सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
सोलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सौलहवें अध्याय के श्लोक 1-29 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेनका राजाको भुक्त दुःखोंकी स्मृति कराते हुए मोह छोड़कर मनको कावृमें करके राज्यशासन और यज्ञके लिये प्रेरित करना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन् ! अर्जुनकी बात सुनकर अत्यन्त अमर्षशील तेजस्वी भीमसेन ने धैर्य धारण करके अपने बड़े भाईसे कहा,
भीमसेन बोले ;- 'राजन् ! आप सब धमोंके शाता हैं। आपसे कुछ भी अशात नहीं है। हमलोग आपसे सदा ही सदाचारकी शिक्षा पाते हैं। हम आपको शिक्षा दे नहीं सकते।
'जनेश्वर ! मैंने कई बार मनमें निश्चय किया कि 'अब नहीं बोलूँगा, नहीं बोलूँगा।' परंतु अधिक दुःख होनेके कारण बोलना ही पड़ता है। आप मेरी बात सुनें, आपके इस मोहसे सब कुछ संशयमें पड़ गया है। हमारे तन-मनमें व्याकुलता और निर्वलता प्राप्त हो गयी है। आप सम्पूर्ण शास्त्रोंके शाता और इस जगत्के राजा होकर क्यों कायर मनुष्यके समान दीलतावश मोहमें पड़े हुए हैं। 'आपको संसारकी गति और अगति दोनोंका शान है। प्रभो ! आपसे न तो वर्तमान छिपा है और न भविष्य ही।
'महाराज ! जनेश्वर ! ऐसी स्थितिमें आपको राज्यके प्रति आकृष्ट करनेका जो कारण है, उसे ही यहाँ बता रहा हूँ। आप एकाग्रचित्त होकर सुनें। 'मनुष्यको दो प्रकारकी व्याधियों होती हैं-एक शारीरिक और दूसरी मानसिक । इन दोनोंकी उत्पत्ति एक दूसरेके आश्रित है। एकके बिना दूसरीका होना सम्भव नहीं है। 'कभी शारीरिक व्याधिते मानसिक व्याधि होती है, इसमें संशय नहीं है। इसी प्रकार कभी मानसिक व्याधिसे शारीरिक व्याधिका होना भी निश्चित ही है।
जो मनुष्य बीते हुए मानसिक अथवा शारीरिक दुःख के लिये बारंबार शोक करता है, वह एक दुःखसे दूसरे दुःखको प्राप्त होता है। उसे दो-दो अनर्थ भोगने पड़ते हैं । 'सर्दी, गर्मी और वायु (कफ, पित्त और वात) ये तीन शारीरिक गुण हैं। इन गुर्णोका साम्यावस्थामें रहना ही स्वस्थताका लक्षण बताया गया है। 'उन तीनोंमेंसे यदि किसी एककी वृद्धि हो जाय तो उसकी चिकित्सा बतायी जाती है। उष्ण द्रव्यसे सर्दी और शीत पदार्थसे गर्मीका निवारण होता है। 'सत्त्व, रज और तम ये तीन मानसिक गुण हैं। इन तीनों गुणोंका सम अवस्थामें रहना मानसिक स्वास्थ्यका लक्षण बताया गया है। 'इनमेंसे किसी एककी वृद्धि होनेपर उपचार बताया जाता है। हर्ष (सरख) के द्वारा शोक (रजोगुण) का निवारण होता है और शोकके द्वारा हर्षका, कोई सुखमें रहकर दुःखकी बातें याद करना चाहता है और कोई दुःखमें रहकर सुखका स्मरण करना चाहता है।
'कुरुनन्दन ! परंतु आप न दुखी होकर दुःखकी, न सुखी होकर सुखकी, न दुःखकी अवस्थामें सुखकी और न सुखकी अवस्थामें दुःखकी ही बातें याद करना चाहते हैं; क्योंकि भाग्य बड़ा प्रबल होता है अथवा महाराज ! आपका स्वभाव ही ऐसा है, जिससे आप क्लेश उठाकर रहते हैं । 'कौरव-सभामै पाण्डुपुत्रोंके देखते-देखते जो एक वस्त्र- धारिणी रजस्वला कृष्णाको लाया गया था, उसे आपने अपनी आँखों देखा था। क्या आपको उस घटनाका स्मरण नहीं होना चाहिये।
'आप नगरसे निकाले गये, आपको मृगछाला पहनाकर वनवास दे दिया गया और बड़े-बड़े जङ्गलोंमें आपको रहना पड़ा। क्या इन सब बातोंको आप याद नहीं कर सकते ? 'जटासुर से जो कष्ट प्राप्त हुआ, चित्रसेनके साथ जो युद्ध करना पड़ा और सिंधुराज जयद्रथके कारण जो अपमानजनक दुःख भोगना पड़ा-ये सारी बातें आप कैसे भूल गये। 'फिर अज्ञातवासके समय कीचकने जो आपके सामने ही राजकुमारी द्रौपदीको लात मारी थी, उस घटनाको आपने सहसा कैसे भुला दिया। 'राजन् ! हम बलवान् हैं, देवताओंके लिये भी हमें परास्त करना कठिन होगा तो भी विराटनगरमें हमें कैसे दासता करनी पड़ी थी, इसे याद कीजिये । शत्रुदमन नरेश ! द्रोणाचार्य और भीष्मके साथ जो आपका युद्ध हुआ था, वैसा ही दूसरा युद्ध आपके सामने उपस्थित है, इस समय आपको एकमात्र अपने मनके साथ युद्ध करना है।
'इस युद्धमें न तो बाणौका काम है, न मित्रों और बन्धुओंकी सहायताका । अकेले आपको ही लड़ना है। वह युद्ध आपके सामने उपस्थित है। इस युद्धमें विजय पाये बिना यदि आप प्राणोंका परित्याग कर देंगे तो दूसरा देह धारण करके पुनः उन्हीं शत्रुओंके साथ आपको युद्ध करना पड़ेगा। भरतश्रेष्ठ ! इसलिये प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाले साकार शत्रुको छोड़कर अव्यक्त (सूक्ष्म) शत्रु मनके साथ युद्ध करनेके लिये आपको अभी चल देना चाहिये; विचार आदि अपनी बौद्धिक क्रियाओंद्वारा उसके साथ आप अवश्य युद्ध करें ।
'महाराज ! यदि युद्धमें आपने मनको परास्त नहीं किया तो पता नहीं, आप किस अवस्थाको पहुँच जायेंगे ? और यदि मनको जीत लिया तो अवश्य कृतकृत्य हो जायेंगे। 'प्राणियोंके आवागमनको देखते हुए इस विचारधारा- को बुद्धिमें स्थिर करके आप पिता-पितामहोंके आचारमें प्रतिष्ठित हो यथोचित रूपसे राज्यका शासन कीजिये। 'सौभाग्यकी बात है कि पापी दुर्योधन सेवकर्कोसहित युद्धमें मारा गया और सौभाग्यसे ही आप दुःशासनके हाथसे मुक्त हुए द्रौपदीके केशपाशकी भाँति युद्धसे छुटकारा पा गये। 'कुन्तीनन्दन ! आप विधिपूर्वक दक्षिणा देते हुए अश्वमेधयज्ञ का अनुष्ठान करें। हम सभी भाई और पराक्रमी श्रीकृष्ण आपके आज्ञापालक हैं'।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें भीमवाक्यविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
सत्तरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सप्तदशोऽध्यायः अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिरद्वारा मीमकी बातका विरोध करते हुए मुनिवृत्तिकी और ज्ञानी महात्माओंकी प्रशंसा”
युधिष्ठिर बोले ;- भीमसेन ! असंतोष, प्रमाद, मद, राग, अशान्ति, बल, मोह, अभिमान तथा उद्वेग- ये सभी पाप तुम्हारे भीतर घुस गये हैं, इसीलिये तुम्हें राज्यकी इच्छा होती है। भाई ! सकाम कर्म और बन्धनसे रहित होकर सर्वथा मुक्त, शान्त एवं सुखी हो जाओ, जो सम्राट् इस सारी पृथ्वीका अकेला ही शासन करता है, उसके पास भी एक ही पेट होता है; अतः तुम किसलिये इस राज्यकी प्रशंसा करते हो ?
भरतश्रेष्ठ ! इस इच्छाको एक दिनमें या कई महीनोंमें भी पूर्ण नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं, सारी आयु प्रयत्न करनेपर भी इस अपूरणीय इच्छाकी पूर्ति होनी असम्भव है। जैसे आगमें जितना ही ईंधन डालो, वह प्रज्वलित होती जायगी और ईंधन न डाला जाय तो वह अपने-आप बुझ जाती है। इसी प्रकार तुम भी अपना आहार कम करके इस जगी हुई जठराग्निको शान्त करो, अज्ञानी मनुष्य अपने पेटके लिये ही बहुत हिंसा करता है; अतः तुम पहले अपने पेटको ही जीतो। फिर ऐसा समझा जायगा कि इस जीती हुई पृथ्वी के द्वारा तुमने कल्याणपर विजय पा ली है।
भीमसेन ! तुम मनुष्योंके कामभोग और ऐश्वर्यकी बड़ी प्रशंसा करते हो; परंतु जो भोगरहित हैं और तपस्या करते- करते निर्बल हो गये हैं। वे ऋषि-मुनि ही सर्वोत्तम पदको प्राप्त करते हैं। राष्ट्रके योग और क्षेम, धर्म तथा अधर्म सब तुममें ही स्थित हैं। तुम इस महान् भारसे मुक्त हो जाओ और त्याग- का ही आश्रय लो। बाघ एक ही पेटके लिये बहुत-से प्राणियोंकी हिंसा करता है। दूसरे लोभी और मूर्ख पशु भी उसीके सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं।
यत्नशील साधक विषयोंका परित्याग करके संन्यास ग्रहण कर लेता है, तो यह संतुष्ट हो जाता है; परंतु विषयभोगोंसे सम्पन्न समृद्धिशाली राजा कभी संतुष्ट नहीं होते। देखो, इन दोनोंके विचारोंमें कितना अन्तर है ? जो लोग पत्ते खाकर रहते हैं, जो पत्थरपर पीसकर अथवा दाँतोंसे ही चवाकर भोजन करनेवाले हैं (अर्थात् जो चक्कीका पीसा और ओखलीका कूटा नहीं खाते हैं) तथा जो पानी या हवा पीकर रह जाते हैं, उन तपस्वी पुरुषोंने ही नरक पर विजय पायी है।
जो राजा इस सम्पूर्ण पृथ्वीका शासन करता है और जो सब कुछ छोड़कर पत्थर और सोनेको समान समझनेवाला है- इन दोनोंमेंसे वह त्यागी मुनि ही कृतार्थ होता है, राजा नहीं। अपने मनोरथोंके पीछे बड़े-बड़े कार्योंका आरम्भ न करो, आशा तथा ममता न रक्खो और उस शोकरहित पदका आश्रय लो, जो इहलोक और परलोकमें भी अविनाशी है। जिन्होंने भोगोंका परित्याग कर दिया है, वे तो कभी शोक नहीं करते हैं; फिर तुम क्यों भोगोंकी चिन्ता करते हो? सारे भोगोंका परित्याग कर देनेपर तुम मिथ्यावादसे छूट जाओगे, देवयान और पितृयान-ये दो परलोकके प्रसिद्ध मार्ग हैं। जो सकाम यशौका अनुष्ठान करनेवाले हैं, वे पितृयानसे जाते हैं और मोक्षके अधिकारी देवयानमार्गसे। महर्षिगण तपस्या, ब्रहाचर्य तथा स्वाध्यायके बलसे देह- त्यागके पश्चात् ऐसे लोकमें पहुँच जाते हैं, जहाँ मृत्युका प्रवेश नहीं है।
इस जगत्में ममता और आसक्ति के बन्धनको आमिष कहा गया है। सकाम कर्म भी आमिष कहलाता है। इन दोनों आमिष- स्वरूप पापोंसे जो मुक्त हो गया है, वही परमपदको प्राप्त होता है। इस विषयमें पूर्वकालमें राजा जनककी कही हुई एक गाथाका लोग उल्लेख किया करते हैं। राजा जनक समस्त इन्द्रोंसे रहित और जीवन्मुक्त पुरुप थे। उन्होंने मोक्षस्वरूप परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार कर लिया था,
(उनकी वह गाथा इस प्रकार है) दूसरोंकी दृष्टिमें मेरे पास बहुत घन है; परंतु उसमेंसे कुछ भी मेरा नहीं है। सारी मिथिलामें आग लग जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलेगा, जैसे पर्वतकी चोटीपर चढ़ा हुआ मनुष्य धरतीपर खड़े हुए प्राणियोंको केवल देखता है। उनकी परिस्थितिले प्रभावित नहीं होता। उसी प्रकार बुद्धिकी अट्टालिकापर चढ़ा हुआ, मनुष्य उन शोक करनेवाले मन्दबुद्धि लोगोंको देखता है, किंतु स्वयं उनकी भाँति दुखी नहीं होता। जो स्वयं द्रष्टारूपसे पृथक रहकर इस दृश्यप्रपञ्च को देखता है। वही आँखवाला है और वही बुद्धिमान् है। अशात तत्त्वोंका ज्ञान एवं सम्यग् बोध कराने के कारण अन्तःकरण की एक वृत्तिको बुद्धि कहते हैं। जो ब्रह्मभावको प्राप्त हुए शुद्धात्मा विद्वानोंका-सा बोलना जान लेता है, उसे अपने शानपर बड़ा अभिमान हो जाता है (जैसे कि तुम हो) ॥ जब पुरुष प्राणियोंकी पृथक-पृथक् सत्ताको एकमात्र परमात्मामें ही स्थित देखता है और उस परमात्मासे ही सम्पूर्ण भूतौका विस्तार हुआ मानता है, उस समय वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होता है। बुद्धिमान् और तपस्वी ही उस गतिको प्राप्त होते हैं। जो अज्ञानीः मन्दबुद्धिः शुद्धबुद्धिसे रहित और तपस्यासे शून्य है, वे नहीं; क्योंकि सब कुछ बुद्धिमें ही प्रतिष्ठित है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरका वाक्यविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
अट्ठारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अष्टादशोऽध्यायः अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुनका राजा जनक और उनकी रानीका दृष्टान्त देते हुए युधिष्ठिरको संन्यास ग्रहण करनेसे रोकना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय ! जब राजा युधिष्ठिर ऐसा कहकर चुप हो गये, तब राजाके वाग्बाणोंसे पीड़ित हो शोक और दुःखसे संतप्त हुए अर्जुन फिर उनसे बोले।
अर्जुनने कहा ;- भारत ! विज्ञ पुरुष विदेहराज जनक और उनकी रानीका संवादरूप यह प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। एक समय राजा जनकने भी राज्य छोड़कर भिक्षासे जीवन-निर्वाह कर लेनेका निश्चय कर लिया था। उस समय विदेहराजकी महारानीने दुखी होकर जो कुछ कहा था, वही आपको सुना रहा हूँ। कहते हैं, एक दिन राजा जनकपर मूढ़ता छा गयी और वे धन, संतान, स्त्री, नाना प्रकारके रत्न, सनातन मार्ग और अग्निहोत्रका भी त्याग करके अकिंचन हो गये। उन्होंने भिक्षु-वृत्ति अपना ली और वे मुट्ठीभर भुना हुआ जौ खाकर रहने लगे। उन्होंने सब प्रकारकी चेष्टाएँ छोड़ दीं। उनके मनमें किसीके प्रति ईर्ष्याका भाव नहीं रह गया था। इस प्रकार निर्भय स्थितिमें पहुँचे हुए अपने स्वामीको उनकी भार्याने देखा और उनके पास आकर कुपित हुई उस मनस्विनी एवं प्रिय रानीने एकान्तमें यह युक्तियुक्त बात कही-
'राजन् ! आपने धन धान्यसे सम्पन्न अपना राज्य छोड़कर यह खपड़ा लेकर भीख माँगनेका धंधा कैसे अपना लिया ? यह मुट्ठीभर जौ आपको शोभा नहीं दे रहा है। 'नरेश्वर ! आपकी प्रतिज्ञा तो कुछ और थी और चेष्टा कुछ और ही दिखायी देती है। भूपाल ! आपने विशाल राज्य छोड़कर थोड़ी-सी वस्तुमें संतोष कर लिया, 'राजन् ! इस मुठ्ठीभर जौसे देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा अतिथियोंका आप भरण-पोषण नहीं कर सकते, अतः आपका यह परिश्रम व्यर्थ है। 'पृथ्वीनाथ ! आप सम्पूर्ण देवताओं, अतिथियों और पितरोंसे परित्यक्त होकर अकर्मण्य हो घर छोड़ रहे है। 'तीनों वेदोंके शानमें बढ़े-चढ़े सहस्रों ब्राह्मणों तथा इस सम्पूर्ण जगत्का भरण-पोषण करनेवाले होकर भी आज आप उन्हीं के द्वारा अपना भरण-पोषण चाहते हैं।
'इस जगमगाती हुई राजलक्ष्मीको छोड़कर इस समय आप दर-दर भटकनेवाले कुत्तेके समान दिखायी देते हैं। आज आपके जीते-जी आपकी माता पुत्रहीन और यह अभागिनी कौशल्या पतिहीन हो गयी। 'ये धर्मकी इच्छा रखनेवाले क्षत्रिय जो सदा आपकी सेवामें बैठे रहते हैं, आपसे बड़ी-बड़ी आशाएँ रखते हैं, इन बेचारोंको सेवाका फल चाहिये।
'राजन् ! मोक्षकी प्राप्ति संशयास्पद है और प्राणी प्रारब्ध- के अधीन हैं, ऐसी दशामें उन अर्थार्थी सेवकोंको यदि आप विफल-मनोरथ करते हैं तो पता नहीं, किस लोकमें जायेंगे ?' आप अपनी धर्मपत्नीका परित्याग करके जो अकेला जीवन बिताना चाहते हैं, इससे आप पापकर्मा बन गये हैं; अतः आपके लिये न यह लोक सुखद होगा, न परलोक। 'बताइये तो सही, इन सुन्दर-सुन्दर मालाओं, सुगन्धित पदाथों, आभूषणों और भाँति-भाँतिके वस्त्रोंको छोड़कर किसलिये कर्महीन होकर घरका परित्याग कर रहे हैं ? आप सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये पवित्र एवं विशाल प्याऊके समान थे- सभी आपके पास अपनी प्यास बुझाने आते थे। आप फलोंसे भरे हुए वृक्षके समान थे कितने ही प्राणियोंकी भूख मिटाते थे, परंतु वे ही आप अब (भूख-प्यास मिटानेके लिये) दूसरोंका मुँह जोह रहे हैं। 'यदि हाथी भी सारी चेष्टा छोड़कर एक जगह पड़ जाय तो मांसभक्षी जीव-जन्तु और कीड़े धीरे-धीरे उसे खा जाते हैं, फिर सब पुरुषार्थोंसे शून्य आप-जैसे मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ? 'यदि आपकी कोई यह कुण्डी फोड़ दे, त्रिदण्ड उठा ले जाय और ये वस्त्र भी चुरा ले जाय तो उस समय आपके मनकी कैसी अवस्था होगी ? 'यदि सब कुछ छोड़कर भी आप मुट्ठीभर जौके लिये दूसरोंकी कृपा चाहते हैं तो राज्य आदि अन्य सब वस्तुएँ भी तो इसीके समान हैं। फिर उस राज्यके त्यागकी क्या विशेषता रही ?
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अष्टादशोऽध्यायः अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)
'यदि यहाँ मुट्ठीभर जौकी आवश्यकता बनी ही रह गयी तो सब कुछ त्याग देनेकी जो आपने प्रतिज्ञा की थी, वह नष्ट हो गयी। (सर्वत्यागी हो जानेपर) मैं आपकी कौन हूँ और आप मेरे कौन हैं तथा आपका मुझपर अनुग्रह भी क्या है ? 'राजन् ! यदि आपका मुझपर अनुग्रह हो तो इस पृथ्वी का शासन कीजिये और राजमहल, शय्या, सवारी, वस्त्र तथा आभूषणोंको भी उपयोगमें लाइये। 'श्रीहीन, निर्धन, मित्रोंद्वारा त्यागे हुए, अकिंचन एवं सुखकी अभिलाषा रखनेवाले लोगोंकी भाँति सब प्रकारसे परिपूर्ण राजलक्ष्मीका जो परित्याग करता है उससे उसे क्या लाभ ? 'जो बराबर दूसरोंसे दान लेता (भिक्षा ग्रहण करता) तथा जो निरन्तर स्वयं ही दान करता रहता है, उन दोनोंमें क्या अन्तर है और उनमेंसे किसको श्रेष्ठ कहा जाता है? यह आप समझिये, 'सदा ही याचना करनेवालेको और दम्भीको दी हुई दक्षिणा दावानलमें दी गयी आहुतिके समान व्यर्थ है। 'राजन् ! जैसे आग लकड़ीको जलाये बिना नहीं बुझती, उसी प्रकार सदा ही याचना करनेवाला ब्राह्मण (याचनाका अन्त किये बिना) कभी शान्त नहीं हो सकता। इस संसारमें दाताका अन्न ही साधु-पुरुषोंकी जीविकाका निश्चित आधार है। यदि दान करनेवाला राजा न हो तो मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले साधु-संन्यासी कैसे जी सकते हैं ?
'इस जगत्में अन्नसे गृहस्थ और गृहस्थोंसे भिक्षुओंका निर्वाह होता है। अन्नसे प्राणशक्ति प्रकट होती है; अतः अन्नदाता प्राणदाता होता है। 'जितेन्द्रिय संन्यासी गृहस्थ-आश्रमसे अलग होकर भी गृहस्योंके ही सहारे जीवन धारण करते हैं। वहींसे वह प्रकट होते हैं और वहीं उन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। 'केवल त्यागसे, मूढ़तासे और याचना करनेसे किसीको भिक्षु नहीं समझना चाहिये। जो सरलभावसे स्वार्थका त्याग करता है और सुखमें आसक्त नहीं होता, उसे ही भिक्षु समझिये।
पृथ्वीनाथ ! जो आसक्तिरहित होकर आसक्तकी भाँति विचरता है, जो संगरहित एवं सब प्रकारके बन्धनोंको तोड़ चुका है तथा शत्रु और मित्रमें जिसका समान भाव है, वह सदा मुक्त ही है। 'बहुत-से मनुष्य दान लेने (पेट पालने के लिये मूड़ मुड़ाकर गेरुए वस्त्र पहन लेते हैं और घरसे निकल जाते हैं। वे नाना प्रकारके बन्धनोंमें बँधे होनेके कारण व्यर्थ भोगोंकी ही खोज करते रहते हैं। 'बहुत-से मूर्ख मनुष्य तीनों वेर्दोके अध्ययन, इनमें बताये गये कर्म, कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य तथा अपने पुर्जीका परित्याग करके चल देते हैं और त्रिदण्ड एवं भगवा वस्त्र धारण कर लेते हैं।
व्यदि हृदयका कषाय (राग आदि दोष) दूर न हुआ हो तो कापाय (गेरुआ) वस्त्र धारण करना स्वार्थ-साधनकी चेष्टाके लिये ही समझना चाहिये। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि धर्मका ढोंग रखनेवाले मथमुंडेंोंके लिये यह जीविका चलानेका एक धंधामात्र है। 'महाराज ! आप तो जितेन्द्रिय होकर नंगे रहनेवाले, मूड़ मुड़ाने और जटा रखानेवाले साधुओंका गेरुआ वस्त्र, मृगचर्म एवं वल्कल वस्त्रोंके द्वारा भरण-पोषण करते हुए पुण्य- लोकोपर विजय प्राप्त कीजिये। 'जो प्रतिदिन पहले गुरुके लिये अग्निहोत्रार्थ समिधा लाता है; फिर उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञ एवं दान करता रहता है, उससे बढ़कर धर्मपरायण कौन होगा ?
अर्जुन कहते हैं ;- महाराज ! राजा जनकको इस जगत्में 'तत्त्वज्ञ' कहा जाता है; किंतु वे भी मोहमें पड़ गये थे । (रानीके इस तरह समझानेपर राजाने संन्यासका विचार छोड़ दिया। अतः) आप भी मोहके वशीभूत न होइये। यदि हमलोग सदा दान और तपस्यामें तत्पर हो इसी प्रकार धर्मका अनुसरण करेंगे, दया आदि गुणोंसे सम्पन्न रहेंगे, काम-क्रोध आदि दोषोंको त्याग देंगे, उत्तम दान- धर्मका आश्रय ले प्रजापालनमें लगे रहेंगे तथा गुरुजनों और वृद्ध पुरुषोंकी सेवा करते रहेंगे तो हम अपने अभीष्ट लोक प्राप्त कर लेंगे, इसी प्रकार देवता, अतिथि और समस्त प्राणियोंको विधि पूर्वक उनका भाग अर्पण करते हुए यदि हम ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी बने रहेंगे तो हमें अभीष्ट स्थानकी प्राप्ति अवश्य होगी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें अर्जुनका वाक्यविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
उन्नीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकोनविंशोऽध्यायः अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिरद्वारा अपने मतकी यथार्थताका प्रतिपादन”
युधिष्ठिर बोले ;- तात ! मैं धर्म और ब्रह्म का प्रति- पादन करनेवाले अपर तथा पर दोनों प्रकारके शास्त्रोंको जानता हूँ। बेदमें दोनों प्रकारके बचन उपलब्ध होते हैं- 'कर्म करो और कर्म छोड़ो' इन दोनोंका ही मुझे ज्ञान है। परस्परविरोधी भावोंसे युक्त जो शास्त्र-वाक्य हैं, उन पर भी मैंने युक्तिपूर्वक विचार किया है। वेदमें उन दोनों प्रकारके वाक्योंका जो सुनिश्चित सिद्धान्त है, उसे भी मैं विधि- पूर्वक जानता हूँ। तुम तो केवल अस्त्रविद्याके पण्डित हो और बीरव्रतका पालन करनेवाले हो । शास्त्रोंके तात्पर्यको यथार्थरूपसे जानने- की शक्ति तुममें किसी प्रकार नहीं है, जो लोग शास्त्रोंके सूक्ष्म रहस्यको समझनेवाले हैं और धर्मका निर्णय करनेमें कुशल हैं, वे भी मुझे इस प्रकार उपदेश नहीं दे सकते । यदि तुम धर्मपर दृष्टि रखते हो तो मेरे इस कथनकी यथार्थताका अनुभव करोगे।
अर्जुन ! कुन्तीनन्दन ! तुमने भ्रातृस्नेहवश जो बात कही है, वह न्यायसङ्गत और उचित है। मैं उससे तुमपर प्रसन्न ही हुआ हूँ। सम्पूर्ण युद्धधर्मोंमें और संग्राम करनेकी कुशलतामें तुम्हारी समानता करनेवाला तीनों लोकोंमें कोई नहीं है। धनंजय ! धर्मका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म एवं दुर्बोध कहा गया है। उसमें तुम्हारा प्रवेश होना अत्यन्त कठिन है। मेरी बुद्धि भी उसे समझती है या नहीं, यह आशङ्का तुम्हें नहीं करनी चाहिये, तुम युद्धशास्त्रके ही विद्वान् हो, तुमने कभी वृद्ध पुरुषों- का सेवन नहीं किया है, अतः संक्षेप और विस्तारके साथ धर्मको जाननेवाले उन महापुरुषोंका क्या सिद्धान्त है, इसका तुम्हें पता नहीं है। जिन महानुभावोंकी बुद्धि परम कल्याणमें लगी हुई है, उन बुद्धिमानोंका निर्णय इस प्रकार है। तपस्या, त्याग और विधिविधानसे अतीत (ब्रह्मज्ञान) इनमेंसे पूर्व पूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष है।
कुन्तीनन्दन ! तुम जो यह मानते हो कि धनसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है, उसके विषयमें मैं तुम्हें ऐसी बात बता रहा हूँ, जिससे तुम्हारी समझमें आ जायगा कि धन प्रधान नहीं है। इस जगत्में बहुत-से तपस्या और स्वाध्यायमें लगे हुए धर्मात्मा पुरुष देखे जाते हैं तथा ऋषि तो तपस्वी होते ही हैं। इन सबको सनातन लोकोंकी प्राप्ति होती है। कितने ही ऐसे धीर पुरुष हैं, जिनके शत्रु पैदा ही नहीं हुए। ये तथा और भी बहुत-से वनवासी हैं, जो वनमें स्वा ध्याय करके स्वर्गलोकमें चले गये हैं। बहुत-से आर्य पुरुष इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे रोककर अविवेकजनित अज्ञानका त्याग करके उत्तरमार्ग (देवयान) के द्वारा त्यागी पुरुषोंके लोकोंमें चले गये,
इसके सिवा जो दक्षिण मार्ग है, जिसे प्रकाशपूर्ण बताया गया है, वहाँ जो लोक हैं, वे सकाम कर्म करनेवाले उन गृहस्थों के लिये हैं, जो श्मशान भूमिका सेवन परंतु मोक्ष-मार्गसे चलनेवाले पुरुष जिस गतिका साक्षात् कार करते हैं। वह अनिर्देश्य है। अतः ज्ञानयोग ही सब साधनों में प्रधान एवं अभीष्ट है, किंतु उसके स्वरूपको समझना बहुत कठिन है।
कहते हैं, किसी समय विद्वान् पुरुषोंने सार और असार वस्तुका निर्णय करनेकी इच्छासे इकडे होकर समस्त शास्त्रोंका बार-बार स्मरण करते हुए यह विचार आरम्भ किया कि क्या इस गार्हस्थ्य-जीवनमें कुछ सार है या इसके त्यागमें सार है? उन्होंने वेदोंके सम्पूर्ण वाक्यों तथा शास्त्रों और बृहदा- रण्यक आदि वेदान्तग्रन्थोंको भी पढ़ लिया, परंतु जैसे केले के खम्भेको फाड़नेसे कुछ सार नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार उन्हें इस जगत्में सार वस्तु नहीं दिखायी दी,
कुछ लोग एकान्तभावका परित्याग करके इस पाञ्च भौतिक शरीरमें विभिन्न संकेतोंद्वारा इच्छा, द्वेष आदिमें आसक्त आत्माकी स्थिति बताते हैं। परंतु आत्माका स्वरूप तो अत्यन्त सूक्ष्म है। उसे नेत्रोंद्वारा देखा नहीं जा सकता, वाणीद्वारा उसका कोई लक्षण नहीं बताया जा सकता। वह समस्त प्राणियोंमें कर्मकी हेतुभूत अविद्याको आगे रखकर उसीके द्वारा अपने स्वरूपको छिपाकर विद्यमान है।
अतः (मनुष्यको चाहिये कि मनको कल्याणके मार्गमें लगाकर तृष्णाको रोके और कर्मोकी परम्पराका परित्याग करके धन-जन आदि के अवलम्बसे दूर हो सुखी हो जाय, अर्जुन ! इस प्रकार सूक्ष्म बुद्धिसे जानने योग्य एवं साधु पुरुषों से सेवित इस उत्तम मार्गके रहते हुए तुम अनथोंसे भरे हुए अर्थ (धन) की प्रशंसा कैसे करते हो ?
भरतनन्दन ! दान, यज्ञ तथा अतिथिसेवा आदि अन्य कोंमें नित्य लगे रहनेवाले प्राचीन शास्त्रज्ञ भी इस विषयमें ऐसी ही दृष्टि रखते हैं।
कुछ तर्कवादी पण्डित भी अपने पूर्वजन्मके दृढ़ संस्कारों- से प्रभावित होकर ऐसे मूढ़ हो जाते हैं कि उन्हें शास्त्र के सिद्धान्तको ग्रहण कराना अत्यन्त कठिन हो जाता है। वे आग्रहपूर्वक यही कहते रहते हैं कि 'यह (आत्मा, धर्म, पर- लोकः मर्यादा आदि) कुछ नहीं है' किंतु बहुत-से ऐसे बहुश्रुत, बोलनेमें चतुर और विद्वान् भी हैं, जो जनताकी सभामें व्याख्यान देते और उपर्युक्त असत्य मतका खण्डन करते हुए सारी पृथ्वीपर विचरते रहते हैं।
पार्थ ! जिन विद्वानोंको हम नहीं जान पाते हैं, उन्हें कोई साधारण मनुष्य कैसे जान सकता है? इस प्रकार शास्त्रोंके अच्छे-अच्छे ज्ञाता एवं महान् विद्वान् सुननेमें आये हैं (जिनको पहचानना बड़ा कठिन है)।
कुन्तीनन्दन ! तत्त्ववेत्ता पुरुष तपस्याद्वारा महान् पद- को प्राप्त कर लेता है, ज्ञानयोगसे उस परमतत्त्वको उपलब्ध कर लेता है और स्वार्थत्यागके द्वारा सदा नित्य सुखका अनु भव करता रहता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरका वाक्यविषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकोनविंशोऽध्यायः अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“मुनिवर देवस्थानका राजा युधिष्ठिरको यज्ञानुष्ठानके लिये प्रेरित करना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन् ! युधिष्ठिरकी यह बात समाप्त होनेपर प्रवचनकुशल महातपस्वी देवस्थानने युक्तियुक्त वाणीमें राजा युधिष्ठिरसे कहा।
देवस्थान बोले ;- राजन् ! अर्जुनने जो यह बात कही है कि 'धनसे बढ़कर कोई वस्तु नहीं है।' इसके विषयमें मैं भी तुमसे कुछ कहूँगा । तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो,
नरेश्वर ! अजातशत्रो ! तुमने धर्मके अनुसार यह सारी पृथ्वी जीती है। इसे जीतकर व्यर्थ ही त्याग देना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। महाबाहु भूपाल ! महाचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास-ये चारों आश्रम ब्रहाको प्राप्त करानेकी चार सीढ़ियाँ हैं, जो वेदमें ही प्रतिष्ठित हैं। इन्हें क्रमशः यथोचितरूपसे पार करो। कुन्तीनन्दन ! अतः तुम बहुत-सी दक्षिणावाले बड़े-बड़े यशौका अनुष्ठान करो। स्वाध्याययश और शानयज्ञ तो ऋषिलोग किया करते हैं। राजन् ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि ऋषियोंमें कुछ लोग कर्मनिष्ठ और तपोनिष्ठ भी होते हैं। कुन्तीनन्दन ! वैखानस महात्माओंका वचन इस प्रकार सुनने में आता है-
'जो धनके लिये विशेष चेष्टा करता है, वह वैसी चेष्टा न करे- यही सबसे अच्छा है; क्योंकि जो उस धनकी उपा सना करने लगता है। उसके महान् दोषकी वृद्धि होती है। लोग धनके लिये बड़े कष्टसे नाना प्रकारके द्रव्योंका संग्रह करते हैं। परंतु धनके लिये प्यासा हुआ मनुष्य अज्ञान- वश भ्रूणहत्या-जैसे पापका भागी हो जाता है, इस बातको बह नहीं समझता, 'बहुधा मनुष्य अनधिकारीको धन दे देता है और योग्य अधिकारीको नहीं देता। योग्य-अयोग्य पात्रकी पहचान न होनेसे (भ्रूणहत्याके समान दोष लगता है, अतः) दानधर्म भी दुष्कर ही है।
'ब्रह्माने यज्ञके लिये ही धनकी सृष्टि की है तथा यशके उद्देश्यसे ही उसकी रक्षा करनेवाले पुरुषको उत्पन्न किया है, इसलिये यज्ञमें ही सम्पूर्ण धनका उपयोग कर देना चाहिये। फिर शीघ्र ही (उस यशसे ही) यजमानके सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि हो जाती है।
महातेजस्वी इन्द्र धनरत्नोंसे सम्पन्न नाना प्रकारके यशों- द्वारा यशपुरुषका यजन करके सम्पूर्ण देवताओंसे अधिक उत्कर्षशाली हो गयेः इसलिये इन्द्रका पद पाकर वे स्वर्गलोक- में प्रकाशित हो रहे हैं, अतः यशमें ही सम्पूर्ण घनका उपयोग करना चाहिये।
'गजासुरके चर्मको वस्त्रकी भाँति धारण करनेवाले महात्मा महादेवजी सर्वस्वसमर्पणरूप यज्ञमें अपने आपको होमकर देवताओंके भी देवता हो गये। वे अपने उत्तम कीर्तिसे सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके तेजस्वी रूपसे प्रकाशित हो रहे हैं। अविक्षित्के पुत्र सुप्रसिद्ध महाराज मरुत्तने अपनी समृद्धिके द्वारा देवराज इन्द्रको भी पराजित कर दिया था, उनके यज्ञमें लक्ष्मी देवी स्वयं ही पधारी थीं। उस यज्ञके उपयोग में आये हुए सारे पात्र सोनेके बने हुए थे।
'राजाधिराज हरिश्चन्द्रका नाम तुमने सुना होगा जिन्हों ने मनुष्य होकर भी अपनी धन-सम्पत्तिके द्वारा इन्द्रको भी परास्त कर दिया था। वे भी अनेक प्रकारके यर्शोका अनुष्ठान करके पुण्यके भागी एवं शोकशून्य हो गये थे। अतः यशमें ही सारा धन लगा देना चाहिये'।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें देवस्थानवाक्यविषयक वीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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