सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
इक्कीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) इक्कीसवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“देवस्थान मुनिके द्वारा युधिष्ठिरके प्रति उत्तम धर्मका और यज्ञादि करनेका उपदेश”
देवस्थान कहते हैं ;-- राजन् ! इस विषयमें लोग इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। किसी समय इन्द्रके पूछनेपर वृहस्पतिने इस प्रकार कहा था,-
राजन् ! मनुष्यके मनमें संतोष होना स्वर्गकी प्राप्तिसे भी बढ़कर है। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मनमें भलीभाँति प्रतिष्ठित हो जाय तो उससे पढ़कर संसारमें कुछ भी नहीं है। जैसे कछुआ अपने अङ्गौंको सब ओरसे सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार जब मनुष्य अपनी सब कामनाओंको सब ओरसे समेट लेता है, उस समय तुरंत ही ज्योतिः स्वरूप आत्मा अपने अन्तःकरणमें प्रकाशित हो जाता है। 'जब मनुष्य किसीसे भय नहीं मानता और जब उससे कुन्तीनन्दन ! इस प्रकार सम्पूर्ण जीव उस-उस धर्मका उसी-उसी प्रकारसे जब ठीक-ठीक पालन करते हैं, तब स्वयं आत्मासे परमात्माका साक्षात्कार कर लेते हैं।
अतः भरत- नन्दन ! इस समय तुम अपना कर्तव्य समझो। कुछ लोग साम (प्रेमपूर्ण बर्ताव) की प्रशंसा करते हैं और कोई व्यायाम (यत्न और परिश्रम के गुण गाते हैं। कोई इन दोनोंर्मेसे एक (साम) की प्रशंसा नहीं करते हैं तो कोई दूसरे (व्यायाम) की तथा कुछ लोग दोनोंकी ही बड़ी प्रशंसा करते हैं। कोई यज्ञको ही अच्छा बताते हैं तो दूसरे लोग संन्यासकी ही सराहना करते हैं। कोई दान देनेके प्रशंसक हैं तो कोई दान लेने के। कोई सब छोड़कर चुपचाप भगवान्के ध्यानमें लगे रहते हैं और कुछ लोग मार-काट मचाकर शत्रुओंकी सेनाको विदीर्ण राज्य पाने के अनन्तर प्रजापालन रूपी धर्म की प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे लोग एकान्तमें रहकर आत्मचिन्तन करना अच्छा समझते हैं। इन सब बातोंपर विचार करके विद्वानोंने ऐसा निश्चय किया है कि किसी भी प्राणीले द्रोह न करके जिस धर्मका पालन होता है। वही साधु पुरुषोंकी रायमें उत्तम धर्म है।
किसीसे द्रोहन करना, सत्य बोलना, (बलिवैश्वदेव कर्मद्वारा) समस्त प्राणिर्योको यथायोग्य उनका भाग समर्पित करना, सबके प्रति दयाभाव बनाये रखना, मन और इन्द्रियोंका संयम करना, अपनी ही पत्रीसे संतान उत्पन्न करना तथा मृदुता, लज्जा एवं अचञ्चलता आदि गुणोंको अपनाना-ये श्रेष्ठ एवं अभीष्ट धर्म हैं, ऐसा खायम्भुव मनुका कथन है।
कुन्तीनन्दन ! अतः तुम भी प्रयत्नपूर्वक इस धर्मका पालन करो। जो क्षत्रियनरेश राज्यसिंहासनपर स्थित हो अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको सदा अपने अधीन रखता है, प्रिय और अप्रियको समानदृष्टिले देखता है, यशते बचे हुए अन्नका भोजन करता है, शास्त्रोंके यथार्थ रहस्यको जानता है, दुष्टशैंका दमन और साधु पुरुषोंका पालन करता है। समस्त प्रजाको धर्मके मार्गमें स्थापित करके स्वयं भी धर्मानुकूल बर्ताव करता है, वृद्धावस्थामें राजलक्ष्मीको पुत्रके अधीन करके वनमें जाकर जंगली फल मूलोंका आहार करते हुए जीवन बिताता है तथा वहाँ भी शास्त्र-श्रवणसे ज्ञात हुए शास्त्रविहित कर्मोका आलस्य छोड़कर पालन करता है, ऐसा बर्ताव करनेवाला वह राजा ही धर्मको निश्चितरूपसे जानने और माननेवाला है।
उसका यह लोक और परलोक दोनों सफल हो जाते हैं, मेरा यह विश्वास है कि संन्यासके द्वारा निर्वाण प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर एवं दुर्लम है; क्योंकि उसमें बहुत-से विघ्न आते हैं। इस प्रकार धर्मका अनुसरण करनेवाले, सत्य, दान और तपमें संलग्न रहनेवाले, दया आदि गुणोंसे युक्त, काम-क्रोध आदि दोषोंसे रहित, प्रजापालनपरायण, उत्तम धर्मसेवी तथा गौओं और ब्राह्राणोंकी रक्षाके लिये युद्ध करनेवाले नरेशोंने परम उत्तम गति प्राप्त की है। शत्रुओंको संताप देनेवाले युधिष्ठिर! इसी प्रकार रुद्रः वसु, आदित्य, साध्यगण तथा राजर्षिसमूहोंने सावधान होकर इस धर्मका आश्रय लिया है। फिर उन्होंने अपने पुण्यकमों- द्वारा स्वर्गलोक प्राप्त किया है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें देवस्थानवाक्यविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
बाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) बाईसवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“क्षत्रियधर्म की प्रशंसा करते हुए अर्जुनका पुनः राजा युधिष्ठिरको समझाना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय ! इसी बीचमें देवस्थानका भाषण रुमाप्त होते ही अर्जुनने खिन्नचित्त होकर बैठे हुए तथा कभी धर्मसे च्युत न होनेवाले अपने बड़े भाई युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहा,-
अर्जुन ने कहा ;- धर्मके ज्ञाता नरश्रेष्ठ ! आप क्षत्रियधर्मके अनुसार इस परम दुर्लभ राज्यको पाकर और शत्रुओंको जीतकर इतने अभिक संतप्त क्यों हो रहे हैं? 'महाराज ! आप क्षत्रियधर्मको स्मरण तो कीजिये, क्षत्रियोंके लिये संग्राममें मर जाना तो बहुसंख्यक यौसे भी बढ़कर माना गया है।
'प्रभो ! तप और त्याग ब्राह्मणोंके धर्म हैं, जो मृत्युके पश्चात् परलोक में धर्मजनित फल देनेवाले हैं; क्षत्रियोंके लिये संग्राममै प्राप्त हुई मृत्यु ही पारलौकिक पुण्यफलकी प्राप्ति करानेवाली है। 'भरतश्रेष्ठ ! क्षत्रियोंका धर्म बड़ा भयंकर है। उसमें सदा शस्त्रसे ही काम पड़ता है और समय आनेपर युद्धमें शस्त्रद्वारा उनका वध भी हो जाता है (अतः उनके लिये शोक करनेका कोई कारण नहीं है)। राजन् ! ब्राह्मण भी यदि क्षत्रियधर्मके अनुसार जीवन- निर्वाह करता हो तो लोकमें उसका जीवन उत्तम ही माना गया है; क्योंकि क्षत्रियकी उत्पत्ति ब्राह्मणसे ही हुई है।
'नरेश्वर ! क्षत्रियके लिये त्याग, यज्ञ, तप और दूसरेके धनसे जीवन-निर्वाहका विधान नहीं है । 'भरतश्रेष्ठ ! आप तो सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता, धर्मात्मा, राजा, मनीषी, कर्मकुशल और संसारमें आगे-पीछेकी सब बातोंपर दृष्टि रखनेवाले हैं। 'आप यह शोक संताप छोड़कर क्षत्रियोचित कर्म करनेके लिये तैयार हो जाइये। क्षत्रियका हृदय तो विशेषरूपसे वज्रके तुल्य कठोर होता है। 'नरेन्द्र ! आपने क्षत्रियधर्म के अनुसार शत्रुओंको जीतकर निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया है। अब अपने मनको वशमें करके यश और दानमें संलग्न हो जाइये, देखिये, इन्द्र ब्राह्मणके पुत्र हैं, किंतु कर्मसे क्षत्रिय हो गये हैं। उन्होंने पापमें प्रवृत्त हुए अपने ही भाई-बन्धुओं (दैत्यों) मेंसे आठ सौ दस व्यक्तियोंको मार डाला। 'प्रजानाथ ! उनका वह कर्म पूजनीय एवं प्रशंसाके योग्य माना गया। उन्होंने उसी कर्मसे देवेन्द्रपद प्राप्त कर लिया, ऐसा हमने सुना है।
'महाराज ! नरेन्द्र ! आप भी इन्द्रके समान ही चिन्ता और शोकसे रहित हो दीर्घ कालतक बहुत-सी दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करते रहिये। 'क्षत्रियशिरोमणे ! ऐसी अवस्थामें आप तनिक भी शोक न कीजिये। युद्धमें मारे गये वे सभी वीर क्षत्रियधर्मके अनुसार शस्त्रोंसे पवित्र होकर परम गतिको प्राप्त हो गये हैं।
'भरतश्रेष्ठ ! जो कुछ हुआ है, वह उसी रूपमें होनेवाला था। राजसिंह! दैवके विधानका उल्लङ्घन नहीं किया जा सकता'।
(इस प्रकार श्रीमहामारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में अर्जुनवाक्यविश्यक बाईंसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
तेईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तेईसवें अध्याय के श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद)
“व्यासजीका शङ्ख और लिखितकी कथा सुनाते हुए राजा सुद्युम्नके दण्डधर्मपालनका महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिरको राजधर्ममें ही दृढ़ रहनेकी आज्ञा देना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन् ! निद्राविजयी अर्जुन के ऐसा कहनेपर भी कुरुकुलनन्दन पाण्डुपुत्र कुन्तीकुमार युधिष्ठिर जब कुछ न बोले, तब द्वैपायन व्यासजीने इस प्रकार कहा ,-
व्यासजी वोले ;- सौम्य युधिष्ठिर ! अर्जुनने जो बात कही है, वह ठीक है। शास्त्रोक्त परम धर्म गृहस्थ-आश्रमका ही आश्रय लेकर टिका हुआ है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर ! तुम शास्त्रके कथनानुसार विधिपूर्वक स्वधर्मका ही आचरण करो। तुम्हारे लिये गृहस्थ आश्रमको छोड़कर वनमें जानेका विधान नहीं है। पृथ्वीनाथ ! देवताः पित्तर, अतिथि और भृत्यगण सदा गृहस्थका ही आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं। अतः तुम उनका भरण-पोषण करो, जनेश्वर ! पशु, पक्षी तथा अन्य प्राणी भी गृहस्थोंसे ही पालित होते हैं। अतः यहस्व ही सबसे श्रेष्ठ है।
युधिष्ठिर ! चारों आश्रमोंमें यह गृहस्थाश्रम ही ऐसा है, जिसका ठीक-ठीक पालन करना बहुत कठिन है। जिनकी इन्द्रियाँ दुर्बल हैं, उनके द्वारा गृहस्थ-धर्मका आचरण दुष्कर है। तुम अब उसी दुष्कर धर्मका पालन करो, तुम्हे वेदका पूरा-पूरा शान है। तुमने बड़ी मारी तपस्या की है। इसलिये अपने पिताः पितामहोंके इस राज्यका भार तुम्हें एक धुरन्धर पुरुषकी भाँति वहन करना चाइये। महाराज ! तपः यज्ञ, विद्या, मिक्षा, इन्द्रियसंयमः ध्यान, एकान्त-वासका स्वभावः संतोष और यथाशक्ति शास्त्रज्ञान ये सब गुण तथा चेष्टाएँ, ब्राह्मणोंके लिये सिद्धि प्रदान करने बाली हैं। प्रजानाथ ! अब में पुनः अत्रियोंके धर्म बता रहा हूँ। यद्यपि यह तुम्हें भी ज्ञात है। यज्ञ, विद्याभ्यास, शत्रुओंपर चढ़ाई करनाः राजलक्ष्मीकी प्राप्तिसे कभी संतुष्ट न होना, दुष्टों को दण्ड देनेके लिये उद्यत रहना, क्षत्रियतेजसे सम्पन्न रङ्गा, प्रजाकी सब ओरसे रक्षा करनाः समस्त वेदौका ज्ञान प्राप्त करनाः ताः सदाचार, अधिक द्रव्योपार्जन और सत्यात्रको दान देना-ये सब राजाओंके कर्म हैं। जो सुन्दर ढंगसे किये जानेपर उनके इहलोक और परलोक दोनोंको सफल बनाते हैं, ऐसा इमने सुना है।
कुन्तीनन्दन ! इनमें भी दण्ड धारण करना राजाका प्रधान धर्म बताया जाता है; क्योंकि क्षत्रियमें बलकी नित्य स्थिति है और चलमें ही दण्ड प्रतिष्ठित होता है। राजन् ! ये विद्याएँ (धार्मिक क्रियाएँ) क्षत्रियोंको सदा सिद्धि प्रदान करनेवाली हैं। इस विषयमें वृहस्पतिजीने इस गाथाका भी गान किया है। 'जैसे साँप बिलमें रहनेवाले चूहे आदि जीवौंको निगल जाता है, उसी प्रकार विरोध न करनेवाले राजा और परदेशमें न जानेवाले ब्राह्मण-इन दो व्यक्तियोंको भूमि निगल जाती है।
सुना जाता है कि राजर्षि सुयुम्नने दण्डधारणके द्वारा ही प्रचेताकुमार दक्षके समान परम सिद्धि प्राप्त कर ली,
युधिष्ठिरने पूछा ;- भगवन् ! पृथिवीपति सुद्युम्नने किस कर्मसे परम सिद्धि प्राप्त कर ली थी। मैं उन नरेशका चरित्र सुनना चाहता हूँ।
व्यासजीने कहा ;- युधिष्ठिर! इस विषयमें लोग इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं शङ्ख और लिखित नामवाले दो भाई थे। दोनों ही कठोर व्रतका पालन करने बाले तपस्वी थे। बाहुदा नदी के तटपर उन दोनोंके अलग-अलग परम सुन्दर आश्रम थे, जो सदा फल फूलेसि लदे रहनेवाले वृक्षोंसे सुशोभित थे।
एक दिन लिखित शङ्गके आश्रमपर आये। दैवेच्छासे शङ्ख भी उसी समय आश्रमसे बाहर निकल गये थे, भाई शङ्खके आश्रममें जाकर लिखितने खूब पके हुए बहुत-से फल तोड़कर गिराये और उन सबको लेकर वे ब्रहार्षि बड़ी निश्चिन्तताके साथ खाने लगे, वेखा ही रहे थे कि शङ्ख भी आश्रमपर लौट आये। भाईको फल खाते देख
शङ्खने उनसे पूछा ;- 'तुमने ये फल कहाँसे प्राप्त किये हैं और किस लिये तुम इन्हें खा रहे हो ?' लिखितने निकट जाकर बड़े भाईको प्रणाम किया और हँसते हुए-से इस प्रकार कहा,-
लिखित ने कहा ;- 'भैया! मैंने ये फल यहींने लिये हैं'। तब शङ्खने तीव्र रोषमें भरकर कहा,-
शङ्खने कहा ;- 'तुमने मुझसे पूछे बिना स्वयं ही फल लेकर यह चोरी की है। 'अतः तुम राजाके पास जाओ और अपनी करतूत उन्हें कह सुनाओ। उनसे कहना नृपश्रेष्ठ ! मैंने इस प्रकार बिना दिये हुए फल ले लिये हैं, अतः मुझे चोर समझकर अपने धर्मका पालन कीजिये। नरेश्वर! चोरके लिये जो नियत दण्ड हो, वह शीघ्र मुझे प्रदान कीजिये"।
महाबाहो ! बड़े भाईके ऐसा कहनेपर उनकी आज्ञासे कठोर व्रतका पालन करनेवाले लिखित मुनि राजा सुद्युम्नके पास गये। सुद्युम्नने द्वारपालोंसे जब यह सुना कि लिखित मुनि आये हैं तो वे नरेश अपने मन्त्रियोंके साथ वैदल ही उनके निकट गये।
राजाने उन धर्मश मुनिसे मिलकर पूछा,
राजा ने पूछा ;- भगवन् ! आपका शुभागमन किस उद्देश्यसे हुआ है? यह बताइये और उसे पूरा हुआ ही समझिये' उनके इस तरह कहनेपर विप्रर्षि लिखितने सुद्युम्नसे यों कहा,-
लिखित बोले ;- 'राजन् ! पहले यह प्रतिज्ञा कर लो कि 'हम करेंगे' उसके बाद मेरा उद्देश्य सुनो और सुनकर उसे तत्काल पूरा करो। 'नरश्रेष्ठ ! मैंने बड़े भाईके दिये बिना ही उनके बगीचेसे फल लेकर खा लिये हैं महाराज! इसके लिये मुझे शीघ्र दण्ड दीजिये,
राजा सुद्युम्नने कहा ;- ब्राहाणशिरोमणे ! यदि आप दण्ड देनेमें राजाको प्रमाण मानते हैं तो वह क्षमा करके आपको लौट जानेकी आज्ञा दे दे, इसका भी उसे अधिकार है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तेईसवें अध्याय के श्लोक 33–47 का हिन्दी अनुवाद)
आप पवित्र कर्म करनेवाले और महान् व्रतधारी हैं। मैंने अपराधको क्षमा करके आपको जानेकी आशा दे दी। इसके सिवा, यदि दूसरी कामनाएँ आपके मनमें हो तो उन्हें बताइये, मैं आपकी आशाका पालन करूँगा।
व्यासजीने कहा ;- महामना राजा सुयुम्नके वारंवार आग्रह करनेपर भी ब्रह्मर्षि लिखितने उस दण्डके सिवा दूसरा कोई बर नहीं माँगा, तब उन भूपालने महामना लिखितके दोनों हाथ कटवा दिये। दण्ड पाकर लिखित वहाँसे चले गये। अपने भाई शङ्खके पास जाकर लिखितने आर्त होकर कहा,-
लिखित ने कहा' ;- भैया ! मैंने दण्ड पा लिया। मुझ दुर्बुद्धिके उस अपराधको आप क्षमा कर दें'।
शङ्ख बोले ;- धर्मज्ञ ! मैं तुमपर कुपित नहीं हूँ। तुम मेरा कोई अपराध नहीं करते हो। ब्रह्मन् ! हम दोनोंका कुल इस जगत्में अत्यन्त निर्मल एवं निष्कलङ्क रूपमें विख्यात है। तुमने धर्मका उल्लङ्घन किया था, अतः उसीका प्रायश्चित्त किया है। अब तुम शीघ्र ही बाहुदा नदीके तटपर जाकर विधि- पूर्वक देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करो। भविष्यमें फिर कभी अधर्मकी ओर मन न ले जाना,
शङ्खकी वह बात सुनकर लिखितने उस समय पवित्र नदी बाहुदामें स्नान किया और पितरोंका तर्पण करनेके लिये चेष्टश आरम्भ की। इतनेहीमें उनके कमल-सदृश सुन्दर दो हाथ प्रकट हो गये, तदनन्तर लिखितने चकित होकर अपने भाईको वे दोनों हाथ दिखाये ।
तब शङ्खने उनसे कहा ;-- 'भाई ! इस विषयमें तुम्हें शङ्का नहीं होनी चाहिये। मैंने तपस्यासे तुम्हारे हाथ उत्पन्न किये हैं। यहाँ दैवका विधान ही सफल हुआ है'।।
तब लिखितने पूछा ;- महातेजस्वी द्विजश्रेष्ठ ! जब आपकी तपस्याका ऐसा बल है तो आपने पहले ही मुझे पवित्र क्यों नहीं कर दिया ?
शङ्ख बोले ;- भाई ! यह ठीक है, मैं ऐसा कर सकता था; परंतु मुझे तुम्हें दण्ड देनेका अधिकार नहीं है। दण्ड देनेका कार्य तो राजाका ही है। इस प्रकार दण्ड देकर राजा सुद्युम्न और उस दण्डको स्वीकार करके तुम पितरोंसहित पवित्र हो गये।
व्यासजी कहते हैं ;-- पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिर ! उस दण्ड-प्रदानरूपी कर्मसे राजा सुद्युम्न उच्चतम पदको प्राप्त हुए । उन्होंने प्रचेताओंके पुत्र दक्षकी भाँति परम सिद्धि प्राप्त की थी। महाराज ! प्रजाजनोंका पूर्णरूपसे पालन करना ही क्षत्रियोंका मुख्य धर्म है। दूसरा काम उसके लिये कुमार्गके तुल्य है; अतः तुम मनको शोकमें न डुबाओ।
धर्मके ज्ञाता सत्पुरुष ! तुम अपने भाईकी हितकर बात सुनो। राजेन्द्र ! दण्ड-धारण ही क्षत्रिय-धर्मके अन्तर्गत है, मूँद मुड़ाकर संन्यासी बनना नहीं,
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में व्यासवाक्यविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
चौबीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“व्यासजीका युधिष्ठिरको राजा हयग्रीवका चरित्र सुनाकर उन्हें राजोचित कर्तव्यका पालन करनेके लिये जोर देना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय ! श्रीकृष्ण द्वैपायन महर्षि व्यास जी ने अजात शत्रु कुन्ती कुमार युधिष्ठिर से पुनः इस प्रकार कहा ,-
युधिष्ठिर ने कहा ;- ’तात! महाराज युधिष्ठिर ! वन में रहते समय तुम्हारे मनस्वी भाइयों के मन में जो-जो मनोरथ उत्पन्न हुए थे, भरत श्रेष्ठ ! उन्हें ये महारथी वीर प्राप्त करें। ’कुन्ती नन्दन ! तुम नहुष पुत्र ययाति के समान इस पृथ्वी का पालन करो। तुम्हारे इन तपस्वी भाइयों ने बनवास के समय बड़े दुःख उठाये हैं। नरव्याघ्र! अब ये उस दुःख के बाद सुख का अनुभव करें। ’भरत नन्दन! प्रजानाथ ! इस समय भाइयों के साथ तुम धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करो। पीछे बन में चले जाना। ’
भरत नन्दन ! कुन्ती कुमार ! पहले याचकां, पितरों और देवताओं के ऋण से उऋण हो लो, फिर वह सब करना। ’कुरुनन्दन! महाराज! पहले सर्वमेघ और अश्वमेघ यज्ञों का अनुष्ठान करो। उससे परम गति को प्राप्त करोगे। पाण्डु पुत्र ! अपने समस्त भाइयों को बहुत- सी दक्षिणा वाले यज्ञों मे लगाकर तुम अनुपम कीर्ति प्राप्त कर लोगे। ’कुरुश्रेष्ठ ! पुरुष सिंह नरेश्वर ! मैं तो तुम्हारी बात समझता हूँ। अब तुम मेरा यह वचन सुनो, जिसके अनुसार कार्य करने पर धर्म से च्युत नहीं हो ओगे। ’राजा युधिष्ठिर! विषम भाव से रहित धर्म में कुशल पुरुष विजय पाने की इच्छा वाले राजा के लिये संग्राम की स्थापना करते हैं।’
भरत नन्दन ! प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति ऐतिह्य, संशय, निर्णय, आकृति, संकेत,गति, चेष्टा, प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन- इन सबका प्रयोजन है प्रमेय की सिद्धि। बहुत से वर्गों की प्रसिद्धि के लिये इन सबको साधन बताया गया है। इनमें से प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो सभी के लिये निर्णय के आधार माने गये हैं। प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों को जानने वाला पुरुष दण्डनीति में कुशल हो सकता है। जो प्रमाण शून्य हैं, उनके द्वारा प्रयोग में लाया हुआ दण्ड राजा का विनाश कर सकता है। ’देश और काल की प्रतीक्षा करने वाला जो राजा शास्त्रीय बुद्धि का आश्रय ले लुटेरों के अपराध को धैर्यपूर्वक सहन करता है अर्थात् उनको दण्ड देने में जल्दी नहीं करता, समय की प्रतीक्षा करता है, वह पाप से लिप्त नहीं होता। ’
जो प्रजा की आय का छठा भाग करके रूप में लेकर भी राष्ट्र की रक्षा नहीं करता है, वह राजा उसके चौथाई पाप को मानो ग्रहण कर लेता है। ’मेरी वह बात सुनो, जिसके अुनसार चलने वाला राजा धर्म से नीचे नहीं गिरता। धर्म शास्त्रों की आज्ञा का अल्लंघन करने से राजा का पतन हो जाता है और यदि धर्मशास्त्र का अनुसरण करता है तो वह निर्भय होता है। ’जो काम और क्रोध की अवहेलना करके शास्त्रीय विधि का आश्रय ले सर्वत्र पिता के समान समदृष्टि रखता है, वह कभी पाप से लिप्त नहीं होता। ’महा तेजस्वी युधिष्ठिर! दैव का मारा हुआ राजा कार्य करने के समय जिस कार्य को नहीं सिद्ध कर पाता, उसमें उसका कोई दोष या अपराध नहीं बताया जाता है। ’शत्रुओं को अपने बल और बुद्धि से काबू में कर ही लेना चाहिये। पापियों के साथ कभी मेल नहीं करना चाहिये। ’युधिष्ठिर ! शूरवीरों, श्रेष्ठ पुरुषों तथा विद्वानों का सत्कार करना बहुत आवश्यक है। अधिक से अधिक गौएँ रखने वाले धनी वैश्यों की विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 18-28 का हिन्दी अनुवाद)
’जो बहुज्ञ विद्वान् हों, उन्हीं को धर्म तथा शासन-कार्यों में लगाया चाहिये। भूपाल! जो प्रमाणों के ज्ञाता, न्यायशास्त्र का अलम्बन करने वाले, वेदों के तत्वज्ञ तथा तर्कशास्त्र के बहुश्रुत विद्वान् हों, उन्हीं को विज्ञ पुरुष मन्त्रणा तथा शासन कार्य में लगाये। ’तर्कशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा दण्डनीति से प्रभावित हुई बुद्धि तीनों लोकों की सिद्धि कर सकती है। ’राजन्! भूपाल! जो वेदों के तत्वज्ञ, वेदज्ञ, शास्त्रज्ञ तथा उत्तम बुद्धि से सम्पन्न हों, उन्हें यज्ञ कर्मों में नियुक्त करना चाहिये।। ’आन्वीक्षिकी (वेदान्त), वेदत्रयी, वार्ता तथा दण्ड नीति के जो पारंगत विद्वान् हों, उन्हें सभी कार्यों में नियुक्त करना चाहिये; क्यों कि वे बुद्धि की पराकाष्ठा को पहँचे हुए होते हैं । एक व्यक्ति कितना ही गुणवान् क्यों न हो , विद्वान् पुरुष को उस पर विश्वास नहीं करना चाहिये। ’ जो राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता, जो उद्दण्ड, मानी, अकड़ रखने वाला और दूसरों के दोष देखने वाला है, वह पाप से संयुक्त होता है और लोग उसे दुर्दान्त कहते हैं।
’नरेश्वर! जो लोग राजा की ओर से सुरक्षित न होने के कारण अनावृष्टि आदि दैवी आपत्तियों से तथा चोरों के उपद्रव से नष्ठ हो जाते हैं, उनके इस विनाश का सारा पाप राजा को ही लगता है। ’युधिष्ठिर! अच्छी तरह मन्त्रणा की गयी हो, सुन्दर नीति से काम लिया गया हो और सब ओर से पुरुषार्थपूर्वक प्रयत्न किये गये हों (उस अवस्था में यदि प्रजा को कोई कष्ट हो जाय) तो राजा को उसका पाप नहीं लगता। ’ आरम्भ किये हुए कार्य दैव की प्रतिकूलता से नष्ट हो जाते हैं और उसके अनुकूल होने पर सिद्ध भी हो जाते हैं; परंतु अपनी ओर से (यथोचित) पुरुषार्थ कर देने पर (यदि कार्य की सिद्धि नहीं भी हुई तो) राजा को पाप का स्पर्श नहीं प्राप्त होता है।
’राजसिंह पाण्डुकुमार! इस विषय में मैं तुम्हें एक कथा सुना रहा हूँ, जो पूर्व कालवर्ती राजर्षि हयग्रीव के जीवन का वृत्तान्तहै। ’हयग्रीव बड़े शूरवीर और अनायास ही महान् कर्म करने वाले थे। युधिष्ठिर! उन्होंने युद्ध में शत्रुओं को मार गिराया था; परंतु पीछे असहाय हो जाने पर वे संग्राम में परास्त हुए और शत्रुओं के हाथ से मारे गये। ’उन्होंने शत्रुओं को परास्त करने में जो पराक्रम दिखाया था, मानवीय प्रजा के पालन में जिस श्रेष्ठ उद्योग एवं एकाग्रता का परिचय दिया था, वह अद्भुत था। उन्होंने पुरुशार्थ करके युद्ध से उत्तम कीर्ति पायी और इस समय वे राजा हृयग्रीव स्वर्गलोक में आनन्द भोग रहे हैं। ’वे अपने मन को वश में करके समरागंण में हथियार लेकर शत्रुओं का वध कर रह थे; परंतु डाकुओं ने उन्हें अस्त्र-शस्त्रों से छिन्न-भिन्न करके मार डाला। इस समय कर्मपरायण महामनस्वी हृयग्रीव पूर्णमनोरथ होकर स्वर्गलोक में आनन्द कर रहे हैं। ’
उनका धनुष ही यूप था, करधनी प्रत्यांग के समान थी, बाण स्त्रुक् और तलवार स्त्रुवा का काम दे रही थी, रक्त ही घृत के तुल्य था, इच्छानुसार विचरने वाला रथ ही वेदी था, युद्ध अग्नि था और चारों प्रधान घोडे़ ही ब्रह्मा आदि चारों ऋत्विज थे। इस प्रकार वे वेगशाली राजसिंह हृयग्रीव उस यज्ञरूपी अग्निी में शत्रुओं की आहुति देकर पाप से मुक्त हो गये तथा अपने प्राणों को होम कर युद्ध की समाप्ति रूपी अवभृथस्नान करके वे इस समय देवलोक में आनन्दित हो रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 29-34 का हिन्दी अनुवाद)
’यज्ञ करना उन महामना नरेश का स्वभाव बन गया था। वे नीति के द्वारा बुद्धि पूर्वक राष्ट्र की रक्षा करते हुए शरीर का परित्याग करके मनस्वी हृयग्रीव सम्पूर्ण जगत् में अपनी कीर्ति फैलाकर इस समय देवलोक में आनन्दित हो रहे हैं। ’ योग (कर्मविषयक उत्साह) और न्यास (अहंकार आदि के त्याग) सहित देवी सिद्धि दण्डनीति तथा पृथ्वी का पालन करके धर्मशील महात्मा राजा हृयग्रीव उसी के पुण्य से इस समय देवलोक में सुख भोगते हैं। ’
वे विद्वान्, त्यागी, श्रद्धालु और कृतज्ञ राजा हृयग्रीव अपने कर्तव्य का पालन करके मुनष्य लोक को त्यागकर मेधावी, सर्वसम्मानित, ज्ञानी एवं पुण्य तीर्थों में शरीर का त्याग करने वाले पुण्यात्माओं के लोक में जाकर स्थित हुए हैं। ’वेदों का ज्ञान पाकर, शास्त्रों का अध्ययन करके, राज्य का अच्छी तरह पालन करते हुए महामना राजा हृयग्रीव चारों वर्णां के लोगों को अपने-अपने धर्म में स्थापित करके इस समय देवलोक में आनन्द भोग रहे हैं। ’ राजा हृयग्रीव अनेकों युद्ध जीतकर, प्रजा का पालन करके, यज्ञों में सोमरस पीकर, श्रेष्ठ ब्राह्मणों को दक्षिणा आदि से तृप्त करके युक्ति से प्रजाजनों की रक्षा के लिये दण्ड धारण करते हुए युद्ध में मारे गये और अब देवलोक में सुख भोगते हैं। ’
साधु एवं विद्वान् पुरुष उनके स्पृहणीय एवं आदरणीय चरित्र की सदा भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। पुण्यकीर्ति महामना हृयग्रीव स्वर्ग लोक जीतकर वीरों को मिलने वाले लोकों में पहुँच कर उत्तम सिद्धि प्राप्त कर ली, ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में व्यास वाक्य विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
पच्चीसवाँ अध्याय
“कर्तव्यका पालन करनेके लिये जोर देना”
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पञ्चविंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! व्यास जी की बात सुनकर और अर्जुन के कुपित हो जाने पर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने व्यास जी को आमन्त्रित करके उत्तर देना आरम्भ किया।
युधिष्ठिर बोले ;- मुने! यह भूत का राज्य और ये भिन्न- भिन्न प्रकार भोग आज मेरे मनको प्रसन्न नहीं कर रहे हैं। यह शोक मुझे चारों ओर से घेरे हुए है। महर्षे! प्ति और पुत्रों से हीन हुई युवतियों का करूण विलाप सुनकर मुझे शान्ति नहीं मिल रही है। युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर योग वेत्ताओं में श्रेष्ठ और वेदों के पारंगत विद्वान् धर्मश महाज्ञानी व्यास ने उसने फिर इस प्रकार कहा।
व्यास जी बोले ;- राजन्! न तो कोई कर्म करने से नष्ट हुई वस्तु मिल सकती है, न चिन्ता से ही। कोई ऐसा दाता भी नहीं है, जो मनुष्य को उसकी विनष्ट वस्तु दे दे। बारी-बारी से विधाता के विधानानुसार मनुष्य समय पर सब कुछ पा लेता है। बुद्धि अथवा शास्त्राध्ययन से भी मनुष्य असमय में किसी विशेष वस्तु को नहीं पा सकता और समय आने पर कभी-कभी मूर्ख भी अभीष्ट पदार्थों को प्राप्त कर लेता है; अतः काल ही कार्य की सिद्धि में सामान्य कारण है। अवनति के समय शिल्पकलाएँ, मन्त्र तथा औषध भी कोई फल नहीं देते हैं। वे ही जब उन्नति के समय उपयोग में लाये जाते हैं, तब काल की पे्ररणा से सफल होते और वृद्धि में सहायक बनते हैं ।
समय से ही तेज हवा चलती है, समय से ही मेघ जल बरसाते हैं, समय से ही पानी में कमल तथा उत्पल उत्पन्न हो जाते हैं और समय से ही वन में वृक्ष पुष्ट होते हैं। समय से ही अँधेरी और उजेली रातें होती हैं, समय से ही चन्द्रमा का मण्डल परिपूर्ण होता है, उसमय में वृक्षों में फल और फूल भी नहीं लगते हैं और न असमय में नदियाँ ही वेग से बहती हैं। लोग में पक्षी, सर्प जंगली मृग, हाथी और पहाड़ी मृग भी समय आये बिना मतवाले नहीं होते हैं। असमय में स्त्रियों के गर्भ नहीं रहते और बिना समय के सर्दी, गर्मी तथा वर्षा भी नहीं होती है। बालक समय आये बिना न जन्म लेता है, न मरता है और न असमय में बोलता ही है। बिना समय के जवानी नहीं आती और बिना समय के बोया हुआ बीज भी नहीं उगता है। असमय में सूर्य उदयाचल से संयुक्त नहीं होते हैं, समय आये बिना वे अस्ताचल पर भी नहीं जाते हैं, असमय में न तो चन्द्रमा घटते-बढ़ते हैं और न समुद्र में ही ऊँची-ऊँची तरंगे उठती हैं।
युधिष्ठिर! इस विषय में लोग एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय शोक से आतुर हुए राजा सेनजित् नेजो उदार प्रकट किया था, वही तुम्हें सुना रहा हूँ। ( राजा सेनजित् ने मन-ही-मन कहा कि) ’ यह दुःसह कालचक्र सभी मनुष्यों पर अपना प्रभाव डालता है। एक दिन सभी भूपाल काल से परिपक्व होकर मृत्यु के अधीन हो जाते हैं। ’राजन्! मनुष्य दूसरों को मारते हैं, फिर उन्हें भी दूसरे लोग मार देते हैं।
नरेश्वर! यह मरना-मारना लौकिक संज्ञा मात्र है। वास्तव में न कोई मारता है और न मारा ही जाता है। ’एक मानता है कि ’आत्मा मारता है। ’ दूसरा ऐसा मानता है कि ’नहीं मारता है।’ पांच भौतिक शरीर के जन्म और मरण स्वभावतः नियत हैं। ’धन के नष्ट होने पर अथवा स्त्री, पुत्र या पिता की मृत्यु होने पर मनुष्य ’हाय! मुझपर बड़ा भारी दुःख आ पड़ा, इस प्रकार चिन्ता करते हुए उस दुःख की निवृत्ति की चेष्टा करता है।
’तुम मूढ़ बनकर शोक क्यों कर रहे हो? उन मरे हुए शोचनीय व्यक्तियों का बारंबार स्मरण ही क्यों करते हो? देखो, शोक करने से दुःख में दुःख तथा भय में भयंकी वृद्धि होगी। ’ यह शरीर भी अपना नहीं है और सारी पृथ्वी भी अपनी नहीं है। यह जिस तरह से मेरी है, उसी तरह दूसरों की भी है। ऐसी दृष्टि रखने वाला पुरुष कभी मोह में नहीं फँसता है। ’शोक में सहस्त्रों स्थान हैं, हर्ष के भी सैकड़ों अवसर हैं। वे प्रतिदिन मूढ़ मनुष्य पर ही प्रभाव डालते हैं, विद्वान् पर नहीं। ’इस प्रकार ये प्रिय और अप्रिय भाव ही दुःख और सुख बनकर अलग-अलग सभी जीवों को प्राप्त होते रहते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पञ्चविंश अध्याय के श्लोक 22-36 का हिन्दी अनुवाद)
’संसार में केवल दुःख ही है, सुख नहीं, अतः दुःख ही उपलब्ध होता है। तृष्णाजनित पीड़ा से दुःख और दुःख की पीड़ा से सुख होता है अर्थात् दुःख से आर्त हुए मनुष्य को ही उसके न रहने पर सुख की प्रतीति होती है। ’सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता है। कोई भी न तो सदा दुःख पाता है और न निरन्तर सुख ही प्राप्त करता है। ’कभी दुःख के अन्त में सुख और कभी सुख के अन्त में दुःख भी आता है; जो नित्य सुख की इच्छा रखता हो; वह इन दोनों का परित्याग कर दें; क्यों कि दुःख सुख के अन्त में अवश्यम्भावी है, वैसे ही सुख भी दुःख के अन्त में अवश्यम्भावी है। ’
जिसके कारय शोक और बढ़ा हुआ ताप होता हो अथवा जो आयास का भी मूल कारण हो, वह अपने शरीर का एक अंग भी हो तो भी उसको त्याग देना चाहिये। ’सुख हो या दुःख, प्रिय हो अथवा अप्रिय, जब जो कुछ प्राप्त हो, उस समय उसे सहर्ष अपनावे। अपने हृदय से उसके सामने पराजय न स्वीकार करे (हिम्मत न हारे। ’ प्रिय मित्र! स्त्री अथवा पुत्रों का थोड़ा सा भी अप्रिय कर दो, फिर स्वयं समझ जाओगे कि कौन किस हेतु से किस तरह किसके साथ कितना सम्बन्ध रखता है? ’
संसार में जो अत्यन्त मूर्ख हैं, अथवा जो बुद्धि से परे पहुँच गये हैं, वे ही सुखी होते हैं; बीचवाले लोग कष्ट ही उठाते हैं,। युधिष्ठिर! लोक के भूत और भविष्य तथा सुख एवं दुःख को जानने वाले धर्मवेत्ता महाज्ञानी सेना जित्ने ऐसा ही कहा है। जिस किसी भी दुःख से है, वह कमी सुखी नहीं हो सकता; क्यों कि अन्त नहीं है। एक दुःख से दूसरा दुःख होता ही रहता है। सुख-दुःख, उत्पत्ति-विनाश, लाभ-हानि और जीवन मरण- ये समय-समय पर क्रम से प्राप्त होते हैं। इसलिये धीर पुरुष इनके लिये हर्ष और शोक न करें। राजा के लिये संग्राम में जूझना ही यज्ञ की दीक्षा लेना बतया गया है।
राज्य की रक्षा करते हुए रण्डनीति में भली-भाँति प्रतिष्ठित होना ही उसके लिये योगसाधन है तथा यज्ञ में दक्षिणा रूप से धन का त्याग एवं उत्तम रीति से दान ही राजा के लिये त्याग है। ये तीनों कर्म राजा को पवित्र करने वाले हैं, ऐसा समझे। जो राजा अहंकार छोड़कर बुद्धिमानी से नीति के अनुसार राज्य की रक्षा करता है, स्वभाव से ही यज्ञ अनुष्ठान में लगा रहता है और धर्म की रक्षा को दृष्टि में रखकर सम्पूर्ण लोकों में विचरता है, वह महामनस्वी नरेश देहत्याग के पश्चात् देवलोक में आनन्द भोगता है।
जो संग्राम विजय, राष्ट्र का पालन, यज्ञ में सोमर सका पान, प्रजाओं की उन्नति तथा प्रजावर्ग के हित के लिये युक्तिपूर्वक दण्ड धारण करते हुए यु़द्ध में मृत्यु को प्राप्त होता है, वह देव लोक में आनन्द का भागी होता है। सम्यक् प्रकार से वेदों का ज्ञान, शास्त्रों का अध्ययन, राज्य का ठीक-ठीक पालन तथा चारों वर्णों का अपने-अपने धर्म में स्थापन करके जो अपने मन कमो पवित्र कर चुका है, वह राजा देवलोक में सुखी होता है। स्वर्ग लोक में रहने पर भी जिसके चरित्र को नगर और जनपद के मनुष्य एवं मन्त्री मस्तक झुकाते हैं, वही राजा समस्त नरपतियों में सबसे श्रेष्ठ है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में सेनजित् का उपाख्यान वाक्य विषयक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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