सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (स्त्रिविलाप पर्व)
इक्कीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) एकविंष अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“गान्धारीके द्वारा कर्णको देखकर उसके शौर्य तथा उसकी स्त्रीके विलापका श्रीकृष्णके सम्मुख वर्णन”
गान्धारी बोली ;- श्रीकृष्ण। देखो, यह महाधनुर्धर महारथी वैकर्तन कर्ण कुन्तीकुमार अर्जुन के तेज से बुझी हुई प्रज्वलित आग के समान युद्धस्थल में शान्त होकर सो रहा है। माधव। देखो, वैकर्तन कर्ण बहुत से अतिरथी वीरों का संहार करके स्वंय भी खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर सोया पड़ा है। सूरवीर कर्ण महान् बलवान और महान् धनुर्धर था यह दीर्घकाल तक रोष में भरा रहने वाला और अमर्षषाील था, परंतु गाण्डीवधारी अर्जुन के हाथ से मारा जाकर यह वीर रणभूमि में सो गया है। पाण्डु पुत्र अर्जुन के डर से मेरे महारथी पुत्र जिसे आगे करके यूथपति को आगे रखकर लड़ने वाले हाथियों के समान पाण्डव सेना के साथ युद्ध करते थे उसी वीर को सभ्य सांची अर्जुन ने संमरांगण में उसी तरह मारा डाला है, जैसे एक सिंह ने दूसरे सिंह को तथा एक मतवाले हाथी ने दूसरे मदन्मत गजराज को मार गिराया हो। पुरुषसिंह। रणभूमि में मारे गये इस शूरवीर के पास आकर इसकी पत्नियां सिर के बाल बिखिरे हुए वैठी हुई रो रही हैं।
माधव ! जिसने निरन्तर उद्विग्न रहने के कारण धर्मराज युधिष्ठिर को चिंता के मारे तेरह वर्षों तक नींद नहीं आयी, जो युद्धस्थल में इन्द्र के समान शत्रुओं के लिये अजेय था, प्रलयंकर अग्नि के समान तेजस्वी और हिमालय के समान निष्चल था वही वीर कर्ण धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के लिये शरणदाता हो मारा जाकर आंधी से टूटकर पड़े हुए वृक्ष के समान धराषायी हो गया है। देखो, कर्ण की पत्नि एवं वृषसेन की माता पृथ्वी पर गिरकर रोती हुई कैसा करूणाजनक विलाप कर रही है? प्राणनाथ। निश्चय ही तुम पर आचार्य का दिया हुआ श्राप लागू हो गया, जिससे इस पृथ्वी ने तुम्हारे रथ के पहिये को ग्रस लिया, तभी युद्ध में शोभा पाने वाले अर्जुन ने रणभूमि में अपने बाण से तुम्हारा सिर काट लिया। हाय। हाय। मुझे धिक्कार है सुवर्ण-कवचधारी उदार हृदय महाबाहु कर्ण इस अवस्था में देखकर अत्यन्त आतुर हो सुषेण की माता मूर्छित होकर गिर पड़ी।
मानव शरीर का भक्षण करने वाले जन्तुओं ने खा-खा कर महामना कर्ण के शरीर को थोड़ा सा ही शेष रहने दिया है। उसका यह अल्पावषेष शरीर कृष्ण पक्ष की चतुर्दषी के चन्द्रमा की भांति देखने पर हम लोगों को प्रसन्नता नहीं प्रदान करता है। वह बेचारी कर्ण की पत्नि पृथ्वी गिरकर उठी और उठकर पुनः गिर पड़ी। कर्ण का मुख सूँघती हुई यह रानी अपने पुत्र के वध से संतप्त हो फूट-फूट कर रो रही है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीर्षके अन्तर्गत स्रीत्रिताप सर्वमें कर्मका दर्शनविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (स्त्रिविलाप पर्व)
बाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) द्वाविंष अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“अपनी-अपनी स्त्रियोंसे घिरे हुए अवन्ती-नरेश और जयद्रथको देखकर तथा दुःशलापर दृष्टिपात करके गान्धारीका श्रीकृष्णके सम्मुख विलाप”
गान्धारी बोलीं ;- भीमसेन ने जिसे मार गिराया था,वह शूरवीर अवन्ती नरेष बहुतेरे बन्धु-बान्धव से सम्पन्न था; परन्तु आज उसे बन्धुहीन की भांति गीध और गीदड़ नोंच-नोंच कर खा रहे हैं। मधुसूदन। देखो, अनेकों शूरवीरों का संहार करके वह खून से लथपथ हो वीरशैया पर सो रहा है। उसे सियार, कंक और नाना प्रकार के मांषभक्षी जीव जन्तु इधर-उधर खींच रहे हैं। यह समय का उलट-फेर तो देखो। भयानक मारकाट मचाने वाले इस शूरवीर अवन्ति नरेष को वीरषैया पर सोया देख उसकी स्त्रियां रोती हुई उसे सब ओर से घेर कर बैठी हैं।
श्रीकृष्ण ! देखो, महाधनुर्धर प्रतीप नन्दन मनस्वी वाहिक भल्ल से मारे जाकर सोये हुए सिंह के समान पड़े हैं। रणभूमि में मारे जाने पर भी पूर्णमासी को उगते हुए पूर्ण चन्द्रमा की भांति इनके मुख की कांति अत्यन्त प्रकाषित हो रही है। श्री कृष्ण। पुत्र शोक से सतप्त हो अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन करते हुए इन्द्रकुमार अर्जुन ने युद्धस्थल में वृद्वक्षत्र के पुत्र जयद्रथ के पुत्र को मार गिराया है। यघपि उसकी रक्षा की पूरी व्यवस्था की गयी थी, तब भी अपनी प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखाने की इच्छा वाले महात्मा अर्जुन ने ग्यारह अक्षुहिणी सेनाओं का भेदन करके जिसे मार डाला था, वही यह जयद्रथ यहां पड़ा है। इसे देखो।
जनार्दन! सिन्धु और सौवीर देष के स्वामी अभिमानी और मनस्वी जयद्रथ को गीध और सियार नोंच-नोंच कर खा रहे हैं। अच्युत। इसमें अनुराग रखने वाली इसकी पत्नियां यघपि रक्षा में लगी हुई हैं तथापि गीदडि़यां उन्हें डरवाकर जयद्रथ की लाष को उनके निकट से गहरे गड्डे की ओर खींचे लिये जा रही हैं। यह काम्बोज और यवन देष की स्त्रियां सिन्धु और सौवीर देष के स्वामी महाबाहु जयद्रथ को चारों ओर से घेर कर वैठी हैं और वह उन्हीं के द्वारा सुरक्षित हो रहा है। जनार्दन। जिस दिन जयद्रथ द्रौपदी को हरकर कैकयों के साथ भागा था उसी दिन यह पाण्डवों के द्वारा वध हो गया था परन्तु उस समय दुषलाका सम्मान करते हुए उन्होंने जयद्रथ को जीवित छोड़ दिया था।
श्रीकृष्ण! उन्हीं पाण्डवों ने आज फिर क्यों नहीं आज सम्मान किया? देखो, वहीं यह मेरी बेटी दुषला जो अभी बालिका है, किस तरह दुखी हो हो कर विलाप कर रही है? और पाण्डवों को कोसती हुई स्वंय ही अपनी छाती पीट रही है। श्रीकृष्ण। मेरे लिये इससे बढकर महान् दु:ख की बात और क्या होगी कि यह छोटी अवस्था की मेरी बेटी विधवा हो गयी तथा मेरी सारी पुत्रबधुऐं भी अनाथा हो गयीं। हाय। हाय, धिक्कार है। देखो, देखो दुषला शोक और भय से रहित सी होकर अपने पति का मस्तक न पाने कारण इधर-उधर दौड़ रही है। जिस वीरे ने अपने पुत्र को बचाने की इच्छा वाले समस्त पाण्डवों को अकेले रोक दिया था, बही कितनी ही सेनाओं का संहार करके स्वंय मृत्यु के अधीन हो गया। मतवाले हाथी के समान उस परम दुर्जय वीर को सब ओर से घेरकर ये चन्द्रमुखी रमणियां रो रही हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्व में गान्धारीका वाक्यविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (स्त्रिविलाप पर्व)
तेईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) त्रयोविंष अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“शल्य, भगदत्त, भीष्म और द्रोणको देखकर श्रीकृष्णके सम्मुख गान्धारीका विलाप”
गान्धारी बोलीं ;- तात। देखो, ये नकुल के सगे मामा शल्य मरे पड़े है। इन्हें ज्ञाता धर्मराज युधिष्ठिर ने युद्ध में मारा है। पुरुषोत्तम। जो सदा और सर्वत्र तुम्हारे साथ होड़ लगाये रहते थे वे ही ये महाबली मद्रराज शल्य यहां मारे जाकर चिर निद्रा में सो रहे हैं। तात। ये वे ही शल्य हैं जिन्होंने युद्ध में सूतपुत्र कर्ण के रथ की बागडोर संभालते समय पाण्डवों की विजय के लिये उसके तेज और उत्साह को नष्ट किया था।
अहो! धिक्कार है। देखो न, शल्य के पूर्ण चन्द्रमा की भांति दर्षनीय तथा कमल दल सदृष नेत्रों वाले व्रणरहित मुख को कौओं ने कुछ-कुछ काट दिया है।
श्रीकृष्ण सुवर्ण के समान कान्तिमान शल्य के मुख से तपाये हुए सोने के समान कान्तिवाली जीभ बाहर निकल आयी है और पक्षी उसे नोंच-नोंच कर खा रहे हैं। युधिष्ठिर के द्वारा मारे गये तथा युद्ध में शोभा पाने वाले मद्रराज शल्य को ये कुलांगनाऐं चारों ओर से घेर कर वैठी हैं और रो रही हैं। अत्यन्त महीन वस्त्र पहने हुए ये क्षत्राणियां क्षत्रिय षिरोमणि नरश्रेष्ठ मद्रराज के पास आकर कैसा करूण क्रन्दन कर रही हैं। रणभूमि गिरे हुए राजा शल्य को उनकी स्त्रियां उसी तरह सब ओर से घेरे हुए हैं, जैसे एक बार की व्याही हुई हथनियां कीचड़ में फंसे हुए गजराज को घेर कर खड़ी हों।
वृष्णिनन्दन ! देखो, ये दूसरों को शरण देने बाले शूरवीर शल्य बाणों से छिन्न-भिन्न होकर वीर शैया पर सो रहे हैं। ये पर्वतीय, तेजस्वी एवं प्रतापी राजा भगदत्त हाथ में हाथी का अंकुष लिये पृथ्वी पर सो रहे हैं इन्हें अर्जुन ने मार गिराया था। इन्हें हिंसक जीव जन्तु खा रहे हैं। इनके सिर पर यह सोने माला विराज रही है जो केषों की सोभा बढाती सी जान पड़ती है। जैसे वृत्रासुर के साथ इन्द्र का अत्यन्त भयंकर संग्राम हुआ था, उसी प्रकार इन भगदत्त के साथ कुन्ती कुमार अर्जुन का अत्यन्त दारूण एवं रोमांचकारी युद्ध हुआ था। उन महाबाहु ने कुन्तीकुमार धनंजय के साथ युद्ध करके उन्हे संषय में डाल दिया था; परंतु अंत में उन कुन्तीकुमार के हाथ से ही मारे गये। संसार में षोर्य और बल में जिनकी समानता करने वाला दूसरा कोई नही है, वे ही ये युद्ध में श्यंकर कर्म करने वाले भीष्मजी घायल हो बाणषैया पर सो रहे है।
श्रीकृष्ण! देखो, ये सूर्य के समान तेजस्वी शान्तनुनन्दन भीष्म कैसे सो रहे हैं, ऐसा जान पड़ता है, मानो प्रलयकाल में काल प्रेरित हो सूर्यदेव आकाष से भूमि पर गिर पड़े हैं। केशव। जैसे सूर्य सारे जगत् को ताप देकर अस्ताचल को चले जाते हैं, उसी तरह ये पराक्रमी मानव सूर्य रणभूमि में अपने शस्त्रों के प्रताप से शत्रुओं को संतप्त करके अस्त हो रहे हैं। जो ऊध्र्वरेता ब्रम्हचारी रहकर कभी मर्यादा से च्युत नहीं हुए हैं, उन भीष्म को शूर सेवित वीरोचित शयन बाणषैया पर सोते हुए देख लो। जैसे भगवान स्कन्द सरकण्डों के समूह पर सोये थे, उसी प्रकार ये भीष्मजी कर्णी, नालीक और नाराच आदि बाणों की उत्तम शैया बिछाकर उसी का आश्रय ले सो रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) त्रयोविंष अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)
इन गंगानन्दन भीष्म ने रूई भरा हुआ तकिया नहीं लिया है। इन्होंने तो गाण्डीवधरी अर्जुन के दिये हुए तीन बाणों द्वारा निर्मित श्रेष्ठ तकिये को ही स्वीकार किया है। माधव। पिता की आज्ञा का पालन करते हुए महा यश स्वी नेष्ठिक ब्रम्हचारी ये शांतनुनन्दन भीष्म जिनकी युद्ध में कहीं तुलना नहीं है, यहां सो रहे हैं। तात। ये धर्मात्मा और सर्वज्ञ हैं परलोक और यह लोक सम्बन्धी ज्ञान द्वारा सभी आध्यामिक प्रष्नों का निर्णय करने में समर्थ हैं तथा मनुष्य होने पर भी देवता के तुल्य हैं; इन्होंने अभी तक अपने प्राण धारण कर रखे हैं। जब ये शान्तनुनन्दन भीष्म भी आज शत्रुओं के बाणों से मारे जाकर सो रहे हैं तो यही कहना पड़ता है कि युद्ध में न कोई कुषल है, न कोई विद्वान् है और न पराक्रमी ही है। पाण्डवों के पूछने पर इन धर्मज्ञ एवं सत्यवादी शूरवीर ने स्वयं ही अपनी मृत्यु का उपाय बता दिया था। जिन्होंने नष्ट हुए कुरूवंष का पुनः उद्धार किया था, वे ही परम बुद्धिमान् भीष्म इन कौरवों के साथ परास्त हो गये। माधव। इन देवतुल्य नरश्रेष्ठ देवव्रत के स्वर्गलोक में चले जाने पर अब कौरव किसके पास जाकर धर्मविषयक प्रष्न करेंगे।
जो अर्जुन के षिक्षक, सात्यकि के आचार्य तथा कौरवों के श्रेष्ठ गुरू थे, वे द्रोणाचार्य रणभूमि में गिरे हुए हैं, उन्हें भी देख लो। माधव। जैसे देवराज इन्द्र अथवा महापराक्रमी परषुराम जी चार प्रकार की अस्त्रविद्या को जानते हैं उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी जानते थे। जिनके के प्रसाद से पाण्डुनन्दन अर्जुन ने दुष्कर कर्म किया है, वे ही आचार्य यहां मरे पड़े हैं। उन अस्त्रों ने इनकी रक्षा नहीं की। जिनको आगे रखकर कौरव पाण्डवों को ललकारा करते थे, वे ही शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य शस्त्रों क्षत-विक्षत हो गये हैं। शत्रुओं की सेना को दग्ध करते समय जिनकी गति अग्नि के समान होती थी, वे ही वुझी हुई लपटों वाली आग के समान मरकर पृथ्वी पर पड़े हैं। माधव। युद्ध में मारे जाने पर भी द्राणाचार्य के धनुष के साथ जुड़ी हुई मुट्ठी ढीली नहीं हुई है।
दस्ताना भी ज्यों का त्यों दिखाई देता है, मानो वह जीवित पुरुष के हाथों हो। केशव। जैसे पूर्व काल से ही प्रजापति ब्रम्ह से वेद कभी अलग नहीं हुए, उसी प्रकार जिन शूरवीर द्रोर्ण से चारों वेद और सम्पूर्ण अस्त्र-षस्त्र कभी दूर नहीं हुए, उन्हीं के बन्दीजनों के द्वारा वन्दित इन दोनों सुन्दर एवं वन्दनीय चरणारविन्दों को जिनकी सैकड़ों षिष्य पूजा कर चुके हैं, गीदड़ घसीट रहे हैं। मधुसूदन। द्रुपदपुत्र के द्वारा मारे गये द्रोणाचार्य के पास उनकी पत्नी कृपी बड़े दीनभाव से बैठी है। दु:ख से उसकी चेतना लुप्त सी हो गयी है। देखो, कृपी केष खोले नीचे मूंह किये राती हुई अपने मारे गये पति शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य की उपासना पर रही है।
केशव! ध्रष्टद्युम्न ने अपने बाणों से जिन आचार्य द्रोर्ण का कवच छिन्न-भिन्न कर दिया है, उन्हीं के पास युद्धस्थल में वह जटाधारिणी ब्रम्हचारिणी कृपी वैठी हुई है। शोक से दीन और आतुर हुई यश स्वनी सुकुमारी कृपी समर में मारे गये पति देव का प्रेत कर्म करने की चेष्टा कर रही है।
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) त्रयोविंष अध्याय के श्लोक 38-42 का हिन्दी अनुवाद)
विधि पूर्वक अग्नि की स्थापना करके चिता को सब ओर से प्रज्वलित कर दिया गया है और उस पर द्रोणाचार्य के शरीर को रखकर साम-गान करने वाले ब्राम्हण त्रिवेद साम का गान करते हैं। माधव। इन जटाधारी ब्रम्हचारियों ने धनुष, शक्ति, रथ की बैठक और नाना प्रकार बाण तथा अन्य आवष्यक वस्तुओं से उस चिता का निमार्ण किया। वे उसी महान् तेजस्वी द्रोर्ण को जलाना चाहते थे; इसलिये द्रोर्ण को चिता पर रखकर वे वेदमंत्र पढते और रोते हैं, कुछ लोग अन्त समय में उपयोगी त्रिवेद सामों का गान करते हैं। चिता की अग्नि में अग्नि होत्र सहित द्रोणाचार्य को रखकर उनकी आहुति दे उन्हीं के षिष्य द्विजातिगण कृपी को आगे और चिता को दायें करके गंगाजी के तट की ओर जा रहे हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्व में गान्धारीवचनविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (स्त्रिविलाप पर्व)
चौबीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) चतुर्विंष अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भूरिश्रवाके पास उसकी पत्नियोंका विलाप, उन सबको तथा शकुनिको देखकर गान्धारीका श्रीकृष्णके सम्मुख शोकोद्गार”
गान्धारी बोलीं ;- माधव। देखो सात्यकिने जिन्हे मार गिराया था, वे ही ये सोमदत्त के पुत्र भूरीश्रवा पास ही दिखाई दे रहे हैं। इन्हें बहुत से पक्षी चोंच मार-मार कर नोंच रहे हैं। जनार्दन। उधर पुत्र शोक से संतप्त मरे हुए सोमदत्त महान् धनुर्धर सात्यकि की निन्दा करते हुए से दिखाई दे रहे हैं। उधर वे शोक में डूबी हुई भूरिश्रवा की सती साध्वी माता अपने पति को मानो आष्वासन देती हुई कहती है। महाराज। सौभाग्य से आपको यह भरतवंषियों का दारूण विनास, घोर प्रलय के समान कुरू कुल का महान् संहार देखने का अवसर नहीं मिला है। जिसकी ध्वजा में यूप का चिन्ह था जो सहस्त्रो स्वर्ण मुद्राओं की भूरि-भूरि दक्षणा दिया करता था और जिसके अनेक यज्ञों का अनुष्ठान पूरा कर लिया था, उस वीर पुत्र भूरिश्रवा की मृत्यु का कष्ट सौभाग्य से आप नहीं देख रहे हैं।
महाराज! समुद्र तट पर चीत्कार करने वाली सारसियों के समान इस युद्धस्थल में आप इन अपने पुत्र बंधुओं का अत्यन्त भयानक विलाप नहीं सुन रहे हैं, यह भाग्य की ही बात है। आपकी पुत्रबधुऐं एक वस्त्र अथवा आधे वस्त्र से ही शरीर को ढक कर अपनी काली-काली लटें छिटकाये इस युद्धभूमि में चारों ओर दौड़ रही हैं। इन सबके पुत्र और पति भी मारे जा चुके हैं।
अहो! आपका वड़ा भाग्य है कि अर्जुन ने जिसकी एक बांह काट ली थी और सात्यकि ने जिसे मार गिराया था, युद्ध मेें मारे गये उस भूरिश्रवा और शल्य को आप हिंसक जन्तुओं का आहार बनते नहीं देखते हैं तथा इन सब अनेक प्रकार के रूप रंग वाली पुत्रबधुओं को भी आज यहां रणभूमि में भटकती हुई नहीं देख रहे हैं। सौभाग्य से अपने महामनस्वी पुत्र यूपध्वज भूरिश्रवा के रथ पर खण्डित होकर गिरे हुए उसके के स्वर्णमय छत्र को आप नहीं देख पा रहे हैं। श्रीकृष्ण। भूरिश्रवा के कजरारे नेत्रों वाली वे पत्नियां सात्यिकी द्वारा मारे गये अपने पति को सब ओर से घेरकर बार-बार शोक से पीडि़त हो रही हैं। केशव! पति शोक से पीडि़त हुई ये अवलाऐं करुणा जनक विलाप करके पति के सामने अत्यन्त दु:ख से पछाड़ खा-खा कर गिर रही हैं।
वे कहती है,- अर्जुन ने यह अत्यन्त धृणित कर्म कैसे किया? कि दूसरे के साथ युद्ध में लगे रहकर उनकी ओर से असावधान हुए आप जैसे यज्ञ परायण शूरवीर की बाहें काट डाली। उनसे भी बढकर घोर पाप कर्म सात्यिकी ने किया है; क्योंकि उन्होेंन आमरण अनसन के लिये बैठे हुए एक शुद्वात्मा साधु पुरुष के ऊपर खड़ग का प्रहार किया है। धर्मात्मा माहपुरुष तुम अकेले दो महारथियों द्वारा अधर्म पूर्वक मारे जाकर रणभूमि में सो रहे हो। भला, सात्यिकी साधु पुरुषों की सभाओं और बैठकों में अपने लिये कलंक का टीक लगाने वाले इस पाप कर्मों का वर्णन स्वंय अपने ही मुख से किस प्रकार करेंगे? माधव। इस प्रकार यूपध्वज ये स्त्रियां सात्यिकी को कोस रही हैं।
श्रीकृष्ण! देखो, यूपध्वज की यह पतली कमर वाली भार्या पति की कटी हुई बाहों को गोद में लेकर बड़े दीन भाव से विलाप कर रही है।
वह कहती है,- हाय। यह वही हाथ है, जिसने युद्ध में अनेक शूरवीरों का वध, मित्रों का अभयदान, शहस्त्रों गौदान तथा क्षत्रियों का संहार किया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्रीपर्व) चतुर्विंष अध्याय के श्लोक 19-30 का हिन्दी अनुवाद)
यह वही हाथ है, जो हमारी करधनी को खींच लेता, उभरे हुए स्तनों का मर्दन करता, नाभि, उरू और जघन प्रदेष का छूता और निभिका बन्दन सरका दिया करता था। जब मेरे पति समरांगन में दूसरे के साथ युद्ध में संलग्न हो अर्जुन की ओर से असावधान थे, उस समय भगवान श्रीकृष्ण के निकट अनायास ही महान् कर्म करने वाले अर्जुन ने इस हाथ को काट गिराया था। जनार्दन! तुम सतपुरुषों की सभाओं में, बातचीत के प्रसंग में अर्जुन के महान् कर्म का किस तरह वर्णन करोगे?
अथवा स्वयं किरीटाधारी अर्जुन ही कैसे इस जघन्य कार्य की चर्चा करेंगे? इस तरह अर्जुन की निंदा करके यह सुन्दरी चुप हो गयी है। इसकी बड़ी सौतें इसके लिये उसी प्रकार शोक प्रकट कर रही हैं, जैसे सास अपनी बहू के लिये किया करती है। यह गान्धार देष का राजा महाबली सत्यपराक्रमी शकुनि पड़ा हुआ है। यह सहदेव ने मारा है। भान्जे ने मामा के प्राण लिये हैं। पहले सोने के डण्डों से विभूषित दो-दो व्यजनों द्वारा जिसको हवा की जाती थी, वही शकुनि आज धरती पर सो रहा है और पक्षी अपनी पांखों से इसको हवा करते हैं। जो अपने सैकड़ों और हजारों रूप बना लिया करता था, उस मायावी की सारी मायाऐं पाण्डु पुत्र सहदेव के तेज से दग्ध हो गयीं ।
जो छलविद्या का पण्डित था, जिसने द्यूतसभी में माया द्वारा युधिष्ठिर तथा उनके विशाल राज को जीत लिया था, वही फिर अपना जीवन भी हार गया। श्रीकृष्ण। आज शकुनि (पक्षी) ही इस शकुनि की चारों ओर से उपासना करते हैं। इसने मेेरे पुत्रों के विनाश के लिये ही द्यूतविद्या अथवा धूर्तविद्या सीखी थी। इसी ने सगे सम्बन्धियों सहित अपने और मेरे पुत्रों के वध के लिये पाण्डवों के साथ महान् वैर की नींव डाली थी। प्रभो। जैसे मेरे पुत्रों को शस्त्रों द्वारा जीते हुए पुण्य लोक प्राप्त हुए हैं, उसी प्रकार इस दुर्बुद्धि शकुनि को भी शस्त्र द्वारा जीते हुए उत्तम लोक प्राप्त होंगे। मधुसूदन। मेरे पुत्र सरल बुद्धि के हैं। मुझे भय है कि उन पुण्य लोकों में पहुंच कर यह शकुनि फिर किसी प्रकार उन सब भाइयों में परस्पर विरोध न उत्पन्न कर दे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्वमें गान्धारीवाक्यविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (स्त्रिविलाप पर्व)
पच्चीसवाँ अध्याय
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें