सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
छठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“अश्वत्थामा शिविर-द्वार पर एक अद्भुत पुरुष को देखकर उस पर अस्त्रों का प्रहार करना और अस्त्रों के अभाव में चिन्तित हो भगवान शिव की शरण में जाना”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय ! अश्वत्थामा को शिविर के द्वार पर खड़ा देख कृतवर्मा और कृपाचार्य ने क्या किया ? यह मुझे बताओ।
संजय ने कहा ;- राजन ! कृतवर्मा ओर कृपाचार्य को आमन्त्रित करके महारथी अश्वत्थामा क्रोधपूर्ण हृदय से शिविर के द्वार पर आया । वहां उसने चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी एक विशालकाय अद्भुत प्राणी को देखा, जो द्वार रोककर खड़ा था, उसे देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते थे। उस महापुरुष ने व्याघ्र का ऐसा चर्म धरण कर रखा था, जिससे बहुत अधिक रक्त चू रहा था, वह काले मृगचर्म की चादर ओढे और सर्पों का यज्ञोपवीत पहने हुए थे। उसकी विशाल और मोटी भुजाएं नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये प्रहार करने को उद्यत जान पड़ती थी। उनमें बाजूबंदों के स्थान में बड़े-बड़े सर्प बँधें हुए थे तथा उसका मुख आग की लपटों से व्याप्त दिखायी देता था। उसने मुँह फैला रखा था, जो दाढों के कारण विकराल जान पड़ता था। वह भयानक पुरुष सहस्त्रों विचित्र नेत्रों से सुशोभित था।
उसके शरीर और वेष का वर्णन नहीं किया जा सकता। सर्वथा उसे देख लेने पर पर्वत भी भय के मारे विदीर्ण हो सकते थे । उसके मुख से, दोनों नासिकाओं से, कानों से और हजारों नेत्रों से भी सब ओर आग की बड़ी-बड़ी लपटे निकल रहीं थीं । उसके तेज की किरणों से शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले सैकड़ों, हजारों विष्णु प्रकट हो रहे थे । सम्पूर्ण जगत् को भयभीत करने वाले उस अद्भुत प्राणी को देखकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा भयभीत नहीं हुआ, अपितु उसके ऊपर दिव्य अस्त्रों की वर्ष करने लगा । परंतु जैसे बडवानल समुद्र की जलराशि को पी जाता है, उसी प्रकार उस महाभूत ने अश्वत्थामा के छोड़़े हुए सारे बाणों-को अपना ग्रास बना लिया । अश्वत्थामा ने जो-जो बाण छोड़े, उन सबको वह महाभूत निगल गया। अपने बाण-समूहों को व्यर्थ हुआ देख अश्वत्थामा ने प्रज्वलित अग्निशिखा के समान देदीप्यमान रथ शक्ति छोड़ी । उसका अग्रभाग तेज से प्रकाशित हो रहा था। वह रथशक्ति उस महापुरुष से टकराकर उसी प्रकार विदीर्ण हो गयी, जैसे प्रलयकाल में आकाश से गिरी हुई बड़ी भारी उल्का सुर्य से टकराकर नष्ट हो जाती है । तब अश्वत्थामा ने सोने की मूँठ से सुशोभित तथा आकाश के समान निर्मल कान्तिवाली अपनी दिव्य तलवार तुरंत ही म्यान से बाहर निकाली, मानो प्रज्वलित सर्प को बिल से बाहर निकाला गया हो।
फिर बुद्धिमान द्रोणपुत्र ने वह अच्छी-सी तलवार तत्काल ही उस महाभूत पर चला दी; परंतु वह उसके शरीर में लगकर उसी तरह विलीन हो गयी, जैसे कोई नेवला बिल में घुस गया हो । तदनन्तर कुपित हुए अश्वत्थामा ने उसके ऊपर अपनी इन्द्रध्वज के समान प्रकाशित होने वाली गदा चलायी; परंतु वह भूत उसे भी लील गया । इस प्रकार जब उसके सारे अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गये, तब वह इधर-उधर देखने लगा । उस समय उसे सारा आकाश असंख्य विष्णुओं से भरा दिखायी दिया ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
अस्त्रहीन अश्वत्थामा यह अत्यंत अद्भुत दृश्य देखकर कृपाचार्य के वचनों का बारंबार स्मरण करता हुआ अत्यन्त संतप्त हो उठा और मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगा,
अश्वत्थामा कहने लगा ;- जो पुरुष अप्रिय किंतु हितकर वचन बोलने वाले अपने सुहृदयों की सीख नहीं सुनता है, वह विपत्ति में पड़कर उसी तरह शोक करता है, जैसे मैं अपने उन दोनों सुहृदयों की आज्ञा का उल्लघंन करके कष्ट पा रहा हूँ । जो मुर्ख शास्त्रदर्शी पुरुषों की आज्ञा का उल्लघंन करके दूसरों की हिंसा करना चाहता है वह धर्ममार्ग से भ्रष्ट हो कुमार्ग में पड़कर स्वयं ही मारा जाता है । गौ, ब्राह्मण, राजा, स्त्री, मित्र, माता, गुरू, दुर्बल, जड़, अन्धें, सोये हुये, डरे हुए, मतवाले, उन्मत्त और असावधान पुरुषों पर मनुष्य शस्त्र न चलाये । इस प्रकार गुरूजनों ने पहले-से ही सब लोगों को सदा के लिये यह शिक्षा दे रखी है। परंतु मैं उस शास्त्रोक्त सनातन मार्ग का उल्लघंन करके बिना रास्ते के ही चलकर इस प्रकार अनुचित कम का आरम्भ करके भयंकर आपत्ति में पड़ गया हूँ ।
मनीषी पुरुष उसी को अत्यन्त भयंकर आपत्ति बताते हैं, जब कि मनुष्य किसी महान् कार्य का आरम्भ करके भय के कारण भी उससे पीछे हट जाता है और शक्ति-बल से यहां उस कर्म को करने में असमर्थ हो जाता है । मानव-कर्म (पुरुषार्थ) को दैव से बढकर नहीं बताया गया है। पुरुषार्थ करते समय यदि दैववश सिद्घि नहीं प्राप्त हुई तो मनुष्य धर्ममार्ग से भ्रष्ट होकर विपत्ति में फँस जाता है। यदि मनुष्य किसी कार्य को आरम्भ करके यहां भय के कारण उससे निवृत हो जाता है तो ज्ञानी पुरुष उसकी उस कार्य को करने की प्रतिज्ञा को अज्ञान या मूर्खता बताते हैं । इस समय अपने ही दुष्कर्म के कारण मुझ पर यह भय पहुँचा है। द्रोणाचार्य का पुत्र किसी प्रकार भी युद्ध से पीछे नहीं हट सकता; परंतु कया करूँ, यह महाभूत मेरे मार्ग में विध्न डालने के लिये दैवदण्ड के समान उठ खड़ा हुआ है ।
मैं सब प्रकार से सोचने-विचारने पर भी नहीं समझ पाता कि यह कौन है? निश्चय ही जो मेरी यह कलुषित बुद्धि अधर्म में प्रवृत हुई है, उसी का विघात करने के लिये यह भयंकर परिणाम सामने आया है, अत: आज युद्ध से मेरा पीछे हटना दैव के विधान से ही सम्भव हुआ है । दैव की अनुकूलता के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है, जिससे किसी प्रकार फिर यहां युद्धविषयक उद्योग किया जा सके; इसलिये आज मैं सर्वव्यापी भगवान महादेवजी की शरण लेता हूँ। वे ही मेरे सामने आये हुए इस भयानक दैवदण्ड का नाश करेंगे। भगवान शंकर तपस्या और पराक्रम में सब देवताओं से बढकर हैं; अत: मैं उन्हीं रोग-शोक से रहित, जटाजूटधारी, देवताओं के भी देवता, भबवाती उमा के प्राणवल्लभ, कपालमालाधारी, भगनेत्र-विनाशक, पापहारी, त्रिशूलधारी एवं पर्वतपर शयन करने वाले रूद्रदेव की शरण में जाता हूँ ।
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
सातवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“अश्वत्थामा द्वारा शिव की स्तुति, उसके सामने एक अग्निवेदी तथा भूतगणों का प्राकट्य और उसका आत्मसर्मपण करके भगवान शिव से खड़ग प्राप्त करना”
संजय कहते हैं ;- प्रजानाथ ! ऐसा सोचकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा रथ की बैठक से उतर पड़ा और देवेश्वर महादेवजी- को प्रणाम करके खड़ा हो इस प्रकार स्तुति करने लगा ।
अश्वत्थामा बोला ;- प्रभो ! आप उग्र, स्थाणु, शिव, रूद्र, शर्व, ईशान, ईश्वर और गिरीश आदि नामों से प्रसिद्ध वरदायक देवता तथा सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करने वाले परमेश्वर हैं। आपके ही दक्ष के यज्ञ का विनाश किया है। आप ही संहारकारी हर, विश्वरूप, भयानक नेत्रों वाले, अनेक रूपधारी तथा उमा देवी के प्राणनाथ हैं। आप श्मशान में निवास करते हैं। आपको अपनी शक्ति पर गर्व है। आप अपने महान् गणों के अधिपति, सर्वव्यापी तथा खष्टावंगधारी हैं, उपासकों का दु:ख दूर करने वाले रूद्र हैं, मस्तक पर जटा धारण करने वाले ब्रह्मचारी हैं। आपने त्रिपुरासुर का विनाश किया है। मैं विशुद्ध हृदय से अपने आपकी बलि देकर, जो मन्दमति मानवों के लिये अति दुष्कर है, आप का यजन करूँगा । पूर्वकाल में आपकी स्तुति की गयी है, भविष्य में भी आप स्तुति के योग्य बने रहेंगे और वर्तमान काल में भी आप की स्तुति की जाती है। आपका कोई भी संकल्प या प्रयत्न व्यर्थ नहीं होता ।
आप व्याघ्र-चर्ममय वस्त्र धारण करते हैं, लाहितवर्ण और नीलकण्ठ हैं। आपके वेग को सहन करना असम्भव है और आपको रोकना सर्वथा कठिन है। आप शुद्धस्वरुप ब्रह्म हैं। आपने ही ब्रह्माजी की सृष्टि की है। आप ब्रह्मचारी, व्रतधारी तथा तपोनिष्ठ हैं, आपका कहीं अन्त नहीं है। आप तपस्वीजनों के आश्रय, बहुत-से रूप धारण करने वाले तथा गणपति हैं। आपके तीन नेत्र हैं। अपने पार्षदों को आप बहुत प्रिय हैं। धनाध्यक्ष कुबेर सदा आपका मुख निहारा करते हैं। आप गौरांगिणी गिरिराजनन्दिनी के हृदय-वल्लभ हैं। कुमार कार्तिकेय के पिता भी आप ही हैं। आपका वर्ण पिंगल है। वृषभ आपका श्रेष्ठ वाहन है। आप अत्यन्त सूक्ष्म वस्त्र धारण करने वाले और अत्यन्त उग्र हैं । उमा देवी को विभूषित करने में तत्पर रहते हैं। ब्रह्मा आदि देवताओं से श्रेष्ठ और परात्पर हैं। आपसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है। आप उत्तम धनुष धारण करने वाले, दिगन्तव्यापी तथा सब देखों के रक्षक हैं। आपके श्रीअंगों में सुवर्णमय कवच शोभा पाता है। आपका स्वरूप दिव्य है तथा आप चन्द्रमय मुकुट से विभूषित होते हैं। मैं अपने चित्त को पूर्णत: एकाग्र करके आप परमेश्वर की शरण में आता हूँ ।
यदि मैं आज इस अत्यन्त दुष्कर और भयंकर विपत्ति से पार पा जाऊँ तो मैं सर्वभूतमय पवित्र उपहार समर्पित करके आप परम पावन परमेश्वर की पूजा करूँगा । इस प्रकार अश्वत्थामा का दृढ़ निश्चय जानकर उसके शुभकर्म के योग से उस महामनस्वी वीर के आगे एक सुवर्णमयी वेदी प्रकट हुई । राजन ! उस वेदी पर तत्काल ही अग्निदेव प्रकट हो गये, जो अपनी ज्वालाओं से सम्पूर्ण दिशाओं-विदिशाओं और आकाश को परिपूर्ण-सा कर रहे थे । वहीं बहुत-से महान् गण प्रकट हो गये, जो द्वीपवर्ती पर्वतों के समान बहुत ऊँचे कद के थे। उनके मुख और नेत्र दीप्ति से दमक रहे थे । उन गणों के पैर, मस्तक और भुजाएं अनेक थीं। वे अपनी बाहों में रत्न-निर्मित विचित्र अंगद धारण किये हुए थे। उन सबने अपने हाथ ऊपर उठा रखे थे ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद)
उनके रूप कुत्ते, सूअर और ऊँटों के समान थे; मुँह घोड़ों, गीदड़ों और गाय-बैलों के समान जान पड़ते थे। किनहीं के मुख रीछों के समान थे तो किन्हीं के बिलावों के समान। कोई बाघों के समान मुँहवाले थे तो कोई चीतों के। कितने ही गणों के मुख कौओं, वानरों, तोतों, बड़े-बड़े अजगरों और हंसों के समान थे। भारत ! कितनों की कान्ति भी हंसों के समान सफेद थी, कितने ही गणों के मुख कठफोरवा पक्षी और नीलकण्ठ के समान थे । इसी प्रकार बहुत-से गण कछुए, नाके, सूँस, बड़े-बड़े मगर, तिमि नामक मत्स्य, मोर, क्रौंच (कुरर), कबूतर, हाथी, परेवा तथा मद्रु नामक जलपक्षी के समान मुखवाले थे । किन्हीं हाथों में ही कान थे। कितने ही हजार-हजार नेत्र और लंबे पेट वाले थे। कितनों के शरीर मांसरहित हडिड्य के ढॉंचे मात्र थे। भरतनन्दन ! कोई कौओं के समान मुखवाले थे तो कोई बाज के समान । राजन ! किन्हीं किन्हीं के तो सिर ही नहीं थे। भारत ! कोई-कोई भालू के समान मुख वाले थे। उन सबके नेत्र और जिह्वाएं तेज से प्रज्वलित हो रही थी। अंगों की कान्ति आग की ज्वाला के समान जान पड़ती थी ।
राजेन्द्र ! उनके केश भी अग्नि-शिखा के समान प्रतीत होते थे। उनका रोम-रोम प्रज्वलित हो रहा था। उन सबके चार भुजाऐं थी। नरेश्वर ! कितने ही गणों के मुख भेड़ों और बकरों के समान थे । कितनों के मुख, वर्ण और कान्ति शंख के सदृश थे। वे शंख की मालाओं से अलंकृत थे और उनके मुख से शंखध्वनि के समान ही शब्द प्रकट होते थे । कोई समूचे सिर पर जटा धारण करते थे, कोई पांच शिखाएं रखते थे और कितने ही मूंड मुड़ाये रहते थे। बहुतों के उदर अत्यन्त कृश थे, कितनों के चार दाढें और चार जिह्वाएं थीं। किन्हीं के कान खूँटी के समान जान पड़ते थे और कितने ही पार्षद अपने मस्तक पर किरीट धारण करते थे । राजेन्द्र ! कोई मूँज की मेखला पहने हुए थे, किन्हीं के सिर के बाल घुँघराले दिखायी देते थे, कोई पगड़ी धरण किये हुए थे तो कोई मुकुट। कितनों के मुख बड़े ही मनोहर थे। कितने ही सुन्दर आभूषणों से विभूषित थे । कोई अपने मस्तक पर कमलों और कुमुदों का किरीट धारण करते थे। बहुतों ने विशुद्ध मुकुट धरण कर रखा था। वे भूतगण सैकड़ों और हजारों की संख्या में थे और सभी अद्भुत माहात्म्य से सम्पन्न थे ।
भारत ! उनके हाथों में शतघ्नी, बज्र, मूसल, भुशुण्डी, पाश और दण्ड शोभा पाते थे । उनकी पीडों पर तरकस बँधें थे। वे विचित्र बाण लिये युद्ध के लिये उन्मत्त जान पड़ते थे उनके पास ध्वजा, पताका, घंटे और फरसे मौजूद थे । उन्होंने अपने हाथों में बड़े-बडे पाश उठा रखे थे, कितनों के हाथों में डंडे, खम्भे और खड़ग शोभा पाते थे तथा कितनों के मस्तक पर सर्पों के उन्नत किरीट सुशोभित होते थे ।कितनों ने बाजूबंदों के स्थान में बड़े-बड़े सर्प धरण कर रखे थे। कितने ही विचित्र आभूषणों से विभूषित थे, बहुतों के शरीर धूलि-धूसर हो रहे थे। कितने ही अपने अंगों में कीचड़ लपेटे हुए थे। उन सबने श्वेत वस्त्र और श्वेत फलों की माला धारण रखी थी ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 32-46 का हिन्दी अनुवाद)
कितनों के अंग नील और पिगंलवर्ण के थे। कितनों ने अपने मस्तक के बाल मुँड़वा दिये। कितने ही सुनहरी प्रभा से प्रकाशित हो रहे थे। वे सभी पार्षद हर्ष से उत्फुल्ल हो मेरी, शंख, मृदंग, झॉंझ, ढोल और गोमुख बजा रहे थे। कितने ही गीत गा रहे थे और दूसरे बहुत से पार्षद नाच रहे थे । वे महारथी भूतगण उछलते, कूदते और लांघते हुए बड़े वेग से दौड़ रहे थे। उनमें से कितने तो माथे मुँड़ाये हुए थे और कितनों के सिर के बाल हवा के झोंके से ऊपर की ओर उठ गये थे । वे मतवाले गजराजों के समान बारंबार गर्जना करते थे। उनके हाथों में शूल और पट्टिश दिखायी देते थे। वे घोर रूपाधारी और भयंकर थे । उनके वस्त्र नाना प्रकार के रंगों में रँगे हुए थे। वे विचित्र माला और चन्दन से अलंकृत थे। उनहोंने रत्ननिर्मित विचित्र अंगद धारण कर रखे थे और उन सबके हाथ ऊपर की ओर उठे हुये थे। वे शूरवीर पार्षद हठपूर्वक शत्रुओं का वध करने में समर्थ थे।
उनका पराक्रम असह्य था। वे रक्त और वसा पीते तथा आंत और मांस खाते थे । कितनों के मस्तक पर शिखाएं थी। कितने ही कनेरों के फूल धारण करते थे। बहुतेरे पार्षद अत्यन्त हर्ष से खिल उठे थे। कितनों के पेट बठलोई या कड़ाही के समान जान पड़ते थे। कोई बहुत नाटे, कोर्इ बहुत मोट, कोई बहुत लंबे और कोई अत्यन्त भयंकर थे । कितनों के आकार बहुत विकट थे, कितनों के काले-काले और लंबे ओठ लटक रहे थे, किन्हीं के लिंग बड़े थे तो किन्हींके अण्डकोष । किन्हीं के मस्तकों पर नाना प्रकार के बहुमूल्य मुकुट शोभा पाते थे, कुछ लोग मथमुंडे थे और कुछ जटाधारी । वे सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और लक्षत्रों सहित सम्पूर्ण आकाश मण्डल को पृथ्वी पर गिरा सकते थे और चार प्रकार के समस्त प्राणि-समुदाय का संहार करने में समर्थ थे । वे सदा निर्भय होकर भगवान शंकर के भ्रूभंग को सहन करने वाले थे। प्रतिदिन इच्छानुसार कार्य करते और तीनों लोकों के ईश्वरों पर भी शासन कर सकते थे । वे पार्षद नित्य आनन्द में मग्न रहते थे, वाणी पर उनका अधिकार था। उनके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या और द्वेष नहीं रह गये थे। वे अणिमा-मीहिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्वर्य को पाकर भी कभी अभिमान नहीं करते थे । साक्षात भगवान शंकर भी प्रतिदिन उनके कर्मों को देखकर आश्चर्यचकित हो जाते थे। वे मन, वाणी और क्रियाओं द्वारा सदा सावधान रहकर महादेव जी की आराधना करते थे । मन, वाणी और कर्म से अपने प्रति भक्ति रखने वाले उन भक्तों का भगवान शिव सदा औरस पुत्रों की भांति पालन करते थे। बहुत-से पार्षद रक्त और वसा पीकर रहते थे। वे ब्रह्मद्रोहियों पर सदा क्रोध प्रकट करते थे।अन्न, सोमलता रस, अमृत और चन्द्रमण्डल- ये चार प्रकार के सोम हैं, वे पार्षदगण इनका सदा पान करते हैं। उन्होंने वेदों के स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य पालन, तपस्या और इन्द्रिय संयम के द्वारा त्रिशूल-चिह्नित भगवान शिव की आराधना करके उनका सायुज्य प्राप्त कर लिया है ।
वे कहाभूतगण भगवान शिव के आत्मस्वरूप हैं, उनके तथा पार्वती देवी के साथ भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी महेश्वर यज्ञ-भाग ग्रहण करते हैं ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 47-68 का हिन्दी अनुवाद)
भगवान शिव के वे पार्षद नाना प्रकार के बाज बजाने, हँसने, सिंहनाद करने, ललकार ने तथा गर्जने आदि के द्वारा सम्पूर्ण विश्व को भयभीत करते हुए अश्वत्थामा के पास आये । भूतों के वे समूह बड़े भयंकर और तेजस्वी थे तथा सब ओर अपनी प्रभा फैला रहे थे। अश्वत्थामा में कितना तेज है, इस बात को वे जानना चाहते थे और सोते समय जो महान् संहार होने वाला था, उसे भी देखने की इच्छा रखते थे। साथ ही महामनस्वी द्रोणकुमार की महिमा बढाना चाहते थे; इसीलिये महादेवजी की स्तुति करते हुए वे चारों ओर से वहां आ पहुँचे । उनके हाथों में अत्यन्त भयंकर परिघ, जलते लुआठे, त्रिशूल और पट्टिश शोभा पा रहे थे । भगवान भूतनाथ वे गण दर्शन देने मात्र से तीनों लोकों के मन में भय उत्पन्न कर सकते थे, तथापि महाबली अश्वत्थामा उन्हें देखकर तनिक भी व्यथित नहीं हुआ । तदनन्तर हाथ में धनुष लिये और गोहके चर्म के बने दस्ताने पहने हुए द्रोणकुमार ने स्वयं ही अपने आपको भगवान शिव के चरणों में भेंट चढा दिया । भारत ! उस आत्म-समर्पण रूपी यज्ञ में आत्मबल सम्पन्न अश्वत्थामा का धनुष ही समिधा, तीखें बाण ही कुशा और शरीर ही हविष्यरूप में प्रस्तुत हुए । फिर महाक्रोधी प्रतापी द्रोणपुत्र ने सोमदेवता संबंधी मन्त्र के द्वारा अपने शरीर को ही उपहार के रूप में अर्पित कर दिया । भयंकर कर्म करने वाले तथा अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले महात्मा रूद्र देव की रौद्र कर्मों द्वारा ही स्तुति करके अश्वत्थामा हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला । अश्वत्थामा ने कहा- भगवन ! आज मैं आंगिरस कुल में उत्पन्न हुए अपने शरीर की प्रज्वलित अग्नि में आहुति देता हूँ। आप मुझे हविष्य रूप में ग्रहण कीजिये ।
विश्वात्मन ! महादेव ! इस आपत्ति के समय आपके प्रति भक्ति भाव से अपने चित्त को पूर्ण एकाग्र करके आपके समक्ष यह भेंट समर्पित करता हूँ (आप इसे स्वीकार करें ) । प्रभो ! सम्पूर्ण भूत आप में स्थित है और आप सम्पूर्ण भूतों में स्थित है। आप में ही मुख्य-मुख्य गुणों की एकता होती है। विभो ! आप सम्पूर्ण भूतों के आश्रय हैं। देव ! यदि शत्रुओं का मेरे द्वारा पराभव नहीं हो सकता तो आप हविष्यरूप में सामने खड़े हुए मुझ् अश्वत्थामा को स्वीकार कीजिये । ऐसा कहकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा प्रज्वलित अग्नि से प्रकाशित हुई उस वेदी पर चढ गया और प्राणों का मोह छोड़कर आग के बीच में बैठ गया । उसे हविष्यरूप से दोनों बांहें ऊपर उठाये निश्चेष्ठ भाव से बैठे देख साक्षात भगवान महादेव ने हँसते हुए से कहा- । अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीकृष्ण ने सत्य, शौच, सरलता, त्याग, तपस्या, नियम, क्षमा, भक्ति, धैर्य, बुद्धि और वाणी के द्वारा मेरी यथोचित आराधना की है; अत: श्रीकृष्ण से बढ़कर दूसरा कोई मुझे परम प्रिय नहीं है। तात ! उन्हीं का सम्मान और तुम्हारी परीक्षा करने के लिये मैंने पांचालों की सहसा रक्षा की है और बारंबार मायाओं का प्रयोग किया है ।
पांचालों की रक्षा करके मैंने श्रीकृष्ण का ही सम्मान किया है; परंतु अब वे काल से पराजित हो गये हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है । महामना अश्वत्थामा से ऐसा कहकर भगवान शिव ने अपने स्वरूप भूत उसके शरीर में प्रवेश किया और उसे एक निर्मल एवं उत्तम खड़ग प्रदान किया । भगवान का आवेश हो जाने पर अश्वत्थामा पुन: अत्यन्त तेज से प्रज्वलित हो उठा । उस देवप्रदत्त तेज से सम्पन्न हो वह युद्ध में और भी वेगशाली हो गया । साक्षात महादेवजी के समान शत्रुशिविर की ओर जाते हुए अश्वत्थामा के साथ-साथ बहुत से अदृश्य भूत और राक्षस भी दौड़े गये ।
(इस प्रकार श्री महाभारत सौप्तिक पर्व में द्रोणपुत्र द्वारा की हुई भगवान शिव की पूजाविषयक सातवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
आठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“अश्वत्थामा के द्वारा रात्रि में सोये हुए पांचाल आदि समस्त वीरों का संहार तथा फाटक से निकलकर भागते हुए योद्धाओं का कृतवर्मा और कृपाचार्य द्वारा वध”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय ! जब महारथी द्रोणपुत्र इस प्रकार शिविर की ओर चला, तब कृपापार्य और कृतवर्मा भय से पीड़ित हो लौट तो नहीं गये ? । कहीं नीच द्वार-रक्षकों ने उन्हें रोक तो नहीं दिया ? किसी ने उन्हें देख तो नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वे दोनों महारथी इस कार्य को असह्य मानकर लौट गये हों ? संजय ! क्या उस शिविर को मथकर सोमकों और पाण्डवों की हत्या करके रात में अश्वत्थामा ने अपनी प्रतिज्ञा सफल कर ली ? । वे दोनों वीर पांचालों के द्वारा मारे जाकर धरती पर सदा के लिये सो तो नहीं गये ? रणभूमि में मरकर दुर्योधन के ही उत्तम मार्ग पर तो नहीं गये ? क्या उन दोनों ने भी वहां कोई पराक्रम किया? संजय ! ये सब बातें मुझे बताओ ।।
संजय ने कहा ;- राजन ! महामनस्वी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा जब शिविर के भीतर जाने लगा, उस समय कृपाचार्य और कृतवर्मा भी उसके दरवाजे पर जा खड़े हुए । महाराज ! उन दोनों महारथियों को अपना साथ देने के लिये प्रयत्नशील देख अश्वत्थामा को बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने उनसे धीरे से इस प्रकार कहा,
अश्वत्थामा ने कहा ;-- यदि आप दोनों सावधान होकर चेष्टा करें तो सम्पूर्ण क्षत्रियों का विनाश करने के लिये पर्याप्त हैं। फिर इन बचेखुचे और विशेषत: सोये हुए योद्धाओं को मारना कौन बड़ी बात है ? । मैं तो इस शिविर के भीतर घुस जाऊँगा और वहां काल के समान विचरूँगा। आप लोग ऐसा करें जिससे कोई भी मनुष्य आप दोनों के हाथ से जीवित न बच सके, यही मेरा दृढ विचार है । ऐसा कहकर द्रोणकुमार पाण्डवों के विशाल शिविर में बिना दरवाजे के ही कूदकर घुस गया । उसने अपने जीवन का भय छोड़ दिया । वह महाबाहु वीर शिविर के प्रत्येक स्थान से परिचित था, अत: धीरे-धीरे धृष्टधुम्न के खेमे में जा पहुँचा । वहाँ वे पांचाल वीर रणभूमि में महान् पराक्रम करके बहुत थक गये थे और अपने सैनिकों से घिरे हुए निश्चिन्त सो रहे थे ।
भरतनन्दन ! घृष्टधुम्न के उस डेरे में प्रवेश करके द्रोणकुमार ने देखा कि पांचाल कुमार पास ही बहुमूल्य बहुमूल्य बिछौनौं से युक्त तथा रेशमी चादर से ढकी हुई एक विशाल शय्या पर सो रहा है। वह शय्या श्रेष्ठ मालाओं से सुसज्जित तथा धूप एवं चन्दन चूर्ण से सुवासित थी । भूपाल ! अश्वत्थामा ने निश्चिन्त एवं निर्भय होकर शय्या पर सोये हुए महामनस्वी धृष्टधुम्न को पैर से ठोकर मारकर जगाया । मेय आत्मबल से सम्पन्न रणदुर्मद धृष्टधुम्न उसके पैर लगते ही जाग उठा और जागते ही उसने महारथी द्रोणपुत्र को पहचान लिया । अब वह शय्या से उठने की चेष्टा करने लगा, इतने ही में महाबली अश्वत्थामा ने दोनों हाथ से उसके बाल पकड़कर पृथ्वी पर पटक दिया और वहां अच्छी तरह रगड़ा ।
भारत ! धृष्टधुम्न भय और निद्रा से दबा हुआ था। उस अवस्था में जब अश्वत्थामा ने उसे जोर से पटककर रगड़ना आरम्भ किया, तब उससे कोई भी चेष्टा करते न बना ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद)
राजन ! उसने पैर से उसकी छाती और गला दोनों को दबा दिया और उसे पशु की तरह मारना आरम्भ किया। वह बेचारा चीखता और छटपटाता रह गया । उसने अपने नखों से द्रोणकुमार को बकोटते हुए अस्पष्ट वाणी में कहा,
धृष्टद्युम्न ने कहा ;- मनुष्यों में श्रेष्ठ आचार्यपुत्र ! अब देरी न करो। मुझे किसी शस्त्र से मार डालो, जिससे तुम्हारे कारण मैं पुण्यलोकों में जा सकूँ । ऐसा कहकर बलवान शत्रु के द्वारा बड़े जोर से दबाया हुआ शत्रुसंतापी पांचाल राजकुमार धृष्टधुम्न चुप हो गया। उसकी उस अस्पष्ट वाणी को सुनकर द्रोणपुत्र ने कहा,
अश्वत्थामा ने कहा ;- अरे कुलकलंक ! अपने आचार्य की हत्या करने वाले लोगों के लिये पुण्यलोक नहीं है; अत: दुर्मते ! तू शस्त्र के द्वारा मारे जाने योग्य नहीं है। उस वीर से ऐसा कहते हुए क्रोधी अश्वत्थामा ने मतवाले हाथी पर चोट करने वाले सिंह के समान अपनी अत्यन्त भयंकर एड़ियों से उसके मर्म स्थानों पर प्रहार किया । महाराज ! उस समय मारे जाते हुए वीर धृष्टधुम्न के आर्तनाद से उस शिविर की स्त्रियां तथा सारे रक्षक जाग उठे । उन्होंने अलौकिक पराक्रमी पुरुष को धृष्टधुम्न पर प्रहार करते देख उसे कोई भत ही समझा; इसीलिये भय के मारे वे कुछ बोल न सके । राजन ! इस उपास से धृष्टधुम्न को यमलोक भेजकर तेजस्वी अश्वत्थामा उसके खेमे से बाहर निकला और सुन्दर दिखायी देने वाले अपने रथ के पास आरि उस पर सवार हो गया । इसके बाद वह बलवान वीर अन्य शत्रुओं को मार डालने की इच्छा रखकर अपनी गर्जना से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करता हुआ रथ के द्वारा प्रत्येक शिविर पर आक्रमण करने लगा । महारथी द्रोण पुत्र के वहां से हट जाने पर एकत्र हुए सम्पूर्ण रक्षकों सहित धृष्टधुम्न की रानियां फूट-फूटकर रोने लगीं ।
भरतनन्दन ! अपने राजा को मारा गया देख धृष्टधुम्न की सेना के सारे क्षत्रिय अत्यन्त शोक में मग्न हो आर्तस्वर से विलाप करने लगे । स्त्रियों के रोने की आवाज सुनकर आसपास के सारे क्षत्रियशिरोमणि वीर तुरंत कवच बांधकर तैयार हो गये और बोल अरे ! यह क्या हुआ ? । राजन ! वे सारी स्त्रियां अश्वत्थामा को देखकर बहुत डर गयी थीं; अत: दीन कण्ठ से बोली- अरे ! जल्दी दौड़ो ! जल्दी दौड़ो ! हमारी समझ में नहीं आता कि यह कोई राक्षस है या मनुष्य । देखा, यह पांचालराज की हत्या करके रथ पर चढ़कर खड़ा है । तब उन श्रेष्ठ योद्धाओं ने सहसा पहुँचकर अश्वत्थामा को चारों ओर से घेर लिया; परंतु अश्वत्थामा ने पास आते ही उन सबको रूद्रास्त्र से मार गिराया । इस प्रकार धृष्टधुम्न और उसके सेवकों का वध करके अश्वत्थामा ने निकटके ही खेमें में पलंग पर सोये हुए उत्तमौजा को देखा । फिर तो शत्रुदमन उत्तमौजा के भी कण्ठ और छाती को बलपूर्वक पैर से दबाकर उसने उसी प्रकार पशु की तरह मार डाला। वह बेचारा भी चीखता-चिल्लाता रह गया था । उत्तमौजा को राक्षस द्वारा मारा गया समझकर युधामन्यु भी वहां आ पहुँचा। उसने बड़े वेग से गदा उठाकर अश्वत्थामा की छाती में प्रहार किया । अश्वत्थामा ने झपटकर उसे पकड़ लिया और प्थ्वी पर दे मारा । वह उसके चंगुल से छूटने के लिये बहुतेरा हाथ-पैर मारता रहा; किंतु अश्वत्थामा ने उसे भी पशु की तरह गला घोंटकर मार डाला ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 38-57 का हिन्दी अनुवाद)
राजेन्द्र ! इस प्रकार युधामन्यु का वध करके वीर अश्वत्थामा ने अन्य महारथियों पर भी वहां सोते समय ही आक्रमण किया। वे सब भय से कांपने और छटपटाने लगे। परंतु जैसे हिंसाप्रधान यज्ञ में वध के कलये नियुक्त हुआ पुरुष पशुओं को मार उालता है, उसी प्रकार उसने भी उन्हें मार डाला । तदन्तर तलवार से युद्ध करने मेुं कुशल अश्वत्थामा ने हाथ में खड़ग लेकर प्रत्येक भाग में विभिन्न मार्गों से विचरते हुए वहां बारी-बारी से अन्य वीरों का भी वध कर डाला । इसी प्रकार खेमे में मध्य श्रेणी के रक्षक सैनिक भी थककर सो रहे थे। उनके अस्त्र-शस्त्र अस्त-व्यस्त होकर पड़े थे। उन सबको उस अवस्था में देखकर अश्वत्थामा ने क्षणभर में मार डाला । उसने अपनी अच्छी तलवार से योद्धाओं, घोड़ों और हाथियों भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उसके सारे अंग खून से लथपथ हो रहे थे, वह कालप्रेरित यमराज के समान जान पड़ता था । मारे जाने वाले योद्धाओं का हाथ-पैर हिलाना, उन्हें मारने के लिये तलवार को उठाना तथा उसके द्वारा सब ओर प्रहार करना- इन तीन कारणों से द्रोणपुत्र अश्वत्थामा खून से नहा गया था । वह खून से रँग गया था । जूझते हुए उस वीर की तलवार चमक रही थी ।
उस समय उसका आकार मानवेतर प्राणी के समान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था । कुरूनन्दन ! जो जाग रहे थे, वे भी उस कोलाहल से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे। परस्पर देखे जाते हुए वे सभी सैनिक अश्वत्थामा को देख-देखकर व्यथित हो रहे थे । वे शत्रुसूदन क्षत्रिय अश्वत्थामा का वह रूप देख उसे राक्षस समझकर आँखेंं मूँद लेते थे । वह भयानक रूपधारी द्रोणकुमार सारे शिविर में काल के समान विचरने लगा। उसने द्रौपदी के पॉंचों पुत्रों और मरने से बचे हुए सोमकों को देखा । प्रजानाथ ! धृष्टधुम्न को मारा गया सुनकर द्रौपदी के पांचों महारथी पुत्र उस शब्द से भयभीत हो हाथ में धनुष लिये आगे बढे । उन्होंने निर्भय से होकर अश्वत्थामा पर बाण समूहों की वर्षा आरम्भ कर दी। तदनन्तर वह कोलाहल सुनकर वीर प्रभद्रकगण जाग उठे। शिखण्डी भी उनके साथ हो लिया। उन सबने द्रोणपुत्र को पीड़ा देना आरम्भ किया । उन महारथियों को बाणों की वर्षा करते देख अश्वत्थामा उन्हें मार डालने की इच्छा से जोर-जोर से गर्जना करने लगा । तदनन्तर पिता के वध का स्मरण करके वह अत्यन्त कुपित हो उठा और रथ की बैठक से उतरकर सहस्त्रों चन्दाकार चिह्नों से युक्त चमकीली ढाल और सुवर्णभूपित दिव्य एवं निर्मल खड़ग लेकर युद्ध में बडी उतावली के साथ उनकी ओर दौड़ा ।
उस बलवान वीर ने द्रौपदी के पुत्रों पर आक्रमण करके उन्हें खड़ग से छिन्न-भिन्न कर दिया। राजन ! उस समय पुरुष सिंह अश्वत्थामा ने उस महासमर में प्रतिबंध को उसकी कोख में तलवार भोंककर मार डाला । वह मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा । तत्पश्चात प्रतापी सुतसोम ने द्रोण कुमार को पहले प्रास से घायल करके फिर तलवार उठाकर उस पर धावा किया । नरश्रेष्ठ ! तब अश्वत्थामा ने तलवार सहित सुतसोम की बॉंह काटकर पुन: उसकी पसली में आघात किया । इससे उसकी छाती फट गयी और वह धराधायी हो गया । इसके बाद नकुल के पराक्रमी पुत्र शतानीक ने अपनी दोनों भुजाओं से रथचक्र को उठाकर उसके द्वारा बड़े वेग से अश्वत्थामा की छाती पर प्रहार किया ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 58-77 का हिन्दी अनुवाद)
शातानीक ने जब चक्र चला दिया, तब ब्राह्मण अश्वत्थामा ने भी उस पर गहरा आघात किया । इससे व्याकुल होकर पथ्वी पर गिर पड़ा। इतने ही में अश्वत्थामा ने उसका सिर काट लिया । अब श्रुतकर्मा परिघ लेकर अश्वत्थामा की ओर दौड़ा। उसने उसके ढालयुक्त बायें हाथ में भारी चोट पहुँचायी । अश्वत्थामा ने अपनी तेज तलवार से श्रुतकर्मा के मुख पर आघात किया। वह चोट खाकर बेहोश हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय उसका मुख विकृत हो गया था । वह कोलाहल सुनकर वीर महारथी श्रुतकीर्ति अश्वत्थामा के पास आकर उसके ऊपर बाणों की वर्षा करने लगा । उसकी बाण-वर्षा को ढाल से रोककर अश्वत्थामा ने उसके कुण्डलमण्डित तेजस्वी मस्तक को घड़से अलग कर दिया । तदननतर समस्त प्रभद्रकों सहित बलवान भीष्महन्ता शिखण्डी नाना प्रकार के अस्त्रों द्वारा अश्वत्थामा पर सब ओर से प्रहार करने लगा तथा एक दूसरे बाण से उसने उसकी दोनों भौंहों के बीच में आघात किया । तब महाबली द्रोण पुत्र ने क्रोध के आवेश में आकर शिखण्डी के पास जा कर अपनी तलवार से उसके दो टुकड़े कर डाले । क्रोध से भरे हुए शत्रुसंतापी अश्वत्थामा ने इस प्रकार शिखण्डी का वध करके समस्त प्रभद्रकों पर बड़े वेग से धावा किया। साथ ही, राजा विराट की जो सेना शेष थी, उस पर भी जोर से चढाई कर दी। उस महाबली वीर ने द्रुपद के पुत्रों, पौत्रों और सुह्यदों को ढूँढ-ढूँढकर उनका घोर संहार मचा दिया ।
तलवार के पैंतरों में कुशल द्रोणपुत्र ने दूसरे-दूसरे पुरुषों के भी निकट जाकर तलवार से ही उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले।उस समय पाण्डव-पक्ष के योद्धाओं ने मूर्तिमती कालरात्रि को देखा, जिसके शरीर का रंग काला था, मुख और नेत्र लाल थे। वह लाल फूलों की माला पहने और लाल चन्दन लगाये हुए थी। उसने लाल रंग की ही साड़ी पहन रखी थी। वह अपने ढंग की अकेली थी और हाथ में पाशलिये हुए थी। उसकी सखियों का समुदाय भी उसके साथ था। वह गीत गाती हुई खड़ी थी और भयंकर पाशों द्वारा मनुष्यों, घोड़ों एवं हाथियों को बांधकर लिये जाती थी । माननीय नरेश ! मुख्य-मुख्य योद्धा अन्य रात्रियों में भी सपने में उस कालरात्रि को देखते थे। राजन ! वह सदा नाना प्रकार के केशरहित प्रेतों को अपने पाशों में बांधकर लिये जाती दिखायी देती थी, इसी प्रकार हथियार डालकर सोये हुए महाराथियों को भी लिये जाती हुई स्वप्न में दृष्टिगोचर होती थी। वे योद्धा सबका संहार करते हुए द्रोणकुमार को भी सदा सपनों में देखा करते थे । जबसे कौरव-पाण्डव सेनाओं का संग्राम आरम्भ हुआ था, तभी से वे योद्धा कन्यारूपिणी कालरात्रि को और कालरूपधारी अश्वत्थामा को भी देखा करते थे। पहले से ही दैव के मारे हुए उन वीरों का द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने पीछे वध किया था। वह अश्वत्थामा भयानक स्वर से गर्जना करके समस्त प्राणियों को भयभीत कर रहा था । वे दैवपीड़ित वीरगण पूर्वकाल के देखे हुए सपने को याद करके ऐसा मानने लगे कि यह वही स्वप्न इस रूप में सत्य हो रहा है । तदनन्तर अश्वत्थामा के उस सिंहनाद से पाण्डवों के शिविर में सैकड़ों और हजारों धनुर्धर वीर जाग उठे । उस समय कालप्रेरित यमराज के समान उसने किसी के पैर काट लिये, किसी की कमर टूक-टूक कर दी और किन्हीं की पसलियों में तलवार भोंककर उन्हें चीर डाला ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 78-95 का हिन्दी अनुवाद)
वे सब-के-सब बड़े भयानक रूप से कुचल दिये गये थे। अत: उन्मत्त-से होकर जोर-जोर से चीखते और चिल्लाते थे। इसी प्रकार छूटे हुए घोड़ों और हाथियों ने भी अन्य बहुत-से योद्धाओं को कुचल दिया था। प्रभो ! उन सबकी लाशों से धरती पट गयी थी । घायल वीर चिल्ला चिल्लाकर कहते थे कि यह क्या है ? यह कौन है? यह कैसा कोलाहल हो रहा है? यह क्या कर डाला ? इस प्रकार चीखते हुए उन सब योद्धाओं के लिये द्रोणकुमार अश्वत्थामा काल बन गया था । पाण्डवों और सृंजयों में से जिन्होंने अस्त्र-शस्त्र और कवच उतार दिये थे तथा जिन लोगों ने पुन: कवच बॉंध लिये थे, उन सबको प्रहार करने वाले योद्धाओं में श्रेष्ठ द्रोणपुत्र ने मृत्यु के लोक में भेज दिया ।जो लोग नींद के कारण अंधें और अचेत-से हो रहे थे, वे उसके शब्द से चौंककर उछल पड़े; किंतु पुन: भय से व्याकुल हो जहां-तहां छिप गये । उनकी जांघें अकड़ गयी थी। मोहवश उनका बल और उत्साह मारा गया था। वे भयभीत हो जोर-जोर से चीखते हुए एक दूसरे से लिपट जाते थे । इसके बाद द्रोणकुमार अश्वत्थामा पुन: भयानक शब्द करने वाले अपने रथ पर सवार हुआ और हाथ में धनुष ले बाणों द्वारा दूसरे योद्धाओं को यमलोक भेजने लगा ।
अश्वत्थामा पुन: उछलने और अपने ऊपर आक्रमण करने वाले दूसरे-दूसरे नरश्रेष्ठ शूरवीरों को दूर से भी मारकर कालरात्रि के हवाले कर देता था । वह अपने रथ के अग्रभाग से शत्रुओं को कुचलता हुआ सब ओर दौड़ लगाता और नाना प्रकार के बाणों की वर्षा से शत्रुसैनिकों को घायल करता था । वह सौ चन्द्राकार चिह्नों से युक्त विचित्र ढाल और आकाश के रंगवाली चमचमाती तलवार लेकर सब ओर विचरने लगा । राजेन्द्र ! रणदुर्मद द्रोणकुमार ने उन शत्रुओं के शिविर को उसी प्रकार मथ डाला, जैसे कोई गजराज किसी विशाल सरोवर को विक्षुब्ध कर डालता है । राजन ! उस मार-काट के कोलाहल से निद्रा में अचेत पड़े हुए योद्धा चौंककर उछल पड़ते और भय से व्याकुल हो इधर-उधर भागने लगते थे । कितने ही योद्धा गला फाड़- फाड़कर चिल्लाते और बहुत-सी उटपटांग बातें बकने लगते थे। वे अपने अस्त्र-शस्त्र तथा वस्त्रों को भी नहीं ढूँढ पाते थे । दूसरे बहुत-से योद्धा बाल बिखेरे हुए भागते थे। उस दशा में वे एक दूसरे को पहचान नहीं पाते थे। कोई उछलते हुए भागते और थककर गिर जाते थे तथा कोई उसी स्थान पर चक्कर काटते रहते थे । कितने ही मलत्याग करने लगे। कितनों के पेशाब झड़़ने लगे। राजेन्द्र ! दूसरे बहुत से घोड़े और हाथी बन्धन तोड़कर एक साथ ही सब ओर दौड़ने और लोगों को अत्यन्त व्याकुल करने लगे ।
कितने ही योद्धा भयभीत हो पृथ्वी पर छिपे पड़े थे। उन्हें उसी अवस्था में भगते हुए घोड़ों और हाथियों ने अपने पैरों से कुचल दिया । पुरुषप्रवर ! भरतश्रेष्ठ ! इस प्रकार जब वह मारकाट मची हुई थी, उस समय हर्ष में भरे हुए राक्षस बड़े जोर-जोर से गर्जना करते थे । राजन ! आनन्दमग्न हुए भूतसमुदायों के द्वारा किया हुआ वह महान् कोलाहल सम्पूर्ण दिशाओं तथा आकाश में मूँज उठा । राजन ! मारे जाने वाले योद्धाओं का आर्तनाद सुनकर हाथी और घोड़े भय से थर्रा उठे और बन्धनमुक्त हो शिविर में रहने वाले लोगों को रौंदते हुए चारों ओर दौड़ लगाने लगे ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 96-115 का हिन्दी अनुवाद)
उन दौड़ते हुए घोड़ों और हाथियों ने अपने पैरों से जो धूल उड़ायी थी, उसने पाण्डवों के शिविर में रात्रि के अन्धकार को दुगुना कर दिया । वह घोर अन्धकार फैल जाने पर वहां सब लोगों पर मोह छा गया । उस समय पिता पुत्रों को और भाई भाईयों को नहीं पहचान पाते थे । भारत ! हाथी हाथियों पर और बिना सवार के घोडे़ घोड़ों पर आक्रमण करके एक दूसरे पर चोट करने लगे। उन्होंने अंग-भंग करके एक दूसरे को रौंद डाला । परस्पर आघात करते हुए वे हाथी, घोड़े स्वयं भी घायल होकर गिर जाते थे तथा दूसरों को भी गिरा देते और गिराकर उनका कचूमर निकाल देते थे । कितने ही मनुष्य निद्रा में अचेत पड़े थे और घोर अन्धकार से घिर गये थे। वे सहसा उठकर काल से प्रेरित हो आत्मीयजनों का ही वध करने लगे । द्वारपाल दरवाजों को और तम्बू की रक्षा करने वाले सैनिक तम्बुओं को छोड़कर यथाशक्ति भागने लगे। वे सब-के-सब अपनी सुध-बुध खो बैठे थे और यह भी नहीं जानते थे कि उन्हें किस दिशा में भागकर जाना है । प्रभो ! वे भागे हुए सैनिक एक दूसरे को पहचान नहीं पाते थे। दैववश उनकी बुद्धि मारी गयी थी। वे हा तात! हा पुत्र! कहकर अपने स्वजनों को पुकार रहे थे । अपने सगे संबंधियों को भी छोड़कर सम्पूर्ण दिशाओं में भागते हुए योद्धाओं के नाम और गोत्र को पुकार-पुकारकर लोग परस्पर बुला रहे थे। कितने ही मनुष्य हाहाकार करते हुए धरती पर पड़़ गये थे । युद्ध के लिये उन्मत्त हुआ द्रोणपुत्र अश्वत्थामा उन सब को पहचान-पहचान कर मार गिराता था। बारंबार उसकी मार खाते हुए दूसरे बहुत-से क्षत्रिय भय से पीड़ित और अचेत हो शिविर से बाहर निकलने लगे । प्राण बचाने की इच्छा से भयभीत हो शिविर से निकले हुए उन क्षत्रियों को कृतवर्मा और कृपाचार्य ने दरवाजे पर ही मार डाला । उनके यन्त्र और कवच गिर गये थे। वे बाल खोले, हाथ जोड़़े, भयभीत हो थरथर कांपते हुए पृथ्वी पर खड़े थे, किंतु उन दोनों ने उनमें से किसी को भी जीवित नहीं छोड़ा। शिविर से निकला हुआ कोई भी क्षत्रिय उन दोनों के हाथ से जीवित नहीं छूट सका ।
महाराज ! कृपाचार्य तथा दुबुर्द्धि कृतवर्मा दोनों ही द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को अधिक-से-अधिक प्रिय करना चाहते थे; अत: उन्होंने उस शिविर में तीन ओर से आग लगा दी । महाराज ! उससे सारे शिविर में उजाला हो गया और उस उजाले में पिता को आनंदित करने वाला अश्वत्थामा हाथ में खड़़ग लिये एक सिद्धहस्त योद्धा की भांति बेखट के विचरने लगा । उस समय कुछ वीर क्षत्रिय आक्रमण कर रहे थे और दूसरे पीठ दिखाकर भागे जा रहे थे। ब्राह्मणशिरोमणि अश्वत्थामा ने उन दोनों ही प्रकार के योद्धाओं को तलवार से मारकर प्राणहीन कर दिया।क्रोध से भरे हुए शक्तिशाली द्रोणपुत्र ने कुछ योद्धाओं को तिनके डंठलों की भांति बीच से ही तलवार से काठ गिराया ।
भरतश्रेष्ठ ! अत्यन्त घायल हो पृथ्वी पर पड़े थे । उनमें से बहुतेरे कबनध (धड़) उठकर खड़े हो जाते और पुन: गिर पड़ते थे । भारत ! उसने आयुधों और भुजबंदों सहित बहुत-सी भुजाओं तथा मस्तकों को काट डाला। हाथी की सूँड के समान दिखायी देने वाली जॉंघों, हाथों और पैरों के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 116-134 का हिन्दी अनुवाद)
महामनस्वी द्रोणकुमार ने किन्ही की पीठ काट डाली, किन्हीं की पसलियां उड़ा दीं, किन्हीं के सिर उतार लिये तथा कितनों को उसने मार भगाया । बहुत-से मनुष्यों को अश्वत्थामा ने कटिभाग से ही काट डाला और कितनों को कर्णहीन कर दिया । दूसरे-दूसरे योद्धाओं के कंधे पर चोट करके उनके सिर को धड़ में घुसेड़ दिया। इस प्रकार अनेकों मनुष्यों का संहार करता हुआ वह शिविर में विचरण करने लगा। उस समय दारूण दिखायी देने वाली वह रात्रि अन्धकार के कारण और भी घोर तथा भयानक प्रतीत होती थी । मरे और अधमरे सहस्त्रों मनुष्यों और बहुसंख्यक हाथी-घोड़ों से पटी हुई भूमि बड़ी डरावनी दिखायी देती थी ।
यक्षों तथा राक्षसों से भरे हुए एवं रथों, घोड़ों और हाथियों से भयंकर दिखायी देने वाले रणक्षेत्र में कुपित हुए द्रोणपुत्र के हाथों से कटकर कितने ही क्षत्रिय पृथ्वी पर पड़े थे । कुछ लोग भाइयों को, कुछ पिताओं को और दूसरे लोग पुत्रों को पुकार रहे थे। कुछ लोग कहने लगे,- भाइयों ! रोष में भरे हुए धृतराष्ट्र के पुत्रों ने भी रणभूमि में हमारी वैसी दुर्गति नहीं की थी, जो आज इन क्रूरकर्मा राक्षसों ने हम सोये हुए लोगों की कर डाली है । आज कुन्ती के पुत्र हमारे पास नहीं हैं, इसीलिये हम लोगों का यह संहार किया गया है। कुन्तीपुत्र अर्जुन को तो असुर, गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षस कोई भी नहीं जीत सकते; क्योंकि साक्षात श्रीकृष्ण उनके रक्षक हैं। वे ब्राह्मण भक्त, सत्यवादी, जितेन्द्रिय तथा सम्पूर्ण भूतों पर दया करने वाले हैं । कुन्तीनन्दन अर्जुन सोये हुए, असावधान, शस्त्रहीन, हाथ जोड़े हुए, भागते हुए अथवा बाल खोलकर दीनता दिखाते हुए मनुष्य को कभी नहीं मारते हैं।आज क्रूरकर्मा राक्षसों द्वारा हमारी यह भयंकर दुर्दशा की गयी है। इस प्रकार विलाप करते हुए बहुत-से मनुष्य रणभूमि में सो रहे थे । तदनन्तर दो ही घड़ी में कराहते और विलाप करते हुए मनुष्यों का वह भयंकर कोलाहल शान्त हो गया ।
राजन ! खून से भीगी हुई पृथ्वी पर गिरकर वह भयानक धूल क्षणभर में अदृश्य हो गयी । जैसे प्रलय के समय क्रोध में भरे हुए पशुपति रूद्र समस्त पशुओं (प्राणियों) का संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार कुपित हुए अश्वत्थामा ने ऐसे सहस्त्रों मनुष्यों को भी मार डाला, जो किसी प्रकार प्राण बचाने के प्रयत्न में लगे हुए थे, एकदम घबराये हुए थे और सारा उत्साह खो बैठे थे । कुछ लोग एक दूसरे से लिपटकर सो रहे थे, दूसरे भाग रहे थे, तीसरे छिप गये थे और चौथी श्रेणी के लोग जूझ रहे थे, उन सबको द्रोण कुमार ने वहां मार गिराया । एक ओर लोग आग से जल रहे थे और दूसरी ओर अश्वत्थामा के हाथ से मारे जाते थे, ऐसी दशा में वे सब योद्धा स्वयं ही एक दूसरे को यमलोक भेजने लगे । राजेन्द्र ! उस रात का आधा भाग बीतते-बीतते द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने पाण्डवों की उस विशाल सेना को यमराज के घर भेज दिया । वह भयानक रात्रि निशाचर प्राणियों का हर्श बढाने वाली थी और मनुष्यों, घोड़ों तथा हाथियों के लिये अत्यंत विनाशाकारिणी सिद्ध हुई । वहां नाना प्रकार की आकृति वाले बहुत-से राक्षस और पिशाच मनुष्यों के मांस खाते और खून पीते दिखायी देते थे ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 135-151 का हिन्दी अनुवाद)
वे बड़े ही विकराल और पिंगल वर्ण के थें उनके दांत पहाडों-जैसे जान पड़ते थे। वे सारे अंगों में धूल लपेटे और सिर पर जटा रखाये हुए थे। उनके माथे की हड्डी बहुत बड़ी थी। उनके पांच-पांच पैर और बड़े-बड़े पेट थे। उनकी अंगुलियां पीछे की ओर थीं। वे रूखे, कुरूप और भयंकर गर्जना करने वाले थे। बहुतों ने घंटों की मालाएं पहन रखी थीं। उनके गले में नील चिह्न था। वे बड़े भयानक दिखायी देते थे। उनके स्त्री और पुत्र भी साथ ही थे। वे अत्यन्त क्रूर और निर्दय थे। उनकी ओर देखना भी बहुत कठिन था। वहां उन राक्षसों के भांति-भांति के रूप दृष्टिगोचर हो रहे थे । कोई रक्त पीकर हर्ष से खिल उठे थे। दूसरे अलग-अलग झुंड बनाकर नाच रहे थे। वे आपस में कहते थे,- यह उत्तम है, यह पवित्र है और यह बहुत स्वादिष्ट है । मेदा, मज्जा, हड्डी, रक्त और चर्बी का विशेष आहार करने वाले मांसजीवी राक्षस एवं हिंसक जन्तु दूसरों के मांस खा रहे थे ।
दूसरे कुक्षिरहित राक्षस चर्बियों का पान करके चारों ओर दौड़ लगा रहे थे। कच्चा मांस खाने वाले उन भयंकर राक्षसों के अनेक मुख थे । वहां उस महान् जनसंहार में तृप्त और आनन्दित हुए क्रूर कर्म करने वाले घोर रूपधारी महाकाय राक्षसों के कई दल थे। किसी दल में दस हजार, किसी में एक लाख और किसी में एक अर्बुद (दस लाख) राक्षस थे। नरेश्वर ! वहां और भी बहुत से मांसभक्षी प्राणी एकत्र हो गये थे । प्रात:काल पौ फटते ही अश्वत्थामा ने शिविर से बाहर निकल जाने का विचार किया ।
प्रभो ! उस समय नररक्त से नहाये हुए अश्वत्थामा के हाथ से सटकर उसकी तलवार की मूँठ ऐसी जान पड़ती थी, मानो वह उससे अभिन्न हो । जैसे प्रलयकाल में आग कम्पूर्ण प्राणियों को भस्म करके प्रकाशित होती है, उसी प्रकार वह नरसंहार हो जाने पर अपने दुर्गम लक्ष्य तक पहुँचकर अश्वत्थामा अधिक शोभा पाने लगा । नरेश्वर ! अपने पिता के दुर्गम पथ पर चलता हुआ द्रोणकुमार अपनी प्रतिाज्ञा के अनुसार सारा कार्य पूर्ण करके शोक और चिन्ता से रहित हो गया । जिस प्रकार रात के समय सबके सो जाने पर शान्त शिविर में उसने प्रवेश किया था, उसी प्रकार वह नरश्रेष्ठ वीर सबको मारकर कोलाहलशून्य हुए शिविर से बाहर निकला । प्रभो ! उस शिविर से निकलकर शक्तिशाली अश्वत्थामा उन दोनों से मिला और स्वयं हर्षमग्न हो उन दोनों का हर्ष बढाते हुए उसने अपना किया हुआ सारा कर्म उनसे कह सुनाया । अश्वत्थामा का प्रिय करने वाले उन दोनों वीरों ने भी उस समय उससे यह प्रिय समाचार निवेदन किया कि हम दोनों ने भी सहस्त्रों पांचालों और सृंजयों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले हैं । फिर तो वे तीनों प्रसन्नता के मारे उच्च स्वर से गर्जने और ताल ठोकने लगे। इस प्रकार वह रात्रि उन जन-संहार की वेला में असावधान होकर सोये हुए सोमकों के लिये अत्यन्त भयंकर सिद्ध हुई ।
राजन ! इसमें संशय नहीं कि काल की गति का उल्लघंन करना अत्यन्त कठिन है। जहां हमारे पक्ष के लोगों का संहार करके विजय को प्राप्त हुए वैसे-वैसे वीर मार डाले गये ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 152-159 का हिन्दी अनुवाद)
राजा धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय ! अश्वत्थामा तो मेरे पुत्र को विजय दिलाने का दृढ निश्चय कर चुका था। फिर उस महारथी वीर ने पहले ही ऐसा महान् पराक्रम क्यों नहीं किया ? । जब दुर्योधन मार डाला गया, तब उस महामनस्वी द्रोणपुत्र ने ऐसा नीच कर्म क्यों किया ? यह सब मुझे बताओ ।
संजय ने कहा ;- कुरूनन्दन ! अश्वत्थामा को पाण्डव, श्रीकृष्ण और सात्यकि से सदा भय बना रहता था; इसीलिये पहले उसने ऐसा नहीं किया। इस समय कुन्ती के पुत्र, बुद्धिमान श्रीकृष्ण तथा सात्यकि के दूर चले जाने से अश्वत्थामा ने अपना यह कार्य सिद्ध कर लिया । उन पाण्डव आदि के समक्ष कौन उन्हें मार सकता था ?
साक्षात देवराज इन्द्र भी उस दशा में उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते थ । प्रभो ! नरेश्वर ! उस रात्रि में सब लोगों के सो जाने पर यह इस प्रकार की घटना घटित हुई । उस समय पाण्डवों के लिये महान् विनाशकारी जन संहार करके वे तीनों महारथी जब परस्पर मिल, तब आपस में कहने लगे -बड़े सौभाग्य से यह कार्य सिद्ध हुआ है । तदनन्तर उन दोनों का अभिनन्दन स्वीकार करके द्रोण पुत्र ने उन्हें हृदय से लगाया और बड़े हर्ष से यह महत्वपूर्ण उत्तम वचन मुँह से निकाला- । सारे पांचाल, द्रौपदी के सभी पुत्र, सोमकवंशी क्षत्रिय तथा मत्स्य देश के अवशिष्ठ सैनिक ये सभी मेरे हाथ से मारे गये । इस समय हम कृतकृत्य हो गये। अब हमें शीघ्र वहीं चलना चाहिये । यदि हमारे राजा दुर्योधन जीवित हो तो हम उन्हें भी यह समाचार कह सुनावें ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में पाञ्चाल आदि का वधविषयक आठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
नवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन की दशा देखकर कृपाचार्य और अश्वत्थामा का विलाप तथा उनके मुख से पांचालों के वध का वृत्तान्त जानकर दुर्योधन का प्रसन्न होकर प्राणत्याग करना”
संजय कहते हैं ;- राजन ! वे तीनों महारथी समस्त पांचालों और द्रौपदी के सभी पुत्रों का वध करके एक साथ उस स्थान में आये, जहां राजा दुर्योधन मारा गया था । वहां जाकर उन्होंने राजा दुर्योधन को देखा, उसकी कुछ-कुछ सांस चल रही थी। फिर वे रथों से कूद पड़े और आपके पुत्र के पास जा उसे सब ओर से घेरकर बैठ गये । राजेन्द्र ! उन्होंने देखा कि राजा की जांघें टूट गयी हैं। ये बड़े कष्ट से प्राण धारण करते हैं। इनकी चेतना लुप्त-सी हो गयी है और ये अपने मुँह से पृथ्वी पर खून उगल रहे हैं। इन्हें चट कर जाने के लिये बहुत-से भयंकर दिखायी देने वाले हिंसक जीव और कुत्ते चारों ओर से घेरकर आसपास ही खड़े हैं। ये अपने को खा जाने की इच्छा रखने वाले उन हिंसक जन्तुओं को बड़ी कठिनाई से रोकते हैं। इन्हें बड़ी भारी पीड़ा हो रही है, जिसके कारण ये पथ्वी पर पड़े-पड़े छटपटा रहे हैं ।
दुर्योधन को इस प्रकार खून से लथपथ हो पृथ्वी पर पड़ा देख मरने से बचे हुए वे तीनों वीर अश्वत्थामा, कृपाचार्य और सात्ववंशी कृतवर्मा शोक से व्याकुल हो उसे तीन ओर से घेरकर बैठ गये । वे तीनों महारथी वीर खून से रंग गये थे और लंबी सांसे खींच रहे थे। उनसे घिरा हुआ राजा दुर्योधन तीन अग्नियों से घिरी हुई वेदी के समान सुशोभित हो रहा था । राजा को इस प्रकार अयोग्य अवस्था में सोया देख वे तीनों असह्य दु:ख से पीड़ित हो रोने लगे । तत्पश्चात रणभूमि में सोये हुए राजा दुर्योधन के मुख से बहते हुए रक्त को हाथों से पोंछकर वे तीनों दीन वाणी में विलाप करने लगे । कृपाचार्य बोले- हाय ! विधाता के लिये कुछ भी करना कठिन नहीं है। जो कभी ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे, वे ही ये राजा दुर्योधन यहां मारे जाकर खून से लथपथ हुए पड़े हैं ।
देखो, सुवर्ण के समान कान्तिवाले इन गदा प्रेमी नरेश के समीप यह सुवर्णभूषित गदा पथ्वी पर पड़ी है। यह गदा इन शूरवीर भूपाल को साथ किसी भी युद्ध में नहीं छोड़ती थी और आज स्वर्गलोक में जाते समय भी यशस्वी नरेश का साथ नहीं छोड़ रही है । देखो, यह सुवर्णभूषित गदा इन वीर भूपाल के साथ रणशय्या पर उसी प्रकार सो रही है, जैसे महल में प्रेम रखने वाली पत्नि इनके साथ सोया करती थी । जो ये शत्रुसंतापी नरेश सभी मूर्धाभिषिक्त राजाओं के आगे चला करते थे, वे ही आज मारे जाकर धरती पर पड़े-पड़े धूल फॉंक रहे हैं। यह समय का उलट-फेर तो देखो । पूर्वकाल में जिनके द्वारा युद्ध में मारे गये शत्रु भूमि भूमि पर सोया करते थे, वे ही ये कुरूराज आज शत्रुओं द्वारा स्वयं मारे जा कर भूमि पर शयन करते हैं । जिनके आगे सैकड़ों राजा भय से सिर झुकाते थे, वे ही आज हिंसक जन्तुओं से घिरे हुए वीर-शय्या पर सो रहे हैं । पहले बहुत-से ब्राह्मण धन की प्राप्ति के लिये जिन नरेश के पास बैठे रहते थे, उन्हीं के समीप आज मांस के लिये मांसाहारी जन्तु बैठे हुए हैं ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)
संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर कुरूकुलभूषण दुर्योधन को रणशय्या पर पड़ा देख अश्वत्थामा इस प्रकार करूण विलाप करने लगा,
अश्वत्थामा बोला ;- ‘निष्पाप राजसिंह ! आपको समस्त धनुर्धरों में श्रेष्ठ कहा जाता था। आप गदायुद्ध में धनाध्यक्ष कुबेर की समानता करने वाले तथा साक्षत संकर्षण के शिष्य थे तो भी भीमसेन ने कैसे आप पर प्रहार करने का अवसर पा लिया ? नरेश्वर ! आप तो सदा से ही बलवान और गदायुद्ध के विद्वान् रहे है। फिर उस पापात्मा ने कैसे आपको मार दिया ? । ‘महाराज ! निश्चय ही इस संसार में समय महाबलवान् है, तभी तो युद्धस्थल में हम आपको भीमसेन के द्वारा मारा गया देखते है । ‘आप तो सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता थे। आपको उस मूर्ख, नीच और पापी भीमसेन ने किस तरह धोखे से मार डाला ? अवश्य ही काल का उल्लघंन करना सर्वथा कठिन है । भीमसेन ने आपको धर्मयुद्ध के लिये बुलाकर रणभूमि में अधर्म के बल से गदा द्वारा आपकी दोनों जाँघें तोड़ डाली।। एक तो आप रणभूमि में अधर्मपूर्वक मारे गये। दूसरे भीमसेन ने आपके मस्तक पर लात मारी। इतने पर भी जिन्होंने उस नीच की उपेक्षा की, उसे कोई दण्ड नही दिया, उन श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर को धिक्कार है!
। आप धोखे से गिराये गये हैं, अतः इस संसार में जब तक प्राणियों की स्थिति रहेगी, तब तक सभी युद्धों में सम्पूर्ण योद्धा भीमसेन की निन्दा ही करेगे । राजन् ! पराक्रमी यदुनन्दन बलरामजी आपके विषय में सदा कहा करते थे कि गदायुद्ध की शिक्षा में दुर्योधन की समानता करने वाला दूसरा कोई नही है । प्रभो! भरतनन्दन ! ये वृष्णिकुलभूषण बलराम राजाओं की सभा में सदा आपकी प्रशंसा करते हुए कहते थे कि कुरूराज दुर्योधन गदायुद्ध में मेरा शिष्य है । महर्षियों ने युद्ध में शत्रु का सामना करते हुए मारे जाने वाले क्षत्रिय के लिये जो उत्तम गति बतायी है, आपने वही गति प्राप्त की है । पुरुषश्रेष्ठ राजा दुर्योधन ! मै तुम्हारे लिये शोक नही करता। मुझे तो माता गान्धारी और आपके पिता धृतराष्ट्र के लिये शोक हो रहा है, जिनके सभी पुत्र मार डाले गये है। अब वे बेचारे शोकमग्न हो भिखारी बनकर इस भूतल पर भीख मांगते फिरेगे। उस वृष्णिवंशी श्रीकृष्ण और खोटी बुद्धि वाले अर्जुन को भी धिक्कार है, जिन्होंने अपने को धर्मज्ञ मानते हुए भी आपके अन्यायपूर्वक वध की उपेक्षा की।। नरेश्वर ! क्या वे समस्त पाण्डव भी निर्लज होकर लोगो के सामने कह सकेंगे कि हमने दुर्योधन को किस प्रकार मरा था ? । पुरुषप्रवर गान्धारीनन्दन ! आप धन्य है, क्योंकि युद्ध में प्रायः धर्मपूर्वक शत्रुओं का सामना करते हुए मारे गये है।
जिनके सभी पुत्र, कुटुम्बी और भाईबन्धु मारे जा चुके हैं, वे माता गान्धारी तथा प्रज्ञाचक्षु दुर्जय राजा धृतराष्ट्र अब किस दशा को प्राप्त होंगे ? । मुझको, कृतवर्मा को तथा महारथी कृपाचार्य को भी धिक्कार है कि हम आप जैसे महाराज को आगे करके स्वर्गलोक में नहीं गये । आप हमें सम्पूर्ण मनोवान्छित पदार्थ देते रहे और प्रजा के हित की रक्षा करते रहे। फिर भी हम लोग जो आपका अनुसरण नहीं कर रहे हैं, इसके लिये हम जैसे नराधर्मों को धिक्कार है! नरश्रेष्ठ ! आपके ही बल पराक्रम से सेवकों सहित कृपाचार्य को, मुझको तथा मेरे पिताजी को रत्नों से भरे हुए भव्य भवन प्राप्त हुए थे ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 37-63 का हिन्दी अनुवाद)
आपके ही प्रसाद से मित्रों और बन्धु बान्धवों सहित हम लोगों ने प्रचुर दक्षिणाओं से सम्पन्न अनेक मुख्य मुख्य यज्ञों का अनुष्ठान किया है । महाराज ! आप जिस भाव से समस्त राजाओं को आगे करके स्वर्ग सिधार रहे है, हम पापी ऐसा भाव कहां से ला सकेगे ? । राजन् परम गति को जाते समय आपके पीछे पीछे जो हम तीनों भी नहीं चल रहे हैं, इसके कारण हम स्वर्ग और अर्थ दोनों से वन्चित हो आपके सुकृतों का स्मरण करते हुए दिनरात शोकाग्नि में जलते रहेगे । कुरूश्रेष्ठ ! न जाने वह कौन सा कर्म है, जिससे विवश होकर हम आपके साथ नहीं चल रहे हैं। निश्चय ही इस पृथ्वी पर हमें निरन्तर दुःख भोगना पडे़गा । महाराज ! आपसे बिछुड जानेपर हमें शान्ति और सुख कैसे मिल सकते है? राजन् ! स्वर्ग में जाकर सब महारथियों से मिलने पर आप मेरी ओर से बडे़ छोटे के कम से उन सबका आदर सत्कार करें ।
नरेश्वर ! फिर सम्पूर्ण धनुर्धरों के ध्वजस्वरूप आचार्य का पूजन करके उनसे कह दे कि आज अश्वत्थामा के द्वारा धृष्टद्युम्न मार डाला गया । महारथी राजा बाहिक, सिन्धुराज जयद्रथ, सोमदत तथा भूरिश्रवा का भी आप मेरी ओर से आलिंगन करे । दूसरे-दूसरे भी जो नृपश्रेष्ठ पहले से ही स्वर्गलोक में जा पहुंचे है, उन सबकों मेरे कथनानुसार हृदय से लगाकर उनकी कुशल पूछे । संजय कहते हैं- महाराज ! जिसकी जाँघें टूट गयी थीं, उस अचेत पडे़ हुए राजा दुर्योधन से ऐसा कहकर अश्वत्थामा ने पुनः उसकी ओर देखा और इस प्रकार कहा,
अश्वत्थामा ने कहा ;- राजा दुर्योधन! यदि आप जीवित हों तो यह कानों- को सुख देने वाली बात सुनें । पाण्डवपक्ष में केवल सात और कौरव पक्ष में सिर्फ हम तीन ही व्यक्ति बच गये है । उधर तो पाँचों भाई पाण्डव, श्रीकृष्ण और सात्यकि बचे है और इधर मैं, कृतवर्मा तथा शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य शेष रह गये है । भरतनन्दन ! द्रौपदी तथा धृष्टद्युम्न के सभी पुत्र मारे गये, समस्त पान्चालों का संहार कर दिया गया और मत्स्य देश की अवशिष्ट सेना भी समाप्त हो गयी । राजन् ! देखिये, शत्रुओं की करनी का कैसा बदला चुकाया गया ? पाण्डवों के भी सारे पुत्र मार डाले गये। रात में सोते समय मनुष्यों और वाहनों सहित उनके सारे शिविर का नाश कर दिया गया । भूपाल ! मैने स्वयं रात के समय शिविर में घुसकर पापाचारी धृष्टद्युम्न को पशुओं की तरह गला घोंट-घोटकर मार डाला है । यह मन को प्रिय लगने वाली बात सुनकर दुर्योधन को पुनः होश आ गया और वह इस प्रकार बोला,
दुर्योधन ने कहा ;- मित्रवर ! आज आचार्य कृप और कृतवर्मा के साथ तुमने जो कार्य कर दिखाया है, उसे न गंगानन्दन भीष्म, न कर्ण और न तुम्हारे पिताजी ही कर सके थे। शिखण्डी सहित वह नीच सेनापति धृष्टद्युम्न मार डाला गया, इससे आज निश्चय ही मैं अपने को इन्द्र के समान समझता हूं । तुम सब लोगों का कल्याण हो ! तुम्हें सुख प्राप्त हो। अब स्वर्ग में ही हम लोगों का पुनर्मिलन होगा। ऐसा कहकर महामनस्वी वीर कुरूराज दुर्योधन चुप हो गया और अपने सुहृदों के लिये दुःख छोड़कर उसने अपने प्राण त्याग दिये। वह स्वयं तो पुण्यधाम स्वर्गलोक में चला गया; किंतु उसका पार्थिव शरीर इस पृथ्वी पर ही पडा रह गया ।
नरेश्वर ! इस प्रकार आपका पुत्र दुर्योधन मृत्यु को प्राप्त हुआ । वह समरांगण में सबसे पहले गया था और सबसे पीछे शत्रुओं द्वारा मारा गया । मरने से पहले दुर्योधन ने तीनों वीरों को गले लगाया और उन तीनों ने भी राजा को हृदय से लगाकर विदा दी, फिर वे बार बार उसकी ओर देखते हुए अपने अपने रथों पर सवार हो गये । इस प्रकार द्रोणपुत्र के मुख से वह करूणाजनक समाचार सुनकर मैं शोक से व्याकुल हो उठा और प्रातःकाल नगर की ओर दौडा चला आया । राजन् ! इस प्रकार आपकी कुमन्त्रणा के अनुसार कौरवों तथा पाण्डवों की सेनाओं का यह घोर एवं भयंकर विनाशकार्य सम्पन्न हुआ है ।
निष्पाप नरेश ! आपके पुत्र के स्वर्गलोक में चले जाने से मै शोक से आतुर हो गया हूं और महर्षि व्यासजी की दी हुई मेरी वह दिव्य दृष्टि भी अब नष्ट हो गयी है ।
वैशम्पायनजी कहते है ;- राजन् इस प्रकार अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर राजा धृतराष्ट्र गरम गरम लंबी साँस खींचकर गहरी चिन्ता में डूब गये ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व में दुर्योधन का प्राणत्यागविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व (ऐषिक पर्व)
दसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“धृष्टद्युम्न के सारथि के पुत्रों और पान्चालों के वध का वृत्तान्त सुनकर युधिष्ठिर का विलाप, द्रौपदी को बुलाने के लिये नकुल को भेजना, सृदृदों के साथ शिविर में जाना तथा मारे हुए पुत्रादि को देखकर भाई सहित शोकातुर होना”
वैशम्पायनजी कहते है ;- राजन ! वह रात व्यतीत होने पर धृष्टद्युम्न के सारथि ने रात को सोते समय जो संहार किया गया था, उसका समाचार धर्मराम युधिष्ठिर से कह सुनाया ।
सारथि बोला ;- राजन् ! द्रुपद के पुत्रों सहित द्रौपदी देव के भी सारे पुत्र मारे गये। वे रात को अपने शिविर में निश्चिन्त एवं असावधान होकर सो रहे थे । उसी समय क्रूर कृतवर्मा, गौतमवंशी कृपाचार्य तथा पापी अश्वत्थामा ने आक्रमण करके आपके सारे शिविर का विनाश कर डाला । इन तीनों ने प्रास, शक्ति और फरसों द्वारा सहस्रों, मनुष्यों, घोडों और हाथियों को काट-काटकर आपकी सारी सेना को समाप्त कर दिया है । भारत ! जैसे फरसों से विशाल जंगल काटा जा रहा हो, उसी प्रकार उनके द्वारा छिन्न् भिन्न् की जाती हुई आपकी विशाल वाहिनी का महान् आतनाद सुनायी पड़ता था।
महामते ! धर्मात्मन् ! उस विशाल सेना से अकेला मैं ही किसी प्रकार बचकर निकल आया हूँ कृतवर्मा दूसरों को मारने में लगा हुआ था, इसीलिये मैं उस संकट से मुक्त हो सका हूँ । वह अमंगलमय वचन सुनकर दुर्घर्ष राजा कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर पुत्रशोक से संतप्त हो पृथ्वी पर गिर पडे़ । गिरते समय आगे बढ़कर सात्यकि ने उन्हें थाम लिया । भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीकुमार नकुल सहदेव ने भी उन्हें पकड लिया । फिर होश में आने पर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर शोकाकुल वाणी द्वारा आर्तकी भाँति विलाप करने लगे,
दुर्योधन ने कहा ;- हाय ! मै शत्रुओं को पहले जीतकर पीछे पराजित हो गया । जो लोग दिव्य दृष्टि से सम्पन्न है, उनके लिये भी पदार्थों की गति को समझना अत्यन्त दुष्कर है । हाय ! दूसरे लोग तो हारकर जीतते है, किंतु हम लोग जीतकर हार गये है ! । हमने भाइयों समवयस्क मित्रों पिततुल्य पुरुषों पुत्रों सुहृदयों दन्धुओं मन्त्रियों तथा पौत्रों की हत्या करके उन सबको जीतकर विजय प्राप्त की थी: परतु अब शत्रुओं द्वारा हम ही पराजित हो गये।कभी कभी अनर्थ भी अर्थ सा हो जाता है और अर्थ के रुप में दिखायी देने वाली वस्तु भी अनर्थक रुप में परिणत हो जाती है इसी प्रकार हमारी यह विजय भी पराजय का ही रूप धारण करके आयी थी इसलिये जय भी पराजय बन गयी ।
दुर्बुद्धि मनुष्य यदि विजय लाभ के पश्चात् विपत्ति में पडे़ हुए पुरुष की भाँति अनुताप करता है तो वह अपनी उस जीत को जीत कैसे मान सकता है ? क्योंकि उस दशा में तो वह शत्रुओं द्वारा पूर्णतः पराजित हो चुका है । जिन्हें विजय के लिये सुदृदों के वध का पाप करना पड़ता है, वे एक बार विजयलक्ष्मी से उल्लसित भले ही हो जाये, अन्त में पराजित होकर सतत सावधान रहने वाले शत्रुओं के हाथ से उन्हें पराजित होना ही पडता है । क्रोध में भरा हुआ कर्ण मनुष्यों में सिंह के समान था। कर्णि और नालीक नामक बाण उसकी दाढें तथा युद्ध में उठी हुई तलवार उसकी जिव्हा थी। धनुष का खींचना ही उसका मुँह फैलाना था। प्रत्यन्चा की टंकार ही उसके लिये दहाड़ने के समान थी। युद्धों में कभी पीठ न दिखाने वाले उस भयंकर पुरुषसिंह के हाथ से जो जीवित छूट गये, वे ही ये मेरे सगे सम्बन्धी अपनी असावधानी के कारण मार डाले गये हैं ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद)
द्रोणाचार्य महासागर के समान थे, रथ ही पानी का कुण्ड था, बाणों की वर्षा ही लहरों के समान ऊपर उठती थी, रत्नमय आभूषण ही उस द्रोणरूपी समुद्र के रत्न थे, रथ के घोडे़ ही समुद्री घोडों के समान जान पड़ते थे, शक्ति और ऋष्टि मत्स्य के समान तथा ध्वज नाग एवं मगर के तुल्य थे, धनुष ही भंवर तथा बडे़ बडे़ बाण ही फेन थे, संग्राम ही चन्द्रोदय बनकर उस समुद्र के बेग को चरम सीमा तक पहुंचा देता था, प्रत्यन्चा और पहियों की ध्वनि ही उस महासागर की गर्जना थी, ऐसे द्रोणरूपी सागर को जो छोटे बडे़ नाना प्रकार के शस्त्रों की नौका बनाकर पार गये, वे ही राजकुमार असावधानी से मार डाले गये। प्रमाद से बढकर इस संसार में मनुष्यों के लिये दूसरी कोई मृत्यु नहीं । प्रमादी मनुष्य को सारे अर्थ सब ओर से त्याग देते है और अनर्थ बिना बुलाये ही उसके पास चले आते है ।
महासमर में भीष्मरूपी अग्नि जब पाण्डव सेना को जला रही थी, उस समय ऊँची ध्वजाओं के शिखर पर फहराती हुई पताका ही धूम के समान जान पड़ती थी, बाणवर्षा ही आग की लपटें थी, क्रोध ही प्रचण्ड वायु बनकर उस ज्वाला को बढा रहा था, कवच और नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र उस आग की आहुति बन रहे थे, विशाल सेनारूपी सूखे जंगल में दावानल के समान वह आग लगी थी, हाथ में लिये हुए अस्त्र शस्त्र ही उस अग्नि के प्रचण्ड वेग थे, ऐसे अग्निदाह के कष्ट को जिन्होंने सह लिया, वे ही राजपूत्र प्रमादवश मारे गये । प्रमादी मनुष्य कभी विद्या, तप, वैभव अथवा महान् यश नहीं प्राप्त कर सकता । देखो, देवराज इन्द्र प्रमाद छोड़ देने के ही कारण अपने सारे शत्रुओं का संहार करके सुखपूर्वक उन्नति कर रहे है । देखो, प्रमाद के ही कारण ये इन्द्र के समान पराक्रमी, राजाओं के पुत्र और पौत्र सामान्य रूप से मार डाले गये, जैसे समृद्धिशाली व्यापारी समुद्र को पार करके प्रमादवश अवहेलना करने के कारण छोटी सी नदी में डूब गये हो । शत्रुओं ने अमर्ष के वशीभूत होकर जिन्हें सोते समय ही मार डाला है वे तो निःसंदेह स्वर्गलोक में पहुंच गये हैं ।
मुझे तो उस सती साध्वी कृष्णा के लिये चिन्ता हो रही है जो आज शोक के समुद्र में डूबकर नष्ट हो जाने की स्थिति में पहुंच गयी है । एक तो पहले से ही शोक के कारण क्षीण होकर उसकी देह सूखी लकडी के समान हो गयी है ? दूसरे फिर जब वह अपने भाईयों, पुत्रों तथा बूढे़ पिता पान्चालराज द्रुपद की मृत्यु का समाचार सुनेगी तब और भी सूख जायेगी तथा अवश्य ही अचेक होकर पृथ्वी पर गिर पडे़गी । जो सदा सुख भोगने के ही योग्य है, वह उस शोकजनित दुःख को न सह सकने के कारण न जाने कैसी दशा को पहुंच जायगी ? पुत्रों और भाईयों के विनाश से व्यथित हो उसके हृदय में जो शोक की आग जल उठेगी, उससे उसकी बडी शोचनीय दशा हो जायेगी । इस प्रकार आर्तस्वर से विलाप करते हुए कुरूराज युधिष्ठिर ने नकुल से कहा- भाई ! जाओ, मन्दभागिनी राजकुमारी द्रौपदी को उसके मातृपक्ष की स्त्रियों के साथ यहां लिया लाओ ।
माद्रीकुमार नकुल ने धर्माचरण के द्वारा साक्षात धर्मराज की समानता करने वाले राजा युधिष्ठिर आज्ञा शिरोधार्य करके रथ के द्वारा तुरंत ही महारानी द्रौपदी के उस भवन की ओर प्रस्थान किया, जहां पान्चालराज के घर की भी महिलाएं रहती थी । माद्रीकुमार को वहां भेजकर अजमीढ कुलनन्दन युधिष्ठिर शोकाकुल हो उन सभी सुदृढों के साथ बारंबार रोते हुए पुत्रों के उस युद्धस्थल में गये, जो भूतगणों से भरा हुआ था । उस भयंकर एवं अमंगलमय स्थान में प्रवेश करके उन्होंने अपने पुत्रों, सुदृढों और सखाओं को देखा, तो खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर पडे़ थे । उनके शरीर छिन्न् भिन्न् हो गये थे और मस्तक कट गये थे । उन्हें देखकर कुरूकुलशिरोमणि तथा धर्मात्माओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर अत्यन्त दुखी हो गये और उच्चस्वर से फूट फूटकर रोने लगे। धीरे धीरे उनकी संज्ञा लुप्त हो गयी और वे अपने साथियों सहित पृथ्वी पर गिर पडे़।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व के अन्तर्गत ऐषिक पर्व में युधिष्ठिर का शिविर में प्रवेशविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें