सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
ग्यारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“राजा धृतराष्ट्रसे कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा की भेंट और कृपाचार्य का कौरव-पाण्डवोंकी सेनाके विनाश की सूचना देना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;– राजन ! वे सब लोग हस्तिनापुरसे एस ही कोसकी दूरीपर पहुँचे होंगे कि उन्हें शरद्वानके पुत्र कृपाचार्य, द्रोणकुमार अश्वत्थामा और कृतवर्मा – ये तीनों महारथी दिखायी दिये। रोते हुए एश्वर्यशाली प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्र को देखते ही आँसुओंसे उनका गला भर आया और वे इस प्रकार बोले,
कृपाचार्य बोले ;- ‘पृथ्वीनाथ महाराज ! आपका पुत्र अत्यन्त दुष्कर कर्म करके अपने सेवकोंसहित इन्द्रलोकमें जा पहुँचा है। ‘भरतश्रेष्ठ ! दुर्योधनकी सेनासे केवल हम तीन रथी ही जीवित बचे हैं । आपकी अन्य सारी सेना नष्ठ हो गयी’। राजा धृतराष्ट्र से ऐसा कहकर शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य पुत्रशोकसे पीडित हुई गान्धारीसे इस प्रकार बोले,
कृपाचार्य बोले ;- ‘देवि ! आपके सभी पुत्र निर्भय होकर जूझते और बहु-संख्यक शत्रुओंका संहार करते हुए वीरोचित कर्म करके वीरगतिको प्राप्त हुए हैं ।‘निश्चय ही वे शस्त्रोंद्वारा जीते हुए निर्मल लोकोंमें पहुँचकर तेजस्वी शरीर धारण करके वहाँ देवताओंके समान विहार करते होंगे । ‘उन शूरवीरोंमेसे कोई भी युद्ध करते समय पीठ नहीं दिखा सका है। किसीने भी शत्रुके हाथ नहीं जोडे़ हैं । सभी शस्त्रके द्वारा मारे गये हैं।
‘इस प्रकार युद्ध में जो शस्त्रद्वारा मृत्यु होती है, उसे प्राचीन महर्षि क्षत्रियके लिये उत्तम गति बताते है; अत: उनके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये । ‘महारानी ! उनके शत्रु पाण्डव भी विशेष लाभमें नहीं हैं। अश्वत्थामाको आगे करके हमने जो कुछ किया है, उसे सुनिये । ‘भीमसेन ने आपके पुत्रको अधर्मसे मारा है, यह सुनकर हमलोग भी पाण्डवोंके सोते हुए शिविरमें जा पहुँचे और पाण्डववीरोंका संहार कर डाला। द्रुपदके पुत्र धृष्ट्द्युम्न आदि सारे पांचाल मार डाले गये और द्रौपदी के पॉंचों पुत्रोंको भी हमने मार गिराया । ‘इस प्रकार आपके शत्रुओं का रणभूमिमें संहार करके हम तीनों भागे जा रहे है । अब यहाँ ठहर नहीं सकते। ‘क्योंकि अमर्षमें भरे हुए वे महाधनुर्धर वीर पाण्डव वैरका बदला लेने की इच्छासे शीघ्र यहाँ आयेंगे ।
‘यशस्विनि ! अपने पुत्रोंके मारे जानेका समाचार सुनकर सदा सावधान रहनेवाले पुरुषप्रवर पाण्डव हमारा चरणचिन्ह देखते हुए शीघ्र ही हम लोगों का पीछा करेंगे । ‘रानीजी ! उनके पुत्रों और सम्बन्धियोंका विनाश करके हम यहाँ ठहर नहीं सकते; अत: हमें जानेकी आज्ञा दिजिये और आप भी अपने मनसे शोकको निकाल दीजिये ।
फिर वे धृतराष्ट्रसे बोले ;-- ‘राजन् ! आप भी हमें जानेकी आज्ञा प्रदान करें और महान् धैर्यका आश्रय लें, केवल क्षात्रधर्मपर दृष्टि रखकर इतना ही देखें कि उनकी मृत्यु कैसे हुई है ? भारत ! राजासे ऐसा कहकर उनकी प्रदक्षिणा करके कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्मामाने मनीषीराज धृतराष्ट्रकी ओर देखते हुए तुरंत ही गंगा तट की ओर अपाने घोड़े हाँक दिये । राजन् वहाँसे हटकर वे सभी महारथी उद्विग्न हो एक दूसरेसे विदाले तीन मार्गोंपर चल दिये । शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य तो हस्तिनापुर चले गये, कृतवर्मा अपने ही देशकी ओर चल दिया और द्रोणपुत्र अश्वत्थामाने व्यास-आश्रमकी राह ली । महात्मा पाण्डवोंका अपराध करके भयसे पीडित हुए वे तीनों वीर इस प्रकार एक दूसरेकी ओर देखते हुए वहाँसे खिसक गये ।
राजा धृतराष्ट्रसे मिलकर शत्रुओंका दमन करनेवाले वे तीनों महामनस्वी वीर सूर्योदयसे पहले ही अपने अभीष्ट स्थानोंकी ओर चल पड़े । राजन्! तदनन्तर महारथी पाण्डवोंने द्रोणपुत्र अश्वत्थामा-के पास पहुँचकर उसे बलपूर्वक युद्धमें पराजित किया ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्व में कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्माका दर्शनविषयक ग्यारहवॉं अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
बारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“पाण्डवोंका धृतराष्ट्रसे मिलना, धृतराष्ट्रके द्वारा भीमकी लोहमयी प्रतिमाका भडग्. होना और शोक करनेपर श्री कृष्णका उन्हें समझाना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- महाराज जनमेजय ! समस्त सेनाओंका संहार हो जानेपर धर्मराज युधिष्ठरने जब सुना कि हमारे बूढ़े ताऊ संग्राममें मरे हुए वीरोंका अन्तयेष्टिकर्म कराने के लिये हस्तिनापुर चल दियें हैं, तब वे स्वयं पुत्रशोक से आतुर हो पुत्रोंके ही शोकमें डूबकर चिन्तामग्न हुए राजा धृतराष्ट्के पास अपने सब भाइयोंके साथ गये । उस समय दशार्हकुलनन्दन वीर महात्मा श्रीकृष्ण, सात्यकि और युयुत्सु भी उनके पीछे-पीछे गये ।अत्यन्त दु:खसे आतुर और शोकसे दुबली हुई द्रौपदीने भी वहॉं आयी हुई पत्र्चाल- महिलाओंके साथ उनका अनु-सरण किया । भरतश्रेष्ठ ! गंगा तट पर पहुँचकर युधिष्ठर ने कुररी की तरह आर्तस्वर से विलाप करती हुई स्त्रियोंके कई दल देखे । वहॉं पाण्डवों के प्रिय और अप्रिय जनोंके लिय हाथ उठाकर आर्तस्वरसे रोती और करुण क्रनदन करती हुई सहस्त्रों महिलाओं ने राज युधिष्ठिर को चारों ओरसे घेर लिया ।
वे बोलीं ;– ‘अहो ! राजाकी वह धर्मज्ञता और दयालुता कहॉं चली गयी कि इन्होंने ताऊ, चाचा, भाई, गुरुपुत्रों ओर मित्रोंका भी वध कर डाला । ‘महाबाहो ! द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म और जयद्रथका भी वध करके आपके मनकी कैसी अवस्था हुई ? ‘भरतवंशी नरेश ! अपने ताऊ, चाचा और भाइयोंको, दुर्जय वीर अभिमन्युको तथा द्रौपदीके सभी पुत्रोंकोन देखनेपर इस राज्यसे आपका क्या प्रयोजन है ?’ । धर्मराउज महाबाहु युघिष्ठरने कुररीकी भाँति क्रन्दन करती हुई स्त्रियोंके घेरेको लॉंघकर अपने ताऊ धृतराष्ट्रको प्रणाम किया । तत्पश्चात् सभी शुत्रुसूदन पाण्डवों ने धर्मानुसार ताऊ को प्रणाम करके अपने नाम बताये ।
पुत्रवधसे पीडित हुए पिताने शोकसे व्याकुल हो आने पुत्रोंका अन्त करनेवाले पाण्डुपुत्र युघिष्ठिरको हृदयसे लगाया; परंतु उस समय उनका मन प्रसन्न नहीं था । भरतनन्दन ! धर्मराजको हृदयसे लगाकर उन्हे सान्तवना दे धृतराष्ट्र भीमको इस प्रकार खोजने लगे, मानो आग बनकर उन्हें जला डालना चाहते हों । उस समय उनकें मनमें दुर्भावना जाग उठी थी । शोकरूपी वायुसे बढ़ी हुई उनकी क्रोधमयी अग्नि ऐसी दिखायी दे रही थी, मानो वह भीमसेनरूपी वनको जलाकर भस्म कर देना चाहती हो । भीमसेनके प्रति उनके सुगम अशुभ संकल्पको जानकर श्री-कृष्णने भीमसेनको झटका देकर हटा दिया और दोनों हाथों से उनकी लोहमयी मूर्ति धृतराष्ट्रके सामनेकर दी ।
महाज्ञानी और परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्णको पहलेसे ही उनका अभिप्राय ज्ञात हो गया था, इसलिये उन्होंने वहॉं यह व्यवस्था कर ली थी । बलवान् राजा धृतराष्ट्र उस लोहमय भीमसेनको ही असली भीम समझा और उसे दोनों बॉंहोसे दबाकर तोड़ डाला । राजा धृतराष्ट्र में दस हजार हाथियोंका बल था तो भी भीमकी लोहमयी प्रतिमाको तोड़कर उनकी छाती व्यथित हो गयी और मुँहसे खून निकलने लगा । वे उसी अवस्थामें खूनसे भींगकर पृथ्वीपर गिर पडे़, मानो ऊपरकी डालीपर खिले हुए लाल फूलोंसे सुशोभित पारिजातका वृक्ष धराशायी हो गया हो । उस समय उनके विद्वान् सारथि गवल्यणपुत्र संजय-ने उन्हें पकड़कर उठाया और समझा-बुझाकर शान्त करते हुए कहा,
संजय ने कहा ;— ‘आपको ऐसा नहीं करना चाहिये’ । जब रोषका आवेश दूर हो गया, तब वे महामना नरेश क्रोध छोड़कर शोकमें डूब गये और ‘हा भीम ! हा भीम ! कहते हुए विलाप करने लगे । उन्हें भीमसेनके वधकी आशड्का से पीडित और क्रोध-शून्य हुआ जान पुरुषोंत्तम श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;-- ‘महाराज धृतराष्ट्र ! आप शोक न करें । ये भीम आपके हाथसे नहीं मारे गये हैं । प्रभो ! यह तो लोहेकी एक प्रतिमा थी, जिसे आपने चूर-चूर कर डाला ।
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 24-30 का हिन्दी अनुवाद)
‘भरतश्रेष्ठ ! आपको क्रोधके वशीभूत हुआ जान मैंने मृत्यकी दाढोंमें फँसे हुए कुन्तीकुमार भीमसेनको पीछे खींच लिया था । ‘राजसिंह ! बलमें आपकी समानता करने वाला कोई नहीं है । महाबाहो ! आपकी दोनों भुजाओंकी पकड़ कौन मनुष्य सह सकता है ? ‘जैसे यमराजके पास पहुँचकर कोई भी जिवित नहीं छूट सकता, उसी प्रकार आपकी भुजाओंके बीचमें पड़ जानेपर किसीके प्राण नहीं बच सकते ।‘कुरुनन्दन ! इसलिय आपके पुत्रने जो भीमसेनकी लोहमयी प्रतिमा बनवा रक्खी थी, वही मैंने आपको भेंट कर दी । ‘राजेन्द्र ! आपका मन पुत्रशोकसे संतप्त हो धर्मसे विचलित हो गया है; इसीलिये आप भीमसेनको मार डालना चाहते हैं । राजन् ! आपके लिय यह कदापि उचित न होगा कि आप भीमका वध करें । महाराज ! ( भीमसेन न मारते तो भी ) आपके पुत्र किसी तरह जीवित नहीं रह सकते थे ( क्योंकि उनकी आयु पूरी हो चुकी थी ) ।
‘अत: हमलोगोंने सर्वत्र शान्ति स्थापित करने के उद्देश्यसे जो कुछ किया है, उन सब बातोंका आप भी अनुमोदन करें । मनको व्यर्थ शोकमें न डालें, ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें भीमसेन की लोहमयी प्रतिमाका भंग होनाविषयक बारहवॉं अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
तेरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“श्री कृष्णका धृतराष्ट्रको फटकारकर उनका क्रोध शान्त करना और धृतराष्ट्रका पाण्डवोंको हृदयसे लगाना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- राजन् ! तदनन्तर सेवक-गण शौच-सम्बन्धी कार्य सम्पन्न करानेके लिय राजा धृतराष्ट्र-की सेवामें उपस्थित हुए । जब वे शौचकृत्य पूर्ण कर चुके, तब भगवान मधुसुदन ने फिर उनसे कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;-- ‘राजन ! आपने वेदों और नाना प्रकारके शास्त्रोंका अध्ययन किया है । सभी पुराणों और केवल राजधर्मोंका भी श्रवण किया है । ‘ऐसे विद्वान, परम बुद्धिमान् और बलाबलका निर्णय करनेमें समर्थ होकर भी अपने ही अपराधसे होने वाले इस विनाशको देखकर आप ऐसा क्रोध क्यों कर रहे हैं ? ‘भरतनन्दन ! मैंने तो उसी समय आपसे यह बात कह दी थी, भीष्म, द्रोणाचार्य, विदुर और संजयने भी आपको समझाया था । राजन् ! परंतु आपने किसी की बात नहीं मानी ।
‘कुरुनन्दन ! हमलोगोंने आपको बहुत रोका; परंतु आपने बल और शौर्यमें पाण्डवोंको बढा-चढ़ा जानकर भी हमारा कहना नहीं माना । ‘जिसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसा जो राजा स्वयं दोषोंको देखता और देश-कालके विभागको समझता है, वह परम कल्याणका भागी होता है । ‘जो हितकी बात बतानेपर भी हिताहितकी बातको नहीं समझ पाता, वह अन्यायका आश्रय ले बड़ी भारी विपत्तिमें पड़कर शोक करता है ।‘भरतनन्दन ! आप अपनी ओर तो देखिये । आपका बर्ताव सदा ही न्यायके विपरीत रहा है । राजन् ! आप अपने मनको वशमें न करके सदा दुर्योधनके अधीन रहे हैं । ‘अपने ही अपराधसे विपत्तीमें पड़कर आप भीमसेनको क्यों मार डालना चाहते हैं ? इसलिये क्रोधको रोकिये और अपने दुष्कर्मोंको याद कीजिये । ‘जिस नीच दुर्योधनने मनमें जलन रखनेके कारण पात्र्चाल राजकुमारी कृष्णाको भरी सभामें बुलाकर अपमानित किया, उसे वैरका बदला लेनेकी इच्छासे भीमसेनने मार डाला । ‘आप अपने और दुरात्मा पुत्र दुर्योधनके उस अत्याचारपर तो दृष्टि डालिये, जब कि बिना किसी अपराधके ही आपने पाण्डवोंका परित्याग कर दिया था’ ।
वैशम्पाचनजी कहते हैं ;– नरेश्वर ! जब इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने सब सच्ची-सच्ची बातें कह डालीं, तब पृथ्वीपति धृतराष्ट्रने देवकीनन्दन श्रीकृष्णसे कहा- ‘महाबाहु ! माधव ! आप जैसा कह रहे हैं, ठीक ऐसी ही बात है; परतु पुत्रका स्नेह प्रबल होता है, जिसने मुझे धैर्यसे विचलित कर दिया था । ‘श्रीकृष्ण ! सौभग्यकी बात है कि आपसे सुरक्षित होकर बलवान् सत्यपराक्रमी पुरुषसिंह भीमसेन मेरी दोनों भुजाओं- के बीचमें नही आये । ‘माधव ! अब इस समय मैं शान्त हूँ । मेरा क्रोध उतर गया है और चिन्ता भी दूर हो गयी है; अत: मैं मध्यम पाण्डव वीर अर्जुनको देखना चाहता हूँ । ‘समस्त राजाओं तथा अपने पुत्रोंके मारे जानेपर अब मेरा प्रेम और हितचिन्तन पाण्डुके इन पुत्रोंपर ही आश्रित है’ ।
तदनन्तर रोते हुए धृतराष्ट्रने सुन्दर शरीरवाले भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीके दोनों पुत्र नरवीर नकुल-सहदेवको अपने अंगों से लगाया और उन्हें सान्तवना देकर कहा,
धृतराष्ट्र ने कहा ;– ‘तुम्हारा कल्याण हो’ ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें ‘धृतराष्ट्रका क्रोध छोड़कर पाण्डवोंको हृदयसे लगाना’ नामक तेरहवॉं अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
चौदहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“पाण्डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्धारी को व्यासजी का समझाना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;– राजन् तदनन्तर धृतराष्ट्र की आज्ञा लेकर वे कुरुवंशी गण्डव सभी भाई भगवान् श्रीकृष्णके साथ गान्धारीके पास गये । पुत्रशोकसे पीडित हुई गान्धारीको जब यह मालूम हुआ कि युधिष्ठिर अपने शत्रुओंका संहार करके मेरे पास आये हैं, तब उनकी सती-साध्वी देवीने उन्हें शाप देनेकी इच्छा की । पाण्डवोंके प्रति गान्धारीके मनमें पापापूर्ण संकल्प है, इस बातको सत्यवतीनन्दन महर्षि व्यास पहले ही जान गये थे । उनके उस अभिप्रायको जानकर वे मनके समान वेगशाली महर्षि गड्गाजीके पवित्र एवं सुगन्धित जलसे आचमन करके शीघ्र ही उस स्थानपर आ पहुँचे ।
वे दिव्य दृष्टिसे तथा अपने मनको समस्त प्राणियोंके साथ एकाग्र करके उनके आन्तरिक भावको समझ लेते थे । अत: हितकी बात बतानेवाले वे महातपस्वी व्यास समय-समय पर अपनी पुत्रवधू के पास जा पहुँचे और शाप का अवसर उपस्थित करते हुए इस प्रकार बोले- ‘गान्धरराजकुमारी ! शान्त हो जाओ । तुम्हें पाण्डुपुत्र युघिष्ठिरपर क्रोध नहीं करना चाहिये । अभी-अभी जो बात मुँहसे निकालना चाहती हो, उसे रोक लो और मेरी यह बात सुनो । ‘गत अठारह दिनोंमें विजयकी अभिलाषा रखनेवाला तुम्हारा पुत्र प्रतिदिन तुमसे जाकर कहता था कि ‘मॉं ! मैं शत्रुओंके साथ युद्ध करने जा रहा हूँ । तुम मेरे कल्याणके लिये आशीर्वाद दो’ । ‘इस प्रकार जब विजयाभिलाषी दुर्योधन समय-समयपर तुमसे प्रार्थना करता था, तब तुम सदा यही उत्तर देती थीं कि जहॉं धर्म है, वहीं विजय है’ । ‘गान्धारी ! तुमने बातचीत के प्रसडग में भी पहले कभी झूठ कहा हो, ऐसा मुझे स्मरण नहीं है तथा तुम सदा प्राणियोंके हितमें तत्पर रहती आयी हो । ‘राजाओंके इस घोर संग्रामसे पार होकर पाण्डवोंनेजो युद्धमें विजय पायी है, इससे नि:संदेह यह बात सिद्ध हो गयी कि ‘धर्मका बल सबसे अधिक है’ ।
‘धर्मज्ञे ! तुम तो पहले बड़ी क्षमाशील थी । अब क्यों नहीं क्षमा करती हो ? अधर्म छोड़ो, क्योंकि जहॉं धर्म है, वहीं विजय है ।‘मनस्विनी गान्धारी ! अपने धर्म तथा की हुई बातका स्मरण करके क्रोधको रोको । सत्यवादिनि ! अब फिर तुम्हारा ऐसा बर्ताव नहीं होना चाहिये’ ।
गान्धारी बोली ;- भगवन् ! मैं पाण्डवों के प्रति कोई दुर्भाव नहीं रखती और न इनका विनाश ही चाहती हूँ; परंतु क्या करूँ ? पुत्रोंके शोकसे मेरा मन हठात् व्याकुल-सा हो जाता है । कुन्तीके ये बेटे जिस प्रकार कुन्तीके द्वारा रक्षणीय हैं, उसी प्रकार मुझे भी इनकी रक्षा करनी चाहिये । जैसे आप इनकी रक्षा चाहते हैं, उसी प्रकार महाराज धृतराष्ट्रका भी कर्तव्य है कि इनकी रक्षा करें । कुरुकुलका यह संहार तो दुर्योधन, मेरे भाई शकुनि, कर्ण तथा दु:शासनके अपराधसे ही हुआ है । इसमें न तो अर्जुनका अपराध है और न कुन्तीपुत्र भीमसेनका । नकुल-सहदेव और युघिष्ठिरको भी कभी इसके लिये दोष नहीं दिया जा सकता । कौरव आपसमें ही जूझकर मारकाट मचाते हुए अपने दूसरे साथियोंके साथ मारे गये हैं; अत: इसमें मुझे अप्रिय लगनेवाली कोई बात नहीं है । परंतु महामना भीमसेनने गदायुद्धके लिये दुर्योधनको बुलाकर श्रीकृष्णके देखते-देखते उसके प्रति जो बर्ताव किया है, वह मुझे अच्छा नहीं लगा ।
वह रणभूमिमें अनेक प्रकार-के पैंतरे दिखाता हुआ विचर रहा था; अत: शिक्षामें उसे अपनेसे अधिक जान भीमने जो उसकी नाभिसे नीचे प्रहार किया, इनके इसी बर्तावने मेरे क्रोधको बढ़ा दिया है । धर्मज्ञ महात्माओंने गदायुद्धके लिये जिस धर्मका प्रतिपादन किया है, उसे शूरवीर योद्धा रणभूमिमें किसी तरह अपने प्राण बचानेके लिये कैसे त्याग सकते हैं ?
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें गान्धारीकी सान्तवनाविषयक चौदहवॉं अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
पन्द्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) पत्र्चदश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेनका गान्धारीको अपनी सफाई देते हुए उनसे क्षमा मॉंगना, युधिष्ठिरका अपना अपराध स्वीकार करना, गान्धारी के दृष्टिपातसे युधिष्ठिरके पैरोंके नखोंका काला पड़ जाना, अर्जुनका भयभीत होकर श्रीकृष्णके पीछे छिप जाना, पाण्डवोंका अपनी मातासे मिलना, द्रौपदीका विलाप, कुन्तीका आश्वासन तथा गान्धारीका उन दोनोंको धीरज बँधाना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय ! गान्धारीकी यह बात सुनकर भीमसेननें डरे हुएकी भॉंति विनयपूर्वक उनकी बातका उत्तर देते हुए कहा । ‘माताजी ! यह अधर्म हो या धर्म; मैंने दुर्योधनसे डरकर अपने प्राण बचानेके लिये ही वहॉं ऐसा किया था; अत: आप मेरे उस अपराधको क्षमा कर दें । ‘आपकेउस महाबली पुत्रको कोई भी धर्मानुकूल युद्ध करके मारनेका साहस नहीं कर सकता था; अत: मैंने विषमतापूर्ण बर्ताव किया । ‘पहले उसने भी अधर्मसे ही राजा युघिष्ठिरको जीता था और हमलोगोंके साथ सदा धोखा किया था, इसलिये मैंने भी उसके साथ विषम बर्ताव किया ।‘कौरवसेनाका एकमात्र बचा हुआ यह पराक्रमी वीर गदायुद्धके द्वारा मुझे मारकर पुन: सारा राज्य हर न ले, इसी आशड्का़से मैंने वह अयोग्य बर्ताव किया था ।
‘राजकुमारी द्रौपदीसे, जो एक वस्त्र धारण किये रजस्वला अवस्थामें थी, आपके पुत्रने जो कुछ कहा था, वह सब आप जानती हैं । ‘दुर्योधनका संहार किये बिना हमलोग निष्कण्टक प्रथ्वीका राज्य नहीं भोग सकते थे, इसलिये मैंने यह अयोग्य कार्य किया । ‘आपकेपुत्रने तो हम सब लोगोंका इससे भी बढ़कर अप्रिय किया था कि उसने भरी सभामें द्रौपदीको अपनी बॉंयी जॉंघ दिखायी । ‘आपके उस दुराचारी पुत्रको तो हमें उसी समय मार डालना चाहिये था; परंतु धर्मराजकी आज्ञासे हमलोग समयके बन्धनमें बँधकर चुप रह गये । ‘रानी ! आपके पुत्रने उस महान् वैरकी आगको और भी प्रज्वलित कर दिया और हमें वनमें भेजकर सदा क्लेश पहुँचाया; इसीलिये हमने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया है ।
‘रणभूमिमें दुर्योधनका वध करके हमलोग इस वैरसे पार हो गये । राजा युधिष्ठिरको राज्य मिल गया और हमलोगोंका क्रोध शान्त हो गया’ ।
गान्धारी बोलीं ;– तात ! तुम मेरे पुत्रकी इतनी प्रशंसा कर रहे हो;इसलिये यह उसका वध नहीं हुआ (वह अपने यशोमय शरीरसे अमर है) और मेरे सामने तुम जो कुछ कह रहे हो, वह सारा अपराध दुर्योधनने अवश्य किया है । भारत ! परंतु वृषसेनने जब नकुलके घोड़ोको मारकर उसे रथहीन कर दिया था, उस समय तुमने युद्धमें दु:शासन-को मारकर जो उसका खून पी लिया, वह सत्पुरुषोंद्वारा निन्दित और नीच पुरुषोंद्वारा सेवित घोर क्रूरतापूर्ण कर्म है । वृकोदर ! तुमने वही क्रूर कार्य किया है, इसलिये तुम्हारे द्वारा सत्यन्त अयोग्य कर्म बन गया है ।
भीमसेन बोले ;— माताजी ! दूसरेका भी खून नहीं पीना चाहिये; फिर अपनाही खून कोई कैसे पी सकता है ? जैसे अपना शरीर है, वैसे ही भाईका शरीर है ।अपनेमें और भाईमें कोई अन्तर नहीं है । मॉं ! आप शोक न करें । वह खून मेरे दॉंतो और ओठोंको लॉंघकर आगे नहीं जा सका था । इस बातको सूर्य-पुत्र यमराज जानते हैं कि केवल मेरे दोनों हाथ ही रक्तमें सने हुए थे । युद्धमें वृषसेनके द्वारा नकुलके घोड़ोको मारा गया देख जो दु:शासनके सभी भाई हर्षसे उल्लसित हो उठे थे, उनके मनमें वैसा करके मैंने केवल त्रास उत्पन्न किया था । द्यतक्रीडाके समय जब द्रौपदी का केश खींचा गया, उस समय क्रोधमें भरकर मैंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी याद हमारे हृदयमें बराबर बनी रहती थी ।
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) पत्र्चदश अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)
रानीजी ! यदि मैं उस प्रतिज्ञाको पूर्ण न करता तो सदा के लिये क्षत्रिय-धर्मसे गिर जाता, इसलिये मैंने यह काम किया था । माता गान्धारी ! आपको मुझमें दोषकी आशड्का नहीं करनी चाहिये । पहले जब हमलोगोंने काई अपराध नहीं किया था, उस समय हमपर अत्याचार करनेवाले अपने पुत्रों-को तो आपने रोका नही; फिर इस समय आप क्यों मुझपर दोषारोपण करती है ?
गान्धारी बोलीं ;— बेटा ! तुम अपराजित वीर हो । तुमने इन बूढ़े महाराजके सौ पुत्रोंको मारते समय किसी एकको भी, जिसने बहुत थोड़ा अपराध किया था, क्यों नहीं जीवित छोड़ दिया ? तात ! हम दोनों बूढ़े हुए । हमारा राज्य भी तुमने छीन लिया । ऐसी दशामें हमारी एक ही संतानको हम दो अन्धोंके लियेएक ही लाठीके सहारेको तुमने क्यों नहीं जीवित छोड़ दिया ? तात ! तुम मेरे सारे पुत्रोंके लिये यमराज बन गये । यदि तुम धर्मका आचरण करते और मेरा एक पुत्र भी शेष रह जाता तो मुझे इतना दु:ख नहीं होता । वैशम्पायन उवाच वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन्! भीमसेन से ऐसा कहकर अपने पुत्रों और पौत्रों और पौत्रोंके वधसे पीडित हुई गान्धारीने कुपित होकर पूछा,
गान्धारी ने कहा ;- ‘कहॉ है वह राज युधिष्ठिर ?’। यह सुनकर महाराज युधिष्ठिर कॉंपते हुए हाथ जोड़े उनके सामने आये और बड़ी मीठी वाणीमें बोले,
युधिष्ठिर ने कहा ;— ‘देवि ! आपके पुत्रोंका संहार करने वाला क्रूरकर्मा युधिष्ठिर मैं हूँ । पृथ्वीभरके राजाओंका नाश कराने में मैं ही हेतु हूँ, इसलिये शापके योग्य हूँ । आप मुझे शाप दे दीजिये । ‘मैं अपने सुह्रदोंका द्रोही और अविवकी हूँ । वैसे-वैसे श्रेष्ठ सुह्रदोंका वधकरके अब मुझे जीवन, राज्य अथवा धनसे कोई प्रयोजन नहीं है’ । जब निकट आकर डरे हुए राजा युधिष्ठरने, ऐसी बातें कहीं, तब गान्धारी देवी जोर-जोरसे सॉंस खींचती हुई सिसकने लगीं । वे मुँहसे कुछ बोल न सकीं ।
राजा युधिष्ठिर शरीर को झुकाकर गान्धारीके चरणोंपर गिर जाना चाहते थे । इतनेहीमें धर्मको जाननेवाली दूर-दर्शिनी देवी गान्धारीने पट्टीके भीतरसे ही राजा युधिष्ठिरके पैरोंकी अगुलियोंके अग्रभाग देख लिये । इतनेहीसे राजा-के नख काले पड़ गये । इसके पहले उनके नख बड़े ही सुन्दर और दर्शनीय थे । उनकी यह अवस्था देख अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के पीछे जाकर छिप गये । भारत ! उन्हें इस प्रकार इधर-उधर छिपनेकी चेष्टा करते देख गान्धारीका क्रोध उतर गया और उन्होंने उन सबको स्नेहमयी माताके समान सान्त्वना दी ।
फिर उनकी आज्ञा ले चौड़ी छातीवाले सभी पाण्डवन एक साथ वीरजननी माता कुन्तीके पास गये । कुन्तीदेवी दीर्घकालके बाद अपने पुत्रोंको देखकर उनके कष्टोंका स्मरण करके करुणामें डूब गयीं और आचल से मुँह ढककर ऑंसू बहाने लगीं । पुत्रोंसहित ऑंसू बहाकर उन्होंने उनके शरीरोंपर बारबार दृष्टिपात किया । वे सभी अस्त्र-शस्त्रोंकी चोटसे घायल हो रहे थे । बारी-बारीसे पुत्रोंके शरीरपर बारंबार हाथ फेरती हुई कुन्ती दु:खसे आतुर हो उस द्रौपदीके लिय शोक करने लगी, जिसके सभी पुत्र मारे गये थे । इतनेमें ही उन्होंने देखा कि द्रौपदी पास ही पृथ्वीपर गिरकर रो रही है ।
द्रौपदी बोली ;— आयें ! अभिमन्युसहित वे आपके सभी पौत्र कहॉं चले गये ? वे दीर्घकालके बाद आयी हुई आज आप तपस्विनी देवीको देखकर आपके निकट क्यों नहीं आ रहे हैं ? अपने पुत्रोंसे हीन होकर अब इस राज्यसे हमें क्या कार्य है ?
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) पत्र्चदश अध्याय के श्लोक 38-44 का हिन्दी अनुवाद)
नरेश्वर। विशाल नेत्रों वाली कुन्ती ने शोक से कातर हो रोती हुई द्रुपदकुमारी को उठाकर धीरज बंधाया और उसके साथ ही वे स्वयं भी अत्यन्त आर्त होकर शोकाकुल गान्धारी के पास गयीं। उस समय उनके पुत्र पाण्डव भी उनके पीछे-पीछे गये ।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय। गान्धारी ने बहू द्रौपदी और यशस्विनी कुन्ती से कहा,
गान्धारी ने कहा ;- बेटी। इस प्रकार शोक से व्याकुल न होओ। देखो, मैं भी तो दु:ख में डूबी हुई हूं। मैं समझती हूं, समय के उलट-फेर से प्रेरित होकर यह सम्पूर्ण जगत् का विनाश हुआ है, जो स्वभाव से ही रोमान्चकारी है। यह काण्ड अवश्यम्भावी था, इसीलिये प्राप्त हुआ है। जब संधि कराने के विषय में श्रीकृष्ण की अनुनय-विनय सफल नहीं हुई, उस समय परम बुद्धिमान विदुर जी ने जो महत्वपूर्ण बात कही थी, उसी के अनुसार यह सब कुछ सामने आया है । जब यह विनाश किसी तरह टल नहीं सकता था, विशेषतः जब सब कुछ होकर समाप्त हो गया, तो अब तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। वे सभी वीर संग्राम में मारे गये हैं, अतः शोक करने के योग्य नहीं है। आज जैसी मैं हूं, वैसी ही तुम भी हो। हम दोनों को कौन धीरज बंधायेगा? मेरे ही अपराध से इस श्रेष्ठ कुल का संहार हुआ है ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें कुन्तीको अपने पुत्रोंका दर्शनविषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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