सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के छठवें अध्याय से दसवें अध्याय तक (From the six chapter to the tenth chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

छठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर की चिन्ता, कुन्ती का उन्हें समझाना और स्त्रियों को युधिष्ठिर का शाप”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;-- राजन्! इतना कहकर देवर्षि नारद तो चुप हो गये, किंतु राजर्षि युधिष्ठिर शोकाक्रमग्न हो चिन्ता करने लगे।उनका मन बहुत दुखी हो गया। वे शोक के मारे व्याकुल हो सर्पकी भांति लंबी सांस खींचने लगे। उनकी आखों से आंसू बहने लगा। वीर युधिष्ठिरकी ऐसी अवस्था देख कुन्ती के सारे अंगों में शोक व्याप्त हो गया। वे दुःखसे अचेत सी हो गयीं और मधुर वाणी में समय के अनुसार अर्थ-भरी बात कहने लगीं,

     कुन्ती बोली ;-- ‛महाबाहु युधिष्ठिर! तुम्हें कर्ण के लिये शोक नहीं करना चाहिये। महामते। शोक छोड़ो और मेरी यह बात सुनो। ’वर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठर! मैंने पहले कर्ण को यह बताने का प्रयत्न किया था कि पाण्डव तुम्हारे भाई हैं। उसके पिता भगवान भास्कर ने भी ऐसी ही चेष्ठा की। ’हितकी इच्छा रखने वाले एक हितैषी सुहृद्कों जो कुछ कहना चाहिय, वही भगवान सूर्य ने उससे स्वप्न में और मेरे सामने भी कहा। ’परन्तु भगवान सूर्य एवं मैं दोनों ही स्नेह के कारण दिखाकर अपने पक्ष में करने या तुम लोगों से एकता (मेल) कराने में सफल न हो सके। ’तदनन्तर वह काल के वशीभूत हो वैर का बदला लेने में लग गया और तुम लोगों के बिपरीत ही सारे कार्य करने लगा; यह देखकर मैंने उसकी उपेक्षा कर दी’। 

      माता के ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिरके नेत्रों में आंसू भर आया, शोक से उनकी इन्द्रियां व्याकुल हो गयीं और वे धर्मत्मा नरेश उनसे इस प्रकार बोले,

   युधिष्ठिर ने कहा  ;- ’मा! आने इस गोपनीय बात को गुप्त रखकर मुझे बड़ा कष्ट दिया,। फिर महातेजस्वी युधिष्ठिरने अत्यन्त दुखी होकर सारे संसार की स्त्रिय को यह शाप दे दिया कि ’आज से स्त्रियां अपने मन में कोई गोपनीय बात नहीं छिपा सकेंगी’। राजा युधिष्ठिरका हृदय अपने पुत्रों, पौत्रों, सम्बन्धियों तथा सुहृदों को याद करके उद्विग्न हो उठा। उनके मन में व्याकुलता छा गयी। तत्पश्चात् शोक से व्याकुल चित्त हुए बुद्धिमान राजा युधिष्ठिरसंताप से पीड़ित हो धूमयुक्त अग्नि के समान धीरे-धीरे जलने लगे तथा राज्य और जीवन से विरक्त हो उठे।

(इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में स्त्रियों को युधिष्ठिरका शाप विषयक छठा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

सातवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करते हुए अपने लिए राज्य छोड़कर वन में चले जाने का प्रस्ताव करना”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन् धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरचित्त शोकसे व्याकुल हो उठा था। वे महारथी कर्ण को याद करके दुःख से संतत हो शोक में डूब गये। दुःख और शोक से आंविष्ट हो वे बारंबार लंबी सांस खींचने लगे और अर्जुन को देखकर शोकसे पीड़ित हो इस प्रकार बोले।मागते हुए अपना जीवन-निर्वाह कर लेते तो आज अपने कुटुम्ब को निर्वेश करके हम इस दुर्दशा को प्राप्त नहीं होते। हमारे शत्रुओं का मनोरथ पूर्ण हुआ (क्यों कि वे हमारे कुल का विनाश देखकर प्रसन्न होंगे)। कौरवों का प्रयोजन तो उनके जीवन के साथ ही समाप्त हो गया। आत्मीय जनों को मारकर स्वयं ही अपनी हत्या करके हम कौन-सा धर्म का फल प्राप्त करेंगे? 

      क्षत्रियों के आचार, बल, पुरुषार्थ और अमर्श को धिक्कार है! जिनके कारण हम ऐसी विपत्तियों में पड़ गये। क्षमा, मन और इन्द्रियों का संयम, बाहर-भीतर की शुद्धि, वैराग्य, ईष्र्या का अभाव, अहिंसा और सत्य भाषण-- ये वन वासियों के नित्य धर्म ही श्रेष्ठ हैं। हम लोग तो लोभ और मोह के कारण राज्य लाभ के सुख का अनुभव करने की इच्छा से दम्भ और अभिमान का आश्रय लेकर इस दुर्दशा में फँस गये हैं। जब हमने पृथ्वी पर विजय की इच्छा रखने वाले अपने बन्धु-बान्धवों को मारा गया देख लिया, तब हमें इस समय तीनों लोकों का राज्य देकर भी कोई प्रसन्न नहीं कर सकता। हाय! मह लोगो ने इस तुच्छ पृथ्वी के लिये अवध्य राजाओं की भी हत्या की और अब उन्हें छोड़कर बन्धु-बान्धवों से हीन हो अर्थ-भ्रष्टकी भाति जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जैसे मांस के लोभी कुत्तों को अशुभ की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार राज्य में आसक्त हुए हम लोंगों को भी अनिष्ट प्राप्त हुआ है। अतः हमारे लिये मांस-तुल्य राज्य को पाना अभीष्ट नहीं है, उसका परित्याग ही अभीष्ट होना चाहिये। ये जो हमारे सगे-सम्बन्धी मारे गये हैं, इनका परित्याग तो हमें समस्त पृथ्वी, राशि-राशि सुवर्ण और समूचे गाय-घोडे़ पाकर भी नहीं करना चाहिये था। वे काम और क्रोध के वशीभूत थे, हर्ष और रोष से मरे हुए थे, अतः मृत्युरूपी रथ पर सवार हो यमलोक में चले गये। 

      सभी पिता तपस्या, ब्रहमचर्य-पालन, सत्यभाषण तथा तितिक्षा आदि साधनों द्वारा अनेक कल्यामय गुणों से युक्त बहुत से पुत्र पाना चाहते हैं। इसी प्रकार सभी माताएं उपवास, यज्ञ, ब्रत, कौतुक और मंगलमय कत्यौं द्वारा उत्तम पुत्र की इच्छा रखकर दस महीनों तक अपने गर्भां का भरण-पोषण करती हैं। उन सबका यही उद्देश्य होता है कि यदि कुशलपूर्वक बच्चे पैदा होंगे, पैदा होने पर यदि जीवित रहेंगे तथा बलवान् होकर यदि सम्भावित गुणों से सम्पन्न होंगे तो हमें इहलोक और परलोक में सुख देंगे। इस प्रकार वे दीन माताए फलकी आकाक्षा रखती हैं। परंतु उनका यह उद्योग सर्वथा निष्फल हो गया; क्योंकि हम लोगों ने उन सब माताओं के नवयुवक पुत्रों को , जो विशुद्ध सुवर्णमय कुण्डलों से अलंकृत थे, मार डाला है। वे इस भूलोक के भेागों के उपभोक का अवसर न पाकर देवताओं और पितरों का रिऋ उतारे बिना ही यमलोक में चले गये। मां! इन राजाओं के माता-पिता जब इनके द्वारा उपर्जित धन और रत्न आदि के उपभोग की आशा करने लगे, तभी वे मारे गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 20-35 का हिन्दी अनुवाद)

      जो लोग कामना और खीझसे युक्त हो क्रोध और हर्ष के कारण अपना संतुलन खो बैठते हैं, वे कभी कहीं मात्र ही विजय का फल नहीं भोग सकते। पांडवों और कौरबों के जो वीर मारे गये, वे तो मर ही गये; नही तो आज यह संसार देखता कवे सब अपने ही पुरुषार्थ से कैसी स्थिति में पहॅुंच गये हैं। हम लोग ही इस जगत् के विनाश में कारण माने गये हैं; परंतु इसका सारा उत्तरदायित्व धृतराष्ट्रके पुत्रों पर ही पडे़गा। हम लोगों ने कभी कोई बुराई नहीं की थी तो भी राजा धृतराष्ट्र सदा हमसे द्वेष रखते थे। उनकी बुद्धि निरन्तर हमें ठगने की ही बात सोचा करती थी। वे माया का आश्रय लेने वाले थे और झूठे ही विनय अथवा नम्रता दिखाया करते थे। 

    इस युद्ध से न तो हमारी कामना सफल हुई और न वे कौरव ही सफलमनोरथ हुए। न हमारी जीत हुई, न उनकी । उन्होनें न तो इस पृथ्वी का उपभोग किया, न स्त्रियों का सुख देखा और न गीतवाद्य का ही आनन्द लिया। मन्त्रियों, सुहृदों तथा वेद-शास्त्रों के ज्ञाता विद्वानों की भी बातें वे नहीं सुन सके। बहुमूल्य रत्न, पृथ्वी के राज्य तथा धन की आय का भी सुख भोगने का उन्हें अवसर नहीं मिला। दुर्योधन हमसे द्वेष रखने के कारण सदा संतत रहकर कभी यहां सुख नहीं पाता था। हम लोगों के पास वैसी समृद्धि देखकर उसकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी। वह चिन्ता से सूखकर पीला और दुर्बल हो गया था। सुबलपुत्र शकुनि ने राजा धृतराष्ट्र को दुर्योंधन की यह अवस्था सूचित की। पुत्र के प्रति अधिक आसक्त होने के कारण पिता धृतराष्ट्र ने अन्याय में स्थित हो उसकी इच्छा का अनुमोदन किया।

       इस विषय में उन्होंने अपने पिता (ताऊ) गड्डानन्दन भीष्म तथा भाई विदुर से राय लेने की भी इच्छा नहीं की। उनकी इसी दुनीति के कारण निःसंदेह राजा धृतराष्ट्र को भी वैसा ही विनाश प्राप्त हुआ है, जैसा कि मुझे। वे अपने अपवित्र आचार-विचार वाले, लोभी एवं कामा-सक्त पुत्र को काबू में न रखने के कारण उसका तथा उसके सहोदर भाइयों का वध करवाकर स्वयं भी उज्जल यश से भ्रष्ट हो गये। हम लोगों के प्रति सदा द्वेष रखने वाला पापबुद्धि दुर्योजन इन दोनों वृद्धों को शो की आग में झोंक कर चला गया। संधि के लिये गये हुए श्री कृष्ण के समीप युद्ध की इच्छा- वाले दुर्या दुर्योधन धन ने जैसी बात कही थी, वैसी कौन भाई -बन्धु कुलीन होकर भी अपने सुहृदों के लिये कह सकता है? हम लोगों ने तेज से प्रकाशित होने वाली सम्पूर्ण दिशाआं में मानों आग लगा दी और अपने ही दोष से सदा के लिये नष्ट हो गये। हमारे प्रति शत्रुता का मूर्तिमान् स्वरूप वह दुर्बुद्धि दुर्योंधन पूर्णःत बन्धन में बॅंध गया । 

      दुर्योधन के कारण ही हमारे इस कुल का पतन हो गया। हम लोग अवध्य नरेशों का बध करके संसार मे निन्दा के पात्र हो गये। राजा धृतराष्ट्र इस कुल का विनाश करने वाले दुर्बुद्धि एवं पापात्मा दुर्योधन को इस राष्ट्र का स्वामी बनाकर आज शो की आग में जल रहे हैं। हमने शूरवीरों को मारा, पाप किया और अपने ही देश का विनाश कर डाला। शत्रुओं को मारकर हमारा क्रोध तो दूर हो गया, परंतु यह शोक मुझे निरन्तर घेरे रहता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 36-44 का हिन्दी अनुवाद)

      धनंजय! किया हुआ पाप कहने से, शुभ कर्म करने से, पछताने से, दान करने से और तपस्या से भी नष्ट होता है। निवृत्तिपरायण होने, तीर्थयात्रा करने तथा’ वेद- शास्त्रों का स्वाध्याय एवं जप करने से भी पाप दूर हाता है। श्रुतिका कथन है कि त्यागी पुरुष पाप नहीं कर सकता तथा वह जन्म और मरण के बन्धन में भी नहीं पड़ता। धंनजय! उसे मोक्ष का मार्ग मिल जाता है और वह ज्ञानी एवं स्थिर बुद्धि मुनि द्वन्द्वरहित होकर तत्काल ब्रहम साक्षात्कार कर लेता है। शत्रुओं को तपाने वाले अर्जुन! मैं तुम सब लोगों से बिदा लेकर बन में चला जाऊॅंगा। शत्रु सूदन! (परमात्मा का दर्शन ) नहीं प्राप्त कर सकता ।’ इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। मैंने परिग्रह (राज्य और धन के संग्रह) की इच्छा रखकर केवल पाप बटोरा है, जो जन्म और मृत्यु का मुख्य कारण है। श्रुतिका कथन है कि ’परिग्रह से पाप ही प्राप्त हो सकता है’। 

     अतः मैं परिग्रह छोड़कर सारे राज्य और इसके सुखों का लात मारकर बन्धनमुक्त हो शोक और ममता से ऊपर उठ कर, कहीं बन में चला जाऊँगा। कुरूनन्दन! तुम इस निष्टकण्टक एवं कुशल-क्षेम से युक्त पृथ्वी का शासन करो। मुझे राज्य और भोगों से कोई मतलब नहीं है। इतना कहकर करूराज युधिष्ठिरचुप हो गये। तब कुन्ती के सबसे छोटे पुत्र अर्जुन ने भाषण देना आरम्भ किया।

(इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानु शासन पर्व में युधिष्ठिरका खेद पूर्ण उद्धार नामक सातवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

आठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

      “अर्जुनका युधिष्ठिरके मतका निराकरण करते हुए उन्हें धनकी महत्ता बताना और राजधर्मके पालनके लिये जोर देते हुए यज्ञानुष्ठान के लिये प्रेरित करना”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर अर्जुन इस प्रकार असहिष्णु हेा उठे, मानों उन पर कोई आक्षेप किया गया हो। वे बातचीत करने या पराक्रम दिखाने में किसी से दबने वाले नहीं थे। उनका पराक्रम बड़ा भयंकर था। वे महातेजस्वी इन्द्रकुमार अपने उग्ररूप का परिचय देते और दोनों गलफरों को चाटते हुए मुसकरा कर इस तर गर्वयुक्त वचन लगे, जैसे नाटक के रंग-मंच पर अभिनय कर रहे हों।

     अर्जुन ने कहा ;- राजन्! यह तो बडे़ भारी दुःख और महान् कष्ट की बात है! आपकी विहृलता तो पराकाष्ठा को पहुंच गयी। आश्चर्य है कि आप अलौकिक पराक्रम करके प्राप्त की हुई इस उत्तम राजलक्ष्मी का परित्याग कर रहे हैं। आपने शत्रुओं का संहार करके इस पृथ्वी पर अधिकार प्राप्त किया है। यह राज्य-लक्ष्मी आपको अपने धर्म के अनुसार प्राप्त हुई है। इस प्रकार जो यह सब कुछ आप के हाथ में आया है, इसे आप अपनी अल्पबुद्धि के कारण क्यों छोड़ रहे है? किसी कायर या आलसी को कैसे राज्य प्राप्त हो सकता है? यदि आपको यही करना था तो किस लिये क्रोध से विकल होकर इतने राजाओं का वध किया और कराया? जिसके कल्याण साधन नष्ट हो गया है, जो निरा दरिद्र है, जिसकी संसार में कोई ख्याति नहीं है, जो स्त्री-पुत्र और पशु आदि से सम्पन्न नहीं है तथा जो असमर्थता वश अपने पराक्रम से किसी के राज्य या धन को लेने की इच्छा नहीं कर सकता, उसी मनुष्य को भीख मागकर जीवन-निर्वाह करने की अभिलाषा रखनी चाहिये। 

      नरेश्वर! जब आप यह समृद्धि शाली राज्य छोड़कर हाथ में खपड़ा लिये घर-घर भीख मागने की नीचाति नीचि- वृत्ति का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करने लगेंगे, तब लोग आपको क्या कहेंगे? प्रभो! आप सारे उद्योग छोड़कर कल्याण के साधनों से हीन और अंकिचन हुए साधारण पुरुषों के समान भीख मा गने की इच्छा क्यों करते हैं। इस राजकुलम में जन्म लेकर सारे भूमण्डल पर विजय प्राप्त करके अब सम्पूर्ण धर्म और अर्थ दोनों को छोड़कर आप मोह के कारण बन में जाने को उद्यत हुए हैं। यदि आपके त्याग देने पर यज्ञ की इन संचित सामग्रियों को दुष्ट लोग नष्ट कर देंगेतो इसका पाप आपको ही लगेगा(अर्थात् आपने यज्ञ-त्याग छोड़ दिये हैं, अतः आपको आदर्श मानकर दूसरे लोग भी इस कर्म से उदासीन हो जायेंगे, उस दशा में इस धर्मकृत्य का उच्छेद् हो जायगा और इसका दोष आपके सिर ही लगेगा)। राजा नहुष ने निर्धनावस्था में क्रूरतापूर्ण कर्म करके यह दुःखपूर्ण उद्धार प्रकट किया था कि ’इस जगत् में निर्धनता को धिक्कार है! सर्वस्व त्यागकर निर्धन या अकिंचन हो जाना यह मुनियों का ही धर्म है, राजाओं का नहीं’। 

      आप भी इस बात को अच्छी तरह जाहते हैं कि दूसरे दिन के लिये संग्रह न करके प्रतिदिन मागकर खाना यह ऋषि-मुनियों का ही धर्म है। जिसे राजाओं का धर्म कहा गया है, वह तो धन से ही सम्पन्न होता है। राजन्! जो मनुष्य जिसका धन हर लेता है, वह उसके धर्म का भी संहार कर देता है। यदि हमारे धन का अपहरण होने लगे तो हम किसको और कैसे क्षमा कर सकते हैं?दरिद् मनुष्य पास में खड़ा हो तो लोग इस तरह उसकी ओर देखते हैं, मानो वह कोई पापी या कलंकित हो; अतः दरिद्रता इस जगत् में एक पातक है। आप मेरे आगे उसकी प्रशंसा न करें।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद)

      राजन्! जैसे पतित मनुष्य शोचनीय होता है, वैसे ही निर्धन भी होता है; मुझे पतित और निर्धन में कोई अन्तर नहीं जान पड़ता। जैसे पर्वतों से बहुत सी नदियां बहती रहती हैं, उसी प्रकार बढे़ हुए संचित धन से सब प्रकार के शुभ कर्मा का अनुष्ठान होता रहता है। नरेश्वर! धन से ही धर्म, काम और स्वर्ग की सिद्धि होती है। लोगों के जीवन का निर्वाह भी बिना धन के नहीं होता। जैसे गर्मी में छोटी-छोटी नदियां सूख जाती हैं, उसी प्रकार धनहीन हुए मन्दबुद्धि मनुष्य की सारी क्रियाए छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। जिसके पास धन होता है, उसी के बहुत से मित्र होते हैं; जिसके पास धन है, उसी के भाई-बन्धु हैं; संसार में जिसके पास धन है, वही पुरुष कहलाता है और जिसके पास धन है, वही पण्डित माना जाता है। निर्धन मनुष्य यदि धन चाहता है तो उसके लिये धन-की व्यवस्था असम्भव हो जाती है (परंतु धनी का धन बढ़ता रहता है), जैसे जंगल में एक हाथी के पीछे बहुत से हाथी चले आते हैं उसी प्रकार धन से ही धन बॅधा आता है।

        नरेश्वर! धन से धर्म का पालन, कामना की पूर्ति, स्वर्ग की प्राप्‍त , हर्ष की वृद्धि, क्रोध की सफलता, शास्त्रों का श्रवण और अध्ययन तथा शत्रुओं का दमन-- ये सभी कार्य सिद्ध होते हैं। धन से कुल की प्रतिष्ठा बढ़ती है और धन से ही धर्म की वृद्धि होती है। पुरुषवर! निर्धन के लिये तो न यह लोक सुखदायक होता है, न परलोक। निर्धन मनुष्य धार्मिक कृत्यों का अच्छी तरह अनुष्ठान नहीं कर सकता। जैसे पर्वत से नदी झरती रहती है, उसी प्रकार धन से ही धर्म का स्त्रोत बहता रहता है। राजन्!जिसके पास धन की कमी है, गौएं और सेवक भी कम हैं तथा जिसके यहां अतिथियों का आना-जाना भी बहुत कम हो गया है, वास्तव में वही कृश (दुर्बल) कहलाने योग्य है। जो केवल शरीर से कृश नहीं कहा जा सकता। आप न्याय के अनुसार विचार कीजिये और देवताओं तथा असुरों के बर्ताव पर दृष्टि डालिये।

       राजन्! देवता अपने जाति-भाइयों का वध करने के सिवा और क्या चाहते हैं ( एक पिता की संतान होने के कारण देवता और असुर परस्पर भाई-भाई ही तो हैं)। यदि राजा के लिये दूसरे लिये दूसरे के धन का अपहरण करना उचित नहीं है, तो वह धर्म का अनुष्ठान कैसे कर सकता है? वेद शास्त्रों में भी विद्वानों ने राजा के लिये यही निर्णय दिया है कि ’राजा प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय करे, विद्वान् बने, सब प्रकार से संग्रह करके धन ले आये और यत्नपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान करे’। जति-भाइयों से द्रोह करके ही देवताओं ने स्वर्ग लोक के सभी स्थानों पर अधिकार प्राप्त कर लिया है। देवता जिससे धन या राज्य पाना चाहते हैं, वह ज्ञातिद्रोह के सिबा ओर क्या है? यही देवतओं का निश्रय है और यही वेदों का सनातन सिद्धान्त है। धन से ही द्व्जि वेद-शास्त्रों को पढ़ते और पढ़ाते हैं, धन के द्वारा ही यज्ञ करते और कराते हैं तथा राज लोग दूसरों को युद्ध में जीतकर जो उनका धन ले आते हैं, उसी से वे सम्पूर्ण शुभ कर्मां का अनुष्ठान करते हैं किसी भी राजा के पास हम कोई भी ऐसा धन नहीं देखते हैं, जो दूसरों का अपकार करके न लाया गया हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 31-37 का हिन्दी अनुवाद)

      इसी प्रकार सभी राजा इस पृथ्वी को जीतते हैं और जीत कर कहने लगते हें कि ’यह मेरी है’ ।ठीक वैसे ही जैसे पुत्र पिता के धन को अपना बताते हैं। प्राचीनकाल में जो राजर्षि हो गये हैं, जो कि इस समय स्वर्ग में निवास करते हैं, उनके मत में भी राज-धर्मकी ऐसी ही व्याख्या की गयी है जैसे भरे हुए महासागर से मेघ के रूप में उठा हुआ जल समपूर्ण दिशाओं में बरस जाता है, उसी प्रकार धन राजाओं के यहां से निकलकर सम्पूर्ण पृथ्वी में फैल जाता है। पहले यह पृथ्वी वारी-वारी से राज दिलीप, नृग, नहुष, अम्बरीष, और मान्धाता के अधिकार में रही है, वही इस समय आपके अधीन हो गयी है। अतः आपके समक्ष सर्वस्व की दक्षिणा देकर द्रव्यमय यज्ञ के अनुष्ठान करने का अवसर प्राप्त हुआ है।

       राजन्! यदि आप यज्ञ नहीं करेंगे तो आपको सारे राज्य का पाप लगेगा। जिस देशों के राजा दक्षिणायुक्त अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा भगवान का यजन करते हैं, उनके यज्ञ की समाप्ति पर उन देशों के सभी लोग वहां आकर अवभृथस्नान करके पवित्र होते हैं। सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, उन महादेव जी ने सर्व मेघ नामक महायज्ञ में सम्पूर्ण भूतों की तथा स्वयं अपनी भी आहुति दे दी थी। यह क्षत्रियों के लिये कल्याण का सनातन मार्ग है। इसका कभी अन्त नहीं सुना गया है। राजन्! यह वह महान् मार्ग है, जिस पर दस रथ चलते हैं, आप किसी कुल्सित मार्ग का आश्रय न लें।

(इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में अर्जुन वाक्य विषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

नवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर का वानप्रस्थ एवं संन्यासी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का निश्चय”
    
      युधिष्ठिरने कहा ;- अर्जुन! तुम अपने मन और कानों का अन्तःकरण में स्थापित करके दो घड़ी तक एकाग्र हो जाओ, तब मेरी बात सुनकर तुम इसे पसंद करोगे।
      मैं ग्राम्य सुखों का परित्याग करके साधु पुरुषों के चले हुए मार्ग पर तो चल सकता हॅूं; परंतु तुम्हारे आग्रह के कारण कदापि राज्य नहीं स्वीकार नहीं करूंगा। एकाकी पुरुष के चलने योग्य कल्याणकारी मार्ग कौन-सा है? यह मुझसे पूछो अथवा यदि पूछना नहीं चाहते हो तो बिना पूछे भी मुझसे सुनो मैं गँवारों के सुख और आचार पर लात मारकर बन में रहकर अत्यन्त कठोर तपस्या करूंगा, फल-मूल खाकर मृगों के साथ विचारूंगा। दोनों समय स्नान करके यथासमय अग्निहोत्र करूगा और परिमित आहार करके शरीर को दुर्बल कर दूंगा। मृग-चर्म तथा बल्कल वस्त्र धारण करके सिर पर जटा रखूंगा। सर्दी, गर्मी ओर हवा को सहूगा, भूख, प्यास और परिश्रम को सहने का अभ्यास डालॅूगा, शास्त्रोंक्त , तपस्या द्वारा इस शरीर को सुखाता रहूंगा। बन में खिले हुए वृक्षों और लताओं की मनोहर मुगन्ध सूघता हुआ अनेक रूपवाले सुन्दर वनवासियों को देखा करूंग। वहा वानप्रस्थ महात्माओं तथा ऋषिकुलवासी ब्रहमचारी ऋषि- मुनियों का भी दर्शन होगा। मैं किसी वनवासी का भी अप्रिय नहीं करूंगा; फिर ग्रामवासियों की तो बात ही क्या है? एकान्त में रहकर आध्यात्मिक तत्व का विचार किया करूँगा और कच्चा-पक्का जैसा भी फल मिल जायगा। उसी को खाकर जीवन- निर्वाह करूंगा। 
        जंगली फल-मूल, मधुर वाणी, और जल के द्वारा देवतओं तथा पितरों को तृप्त करता रहूगा। इस प्रकार वनवासी मुनियों के लिये शास्त्र में बताये हुए कठोर-से कठोर नियमों का पालन करता हुआ इस शरीर की आयु समाप्त होने की बाट देखता रहूगा। अथवा मैं मूड़ मुड़ाकर मननशील हो जाऊॅगा और एक-एक दिन एक-एक वृक्ष से भिक्षा मागकर आने शरीर को सुखाता रहूगा। शरीर पर धूल पड़ी होगी और सूने घरों में मेरा निवास होगा अथवा किसी वृक्ष के नीचे उसकी जड़ में ही पड़ा रहूंगा। प्रिय और अप्रिय का सारा विचार छोड़ दूगा। किसी के लिये न शोक करूगा न हर्ष। निन्दा और स्तुतिको समान समझॅूगा। आशा और ममता को त्यागकर निद्र्वन्द्व हो जाऊँगा तथा कभी किसी वस्तुका संग्रह नहीं करूगा। आत्मा के चिन्तन में ही सुख का अनुभव करूँगा, मनको सदा प्रसन्न रक्खॅगा, कमी किसी दूसरे के साथ कोई बातचीत नहीं करँगा; गँगों,अंधों ओर बहरों के समान न किसी से कुछ कहूँगा, न किसी को देखूँगा और न किसी की सुनऊँगा। चार प्रकार के समस्त चराचर प्राणियों में से किसी की हिंसा नहीं करॅगा।
       अपने-अपने धर्म में स्थित हुई समस्त प्रजाओं तथा सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति समभाव रक्खूगा। न तो किसी की हॅसी उड़ाऊगा और न किसी के प्रति भौंहो को ही टेढ़ी करूगा। सदा मेरे मुख पर प्रसन्नता छायी रहेगी और मैं सम्पूर्ण इन्द्रियों को पूर्णतः संयम में रक्खूगा। किसी भी मार्ग से चलता रहूगा और कभी किसी से रास्ता नहीं पूछूगा। किसी खास स्थान या दिशा की ओर जाने की इच्छा नहीं रखूगा। कहीं भी मेरे जाने का कोई विशेष उदेदश्य नहीं होगा। न आगे जाने की उत्सुकता होगी, न पीछे फिर कर देखूगा। सरल भाव से रहूगा। मेरी दृष्टि अन्तर्मुखी होगी। स्थावर जड़म जीवों का बचाता हुआ आगे चला रहूंगा। स्वभाव आगे-आगे चलता है, भोजन भी अपने-आप प्रकट हो जाते हैं, सर्दी-गर्मी आदि जो परस्पर विरोधी द्वन्द्वहैं वे सब आते-जाते रहते हैं, अतः इन सबकी चिन्ता छोड़ दूगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद)

     भिक्षा थोड़ी मिली या स्वादहीन मिली, इसका विचार न करके उसे पालूंगा। मिल गया तो ठीक है, न मिलने की दशा में क्रमशः सात घरों में जाऊॅगा, आठवें में नहीं जाऊॅगा। जब घरों में धुआं निकलना बंद हो गया हो, मूसल रख दिया गया हों, परोसी हुई थाली की इधर-उधर ले जाने का काम सात समाप्त हो गया हो और भिखमंगे भिक्षा लेकर लौट गये हों, ऐसे समय मैं एक ही वक्त भिक्षा के लिये दो, तीन या पाच घरों तक जाया करूंगा। सब ओर से स्नेह का बन्धन तोड़कर इस पृथ्वी पर विचरता रहॅंगा। कुछ मिले या न मिले, दोनों ही अवस्था में मेरी दृष्टि समान होगी। 
       मैं महान् तप में संलग्न रहकर ऐसा कोई आचरण नहीं करूगा, जिसे जीने या मरने की इच्छा बाले लोग करते हैं। न तो जीवन का अभिनन्दन करूंगा, न मृत्यु से द्वेष। यदि एक मनुष्य मेरी एक बाह को बसूले से काटता हो और दूसरा दूसरी बाह को चन्दनामिश्रित जल से खींचता हो तो न पहले का अमंगल सोचूंगा और न दूसरे की मंगल कामना करूंगा। उन दोनों के प्रति समान भव रक्खूगा। जीवित पुरुष के द्वारा जो कोई भी अभ्युदयकारी कर्म किये जा सकते हैं, उन सबका परित्याग करके केवल शरीर- निर्वाह के लिये पलकों के खोलने-मींचने या खाने-पीने आदि के कार्य में ही प्रवृत्त हो सकूंगा। इन सब कार्यों में भी आसक्त नहीं होऊॅंगा। 
       सम्पूर्ण इन्द्रियों के व्यापारों से उपरत होकर मन को संकल्प शून्य करके अन्तःकरण का सारा मल धो डालूगा। सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त रहकर स्नेह के सारे बन्धनों को लांघ जाऊॅगा। किसी के अधीन न रहकर वायु के समान सर्वत्र विचारूंगा। इस प्रकार वीतराग हो कर विचरने से मुझे शाश्रवत संतोष प्राप्त होगा। अज्ञान वश तृष्णा ने मुझसे बडे़-बड़े पाप करवाये हैं । कुछ मनुष्य शुभा शुभ कर्म करके कार्य- कारण से अपने साथ जुड़े हुए स्वजनों का भरण-पोषण करते हैं। फिर आयु के अन्त में जीवात्मा इस प्राण शून्य शरीर को त्यागकर पहले के किये हुए उस पाप को ग्रहण करता है; क्योंकि कर्ता को ही उसके कर्म का वह फल प्राप्त होता है। इस प्रकार रथ के पहिये के समान निरन्तर घूमते हुए इस संसार चक्र में आकर जीवों का यह समुदाय कार्यवश अन्य प्राणियों से मिलता है। 
       इस संसार में जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और बेदनाओं का आक्रमण होता ही रहता है, जिससे यहां का जीवन कमी स्वस्थ नहीं रहता । जो अपार-सा प्रतीत होने वाले इस संसार-को त्याग देता है, उसी को सुख मिलता है। जब देवता भी स्वर्ग से नीचे गिरते हैं और महर्षि भी अपने-अपने स्थान से भ्रष्ट हो जाते हैं, तब कारण-तत्व को जानने वाला कौन मनुष्य इस जन्म-मरणरूप संसार से कोई प्रयोजन रखेगा। भाति-भाति के भिन्न-भिन्न कर्म करके विख्यात हुआ राजा भी किन्हीं छोटे-मोटे कारणों से ही दूसरे राजाओं द्वारा मार डाला जाता है। 
       आज दीर्घकाल के पश्चात् मुझे यह विवकेरूपी अमृत प्राप्त हुआ है। इसे पाकर मैं अक्षय, अविकारी एवं सनातन पद प्राप्त करना चाहता हॅूं। अतः इस पूर्वोउक्त धारणा के द्वारा निरन्तर विचरता हुआ मैं निर्भय मार्ग का आश्रय ले जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और वेदनाओं से आक्रान्त हुए इस शरीर को अलग रख दूंगा।

(इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में युधिष्ठिर वाक्य विषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

दसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेनका राजाके लिये संन्यासका विरोध करते हुए अपने कर्तव्यके ही पालनपर जोर देना”
 
     भीमसेन बोले ;- राजन्! जैसे मन्द् और अर्थज्ञान से शून्य श्रोत्रिय की बुद्धि केवल मन्त्रपाठ द्वारा मारी जाती है, उसी प्रकार आपकी बुद्धि भी तात्विक अर्थ को देखने या समझने वाली नहीं है। भरत श्रेष्ठ! यदि राजधर्म की निन्दा करते हुए आपने आलस्यपूर्ण जीवन बिताने का ही निश्चय किया था तो धृतराष्ट्र के पुत्रों का बिनाश कराने से क्या फल मिला? क्षत्रियोचित मार्ग पर चलने वाले पुरुष के हृदय में अपने भाई पर भी क्षमा, दया, करुणा और कोमलता का भाव नहीं रह जाता; फिर आपके हृदय में यह सब क्यों है? यदि हम पहले ही जान लेते कि आपका विचार इस तरह का है तो हम हथियार नहीं उठाते और न किसी का वध ही करते। 
      हम भी आपकी ही तरह शरीर छूटने तक भीख मागकर ही जीवन-निर्वाह करते। फिर तो राजओं में यह भंयकर युद्ध होता ही नहीं। विद्वान् पुरुष कहते हैं कि यह सब कुछ प्राण का अन्न है, स्थावर और जड़ग्म सारा जगत् प्राण का भोजन है। क्षत्रिय-धर्म के ज्ञाता विद्वान् पुरुष यह जानते और बताते हैं कि अपना राज्य ग्रहण करते समय जो कोई भी उसमें बाधक या विरोधी खड़े हों, उन्हें मार डालना चाहिये। युधिष्ठर! जे लोग हमारे राज्य के बाधक या लुटेरे थे, वे सभी अपराधी ही थे; अतः हमने उन्हें मार डाला। उन्हें मारकर धर्मतः प्राप्त हुई इस पृथ्वी का आप उपभोग कीजिये।
          जैसे कोई मनुष्य परिश्रम करके कुआ खोदे और वहां जल न मिलने पर देह में कीचड़ लपेटे हुए वहां से निराश लौट आये, उसी प्रकार हमारा किया- कराया यह सारा पराक्रम व्यर्थ होना चाहता है। जैसे कोई विशाल वृक्ष पर आरूढ़ हो वहां से मधु उतार लाये; परन्तु उसे खाने के पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाय; हमारा यह प्रयत्न भी वैसा ही हो रहा है। जैसे कोई मनुष्य मन में कोई आशा लेकर बहुत बड़ा मार्ग तै करे और वहां पहॅुचने पर निराश लौटे, हमारा यह कार्य भी उसी तरह निष्फल हो रहा है। कुरूनन्दन! जैसे कोई मनुष्य शत्रुओं का वध करने के पश्चात् अपनी भी हत्या कर डाले, हमारा यह कर्म भी वैसा ही है। जैसे भूख मनुष्य भोजन और कामी पुरुष कामिनी को पाकर दैववश उसका उपभोग न करे, हमारा यह कर्म भी वैसा ही निष्फल हो रहा है। 
        भरतवंशी नरेश! हमलोग ही यहां निन्दा के पात्र हैं कि आप- जैसे अल्पबुद्धि पुरुष को बड़ा भाई समझकर आप के पीछे-पीछे चलते हैं। हम बाहुबल से सम्पन्न, अस्त-शस्त्रों के विद्वान् और मनस्वी हैं तो भी असमर्थ पुरुषों के समान एक कायर भाई की आज्ञा में रहते हैं। हम लोग पहले अशरण मनुष्यों को शरण देने वाले थे; किंतु अब हमारा ही अर्थ नष्ट हो गया है। ऐसी दशा में अर्थ सिद्धि के लिये हमारा आश्रय लेने वाले लोग हमारी इस दुर्बलता पर कैसे दृष्टि नहीं डालेंगे? बन्धुओं! मेरा कथन कैसा है? इस पर विचार करो। शास्त्र का उपदेश यह है कि आपत्तिकाल में या बुढ़ापे से जर्जर हो जाने पर अथवा शत्रुओं द्वारा धन-सम्पत्ति से बंचित कर दिये जाने पर मनुष्य को संन्यास ग्रहण करना चाहिये।
       अतः(जब कि हमारे ऊपर पूर्वाक्त संकट नहीं आया है) विद्वान् पुरुष ऐसे अवसर में त्याग या संन्यास की प्रशंसा नहीं करते हैं। सूक्ष्मदर्शी पुरुष तो ऐसे समय में क्षत्रिय के लिये सन्यास लेना उलटे धर्म का उल्लंघन मानते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 19-28 का हिन्दी अनुवाद)

       इसलिये जिनकी क्षात्रधर्म के लिये उत्पत्ति हुई है, जो क्षात्र धर्म में ही तत्पर रहते हैं तथा क्षात्र-धर्मका ही आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, वे क्षत्रिय स्वयं ही उस क्षात्र धर्म की निन्दा कैसे कर सकते हैं? इसके लिये उस विधाता की ही निन्दा क्यों न की जाय, जिन्होंने क्षत्रियों के लिये युद्ध-धर्म का विधान किया है। श्रीहीन, निर्धन एवं नास्तिकों ने वेद के अर्थवाद् वाक्यों द्वारा प्रतिपादित विज्ञान का आश्रय ले सत्य-सा प्रतीत होने वाले मिथ्या मतका प्रचार किया है (वैसे वचनों द्वारा क्षत्रिय का संन्यास में अधिकांर नहीं सिद्ध होता है)। धर्म का बहाना लेकर अपने द्वारा केवल अपना पेट पालते हुए मौनी बाबा बनकर बैठ जाने से कर्तव्य से भ्रष्ट होना ही सम्भव है, जीवन को सार्थक बनाना नहीं। 
       जो पुत्रों और पौत्रों के पालन में असमर्थ हो, देवताओं, ऋषियों तथा पितरों को तृप्त न कर सकता हो और अतिथियों को भोजन देने की भी शक्ति न रखता हो, ऐसा मनुष्य ही अकेला जंगलों में रहकर सुख से जीवन बिता सकता है(आप जैसे शक्तिशाली पुरुषों का यह काम नहीं है)। सदा ही वन में रहने पर भी न तो ये मृग स्वर्ग लोक पर अधिकार पा सके हैं, न सूअर और पक्षी ही। पुण्य की प्राप्ति तो अन्य प्रकार से ही बतलायी गयी है। श्रेष्ठ पुरुष केवल वनवास को ही पुण्यकारक नहीं मानते। 
       यदि कोई राजा संन्यास से सिद्धि प्राप्त कर ले, तब तो पर्वत और वृक्ष बहुत जल्दी सिद्धि पा सकते हैं। क्यों कि ये नित्य संन्यासी, उपद्रव शून्य, परिग्रहरहित तथा निरन्तर ब्रहमचर्य का पालन करने वाले देखे जाते हैं। यदि अपने भाग्य में दूसरों के कर्मां से प्राप्त हुई सिद्धि आती, तब तो सभी को कर्म ही करना चाहिये। अकर्मण्य पुरुष को कमी कोई सिद्धि नहीं मिलती। (यदि अपने शरीर मात्र का भरण-पोषण करने से सिद्धि मिलती हो, तब तो) जल में रहने वाले जीवों तथा स्थावर प्राणियों को भी सिद्धि प्राप्त कर लेनी चाहिये; क्यों कि उन्हें केवल अपना ही भरण-पोषण करना रहता है। 
       उनके पास दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जिसके भरण-पोषण का भार वे उठाते हों। देखिये और विचार कीजिये कि सारा संसार किस तरह अपने कर्मों में लगा हुआ है; अतः आपको भी क्षत्रियों-चित कर्तव्य का ही पालन करना चाहिये। जो कर्मां को छोड़ बैठता है, उसे कभी सिद्धि नहीं मिलती।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में भीमसेन का वचन विषय दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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