सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) के सोलहवें अध्याय से बीसवें अध्याय तक (From the 16 chapter to the 20 chapter of the entire Mahabharata (Stree Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

स्त्री पर्व (स्त्रिविलाप पर्व)

सौलहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्रीपर्व) षोडष अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

     "वेदव्यासजी के वरदानसे दिव्य दृष्टिसम्पन्न हुई गान्धारीका युद्धस्थलमें मारे गये योद्धाओं तथा रोती हुई बहुओंको देखकर श्रीकृष्णके सम्मुख विलाप"

वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय। ऐसा कहकर गान्धारी देवी ने वहीं खड़ी रहकर अपनी दिव्‍य दृष्टि से कौरवों का वह सारा विनाश स्थल देखा । गान्धारी बड़ी ही पतिव्रता, परम सौभाग्यवती, पति के समान वृत का पालन करने वाली, उग्र तपस्या से युक्त तथा सदा सत्य बोलने वाली थीं । पुण्यात्मा महर्षि व्यास के वरदान से वे दिव्य ज्ञान बल से सम्पन्न हो गयी थीं अतः रणभूमि का दृश्‍य देखकर अनेक प्रकार विलाप करने लगीं । बुद्धिमी गान्धारी ने नरवीरों के उस अदभूत एवं रोमान्चकारी समरांगण को दूर से ही उसी तरह देखा, जैसे निकट से देखा जाता है । वह रणक्षेत्र हडिडयों, केशों और चर्बियों से भरा था, रक्त प्रवाह से आप्लावित हो रहा था, कई हजार लाशें वहां चारों ओर बिखरी हुई थी । हाथीसवार, घुड़सवार तथा रथी योद्धाओं के रक्त से मलिन हुए बिना सिर के अगणित धड़ और बिना धड़ के असंख्य मस्तक रणभूमि को ढंके हुए थे । हाथियों, घोड़ों, मनुष्यों और स्त्रियों के आर्तनाद से वह सारा युद्वस्थल गूंज रहा था। सियार, बुगले, काले कौए, कक्क और काक उस भूमि का सेवन करते थे ।

       वह स्थान नरभक्षी राक्षसों को आनन्द दे रहा था। वहां सब ओर कुरर पक्षी छा रहे थे। अमगलमयी गीदडि़यां अपनी बोली बोल रही थीं, गीध सब ओर बैठे हुए थे । उस समय भगवान व्यास की आज्ञा पाकर राजा धृतराष्ट्र तथा युधिष्ठिर आदि समस्त पाण्डव रणभूमि की ओर चले। जिनके बन्धु-बान्धव मारे गये थे, उन राजा धृतराष्ट्र तथा भगवान श्रीकृष्ण को आगे करके कुरूकुल की स्त्रियों को साथ ले वे सब लोग युद्वस्थल में गये । कुरूक्षेत्र में पहुंचकर उन अनाथ स्त्रियों ने वहां मारे गये अपने पुत्रों, भाइयों, पिताओं तथा पतियों के शरीरों को देखा, जिन्हें मांस-भक्षी जीव-जन्तु, गीदड़ समूह, कौए, भूत, पिशाच, राक्षस और नाना प्रकार के निशाचर नोच-नोच कर खा रहे थे। रूद्र की क्रीडास्थली के समान उस रणभूमि को देखकर वे स्त्रियां अपने बहूमूल्य रथों से क्रन्दन करती हुई नीचे गिर पड़ीं । 

      जिसे कभी देखा नहीं था, उस अदभूत रणक्षेत्र को देख कर भरतकुल की कुछ स्त्रियां दु:ख से आतुर हो लाशों पर गिर पड़ीं और दूसरी बहुत सी स्त्रियां धरती पर गिर गयीं। उन थकी-मांदी और अनाथ हुई पान्चालों तथा कौरवों की स्त्रियों को वहां चेत नहीं रह गया था। उन सबकी बड़ी दयनीय दशा हो गयी थी । दु:ख से व्याकुलचित हुई युवतियों के करूण-क्रन्दन से वह अत्यन्त भयंकर युद्वस्थल सब ओर से गूंज उठा। यह देखकर धर्म को जानने वाली सुबलपुत्री गान्धारी ने कमलनयन श्रीकृष्ण को सम्बोधित करके कौरवों के उस विनाश पर दृष्टिपात करते हुए कहा,

     गान्धारी ने कहा ;- कमलनयन माधव। मेरी इन विधवा पुत्रवधुओं की ओर देखो, जो केश बिखराये कुररी की भांति विलाप कर रही हैं। वे अपने पतियों के गुणों का स्मरण करती हुई उनकी लाशों के पास जा रही हैं और पतियों, भाईयों, पिताओं तथा पुत्रों के शरीरों की ओर पृथक-पृथक् दौड़ रही हैं ।

      महाराज। कहीं तो जिनके पुत्र मारे गये हैं उन वीर प्रसविनी माताओं से और कहीं जिनके पति वीरगति को प्राप्त हो गये हैं, उन वीरपत्नियों से यह युद्धस्थल घिर गया है। पुरुषसिंह कर्ण, भीष्म, अभिमन्यु, द्रोण, द्रुपद और शल्य जैसे वीरों से जो प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी थे, यह रणभूमि सुशोभित है ।

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्रीपर्व) षोडष अध्याय के श्लोक 22-43 का हिन्दी अनुवाद)

      उन महामनस्वी वीरों के सुवर्णमय कवचों, निष्कों, मणियों, अंगदों, केयूरों और हारों से समरांगण विभूषित दिखाई देता है । कहीं वीरों की भुजाओं से छोड़ी गयी शक्तियां पड़ी हैं, कहीं परिध, नाना प्रकार के तीखे खग और बाणसहित धनुष गिरे हुए हैं। कहीं झुंड के झुंड मांसभक्षी जीव-जन्तु आनन्दमग्न होकर एक साथ खड़े हैं, कहीं वे खेल रहे हैं और कहीं दूसरे-दूसरे जन्तु सोये पड़े हैं। वीर। प्रभो। इस प्रकार इन सबसे मरे हुए युद्धस्थल को देखो। जनार्दन। मैं तो इसे देखकर शोक से दग्ध हुई जाती हूं । मधुसूदन। इन पान्चाल और कौरव वीरों के मारे जाने से तो मेरे मन में यह धारणा हो रही है कि पांचो भूतों का ही विनाश हो गया । उन वीरों को खून से भीगे हुए गरूड़ और गीध इधर-उधर खींच रहे हैं। 

      सहस्त्रों गीध उनके पैर पकड़-पकड़ कर खा रहे हैं ।इस युद्ध में जयद्रथ, कर्ण, द्रोणाचार्य, भीष्म और अभिमन्यु- जैसे वीरों का विनाश हो जायेगा, यह कौन सोच सकता था? जो अवध्य समझे जाते थे, वे भी मारे गये और अचेत एवं प्राणशून्‍य होकर यहां पड़े हैं। गीध, कंक, बटेर, बाज, कुत्ते और सियार उन्हें अपना आहार बना रहे हैं । दुर्योधन के अधीन रहकर अमर्ष के वशीभूत हो ये पुरुष सिंह वीरगण बुझी हुई आगे के समान शान्त हो गये हैं। इनकी ओर दृष्टिपात तो करो । जो लोग पहले कोमल बिछौनों पर सोया करते थे, वे सभी आज मरकर नंगी भूमि पर सो रहे हैं । जिन्हें सदा ही समय-समय पर स्तुति करने वाले बन्दीजन अपने वचनों द्वारा आनन्दित करते थे, वे ही अब सियारिनों की अमंगल सूचक भांति-भांति की बोलियां सुन रहे हैं ।

       जो यशस्वी वीर पहले अपने अंगों में चन्दन और अगुरू चूर्ण से चर्चित हो सुखदायिनी शययाओं पर सोते थे, वे ही आज धूल में लोट रहे हैं । उनके आभूषणों को ये गीध, गीदड़ और भयानक गीदडियां बारबार चिल्‍लाती हुई इधर-उधर फेंकती हैं । ये सभी युद्धाभिमानी वीर जीवित पुरुषों की भांति इस समय भी तीखे बाण, पानीदार तलवार और चमकीली गदाऐं हाथों में लिये हुए हैं । सुन्दर रूप और कान्तिवाले, सांडों के समान हष्ट-पुष्ट तथा हरे रंग के हार पहने हुए बहुत से योद्धा यहा सोये पड़े हैं और मांसभक्षी जन्तु इन्हें उलट-पलट रहे हैं । परिध के समान मोटी बाहों वाले दूसरे शूरवीर प्रेयसी युवतियां की भांति गदाओं का आलिंगन करके सम्मुख सो रहे हैं । जनार्दन। बहुत से योद्धा चमकीले योद्धा चमकीले कवच और आयुध धारण किये हुए हैं, जिससे उन्हें जीवित समझकर मांसभक्षी जन्तु उन पर आक्रमण नहीं करते हैं । 

       दूसरे महामस्वी वीरों को मांसाहारी जीव इधर-उधर खींच रहे हैं, जिससे सोने की बनी हुई उनकी विचित्र मालाएं सब ओर बिखर गयी हैं । यहां मारे गये यशस्वी वीरों के कण्ठ में पड़े हुए हीरों को ये सहत्रों भयानक गीद़ड़ खींचते और झटकते हैं । बृष्णिसिंह। प्रायः प्रत्येक रात्रि के पिछले पहर में सुशिक्षित बन्दीजन उत्तम स्तुतियों और उपचारों द्वारा जिन्हें आनन्दित करते थे, उन्हीं के पास आज ये दु:ख और शोक से अत्यन्त पीडि़त हुई सुन्दरी युवतियां करूण विलाप कर रही हैं । केशव। इन सुन्दरियों के सूखे हुए सुन्दर मुख लाल कमलों के समूह की भांति शोभा पा रहे हैं ।

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्रीपर्व) षोडष अध्याय के श्लोक 44-61 का हिन्दी अनुवाद)

     ये कुरूकल की स्त्रियां रोना बंद करके स्वजनों का चिन्तन करती हुई परिजनों सहित उन्हीं की खोज में जाती और दुखी होकर उन-उन व्यक्तियों से मिल रही हैं । कौरव वंश की युवतियों के सूर्य और सुवर्ण के समान कान्तिमान मुख रोष और रोदन से ताम्रवर्ण के हो गये हैं । केशव। सुन्दर कान्ति से सम्पन्न, एकवस्त्रधारिणी तथा श्याम गौरवर्णवाली दुर्योधन की इन सुन्दरी स्त्रियों की टोलियों को देखो । एक दूसरी की रोदन- ध्वनि से मिल जाने के कारण इनके विलाप का अर्थ पूर्णरूप से समझ में नहीं आता, उसे सुनकर अन्य स्त्रियां भी कुछ नहीं समझ पाती हैं । ये वीर वनिताऐं लंबी सांस खींचकर स्वजनों को पुकार पुकार कर करूण बिलाप करके दु:ख से छटपटाती हुई अपने प्राण त्याग देना चाहती हैं । 

       बहुत सी स्त्रियां स्वजनों की लाशों को देखकर रोती, चिल्लाती और विलाप करती हैं। कितनी ही कोमल हाथों वाली कामिनियां अपने हाथों से सिर पीट रही हैं । कटकर गिरे हुए मस्तकों, हाथों और सम्पूर्ण अंगों के ढेर लगे हैं। ये सभी एक के ऊपर एक करके पड़े हैं। उनसे यहां की सारी पृथ्वी ढकी हुई जान पड़ती है । इन बिना मस्तक के सुन्दर धड़ों और बिना धड़ के मस्तकों को देख-देख कर ये अनुगामिनी स्त्रियां मूर्छित सी हो रही हैं । कितनी ही अचेत ही होकर स्वजनों की खोज करने वाली स्त्रियां एक मस्तक को निकटवर्ती धड़ के साथ जोड़ करके देखती हैं और जब वह मस्तक उससे नहीं जुड़ता तथा दूसरा कोई मस्तक वहां देखने में नहीं आता तो वे दुखी होकर कहने लगती हैं कि यह तो उनका सिर नहीं है । बालो से कट-कट कर अलग हुई वाहों, जांगों और पैरों को जोड़ती हुई ये दुखी अवलाऐं बार-बार मूर्छित हो जात हैं। कितनी ही लाशों के सिर कटकर गायब हो गये हैं, कितनों को मांस भक्षी पशुओं और पक्षियों ने खा डाला है; अतः उनको देखकर भी ये हमारे ही पति हैं, इस रूप में भरत कुल की स्त्रियां पहचान नहीं पाती हैं । 

       मधुसूदन। देखो, बहुत सी स्त्रियां शत्रुओं द्वारा मारे गये भाईयों, पिताओं, पुत्रों और पतियों को देखकर अपने हाथों से सिर पीट रही हैं । खड़ग युक्त भुजाओं और कुण्डलों सहित मस्तकों से ढकी हुई इस पृथ्वी पर चलना फिरना असंभव हो गया है। यहां मांस और रक्त की कीच जम गयी है । ये सती साध्वी सुन्दरी स्त्रियां पहले कभी ऐसे दु:ख में नहीं पड़ी थीं; किन्तु आज दु:ख के समुद्र में डूब रही हैं। यह सारी पृथ्वी इनके भाइयों, पतियों और पुत्रों से ढंक गयी है । जर्नादन। देखो, महाराज धृतराष्ट्र की सुन्दर केशों वाली पुत्रवधुओं की ये कई टोलियां, बछेडियों की झुण्ड के समान दिखाई दे रही हैं । केशव। मेरे लिये इससे बढकर महान् दु:ख और क्या होगा कि ये सारी बहुऐं यहां आकर अनेक प्रकार से आर्तनाद कर रही हैं । माधव। निश्‍चय ही मैंने पूर्व जन्मों में कोई बड़ा भारी पाप किया है जिससे आज अपने पुत्रों, पौत्रों और भाईयों को यहां मारा गया देख रही हूं । भगवान श्रीकृष्ण को सम्बोधित करके पुत्र शोक से ब्याकुल हो इस प्रकार आर्त विलाप करती हुई गान्धारी ने युद्ध में मारे गये अपने पुत्र दुर्योधन को देखा ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्वमें युद्धदर्शनविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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स्त्री पर्व (स्त्रिविलाप पर्व)

सत्तरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्रीपर्व) सप्तदष अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन तथा उसके पास रोती हुई पुत्रवधूको देखकर गान्धारीका श्रीकृष्णके सम्मुख विलाप”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय। दुर्योधन को मारा देखकर शोक से पीडि़त हुई गान्धारी वन में कटे हुए केले के वृक्ष की तरह सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी ।पुनः होश में आने पर अपने पुत्र को पुकार-पुकार कर वे विलाप करने लगीं। दुर्योधन को खून से लथपथ होकर सोया देख उसे हृदय से लगाकर गान्धारी दीन होकर रोने लगी। उनकी सारी इन्द्रियां व्याकुल हो उठी थीं। वे शोक से आतुर हो हा पुत्र। हा पुत्र कहकर विलाप करने लगीं । दुर्योधन के गले की विशाल हड्डी मांस में छिपी हुई थी। उसने गले में हार और निष्क पहने रखे थे। उन आभूषणों से विभूषित बेटे के वक्षःस्थल को आसूओं से सींचती हुई गान्धारी शोकागनी संतप्त हो रही थी । वे पास ही खड़े हुए श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहने लगीं,

    गान्धारी बोली ;- बृष्णिनन्दन। प्रभो। भाई-बन्धुओं का विनाश करने वाला जब यह भीषण संग्राम उपस्थित हुआ था उस समय इस नृपश्रेष्ठ दुर्योधन ने मुझसे हाथ जोड़कर कहा,

     दुर्योधन ने कहा ;- माताजी। कुटम्बी जनों इस संग्राम में आप मुझे मेरी विजय के लिये आशीर्वाद दें । पुरुषसिंह श्रीकृष्ण। उसके ऐसा कहने पर मैं यह सब जानती थी कि मुझ पर बड़ा भारी संकट आने वाला है, तथापि मैंने उससे यही कहा,

    गान्धारी ने कहा ;- जहां धर्म है, वहीं विजय है । बेटा। शक्तिशाली पुत्र। यदि तुम युद्ध करते हुए धर्म से मोहित न होओगे तो निश्‍चय ही देवताओं के समान शस्त्रों द्वारा जीते हुए लोकों को प्राप्त कर लोगे । प्रभो। यह बात मैंने पहले ही कह दी थी; इसलिये मुझे इस दुर्योधन के लिये शोक नहीं हो रहा है। मैं तो इन दीन राजा धृतराष्ट्र के लिये शोक मग्न हो रही हूं जिनके सारे भाई-बन्धु मार डाले गये । माधव। अमर्षशील, योद्धाओं में श्रेष्ठ, अस्त्र विद्या के ज्ञाता, रणदुर्मद तथा वीर सयया पर पर सोये हुए मेरे इस पुत्र को देखो तो सही । शत्रुओं को संताप देने वाला जो दुर्योधन मूर्धाभिशिक्‍त राजाओं के आगे-आगे चलता था वही आज यह धूल में लोट रहा है। काल इस उलट-फेर को तो देखो । निश्चय ही वीर दुर्योधन उस उत्तम गति को प्राप्त हुआ है, जो सबके लिये सुलभ नहीं है; क्योंकि यह वीरसेवित शैया पर सामने मुंह किये सो रहा है। 

        पूर्वकाल में जिसके पास बैठकर सुन्दरी स्त्रियां उसके मनोरंजन करती थीं, वीर शैया पर सोये हुए आज उसी वीर का ये अमंगलकारिणी गिदडि़या मन बहलाव करती हैं। जिसके पास पहले राजा लोग वैठकर उसे आनन्द प्रदान करते थे, आज मरकर धरती पर पड़े हुए उसी वीर के पास गीध बैठे हुए हैं । पहले जिसके पास खड़ी होकर युवतियां सुन्दर पंखे झला करती थीं आज उसी को पक्षीगण अपनी पाखों से हवा करते हैं । यह महाभाहू सत्य पराक्रमी बलवान वीर दुर्योधन भीमसेन ,द्वारा गिराया जाकर युद्धस्थल में सिंह के मारे हुए गजराज के समान सो रहा है । श्री कृष्ण। भीमसेन की चोट, खाकर खून से लथपथ हो गदा लिये धरती पर सोये हुए दुर्योधन को अपनी आंख से देख लो । केशव। जिस महाबाहु वीर ने पहले ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं को जुटा लिया था वही अपनी अनिति के कारण युद्ध में मार डाला गया ।

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्रीपर्व) सप्तदष अध्याय के श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद)

      सिंह के मारे हुए दूसरे सिंह के समान भीमसेन के हाथों मारा गया यह महाबली महाधनुर्धर दुर्योधन सो रहा है । यह मूर्ख और अभागा बालक विदुर तथा अपने पिता का अपमान करके बढे-बूढों की अवहेलना के पाप से ही काल के गाल में चला गया है । यह सारी पृथ्वी तेरह वर्षों तक निष्कंटक भाव से जिसके अधिकार में रही है, वही मेरा पुत्र पृथ्वी पति दुर्योधन आज मारा जाकर पृथ्वी पर पड़ा है । वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण। मैंने दुर्योधन द्वारा शासित हुई इस पृथ्वी को हाथी, घोड़े और गौओं से भरी पूरी देखा था; किन्तु वह राज्य चिरस्थायी न रह सका । महाबाहु माधव। आज उसी पृथ्वी को मैं देखती हूं कि वह दूसरे शासन में जाकर हाथी, घोड़े और गाय बैलों से हीन हो गयी है; फिर मैं किसके लिये जीबन धारण करूं । मेरे लिये पुत्र के वध से भी अधिक कष्ट देने वाली यह है कि ये स्त्रियां रणभूमि में मारे गये अपने शूरवीर पतियों के पास बैठी रो रही हैं। इनकी दयनीय दशा तो देखो । श्रीकृष्ण। सुवर्ण की वेदी के समान तेजस्विनी तथा सुन्दर कटी प्रदेश वाली उस लक्ष्मण की माता को देखो, जो दुर्योधन के शुभ अंक में स्थित हो केश खोले रो रही है । 

       पहले जब राजा दुर्योधन जीवित था, तब निश्‍चय ही यह मनस्विनी बाला सुन्दर वाहों वाले अपने वीर पति की दोनों भुजाओं का आश्रय लेकर इसी तरह उसके साथ सानन्द क्रीड़ा करती रही होगी । रणभूमि में वही मेरा पुत्र अपने पुत्र के साथ ही मार डाला गया है, इसे इस अवस्था में देखकर मेरे इस हृदय के सैकड़ों टुकड़े क्यों नहीं हो जाते । सुन्दर जांघों वाली मेरी सतीसाघ्वी पुत्र-वधु कभी खून से भीगे हुए अपने पुत्र लक्ष्मण का मूंह सूंघती है तो पति दुर्योधन का शरीर अपने हाथ से पोंछती है । पता नहीं, यह मनस्विनी बहू पुत्र के लिये शोक करती है या पति के लिये? कुछ ऐसी ही अवस्था में वह जान पड़ती है। माधव। वह देखो, वह विशाल लोचना वधु पुत्र की ओर देखकर दोनों हाथों से सिर पीटती हुई अपने वीर पति कुरूराज की छाती पर गिर पड़ी है । कमल पुष्प के भीतरी भाग की सी मनोहर कांति वाली मेरी तपश्विनी पुत्र-वधु जो प्रफुल्ल कमल के समान सुशोभित हो रही है, कभी अपने पुत्र का मुंह पोंछती है तो कभी अपने पति का । श्रीकृष्ण। यदि वेद शास्त्र सत्य हैं तो मेरा पुत्र यह राजा दुर्योधन निश्‍चय ही अपने बाहुबल से प्राप्त हुए पुण्यमय लोकों में गया है ।

 (इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्वमें दुर्योधनका दर्शनविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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स्त्री पर्व (स्त्रिविलाप पर्व)

अट्ठारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्रीपर्व) अष्टादश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“अपने अन्य पुत्रों तथा दुःशासनको देखकर गान्धारीका श्रीकृष्णके सम्मुख विलाप”

      गान्धारी बोलीं ;- माधव। जो परिश्रम को जीत चुके थे, उन मेरे सौ पुत्रों को देखो, जिन्हें रणभूमि में प्रायः भीमसेन ने अपनी गदा से मार डाला है । सबसे अधिक दु:ख मुझे आज यह देखकर हो रहा है कि ये मेरी बालबहुऐं, जिनके पुत्र भी मारे जा चुके हैं, रणभूमि में केश खोले चारों ओर अपने स्वजनों की खोज में दौड़ रही हैं । ये महल की अट्टालिकाओं में आभूषणभूषित चरणों द्वारा विचरण करने वाली थीं; परंतु आज विपत्ति की मारी हुई ये इस खून से भीगी हुई वसुधा का स्पर्श कर रही हैं । ये दु:ख से आतुर हो पगली स्त्रियों के सामन झूमती हुई सब ओर विचरती हैं तथा बड़ी कठिनाई से गीधों, गीदड़ों और कौओं को लाशों के पास से दूर हटा रही हैं । यह पतली कमर वाली सर्वांग सुन्दरी दूसरी वधु युद्धस्थल का भयानक द्श्‍य देखकर दुखी होकर पृथ्वी पर गिर पड़ती हैं । 

      महाबाहो। यह लक्ष्मण की माता एक भूमिपाल की बेटी है, इस राजकुमारी की दशा देखकर मेरा मन किसी तरह शांत नहीं होता है। । कुछ स्त्रियां रणभूमि में मारे गये अपने भाईयों को, कुछ पिताओं को और कुछ पुत्रों को देखकर उन महावाहो वीरों को पकड़ लेती और वहीं गिर पड़ती हैं । अपराजित वीर। इस दारूण संग्राम में जिनके बन्धु बान्धव मारे गये हैं उन अधेड़ और बूढी स्त्रियों का यह करूणाजनक क्रन्धन सुनो । महाबाहो। देखो, यह स्त्रियां परिश्रम और मोह से पीडि़त हो टूटे हुए रथों की बैठकों तथा मारे गये हाथी घोड़े की लाशों का सहारा लेकर खड़ी हैं । श्रीकृष्ण। देखो, वह दूसरी स्त्री किसी आत्मीयजन के मनोहर कुण्डलों से सुशोभित हो और उंची नासिका वाले कटे हुए मस्तक को लेकर खड़ी है । अनघ। मैं समझती हूं कि इन अनिन्ध सुन्दरी अविलाओं ने तथा मन्द बुद्धि वाली मैंने भी पूर्व जन्मों में कोई बड़ा भारी पाप किया है, जिसके फलस्वरूप धर्मराज ने हम लोगों ने वड़ी भारी विपत्ति में डाल दिया है। जर्नादन। बृष्णिनन्दन। जान पड़ता है कि किये हुए पुण्य और पाप कर्मों का उनके फल का उपभोग किये बिना नाश नहीं होता है । 

      माधव। देखो, इन महिलाओं की नई अवस्था है। इनके वक्ष स्थल और मुख दर्शनीय हैं। इनकी आंखों की वरूणियां और सिर के केश काले हैं। ये सब की सब कुलीन और सलज हैं। ये हंष के समान गद्द स्वर में बोलती हैं; परंतु आज दु:ख और शोक के मोहित हो चहचहाती सारसियों के समान रोती विलखती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी हैं । कमलनयन। खिले हुए कमल के समान प्रकाशित होने वाले युवतियों के इन सुन्दर मुखों को यह सूर्य देव संतप्त कर रहे हैं । वासुदेव। मतवाले हाथी के समान घमण्ड में चूर रहने वाले मेरे ईश्‍यालु पुत्रों की इन रानियों को आज साधारण लोग देख रहे हैं । गोविन्द। देखो, मेरे पुत्रों की ये सौ चन्द्रकार चिन्हों से सुशोभित ढालें, सूर्य के समान तेजस्विनी ध्वजाऐं, स्ववर्ण में कवच, सोने के निष्क तथा सिरस्त्राण घी की उत्तम आहुति पाकर प्रज्वलित हुई अग्नियों के समान पृथ्वी पर देदीप्तमान हो रहे हैं ।

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्रीपर्व) अष्टादश अध्याय के श्लोक 19-28 का हिन्दी अनुवाद)

      शत्रुघाती शूरवीर भीमसेन ने युद्ध में जिसे मार गिराया तथा जिसके सारे अंगों का रक्त पी लिया, वही यह दुशासन यहां सो रहा है । माधव। देखो, ध्रुतक्रीड़ा के समय पाये हुए कलेशों को स्मरण करके द्रौपदी से प्रेरित हुए भीमसेन ने मेरे इस पुत्र को गदा से माल डाला है । जनार्दन। इसने अपने भाई और कर्ण का प्रिय करने की इच्छा से सभा में जुएं से जीती गयी द्रौपदी के प्रति कहा था कि पान्चालि। तू नकुल सहदेव तथा अर्जुन के साथ ही हमारी दासी हो गई; अतः शीघ्र ही हमारे घरों में प्रवेश कर । श्रीकृष्ण। उस समय मैं राजा दुर्योधन से बोली- बेटा। शकुनी मौत के फन्दे में फंसा हुआ है। तुम इसका साथ छोड़ दो। पुत्र। तुम अपने इस खोटी बुद्धि वाले मामा को कलह प्रिय समझो और शीघ्र ही इसका परित्याग करके पाण्डवों के साथ संधि कर लो। दुर्बुद्वे। तुम नहीं जानते कि भीमसेन कितने अमर्षशील हैं। तभी जलती लकड़ी से हाथी को मारने के समान तुम अपने तीखे वाग्बाणों से उन्हें पीड़ा दे रहे हो । इस प्रकार एकान्त में मैंने उन सब को डांटा था। श्रीकृष्ण। उन्हीं बागबाणों को याद करके क्रोधी भीमसेन ने मेरे पुत्रों पर उसी प्रकार क्रोधरूपी विष छोड़ा है, जैसे सर्प गाय वैल को डस कर उनमें अपने विष का संचार कर देता है । सिंह के मारे हुए विशाल हाथी के समान भीमसेन का मारा हुआ यह दुशासन दोनों विशाल हाथ फैलाये रणभूमि में पड़ा हुआ है । अत्यन्त अमर्ष में भरे हुए भीमसेन ने युद्धस्थल में क्रुद्व होकर जो दुशासन का रक्त पी लिया, यह बड़ा भयानक कर्म किया है ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत स्त्रीत्रिलापपर्व में गान्धारीवाक्यविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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स्त्री पर्व (स्त्रिविलाप पर्व)

उन्नीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्रीपर्व) एकोनविंष अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“विकर्ण, दुर्मुख, चित्रसेन, विविंशति तथा दुःसहको देखकर गान्धारीका श्रीकृष्णके सम्मुख विलाप”

     गान्धारी बोलीं ;- माधव। यह मेरा पुत्र विकर्ण, जो विद्वानों द्वारा सम्मानित होता था, भूमि पर मरा पड़ा है। भीमसेन ने इसके भी सौ-सौ टुकड़े कर डाले हैं । मधुसूदन। जैसे शरतकाल में मेघों की घटा से घिरा हुआ चन्द्रमा शोभा पा रहा है, उस प्रकार भीम द्वारा मारा गया विकर्ण हाथियों की सेना के बीच में सो रहा है । बराबर धनुष लिये रहने से इसकी विशाल हथेली में घट्ठा पड़ गया है। इसके हाथों में इस समय भी दस्ताना बंधा हुआ है; इसलिये इसे खाने की इच्छा बाले गीध बड़ी कठिनाई से किसी किसी तरह काट पाते हैं । माधव। उसकी तपस्विनी पत्‍नी जो अभी बालिका है, मांस लोलोप गीधों और कौओं को हटाने की निरंतर चेष्टा करती है; परंतु सफल नहीं हो पाती है । पुरुष प्रवर माधव। विकर्ण नवयुवक देवता के समान कांतिमान, शूरवीर, सुख में पला हुआ तथा सुख भोगने के योग्य ही था; परंतु आज धूल में लोट रहा है ।
       युद्ध में कर्णी, नालीक और नाराचों के प्रहार से इसके मर्मस्थल विदीर्ण हो गये हैं तो भी इस भरतभूषण वीर को अभी तक लक्ष्मी (अंगकान्ति) छोड़ नहीं रही है । जो शत्रु समूहों का संहार करने वाला था, वह दुर्मुख प्रतिज्ञा पालन करने वाला संग्राम शूर भीमसेन के हाथों मारा जाकर समर में सम्मुख सो रहा है । तात् श्रीकृष्ण इसका यह मुख हिंसक जन्तुओं द्वारा आधा खा लिया गया है, इसलिये सप्तमी के चन्द्रमा की भांति सुशोभित हो रहा है । श्रीकृष्ण। देखो मेरे इस रणशूर पुत्र का मुख कैसा तेजस्वी है? पता नहीं, मेरा यह वीर पुत्र किस तरह शत्रुओं के हाथ से मारा जाकर धूल फांक रहा है । सौम्य। युद्ध के मुहाने पर जिसके सामने कोई ठहर नहीं पाता था उस देवलोक विजयी दुर्मुख को शत्रुओं ने कैसे मार डाला? मधुसूदन। देखो, जो धनुर्धरों का आदर्श था वही यह धृतराष्ट्र का पुत्र चित्रसेन मारा जाकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ है । विचित्र माला और आभूषण धारण करने वाले उस चित्रसेन को घेरकर शोक से कातर हो रोती हुई युवतियां हिंसक जन्तुओं के साथ उसके पास बैठी हैं । श्रीकृष्ण। एक ओर स्त्रियों के रोने की आवाज है तो दूसरी ओर हिंसक जन्तुओं की गर्जना हो रही है। यह अद्भुत द्श्‍य मुझे विचित्र प्रतीत होता है । माधव। देखो, वह देवतुल्य नव-युवक विविंशति, जिसकी सुन्दरी स्त्रियां सदा सेवा किया करती थीं, आज विध्वस्त होकर धूल में पड़ा है । श्रीकृष्ण। देखो, बाणों से इसका कबच छिन्न-भिन्न हो गया है। 
      युद्ध में मारे गये इस वीर विविंशति को गीध चारों ओर से घेरकर बैठे हैं । जो शूरवीर समरांगण में पाण्डवों की सेना के भीतर घुसकर लोहा लेता था, वही आज सत्पुरुषोचित वीरशैया पर शयन कर रहा है । श्रीकृष्ण। देखो, विविंशति का मुख अत्यंत उज्ज्वल है, इसके अधरों पर मुस्कराहट खेल रही है, नासिका मनोहर और भौहें सुन्दर हैं यह मुख चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा है ।

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्रीपर्व) एकोनविंष अध्याय के श्लोक 18-21 का हिन्दी अनुवाद)

       जैसे क्रीड़ा करते हुए गन्धर्व के साथ सहस्त्रों देव कन्याऐं होती हैं, उसी प्रकार इस विविंशति की सेवा में बहुत सी सुन्दरी स्त्रियां रहा करती थीं । शत्रु की सेना का संहार करने में समर्थ तथा युद्ध में शोभा पाने वाले शूरवीर शत्रुसूदन दुसह का वेग कौन सह सकता था? उसी दुसह का यह शरीर बाणों से खचाखच भरा हुआ है, जो अपने ऊपर खिले हुए कनेर के फूलों से व्याप्त पर्वत के समान सुशोभित होता है । यदयपि दुसह के प्राण चले गये हैं तो भी वह सोने की माला और तेजस्वी कवच से सुशोभित हो अग्नि युक्त स्वेत पर्वत के समान जान पड़ता है ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्वमें गान्धारीवाक्यविषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

स्त्री पर्व (स्त्रिविलाप पर्व)

बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्रीपर्व) विंष अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“गान्धारीद्वारा श्रीकृष्णके प्रति उत्तरा और विराटकुलकी स्त्रियोंके शोक एवं विलापका वर्णन”

     गान्धारी बोलीं ;- दशार्हनन्दन केशव। जिसे बल और शौर्य में अपने पिता से तथा तुमसे भी डेढ गुना बताया जाता था जो प्रचण्ड सिंह के समान अभिमान में भरा रहता था जिसने अकेले ही मेरे पुत्र के दुर्भेघ व्यूह को तोड़ डाला था, वही अभिमन्यु दूसरों की मृत्यु बनकर स्वंय भी मृत्यु के अधीन हो गया। श्रीकृष्ण। मैं देख रही हूं कि मारे जाने पर भी अमित तेजस्वी अर्जुन पुत्र अभिमन्यु की कांति अभी अभी बुझ नहीं पा रही है। यह राजा विराट की पुत्री और गाण्डीवधारी अर्जुन की पुत्रवधु सती साध्वी उत्तरा अपने बालक पति वीर अभिमन्यु को मरा देख आर्त होकर शोक प्रकट कर रही है। श्रीकृष्ण। यह विराट की पुत्री और अभिमन्यु की पत्नि उत्तरा अपने पति के निकट जाकर उसके शरीर पर हाथ फेर रही है। शुभद्रा कुमार का मुख प्रफुल्ल कमल के समान सोभा पाता है। उसकी ग्रीवा शंख के समान गोल है, कमनीय रूप सौन्दर्य से सुशोभित माननीय एवं मनस्विनी उत्तरा पति के मुखारविन्द को संूघकर उसे गले से लगा रही है। पहले भी यह इसी प्रकार मधु के मद से अचेत हो सलज्ज भाव से उसका आलिंगन करती रही होगी। श्रीकृष्ण।
       अभिमन्यु का सुवर्ण भूषित कवच खून से रंग गया है। वालिका उत्तरा उस कवच को खोलकर पति के शरीर को देख रही है। उसे देखती हुई वह वाला तुमसे पुकार कर कहती है, कमलनयन आपके भांजे के नेत्र भी आपके ही समान थे। यह रणभूमि में मार गिराये गये हैं। अनघ। जो बल, वीर्य, तेज और रूप में सवर्था आपके समान थे, वे ही सुभद्रा कुमार शत्रुओं द्वारा मारे जाकर पृथ्वी पर सो रहे हैं। (श्रीकृष्ण। अब उत्तरा अपने पति को संबोधित करके कहती है) प्रियतम। आपका शरीर तो अत्यन्त सुकुमार है। आप रंकमृग के चर्म से बने हुए सुकोमल बिछौने पर सोया करते थे। क्या आज इस तरह पृथ्वी पर पड़े रहने से आपके शरीर को कष्ट नहीं होता है? जे हाथी की सूंड के समान बड़ी है, निरंतर प्रत्यंचा खींचने के कारण रगड़ से जिनकी त्वचा कठोर हो गयी है तथा जो सोने के बाजूबन्द धारण करते हैं उन विशाल भुजाओं को फैलाकर आप सो रहे हैं। निश्चय ही बहुत परिश्रम करके मानो थक जाने कारण आप सुख की नींद ले रहे हो। मैं इस तरह आर्त होकर विलाप करती हूं किंतु आप मुझसे बालते तक नहीं हैं। मैंने कोई अपराध किया हो, ऐसा तो मुझे स्मरण नहीं है, फिर क्या कारण कि आप मुझसे नहीं बोलते हैं। 
      पहले तो आप मुझे दूर से भी देख लेने पर बोले विना नहीं रहते थे। आर्य। आप माता सुभद्रा को, इन देवताओं के समान ताउ, पिता और चाचाओं तथा मुझ दुखातुरा पत्नि को छोड़कर कहां जायेंगे। जनार्दन। देखो, अभिमन्यु के सिर को गोदी में रखकर उत्तरा उसके खून से सने हुए केषों को हाथ से उठा-उठा कर सुलझाती है और मानो वह जी रहा हो, इस प्रकार उससे पूछती है। प्राणनाथ। आप वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के भांजे और गाण्डीवधारी अर्जुन के पुत्र थे। रणभूमि के मध्य भाग में खड़े हुए आपको इन महारथियों ने कैसे मार डाला?

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्रीपर्व) विंष अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)

     उन क्रूरकर्मा कृपाचार्य, कर्ण और जयद्रथ को धिक्कार है, द्रोणाचार्य और उनके पुत्र को भी धिक्कार है। जिन्होंने मुझे इसी उम्र में विधवा बना दिया। आप बालक थे और अकेले युद्ध कर रहे थे तो भी मुझे दु:ख देने के लिये जिन लोगों ने मिलकर आपको मारा था, उन समस्त श्रेष्ठ महारथियों के मन उस समय क्या दशा हुई थी? वीर। आप पाण्डवों और पान्चालों के देखते-देखते सनाथ होते हुए भी अनाथ की भांति कैसे मारे गये। आपको युद्धस्थल में बहुत से महारथियों द्वारा मारा गया देख आपके पिता पुरुषसिंह वीर पाण्डव कैसे जी रहे हैं? कमलनयन। प्राणेष्वर। पाण्डवों को यह विशाल राज्य मिल गया है, उन्होंने शत्रुओं को जो पराजित कर दिया है, यह सब कुछ आपके बिना उन्हें प्रसन्न नहीं कर सकेगा। आर्यपुत्र। आपके शस्त्रों द्वारा जीते हुए पुण्य लोकों में मैं भी धर्म और इन्द्रिय संयम के बल से शीघ्र ही आऊंगी। 
      आप वहां मेरी राह देखिये। जान पड़ता है कि मृत्यु काल आये बिना किसी का भी मरना अत्यन्त कठिन है, तभी तो मैं अभागिनी आप को युद्ध में मारा गया देखकर भी अबतक जी रही हूं। नरश्रेष्ठ। आप पितृलोक में जाकर इस समय मेरी भी तरह दूसरी किस स्त्री को मन्द मुस्कान के साथ मीठी वाणी द्वारा बलायेंगे? निश्‍चय ही स्वर्ग में जाकर आप अपने सुन्दर रूप और मन्द मुस्कान युक्त मधुर वाणी के द्वारा वहां की अप्सराओं के मन को मथ डालेंगे। सुभद्रानन्दन। 
        आप पुण्य आत्माओं के लोकों में जाकर अप्सराओं के साथ मिलकर विहार करते समय मेरे शुभ कर्मों का भी स्मरण किजियेगा। वीरं इस लोक में तो मेरे साथ आपका कुल छह महिनों तक ही सहवास रहा है। सातवें महिने में ही आप वीरगति को प्राप्त हो गये। इस तरह की बातें कहकर दु:ख में डूवी हुई इस उत्तरा को जिसका सारा संकल्प मिट्टी में मिल गया है, मत्स्य राज विराट के कुल की स्त्रियां खींचकर दूर ले जा रही हैं। शोक से आतुर ही उत्तरा को खींचकर अत्यंत आर्त हुई वे स्त्रियां राजा विराट को मारा गया देख स्वंय भी चीखने और विलाप करने लगी हैं। द्रोणाचार्य के बाणों से छिन्न-भिन्न हो खून से लथपथ होकर रणभूमि में पड़े हुए राजा विराट को ये गीध, गीदड़ और कौऐ लौंच रहे हैं। 
       विराट को उन विहंगमों द्वारा लौंचे जाते देख कजरारी आंखों वाली उनकी रानियां आतुत हो होकर उन्हें हटाने की चेष्टा करती हैं पर हटा नहीं पाती हैं। इन युवतियों के मुखारबिन्दु धूप से तप गये हैं आयास और परिश्रम से उनके रंग फीके पड़ गये हैं। माधव। उत्तर, अभिमन्यु, काम्बोज निवासी सुदक्षिण और सुन्दर दिखाई देने वाले लक्ष्मण- ये सभी बालक थे। इन मारे गये बालकों को देखो। युद्ध के मुहाने पर सोए हुए परम सुन्दर कुमार लक्ष्मण पर भी दृष्टिपात करो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्वमें गान्धारीवाक्यविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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