सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
प्रथम अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन और युधिष्ठिर का कर्ण के साथ अपना सम्बंध बताते हुए कर्ण को शाप मिलने का वृत्तान्त पूछना”
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण एवं उनके नित्य सखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन एवं उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्वती और उनकी लीलाओं का संकलन करने वाले महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन! पाण्डव एवं विदुर एवं धृतराष्ट तथा भरतवंश की सम्पूर्ण स्त्रियाँ- इन सबने गंगा जी में अपने समस्त सुहृदयों के लिये जलाजंलिया प्रदान कीं। तदनन्तर वे महामनस्वी पाण्डव आत्म शुद्धि का सम्पादन करने के लिये एक मास तक वहीं (गंगातट पर ) नगर से बाहर टिके रहे। मृतकों के लिये जलाअंजलि देकर बैठे हुए धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के पास बहुत से श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि सिद्ध महात्मा पधारे। द्वैपायन, व्यास, नारद, महर्षि देवल, देवस्थान, कण्व तथा उनके श्रेष्ठ शिष्य भी वहाँ आए। इनके अतिरिक्त अनेक वेदवेत्ता एवं पवित्र बुद्धिवाले ब्राह्मण, गृहस्थ एवं स्नातक संत भी वहाँ आकर कुरूश्रेष्ठ युधिष्ठिर से मिले। वे महात्मा महर्षि वहाँ पहुंच कर विधिपूर्वक पूजित हो राजा के दिये हुए बहुमूल्य आसनों पर विराजमान हुए। उस समय के अनुरूप पूजा स्वीकार करके वे सैकड़ों, हज़ारों ब्राह्मण भागीरथी के पावन तट पर शोक से व्याकुल हुए राजा युधिष्ठिर को सब ओर से घेरकर आश्वासन देते हुए यथोचित रूप से उनके पास बैठे रहे। उस समय श्री कृष्णद्वैपायन आदि मुनियों के साथ बात-चीत करके सबसे पहले नारद जी ने धर्मपुत्र युधिष्ठिर से कहा,
नारद जी ने कहा ;- ’महाराज युधिष्ठिर! आपने अपने बाहुबल, भगवान श्रीकृष्ण की कृपा तथा धर्म के प्रभाव से इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर विजय पायी है। ’पाण्डुनन्दन! सौभाग्य की बात है कि आप सम्पूर्ण जगत् को भय में डालने वाले इस संग्राम से छुटकारा पा गये। अब क्षत्रिय धर्म के पालन में तत्पर रहकर आप प्रसन्न तो हैं न? नरेश्वर! आपके शत्रु तो मारे जा चुके। अब आप अपने सुहृदयों को तो प्रसन्न रखते हैं न? इस राज्य- लक्ष्मी को पाकर आपको कोई शोक तो नहीं सता रहा?'
युधिष्ठिर बोले ;- मुनिवर! भगवान श्रीकृष्ण के बाहुबल का आश्रय लेने से, ब्राह्मणों की कृपा होने से तथा भीमसेन और अर्जुन के बल से इस सारी पृथ्वी पर विजय प्राप्त हुई। परंतु ! मेरे हृदय में निरन्तर यह विशाल दुःख बना रहता है कि मैंने लोभवश अपने बन्धु-बांधवों का वृहद संहार करा डाला। भगवन! सुभद्राकुमार अभिमन्यु तथा द्रौपदी के प्यारे पुत्रों को मरवा कर मिली हुई विजय भी मुझे पराजय- सी ही जान पड़ती है। वृष्णिकुल की कन्या मेरी बहू सुभद्रा, जो इस समय द्वारिका में रहती है, जब मधुसूदन श्री कृष्ण यहां से लौटकर द्वारिका जायेंगे, तब इनसे क्या कहेगी?
यह द्रुपदकुमारी कृष्णा अपने पुत्रों के मारे जाने से अत्यन्त दीन हो गयी है। इस बेचारी के भाई-बन्धु भी मार डाले गये। यह हम लोगों के प्रिय और हित में सदा लगी रहती है। मैं जब-जब इसकी ओर देखता हूँ, तब-तब मेरे मन में अधिक से अधिक पीड़ा होने लगती है। भगवन नारद! यह दूसरी बात जो मैं आपसे बता रहा हूँ और भी दुःख देनेवाली है। मेरी माता कुन्ती ने कर्ण के जन्म का रहस्य छिपाकर मुझे बड़े भारी दुःख में डाल दिया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 19-33 का हिन्दी अनुवाद)
जिनमें दस हज़ार हाथियों का बल था, संसार में जिनका सामना करने वाला दूसरा कोई भी महारथी नहीं था, जो रणभूमि में सिंह के समान खेलते हुए विचरते थे, जो बुद्धिमान, दयालु, दाता, संयमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले और धृतराष्ट्र पुत्रों के आश्रय में थे, अभिमानी, तीव्र पराक्रमी, अमर्षशील, नित्य रोष में भरे रहने वाले तथा प्रत्येक युद्ध में हम लोगों पर अस्त्रों एवं वाग्बाणों का प्रहार करने वाले थे, जिनमें विचित्र प्रकार से युद्ध करने की कला थी, जो शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने वाले, धनुर्वेद के विद्वान् तथा अद्भुत पराक्रम कर दिखाने वाले थे, वे कर्ण गुप्तरूप से उत्पन्न हुए माता कुन्ती के पुत्र और हम लोगों के बड़े भाई थे; यह बात हमारे सुनने में आयी है।
जलदान करते समय स्वयं माता कुन्ती ने यह रहस्य बताया था कि कर्ण भगवान सूर्य के अंश से उत्पन्न हुआ मेरा ही सर्वगुण सम्पन्न पुत्र रहा है, जिसे मैंने पहले पानी में बहा दिया था। नारद जी! मेरी माता कुन्ती ने कर्ण को जन्म के पश्चात् एक पेटी में रखकर गंगाजी की धारा में बहाया था, जिन्हें यह सारा संसार अब तक अधिरथ सूत एवं राधा का पुत्र समझता था, वे माता कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र और हम लोगों के सहोदर भाई थे। मैंने अनजाने में राज्य के लोभ में आकर भाई के हाथ से ही भाई का वध करा दिया। इस बात की चिन्ता मेरे अंगों को उसी प्रकार जला रही है, जैसे आग रूई के ढेर को भस्म कर देती है।
कुन्ती नन्दन श्वेतवाहन अर्जुन भी उन्हें भाई के रूप में नहीं जानते थे। मुझको, भीमसेन तथा नकुल- सहदेव को भी इस बात का पता नहीं था; किंतु उत्तम व्रत का पालन करने वाले कर्ण हमें अपने भाई के रूप में जानते थे। सुनने में आया है कि मेरी माता कुन्ती हम लोगों में संधि कराने की इच्छा से उनके पास गयीं थीं और उन्हें बताया था कि ’तुम मेरे पुत्र हो',परंतु महामनस्वी कर्ण ने माता कुन्ती की यह इच्छा पूरी नहीं की। हमने यह भी सुना है कि उन्होनें पीछे माता कुन्ती को यह जबाव दिया कि 'मैं युद्ध के समय राजा दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ सकता; क्यों कि ऐसा करने से मेरी नीचता, क्रूरता और कृतघ्नता सिद्ध होगी।' माता जी! यदि तुम्हारे मत के अनुसार मैं इस समय युधिष्ठिर के साथ संधि कर लूं तो सब लोग यही समझेंगे कि ’कर्ण युद्ध में अर्जुन से डर गया।' अतः मैं पहले समरांग्डण में श्रीकृष्ण सहित अर्जुन को परास्त करके पीछे धर्मपुत्र यधिष्ठिर के साथ संधि करूंगा, ऐसी बात उन्होने कही। तब कुन्ती ने चौड़ी छाती वाले कर्ण से फिर कहा,
कुन्ती ने कहा ;- ’बेटा! तुम इच्छानुसार अर्जुन से युद्ध करो; किंतु अन्य चार भाइयों को अभय दे दो’। इतना कहकर माता कुन्ती थर्थर कांपने लगीं। तब बुद्धिमान कर्ण ने हाथ जोड़कर माता से कहा,
कर्ण ने कहा ;- ’देवि! तुम्हारे चार पुत्र मेरे वश में आ जायेंगे तो भी मैं उनका वध नहीं करूंगा। तुम्हारे पाँच पुत्र निश्चित रूप से बने रहेंगे। यदि कर्ण मारा गया तो अर्जुन सहित तुम्हारे पाँच पुत्र होंगे और यदि अर्जुन मारे गये तो वे कर्ण सहित पाँच होंगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद)
तब पुत्रों का हित चाहने वाली माता ने पुनः अपने ज्येष्ठ पुत्र से कहा,
कुन्ती ने कहा ;- ’बेटा जिन चारों भाइयों का कल्याण करना चाहते हो, उनका अवश्य भला करना’ ऐसा कहकर माता कर्ण को छोड़कर लौट आयीं। उस वीर सहोदर भाई को भाई अर्जुन ने मार डाला। प्रभो! इन गुप्त रहस्यों को न तो माता कुन्ती ने प्रकट किया और न कर्ण ने ही। द्विजश्रेष्ठ! तदनन्तर युद्धस्थल में महाधनुर्धर शूरवीर कर्ण अर्जुन के हाथ से मारे गये। प्रभो! मुझे तो माता कुन्ती के ही कहने से बहुत पीछे यह बात मालूम हुई है कि ’कर्ण हमारे ज्येष्ठ एवं सहोदर भाई थे।’ मैंने भाई की हत्या करायी है; इसलिये मेरे हृदय को तीव्र वेदना हो रही है। कर्ण और अर्जुन की सहायता पाकर तो मैं देवराज इन्द्र को भी जीत सकता था। कौरव सभा में जब दुरात्मा धृतराष्ट-पुत्रों ने मुझे बहुत क्लेश पहुंचाया, तब सहसा मेरे हृदय में क्रोध प्रकट हो गया; परंतु कर्ण को देखकर वह शान्त हो गया। जब धृतराष्ट सभा में दुर्योधन के हित की इच्छा से वे बोलने लगते और मैं उनकी कड़बी एवं रूखी बातें सुनता, उस समय उनके पैरों को देखकर मेरा बढ़ा हुआ रोष शान्त हो जाता था।
मेरा विश्वास है कि कर्ण के दोनों पैर माता कुन्ती के चरणों के सदृश थे। कुन्ती और कर्ण के पैरों में इतनी समानता क्यों है? इसका कारण ढूँढता हुआ मैं बहुत सोचता- विचारता, परंतु किसी तरह कोई कारण नहीं समझ पाता था। नारद जी! संग्राम में कर्ण के पहिये को पृथ्वी क्यों निगल गयी और मेरे बड़े भाई कर्ण को कैसे यह शाप प्राप्त हुआ? इसे आप ठीक-ठीक बताने की कृपा करें। भगवन! मैं आपसे यह सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से सुनना चाहता हॅूं; क्यों कि आप सर्वश विद्वान् हैं और लोक में जो भूत और भविष्य काल की घटनाएं हैं, उन सबको जानते हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में कर्ण की पहचान विषयक पहला अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
द्वितीय अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“नारद जी का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! यधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ नारद मुनि ने सूत पुत्र कर्ण को जिस प्रकार शाप प्राप्त हुआ था, वह सब प्रसंग कह सुनाया।
नारद जी ने कहा ;- महाबाहु भरतनन्दन! तुम जैसा कह रहे हो, ठीक ऐसी ही बात है। वास्तव में कर्ण और अर्जुन के लिये युद्ध में कुछ भी असाध्य नहीं हो सकता था। अनघ! यह देवताओं की गुप्त बात है, जिसको मैं तुम्हें बता रहा हॅूं। महाबाहो! पूर्वकाल के इस यथावत वृत्तान्त को तुम ध्यान देकर सुनो। प्रभो! एक समय देवताओं ने यह विचार किया कि कोन-सा ऐसा उपया हो, जिससे भूमण्डल का सारा क्षत्रिय समुदाय शस्त्रों के आघात से पवित्र हो स्वर्ग लोक में पहुଁच जाय। यह सोचकर उन्होने सूर्य द्वारा कुमारी कुन्ती के गर्भ से एक तेजस्वी बालक उत्पन्न कराया, जो संघर्ष का जनक हुआ। वही तेजस्वी बालक सूत पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
उसने अड़िगरागोत्रीय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ गुरू द्रोणाचार्य से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की। राजेन्द्र! वह भीमसेन का बल, अर्जुन की फुर्ती, आपकी बुद्धि, नकुल और सहदेव की विनय, गाण्डीव-धारी अर्जुन की श्रीकृष्ण के साथ बचपन में ही मित्रता तथा पाण्डवों पर प्रजा का अनुराग देखकर चिन्तामग्न हो जलता रहता था। इसी लिये उसने बाल्यावस्था में ही राजा दुर्योधन के साथ मित्रता स्थापित कर ली और दैव की प्ररेणा से तथा स्वभाव वश भी वह आप लोगों के साथ सदा द्वेष रखने लगा।
एक दिन अर्जुन को धनुर्वेद में अधिक शक्तिशाली देख कर्ण ने एकान्त में द्रोणाचार्य के पास जाकर कहा,
कर्ण ने कहा ;- ’गुरूदेव! मैं बाणों को उसके छोड़ने और लौटाने के रहस्य सहित जानना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं अर्जुन के साथ युद्ध करूँ । निश्चय ही आपका सभी शिष्यों और पुत्र पर बराबर स्नेह है। आपकी कृपा से विद्वान् पुरुष यह न कहें कि यह सभी अस्त्रों का ज्ञाता नहीं है। कर्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन के प्रति पक्षपात रखने वाले द्रोणाचार्य कर्ण की दुष्टता को समझकर उससे बोले,
द्रोणाचार्य ने कहा ;- ’वत्स! ब्रह्मास्त्र को ठीक-ठीक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला ब्राह्मण जान सकता है अथवा तपस्वी क्षत्रिय दूसरा कोई किसी तरह इसे नहीं सीख सकता।' उनके ऐसा कहने पर अड़िगरागोत्रीय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य की आज्ञा ले उनका यथोचित सम्मान करके कर्ण सहसा महेन्द्र पर्वत पर परशुराम जी के पास चला गया। परशुराम जी के पास जाकर उसने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और ’मैं भृगवंशी ब्राह्मण हॅूं’ ऐसा कहकर उसने गुरूभाव से उनकी शरण ली। परशुराम जी ने गोत्र आदि सारी बातें पूछकर उसे शिष्य भाव से स्वीकार कर लिया और कहा,
परशुरामजी ने कहा ;- ’वत्स! तुम यहाँ रहो। तुम्हारा स्वागत है।’ ऐसा कहकर वे मुनि उसपर बहुत प्रसन्न हुए। स्वर्ग लोग के सदृश मनोहर उस महेन्द्र पर्वत पर रहते हुए कर्ण को गन्धर्वों, राक्षसों, यक्षों तथा देवतओं से मिलने का अवसर प्राप्त होता रहता था। उस पर्वत पर भृगश्रेष्ठ परशुराम जी से विधिपूर्वक धनुर्वेद सीखकर कर्ण उसका अभ्यास करने लगा। वह देवताओं, दानवों एवं राक्षसों का अत्यन्त प्रिय हो गया। एक दिन की बात है, सूर्य पुत्र कर्ण हाथ में धनुष बाण और तलवार ले समुद्र के तट पर आश्रम के पास ही अकेला टहल रहा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद)
पार्थ! उस समय अग्निहोत्र में लगे हुए किसी वेदपाठी ब्राह्मण की होमधेनु उधर आ निकली। उसने अनजाने में उस धेनु को (हिस्त्र जीव समझकर) अकस्मात मार डाला। अनजाने में यह अपराध बन गया है, ऐसा समझकर कर्ण ने ब्राह्मण को सारा हाल बता दिया और उसे प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहा,
कर्ण ने कहा ;- ’भगवन! मैंने अनजाने में आपकी गाय मार डाली है, अतः आप मेरा यह अपराध क्षमा करके मुझ पर कृपा कीजिये, ’कर्ण ने इस बात को बार-बार दुहराया, ब्राह्मण उसकी बात सुनते ही कुपित हो उठा और कठोर वाणी द्वारा उसे डांटता हुआ सा बोला,
ब्राह्मण ने कहा ;- ’दुराचारी! तू मार डालने योग्य है। दुर्मते ! तू अपने इस पाप का फल प्राप्त कर ले। पापी! तू जिसके साथ सदा ईर्ष्या रखता है और जिसे परास्त करने के लिये निरन्तर चेष्टा करता है, उसके साथ युद्ध करते हुए तेरे रथ के पहिये को धरती निगल जायेगी। नारदजी का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना नराधम! जब पृथ्वी में तेरा पहिया फॅंस जायेगा और तू अचेत-सा हो रहा होगा, उस समय तेरा शत्रु पराक्रम करके तेरे मस्तक को काट गिरायेगा। अब तू चला जा। ’ओ मूढ! जैसे असावधान होकर तूने इस गौ का बध किया है, उसी प्रकार असावधान-अवस्था में ही शत्रु तेरा सिर काट डालेगा।' इस प्रकार शाप प्राप्त होने पर कर्ण ने उस श्रेष्ठ ब्राह्मण को बहुत- सी गौएँ, धन और रत्न देकर उसे प्रसन्न करने की चेष्टा की। तब उसने इस प्रकार उत्तर दिया,
ब्राह्मण ने कहा ;- ’सारा संसार आ जाये तो भी कोई मेरी बात को झूठी नहीं कर सकता। तू यहाँ से जा या खड़ा रह अथवा तुझे जो कुछ करना हो, वह कर ले। ब्राह्मण के ऐसा कहने पर कर्ण को बड़ा भय हुआ। उसने दीनतावश सिर झुका लिया। वह मन-ही-मन उस बात का चिन्तन करता हुआ परशुराम जी के पास लौट आया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में कर्ण को ब्राह्मण का शाप नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
तृतीय अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम जी का शाप”
नारद जी कहते हैं ;- राजन! कर्ण के बाहुबल, प्रेम, इन्द्रिय संयय तथा गुरूसेवा से भृगश्रेष्ठ परशुराम जी बहुत संतुष्ट हुये। तदनन्तर तपस्वी परशुराम ने तपस्या में लगे हुए कर्ण को शान्त भाव से प्रयोग और उपसंहार विधि सहित सम्पूर्ण ब्रह्मास्त्र की विधिपूर्वक शिक्षा दी। ब्रह्मास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके कर्ण परशुराम जी के आश्रम में प्रसन्नता पूर्वक रहने लगा। उस अद्भुत पराक्रमी वीर ने धनुर्वेद के अभ्यास के लिये बड़ा परिश्रम किया। तत्पश्चात् एक समय बुद्धिमान परशुराम जी कर्ण के साथ अपने आश्रम के निकट ही घूम रहे थे। उपवास करने के कारण उनका शरीर दुर्बल हो गया था। कर्ण के ऊपर उनका पूरा विश्वास होने के कारण उसके प्रति सौहार्द हो गया था। वे मन-ही-मन थकावट का अनुभव कर रहे थे, इसलिये गुरूवर जमदग्निनन्दन परशुराम जी, कर्ण की गोद में सिर रखकर सो गये। इसी समय लार, मेदा, मांस और रक्त का आहार करने वाला एक भयानक कीड़ा, जिसका स्पर्श (डंक मारना) बड़ा भयंकर था, कर्ण के पास आया। उस रक्त पीने वाले कीड़े ने कर्ण की जाँघ के पास पहुँच कर उसे छेद दिया; परंतु गुरूजी के जागने के भय से कर्ण न तो उसे फेंक सका और न मार ही सका।
भरतनन्दन! वह कीड़ा उसे बार बार डँसता रहा, तो भी सूर्यपुत्र कर्ण ने कहीं गुरूजी जाग न उठें, इस आशंका से उसकी उपेक्षा कर दी। यद्यपि कर्ण को असहय वेदना हो रही थी तो भी वह धैर्य पूर्वक उसे सहन करके कम्पिय और व्यथित न होता हुआ परशुरामजी को गोद में लिये रहा। जब उसका रक्त परशुराम जी के शरीर में लग गया, तब वे तेजस्वी भार्गव जाग उठे और भयभीत होकर इस प्रकार बोले,
परशुराम जी ने कहा ;- ’अरे! मैं तो अशुद्ध हो गया! तू यह क्या कर रहा है? भय छोड़कर मुझे इस विषय में ठीक-ठीक बता’। तब कर्ण ने उनसे कीड़े के काटने की बात बतायी। परशुराम जी ने भी उस कीड़े को देखा, वह सूअर के समान जान पड़ता था। उसके आठ पैर थे और तीखी दाढ़ें। सुई जैसी चुभने वाली रोमावलियों से उसका सारा शरीर भरा तथा रूंधा हुआ था। वह ’अलर्क’ नाम से प्रसिद्ध कीड़ा था। परशुराम जी की दृष्टि पड़ते ही उसी रक्त से भीगे हुए कीडे़ ने प्राण त्याग दिये, वह एक अद्भुत सी बात हुई है। तदनन्तर आकाश में सब तरह के रूप धारण करने में समर्थ एक विकराल राक्षस दिखायी दिया, उसकी ग्रीवा लाल थी और शरीर का रंग काला था, वह बादलों पर आरूढ़ था। उस राक्षस ने पूर्ण मनोरथ हो, हाथ जोड़कर परशुरामजी से कहा,
राक्षस ने कहा ;- ’भृगश्रेष्ठ ! आपका कल्याण हो। मैं जैसे आया था, वैसे लोट जाऊँगा। मुनिप्रवर! आपने इस नरक से मुझे छुटकारा दिला दिया। आपका भला हो, मैं आपको प्रणाम करता हूँ, आपने मेरा बड़ा प्रिय कार्य किया है।' तब महाबाहु प्रतापी जमदग्निनन्दन परशुराम ने उससे पूछा,
परशुरामजी ने पूछा ;- ’तू कौन है? और किस कारण से इस नरक में पड़ा था? बतलाओ।'
उसने (राक्षस) उत्तर दिया ;- ’तात! प्राचीन काल के सत्ययुग की बात है। मैं दंश नाम से प्रसिद्ध एक महान् असुर था। महर्षि भृगु के बराबर ही मेरी भी अवस्था रही।’
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद)
एक दिन मैंने भृगु की प्राण प्यारी पत्नी का बल पूर्वक अपहरण कर लिया, इससे महर्षि ने शाप दे दिया और मैं कीड़ा होकर इस पृथ्वी पर गिर पड़ा। आपके पूर्व पितामह भृगुजी ने शाप देते समय कुपित होकर मुझसे इस प्रकार कहा,
भृगु जी ने कहा ;- ’ओ पापी! तू मूत्र और लार आदि खाने वाल कीडा होकर नरक में पडे़गा’।
तब मैंने उनसे कहा ;-- ’ब्रह्मन ! इस शाप का अन्त भी होना चाहिये।’ यह सुनकर भृगुजी बोले,
भृगु जी बोले ;- ’भृगुवंशी परशुराम से इस शाप का अन्त होगा’। वहीं मैं इस गति को प्राप्त हुआ था, जहां कभी कुशल नहीं बीता। साधो! आपका समागम होने से मेरा इस पाप-योनि से उद्धार हो गया। परशुराम जी से ऐसा कहकर वह महान् असुर उन्हें प्रणाम करके चला गया। इसके बाद परशुराम जी ने कर्ण से क्रोध पूर्वक कहा,
परशुराम जी ने कहा ;- ’ओ मूर्ख! ऐसा भारी दुःख ब्राह्मण कदापि नहीं सह सकता। तेरा धैर्य तो क्षत्रिय के समान है। तू स्वेच्छा से ही सत्य बता, कौन है?’ कर्ण परशुराम जी के शाप के भय से डर गया। अतः उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करते हुये कहा,
कर्ण ने कहा ;- ’भार्गव! आप यह जान लें कि मैं ब्राह्मण और क्षत्रिय से भिन्न सूत जाति में पैदा हुआ हूँ। भूमण्डल के मनुष्य मुझे धापुत्र कर्ण कहते हैं। ब्राह्मण भृगुनन्दन! मैंने अस्त्र के लोभ से ऐसा किया है, आप मुझ पर कृपा करें। इसमें संदेह नहीं कि वेद और विधा का दान करने वाला शक्तिशाली गुरू पिता के ही तुल्य है; इसलिये मैंने आपके निकट अपना गोत्र भार्गव बताया है। यह सुन कर भृगुश्रेष्ठ परशुराम जी इतने रोष में भर गये, मानो वे उसे दग्ध कर डालेंगे। उधर कर्ण हाथ जोड़ दीन भाव से काँपता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब वे उससे बोले,
परशुराम जी ने कहा ;- ’मूढ! तूने ब्रह्मास्त्र के लोभ से झूठ बोल कर यहाँ मेरे साथ मिथ्याचार (कपटपूर्ण व्यवहार) किया है, इसलिये जब तक तू संग्राम में अपने समान योद्धा के साथ नहीं भिड़ेगा और तेरी मृत्यु का समय निकट नहीं आ जाएगा, तभी तक तुझे इस ब्रह्मास्त्र का स्मरण बना रहेगा। जो ब्राह्मण नहीं है, उसके हृदय में ब्रह्मास्त्र कभी स्थिर नहीं रह सकता, अब तू यहाँ से चला जा। तुझ मिथ्यावादी के लिये यहाँ स्थान नहीं है, परंतु मेरे आशीर्वाद से कोई भी क्षत्रिय युद्ध में तेरी समानता नहीं करेगा’। परशुराम जी के ऐसा कहने पर कर्ण उन्हें न्याय पूर्वक प्रणाम करके वहाँ से लौट आया और दुर्योधन के पास पहुँच कर बोला,
कर्ण बोला ;- ’मैंने सब अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया’।
(इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में कर्ण को अस्त्र की प्राप्ति नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
चौथा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण की सहायता से समागत राजाओं को पराजित करके दुर्योधन द्वारा स्वयंवर से कलिंगराज की कन्या का अपहरण”
नारद जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार भार्गव-नन्दन परशुराम से ब्रह्मास्त्र पाकर कर्ण दुर्योधन के साथ आनन्द पूर्वक रहने लगा। राजन! तदनन्तर किसी समय कलिंड़्ग देश के राजा चित्रागंद के यहाँ स्वयंवर महोत्सव में देश-विदेश के राजा एकत्र हुए। भरतनन्दन! कलिंड़्गराज की राजधानी राजपुर नामक नगर में थी, वह नगर बड़ा सुन्दर था। राजकुमारी को प्राप्त करने के लिये सैकड़ों नरेश वहाँ पधारे। दुर्योधन ने जब सुना कि वहाँ सभी राजा एकत्र हो रहे हैं, तो वह स्वयं भी सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ हो कर्ण के साथ गया। नृपश्रेष्ठ! वह स्वयंवर महोत्सव आरम्भ होने पर राजकन्या को पाने के लिये जो बहुत से नरेश वहाँ पधारे थे, उनके नाम इस प्रकार हैं। शिशुपाल, जरासंध, भीष्मक, वक्र, कपोतरोमा, नील, सुदृढ पराक्रमी रूक्मी, स्त्रीराज्य के स्वामी महाराज श्रृगाल, अशोक, शतधन्वा, भोज और वीर। ये तथा और भी बहुत से नरेश दक्षिण दिशा की उस राजधानी में गये। उनमें म्लेच्छ, आर्य, पूर्व और उत्तर सभी देशों के राजा थे। उन सब ने सोने के बाजूबंद पहन रखे थे। सभी की अड़ग क्रान्ति शुद्ध सुवर्ण के समान दमक रही थी।
सबके शरीर तेजस्वी थे और सभी व्याघ्र के समान उत्कट बलशाली थे। भारत! जब सब राजा स्वयंवर सभा में बैठ गये, तब उस राजकन्या ने धाय और खोजों के साथ रणभूमि में प्रवेश किया। भरतनन्दन! तत्पश्चात् जब उसे राजाओं के नाम सुना-सुनाकर उनका परिचय दिया जाने लगा, उस समय वह सुन्दरी राजकुमारी धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के सामने से होकर आगे बढ़ने लगी। कुरूवंशी दुर्योधन को यह सहन नहीं हुआ कि राजकन्या उसे लाँघकर अन्यत्र जाय। उसने समस्त नरेशों का अपमान करके उसे वहीं रोक लिया। राजा दुर्योधन को भीष्म और द्रोणाचार्य का सहारा प्राप्त था; इसलिये वह बल के मद से उन्मत्त हो रहा था। उसने उस राजकन्या को रथ पर बिठाकर उसका अपहरण कर लिया।
पुरुषोत्तम! उस समय शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण रथ पर आरूढ़ हो हाथ में दस्ताने बाँधे और तलवार लिये दुर्योधन के पीछे-पीछे चला। तदनन्तर युद्ध की इच्छा वाले राजाओं में से कुछ लोग कवच बाँधने और कुछ रथ जोतने लगे। उन सब लोगों में बड़ा भारी संग्राम छिड़ गया। जैसे मेघ दो पर्वतों पर जल की धारा बरसा रहे हों, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोध में भरे हुए वे नरेश कर्ण और दुर्योधन दोनों टूट पड़े तथा उनके ऊपर बाणों की वर्षा करने लगे। कर्ण ने एक एक बाण से उन सभी आक्रमणकारी नरेशों के धनुष और बाण-समूहों को भूतल पर काट गिराया। तदनन्तर प्रहार करनेवालों में श्रेष्ठ कर्ण ने जल्दी-जल्दी बाण मारकर उन सब राजाओं को व्याकुल कर दिया, कोई धनुष से रहित हो गये, कोई अपने धनुष को ऊपर ही उठाये रह गये, कोई बाण, कोई रथशक्ति और कोई गदा लिये रह गये। जो जिस अवस्था में थे, उसी अवस्था में उन्हें व्याकुल करके कर्ण ने उनके सारथियों को मार डाला और उन बहु-संख्यक नरेशों को परास्त कर दिया। वे पराजित भूपाल भग्रमनोरथ हो स्वयं ही घोडे़ हाँकते और ’बचाओ-बचाओ’ की रट लगाते हुए युद्ध छोड़कर भाग गये। दुर्योधन कर्ण से सुरक्षित हो राजकन्या को साथ लिये राजी-खुशी हस्तिनापुर वापस आ गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में दुर्योधन के द्वारा स्वयंवर में राजकन्या का अपहरण नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
पाचवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) पञ्चम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण के बल और पराक्रम का वर्णन, उसके द्वारा जरासंध की पराजय और जरासंध का कर्ण को अंग देश में मालिनी नगरी का राज्य प्रदान करना”
नारद जी कहते हैं ;- राजन् ! कर्ण के बलकी ख्याति सुनकर मगधदेश के राजा जरासंध ने द्वैरथ युद्ध के लिये उसे ललकारा।वे दोनों ही दिव्यास्त्रों के ज्ञाता थे। उन दोनों में युद्ध आरम्भ हो गया। वे रणभूमि में एक दूसरे पर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। दोनों के ही बाण क्षीण हो गये, धनुष कट गये और तलवारों के टुकड़े-टुकड़े हो गये ।तब वे दोनों बलशाली वीर पृथ्वी पर लड़े हो भुजाओं द्वारा मल्लयुद्ध करने लगे। कर्ण ने बाहुकण्टक युद्ध के द्वारा जरा नामक राक्षसी के जोडे़ हुए युद्ध परायण जरासंध के शरीर की संधि को चीरना आरम्भ किया। राजा जरासंध ने अपने शरीर के उस विकार को देखकर बैरभाव को दूर हटा दिया और कर्ण से कहा--’मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हॅूं। साथ ही उसने प्रसन्नता पूर्वक कर्ण को अड़गदेश की मालिनी नगरी दे दी।
नरश्रेष्ठ ! शत्रु विजयी कर्ण तमी से अड़गदेश का राजा हो गया था। इसके बाद दुर्योधन की अनुमति से शत्रु- सैन्यसंहारी कर्ण चम्पा नगरी-- चम्पारन का भी पालन करने लगा। यह सब तो तुम्हें भी ज्ञात ही है। इस प्रकार कर्ण अपने शस्त्रों के प्रताप से समस्त भूमण्डल में विख्यात हो गया। एक दिन देवराज इन्द्र ने तुम लोगों के हित के लिये कर्ण से उसके कवच और कुण्डल मांगे। देवमाया से मोहित हुए कर्ण ने अपने शरीर के साथ ही उत्पन्न हुए दोनों दिव्य कुण्डलों और कवच को भी इन्द्र के हाथ में दे दिया। इस प्रकर जन्म के साथ ही उत्पन्न हुए कवच और कुण्डलों से हीन हो जाने पर कर्ण को अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के देखते-देखते मारा था। एक तो उसे अग्निहोत्री ब्राह्मणतथा महात्मा परशुराम जी के शाप मिले थे। दूसरे, उसने स्वयं भी कुन्ती को अन्य चार भाइयों की रक्षा के लिये वरदान दिया था। तीसरे, इन्द्र ने माया करके उसके कवच- कुण्डल ले लिये। चैथे, महारथियों की गणना करते समय भीष्म जी ने अपमानपूर्वक उसे बार-बार अर्धरथी कहा था। पाचवें, शल्यकी ओरसे उसके तेज को नष्ट करने का प्रयास किया गया था और छठे, भगवान श्रीकृष्ण की नीति भी कर्ण के प्रातिकूल काम कर रही थी-- इन सब कारणों से वह पराजित हुआ। इधर, गाण्डीवधारी अर्जुन ने रूद्र, देवराज इन्द्र, यम, वरूण, कुबेर, द्रोणाचार्य, तथा महात्मा कृप के दिये हुए दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये थे; इसी लिये युद्ध में उन्होंने सूर्य के समान तेजस्वी वैकर्तन कर्ण का वध किया। पुरुषोत्तम युधिष्ठिर! इस प्रकार तुम्हारे भाई कर्ण को शात तो मिला ही था, बहुत लोगों ने उसे ठक भी लिया था, तथापि वह युद्ध में मारा गया है, इसलिये शोक करने के योग्य नहीं है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में कर्ण के पराक्रम कथन नामक पाचवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें