सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
प्रथम अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“तीनों महारथियों का एक वन में विश्राम, कौओं पर उल्लू का आक्रमण देख अश्वत्थामा के मन में क्रूर संकल्पों का उदय तथा अपने दोनों साथियों से उसका सलाह पूछना”
'अन्तर्यामी नारायण भगवान श्रीकृष्ण; उनके नित्य सखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन; उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्वती और उनकी लीलाओं का संकलन करने वाले महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय महाभारत का पाठ करना चाहिये,
संजय कहते हैं ;- राजन! दुर्योधन की आज्ञा के अनुसार कृपाचार्य के द्वारा अश्वत्थामा का सेनापति के पद पर अभिषेक हो जाने के अनन्तर वे तीनों वीर अश्वत्थामा कृपाचार्य और कृतवर्मा एक साथ दक्षिण दिशा की ओर चले और सूर्यास्त के समय सेना की छावनी के निकट जा पहुँचे। शत्रुओं को पता न लग जाय इस भय से वे सब-के-सब डरे हुए थे अत: बड़ी उतावली के साथ वन के गहन प्रदेश में जाकर उन्होंने घोडों को खोल दिया और छिपकर एक स्थान पर वे जा बैठे। जहां सेना की छावनी थी उस स्थान के पास थोड़ी ही दूर पर वे तीनों विश्राम करने लगे। उनके शरीर तीखें शस्त्रों के आघात से घायल हो गये थे। वे सब ओर से क्षत-विक्षत हो रहे थे। वे गरम-गरम लंबी सांस खींचते हुए पाण्डवों की ही चिन्ता करने लगे। इतने ही में विजयाभिलाषी पाण्डवों की भयंकर गर्जना सुनकर उन्हें यह भय हुआ कि पाण्डव कहीं हमारा पीछा न करने लगे अत: वे पुन: घोड़ों को रथ में जोतकर पूर्व दिशा की ओर भाग चले। दो ही घड़ी में उस स्थान से कुछ दूर जाकर क्रोध और अमर्ष के वशीभूत हुए वे महाधनुर्धर योद्धा प्यास से पीड़ित हो गये। उनके घोडे़ भी थक गये। उनके लिये यह अवस्था असह्य हो उठी थी। वे राजा दुर्योधन के मारे जाने से बहुत दुखी हो एक मुहूर्त तक वहां चुपचाप खड़े रहे।
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! मेरे पुत्र दुर्योधन में दस हजार हाथियों का बल था तो भी उसे भीमसेन ने मार गिराया। उनके द्वारा जो यह कार्य किया गया है इस पर सहसा विश्वास नहीं होता। संजय। मेरा पुत्र नवयुवक था। उसका शरीर वज्र के समान कठोर था और इसीलिये वह सम्पूर्ण प्राणियों के लिये अवध्या था तथापि पाण्डवों ने समरांगण में उसका वध कर डाला।
गवल्गमणकुमार! कुन्ती के पुत्रों ने मिलकर रणभूमि में जो मेरे पुत्र को धराशायी कर दिया है इससे जान पड़ता है कि कोई भी मनुष्य दैव के विधान का उल्लघंन नहीं कर सकता। संजय! निश्चय ही मेरा हृदय पत्थर के सार तत्त्व का बना हुआ है जो अपने सौ पुत्रों के मारे जाने का समाचार सुनकर भी इसके सहस्त्रों टुकड़े नहीं हो गये। हाय! अब हम दोनों बूढे पति-पत्नी अपने पुत्रों के मारे जाने से कैसे जीवित रहेंगे मैं पाण्डुकुमार युधिष्ठिर के राज्य में नहीं रह सकता। संजय! मैं राजा का पिता और स्वयं भी राजा ही था। अब पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की आज्ञा के अधीन हो दास की भॉंति कैसे जीवन निर्वाह करूँगा। संजय! पहले समस्त भूमण्डल पर मेरी आज्ञा चलती थी और मैं सबका सिरमौर था ऐसा होकर अब मैं दूसरों का दास बनकर कैसे रहूँगा। मैंने स्वयं ही अपने जीवन की अन्तिम अवस्था को दुखमय बना दिया है ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 14-32 का हिन्दी अनुवाद)
ओह ! जिसने अकेले ही मेरे पूरे-के-पूरे सौ पुत्रों का वध कर डाला उस भीमसेन की बातों को मैं कैसे सुन सकूँगा। संजय ! मेरे पुत्र ने मेरी बात न मानकर महात्मान विदुर के कहे हुए वचन को सत्य कर दिखाया । तात संजय ! अब यह बताओ कि मेरे पुत्र दुर्योधन के अधर्मपूर्वक मारे जाने पर कृतवर्मा कृपाचार्य और अश्वत्थामा ने क्या किया ।
संजय ने कहा ;- राजन ! आपके पक्ष के वे तीनों वीर वहां से थोड़ी ही दूर पर जाकर खड़े हो गये। वहां उन्होंने नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं से भरा हुआ एक भयंकर वन देखा । उस स्थान पर थोड़ी देर तक ठहर कर उन सब लोगों ने अपने उत्त म घोड़ों को पानी पिलाया और सूर्यास्तक होते-होते वे उस विशा वन में जा पहुँचेए जहां अनेक प्रकार के मृग और भॉंति-भाँति के पक्षी निवास करते थेए तरह-तरह वृक्षों और लताओं ने उस वन को व्या प्ता कर रखा था और अनेक जाति के सर्प उसका सेवन करते थे । उसमें जहां- तहाँ अनेक प्रकार के जलाशय थे भांति-भांति पुष्प उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे शत-शत रक्ति कमल और असंख्यत नीलकमल वहां जलाशयों में सब ओर छा रहे थे । उस भयंकर वन में प्रवेश करके सब ओर दृष्ठि डालने पर उन्हें सहस्त्रों शाखाओं से आच्छांदित एक बरगद वृक्ष दिखायी दिया । राजन ! मनुष्यों श्रेष्ठ उन महारथियों ने पास जाकर उस उत्तम वनस्पति; बरगद को देखा । प्रभो ! वहां रथों से उतरकर उन तीनों ने अपने घोड़ों को खोल दिया और यथोचित रूप से स्नापन आदि करके संध्योपासना की । तदनन्तर सूर्यदेव के पर्वत श्रेष्ठ अस्ताचल पर पहुँच जाने पर धाय की भांति सम्पूार्ण जगत् को अपनी गोद में विश्राम देने वाली रात्रिदेवी का सर्वत्र आधिपत्य हो गया। सम्पूर्ण ग्रहों नक्षत्रों और ताराओं से अलंकृत हुआ आकाश जरी की साड़ी के समान सब ओर से देखने योग्य प्रतीत होता था । रात्रि में विचरने वाले प्राणी अपनी इच्छा के अनुसार उछलकूद मचाने लगे और जो दिन में विचरने वाले जीव-जन्तु थे वे निद्रा के अधीन हो गये । रात्रि में घूमने-फिरने वाले जीवों का अत्यन्त भयंकर शब्द प्रकट होने लगा। मांसभक्षी प्राणी प्रसन्न हो गये और वह भयंकर रात्रि सब ओर व्याप्ति हो गयी। रात्रि का प्रथम प्रहर बीत रहा था। उस भयंकर बेला में दु:ख और शोक से संतप्त हुए कृतवर्मा कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा एक साथ ही आस-पास बैठ गये । वटवृक्ष के समीप बैठकर कौरवों तथा पाण्डेव योद्धाओं के उसी विनाश की बीती हुई बात के लिये शोक करते हुए वे तीनों वीर निद्रा से सारे अंश शिथिल हो जाने के कारण पृथ्वी पर लेट गये। उस समय वे भारी थकावट से चूर-चूर हो रहे थे और नाना प्रकार के बाणों से उनके सारे अंग क्षत-विक्षत हो गये थे । तदनन्ततर कृपाचार्य और कृतवर्मा- इन दोनों महारथियों को गाढी नींद ओ गयी। वे सुख भोगने के योग्य थे दु:ख पाने के योग्य। कदापि नहीं थे तो भी धरती पर ही सो गये थे । महाराज । बहुमूल्यओं शय्या एवं सुख सामग्री से सम्पन्न होने पर भी उन दोनों वीरों को परिश्रम और शोक से पीड़ित हो अनाथ की भांति पृथ्वी पर ही पड़ा देख द्रोण पुत्र अश्वत्थामा क्रोध और अमर्ष के वशीभूत हो गया। भारत ! उस समय उसे नींद नहीं आयी । वह सर्प के समान लंबी सांस खींचता रहा ।
(महाभारत (सौप्तिक पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 33-51 का हिन्दी अनुवाद)
क्रोध से जलते रहने के कारण नींद उसके पास फटकने नहीं पाती थी। उस महाबाहु वीर ने भयंकर दिखायी देने वाले उस वन की ओर बारंबार दृष्टिपात किया । कुरूनन्दन ! उस वृक्ष पर सहस्त्रों कौए रात में बसेरा ले रहे थे। वे पृथक-पृथक् घोंसलों का आश्रय लेकर सुख की नींद सो रहे थे । उन कौओं के सब ओर निर्भय होकर सो जाने पर अश्वत्थामा ने देखा कि सहसा एक भयानक उल्लू उधर आ निकला । उसकी बोली बड़ी भयंकर थी। डील-डौल भी बड़ा था। आँखें काले रंग की थी उसका शरीर भूरा और पिग्लद वर्ण का था। उसकी चोंच और पंजे बहुत बड़े थे और वह गरूड़ के समान वेगशाली जान पड़ता था । भरतनन्दरन ! वह पक्षी कोमल बोली बोलकर छिपता हुआ-सा गरगद की उस शाखा पर आने की इच्छाल करने लगा । कौओं के लिये कालरूपधारी उस विहगम ने वट वृक्ष की उस शाखा पर बड़े वेग से आक्रमण किया और सोये हुए बहुत-से कौओं को मार डाला । उसने अपने पंजों से अस्त्रक का काम लेकर किन्हीं कोओं के पंख नोच डाले किन्हीं के सिर काट लिये और किन्हीं के पैर तोड़ डाले। प्रजानाथ ! उस बलवान उल्लू ने जो-जो कौए उसकी दृष्टि में आयेएउन सबको क्षरण भर में मार डाला। इससे वह सारा वटवृक्ष कौओं के शरीरों तथा उनके विभिन्न अवयवों द्वारा सब ओर से आच्छांदित हो गया। वह शत्रुओं का संहार करने वाला उलूक उन कौओं का वध करके शत्रुओं से इच्छानुसार बदला लेकर बहुत प्रसन्ना हुआ। रात्रि में उल्लू के द्वारा किये गये उस कपटपूर्ण क्रूर कर्म को देखकर स्वयं भी वैसा ही करने का संकल्प लेकर अश्वत्थामा अकेला ही विचार करने लगा- । इस पक्षी ने युद्ध में क्या करना चाहिये इसका उपदेश मुझे दे दिया । मैं समझता हूँ कि मेरे लिये इसी प्रकार शत्रुओं के संहार करने का समय प्राप्त हुआ है । पाण्डव इस समय विजय से उल्लासित हो रहे हैं। वे बलवान उत्साही और प्रहार करने में कुशल हैं। उन्हें अपना लक्ष्य प्राप्त हो गया है। ऐसी अवस्था में आज मैं अपनी शक्ति से उनका वध नहीं कर सकता । इधर मैंने राजा दुर्योधन के समीप पाण्डवों के वध की प्रतिज्ञा कर ली है। परंतु यह कार्य वैसा ही है जैसा पतिंगों का आग में कूद पड़ना। मैंने जिस वृति का आश्रय लेकर पूर्वोक्त प्रतिज्ञा की है वह मेरा ही विनाश करने वाली है। इसमें संदेह नहीं कि यदि मैं न्याय के अनुसार युद्ध करूँगा तो मुझे अपने प्राणों का परित्याग करना पड़ेगा । यदि छल से काम लूँ तो अवश्य मेरे अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि हो सकती है। शत्रुओं का महान् संहार भी तभी संभव होगा। जहां सिद्धि मिलने में संदेह हो उसकी अपेक्षा उस उपाय का अवलम्बयन करना उत्तम है जिसमें संशय के लिये स्थान न हो। साधारण लोग तथा शास्त्रज्ञ पुरुष भी उसी का अधिक आदर करते हैं । इस लोक में जिस कार्य को ग्रर्हणीय समझा जाता हो जिसकी सब लोग भरपेट निन्दा करते होंए वह भी क्षत्रियधर्म के अनुसार बर्ताव करने वाले मनुष्यस के लिये कर्तव्य माना गया है । अपवित्र अन्तयकरण वाले पाण्डवों ने भी तो पद-पद पर ऐसे कार्य किये हैं जो सब-के-सब निन्दा और घृणा के योग्य रहे हैं। उनके द्वारा भी अनेक कपटपूर्ण कर्म किये ही गये हैं ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 52-69 का हिन्दी अनुवाद)
इस विषय में न्याय पर दृष्टि रखने वाले धर्मचिन्ता एवं तत्वरदर्शी पुरुषों ने प्राचीन काल में ऐसे श्लोकों का गान किया है जो तात्विक अर्थ का प्रतिपादन करने वाले हैं। वे श्लोक इस प्रकार सुने जाते हैं- । शत्रुओं की सेना यदि बहुत थक गयी हो तितर-बितर हो गयी हो भोजन कर रही हो कहीं जा रही हो अथवा किसी स्थान विशेष में प्रवेश कर रही हो तो भी विपक्षियों को उस पर प्रहार करना ही चाहिये । जो सेना आधी रात के समय नींद में अचेत पड़ी हो जिस का नायक नष्ट हो गया हो जिसके योद्धाओं में फूट हो गयी हो और जो दुविधा में पड़ गयी हो उस पर भी शत्रु को अवश्य प्रहार करना चाहिए । इस प्रकार विचार करके प्रतापी द्रोणपुत्र ने रात को सोते समय पांचालों सहित पाण्डवों को मार डालने का निश्चय किया । क्रूरतापूर्ण बुद्धि का आश्रय ले बारंबार उपर्युक्त निश्चय करके अश्वात्थामा ने सोये हुए अपने मामा कृपाचार्य तथा भोजवंशी कृतवर्मा को भी जगाया । जागने पर महामनस्वी महाबली कृपाचार्य और कृतवर्मा ने जब अश्वत्थामा का निश्चय सुनाए तब वे लज्जा से गड़ गये और उन्हें कोई उचित उत्तर नहीं सूझा । तब अश्वत्थामा दो घड़ी तक चिन्तामग्न रहकर अश्रुगद वाणी में इस प्रकार बोला,
अश्वत्थामा ने कहा ;- संसार का अद्वितीय वीर महाबली राजा दुर्योधन मारा गया जिसके लिये हम लोगों ने पाण्डवों के साथ वैर बॉंध रखा था । जो किसी दिन ग्यारह अक्षौहणी सेनाओं का स्वामी था वह राजा दुर्योधन विशुद्ध पराक्रम का परिचय देता हुआ अकेला युद्ध कर रहा था किंतु बहुत-से नीच पुरुषों ने मिलकर युद्ध स्थल में उसे भीमसेन के द्वारा धराशायी करा दिया । एक मूर्धाभिषिक्त सम्राट के मस्तक पर लात मारते हुए नीच भीमसेन ने यह बड़ा ही क्रूरतापूर्ण कार्य कर डाला है । पांचाल योद्धा हर्ष में भरकर सिंहनाद करते हल्ला मचाते हँसते सैकड़ों शंख बजाते और डंके पीटते हैं । शंखध्वनि से मिला हुआ नाना प्रकार के वाध्यों का गम्भीर एवं भयंकर घोष वायु से प्रेरित हो सम्पूर्ण दिशाओं को भरता-जान पड़ता है । हींसते हुए घोड़ों और चिंग्घाड़ते हुए हाथियों की आवाज के साथ शूरवीरों का यह महान् सिंहनाद सुनायी दे रहा है । हर्ष में भरकर पूर्व दिशा की ओर वेगपूर्वक जाते हुए पाण्डाव योद्धाओं के रथों के पहियों के ये रोमांचकारी शब्द कानों में पड़ रहे हैं । हाय ! पाण्डवों ने धृतराष्ट्र के पुत्रों और सैनिकों का जा यह विनाश किया है इस महान् संहार से हम तीन ही बच पाये हैं । कितने ही वीर सौ-सौ हाथियों के बराबर बलशाली थे और कितने ही सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों की संचालन-कला में कुशल थे किन्तु पाण्डवों ने उन सबको मार गिराया। मैं इसे समय का ही फेर समझता हूँ । निश्चय ही इस कार्य से ठीक ऐसा ही परिणाम होने वाला था। हम लोगों के द्वारा अत्यन्त दुष्कर कार्य किया गया तो भी इस युद्ध का अन्तिम फल इस में प्रकट हुआ । श्यदि आप दोनों की बुद्धि मोह से नष्ट न हो गयी हो तो इस महान् संकट के समय अपने बिगड़े हुए कार्य को बनाने के उद्देश्य से हमारे लिये क्या करना श्रेष्ठ होगा यह बताइये।
(इस प्रकार श्री महाभारत सौप्तिक पर्व में अश्वत्थामा की मन्त्रगणाविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
दूसरा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“कृपाचार्य का अश्वत्थामा को दैव की प्रबलता बताते हुए कर्तव्य के विषय में सत्पुरुषों से सलाह लेने की प्रेरणा देना”
तब कृपाचार्य ने कहा ;- शक्तिशाली महाबाहो ! तुमने जो-जो बात कही है वह सब मैंने सुन ली । अब कुछ मेरी भी बात सुनो । सभी मनुष्य प्रारब्धक और पुरुषार्थ दो प्रकार के कर्मों से अथवा अकेले पुरुषार्थ से भी कार्यों की सिद्धि नहीं होती है। दोनों के संयोग से ही सिद्धि प्राप्त होती है । उन दोनों से ही उत्तम-अधम सभी कार्य बँधे हुए हैं। उन्हीं से प्रवृत्ति और निवृति-संबंधी कार्य होते देखे जाते हैं । बादल पर्वत पर वर्षा करके किस फल की सिद्धि करता है वही यदि जोते हुए खेत में वर्षा करे तो वह कौन-साफ नहीं उत्पन्न कर सकता । दैवरहित पुरुषार्थ व्यर्थ है और पुरुषार्थशून्य दैव भी व्यर्थ हो जाता है। सर्वत्र ये दो ही पक्ष उठाये जाते हैं। इन दोनों में पहला पक्ष ही सिद्धान्त एवं श्रेष्ठ है; अर्थात दैव के सहयोग के बिना पुरुषार्थ नहीं काम देता है । जैसे मेघ ने अच्छी तरह वर्षा की हो और खेत को भी भली-भांति जोता गया हो तब उसमें बोया हुआ बीज अधिक लाभदायक हो सकता है। इसी प्रकार मनुष्यों की सारी सिद्धि दैव और पुरुषार्थ के सहयोग पर ही अवलम्बित है । इन दोनों में दैव बलवान है। वह स्वयं ही निश्चय करके पुरुषार्थ की अपेक्षा किये बिना ही फल-साधना में प्रवृत हो जाता है तथापि विद्वान् पुरुष कुशलता का आश्रय ले पुरुषार्थ में ही प्रवृत होते हैं ।
नरश्रेष्ठ ! मनुष्यों के प्रवृत्ति और निवृति- संबंधी सारे कार्य देव और पुरुषार्थ दोनों से ही सिद्धि होते देखे जाते हैं । किया हुआ पुरुषार्थ भी दैव के सहयोग से ही सफल होता है तथा दैव की अनुकूलता से ही कर्ता को उसके कर्म का फल प्राप्त होता है । चतुर मनुष्यों द्वारा अच्छी तरह सम्पादित किया हुआ पुरुषार्थ भी यदि दैव के सहयोग से वंचित है तो वह संसार में निष्फल दिखायी देता है । मनुष्यों में जो आलसी और मन पर काबू न रखने वाले होते है वे पुरुषार्थ की निन्दा करते हैं। परंतु विद्वानों को यह बात अच्छी नहीं लगती । प्राय: किया हुआ क्रम इस भूतल पर कभी होता नहीं देखा जाता है परंतु कर्म न करने से दु:ख की प्राप्ति ही देखने में आती है अत कर्म को महान् फलदायक समझना चाहिए । यदि कोई पुरुषार्थ न करके दैवेच्छा से ही कुछ पा जाता है अथवा जो पुरुषार्थ करके भी कुछ नहीं पाता इन दोनों प्रकार के मनुष्यों का मिलना बहुत कठिन है । पुरुषार्थ में लगा हुआ दक्ष पुरुष सुख से जीवन-निर्वाह कर सकता है परंतु आलसी मनुष्य कभी सुखी नहीं होता है। इस जीव-जगत में प्रायरू तत्परतापूर्वक कर्म करने वाले ही अपना हित साधन करते देखे जाते हैं । यदि कार्य-दक्ष मनुष्य कर्म का आरम्भ करके भी उसका कोई फल नहीं पाता है तो उसके लिये उसकी कोई निन्दा नहीं की जाती अथवा वह अपने प्राप्ताव्यभ लक्ष्य को पा ही लेता है । परंतु जो इस जगत् में कोई काम न करके बैठा-बैठा फल भोगता है वह प्राय निन्दित होता है और दूसरों के द्वेष का पात्र बन जाता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार जो पुरुष इस मत का अनादर करके इसके विपरीत बर्ताव करता है अर्थात जो दैव और पुरुषार्थ दोनों के सहयोग को न मानकर केवल एक के भरोसे ही बैठा रहता है वह अपना ही अनर्थ करता है यही बुद्धिमानों की नीति है । पुरुषार्थहीन दैव अथवा दैवहीन पुरुषार्थ- इन दो ही कारणों से मनुष्य का उद्योग निष्फल होता है। पुरुषार्थ के बिना तो यहाँ कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता । जो दैव को मस्तक झुकाकर सभी कार्यों के लिये भली-भांति चेष्ठा करता है वह दक्ष एवं उदार पुरुष असफलताओं का शिकार नहीं होता । यह भली-भांति चेष्ठा उसी की मानी जाती है जो बड़े-बूढों की सेवा करता है उनसे अपने कल्याण की बात पूछता है और उनके बताये हुए हितकार वचनों का पालन करता है । प्रतिदिन सवेरे उठ-उठकर वृद्धजनों द्वारा सम्मानित पुरुषों से अपने हित की बात पूछनी चाहियेय क्योंकि वे अप्राप्त की प्राप्ति कराने वाले उपाय के मुख्य हेतु हैं। उनका बताया हुआ वह उपाय ही सिद्धि का मूल कारण कहा जाता है । जो वृद्ध पुरुषों का वचन सुनकर उसके अनुसार कार्य आरम्भ करता है वह उस कार्य का उत्तम फल शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है । अपने मन को वश में न रखते हुए दूसरों की अवहेलना करने वाला जो मानव राग क्रोध भय और लोभ से किसी कार्य की सिद्धि के लिये चेष्ठा करता है वह बहुत जल्दी अपने ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है ।
दुर्योधन लोभी और अदूरदर्शी था। उसने मूर्खतावश न तो किसी का समर्थन प्राप्त किया और न स्वयं ही अधिक सोच-विचार किया। उसने अपना हित चाहने वाले लोगों का अनादर करके दुष्टों के साथ सलाह की और सबके मना करने पर भी अधिक गुणवान पाण्डवों के साथ वैर बांध लिया । पहले भी वह बड़े दुष्ट स्वभाव का था । धैर्य रखना तो वह जानता ही नहीं था। उसने मित्रों की बात नहीं मानी इसलिये अब काम बिगड़ जाने पर पश्चा्ताप करता है । हम लोग जो उस पापी का अनुसरण करते हैं इसीलिये हमें भी यह अत्यन्त दारूण अनर्थ प्राप्त हुआ है । इस संकट से सर्वथा संतप्त होने के कारण मेरी बुद्धि आज बहुत सोचने-विचारने पर भी अपने लिये किसी हितकर कार्य का निर्णय नहीं कर पाती है। जब मनुष्य मोह के वशीभूत हो हिताहित का निर्णय करने में असमर्थ हो जाय तब उसे अपने सुह्दों से सलाह लेनी चाहिये । वहीं उसे बुद्धि और विनय की प्राप्ति हो सकती है और वहीं उसे अपने हित का साधन भी दिखायी देता है ।
पूछने पर वे विलक्षन हितैषी अपनी बुद्धि से उसके कार्यों के मूल कारण का निश्चय करके जैसी सलाह दें वैसा ही उसे करना चाहिये । अत हम लोग राजा धृटराष्ट्र गान्धारी देवी तथा परम बुद्धिमान विदुरजी के पास चलकर पूछें । हमारे पूछने पर वे लोग अब हमारे लिये जो श्रेयस्कर कार्य बतावें वहीं हमें करना चाहिये मेरी बुद्धि का तो यही दृढ़ निश्चय है । कार्य को आरम्भ न करने से कहीं कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है परंतु पुरुषार्थ करने पर भी जिनका कार्य सिद्ध नहीं होता है वे निश्चय ही दैव के मारे हुए हैं । इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ।
(इस प्रकार श्री महाभारत सौप्तिक पर्व में अश्वत्थामा और कृपाचार्य संवाद विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
तीसरा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“अश्वत्थामा का कृपाचार्य और कृतवर्मा को उत्तर देते हुए उन्हें अपना क्रूरतापूर्ण निश्चय बताना”
संजय कहते हैं ;- महाराज ! कृपाचार्य का वचन धर्म और अर्थ से युक्त तथा मंगलकारी था। उसे सुनकर अश्वत्थामा दु:ख और शोक में डूब गया । उसके हृदय में शोक की आग प्रज्वनलित हो उठी । वह उससे जलने लगा और अपने मन को कठोर बनाकर कृपाचार्य और कृतवर्मा दोनों से बोला,
अश्वत्थामा बोला ;- मामाजी! प्रत्येक मनुष्य में जो पृथक-पृथक् बुद्धि होती है वही उसे सुन्दर जान पड़ती है। अपनी-अपनी उसी बुद्धि से वे सब लोग अलग-अलग संतुष्ट रहते हैं । सभी लोग अपने आप को अधिक बुद्धिमान समझ्ते हैं। सबको अपनी ही बुद्धि अधिक महत्ववपूर्ण जान पड़ती है और सब लोग अपनी ही बुद्धि की प्रशंसा करते हैं । सबकी दृष्टि में अपनी ही बुद्धि धन्यवाद पाने के योग्य ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित जान पड़ती है। सब लोग दूसरों की बुद्धि की निन्दा और अपनी बुद्धि की बारंबार सराहना करते हैं । यदि किन्हीं दूसरे कारणों के संयोग से एक समुदाय में जिनके-जिनके विचार मिल जाते हैं वे एक दूसरे से संतुष्ट होते हैं और बारम्बार एक दूसरे के प्रति अधिक सम्मान प्रकट करते हैं । किन्तु समय के फेर से उसी मनुष्य की वही-वही बुद्धि विपरीत होकर परस्पर विरुद्ध हो जाती है। सभी प्राणियों के विशेषत: मनुष्यों के चित्त एक दूसरे से विलक्षण तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं अतरू विभिन्न घटनाओं के कारण जो चित्त में व्याकुलता होती है उसका आश्रय लेकर भिन्न-भिन्न प्रकारों की बुद्धि पैदा हो जाती है ।
प्रभो ! जैसे कुशल वेद्य विधिपूर्वक रोग की जानकारी प्राप्त करके उसकी शान्ति के लिये योग्यतानुसार औषध प्रदान करता है इसी प्रकार मनुष्य कार्य की सिद्ध के लिये अपनी विवेक शक्ति से विचार करके किसी निश्चयात्मक बुद्धि का आश्रय लेते हैं परंतु दूसरे लोग उसकी निन्दा करने लगते हैं । मनुष्य जवानी में किसी और ही प्रकार की बुद्धि से मोहित होता है मध्यम अवस्था में दूसरी ही बुद्धि से वह प्रभावित होता है किंतु वृद्धावस्था में उसे अन्य प्रकार की ही बुद्धि अच्छी लगती है । श्भोज ! मनुष्य जब किसी अत्यंत घोर संकट में पड़ जाता है अथवा उसे किसी महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति हो जाती है तब उस संकट और समृद्धि को पाकर उसकी बुद्धि में क्रमश शोक एवं हर्षरूपी विकार उत्पन्न हो जाते हैं । उस विकार के कारण एक ही पुरुष में उसी समय भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धि; विचारधारा उत्पन्न हो जाती है परंतु अवसर के अनुरूप न होने पर उसकी अपनी ही बुद्धि उसी के लिये अरुचिकर हो जाती है । मनुष्य अपने विवेक के अनुसार किसी निश्चय पर पहुँचकर जिस बुद्धि को अच्छा समझता है उसी के द्वारा कार्यसिद्धि की चेष्टा करता है। वही बुद्धि उसके उद्योग को सफल बनाने वाली होती है।
कृतवर्मा ! सभी मनुष्य् यह अच्छा कार्य है ऐसा निश्चय करके प्रसन्नतापूर्वक कार्य आरम्भ करते हैं और हिंसा आदि कर्मों में भी लग जाते हैं । सब लोग अपनी ही बुद्धि अथवा विवेक का आश्रय लकर तरह-तरह की चेष्टातएं करते हैं और उन्हें अपने लिये हितकर ही समझते हैं । आज संकट में पड़ने से मेरे अंदर जो बुद्धि पैदा हुई है उसे मैं आप दोनों को बता रहा हूँ। वह मेरे शोक का विनाश करने वाली है।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)
गुणवान प्रजापति ब्रह्माजी प्रजाओं की सृष्टि करके उनके लिये कर्म का विधान करते हैं और प्रत्येक वर्ण में एक-एक विशेष गुण की स्थापना कर देते हैं । वे ब्रह्मण में सर्वोत्तम वेद क्षत्रिय में उत्तम तेज वैश्य में व्यापार कुशलता तथा शूद्र में सब वर्णों के अनुकूल चलने की वृति को स्थापित कर देते हैं । मन और इन्द्रियों को वश में न रखने वाला ब्राह्माण ब्राह्माण अच्छा नहीं माना जाता। तेजोहीन क्षत्रिय अधम समझा जाता है जो व्यापार में कुशल नहीं है उस वैश्य की निन्दा की जाती है और अन्य वर्णों के प्रतिकूल चलने वाले शूद्र को भी निन्दनीय माना जाता है । मैं ब्राह्मणों के परम सम्मानित श्रेष्ठ कुल में उत्पोन्नक हुआ हूँ तथापि दुर्भाग्यों के कारण इस क्षत्रिय-धर्म का अनुष्ठान करता हूँ । यदि क्षत्रिय के धर्म को जानकर भी मैं ब्राह्माणत्व का सहारा लेकर कोई दूसरा महान् कर्म करने लगूँ तो सत्पुरुषों के समाज मेरे उस कार्य का सम्मान नहीं होगा ।
मैं दिव्य धनुष और दिव्य अस्त्रों को धारण करता हूँ तो भी युद्ध में अपने पिता को अन्यायपूर्वक मारा गया देखकर यदि उसका बदला न लूँ तो वीरों की सभा में क्या कहूँगा ? । अत: आज मैं अपनी रुचि के अनुसार उस क्षत्रियधर्म का सहारा लेकर अपने महात्मा पिता तथा राजा दुर्योधन के पथ का अनुसरण करूँगा । आज अपनी जीत हुई जान विजय से सुशोभित होने वाले पांचाल योद्धा बड़े हर्ष में भरकर कवच उतार, जूओं में जुते हुए घोड़ों को खोलकर बेखटके सो रहे होंगे। वे थके तो होंगे ही, विशेष परिश्रम के कारण चूर-चूर हो गये होंगे । रात में सुस्थिर चित्त से सोये हुए उन पांचालों के अपने ही शिविर में घुसकर मैं उन सबका संहार कर डालूँग। समूचे शिविर का ऐसा विनाश करूँगा जो दूसरों के लिये दुष्कर है । जैसे इन्द्र दानवों पर आक्रमण करते हैं, उसी प्रकार मैं भी शिविर में मुर्दों के समान अचेत पडे़ हुए पांचालों की छाती पर चढकर उन्हें पराक्रमपूर्वक मार डालूँगा । साधुशिरोमणे। जैसे जलती हुई आग सूखे जंगल या तिनकों की राशि को जला डालती हैं, उसी प्रकार आज मैं एक साथ सोये हुए धृष्टधुम्न आदि समस्त पांचालों पर आक्रमण करके उन्हें मौत के घाट उतार दूँगा ।
उनका संहार कर लेने पर ही मुझे शान्ति मिलेगी । जैसे प्रलय के समय क्रोध में भरे हुए साक्षात पिनाकधारी रूद्र समस्त पशुओं (प्राणियों) पर आक्रमण करते है, उसी प्रकार आज युद्ध में पांचालों का विनाश करता हुआ उनके लिये कालरूप हो जाऊँगा । आज मैं रणभूमि में समस्त पांचालों को मारकर उनके टुकड़े-टुकड़े करके हर्ष और उत्साह से सम्पन्न हो पाण्डवों को भी कुचल डालूँगा । आज समस्त पांचालों के शरीरों से रणभूमि को शरीरधारिणी बनाकर एक-एक पांचाल पर भरपूर प्रहार करके मैं अपने पिता के ॠण से मुक्त हो जाऊँगा । आज पांचालों को दुर्योधन, कर्ण, भीष्म तथा जयद्रथ के दुर्गम मार्ग पर भेजकर छोडूँगा । आज रात में मैं शीघ्र ही पांचालराज धृष्टधुम्न के सिर को पशु के मस्तक की भांति बलपूर्वक मरोड़ डालूँगा । गौतम ! आज रात के युद्ध में सोये हुए पांचालों और पाण्डवों के पुत्रों को भी मैं अपनी तीखी-तलवार से टूक-टूक कर दूँगा । महामते ! आज रात को सोते समय उस पाञ्चाल सेना का वध करके मैं कृतकृत्य एवं सुखी हो जाऊँगा ।
(इस प्रकार श्री महाभारत सौप्तिक पर्व में अश्रवत्थामा की मन्त्रणाविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
चौथा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“कृपाचार्य का कल प्रात: काल युद्ध करने की सलाह देना और अश्वत्थामा का इसी रात्रि में सोते हुओं को मारने का आग्रह प्रकट करना”
कृपाचार्य बोले ;- तात ! तुम अपनी टेक से टलने वाले नहीं हो, सौभाग्य की बात है कि तुम्हारे मन में बदला लेने का दृढ़ विचार उत्पन्न हुआ । तुम्हें साक्षात वज्रधारी इन्द्र भी इस कार्य से रोक नहीं सकते । आज रात में कवच और ध्वजा खोलकर विश्राम करो कल सवेरे हम दोनों एक साथ होकर तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे । जब तुम शत्रुओं का सामना करने के लिये आगे बढोगे, उस समय मैं और सात्वतवंशी कृतवर्मा दोनों ही कवच धारण करके रथों पर आरूढ़ हो तुम्हारे साथ चलेंगे ।
रथियों में श्रेष्ठ वीर ! कल सवेरे के संग्राम में हम दोनों के साथ रहकर तुम अपने शत्रु पांचालों और उनके सेवकों को बलपूर्वक मार डालना । तात ! तुम पराक्रम दिखाकर शत्रुओं का वध करने में समर्थ हो, अत: इस रात में विश्राम कर लो। तुम्हें जागते हुए बहुत देर हो गयी है, अब इस रात में सो लो । मानद ! थकावट दूर करके नींद पूरी कर लेने से तुम्हारा चित स्वस्थ हो जायेगा। फिर तुम समर भूमि में जाकर शत्रुओं का वध कर सकोगे, इसमें संशय नही है । तुम रथियों में श्रेष्ठ हो, तुमने अपने हाथ में उत्तम आयुध ले रखा है। तुम्हें देवताओं के राजा इन्द्र भी कभी जीतने का साहस नहीं कर सकते हैं । जब कृतवर्मा से सुरक्षित हो द्रोण पुत्र अश्वत्थामा मुझ कृपाचार्य के साथ कुपित होकर युद्ध के लिये प्रस्थान करेगा, उस समय कौन वीर, वह देवराज इन्द्र ही क्यों न हो, उसका सामना कर सकता है ?।
अत: हम लोग रात में विश्राम करके निद्रारहित और विगतज्वर हो प्रात:काल अपने शत्रुओं का संहार करेंगे । इसमें संशय नहीं कि तुम्हारे और मेरे पास भी दिव्यास्त्र हैं तथा महाधनुर्धर कृतवर्मा भी युद्ध करने की कला में सदा ही कुशल हैं । तात ! हम सब लोग एक साथ होकर समरांगण में सामने आये हुए समस्त शत्रुओं का संहार करके अत्यन्त हर्ष का अनुभव करेंगे । तुम व्यग्रता छोड़कर विश्राम करो और इस रात में सुखपूर्वक सो लो। कल सवेरे युद्ध के लिये प्रस्थान करते समय तुम- जैसे नरश्रेष्ठ वीर के पीछे शत्रुओं को संताप देने वाले हम और कृतवर्मा धनुष लेकर एक साथ चलेंगे । बड़ी उतावली के साथ आगे बढते हुए रथी अश्वत्थामा के साथ हम दोनों भी कवच धारण करके रथ पर आरूढ हो यात्रा करेंगे ।
उस अवस्था में शत्रुओं के शिविर में जाकर युद्ध के लिये अपने नाम की घोषणा कर के सामने आकर जूझते हुए उन शत्रुओं का बड़ा भारी संहार मचा देना । जैसे इन्द्र बड़े-बड़े असुरों का विनाश करके सुखपूर्वक विचरते हैं, उसी प्रकार तुम भी कल प्रात:काल निर्मल दिन निकल आने पर उन शत्रुओं का विनाश करके इच्छानुसार विहार करो।जैसे सम्पूर्ण दानवों का संहार करने वाले इन्द्र कुपित होने पर दैत्यों की सेना को जीत लेते हैं, उसी प्रकार तुम भी रणभूमि में पांचालों की विशाल वाहिनी पर विजय पाने में समर्थ हो । युद्ध स्थल में जब तुम मेरे साथ खड़े होओगे और कृतवर्मा तुम्हारी रक्षा में लगे होंगे, उस समय हाथ में वज्र लिये हुए साक्षात देव सम्राट इन्द्र भी तुम्हारा वेग नहीं सह सकेंगे ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
तात ! समरांगण में मैं और कृतवर्मा पाण्डवों को परास्त किये बिना कभी पीछे नहीं हटेंगे ।समरांगण में कुपित हुए पांचालों को पाण्डवों सहित मार कर ही हम सब लोग पीछे हटेंगे अथवा स्वयं ही मारे जाकर स्वर्गलोक की राह लेंगे । निष्पाप महाबाहु वीर ! कल प्रात:काल हम लोग सभी उपायों से युद्ध में तुम्हारे सहायक होंगे ।
मैं तुमसे यह सच्ची बात कह रहा हूँ । राजन ! मामा के इस प्रकार हितकारक वचन कहने पर द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने क्रोध से लाल आँखें करके उनसे कहा- । मामाजी ! जो मनुष्य शोक से आतुर हो, अमर्ष से भरा हुआ हो, नाना प्रकार के कार्यों की चिन्ता कर रहा हो अथवा किसी कामना में आसक्त हो, उसे नींद कैसे आ सकती है ? देखिये, ये चारों बातें आज मेरे ऊपर एक साथ आ पड़ी हैं । इन चारों का एक चौथाई भाग जो क्रोध है, वही मेरी निद्रा को तत्काल नष्ट किये देता है। अपने पिता के वध की घटना का बारंबार स्मरण करके इस संसार में कौन-सा ऐसा दु:ख है जिसका मुझे अनुभव न होता हो। वह दु:ख की आग रात-दिन मेरे हृदय को जलाती हुई अब तक बुझ नहीं पा रही है ।
इन पापियों ने विशेषत; मेरे पिताजी को जिस प्रकार मारा था, वह सब आपने प्रत्यक्ष देखा है। वहा घटना मेरे मर्म स्थानों को छेद डालती है। ऐसी अवस्था में मेरे-जैसा वीर इस जगत् में देा घड़ी भी कैसे जीवित रह सकता है ? । द्रोणाचार्य धृष्टधुम्न के हाथ से मारे गये यह बात जब मैं पांचालों के मुख से सुनता आ रहा हूँ, तब धृष्टधुम्न का वध किये बिना जीवित नहीं रह सकता । धृष्टधुम्न तो पिताजी का वध करने के कारण मेरा वध्य होगा और उसके संगी-साथी जो पांचाल हैं, वे भी उसका साथ देने के कारण मारे जायेंगे। इधर, जिसकी जांघे तोड़ डाली गयी हैं, उस राजा दुर्योधन का जो विलाप मैंने अपने कानों सुना है, वह किस क्रूर मनुष्य के भी हृदय को शोक-दग्ध नहीं कर देगा ? । टूटी जांघ वाले राजा दुर्योधन की वैसी बात पुन: सुनकर किस निष्ठुर के भी नेत्रों से आंसू नहीं बह चलेगा ? ।
मेरे जीते-जी जो यह मेरा मित्र-पक्ष परास्त हो गया, वह मेरे शोक की उसी प्रकार वृद्धि कर रहा है, जैसे जल का वेग समुद्र को बढा देता है। आज मेरा मन एक ही कार्य की ओर लगा हुआ है, फिर मुझे नींद कैसे आ सकती है और मुझे सुख भी कैसे मिल सकता है । सत्पुरुषों में श्रेष्ठ मामाजी ! पाण्डव और पांचाल जब श्रीकृष्ण और अर्जुन से सुरक्षित हो, उस दशा में मैं उन्हें देवराज इन्द्र के लिये भी अतयंत असहाय एवं अजेय मानता हूँ । इस समय जो क्रोध उत्पन्न हुआ है, इसे मैं स्वयं भी रोक नहीं सकता। इस संसार में किसी भी ऐसे पुरुष को नहीं देख रहा हूँ, जो मुझे क्रोध से दूर हटा दे ।
इसी प्रकार मैंने जो अपनी बुद्धि में शत्रुओं के संहार का यह दृढ निश्चय कर लिया है, यही मुझे अच्छा प्रतीत होता है। जब संदेशवाहक दूत मेरे मित्रों की पराजय और पाण्डवों की विजय का समाचार कहने लगते हैं, तब वह मेरे हृदय को दग्ध-सा कर देता है । मैं तो आज सोते समय शत्रुओं का संहार करके निश्चिन्त होने पर ही विश्राम करूँगा और नींद लूँगा ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व में अश्वत्थामा की मंत्राविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
पाचवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) पञ्चम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“अश्वत्थामा और कृपाचार्य का संवाद तथा तीनों का पाण्डवों के शिविर की ओर प्रस्थान”
कृपाचार्य बोले ;- अश्वत्थामन ! मेरा विचार है कि जिस मनुष्य की बुद्धि दुर्भावना से युक्त है तथा जिसने अपनी इन्द्रियों को काबू में नहीं रखा है, वह धर्म और अर्थ की बातों को सुनने की इच्छा रखने पर भी उन्हें पूर्णरूप से समझ् नहीं सकता । इसी प्रकार मेधावी होने पर भी जो मनुष्य विनय नहीं सीखता, वह भी धर्म और अर्थ के निर्णय को थोड़ा भी नही समझ पाता है । जिसकी बुद्धि पर जड़ता छा रहीं हो, वह शूरवीर योद्धा दीर्घकाल तक विद्वान् की सेवा में रहने पर भी धर्मों का रहस्य नहीं जान पाता। ठीक उसी तरह, जैसे करछुल दाल में डूबी रहने पर भी उसके स्वाद को नहीं जानती है ।
जैसे जिह्वा दाल के स्वाद को जानती है, उसी प्रकार बुद्धिमान पुरुष यदि दो घड़ी भी विवेकशील की सेवा में रहे तो वह शीघ्र ही धर्मों का रहस्य जान लेता है । अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाला मेधावी पुरुष यदि विद्वानों की सेवा में रहे और उनसे कुछ सुनने की इच्छा रक्खे तो वह सम्पूर्ण शास्त्रों को समझ लेता है तथा ग्रहण करने योग्य वस्तु का विरोध नहीं करता । परंतु जिसे सन्मार्ग पर नहीं ले जाया जा सकता, जो दूसरों की अवहेलना करने वाला है तथा जिसका अन्त:करण दूषित है, यह पापात्मा पुरुष बताये हुए कल्याणकारी पथ को छोड़कर बहुत-से पापकर्म करने लगता है ।
जो सनाथ है, उसे उसके हितैषी सुह्नद् पापकर्मों से रोकते हैं, जो भाग्यवान हैं- जिसके भाग्य में सुख भोगना है, वह मना करने पर उस पाप कर्म से रूक जाता है; परंतु जो भाग्यहीन है, वह उस दुष्कर्म से नहीं निवृत होता है । जैसे मनुष्य विक्षिपत चित्त वाले पागल को नाना प्रकार के ऊँच-नीच वचनों द्वारा समझा-बुझाकर या डरा-धमकाकर काबू में लाते हैं, उसी प्रकार सुह्नद्गगण भी अपने स्वजन को समझा-बुझाकर और डट-डपटकर वश में रखने की चेष्टा करते हैं। जो वश में आ जाता है, वह तो सुखी होता है और जो किसी तरह काबू में नहीं आ सकता, वह दु:ख भोगता है । इसी तरह विद्वान् पुरुष पापकर्म में प्रवृत होने वाले अपने बुद्धिमान सुह्नद को भी यथाशक्ति बारंबार मना करते हैं । तात ! तुम भी स्वयं ही अपने मन को काबू में करके उसे कल्याण साधन में लगाकर मेरी बात मानो, जिससे तुम्हें पश्चात्ताप न करना पड़े । जो सोये हुए हों, जिन्होंने अस्त्र-शस्त्र रख दिये हों, रथ और घोड़े खोल दिये हों, जो मैं आपका ही हूँ ऐसा कह रहे हों, जो शरण में आ गये हों, जिनके बाल खुले हुए हों तथा जिनके वाहन नष्ट हो गये हों, इस लोक में ऐसे लोगों का वध करना धर्म की दृष्टि से अच्छा नहीं समझा जाता ।
प्रभो ! आज रात में समस्त पांचाल कवच उतारकर निश्चिन्त हो मुर्दों के समान अचेत सो रहे होंगे। उस अवस्था में जो क्रूर मनुष्य उनके साथ द्रोह करेगा, वह निश्चित ही नौकारहित अगाध एवं विशाल नरक के समुद्र में डूब जायेगा । संसार के सम्पूर्ण अस्त्रवेत्ताओं में तुम श्रेष्ठ हो। तुम्हारी सर्वत्र ख्याति हैं इस जगत् में अब तक कभी तुम्हारा छोटे-से-छोटा दोष भी देखने में नहीं आया है । कल सवेरे सूर्योदय होने पर तुम सूर्य के समान प्रकाशित हो उजाले में युद्ध छेड़कर समस्त प्राणियों के सामने पुन: शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना । जैसे सफेद वस्त्र में लाल रंग का धब्बा लग जाय, उस प्रकार तुम्हें निन्दित कर्म का होना सम्भावना से परे की बात है, ऐसा मेरा विश्वास है ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) पञ्चम अध्याय के श्लोक 18-40 का हिन्दी अनुवाद)
अश्वत्थामा बोला ;- मामाजी ! आप जैसा कहते हैं, नि:संदेह वही ठीक है; परंतु पाण्डवों ने ही पहले इस धर्म-मर्यादा के सैकड़ों टुकड़े कर डाले हैं । धृष्टधुम्न समस्त राजाओं के सामने और आप लोगों के निकट ही मेरे उस पिता को मार गिराया, जिन्होंने अस्त्र-शस्त्र रख दिये थे । रथियों में श्रेष्ठ कर्ण को भी गाण्डीवधारी अर्जुन ने उस अवस्था में मारा था, जब कि उनके रथ का पहिया गड्ढे में गिरकर फँस गया था और इसीलिये वे भारी संकट में पड़़े हुए थे । इसी प्रकार शान्तनुनन्दन भीष्म जब हथियार डालकर अस्त्रहीन हो गये, उस अवस्था में शिखण्डी को आगे करके गाण्डीवधारी धनंजय ने उनका वध किया था ।
महाधनुर्धर भूरिश्रवा तो रणभूमि में अनशन व्रत लेकर बैठ गये थे। उस अवस्था में समस्त भूमिपाल चिल्ला-चिल्लाकर रोकते ही रह गये; परंतु सात्यकि ने उन्हें मार गिराया ।भीमसेन ने सम्पूर्ण राजाओं के देखते-देखते रणभूमि में गदायुद्ध करते समय दुर्योधन को अधर्मपूर्वक मार गिराया था । नरश्रेष्ठ राजा दुर्योधन अकेला था और बहुत-से महारथियों ने उसे वहां घेर रखा था, उस दशा में भीमसेन ने उसको धराशायी किया है । टूटी जांघों वाले राजा दुर्योधन का जो विलाप मैंने सुना है और संदेशवाहक दूतों के मुख से जो समाचार मुझे ज्ञात हुआ है, वह सब मेरे मर्मस्थानों को विदीर्ण किये देता है । इस प्रकार वे सब-के-सब पापी और अधार्मिक हैं। पांचालों ने भी धर्म की मर्यादा तोड़ डाली है। इस तरह मर्यादा भंग करने वाले उन पाण्डवों और पांचालों की आप निन्दा क्यों नहीं करते हैं ? । पिता की हत्या करने वाले पांचालों का रात को सोते समय वध करके मैं भले ही दूसरे जन्म में कीट या पतंग हो जाऊँ, सब कुछ स्वीकार है । इस समय मैं जो कुछ करना चाहता हॅूं, उसी को पूर्ण करने के उद्देश्य से उतावला हो रहा हूँ। इतनी उतावली में रहते हुए मुझे नींद कहां और सुख कहां ? । इस संसार में ऐसा कोई पुरुष न तो पैदा हुआ है और न होगा ही, जो उन पांचालों के वध के लिये किये गये मेरे इस दृढ निश्चय को पलट दे ।
संजय कहते हैं ;- महाराज ! ऐसा कहकर प्रतापी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा एकान्त में घोड़ों को जोतकर शत्रुओं की ओर चल दिया । उस समय भोजवंशी कृतवर्मा और शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य दोनों महामनस्वी वीरों ने उससे कहा,
कृपाचार्य ने कहा ;- अश्वत्थामन ! तुमने किस लिये रथ को जोता है ? तुम इस समय कौन-सा कार्य करना चाहते हो ? । नरश्रेष्ठ ! हम दोनों एक साथ तुम्हारी सहायता के लिये चले हैं। तुम्हारे दुख-सुख में हमारा समान भाग होगा, तुम्हें हम दोनों पर संदेह नहीं करना चाहिये । उस समय अश्वत्थामा के पिता के वध का स्मरण करके रोष से आग बबूला हो रहा था, वह सब उसने उन दोनों से ठीक-ठीक कह सुनाया ।
वह बोला (अश्वत्थामा) ;- मेरे पिता अपने तीखे बाणों से लाखों योद्धाओं का वध करके जब अस्त्रशस्त्र नीचे डाल चुके थे, उस अवस्था में धृष्टधुम्न ने उन्हें मारा है । अत: धर्म का परित्याग करने वाले उस पापी पांचाल राजकुमार को भी मैं उसी प्रकार पाप कर्म द्वारा ही मार डालूँगा । मेरा ऐसा निश्चय है कि मेरे हाथ से पशु की भांति मारे गये पापी पांचालराजकुमार धृष्टधुम्न को किसी तरह भी अस्त्र-शस्त्रों द्वारा मिलने वाले पुण्यलोकों की प्राप्ति न हो । आप दोनों रथियों में श्रेष्ठ और शत्रुओं को संताप देने वाले वीर हैं। शीघ्र ही कवच बांधकर खड्ग और धनुष लेकर रथ पर बैठ जाइये तथा मेरी प्रतीक्षा कीजिये ।
राजन ! ऐसा कहकर अश्वत्थामा रथ पर आरूढ हो शत्रुओं की ओर चल दिया। कृपाचार्य और सात्वतवंशी कृतवर्मा भी उसी के मार्ग का अनुसरण करने लगे । शत्रुओं की ओर जाते समय वे तीनों तेजस्वी वीर यज्ञ में आहुति पाकर प्रज्वलित हुए तीन अग्नियों की भांति प्रकाशित हो रहे थे । प्रभो ! वे तीनों पाण्डवों और पांचालों के उस शिविर के पास गये, जहां सब लोग सो गये थे। शिविर के द्वार पर पहुँचकर महारथी अश्वत्थामा खड़ा हो गया ।
(इस प्रकार श्री महाभारत सौप्तिक पर्व में अश्वत्थामा का प्रयाणविषयक पॉंचवां अध्याय पूरा हुआ)
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