सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
ग्यारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुनका पक्षिरूपधारी इन्द्र और ऋषिबालकोंके संवादका उल्लेखपूर्वक गृहस्थ-धर्मके पालनपर जोर देना”
अर्जुन ने कहा ;-- भरतश्रेष्ठ! इसी विषय में जानकार लोग तापसों के साथ जो इन्द्रका संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय कुछ मन्दबुद्धि कुलीनब्राह्मणबालक घर को छोड़कर वन में चले जाये। अभी उन्हें मॅंछ-दाढ़ी तक नहीं आयी थी, उसी अवस्था में उन्होंने घर त्याग दिया। यद्यपि वे सब-के-सब धनी थे, तथापि भाई-बन्धु और माता-पिता को छोड़कर इसी को धर्म मानते हुए वनमें आकर ब्रहमचर्य का पालन करने लगे। एक दिन इन्द्रदेव ने उन पर कृपा की। भगवान् इन्द्र सुवर्णमय पक्षी का रूप धारण करके वहां आये और उनसे इस प्रकार कहने लगे,
इन्द्र बोले ;- ’यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करने वाले क्षेत्र पुरुषों ने जो कर्म किया है, वह दूसरों से होना अत्यन्त कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम है। वे धर्मपरायण पुरुष सफल मनोरथ हो श्रेष्ठ गति को प्राप्त हुए हैं’।
ऋषि बोले ;- अहो! यह पक्षी तो विघसाशी (यज्ञशेष अन्न भोजन करने वाले) पुरुषों की प्रशंसा करता है। निश्चय ही यह हम लोगों की बड़ाई करता है; क्यों कि यहां हम लोग ही विघसाशी हैं।
उस पक्षी ने कहा ;-- अरे! देह में कीचड़ लपेटे और धूल पोते हुए जूठन खाने वाले तुम- जैसे मूर्खों मैं प्रशंसा नहीं कर रहा हॅू। विघसाशी तो दूसरे ही होते हैं।
ऋषि बोले ;-- पक्षी!यही श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी साधन है, ऐसा समझकर ही हम इस मार्ग पर चल रहे हैं। तुम्हारी दृष्टि में जो श्रेष्ठ धर्म हो, उसे तुम्हीं बताओ। हम तुम्हारी बात पर अधिक श्रद्धा करते हैं।
पक्षी ने कहा ;-- यदि आप लोग मुझ पर संदेह न करें तो में स्वयं ही अपने आपको वक्ता के रूप में विभक्त करके आप लोगों को यथावत् रूप से हित की बात बताऊॅगा।
ऋषि बोले ;- तात! हम तुम्हारी बात सुनेंगे। तुम्हें सब मार्ग विदित हैं। धर्मात्मन्। हम तुम्हारी आज्ञा के अधीन रहना चाहते हैं। तुम हमें उपदेश दो।
पक्षी ने कहा ;- चैपायों में गौ श्रेष्ठ हैं, धातुओं में सोना उत्तम है, शब्दों में मन्त्र उत्कृष्ट है और मनुष्यों मेंब्राह्मणप्रधान है। क्यों ब्राह्मंणों के लिये मन्त्रयुक्त जातकर्म आदि संस्कार का विधान है। वह जब तक जीवित रहे, समय-समय पर उसके आवश्यक संस्कार होते रहने चाहिये, मरने पर भी यथासमय श्मशान भूमि में अन्त्येष्टि संकार तथा घर पर श्राद्ध आदि वैदिक विधि के अनुसार सम्पन्न होने चाहिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद)
वैदिक कर्म ही ब्राह्मण के लिये स्वर्ग लोक की प्राप्ति कराने वाले उत्तम मार्ग हैं। इसके सिवा, मुनियों ने समस्त कर्मों को वैदिक मंत्रों द्वारा ही सिद्ध होने वाला बताया है। वेद में इन कर्मां का प्रतिपादन दृढतापूर्वक किया गया है; इसलिये उन कर्मां के अनुष्ठान से ही यहां अभीष्ट-सिद्ध होती है। मास, पक्ष,ऋतु, सूर्य, चन्द्रमा और तारों से उपलक्षित जो यज्ञ होते हैं, उन्हें यथा सम्भव सम्पन्न करने की चेष्टा प्रायः सभी प्राणी करते हैं। रूज्ञों का सम्पादन ही कर्म कहलाता है। जहां ये क्षेत्र है और यही सबसे महान् आश्रम है। जो मनुष्य कर्म की निन्दा करते हुए कुमार्ग का ’आश्रय लेते हैं, उन पुरुषार्थहीन मूढ़ पुरुषों को पाप लगता है। देव समूह और पितृसमूहों का यजन तथा ब्रहमवंश (वेद शास्त्र आदि के स्वाध्याय द्वारा ऋषि-मुनियों) की तृप्ति-ये तीन ही सनातन मार्ग हैं। जो मूर्ख इनका परित्याग करके और किसी मार्ग और किसी मार्ग से चलते हैं, वे वेदविरुद्ध पथ का आश्रय लेते हैं। मन्त्र द्रष्टा ऋषि ने एक मन्त्र में कहा है कि ’यह यज्ञरूप कर्म तुम सब यजमानों द्वारा सम्पादित हो, परंतु यह होना चाहिये तपस्या से युक्त।
तुम इसका अनुष्ठान करोगे तो मैं तुम्हें मनोवाच्छित फल प्रदान करूंगा।’ अतः उन-उन वैदिक कर्मा में पूर्णतः संलग्न हो जाना ही तपस्वी का ’तप’ कहलाता है। हवन-कर्म के द्वारा देवताओं को, स्वाध्याय द्वारा ब्रहमर्षियों को तथा श्राद्ध द्वारा सनातन पितरेां को उनका भाग समर्पित करके गुरू जी परिचर्या करना दुष्कर व्रत कहलाता है। इस दुष्कर व्रता का अनुष्ठान करके देवताओं ने उत्तम वैभव प्राप्त किया है। यह गृहस्थ धर्म का पालन ही दुष्कर व्रत है। मैं तुम लोगों से इसी दुष्कर व्रत का भार उठाने के लिये कह रहा हॅू। तपस्या श्रेष्ठ कर्म है। इसमें संदेह नहीं कि यही प्रजावर्ग का मूल कारण है। परंतु गार्हस्थ्यविधायक शास्त्र के अनुसार इस गार्हस्थ्य- धर्म में ही सारी तपस्या प्रतिष्ठित है। जिनके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं है, जो सब प्रकार के द्वन्द्वों से रहित हैं, वेब्राह्मणइसी को तप मानते हैं। यद्यपि लोक में व्रत को भी तप कहा जाता है, किंतु वह पंचयज्ञ के अनुष्ठान की अपेक्षा मध्यम श्रेणी का है। क्योंकि विघसाशी पुरुष प्रातः-सांयकाल विधि- विधान पद को अपने कुटुम्ब में अन्न का विभाग करके दुर्जय अविनाशी पद को प्राप्त कर लेते हैं।
देवताओं, पितरों, अतिथियों तथा अपने परिवार के अन्य सब लोगां को अन्न देकर जो सबसे पीछे अवशिष्ट अन्न खाते हैं, उन्हें विघसाशी कहा गया है। इस लिये अपने धर्म पर आरूढ़ हो उत्तम व्रत का पालन और सत्यभाषण करते हुये वे जागदु्ररू होकर सर्वथा संदेह-रहित हो जाते हैं। वे ईर्ष्या रहित दुष्कर व्रत का पालन करने वाले पुण्यात्मा पुरुष इन्द्र के स्वर्ग लोक में पहुଁचकर अनन्त वर्षों तक वहां निवास करते हैं।
अर्जुन कहते हैं ;- महाराज! वेब्राह्मणकुमार पक्षि रूपधारी इन्द्र की धर्म और अर्थयुक्त हितकर वाते सुनकर इस निश्रय पर पहॅुचे कि हम लोग जिस मार्ग पर चल रहे हैं, वह हमारे लिये हितकर नहीं है; अतः वे उसे छोड़कर घर लौट गये और गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए वहां रहने लगे। सर्वज्ञ नरश्रेष्ठ! अतः आप भी सदा के लिये धैर्य धारण करके शत्रुहीन हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन कीजिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में अर्जुन के वचन के प्रसंग में ऋिषियों और पक्षि रूप धारी इन्द्र के संवाद का वर्णन विषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
बारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“नकुलका गृहस्थ-धर्मकी प्रशंसा करते हुए राजा युधिष्ठिरको समझाना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! अर्जुन की बात सुनकर नकुल ने भी सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरकी ओर देखकर कुछ कहने को उद्यत हुए। शत्रुओं का दमन करने वाले जनमेजय! महाबाहु नकुल बडे़ मितभाषी थे। उन्होंने भाई के चित्त का अनुसरण करते हुए कहा।
नकुल बोले ;- महाराज! विशाखयूप नामक क्षेत्र में सम्पूर्ण देवताओं द्वारा की हुई अग्निस्थपना के चिन्ह(ईटों की बनी हुई वेदियां) मौजूद हैं। इससे आपको यह समझना चाहिये कि देवता भी वैदिक कर्मां और उनके फलों पर विश्वास करते हैं।
राजन्। आस्तिकता की बुद्धि से रहित समस्त प्राणियों के प्राणदाता पितर भी शास्त्र के विधिवाक्यों पर दृष्टि रखकर कर्म ही करते हैं। भारत! जो वेदों की आज्ञा के विरुद्ध चलते हैं, उन्हें बड़ा भारी नास्तिक समझिये। वेद की आज्ञा का उल्लंघन करके सब प्रकार के कर्म करने पर भी कोईब्राह्मण देवयान मार्ग के द्वारा स्वर्गलोक की पृष्ठभूमि में पैर नहीं रख सकता। यह गृहस्थ-आश्रम सब आश्रमों में ऊॅचा है। यह बात वेदों के सिद्धान्त को जानने वाले श्रतिसम्पन्न ब्राह्मण कहते है।
नरेश्वर! आप उनकी सेवा में उपस्थित होकर इस बात को समझिये। महाराज! जो धर्म से प्राप्त किये हुए धन का श्रेष्ठ यज्ञों में उपयोग करता है और अपने मन को वश में रखता है, वह मुनष्य त्यागी माना गया है। महाराज! जिसने गृहस्थ- आश्रम के सुखभोगों को कभी नहीं देखा, फिर भी जो ऊपर वाले वानप्रस्थ आदि आश्रमों में प्रतिष्ठित होकर देहत्याग करता है, उसे तामस त्यागी माना गया है। पार्थ! जिसका कोई घरबार नहीं, जो इधर-उधर विचरता और चुपचाप किसी वृक्ष के नीचे उसकी जड़ पर सो जाता है, जो अपने लिये कभी रसोई नहीं बनाता और सदा योग- परायण रहता है, ऐसे त्यागी को भिक्षुक कहते हैं।
कुन्तीनन्दन! जेब्राह्मणक्रोध, हर्ष और विशेषतः चुगली की अवहेलना करके सदा वेदों के स्वाध्याय में लगा रहता है, वह त्यागी कहलाता है। राजन्! कहते हें कि एक समय मनीषी पुरुषों ने चारों आश्रमों को (विवेक के) तराजू पर रखकर तौला था। एक ओर तो अन्य तीनों आश्रम थे और दूसरी ओर अकेला गृहस्थ आश्रम था। भरतवंशी नरेश! पार्थ! इस प्रकार विवके की तुल पर रख कर जब देखा गया तो गृहस्थ-आश्रम ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ; क्योंकि वहां भोग और स्वर्ग दोनों सुलभ थे। तबसे उन्होने निश्चय किया कि ’यही मुनियों का मार्ग है और यही लोक वेत्ताओं की गति है’।
भरतश्रेष्ठ! जो ऐसा भाव रखता है, वही त्यागी है। जो मूर्ख की तरह घर छोड़कर वन में चला जाता है, वह त्यागी नहीं है। वन में रहकर भी यदिह धर्मध्वजी मनुष्य काम-भोगों पर दृष्टिपात (उनका स्मरण) करता है तो यमराज उसके गले में मौत का फंदा डाल देते हैं। महाराज! यही कर्म यदि अभिमानपूर्वक किया जाय तो वह सफल नहीं होता और त्यागपूर्वक किया हुआ सारा कर्म ही महान् फलदायक होता है। शम, दम, धैर्य, सत्य, शौच, सरलता, यज्ञ, धृति तथा धर्म इन सबका ऋषियों के लिये निरन्तर पालन करने का विधान है। महाराज! गृहस्थ- आश्रम में ही देवताओं, पितरों तथा अतिथियों के लिये किये जाने वाले आयोजन की प्रशंसा की जाती है है। केवल यहीं धर्म, अर्थ और काम- ये तीनों सिद्ध होते हैं। यहां रहकर वेद विहित विधिका पालन करने वाले निष्ठावान् त्यागी का कभी विनाश नहीं होता- वह पारलौकिक उन्नति से कभी वंचित नहीं रहता।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! पापरहित धर्मात्मा प्रजापति ने इस उद्रदेश्य से प्रजाओं की सृष्टि की कि’ ये नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा मेरा वनज करेंगी’। इसी उद्देश्य से उन्होनें यशसम्पादन के लिये नाना प्रकार की लता-वेलों, वृक्षों, औषधियों, मेध्य पशुओं, तथा यज्ञार्थक हविष्यों की भी सृष्टि की है। वह यज्ञकर्म गृहस्थाश्रमी पुरुष को एक मर्यादा के भीतर बाध रखने वाला है; इसलिये गार्हस्थ्य धर्म ही इस संसार में दुष्कर और दुर्लभ है। महाराज! जो गृहस्थ उसे पाकर पशु और धन-धान्य से सम्पन्न होते हुए भी यज्ञ नहीं करते हैं, उन्हें सदा ही पाप का भागी होना पड़ता है। कुछ ऋषि वेद-शास्त्रों का स्वाध्याय रूप यज्ञ करने वाले होते हैं, कुछ ज्ञानयज्ञ में तत्पर रहते हैं और कुछ लोग मन में ही ध्यान रूपी महान् यज्ञों का विस्तार करते हैं। नरेश्वर! चित्त को एकाग्र करना रूप जो साधन है, उसका आश्रय लेकर ब्रहमभूत हुए द्विज के दर्शन की अभिलाषा देवता भी रखते हैं। इधर- उधर से जो विचित्र रत्न संग्रह करके लाये गये हैं, उनका यज्ञों में वितरण न करके आप नास्तिकता की बातें कर रहें हैं।
नरेश्वर! जिस पर कुटुम्बका भार हो, उसके लिये त्याग का विधान नहीं देखने में आता है। उसे तो राजसूय, अश्वमेघ अथवा सर्वमेघ यज्ञों में प्रवृत्त होना चाहिये। भूपाल! इनके सिवा जो दूसरे भी ब्राह्मंणों द्वारा प्रशंसित यज्ञ हैं, उनके द्वारा देवराज इन्द्र के समान आप भी यज्ञ पुरुष आराधना कीजिये। राजा के प्रमाद दोष से लुटेरे प्रबल होकर प्रजा को लूटने लगते हैं, उस अवस्था में यदि राजा ने प्रजा को शरण नहीं दी तो उसे मूर्तिमान् कलियुग कहा जाता है। प्रजानाथ! यदि हमलोग ईर्ष्यायुग ईर्ष्यायुक्त मनवाले होकर ब्राह्मंणों को घोडे़, गाय, दासी, सजी-सजायी हथिनी, गाव, जनपद, खेत और घर आदि का दान नहीं करते हैं तो राजाओं में कलियुग समझे जायॅंगे। जो दान नहीं देते, शरणागतों की रक्षा नहीं करते, वे राजाओं के पाप के भागी होते हैं। उन्हें दुःख-ही दुःख भोगना पड़ता है, सुख तो कभी नहीं मिलता। प्रभो! बडे़-बडे़ यज्ञों का अनुष्ठान, पितरों का श्राद्ध तथा तीर्था में स्नान किये बिना ही आप संन्यास ले लेंगे तो हवा द्वारा छिन्न-भिन्न हुए बादलों के समान नष्ट हो जायॅगे।
लोक और परलोक दोनों से भ्रष्ट होकर (त्रिशंकु के समान) बीच में ही लटके रह जायॅगे। बाहर और भीतर जो कुछ भी मनको फॅसाने वाली चीजें हैं, उन सबको छोड़ने से मनुष्य त्यागी होता है। केवल घर छोड़ देने से त्याग सिद्धि नहीं होती। महाराज! इस गृहस्थ-आश्रमों में ही रहकर वेदविहित कर्म में लगे हुए ब्राह्मंणों का कभी उच्छेद (पतन) नहींहोता।
कुन्तीनन्दन! जैसे इन्द्र युद्ध में दैत्यों की सेनाओं का संहार करते हैं, उसी प्रकार जो वेगपूर्वक बढे-चढे़ शत्रुओं का वध करके विजय पा चुका हो और पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा सेवति अपने धर्म में तत्पर रहता हो, ऐसा (आपके सिवा) कौन राजा शोक करेगा? नरेन्द्र! कुन्तीकुमार! आप क्षत्रिय धर्म के अनुसार पराक्रम द्वारा इस पृथ्वी पर विजय पाकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मंणों को यश में बहुत सी दक्षिणाएं देकर स्वर्ग से भी ऊपर चले आयेंगे? अतः आज आपको शोक नहीं करना चाहिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्र्तगत राजधर्मानुशासन पर्व में नकुल वाक्य विषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ है)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
तेरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“सहदेवका युधिष्ठिरको ममता और आसक्तिसे रहित होकर राज्य करनेकी सलाह देना”
सहदेव बोले ;- भरतनन्दन! केवल बाहरी द्रव्य का त्याग कर देने से सिद्धि नहीं मिलती, शरीर सम्बन्धी द्रव्य का त्याग करने से भी सिद्धि मिलती है या नहीं, इसमें संदेह है। बाहरी द्रव्यों से दूर होकर दैहिक सुख-भोगों में आसक्त रहने वाले को जो धर्म अथवा जो सुख प्राप्त होता हो, वह उस रूप में हमारे शत्रुओं को ही मिले। परंतु शरीर के उपयोग में आने वाले द्रव्यों की ममता त्याग कर अनासक्त भाव से पृथ्वी का शासन करने वाले राजा को जिस धर्म अथवा जिस सुख की प्राप्ति होती हो, वह हमारे हितैषी सुहृदों को मिले। दो अक्षरों का ’मम’ (यह मेरा है, ऐसा भाव) मृत्यु है और तीन अक्षरों का ’न मम’ (यह मेरा नहीं है ऐसा भाव) अमृत- सनातन ब्रहम है।
राजन्! इससे सूचित होता है कि मृत्यु और अमृत ब्रह्म दोनों अपने ही भीतर स्थित हैं। वे ही अदृश्य भाव से रहकर प्राणियों को एक दूसरे से लड़ाते हैं, इसमें संशय नहीं है। भरतनन्दन! यदि इस जीवात्मा का अविनाशी होना निश्चित है, तब तो प्राणियों के शरीर का वध करने मात्र से उनकी हिंसा नहीं हो सकेगी। इसके विपरीत यदि शरीर के साथ ही जीव की उत्पत्ति तथा उसके नष्ट होने के साथ ही जीव का नाश होना माना जाय तब तो शरीर नष्ट होने पर जीव भी नष्ट ही हो जायगा; उस दशा में सारा वैदिक कर्ममार्ग ही व्यर्थ सिद्ध होगा। इसलिये विज्ञ पुरुष को एकान्त में रहने का विचार छोड़कर पूर्ववर्ती तथा अत्यन्त पूर्ववर्ती श्रेष्ठ पुरुषों ने जिस मार्ग का सेवन किया है, उसी का आश्रय लेना चाहिये।
यदि आपकी दृष्टि में गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुये राज्यशासन करना अघम मार्ग है तो स्वायत्भुव मनु तथा उन अन्य चक्रवाती नरेशों ने इसका सेवन क्यों किया था? भरतवंशी नरेश! उन नरपतियों ने उत्तम गुण वाले सत्ययुग -त्रेता आदि अनेक युगों तक इस पृथ्वी का उपभोग किया है। जो राजा चराचर प्राणियों से युक्त इस सारी पृथ्वी को पाकर इसका अच्छे ढंग से उपभोग नहीं करता, उसका जीवन निष्फल है। अथवा राजन्! बन में रहकर बन के ही फल- फूलों से जीवन-निर्वाह करते हुए भी जिस पुरुष की द्रव्यों में ममता बनी रहती है, वह मौत के ही मुख में है। भरतनन्दन! प्राणियों का बाहय स्वभाव कुछ और होता है और आन्तरिक स्वभाव कुछ और। आप उस पर गौर कीजिये।
जो सबके भीतर विराजमान परमात्मा को देखते हैं, वे महान् भय से मुक्त हो जाते हैं। प्रभो! आप मेरे पिता, माता, भ्राता और गुरू हैं। मैंने आर्त हेाकर दुःख में जो- जो प्रलाप किये हैं, उन सबको आप क्षमा करें। भरतवंश भूषण भूपाल! मैंने जो कुछ भी कहा है, वह यथार्थ हो या अयथार्थ, आप के प्रति भक्ति होने के कारण ही वे बातें मेरे मुह से निकली हैं, यह आप अच्छी तरह समझ लें।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्र्तगत राजधर्मानुशासन पर्व में सहदेव वाक्य विषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ है)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
चौदहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रौपदीका युधिष्ठिरको राजदण्डधारणपूर्वक पृथ्वीका शासन करनेके लिये प्रेरित करना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! अपने भाइयों के मुख से नाना प्रकार के वेदों के सिद्धान्तों को सुनकर भी जब कुन्ती पुत्र धर्मराज युधिष्ठिरकुछ नहीं बोले, तब महान् कुल में उत्पन्न हुई, युवतियों में श्रेष्ठ, स्थूल नितम्ब और विशाल नेत्रों वाली, पतियों एवं विशेषतः राजा युधिष्ठिरके प्रति अभिमान रखने वाली, राजा की सदा ही लाड़िली, धर्म पर दृष्टि रखने वाली तथा धर्म को जानने वाली श्रीमती महारानी द्रौपदी हाथियों से घिरे हुए यूथपति गजराज की भाति सिंह-शादॅूल-सहश पराक्रमी भाइयों से घिरकर बैठे हुए पतिदेव नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिरकी ओर देखकर उन्हें सम्बोधित करके सान्त्वनापूर्ण परम मधुर वाणी में इस प्रकार बोली।
कुन्तीकुमार! आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सूख गये हैं; पपीहों के समान आपसे राज्य करने की रट लगा रहे हैं, फिर भी आप इनका अभिनन्दन नहीं करते? महाराज! उन्मत गजराजाओं के समान आपके ये बन्धु सदा आपके लिये दुःख-ही-दुःख उठाते आये हैं। अब तो इन्हें युक्तियुक्त वचनों द्वारा आनन्दित कीजिये।
राजन्! द्वैतवन में ये सभी भाई जब आपके साथ सर्दी-गर्मी और आधी-पानी का कष्ट भेाग रहे थे, उन दिनों आपने इन्हें धैर्य देते हुये कहा था ’शत्रुओं का दमन करने वाले वीर बन्धुओ! विजय की इच्छा वाले हम लोग युद्ध में दुर्योधन को मारकर रथियों को रथहीन करके बड़े-बडे़ हाथियों का वध कर डालेंगे और घुड़सवार सहित रथों से इस पृथ्वी को पाट देंगे। तत्पश्चात् सम्पूर्ण भोगों से सम्पन्न वसुधा का उपभोग करेंगे। उस समय प्र्याप्त दान-दक्षिणा वाले नाना प्रकार के समृद्धिशाली यज्ञों के द्वारा भगवान की आराधना में लगे रहने से तुम लोगों को यह वनवास जनित दुःख सुखरूप में परिणत हो जायगा।’ धर्मात्माओं में श्रेष्ठ! वीर महाराज! पहले द्वैतवन में इन भाइयों से स्वयं ही ऐसी बातें कहकर आज क्यों आप फिर हमलोगों का दिल तोड़ रहे हैं। जो कायर और नपुंसक है, वह पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। वह न तो धन का उपार्जन कर सकता है और न उसे भोग ही सकता है। जैसे केवल कीचड़ में मछलियां नहीं होतीं।
उसी प्रकार नपुंसक के घर में पुत्र नहीं होते। जो दण्ड देने की शक्ति नहीं रखता, उस क्षत्रिय की शोभा नहीं होती, दण्ड न देने वाला राजा इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। भारत! दण्डहीन राजा की प्रजाओं को कभी सुख नहीं मिलता है। नृपश्रेष्ठ! समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, दान लेना, देना, अध्ययन और तपस्या- यहब्राह्मणका ही धर्म है, राजा का नहीं। राजाओं का परम धर्म तो यही है कि ये दुष्टों को दण्ड दें, सत्पुरुषों का पालन करें और युद्ध में कभी पीठ न दिखाबें। जियमें समयानुसार क्षमा और क्रोध दोनों प्रकट होते हैं, जो दान देता और कर लेता है, जिसमें शत्रुओं को भय दिखाने और शरणागतों को अभय देने की शक्ति है, जो दुष्टों को दण्ड देता और दीनों पर अनुग्रह करता है, वही धर्मज्ञ कहलाता है।
आपको यह पृथ्वी न तो शास्त्रों के श्रवणों से मिली है, न दान में प्राप्त हुई है, न किसी को समझाने-बुझाने से उपलब्ध हुई है, न यज्ञ कराने से और न कहीं भीख मागने से ही प्राप्त हुई है। वह जो शत्रुओं की पराक्रम सम्पन्न एवं श्रेष्ठ सेना हाथी, घोडे़ और रथ तीनों अगों से सम्पन्न थी तथा द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और कृपाचार्य जिसकी रक्षा करते थे, उसका आपने बध किया है,तब यह पृथ्वी आपके अधिकार में आयी है, अतः वीर! टाप इसका उपभोग करें।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद)
प्रभो! महाराज! पुरुष सिंह! आपने अनेकों जनपदों से युक्त इस जम्बूद्वीप को अपने दण्ड से रौंद डाला है। नरेश्वर! जम्बूद्वीप के समान ही कौशद्वीप को जो महामेरू से परिश्रम है, आपने दण्ड से कुचल दिया है। नरेन्द्र! क्रोश्यद्वीप के समान ही शाकद्वीप को जो महामेरू से पूर्व है, आपने दण्ड देकर दबा दिया है। पुरुष सिंह! महामेरू से उत्तर शाकद्वीप के बराबर ही जो भद्राश्व वर्ष है, उसे भी आपके दण्ड से दबना पड़ा है। वीर! इनके अतिरिक्त भी जो बहुत-से देशों के आश्रय भूत द्वीप और अन्तद्वीप हैं, समुद्र लाघकर उन्हें भी आपने दण्ड द्वारा दबाकर अपने अधिकार में कर लिया है। भरतनन्दन! महाराज! आप ऐसे-ऐसे अनुपम पराक्रम करके द्विजातियों द्वारा सम्मानित होकर भी प्रसन्न नहीं हो रहे हैं।
भारत! मतवाले साड़ों और बलशाली गजराजों के समान आने इन भाइयों को देखकर आप इनका अभिनन्दन कीजिये। पुरुष सिंह! शत्रुओं को संताप देने वाले आपके ये सभी भाई शत्रु-सैनिकों का वेग सहन करने में समर्थ हैं, देवताओं के समान तेजस्वी हैं, मेरा विश्वास है कि इनमें से एक वीर भी मुझे पूर्ण सुखी बना सकता है, फिर ये मेरे पाचों नरश्रेष्ठ पति क्या नहीं कर सकते हैं?
शरीर को चेष्टाशील बनाने में सम्पूर्ण इन्द्रियों का जो स्थान है, वही मेरे जीवन को सुखी बनाने में इन सबका है। महाराज! मेरी सास कभी झूठ नहीं बोली।
वे सर्वज्ञ है और सब कुछ देखने वाली हैं। उन्होने मुझसे कहा था,,- ’पांचालराजकुमारी! युधिष्ठिरशीघ्रतापूर्वक पराक्रम दिखाने वाले हैं। ये कई सहस्त्र राजाओं का संहार करके तुम्हें सुख के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करेंगे।’ किंतु जनेश्वर! आज आपका यह मोह देखकर मुझे अपनी सास की कही हुई बात भी व्यर्थ होती दिखायी देती है। जिनका जेठा भाई उन्मत्त हो जाता है, वे सभी उसी का अनुकरण करने लगते हैं। महाराज! आपके उन्माद से सारे पाण्डव भी उन्मत्त हो गये हैं।
नरेश्वर! यदि ये आपके भाई उन्मत्त नहीं हेए होते तो नास्तिकों के साथ आपको भी बाधकर स्वयं इस बसुधा का शासन करते। जो मूर्ख इस प्रकार का काम करता है, वह कभी कल्याण का भागी नहीं होता। जो उन्मादग्रस्त होकर उलटे मार्ग से चलने लगता है, उसके लिये धूप की सुगंध देकर, आखों में सिद्ध अंजन लगाकर, नाक में सुघनी सुघाकर अथवा और कोई औषध खिलाकर उसके रोग की चिकित्सा करनी चाहिये।
भरतश्रेष्ठ! मैं ही संसार की सब स्त्रियों में अधम हॅू, जो कि पुत्रों से हीन हो जाने पर भी जीवित रहना चाहती हॅू। ये सब लोग आपको समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं; फिर भी आप ध्यान नहीं देते। मैं इस समय जो कुछ कह रही हॅू मेरी यह बात झूठी नहीं है। आप सारी पृथ्वी का राज्य छोड़कर अपने लिये स्वयं ही विपत्ति खड़ी कर रहे हैं। नृपश्रेष्ठ! जैसे मान्यधाता और अम्बरीष भूमण्डल के समस्त राजाओं में सम्मानित थे, राजन् वैसे ही आप भी सुशोभित हो रहे हैं। नरेश्वर! धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए पर्वत, वन और द्वीपोंसहित पृथ्वी देवी का शासन कीजिये। इस प्रकार उदासीन न होइये। नृपश्रेष्ठ! नाना प्रकार के रूज्ञों का अनुष्ठान और शत्रुओं के साथ युद्ध कीजिये। ब्राह्मंणों को धन, भोगसामग्री और वस्त्रों का दान कीजिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्र्तगत राजधर्मानुशासन पर्व में द्रौपद वाक्य विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
पंद्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पञ्चदश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुनके द्वारा राजदण्डकी महत्ताका वर्णन”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्!दु्रपदकुमारी का यह बचन सुनकर अपनी मर्यादा से कभी व्युत न होने वाले बडे़ भाई महाबाहु युधिष्ठिरका सम्मान करते हुए अर्जुन ने फिर इस प्रकार कहा।
अर्जुन बोले ;- राजन्! दण्ड समस्त प्रजाओं का शासन करता है, दण्ड ही उनकी सब ओर से रक्षा करता है, सबके सो जाने पर भी दण्ड जागता रहता है; इसलिये विद्वान् पुरुषों ने दण्ड को राजा का धर्म माना है। जनेश्वर! दण्ड ही धर्म और अर्थ की रक्षा करता है, वही काम का भी रक्षक है, अतः दण्ड त्रिवर्गरूप कहा जाता है।
दण्ड से धान्य की रक्षा होती है, उसी से धनकी भी रक्षा होती है; ऐसा जानकर आप भी दण्ड धारण कीजिये और जगत् के व्यवहार पर दृष्टि डालिये। कितने ही पापी राजदण्ड के भय से पाप नहीं करते हैं। कुछ लोग यमदण्ड के भयसे, कोई परलोग के भय से और कितने ही पापी आपस में एक दूसरे के भय से पाप नहीं करते हैं। जगत् की ऐसी ही स्वाभाविक स्थित है; इसलिये सब कुछ दण्ड में ही प्रतिष्ठित है। बहुत- से मनुष्य दण्ड के के ही भय से एक दूसरे को खा नहीं जाते हैं, यदि दण्ड रक्षा न करे तो सब लोग घोर अन्धकार में डूब जायॅं। यह उदण्ड मनुष्यों का दमन करता और दुष्टों को दण्ड देता है, अतः उस दमन और दण्ड के कारण ही विद्वान् पुरुष इसे दण्ड कहते हैं।
यदिब्राह्मणअपराध करे तो वाणी से उसको अपमानित करना ही उसका दण्ड ह, क्षत्रिय को भोजनमात्र के लिये वेतन देकर उससे काम लेना उसका दण्ड है, वैश्यों से जुर्माना के रूप् में धन वसूल करना उनका दण्ड है, परंतु शूद्र दण्डरहित कहा गया है। उससे सेवा लेने के सिबा और कोई दण्ड उसके लिये नहीं है। प्रजानाथ! मनुष्यों को प्रमाद से बचाने और उनके धन की रक्षा करने के लिये लोक में जो मर्यादा स्थापित की गयी है, उसी का नाम दण्ड है। दण्डनीय पर ऐसी जोर की मार पड़ती है कि उसकी आखों के सामने अधूरा छा जाता है; इसलिये दण्ड को काला कहा गया है, दण्ड देने वाले की आखे क्रोध में लाल रहती हैं; इसलिये उसे लोहिताक्ष कहते हैं।
ऐसा दण्ड जहां सर्वथा शासन के लिये उद्यत होकर विचरता रहता है और नेता या शासक अच्छी तरह अपराधों पर दृष्टि रखता है, वहां प्रजा प्रमाद नहीं करती। ब्रहमचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी- ये सभी मनुष्य दण्ड के ही भय से अपने-अपने मार्ग पर स्थिर रहते हैं। राजन्! बिना भय के कोई यज्ञ नहीं करता है, बिना भय के कोई दान नहीं करना चाहता है और दण्ड का भय न हो तो कोई पुरुष मर्यादा या प्रतिज्ञा के पालन पर भी स्थिर नहीं रहना चाहता है। मछली मारने वाले मल्लाहों की तरह दूसरों के मर्मस्थानों का उच्छेद और दुष्कर कर्म किये बिना तथा बहुसंख्यक प्राणियों को मारे बिना कोई बड़ी भारी सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकता।
जो दूसरों का वध नहीं करता, उसे इस संसार में न तो कीर्ति मिलती है, न धन प्राप्त होता ह और न प्रजा ही उपलब्ध होती है। इन्द्र वृत्रासुर का वध करने से ही महेन्द्र हो गये। जो देवता दूसरों का वध करने वाले हैं, उन्हीं की संसार अधिक पूजा करता है। रूद्र,स्कन्द, इन्द्र, अग्नि, वरूण, यम, काल, वायु, मृत्यु, कुबेर, सूर्य, वसु, मरूद्रण, साध्य तथा विश्वेदेव ये सब देवता दूसरों का वध करते हैं; इनके प्रताप के सामने नतमस्तक होकर सब लोग इन्हें नमस्कार करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पञ्चदश अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
पंरतु ब्राह्म, धाता और पूषा की कोई किसी तरह भी पूजा अर्चा नहीं करते हैं; क्यों कि वे सम्पूर्ण प्राणियेां के प्रति समभाव रखने के कारण मध्यस्थ, जितेन्द्रिय, एवं शान्ति परायण हैं। जो शान्त स्वभाव के मनुष्य हैं, वे ही समस्त कर्मां में इन धाता आदिकी पूजा करते हैं। संसार में किसी भी ऐसे पुरुष को मैं नहीं देखता, जो अहिंसा से जीविका चलाता हो; क्योंकि प्रबल जीव दुर्बल जीवों द्वारा जीवन-निर्वाह करते हैं।
राजन्! नेवला चूहे को खा जाता है और नेवले को विलाव, विलाव को कुत्ता, और कुत्ते को चीता चबा जाता है। परंतु इन सबको मनुष्य मारकर खा जाता है। देखो, कैसा काल आ गया है? यह सम्पूर्ण चराचर जगत् प्राण का अन्न है। यह सब दैवका विधान है। इसमें विद्वान् पुरुष को मोह नहीं होता है। राजेन्द्र! आपको विधाता ने जैसा बनाया है, (जिस जाति और कुल में आपको जन्म दिया है) वैसा ही आपको होना चाहिये। जिनमें क्रोध और हर्ष दोनों ही नहीं रह गये हैं, ये मन्दबुद्धि क्षत्रिय बनमं जाकर तपस्वी बन जाते हैं, परंतु बिना हिंसा किये वे भी जीवन निर्वाह नहीं कर पाते हैं।
जल में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्ष के फलों में भी बहुत-से कीड़े होते हैं। कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है, जो इनमें से किसी को कभी न मारता हो। यह सब जीवन-निर्वाह के सिवा और क्या है? कितने ही ऐसे सूक्ष्य योनि के जीव है, जो अनुमान से ही जाने जाते हैं। मनुष्य की पलकों के गिरने मात्र से जिनके कंधे टूट जाते हैं (ऐसे जीवों की हिंसा से कोई कहा तक बच सकता है?)। कितने ही मुनि क्रोध और ईष्र्या से रहित हो गाव से निकलकर बन में चले जाते हैं और वहीं मोहवश गृहस्थ धर्म में अनुरक्त दिखायी देते हैं। मनुष्य धरती को खोदकर तथा ओषधियों; वृक्षों, लताओं, पक्षियेां और पशुओं का उच्छेद करके यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं और वे स्वर्ग में भी चले जाते हैं।
कुन्तीनन्दन! दण्डनीतिका ठीक-ठीक प्रयोग होने पर समस्त प्राणियों के सभी कार्य अच्छी तरह सिद्ध होते हैं, इसमें मुझे संशय नहीं है। यदि संसार में दण्ड न रहे तो यह सारी प्रजा नष्ट हो जाय और जैसे जल में बडे मत्स्य छोटी मछलियों को खा जाते हैं, उसी प्रकार प्रबल जीव दुर्बल जीवों को अपना आहार बना लें। ब्राह्म जी ने पहले ही इस सत्य को बता दिया है कि अच्छी तरह प्रयोग में लाया हुआ दण्ड प्रजाजनों की रक्षा करता है।
देखो, जब आग बुझने लगती है, तब वह फूककी फटकार पड़ने पर डर जाती और दण्ड के भय से फिर प्रज्वलित हो उठती है। यदि संसार में भले-बुरे का विभाग करने वाला दण्ड न हो तो सब जगह अंधेर मच जाय और किसी को कुछ सूझ न पडे़। जो धर्म की मर्यादा नष्ट करके वेदों की निन्दा करने वाले नास्तिक मनुष्य हैं, वे भी डंडे पड़ने पर उससे पीड़ित हो शीघ्र ही रह पर आ जाते हैं- मर्याद-पालन के लिये तैयार हो जाते हैं। सारा जगत् दण्ड से विवश हेाकर ही रास्ते पर रहता है; क्यों कि स्वभावतः सर्वथा शुद्ध मनुष्य मिलना कठिन है। दण्ड के भय से डरा हुआ मनुष्य ही मर्यादा-पालन में प्रवृत्त होता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पञ्चदश अध्याय के श्लोक 35-51 का हिन्दी अनुवाद)
विधाता ने दण्ड का विधान इस उद्देश्य से किया है कि चारों वर्णा के लोग आनन्द से रहें, सब में अच्छी नीति का बर्ताव हो तथा पृथ्वी पर धर्म और अर्थ की रक्षा रहे। यदि पक्षी और हिंसक जीव दण्ड के भय से डरते न होते तो वे पशुओं, मनुष्यों और यज्ञ के लिये रक्खे हुए हिवष्यों को खा जाते। यदि दण्ड मर्यादा की रक्षा न करे तो ब्रहमचारी वेदों के अध्ययन में न लगे, सीधी गौ भी दूध न दुहावे और कन्या व्याह न करे। यदि दण्ड मर्यादा का पालन न करावे तो चारों ओर से धर्म-कर्म का लोप हो जाय, सारी मर्यादाएं टूट जासॅ और लोग यह भी न जानें कि कौन वस्तु मेरी है और कौन नहीं? यदि दण्ड धर्म का पालन न करावे तो विधिपूर्वक दक्षिणओं से युक्त संवत्सर यज्ञ भी बेखट के न होने पावे।
यदि दण्ड मर्यादा का पालन न करावे तो लोग आश्रमों में रहकर विधिपूर्वक शास्त्रोंक्त धर्म का पालन न करें और कोई विद्या भी न पढे़ सके। यदि दण्ड का कर्तव्य का पालन न करावे तो ऊॅट , बैल, घोडे़, खच्चर और गदहे रथों में जोत दिये जाने पर भी उन्हें ढोकर ले न जायॅं। यदि दण्ड धर्म और कर्तव्य का पालन न करावे तो सेवक स्वामी की बात न माने, बालक भी कभी मा- बाप की आज्ञा का पालन न करें और युवती स्त्री भी अपने सती धर्म में स्थिर न रहे। दण्ड पर ही सारी प्रजा टिकी हुई है, दण्ड से ही भय होता है, ऐसी विद्वानों की मान्यता है। मुनष्यों का इहलोक और स्वर्गलोक दण्ड पर ही प्रतिष्ठित है। जहां शत्रुओं का विनाश करने वाला दण्ड सुन्दर ढंग से संचालित हो रहा है, वहां छल, पाप और ठगी भी नहीं देखने में आती है।
यदि दण्ड रक्षा के लिये सदा उद्यत न रहे तो कुत्ता हविष्य को देखते ही चाट जाये और यदि दण्ड रक्षा न करे तो कौआ पुराडाशको को उठा ले जाय। यह राज्य धर्म से प्राप्त हुआ हो या अधर्म से, इसके लिये शोक नहीं करना चाहिये। आप भोग भोगिये और यज्ञ कीजिये। शुद्ध वस्त्र धारण करने वाले धनवान् पुरुष सुखपर्वूक धर्म का आचरण करते हैं और उत्तम अन्न भोजन करते हुए फलों और दानों की वर्षा करते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि सारे कार्य धन के अधीन हैंख् परंतु धन दण्ड के अधीन है। देख्यिे, दण्ड की कैसी महिमा है? लोकयात्रा का निर्वाह करने के लिये ही धर्म का प्रतपादन किया गया है। सर्वथा हिंसा न की जाय अथवा दुष्ट की हिंसा की जाय, यह प्रश्न उपस्थित होने पर जिसमें धर्म की रक्षा हो, वही कार्य श्रेष्ठ मानना चाहिये। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिससे सर्वथा गुण-ही-गुण हो। ऐसी भी वस्तु नहीं है जो सर्वथा गुणों से वज्जित ही हो।
सभी कार्यों में अच्छाई और बुराई दोनों ही देखने में आती है। बहुत से मनुष्य पशुओं (बैलों) का अण्डकोश काटकर फिर उसके मस्तक पर उगे हुए दोनों सींगों को भी विदीर्ण कर देते हैं, जिससे वे अधिक बढ़ने न पावें। फिर उनसे भार ढुलाते हैं, उन्हें घर में बाधे रखते हैं ओर नये बच्छे को गाड़ी आदि में जोतकर उसका दमन करते हैं- उनकी उद्दण्डता दूर करके उनसे काम करने का अभ्यास कराते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पञ्चदश अध्याय के श्लोक 52-58 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! इस प्रकार सारा जगत् मिथ्या व्यवहारों से आकुल ओर दण्ड से जर्जर हो गया है। आप भी उन्हीं-उन्हीं न्यायों का अनुसरण करके प्राचीन धर्मका आचरण कीजिये। यज्ञ कीजिये, दान दीजिये, प्रजा की रक्षा कीजिये, और धर्म का निरन्तर पालन करते रहिये। कुन्तीकनन्दन! आप शत्रुओं का वध और मित्रों का पालन कीजिये। राजन्! शत्रुओं का वध करते समय आपके मन में दीनता नहीं आनी चाहिये। भारत! शत्रुओं का वध करने से कर्ता को कोई पाप नहीं लगता। जो हाथ में हथियार लेकर मारने आया हो, उस आततायी को जो स्वयं भी आततायी बनकर मार डाले, उससे वह भू्रण-हत्या का भागी नहीं होता; क्यों कि मारने के लिये आये हुए उस मनुष्य का क्रोध ही उसका वध करने वाले के मन में भी क्रोध पैदा कर देता है। समस्त प्राणियों का अन्तरात्मा अवध्य है, इसमें संशय नहीं है।
जब आत्मा का वध हो ही नहीं कसता, तब वह किसी का वध कैसे होगा? जैसे मनुष्य बारंबार नये घरों में प्रवेश करता है, उसी प्रकार जीव भिन्न-भिन्न शरीरों को ग्रहण करता है। पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीरों को अपना लेता है। इसी को तत्वदर्शी मनुष्य मृत्यु का मुख बताते हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्र्तगत राजधर्मानुशासन पर्व में अर्जुन वाक्य विषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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