुम्हें अपने उन बन्धुओं के लिये भी शेाक नहीं करना चाहिये।
इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, जैसा कि इन देवर्षि नारद जी ने पुत्र शोक से पीड़ित हुए राजा सृंजन से कहा था। ’सृंजय! मैं, तुम और ये समस्त प्रजावर्ग के लोग कोई भी सुख और दुःखों के बन्धन से मुक्त नहीं हुए हैं एक दिन हम सब लोग मरेंगे भी। फिर इसके लिये शोक क्या करना है? ’नरेश्वर! मैं पूर्ववर्ती राजाओं के महान् सौभाग्य का वर्णन करता हूँ। सुनो और सावधान हो जाओ। इससे तुम्हारा दुःख दूर हो जायगा। ’मरे हुए महानुभाव भूपतियों का नाम सुनकर ही तुम अपने मानसिक संताप को शान्त कर लो और मुझसे विस्तार पूर्वक उन सबका परिचय सुनो। ’ उन पूर्ववर्ती राजाओं का श्रवण करने योग्य मनोहर वृत्तान्त बहुत ही उत्तम, क्रूर ग्रहों को शान्त करने वाला और आयु को बढ़ाने वाला है। ’सृंजय! हमने सुना है कि अविक्षित् के पुत्र वे राजा मरुत्त भी मर गये, जिन महात्मा नरेश के यज्ञ में इन्द्र तथा वरूण सहित सम्पूर्ण देवता और प्रजापतिगण बृहस्पति को आगे करके पधारे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद)
’उन्होंने देवराज इन्द्र से स्पर्धा रखने के कारण अपने यज्ञ वैभव द्वारा उन्हें पराजि कर दिया था। इन्द्र का प्रिय चाहने वाले बृहस्पति जी ने जब उनका यज्ञ कराने से इन्कार कर दिया, तब उन्होंने छोटे-भाई संवर्त ने मरूत्तका यज्ञ कराया था। नृपश्रेष्ठ! राजा मरुत्त जब इस पृथ्वी का शासन करते थे, उस समय यह बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा करती थी और समस्त भूमण्डल में देवालयों की माला-सी दृष्टिगोचर होती थी, जिससे इस पृथ्वी की बड़ी शोभा होती थी। ’महामना मरुत्त के यज्ञ में विश्वे देवगण सभासद थे और मरूइन्द्र तथा साध्यगण रसोई परोसने का काम करते थे। ’मरुद्रोण ने मरुत्त के यज्ञ में उस समय खूब सोमरस का पान किया था। राजा ने जो दक्षिणाएँ दी थीं, वे देवताओें मनुष्यों और गन्धर्वों के सभी यज्ञों से बढकर थी। ’सृजय! धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य - इन चारों बातों में राजा मरुत्त तुम से बढ़-चढ़कर थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब औरों की क्या बात है?
अतः तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ’सृजय! अतिथिसक्तकार के प्रेमी राजा सुहोत्र भी जीवित नहीं रहे, ऐसा सुनने में आया है। उनके राज्य में इन्द्र ने एक वर्ष तक सोने की वर्षा की थी। ’राजा सुहात्र को पाकर पृथ्वी का वसुमती नाम सार्थक हो गया था। जिस समय वे जनपद के स्वामी थे, उन दिनों वहाँ की नदियाँ अपने जल के साथ-साथ सुवर्ण बहाया करती थीं। ’राजन्! लोकपूजित इन्द्र ने सोने के बने हुए बहुत से कछुए, केकड़े,नाके, मगर, सूँस और मत्स्य उन नदियों में गिराये थे। ’उन नदियों में सैकड़ों और हजारों की संख्या में सुवर्णमय मत्स्यों, ग्रहों और कछुओं को गिराया गया देख अतिथि प्रिय राजा सुहोत्र आश्चर्य चकित हो उठे थे। ’
वह अनन्त सुवर्ण राशि कुरूजांगल देश में छा गयी थी। राजा सुहोत्र न वहाँ यज्ञ किया और उसमें वह सारी धनराशि ब्राह्मणों में बाँट दी। ’श्वेतपुत्र सृजंय! वे धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य -इन चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढ़-चढ़कर थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरों क्या बात है? अतः तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो। उसने न तो कोई यज्ञ किया था और न दक्षिणा ही बाटी थी, अतः उसके लिये शोक न करो, शान्त हो जाओ। ’सृजय! अंगद देश के राजा बृहद्रथ की भी मृत्यु हुई थी, ऐसा हमने सुना है। उन्होनें यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञ में दस लाख श्वेत घोड़े और सोने के आभूषणों से भूषित दस लाख कन्याएँ दक्षिणा रूप में बाँटी थीं। ’इसी प्रकार यजमान बृहद्रथ ने उस विस्तृत यज्ञ में सुवर्ण मय कमलों की मालाओं से अलगंकृत दस लाख हाथी भी दक्षिणा में बाँटे थे। ’उन्होंने उस यज्ञ में एक करोड़ सुवर्ण मालाधारी गाय, बैल और उनके सहस्त्रों सेवक दक्षिणा रूप में दिये।यजमान अंग जब विष्णु पद पर्वत पर यज्ञ कर रहे थे, उस समय इन्द्र वहाँ सोमरस पीकर मतवाले हो उठे थे और दक्षिणाओं से ब्राह्मणों पर आनन्दोन्माद छा गया था। ’राजेन्द्र! प्राचीन काल में अंगराज ने ऐसे-ऐसे सौ यज्ञ किये थे और उन सब में जो दक्षिणाएँ दी गयी थीं, वे देवताओं, गन्धवों और मनुष्यों के यज्ञों से बढ़ गयी थीं।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 37-51 का हिन्दी अनुवाद)
’अंगराज ने सातों सोम-संस्थाओं में जो धन दिया था, उतना जो दे सके, ऐसा दूसरा न तो कोई मनुष्य पैदा हुआ है और न पैदा होगा। ’सृंजय! पूर्वोक्त चारों कल्याणकारी गुणों में वे बृहद्रथ तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्र से अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो दूसरों की क्या बात है? अतः तुम अपने पुत्र के लिये संतप्त न हो ओ। ’सृजय! जिन्होंने इस सम्पूर्ण पृथ्वी को चमड़े की भाँति लपेट लिया था (सर्वथा अपने अधीन कर लिया था) वे उशीनर पुत्र राजा शिबि भी मरे थे, यह हमने सुना है। ’वे अपने रथ की गम्भीर ध्वनि से पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए एकमात्र विजयशील रथ के द्वारा इस भूमण्डल का एकछत्र शासन करते थे।’
आज संसार में जंगली पशुओं सहित जितने गाय-बैल और घोड़े हैं, उतनी संख्या में उशीनर पुत्र शिबि ने अपने यज्ञ में केवल गौओं का दान दिया किया। सृजय! प्रजापति ब्रह्मा ने इन्द्र के तुल्य पराक्रमी उशीनर पुत्र राजा शिबि के सिवा सम्पूर्ण राजाओं में भूत या भविष्य अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम- ये सात सोम संस्थाएँ हैं। काल के दूसरे किसी राजा को ऐसा नहीं माना, जो शिबि का कार्यभार वहन कर सकता हो। ’सृंजय! राजा शिबि पूर्वोक्त चारों कल्याणकारी बातों में तुमसे बहुत बढ़े-चढे थे। तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे।
जब वे भी मर गये, तब दूसरे की क्या बात है, अतः तुम आने पुत्र के लिये शोक मत करो। उसने न तो कोई यज्ञ किया था, न दक्षिणा ही दी थी; अतः उस पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। ’सृंजय! दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र महाधनी महा मनस्वी भरत भी मृत्यु भी मृत्यु के अधीन हो गये, यह हमने सुना था। ’उन महातेजस्वी दुष्यन्त कुमार भरत ने पूर्वकाल में देवताओं की प्रसन्नता के लिये यमनुा के तट पर चैदह घोड़े बाँधकर उतने-उतने अश्वमेध यज्ञ किये थे।[1]उन्होंने अपने जीवन में एक सहस्त्र अश्वमेघ और सौ राजसूय यज्ञ सम्पन्न किये थे। ’जैसे मनुष्य दोनों भुजाओं से आकाश को तैर नहीं सकते, उसी प्रकार सम्पूर्ण राजाओं में भरत का जो महान् कर्म है, उसका दूसरे राजा अनुकरण न कर सके। ’
उन्होंने सहस्त्र से भी अधिक घोड़े बाँधे और यज्ञ-वेदियों का विस्तार करके अश्वमेध यज्ञ किये। उसमें भरत ने आचार्य कण्व को एक हजार सुवर्ण के बने हुए कमल भेंट किये। ’ सृंजय! वे साम, दान, दण्ड और भेद- इन चार कल्याणमयी नीतियों अथवा धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य और ऐश्वर्य- इन चार मंगलकारी गुणों में तुम से बहुत बढे़ हुए थे। तुम्हारे पुत्र की अपेक्षा भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरा कौन जीवित रह सकता है। अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। ’सृंजय! सुनने में आया है कि दशरथ नन्दन भगवान श्री राम जी यहाँ से परम धाम को चले गये थे, जो सदा अपनी प्रजा पर वैसी ही कृपा रखते थे, जैसे-पिता अपने औरस पुत्रों पर रखता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 52-69 का हिन्दी अनुवाद)
’उनके राज्य में कोई भी स्त्री अनाथ-विधवा नहीं हुई। श्री रामचन्द्र जी ने जब तक राज्य का शासन किया, तब तक वे अपनी प्रजा के लिये सदा ही पिता के समान कृपालु बने रहे। ’मेघ समय पर वर्षा करके खेती को अच्छे ढंग से सम्पन्न करता था- उसे बढ़ने और फूलने-फलने का अवसर देता था। राम के राज्य-शासन काल में सदा सुकाल ही रहता था (कभी अकाल नहीं पड़ता था)।’राम के राज्य का शासन करते समय कभी कोई प्राणी जल में नहीं डूबते थे, आग अनुचित रूप से कभी किसी को नहीं जलाती थी तथा किसी को रोग का भय नहीं होता था। ’श्री रामचन्द्र जी जब राज्य का शासन करते थे, उन दिनों हजार वर्ष तक जीने वाली स्त्रियाँ और सहस्त्रों वर्ष तक जीवित रहने वाले पुरुष थे। किसी को कोई रोग नहीं सताता था, सभी के सारे मनोरथ सिद्ध होते थे।
’स्त्रियों में भी परस्पर विवाद नहीं होता था; फिर पुरुषों की तो बात ही क्या है? श्री राम के राज्य-शासन काल में समस्त प्रजा सदा धर्म में तत्पर रहती थी। ’श्री रामचन्द्र जी जब राज्य करते थे, उस समय सभी मनुष्य संतुष्ट, पूर्ण काम, निर्भय, स्वाधीन और सत्यव्रती थे। ’श्री राम के राज्यशासन काल में सभी वृक्ष बिना किसी विघ्न-बाधा के सदा फले-फूले रहते थे और समस्त गौएँ एक-एक दोन दूध देती थीं। ’महा तपस्वी श्री राम ने चैदह वर्षों तक वन में निवास करके राज्य पाने के अनन्तर दस ऐसे अश्वमेध यज्ञ किये, जो सर्वथा स्तुति के योग्य थे तथा जहाँ किसी भी याचक के लिये दरवाजा बंद नहीं होता था। ’श्री रामचन्द्र जी नवयुवक और श्याम वर्ण वाले थे। उनकी आँखों में कुछ-कुछ लालिमा शोभा देती थी। वे यूथ पति गजराज के समान शक्तिशाली थ्ज्ञे। उनकी बड़ी-बड़ी भूजाएँ घुटनों तक लंबी थी। उनका मुख सुन्दर और कंधे सिंह के समान थे। ’
श्री राम ने अयोध्या के अधिपति होकर ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य किया था। ’सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी यहाँ रह न सके, तब दूसरों की क्या बात है? अतः तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। ’सृंजय! राजा भागीरथ भी काल के गाल में चले गये, ऐसा हमने सुना है। जिनके विस्त्रृत यज्ञ में सोम पीकर मदोन्मत्त हुए सुरश्रेष्ठ भगवान पाकशासन इन्द्र ने अपने बाहुबल से कई सहस्त्र असुरों को पराजित किया।
’जिन्होने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञ में सोने के आभूषणों से विभूषित दस लाख कन्याओं का दक्षिणा रूप में दान किया था। ’वे सभी कन्याएँ अलग-अलग रथ में बैठी हुई थीं। प्रत्येक रथ में चार-चार घोडे़ जुते हुए थे। हर एक रथ के पीछे सोने की मालाओं से विभूषित तथा मस्तक पर कमल के चिन्हों से अलंकृत सौ-सौ हाथी थे। ’प्रत्येक हाथी के पीछे एक-एक हजार घोडे़, हर एक घोडे़ के पीछे हजार-हजार गायें और एक-एक गाय के साथ हजार-हजार भेड़-बकरियाँ चल रही थीं। ’तट के निकट निवास करते समय गंगा जी राजा भागीरथ की गोद में आ बैठी थीं। इसलिये वे पूर्वकाल में भागीरथी और उर्वशी नाम से प्रसिद्ध हुई। ’त्रिपथगामिनी गंगा ने पुत्री भाव को प्राप्त होकर पर्याप्त दक्षिणा देने वाले इक्ष्वाकुवशी यजमान भगीरथ को अपना पिता माना।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 70-86 का हिन्दी अनुवाद)
सृंजय! वे पूर्वांक्त चारों बातों में तुमसे बहुत बढे़-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्र से अधिक पुण्यात्मा थे, जब वे भी काल से न बच सके तो दूसरों के लिये क्या कहा जा सकता है? अतः तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ’सृंजय! महामना राजा दिलीप भी मरे थे, यह सुनने में आया है। उनके महान् कर्मों का आज भी ब्राह्मण लोग वर्णन करते हैं। ’एकाग्रचित्त हुए उन नरेश ने अपने उस महायज्ञ में रत्न और धन से परिपूर्ण इस सारी पृथ्वी का ब्राह्मणों के लिये दान कर दिया ।
’यजमान दिलीप के प्रत्येक यज्ञ में पुरोहित जी सोने के बने हुए एक हजार हाथी दक्षिणा रूप में पाकर उन्हें अपने घर ले जाते थे। ’उनके यज्ञ में सोने का बना हुआ कान्तियुक्त बहुत बड़ा यूप शोभा पाता था। यज्ञ कर्म करते हुए इन्द्र आदि देवता सदा उसी यूप का आश्रय लेकर रहते थे। ’उनके उस सुवर्णमय यूप में जो सोने का चषाल (घेरा) बना था, उसके ऊपर छह हजार देवगन्धर्व नृत्य किया करते थे। वहाँ साक्षात् विश्वावसु बीच में बैठकर सात स्वरों के अनुसार बीणा बजाया करते थे। उस समय सब प्राणी यही समझते थे कि ये मेरे आगे बाजा बजा रहे हैं। ’ राजा दिलीप के इस महान् कर्म का अनुसरण दूसरे राजा नहीं कर सके। उनके सुनहरे साज-बाज और सोने के आभूषणों से सजे हुए मतवाले हाथी रास्ते पर सोये रहते थे। सत्यवादी शतधन्वा महामनस्वी राजा दिलीप का जिन लोगों ने दर्शन किया था, उन्होंने भी स्वर्गलोग को जीत लिया। ’महाराज दिलीप के भवन में वेदों के स्वाध्याय का गम्भीर घोष, शूरवीरों के धनुष की टंकार तथा ’दान दो’ की पुकार- ये तीन प्रकार के शब्द कभी बंद नहीं होते थे। ’’सृंजय! वे राजा दिलीप चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढ़कर थे। तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे।
जब वे भी मर गये तो दूसरों की क्या बात है? अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये ’सृजय! जिन्हें मरुत्! नामक देवताओं ने गर्भावस्था में पिता के पाश्र्व भाग को फाड़कर निकाला था, वे युवनाश्वर के मान्धाता भी मृत्यु के अधीन हो गये, यह हमारे सुनने में आया है। त्रिलोक विजयी श्रीमान् राजा मान्धाता पृषदाज्य (दधिमिश्रित घी जो पुत्रोत्पत्ति के लिये तैयार करके रक्खा गया था) से उत्पन्न हुए थे। वे अपने पिता महामना युवनाश्वर के पेट में ही पले थे।’जब वे शिशु- अवस्था में पिता के पेट से पैदा हो उनकी गोद में सो रहे थे, उस समय उनका रूप देवताओं के बालकों के समान दिखायी देता था। उस अवस्था में उन्हें देखकर देवता आपस में बात करने लगे ’यह मातृहीन बालक किसका दूध पीयेगा। ’यह सुनकर इन्द्र बोल उठे माँ ’धाता-मेरा दूध पीयेगा।’ जब इन्द्र ने इस प्रकार उसे पिलाना स्वीकार कर लिया, तब से उन्होंने ही उस बालक का नाम ’मान्धाता’ रख दिया ।
’तदनन्तर उस महामनस्वी बालक युवनाश्वर कुमार की पुष्टि के लिये उसके मुख में इन्द्र के हाथ से दूध की धारा झरने लगी। ’इन्द्र के उस हाथ को पीता हुआ वह बालक एक ही दिन में सौ दिन के बराबर बढ़ गया। बारह दिनों में राजकुमार मान्धाता बारह वर्ष की अवस्था वाले बालक के समान हो गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 87-102 का हिन्दी अनुवाद)
’राजा मान्धाता बड़े धर्मात्मा और महामनस्वी थे। युद्ध में इन्द्र के समान शौर्य प्रकट करते थे। यह सारी पृथ्वी एक ही दिन मे उनके अधिकार में आ गयी थी। ’मान्धाता ने समरांगण में राजा अंगराज, मरुत्त, असित, गय तथा अंगराज बृहद्रथ को भी पराजित कर दिया। ’जिस समय युवनाश्वर पुत्र मान्धाता ने रणभूमि में राजा अंगराज के साथ युद्ध किया था, उस समय देवताओं ने ऐसा समझा कि ’उनके धुनष की टंकार से सारा आकाश ही फट पड़ा है,।’
जहाँ सूर्य उदय होते हैं वहाँ से लेकर जहाँ अस्त होते हैं वहाँ तक सारा देश युवनाश्वर पुत्र मान्धता का ही राज्य कहलाता था। ’प्रजा नाथ! उन्होंने सौ अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञ करके दस योजन लंबे तथा एक योजन ऊँचे बहुत से सोने के रोहित नामक मत्स्य बनवाकर ब्राह्मणों को दान किये थे। ब्राह्ममणों के ले जाने से जो बच गये, उन्हें दूसरे लोगों ने बाँट लिया। ’सृंजय! राजा मान्धाता चारों कल्याणमय गुणों में तुम से बढे-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मारे गये, तब तुम्हारे पुत्र की क्या बिसात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो। ’सृजय! नहुष पुत्र राजा ययाति भी जीवित न रह सके यह हमने सुना है। उन्होंने समुद्रों सहित इस सारी पृथ्वी को जीतकर शम्यापात के द्वारा पृथ्वी को नाप-नापकर यज्ञ की वेदियाँ बनायीं, जिनसे भूतल की विचित्र शोभा होने लगी। उन्हीं वेदियों पर मुख्य-मुख्य यज्ञों का अनुष्ठान करते हुए उन्होंने सारी भारत भूमि की परिक्रमा कर डाली। ’
उन्होंने एक हजार श्रौतयज्ञों और सौ वाजपेय यज्ञों का अनुष्ठान किया तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणों को सोने के तीन पर्वत दान करके पूर्णतः संतुष्ट किया। ’नहुषपुत्र ययाति ने व्यूह-रचना युक्त आसुर युद्ध के द्वारा दैत्यों और दानवों का संहार करके यह सारी पृथ्वी अपने पुत्रों को बाँट दी थी ’उन्होंने किनारे के प्रदेशों पर अपने तीन पुत्र यदु, द्रुह्य तथा अनु को स्थापित करके मध्य भारत के राज्य पर पुरु को अभिषिक्त किया; फिर अपनी स्त्रियों के साथ वे वन में चले गये ’सृजय! वे तुम्हारी अपेक्षा चारों कल्याणमय गुणों में बढ़े हुए थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारा पुत्र किस गिनती में है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो ’सृंजय! हमने सुना है कि नाभाग के पुत्र अम्बरीष भी मृत्यु के अधीन हो गये थे । उन नृपश्रेष्ठ अम्बरीष को सारी प्रजा ने अपना पुण्यमय रक्षक माना था।
’ब्राह्मणों के प्रति अनुराग रखने वाले राजा अम्बरीषने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञ मण्डप में दस लाख ऐसे राजाओं को उन ब्राह्मणों की सेवा में नियुक्त किया था, जो स्वयं भी दस-दस हजार यज्ञ कर चुके थे। ’उन यज्ञ कुशल ब्राह्मणों ने नाभागपुत्र अम्बरीष की सराहना करते हुए कहा था कि ’ऐसा यज्ञ न तो पहले के राजाओं ने किया है और न भविष्य में होने वाले ही करेंगे,।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 103-121 का हिन्दी अनुवाद)
’उनके यज्ञ में एक लाख दस हजार राजा सेवा कार्य करते थे। वे सभी अश्वमेध यज्ञ का फल पाकर दक्षिणायन के पश्चात् आने वाले उत्तरायण मार्ग से ब्रह्मलोक में चले गये थे। ’सृंजय! राजा अम्बरीष चारों कल्याणकारी गुयों में तुमसे बढ़कर थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी जीवित न रह सके तो दूसरे के लिये क्या कहा जा सकता है? अतः तुम अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक न करो। ’सृंजय! हम सुनते हैं कि चित्र रथ के पुत्र शशबिन्दु भी मृत्यु से अपनी रक्षा न कर सके। उन महामना नरेश के एक लाख रानियाँ थी और उनके गर्भ से राजा के दस लाख पुत्र उत्पन्न हुए थे। ’ वे सभी राजकुमार सुवर्णमय कवच धारण करने वाले और उत्तम धनुर्धर थे। एक-एक राजकुमार को अलग-अलग सौ-सौ कन्याएँ व्याही गयी थीं। प्रत्येक कन्या के साथ सौ-सौ हाथी प्राप्त हुए थे। हर एक हाथी के पीछे सौ-सौ रथ मिले थे। ’प्रत्येक रथ के साथ सुवर्ण मालाधारी सौ-सौ घोडे़ थे। हर एक अश्व के साथ सौ गायें और एक-एक गाय के साथ सौ-सौ भेड़-बकरियाँ प्राप्त हुई थीं। ’महाराज! राजा शशबिन्दु ने यह अनन्त धनराशि अश्वमेध नामक महायज्ञ में ब्राह्मणों को दान कर दी थी। ’
सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मृत्यु से बच न सके, तब तुम्हारे पुत्र के लिये क्या कहा जाय? अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। ’सृंजय! सुनने में आया है कि अमूर्तरया के पुत्र राजा गय की भी मृत्यु हुई थी। उन्होंने सौ वर्षां तक होम से अवशिष्ट अन्न का ही भोजन किया। ’एक समय अग्निदेव ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा, तब राजा गयने ये वर माँगे, ’अग्निेदव! आपकी कृपा से दान करते हुए मेरे पास अक्षय धन का भंडार भरा रहे। धर्म में मेरी श्रद्धा वढ़ती रहे और मेरा मन सदा सत्य में ही अनुरक्त रहे’। ’सुना है कि उन्हें अग्नि देव से वे सभी मनोवाच्छित फल प्राप्त हो गये थे। उन्होंने एक हजार वर्षां तक बारंबार दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य तथा अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। ’वे हजार वर्षों तक प्रतिदिन सबेरे उठ-उठ कर एक-एक लाख गौओं और सौ-सौ खच्चरों का दान करते थे। ’पुरुष प्रवर! इन्होंने सोमरस के द्वारा देवताओं को, धन के द्वारा ब्राह्मणों को, श्राद्ध कर्म से पितरों को और कामभोग द्वारा स्त्रियों को तृप्त किया था।
’राजा गयने महायज्ञ अश्वमेध में दस व्याम (पचास हाथ) चैड़ी ओर इससे दूनी लंबी सोने की पृथ्वी बनवाकर दक्षिणा रूप से दान की थी। ’पुरुष प्रवर नरेश! गंगा जी में जितने बालू के कण हैं, अमूर्तरया के पुत्र गयने उतनी ही गौओं का दान किया था। ’सृंजय! वे चारों कल्याण कारी गुणों में तुमसे बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी गये तो तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो। ’सृजय! संस्कृति के पुत्र राजा रन्तिदेव भी काल के गाल में चले गये, यह हमारे सुनने में आया है। उन महातपस्वी नरेश ने इन्द्र की अच्छी तरह आराधना करके उनसे यह बर माँगा कि ’हमारे पास अन्न बहुत हो’ हम सदा अतिथियों की सेवा अवसर प्राप्त करें, हमारी श्रद्धा दूर न हो और हम किसी से कुछ भी न माँगें,।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 122-138 का हिन्दी अनुवाद)
’कठोर व्रत का पालन करने वाले, यशस्वी महात्मा राजा रन्तिदेव के पास गाँवों और जंगलों के पशु अपने-आप यज्ञ के लिये उपस्थित हो जाते थे। वहाँ भीगी चर्म राशि से जो जल बहता था, उससे एक विशाल नदी प्रकट हो गयी, जो चर्मण्वती (चम्बल) के नाम से विख्यात हुई। ’राजा अपने विशाल यज्ञ में ब्राह्मणों को सोने के निष्क दिया करते थे। वहाँ द्व्जिलोग पुकार-पुकार कहते कि ’ब्राह्मणों! यह तुम्हारे लिये निष्क है, यह तुम्हारे लिये निष्क है’ परंतु कोई लेने वाला आगे नहीं बढ़ता था। फिर वे यह कहरक कि ’तुम्हारे लिये एक सहस्त्र निष्क है’, लेने वाले ब्राह्मणों को उपलब्ध कर पाते थे। ’बुद्धिमान राजा रन्तिदेव के उस यज्ञ में अन्वाहार्य अग्नि में आहुति देने के लिये जो उपकरण थे तथा द्रव्य-संग्रह के लिये जो उपकरण-घड़े, पात्र कड़ाहे, बटलोई और कठौते आदि समान थे, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था, जो सोने का बना हुआ न हो। संस्कृति के पुत्र राजा रन्ति देव के घर में जिस रात को अतिथियों का समुदाय निवास करता था, उस समय उन्हें बीस हजार एक सौ गौएँ छूकर दी जीती थीं। ’वहाँ विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण किये रसोइये पुकार पुकार कर कहते थे कि ’आप लोग खूब दाल-भात खाइये। आज का भोजन पहले जैसा-नहीं है, अर्थात् पहले की अपेक्षा बहुत अच्छा है’।
सृंजय! रन्ति देव तुम से पूर्वोंक्त चारों गुणों में बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो।
’सृंजय! इक्ष्वा कुवंशी पुरुष सिंह महामना सगर भी मरे थे, ऐसा सुनने में आया है। उनका पराक्रम अलौकिक था। ’जैसे वर्षा के अन्त (शरद्) में बादलों से रहित आकाश के भीतर तारे नक्षत्र राज चन्द्रमा का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार राजा सगर जब युद्ध आदि के लिये कहीं यात्रा करते थे, तब उनके साठ हजार पुत्र उन नरेश के पीछे-पीछे चलते थे। ’पूर्वकाल में राजा के प्रताप से एकछत्र पृथ्वी उनके अधिकार में आ गयी थी। उन्होंने एक सहस्त्र अश्वमेध यज्ञ करके देवताओं को तृप्त किया था। ’राजा ने सोने के खंभों से युक्त पूर्णतः सोने का बना हुआ महल, जो कमल के समान नेत्रोंवाली सुन्दरी स्त्रियों की शय्याओं से सुशोभित था, तैयार कराकर योग्य ब्राह्मणों को दान किया। साथ ही नाना प्रकार की भोग सामग्रियाँ भी प्रचुरमात्रा में उन्हें दी थीं। उनके आदेश से ब्राह्मणों ने उनका सारा धन आपस में बाँट लिया था। ’एक समय क्रोध में आकर उन्होंने समुद्र से चिन्हित सारी पृथ्वी खुदवा डाली थी। उन्हीं के नाम पर समुद्र की ’सागर’ संज्ञा हो गयी। ’सृजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़ हुए थे। तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो।
’सृंजय! बेन के पुत्र महाराज पृथु को भी अपने शरीर का त्याग करना पड़ा था, ऐसा हमने सुना है। महर्षियों ने महान् वन में एकत्र होकर उनका राज्याभिषेक किया था। ’ऋषियों ने यह सोचकर कि सब लोगों में धर्म की मर्यादा के प्रथित (स्थापित) करेंगे, उनका नाम पृथु रक्खा था। वे क्षत अर्थात् दुःख से सबका त्राण करते थे, इसलिये क्षत्रिय कहलाये।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 139-149 का हिन्दी अनुवाद)
’वेन नन्दन पृथु को देखकर समस्त प्रजाओं ने एक साथ कहा कि ’हम इनमें अनुरक्त हैं’ इस प्रकार प्रजा का रंजन करने के कारण ही उनका नाम ’राजा’ हुआ। ’पृथृ के शासन काल में पृथ्वी बिना जोते ही धान्य उत्पन्न करती थी, वृक्षों के पुट-पुट में मधु(रस) भरा था और सारी गौएँ, एक-एक दोन दूध देती थीं। ’मनुष्य नीरोग थे। उनकी सारी कामनाएँ सर्वथा परिपूर्ण थीं और उन्हें कभी किसी चीज से भय नहीं होता था। सब लोग इच्छानुसार घरों या खेतों में रह लेते थे। ’जब वे समुद्र की ओर यात्रा करते, उस समय उसका जल स्थिर हो जाता था। नदियों की बाढ़ शान्त हो जाती थी। उनके रथ की ध्वजा कभी मग्न नहीं होती थी। ’राजा पृथु ने अश्वमेध नामक महायज्ञ में चार सौ हाथ ऊँचे इक्कीस सुवर्णमय पर्वत ब्राह्मणों को दान किये थे। ’सृजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र की अपेक्षा बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक न करो।
’सृंजय! तुम चुपचाप क्या सोच रहे हो। राजन्! मेरी इस बात को क्यों नहीं सुनते हो? जैसे मरणासन्न पुरुष के ऊपर अच्छी तरह प्रयोग में लायी हुई औषधि व्यर्थ जाती है, उसी प्रकार मेरा यह सारा प्रवचन निष्फल तो नहीं हो गया?,
सृंजय ने कहा ;- नारद्! पवित्र गन्धवाली माला के समान विचित्र अर्थ से भरी हुई आपकी इस वाणी को मैं सुन रहा हूँ। पुण्यात्मा महामनस्वी और कीर्तिशाली राजर्षियों के चरित्र से युक्त आपका यह वचन सम्पूर्ण शोकों का विनाश करने वाला है। महर्षि नारद! आपने जो कुछ कहा है, आपका वह उपदेश व्यर्थ नहीं गया है। आपका दर्शन करके ही मैं शोक रहित गया हूँ। ब्रह्मवादी मुने! मैं आपका यह तृत्प नहीं हो रहा हूँ और अमृतपान के समान उससे तृप्त नहीं हा रहा हो रहा हूँ। प्रभो! अपका दर्शन अमोध है। मैं पुत्र शोक के संताप से दग्ध हो रहा हूँ। यदि आप मुझपर कृपा करें तो मेरा पुत्र फिर जीवित हो सकता है और आपके प्रसाद से मुझे पुनः पुत्र-मिलन का सुख सुलभ हो जायेगा।
नारद् जी कहते हैं ;- राजन् तुम्हारे यहाँ जो यह सुवर्णष्ठीबी नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था और जिसे पर्वत मुनि ने तुम्हें दिया था, वह तो चला गया। अब तो चला गया । अब मे पुनः हिरण्यनाभ नामक नाम एक पुत्र दे रहा हूँ, जिसकी आयु एक हजार वर्षों की होगी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में सोलह राजाओं का उपाख्यान विषयक उन्नतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
तीसवाँ अध्याय
“महर्षि नारद और पर्वतका उपाख्यान”
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीसवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
युधिष्ठिरने पूछा ;- भगवन् ! पर्वत मुनिने राजा सुंजयको सुवर्णष्ठीवी नामक पुत्र किस लिये दिया और वह क्यों मर गया जब उस समय मनुष्यकी एक हजार वर्षकी आयु होती थी, तब सुंजयका पुत्र कुमारावस्था आनेसे पहले ही क्यों मर गया ?
उस बालकका नाममात्र ही सुवर्णष्ठीवी था या उसमें वैसा ही गुण भी था। सुवर्णष्ठीवी नाम पड़नेका कारण क्या था ? यह सब मैं जानना चाहता हूँ।
श्रीकृष्ण बोले ;- जनेश्वर ! इस विषयमें जो बात है, वह यथार्थरूपसे बता रहा हूँ, सुनिये। नारद और पर्वत- ये दोनों ऋषि सम्पूर्ण लोकोंमें श्रेष्ठ हैं। ये दोनों परस्पर मामा और भानजे लगते हैं! प्रभो ! पहलेकी बात है ये दोनों महर्षि मनुष्यलोकमें भ्रमण करनेके लिये प्रेमपूर्वक देवलोक से यहाँ आये थे, वे यहाँ पवित्र हविष्य तथा देवताओंके भोजन करने योग्य पदार्थ खाकर रहते थे। नारदजी मामा हैं और पर्वत इनके भानजे हैं । वे दोनों तपस्वी पृथ्वीतलपर विचरते और मानवीय भोगोंका उपभोग करते हुए यहाँ यथावत्रूपसे परिभ्रमण करने लगे, उन दोनोंने बड़ी प्रसन्नताके साथ प्रेमपूर्वक यह शर्त कर रक्खी थी कि हमलोगोंके मनमें शुभ या अशुभ जो भी संकल्प प्रकट हो, उसे हम एक दूसरेसे कह दें; अन्यथा झूठे ही शापका भागी होना पड़ेगा।
वे दोनों लोकपूजित महर्षि 'तथास्तु' कहकर पूर्वोक्त प्रतिशा करनेके पश्चात् श्वेतपुत्र राजा शृंजयके पास जाकर इस प्रकार बोले,-
वे दोनों बोले ;- भूपाल ! हम दोनों तुम्हारे हितके लिये कुछ कालतक तुम्हारे पास ठहरेंगे । तुम हमारे अनुकूल होकर रहो'।
तब 'बहुत अच्छा' कहकर राजाने उन दोनोंका सत्कार- पूर्वक पूजन किया । तदनन्तर एक दिन राजा सुंजयने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन दोनों तपस्वी महात्माओंसे कहा,-
राजा सुंजय ने कहा ;- 'महर्षियो ! यह मेरी एक ही कन्या है, जो परम सुन्द्री, दर्शनीय, निर्दोष अनों बाली तथा शील और सदाचारसे सम्पन्न है। कमल-केसरके समान कान्तिवाली यह सुकुमारी कुमारी आजसे आप दोनोंकी सेवा करेगी'।
तब उन दोनोंने कहा ;- 'बहुत अच्छा।' इसके बाद राजाने उस कन्याको आदेश दिया- 'बेटी! तुम इन दोनों महर्षियोंकी देवता और पितरोंके समान सेवा किया करो' धर्माचरणमें तत्पर रहनेवाली उस कन्याने पितासे ऐसा ही होगा' यों कहकर राजाकी आशाके अनुसार उन दोनोंकी सत्कारपूर्वक सेवा आरम्भ कर दी,
उसकी उस सेवा तथा अनुपम रूप-सौन्दर्यसे नारदके हृदयमें सहसा कामभावका संचार हो गया। उन महामनस्वी नारदके हृदयमें काम उसी प्रकार धीरे- धीरे बढ़ने लगा, जैसे शुक्लपक्ष आरम्भ होनेपर शनैः शनैः चन्द्रमाकी वृद्धि होती है। धर्मज्ञ नारदने लजावश भानजे महात्मा पर्वतको अपने बढ़े हुए दुःसह कामकी बात नहीं बतायी, परंतु पर्वतने अपनी तपस्या और नारदजीकी चेष्टाऔसे जान लिया कि नारद कामवेदनासे पीड़ित हैं। फिर तो उन्होंने अत्यन्त कुपित हो उन्हें शाप देते हुए कहा-
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीसवें अध्याय के श्लोक 20-44 का हिन्दी अनुवाद)
पर्वत ने कहा :- 'आपने मेरे साथ स्वस्थञ्चित्तसे यह शर्त की थी कि 'हम दोनोंके हृदयमें जो भी शुभ या अशुभ संकल्प हो, उसे हम दोनों एक दूसरेसे कह दें।' परंतु ब्रह्मन् ! आपने अपने उस वचनको मिथ्या कर दिया; इसलिये मैं शाप देनेको उद्यत हुआ हूँ।
'जब आपके मनमें पहले इस सुकुमारी कुमारीके प्रति कामभावका उदय हुआ तो आपने मुझे नहीं बताया; इसलिये यह मैं आपको शाप दे रहा हूँ ॥
'आप ब्रह्मचारी, मेरे गुरुजन, तपस्वी और ब्राह्मण हैं तो भी आपने हमलोगोंमें जो शर्त हुई थी, उसे तोड़ दिया है; इसलिये मैं अत्यन्त कुपित होकर आपको जो शाप दे रहा हूँ उसे सुनिये। 'प्रभो ! यह सुकुमारी आपकी भार्या होगी, इसमें संशय नहीं है, परंतु विवाहके बादसे ही कन्या तथा अन्य सब लोग आपका रूप (मुख) वानरके समान देखने लगेंगे। बंदर जैसा मुँह आपके स्वरूपको छिपा देगा'।
उस बातको समझकर मामा नारदजी भी कुपित हो उठे और उन्होंने अपने भानजे पर्वतको शाप देते हुए कहा,
नारद ने कहा ;-- 'अरे ! तू तपस्याः ब्रह्मचर्य, सत्य और इन्द्रिय संयमसे युक्त एवं नित्य धर्मपरायण होनेपर भी स्वर्गलोकमें नहीं जा सकेगा'।
इस प्रकार अत्यन्त कुपित हो एक दूसरेको शाप दे वे दोनों क्रोधमें भरे हुए दो हाथियों के समान अमर्षपूर्वक प्रतिकूल दिशाओंमें चल दिये, भारत ! परम बुद्धिमान् पर्वत अपने तेजसे यथोचित सम्मान पाते हुए सारी पृथ्वीपर विचरने लगे, इधर विप्रवर नारदजीने उस अनिन्द्य सुन्दरी सुंजय- कुमारी सुकुमारीको धर्म के अनुसार पत्नीरूपमें प्राप्त किया, वैवाहिक मन्त्रोंका प्रयोग होते ही वह राजकन्या शापके अनुसार नारद मुनिको वानराकार मुखसे युक्त देखने लगी। देवर्षि का मुँह वानरके समान देखकर भी सुकुमारीने उनकी अवहेलना नहीं की। वह उनके प्रति अपना प्रेम बढ़ाती ही गयी। पतिपर स्नेह रखनेवाली सुकुमारी अपने स्वामीकी सेवामें सदा उपस्थित रहती और दूसरे किसी पुरुषका, वह यक्ष, मुनि अथवा देवता ही क्यों न हो, मनके द्वारा भी पतिरूपसे चिन्तन नहीं करती थी।
तदनन्तर किसी समय भगवान् पर्वत घूमते हुए किसी एकान्त वनमें आ गये। वहाँ उन्होंने नारदजीको देखा। तब पर्वतने नारदजीको प्रणाम करके कहा,
पर्वत ने कहा ;- 'प्रभो ! आप मुझे स्वर्गमें जानेके लिये आशा देनेकी कृपा करें' नारदजीने देखा, पर्वत दीनभावसे हाथ जोड़कर मेरे पास खड़ा है; फिर तो वे स्वयं भी अत्यन्त दीन होकर उनसे बोले-
नारद जी ने कहा ;- 'वत्स ! पहले तुमने मुझे यह शाप दिया था कि 'तुम वानर हो जाओ।' तुम्हारे ऐसा कहनेके बाद मैंने भी मत्सरता- वश तुम्हें शाप दे दिया, जिससे आजतक तुम स्वर्गमें नहीं जा सके। यह तुम्हारे योग्य कार्य नहीं था क्योंकि तुम मेरे पुत्र- की जगहपर हो'।
इस प्रकार बातचीत करके उन दोनों ऋषियोंने एक दूसरेके शापको निवृत्त कर दिया। तब नारदजीको देवताके समान तेजस्वी रूपमें देखकर सुकुमारी पराये पतिकी आशङ्का- से भाग चली।
उस सती साध्वी राजकन्याको भागती देख पर्वतने इससे कहा,
पर्वत ने कहा ;- देवि! ये तुम्हारे पति ही हैं। इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। ये तुम्हारे पति अभेद्य हृदयवाले परम धर्मात्मा प्रभु भगवान् नारद मुनि ही हैं। इस विषयमें तुम्हें संदेह नहीं होना चाहिये',
महात्मा पर्वतके बहुत समझाने-बुझानेपर पतिके शाप- दोषकी बात सुनकर सुकुमारीका मन स्वस्थ हुआ । तत्पश्चात् पर्वतमुनि स्वर्गमें लौट गये और नारदजी सुकुमारीके घर आये।
श्रीकृष्ण कहते हैं :- नरश्रेष्ठ ! भगवान् नारद ऋषि इन सब घटनाओंके प्रत्यक्षदर्शी हैं। तुम्हारे पूछनेपर ये सारी बातें बता देंगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में नारद और पर्वतका उपाख्यानविषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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