सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) के इकसठवें अध्याय से पैसठवें अध्याय तक (From the 61 chapter to the 65 chapter of the entire Mahabharata (shalay Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

इकसठवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्डव-सैनिकों द्वारा भीम की स्तुति, श्रीकृष्ण का दुर्योधन पर आक्षेप, दुर्योधन का उत्तर तथा श्रीकृष्ण द्वारा पाण्डवों का समाधान एवं शंखध्वनि”

    धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! रणभूमि में भीमसेन के द्वारा दुर्योधन को मारा गया देख पाण्डवों तथा सृंजयों ने क्या किया?

     संजय ने कहा ;- महाराज! जैसे कोई मतवाला जंगली हाथी सिंह के द्वारा मारा गया हो, उसी प्रकार दुर्योधन को भीमसेन के हाथ से रणभूमि में मारा गया देख श्रीकृष्ण सहित पाण्डव मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। कुरुनन्दन दुर्योधन के मारे जाने पर पांचाल और सृंजय तो अपने दुपट्टे उछालने और सिंहनाद करने लगे। हर्ष में भरे हुए इन पाण्डव वीरों का भार यह पृथ्वी सहन नहीं कर पाती थी। किसी ने धनुष टंकारा, किसी ने प्रत्यंचा खींची, कुछ लोग बड़े-बड़े शंख बजाने लगे और दूसरे बहुत से सैनिक डंके पीटने लगे। आपके बहुत से शत्रु भाँति-भाँति के खेल खेलने और हास-परिहास करने लगे।

     कितने ही वीर भीमसेन के पास जाकर इस प्रकार कहने लगे- कौरवराज दुर्योधन ने गदायुद्ध में बड़ा भारी परिश्रम किया था। आज रणभूमि में उसका वध करके आपने महान एवं दुष्कर पराक्रम कर दिखाया है। 'जैसे महासमर में इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया था, आपके द्वारा किया हुआ यह शत्रु का संहार भी उसी कोटिका है- ऐसा सब लोग समझने लगे हैं। भला, नाना प्रकार के पैंतरे बदलते और सब तरह की मण्डलाकार गतियों से चलते हुए इस शूरवीर दुर्योधन को भीमसेन के सिवा दूसरा कौन मार सकता था? आप वैर के समुद्र से पार हो गये, जहाँ पहुँचना दूसरे लोगों के लिये अत्यन्त कठिन है। दूसरे किसी के लिये ऐसा पराक्रम कर दिखाना सर्वथा असम्भव है। वीर! मतवाले गजराज की भाँति आपने युद्ध के मुहाने पर अपने पैर से दुर्योधन के मस्तक को कुचल दिया है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। अनघ! जैसे सिंह ने भैंसे का खून पी लिया हो, उसी प्रकार आपने महान युद्ध ठानकर दुःशासन के रक्त का पान किया है, यह भी सौभाग्य की बात है। 'जिन लोगों ने धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर का अपराध किया था, उन सबके मस्तक पर आपने अपने पराक्रम द्वारा पैर रख दिया, यह कितने हर्ष का विषय है। भीम! शत्रुओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने और दुर्योधन को मार डालने से भाग्यवश इस भूखण्ड में आपका महान यश फैल गया है। भारत! निश्चय ही वृत्रासुर के मारे जाने परबन्दी जनों ने जिस प्रकार इन्द्र का अभिनन्दन किया था, उसी प्रकार हम शत्रुओं का वध करने वाले आपक अभिनन्दन करते हैं। भरतनन्दन! दुर्योधन के वध के समय हमारे शरीर में जो रोंगटे खड़े हुए थे, वे अब भी ज्यों के त्यों है, गिर नहीं रहे हैं। इन्हें आप देख लें।

      प्रशंसा करने वाले वीरगण वहाँ एकत्र होकर भीमसेन से उपर्युक्त बातें कह रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि पुरुष सिंह पांचाल और पाण्डव अयोग्य बातें कह रहे हैं, तब वे वहाँ उन सबसे बोले,

    श्री कृष्ण ने कहा ;- नरेश्वरों! मरे हुए शत्रु को पुनः मारना उचित नहीं है। तुम लोगों ने इस मन्दबुद्धि दुर्योधन को बारंबार कठोर वचनों द्वारा घायल किया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)

      यह निर्लज पापी तो उसी समय मर चुका था जब लोभ में फंसा और पापियों को अपना सहायक बनाकर सुहृदयों के शासन से दूर रहने लगा। विदुर, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म तथा सृंजयों के बारंबार प्रार्थना करने पर भी इसने पाण्डवों को उनका पैतृक भाग नहीं दिया। यह नराधम अब किसी योग्य नहीं है। न यह किसी का मित्र है ओर न शत्रु। राजाओ! यह तो सूखे काठ के समान कठोर है। इसे कटुवचनों द्वारा अधिक झुकाने की चेष्ठा करने से क्या लाभ? अब शीघ्र अपने रथों पर बैठो। हम सब लोग छावनी की ओर चलें। सौभाग्य से यह पापात्मा अपने मन्त्री, कुटुम्ब और भाई-बन्धुओं सहित मार डाला गया।

     प्रजानाथ! श्रीकृष्ण के मुख से यह आक्षेपयुक्त वचन सुन राजा दुर्योधन अमर्ष के वशीभूत होकर उठा और दोनों हाथ पृथ्वी पर टेककर चूतड़ के सहारे बैठ गया। तत्पश्चात उसने श्रीकृष्ण की ओर भौंहे टेढी करके देखा, उसका आधा शरीर उठा हुआ था। उस समय राजा दुर्योधन का रूप उस कुपित विषधर के समान जान पड़ता था, जो पूँछ कट जाने के कारण अपने आधे शरीर को ही उठाकर देख रहा हो। उसे प्राणों का अन्त कर देने वाली भयंकर वेदना हो रही थी, तो भी उसकी चिन्ता न करते हुए दुर्योधन ने अपने कठोर वचनों द्वारा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण को पीड़ा देना प्रारम्भ किया-

      ओ कंस के दत्तक बेटे! मैं जो गदायुद्ध में अधर्म से मारा गया हूँ, इस कुकृत्य के कारण क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती है? भीमसेन को मेरी जांघें तोड़ डालने का मिथ्या स्मरण दिलाते हुए तुमने अर्जुन से जो कुछ कहा था, क्या वह मुझे ज्ञात नहीं है? सरलता से धर्मानुकूल युद्ध करने वाले सहस्रों भूमिपालों को बहुत-से कुटिल उपायें द्वारा मरवाकर न तुम्हें लज्जा आती है और न इस बुरे कर्म से घृणा ही होती है। जो प्रतिदिन शूरवीरों का भारी संहार मचा रहे थे, उन पितामह भीष्म का तुमने शिखण्डी को आगे रखकर वध कराया। दुर्मते! अश्वत्थामा के सदृश नाम वाले एक हाथी को मारकर तुम लोगों ने द्रोणाचार्य के हाथ से शस्त्र नीचे डलवा दिया था, क्या वह मुझे ज्ञात नहीं है? इस नृशंस धृष्‍टद्युम्न ने पराक्रमी आचार्य को उस अवस्था में मार गिराया, जिसे तुमने अपनी आंखों देखा; किंतु मना नहीं किया। पाण्डूपुत्र अर्जुन के वध के लिये मांगी हुई इन्द्र की शक्ति को तुमने घटोत्कच पर छुड़वा दिया। तुमसे बढ़कर महापापी कौन हो सकता है? बलवान भूरिश्रवा का हाथ कट गया था और वे आमरण अनशन का व्रत लेकर बैठे हुए थे। उस दशा में तुमसे ही प्रेरित होकर महामना सात्यकि ने उनका वध किया। मनुष्यों में अग्रगण्य कर्ण अर्जुन को जीतने की इच्‍छा से उत्तम पराक्रम कर रहा था। उस समय नागराज अश्वसेन को जो कर्ण के बाण के साथ अर्जुन के वध के लिये जा रहा था, तुमने अपने प्रयत्न से विफल कर दिया। फिर जब कर्ण के रथ का पहिया गड्डे में गिर गया और वह उसे उठाने में व्यक्रतापूर्वक संलग्न हुआ, उस समय उसे संकट पीड़ित एवं पराजित जानकर तुम लोगों ने मार गिराया। यदि मेरे, कर्ण के तथा भीष्म और द्रोणाचार्य के साथ मायारहित सरल भाव से तुम युद्ध करते तो निश्चय ही तुम्हारे पक्ष की विजय नहीं होती।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 38-47 का हिन्दी अनुवाद)

     परंतु तुम जैसे अनार्य ने कुटिल मार्ग का आश्रय लेकर स्वधर्म-पालन में लगे हुए हम लोगों का तथा दूसरे राजाओं का भी वध करवाया है। 

     भगवान श्रीकृष्ण बोले ;- गान्धारीनन्दन! तुमने पाप के रास्ते पर पैर रखा था; इसीलिये तुम भाई, पुत्र, बान्धव, सेवक और सुहृद्गणों सहित मारे गये हो। वीर भीष्म और द्रोणाचार्य तुम्हारे दुष्कर्मों से ही मारे गये हैं। कर्ण भी तुम्हारे स्वभाव का ही अनुसरण करने वाला था; इसलिये युद्ध में मारा गया। ओ मूर्ख! तुम शकुनि की सलाह मानकर मेरे माँगने पर भी पाण्डवों को उनकी पैतृक सम्पत्ति, उनका अपना राज्य लोभवश नहीं देना चाहते थे। सुदुर्मते! तुमने जब भीमसेन को विष दिया, समस्त पाण्डवों को उनकी माता के साथ लाक्षागृह में जला डालने का प्रयत्न किया और लिर्नज्ज! दुष्टात्मन! द्यूतक्रीड़ा के समय भी सभा में रजस्वला द्रौपदी को जब तुम लोग घसीट लाये, तभी तुम वध के योग्य हो गये थे। तुमने द्यूतक्रीड़ा के जानकार सुबल पुत्र शकुनि के द्वारा उस कला को न जानने वाले धर्मज्ञ युधिष्ठिर को, छल से पराजित किया था, उसी पाप से तुम रणभूमि में मारे गये हो।

      जब पाण्डव शिकार के लिये तृणविन्दु के आश्रम पर चले गये थे, उस समय पापी जयद्रथ ने वन के भीतर द्रौपदी को जो क्लेश पहुँचाया और पापत्मन! तुम्हारे ही अपराध से बहुत-से योद्धाओं ने मिलकर युद्ध स्थल में जो अकेले बालक अभिमन्यु का वध किया था, इन्हीं सब कारणों से आज तुम भी रणभूमि में मारे गये हो। भीष्म पाण्डवों के अनर्थ की इच्छा रखकर समरभूमि में पराक्रम प्रकट कर रहे थे। उस समय अपने मित्रों के हित के लिये शिखण्डी ने जो उनका वध किया है, वह कोई दोष या अपराध की बात नहीं है। आचार्य द्रोण तुम्हारा प्रिय करने की इच्छा से अपने धर्म को पीछे करके असाधु पुरुषों के मार्ग पर चल रहे थे; अतः युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न ने उनका वध किया है। विद्वान सात्वतवंशी सात्यकि ने अपनी सच्ची प्रतिज्ञा का पालन करने की इच्छा से समरांगण में अपने शत्रु महारथी भूरिश्रवा का वध किया था। राजन! समर भूमि में युद्ध करते हुए पुरुष सिंह अर्जुन कभी किसी प्रकार भी कोई निन्दित कार्य नहीं करते हैं! दुर्मते! अर्जुन ने वीरोचित सदाचार का विचार करके बहुत-से छिद्र (प्रहार करने के अवसर) पाकर भी युद्ध में कर्ण का वध नहीं किया है; अतः तुम उनके विषय में ऐसी बात न कहो। देवताओं का मत जानकर उनका प्रिय और हित करने की इच्छा से मैंने अर्जुन पर महानाग शास्त्र का प्रहार नहीं होने दिया। उसे वि़फल कर दिया। तुम भीष्म, कर्ण, द्रोण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य विराट नगर में अर्जुन की दयालुता से ही जीवित बच गये।

      याद करो, अर्जुन के उस पराक्रम को; जो उन्होंने तुम्हारे लिये उन दिनों गन्धर्वों पर प्रकट किया था। गान्धारीनन्दन! पाण्डवों ने यहाँ तुम्हारे साथ जो बर्ताव किया है, उसमें कौन सा अधर्म है। शत्रुओं को संताप देने वाले वीर पाण्डवों ने अपने बाहुबल का आश्रय लेकर क्षत्रिय-धर्म के अनुसार विजय पायी है। तुम पापी हो, इसीलिये मारे गये हो। तुम जिन्हें हमारे किये हुए अनुचित कार्य बता रहे हो, वे सब तुम्हारे महान दोष से ही किये गये हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 48-63 का हिन्दी अनुवाद)

     तुमने बृहस्पति और शुक्राचार्य के नीति संबंधी उपदेश को नहीं सुना है, बड़े-बूढों की उपासना नहीं की है और उनके हितकर वचन भी नहीं सुने हैं। तुमने अत्यन्त प्रबल लोभ और तृष्णा के वशीभूत होकर न करने योग्य कार्य किये हैं; अतः उनका परिणाम अब तुम्हीं भोगो।

     दुर्योधन ने कहा ;- मैंने विधिपूर्वक अध्ययन किया, दान दिये, समुद्रों सहित पृथ्वी का शासन किया और शत्रुओं के मस्तक पर पैर रखकर मैं ख़ड़ा रहा। मेरे समान उत्तम अन्त (परिणाम) किसका हुआ है। अपने धर्म पर दृष्टि रखने वाले क्षत्रिय-बन्धुओं को जो अभीष्ठ है, वही यह मृत्यु मुझे प्राप्त हुई है; अतः मुझसे अच्छा अन्त और किसका हुआ है। जो दूसरे राजाओं के लिये दुर्लभ हैं, वे देवताओं को ही सुलभ होने वाले मानव भोग मुझे प्राप्त हुए हैं। मैंने उत्तम ऐश्वर्य पा लिया है; अतः मुण्से उत्कृष्ट अन्त और किसका हुआ है? अच्युत! मैं सुहृदों और सेवकों सहित स्वर्ग लोक में जाऊँगा और तुम लोग भग्नमनोरथ होकर शोचनीय जीवन बिताते रहोगे। भीमसेन ने अपने पैर से जो मेरे सिर पर आघात किया है, इसके लिये मुझे कोई खेद नहीं है; क्योंकि अभी क्षणभर के बाद कौए, कंक अथवा गृध्र भी तो इस शरीर पर अपना पैर रखेंगे।

      संजय कहते हैं ;- राजन! बुद्धिमान कुरुराज दुर्योधन की यह बात पूरी होते ही उसके ऊपर पवित्र सुगंधवाले पुष्पों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी। गन्धर्वगण अत्यन्त मनोहर बाजे बजाने लगे और अप्सराएं राजा दुर्योधन के सुयश संबंधी गीत गाने लगी। राजन! उस समय सिद्धगण बोल उठे- बहुत अच्छा, बहुत अच्छा। फिर पवित्र गन्धवाली मनोहर, मृदुल एवं सुखदायक हवा चलने लगी। सारी दिशाओं में प्रकाश छा गया और आकाश नीलम के समान चमक उठा।

    श्रीकृष्ण आदि सब लोग ये अद्भुत बातें और दुर्योधन की यह पूजा देखकर लज्जित हुए। भीष्म, द्रोण, कर्ण और भूरिश्रवा को अधर्म पूर्वक मारा गया सुनकर सब लोग शोक से व्याकुल हो खेद प्रकट करने लगे। पाण्डवों को दीनचित्त एवं चिन्तामग्न देख मेघ और दुन्दुभिं के समान गम्भीर घोष करने वाले श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा,

      श्री कृष्ण ने कहा ;- यह दुर्योधन अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने वाला था, अतः इसे कोई जीत नहीं सकता था और वे भीष्म, द्रोण आदि महारथी भी बड़े पराक्रमी थे। उन्हें धर्मानुकूल सरलता पूर्वक युद्ध के द्वारा आप लोग नहीं मार सकते थे। यह राजा दुर्योधन अथवा वे भीष्म आदि सभी महाधनुर्धर महारथी कभी धर्मयुद्ध के द्वारा नहीं मारे जा सकते थे। आप लोगों का हित चाहते हुए मैंने ही बार-बार माया का प्रयोग करके अनेक उपायों से युद्धस्थल में उन सबका वध किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 64-71 का हिन्दी अनुवाद)

    यदि कदाचित्‌ युद्ध में मैं इस प्रकार कपटपूर्ण कार्य नहीं करता तो फिर तुम्हें विजय कैसे प्राप्त होती, राज्य कैसे हाथ में आता और धन कैसे मिल सकता था? भीष्म, द्रोण, कर्ण और भूरिश्रवा- ये चारों महामना इस भूतल पर अतिरथी के रूप में विख्यात थे। साक्षात्‌ लोकपाल में भी धर्मयुद्ध करके उन सबको नहीं मार सकते थे। यह गदाधारी धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन भी युद्ध से थकता नहीं था, इसे दण्डधारी काल भी धर्मानुकूल युद्ध के द्वारा नहीं मार सकता था। इस प्रकार जो यह शत्रु मारा गया है इसके लिये तुम्हें अपने मन में विचार नहीं करना चाहिये? बहुतेरे अधिक शक्तिशाली शत्रु नाना प्रकार के उपायों और कूटनीति के प्रयोगों द्वारा मारने के योग्य होते हैं। असुरों का विनाश करने वाले पूर्ववर्ती देवताओं ने इस मार्ग का आश्रय लिया है। श्रेष्ठ पुरुष जिस मार्ग से चले हैं, उसका सभी लोग अनुसरण करते हैं। अब हम लोगों का कार्य पूरा हो गया, अतः सायंकाल के समय विश्राम करने की इच्छा हो रही है। राजाओं! हम सब लोग घोड़े, हाथी एवं रथसहित विश्राम करें।

    भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर उस समय पाण्डवों सहित समस्त पांचाल अत्यन्त प्रसन्न हुऐ और सिंहसमुदाय के समान दहाड़ने लगे। पुरुषप्रवर! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण तथा अन्य लोग दुर्योधन को मारा गया देख हर्ष में भरकर अपने-अपने शंख बजाने लगे। श्रीकृष्ण ने पांचजन्य शंख बजाया। प्रसन्नचित अर्जुन ने देवदत्त नामक श्रेष्ठ शंख की ध्वनि की। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्त विजय तथा भयंकर कर्म करने वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महान शंख बजाया। नकुल और सहदेव ने क्रमशः सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये। धृष्टद्युम्न ने जैत्र और सात्यकि ने नन्दिवर्धन नामक शंख की ध्वनि फैलायी। भरतश्रेष्ठ! उन महान शंखों के शब्द से सारा आकाश भर गया और धरती डोलने लगी। तत्पश्चात पाण्डव सेनाओं में शंख, भेरी, पणव, आनक और गोमुख आदि बाजे बजाये जाने लगे। उन सबकी मिली जुली आवाज बड़ी भयानक जान पड़ती थी। उस समय अन्य बहुत-से मनुष्य स्तुति एवं मंगलमय वचनों द्वारा पाण्डवों का स्तवन करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्वके अन्तर्गत गदापर्व में श्रीकृष्ण, पाण्डव और दुर्योधन का संवाद विषयक इकसठवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

बासठवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्डवों का कौरव शिबिर में पहुँचना, अर्जुन के रथ का दग्ध होना और पाण्डवों का भगवान श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजना”

    संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर परिघ के समान मोटी भुजाओं वाले सब नरेश अपना-अपना शंख बजाते हुए शिबिर में विश्राम करने के लिये प्रसन्नतापूर्वक चल दिये। प्रजानाथ! हमारे शिबिर की ओर जाते हुए पाण्डवों के पीछे-पीछे महाधनुर्धर युयुत्सु, सात्यकि, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदी के सभी पुत्र तथा अन्य सब धनुर्धर योद्धा भी उन शिबिरों में गये। तत्पश्चात कुन्ती के पुत्रों ने पहले दुर्योधन के शिबिर में प्रवेश किया। जैसे दर्शकों के चले जाने पर सूना रंगमण्डप शोभाहीन दिखायी देता है, उसी प्रकार जिसका स्वामी मारा गया था, वह शिविर उत्सव शून्य नगर और नागर रहित सरोवर के समान श्रीहीन जान पड़ता था। वहाँ रहने वाले लोगों में अधिकांश स्त्रियां और नपुंसक थे तथा बूढ़े मन्त्री अधिष्ठाता बनकर उस शिबिर का संरक्षण कर रहे थे। राजन! वहाँ दुर्योधन के आगे-आगे चलने वाले सेवकगण मलिन भगवा वस्त्र पहनकर हाथ जोड़े हुए इन पाण्डवों के समक्ष उपस्थित हुए।

     महाराज! कुरुराज के शिबिर में पहुँकर रथियों में श्रेष्ठ पाण्डव अपने रथों से नीचे उतरे। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात सदा अर्जुन के प्रिय एवं हित में तत्पर रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने गाण्डीवधारी अर्जुन से कहा,

     श्री कृष्ण ने कहा ;- 'भरतवंशशिरोमणे! तुम गाण्डीव धनुष को और इन दोनों बाणों से भरे हुए अक्षय तरकसों को उतार लो। फिर स्वयं भी उतर जाओ! इसके बाद मैं उतरूँगा! अनघ! ऐसा करने में ही तुम्हारी भलाई है।' वीर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने वह सब वैसे ही किया। तदनन्तर परम बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण घोड़ों की बागडोर छोड़कर गाण्डीवधारी अर्जुन के रथ से स्वयं भी उतर पड़े। समस्त प्राणियों के ईश्वर परमात्मा श्रीकृष्ण के उतरते ही गाण्डीधारी अर्जुन का ध्वज स्वरूप दिव्य वानर उस रथ से अन्तर्धान हो गया। पृथ्वीनाथ! इसके बाद अर्जुन का वह विशाल रथ, जो द्रोण और कर्ण के दिव्यास्त्रों द्वारा दग्धप्राय हो गया था, तुरंत ही आग से प्रज्वलित हो उठा। गाण्डीवधारी का वहाँ रथ उपासंग, बागडोर, जूआ, बन्धुरकाष्ठ और घोड़ों सहित भस्म होकर भूमि पर गिर पड़ा।

      प्रभो! नरेश्वर! उस रथ को भस्मीभूत हुआ देख समस्त पाण्डव आश्चर्यचकित हो उठे और अर्जुन ने भी हाथ जोड़कर भगवान के चरणों में बारंबार प्रणाम करके प्रेमपूर्वक पूछा,

      अर्जुन ने कहा ;- 'गोविन्द! यह रथ अकस्मात कैसे आग से जल गया? भगवन! यदुनन्दन! यह कैसी महान आश्चर्य की बात हो गयी? महाबाहो! यदि आप सुनने योग्य समझे तो इसका रहस्य मुझे बतावें।' 

     श्रीकृष्ण ने कहा ;- शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन! यह रथ नाना प्रकार के अस्त्रों द्वारा पहले ही दग्ध हो चुका था; परंतु मेरे बैठे रहने के कारण समरांगण में भस्म होकर गिर न सका। कुन्तीनन्दन! आज जब तुम अपना अभीष्ट कार्य पूर्ण कर चुके हो, तब मैंने इसे छोड़ दिया है; इसलिये पहले से ही ब्रह्मास्त्र के तेज से दग्ध हुआ यह रथ इस समय बिखरकर गिर पड़ा है। इसके बाद शत्रुओं का संहार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण किंचित मुस्कराते हुए वहाँ राजा युधिष्ठिर को हृदय से लगाकर कहा,

    श्री कृष्ण ने कहा ;- कुन्तीनन्दन! सौभाग्य से आपकी विजय हुई और सारे शत्रु परास्त हो गये। राजन! गाण्डीवधारी अर्जुन, पाण्डुकुमार भीमसेन, आप और माद्रीपुत्र पाण्डुनन्दन नकुल-सहदेव -ये सब-के-सब सकुशल हैं तथा जहाँ वीरों का विनाश हुआ और तुम्हारे सारे शत्रु काल के गाल में चले गये, उस घोर संग्राम से तुम लोग जीवित बच गये, यह बड़े सौभाग्य की बात है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 23-45 का हिन्दी अनुवाद)

     भरतनन्दन! अब आगे समयानुसार जो कार्य प्राप्त हो उसे शीघ्र कर डालिये। पहले गाण्डीवधारी अर्जुन के साथ जब मैं उपलव्य नगर में आया था; उस समय मेरे लिये मधुपर्क अर्पित करके आपने मुझसे यह बात कही थी कि श्रीकृष्ण! यह अर्जुन तुम्हारा भाई और सखा है। प्रभो! महाबाहो! तुम्हें इसकी सब आपत्तियों से रक्षा करनी चाहिये। आपने जब ऐसा कहा, तब मैंने तथास्तु कहकर वह आज्ञा स्वीकार कर ली थी। जनेश्वर! राजेन्द्र! आपका वह शूरवीर, सत्यपराक्रमी भाई सव्यसाची अर्जुन मेरे द्वारा सुरक्षित रहकर विजयी हुआ है तथा वीरों का विनाश करने वाले इस रोमांचकारी संग्राम से भाइयों सहित जीवित बच गया है।

    महाराज! श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर के शरीर में रोमांच हो आया। वे उनसे इस प्रकार बोले। 

    युधिष्ठिर ने कहा ;- 'शत्रुमर्दन श्रीकृष्ण! द्रोणाचार्य और कर्ण ने जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था, उसे आपके सिवा दूसरा कौन सह सकता था। साक्षात वज्रधारी इन्द्र भी उसका आघात नहीं सह सकते थे। आपकी ही कृपा से संशप्तकगण परास्त हुए हैं और कुन्तीकुमार अर्जुन ने उस महासमर में जो कभी पीठ नहीं दिखायी है, वह भी आपके ही अनुग्रह का फल है। महाबाहो! आपके द्वारा अनेकों बार हमारे कार्यों की सिद्धि हुई है और हमें तेज के शुभ परिणाम प्राप्त हुए हैं। उपलव्य नगर में महर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन ने मुझसे कहा था कि जहाँ धर्म है, वहाँ श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है। भारत! युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर पाण्डव वीरों ने आपके शिविर में प्रवेश करके खजाना, रत्नों की ढेरी तथा भण्डार-घर पर अधिकार कर लिया। चांदी, सोना, मोती, मणि, अच्छे-अच्छे आभूषण, कम्बल (कालीन), मृगचर्म, असंख्य दास-दासी तथा राज्य के बहुत से सामान उनके हाथ लगे। भरतश्रेष्ठ! नरेश्वर! आपके धन का अक्षय भण्डार पाकर शत्रुविजयी महाभाग पाण्डव जोर-जोर से हर्षध्वनि करने लगे। वे सारे वीर अपने वाहनों को खेलकर वहीं विश्राम करने लगे। समस्त पाण्डव और सात्यकि वहाँ एक साथ बैठे हुए थे।

    महाराज! तदनन्तर महायशस्वी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने कहा,

    श्री कृष्ण ने कहा ;- आज की रात में हम लोगों को अपने मंगल के लिये शिविर से बाहर ही रहना चाहिये। तब बहुत अच्छा कहकर समस्त पाण्डव और सात्यकि श्रीकृष्ण के साथ अपने मंगल के लिये छावनी से बाहर चले गये। नरेश्वर! जिनके शत्रु मारे गये थे, उन पाण्डवों ने उस रात में पुण्यसलिला ओघवती नदी के तट पर जाकर निवास किया। तब राजा युधिष्ठिर ने वहाँ समयोचित कार्य का विचार किया और कहा,

     युधिष्ठिर ने कहा ;- शत्रुदमन माधव! एक बार क्रोध से जलती हुई गान्धारी देवी को शान्त करने के लिये आपका हस्तिनापुर में जाना उचित जान पड़ता है। महाभाग! आप युक्ति और कारणों सहित समयोचित बातें कहकर गांधारी देवी को शीघ्र ही शान्त कर सकेंगे। हमारे पितामह भगवान व्यास भी इस समय वहीं होंगे;

      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर पाण्डवों ने यदुकुलतिलक भगवान श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजा। प्रतापी वासुदेव दारुक को रथ पर बिठाकर स्वयं भी बैठे और जहाँ अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र थे, वहाँ पहुँचने के लिये बड़े वेग से चले। शैव्य और सुग्रीव नामक अश्व जिनके वाहन हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण के जाते समय पाण्डवों ने फिर उनसे कहा,

    पांडवों ने कहा ;- प्रभो! यशस्विनी गान्धारी देवी के पुत्र मारे गये हैं; अतः आप उस दुखिया माता को धीरज बंधावें। पाण्डवों के ऐसा कहने पर सात्वत वंश के श्रेष्ठ पुरुष भगवान श्रीकृष्ण जिनके पुत्र मारे गये थे, उन गान्धारी देवी के पास हस्तिनापुर में शीघ्र जा पहुँचे।

(इस प्रकार श्री महाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदापर्व में पाण्डवों का भगवान श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजनाविषयक बासठवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

तिरेसठवाँ अध्याय 

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर की प्रेरणा से श्रीकृष्‍ण का हस्तिनापुर में जाकर धृतराष्ट्र और गांधारी को आश्वासन दे पुन: पाण्‍डवों के पास लौट आना”

    जनमेजय ने पूछा ;- द्विजश्रेष्ठ! धर्मराज युधिष्ठिर ने शत्रुसंतापी भगवान श्रीकृष्ण को गान्धारी देवी के पास किसलिये भेजा? जब पूर्वकाल में श्रीकृष्ण संधि कराने के लिये कौरवों के पास गये थे, उस समय तो उन्हें उनका अभीष्ट मनोरथ प्राप्त ही नहीं हुआ, जिससे यह युद्ध उपस्थित हुआ। ब्रह्मन! जब युद्ध में सारे योद्धा मारे गये, दुर्योधन का भी अन्त हो गया, भूमण्डल में पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के शत्रुओं का सर्वथा अभाव हो गया, कौरव दल के लोग शिवि को सूना करके भाग गये और पाण्डवों के उस यश की प्राप्ति हो गयी, तब कौन-सा ऐसा कारण आ गया, जिससे श्रीकृष्ण पुनः हस्तिनापुर में गये? प्रियवर! मुझे इसका कोई छोटा मोटा कारण नहीं जान पड़ता, जिससे अप्रमेयस्वरूप साक्षात भगवान जनार्दन को ही जाना पड़ा। यजुर्वेदीय विद्वानों में श्रेष्ठ ब्राह्मणदेव! इस कार्य का निश्चय करने में जो भी कारण हो, वह सब यथार्थ रूप से मुझे बताइये।

     वैशम्पायन जी ने कहा ;- भरतकुलभूषण नरेश! तुमने जो प्रश्न किया है, वह सर्वथा उचित है। तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब मैं तुझे यथार्थ रूप से बताऊँगा। राजन! भरतवंशी! धृतराष्ट्रपुत्र महाबली दुर्योधन को भीमसेन ने युद्ध में उसके नियम का उल्लंघन करके मारा है। वह गदा युद्ध के द्वारा अन्यायपूर्वक मार गया है। इन सब बातों पर दृष्टिपात करके युधिष्ठिर के मन में बड़ा भारी भय समा गया। वे घोर तपस्या से युक्त महाभागा तपस्विनी गान्धारी देवी का चिन्तन करने लगे। उन्होंने सोचा गान्धारी देवी कुपित होने पर तीनों लोकों को जलाकर भस्म कर सकती हैं। इस प्रकार चिन्ता करते हुए राजा युधिष्ठिर के हृदय में उस समय यह विचार हुआ कि पहले क्रोध से जलती हुई गान्धारी को शान्त कर देना चाहिये। वे हम लोगों के द्वारा इस तरह पुत्र का वध किया गया सुनकर कुपित हो अपने संकल्पजनित अग्नि से हमें भस्म कर डालेंगी। उनका पुत्र सरलता से युद्ध कर रहा था; परंतु छल से मारा गया। यह सुनकर गान्धारी देवी इस तीव्र दुःख को कैसे सह सकेगीं? इस तरह अनेक प्रकार से विचार करके धर्मराज युधिष्ठिर भय और शोक में डूब गये और वसुदेव नन्दन भगवान श्रीकृष्ण से बोले,

     युधिष्ठिर ने कहा ;- गोविन्द! अच्युत! जिसे मन के द्वारा भी प्राप्त करना असम्भव था, वही यह अकण्टक राज्य हमें आपकी कृपा से प्राप्त हो गया। यादवनन्दन! महाबाहो! इस रोमांचकारी संग्राम में जो महान विनाश प्राप्त हुआ था, वह सब आपने प्रत्यक्ष देखा था। पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम के अवसर पर जैसा आपने देवद्रोही दैत्यों के वध के लिये देवताओं की सहायता की थी, जिससे वे सारे देवशत्रु मारे गये, महाबाहु अच्युत! उसी प्रकार इस युद्ध में आपने हमें सहायता प्रदान की है। वृष्णिनन्दन! आपने सारथि का कार्य करके हम लोगों को बचा लिया। यदि आप इस महासमर में अर्जुन के स्वामी और सहायक न होते तो युद्ध में इस कौरव-सेनारूपी समुद्र पर विजय पाना कैसे सम्भव हो सकता था?

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)

    श्रीकृष्ण! आपने हम लोगों के लिये गदाओं के बहुत-से आघात सहे, परिघों की मार खायी; शक्ति, भिन्दिपाल, तोमर और फरसों की चोटें सहन कीं तथा बहुत-सी कठोर बातें सुनीं। आपके ऊपर रणभूमि में ऐसे-ऐसे शस्त्रों के प्रहार हुए, जिनका स्पर्श वज्र के तुल्य था। अच्युत! दुर्योधन के मारे जाने पर वे सारे आघात सफल हो गये। श्रीकृष्ण! अब ऐसा कीजिये, जिससे वह सारा किया-कराया कार्य फिर नष्ट न हो जाय। श्रीकृष्ण! आज विजय हो जाने पर भी हमारा मन संदेह के झूला पर झूल रहा है। महाबाहु माधव! आप गान्धारी देवी के क्रोध पर तो ध्यान दीजिये। महाभागा गान्धारी प्रतिदिन उग्र तपस्या से अपने शरीर को दुर्बल करती जा रही हैं। वे पुत्रों और पौत्रों का वध हुआ सुनकर निश्चय ही हमें जला डालेंगी। वीर! अब उन्‍हें प्रसन्न करने का कार्य ही मुझे समयोचित जान पड़ता हैं। पुरुषोत्तम! आपके सिवा दूसरा कौन ऐसा पुरुष है, जो पुत्रों के शोक से दुर्बल हो क्रोध से लाल आंखें करके बैठी हुई गान्धारी देवी की ओर आंख उठाकर देख सके। शत्रुओं का दमन करने वाले माधव! इस समय क्रोध से जलती हुई गान्धारी देवी को शान्त करने के लिये आपका वहाँ जान ही मुझे उचित जान पड़ता है। महाबाहो! आप सम्पूर्ण लोकों के स्रष्टा और संहारक हैं। आप ही सबकी उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। आप युक्ति और कारणों से संयुक्त समयोचित वचनों द्वारा गान्धारी देवी को शीघ्र ही शान्त कर देंगे। हमारे पितामह श्रीकृष्ण द्वैपायन भगवान व्यास भी वहीं होंगे। महाबाहो! सात्वत वंश के श्रेष्ठ पुरुष! आप पाण्डवों के हितैषी हैं। आपको सब प्रकार से गान्धारी देवी के क्रोध को शान्त कर देना चाहिये।

   धर्मराज की यह बात सुनकर यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण ने दारुक को बुलाकर कहा,

    श्री कृष्ण ने कहा ;- रथ तैयार करो। केशव का यह आदेश सुनकर दारुक ने बड़ी उतावली के साथ रथ को सुसज्जित किया और उन महात्मा को इसकी सूचना दी। शत्रुओं को संताप देने वाले यादव श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण तुरंत ही उस रथ पर आरूढ़ हो हस्तिनापुर की ओर चल दिये। महाराज! पराक्रमी भगवान माधव उस रथ पर बैठकर हस्तिनापुर में जा पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने नगर में प्रवेश किया। नगर में प्रविष्ट होकर वीर श्रीकृष्ण अपने रथ के गम्भीर घोष से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करने लगे। धृतराष्ट्र को उनके आगमन की सूचना दी गयी और वे अपने उत्तम रथ से उतरकर मन में दीनता न लाते हुए धृतराष्ट्र के महल में गये। वहाँ उन्होंने मुनि श्रेष्ठ व्यास जी को पहले से ही उपस्थित देखा। व्यास तथा राजा धृतराष्ट्र दोनों के चरण दबाकर जनार्दन श्रीकृष्ण ने बिना किसी व्यग्रता के गान्धारी देवी को प्रणाम किया। राजेन्द्र! तदनन्तर यादवश्रेष्ठ श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र का हाथ अपने हाथ में लेकर उन्मुक्त स्वर से फूट-फूटकर रोने लगे। उन्होंने दो घड़ी तक शोक के आंसू बहाकर शुद्ध जल से नेत्र धोये और विधिपूर्वक आचमन किया। तत्पश्चात शत्रुदमन श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र से प्रस्तुत वचन कहा,

    श्री कृष्ण ने कहा ;- भारत! आप वृद्ध पुरुष हैं; अतः काल के द्वारा जो कुछ भी संघटित हुआ और हो रहा है, वह कुछ भी आपसे अज्ञात नहीं है। प्रभो! आपको सब कुछ अच्छी तरह विदित है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 41-58 का हिन्दी अनुवाद)

     भारत! समस्त पाण्डव सदा से ही आपकी इच्छा के अनुसार बर्ताव करने वाले हैं। उन्होंने बहुत प्रयत्न किया कि किसी तरह हमारे कुल का तथा क्षत्रिय समूह का विनाश न हो। धर्मवत्सल युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ नियत समय की प्रतीक्षा करते हुए सारा कष्ट चुपचाप सहन किया था। पाण्डव शुद्ध भाव से आपके पास आये थे तो भी उन्‍हें कपटपूर्वक जुएं में हराकर वनवास दिया गया। उन्होंने नाना प्रकार के वेशों में अपने को छिपाकर अज्ञातवास का कष्ट भोगा। इसके सिवा और भी बहुत-से क्लेश उन्हें असमर्थ पुरुषों के समान सदा सहन करने पड़े हैं। जब युद्ध का अवसर उपस्थित हुआ, उस समय मैंने स्वयं आकर शान्ति स्थापित करने के लिये सब लोगों के सामने आपसे केवल पांच गांव मांगे थे। परंतु काल से प्रेरित हो आपने लोभवश वे पांच गांव भी नहीं दिये। नरेश्वर! आपके अपराध से समस्त क्षत्रियों का विनाश हो गया। भीष्म, सोमदत्त, बाह्लीक, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा और बुद्धिमान विदुर जी ने भी सदा आपसे शान्ति के लिये याचना की थी; परंतु आपने यह कार्य नहीं किया। भारत! जिनका चित्त काल के प्रभाव से दूषित हो जाता है, वे सब लोग मोह में पड़ जाते हैं। जैसे कि पहले युद्ध की तैयारी के समय आपकी भी बुद्धि मोहित हो गयी थी। इसे कालयोग के सिवा और क्या कहा जा सकता है? भाग्य ही सबसे बड़ा आश्रय है। महाप्राज्ञ! आप पाण्डवों पर दोषारोपण न कीजियेगा।

       परंतप! धर्म, न्याय और स्नेह की दृष्टि से महात्मा पाण्डवों का इसमें थोड़ा-सा भी अपराध नहीं है। यह सब अपने ही अपराधों का फल है, ऐसा जानकर आपको पाण्डवों के प्रति दोषदृष्टि नहीं करनी चाहिए। अब तो आपका कुल और वंश पाण्डवों से ही चलने वाला है। नाथ! आपको और गांधारी देवी को पिण्डा-पानी तथा पुत्र से प्राप्त होने वाला सारा फल पाण्डवों से ही मिलने वाला है। उन्हीं पर यह सब कुछ अवलम्बित है। कुरुप्रवर! पुरुषसिंह! आप और यशस्वी गांधारी देवी कभी पाण्डवों की बुराई करने की बात न सोचें। भरतश्रेष्ठ! इन सब बातों तथा अपने अपराधों का चिन्तन करके आप पाण्डवों के प्रति कल्याण-भावना रखते हुए उनकी रक्षा करें। आपको नमस्कार है। महाबाहो! भरतवंश के सिंह! आप जानते हैं कि धर्मराज युधिष्ठिर के मन में आपके प्रति कितनी भक्ति और कितना स्वाभाविक स्नेह है। अपने अपराधी शत्रुओं का ही यह संहार करके वे दिन-रात शोक की आग में जलते हैं, कभी चैन नहीं पाते हैं। पुरुषसिंह! आप और यशस्विनी गांधारी देवी के लिये निरन्तर शोक करते हुए नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर को शान्ति नहीं मिल रही है। आप पुत्र शोक से सर्वथा संतप्त है। आपकी बुद्धि और इन्द्रियां शोक से व्याकुल हैं। ऐसी दशा में वे अत्यन्त लज्जित होने के कारण आपके सामने नहीं आ रहे हैं। महाराज! यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण राजा धृतराष्ट्र से ऐसा कहकर शोक से दुर्बल हुई गांधारी देवी से यह उत्तम वचन बोले,-

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 59-78 का हिन्दी अनुवाद)

     श्री कृष्ण ने कहा ;- सुबलनन्दिनि! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो और समझो। शुभे! इस संसार में तुम्हारी जैसी तपोबल सम्पन्न स्त्री दूसरी कोई नहीं है। रानी! तुम्हें याद होगा, उस दिन सभा में मेरे सामने ही तुमने दोनों पक्षों का हित करने वाला धर्म और अर्थयुक्त वचन कहा था, किंतु कल्याणि! तुम्हारे पुत्रों ने उसे नहीं माना। तुमने विजय की अभिलाषा रखने वाले दुर्योधन को सम्बोधित करके उससे बड़ी रूखाई के साथ कहा था,- 'ओ मूढ़! मेरी बात सुन ले, जहाँ धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है।' कल्याणकारी राजकुमारी! तुम्हारी वही बात आज सत्य हुई है, ऐसा समझकर तुम मन में शोक न करो। पाण्डवों के विनाश का विचार तुम्हारे मन में कभी नहीं आना चाहिए। महाभागे! तुम अपनी तपस्या के बल से क्रोधभरी दृष्टि द्वारा चराचर प्राणियोंसहित समूची पृथ्वी को भस्म कर डालने की शक्ति रखती हो। भगवान श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर गांधारी ने कहा,
     गांधारी ने कहा ;- महाबाहु केशव! तुम जैसा कहते हो, वह बिल्कुल ठीक है। अब तक मेरे मन में बड़ी व्यथाएं थीं और उन व्यथाओं की आग से दग्ध होने के कारण मेरी बुद्धि विचलित हो गयी थी (अतः मैं पाण्डवों के अनिष्ट की बात सोचने लगी थी); परंतु जनार्दन! इस समय तुम्हारी बात सुनकर मेरी बुद्धि स्थिर हो गयी है- क्रोध का आवेश उतर गया है। मनुष्यों में श्रेष्ठ केशव! ये राजा अन्धे और बूढ़े हैं तथा इनके सभी पुत्र मारे गये हैं। अब समस्त वीर पाण्डवों के साथ तुम्हीं इनके आश्रयदाता हो। इतनी बात कहकर पुत्र शोक से संतप्त हुई गांधारी देवी अपने मुख को आंचल से ढककर फूट-फूटकर रोने लगीं। तब महाबाहु भगवान केशव ने शोक से दुर्बल हुई गांधारी को कितने ही कारण बताकर युक्तियुक्त वचनों द्वारा आश्वासन दिया-धीरज बंधाया।
      गांधारी और धृतराष्ट्र को सान्त्वना दे माधव श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के मन में जो भीषण संकल्प हुआ था, उसका स्मरण किया। राजेन्द्र! तदनन्तर वे सहसा उठकर खड़े हो गये और व्यास जी के चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम करके कुरुवंशी धृतराष्ट्र से बोले- कुरुश्रेष्ठ! अब मैं आपसे जाने की आज्ञा चाहता हूँ। अब आप अपने मन को शोकमग्न न कीजिये। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के मन में पापपूर्ण संकल्प उदित हुआ है। इसीलिये मैं सहसा उठ गया हूँ। उसने रात को सोते समय पाण्डवों के वध का विचार किया है। यह सुनकर गांधारी सहित महाबाहु धृतराष्ट्र ने केशिहन्ता केशव से कहा- महाबाहु जनार्दन! आप शीघ्र जाइये और पाण्डवों की रक्षा कीजिये। मैं पुनः शीघ्र ही आपसे मिलूंगा। तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण दारुक के साथ वहाँ से शीघ्र चल दिये। राजन! श्रीकृष्ण के चले जाने पर अप्रमेयस्वरूप विश्ववन्दित भगवान व्यास ने राजा धृतराष्ट्र को सान्तवना दी। नरेश्वर! इधर धर्मात्मा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण कृतकृत्य हो हस्तिनापुर से पाण्डवों को देखने के लिये शिबिरों में लौट आये। शिविर में आकर रात में वे पाण्डवों से मिले और उनसे सारा समाचार कहकर उन्हीं के साथ सावधान होकर रहे।

(इस प्रकार श्री महाभारत शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व में धृतराष्ट्र और गान्धारी का श्रीकृष्ण को आश्वासन देना विषयक तिरसठवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

चौसठवाँ अध्याय 


(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन का संजय के सम्मुख विलाप और वाहकों द्वारा अपने साथियों को संदेश भेजना”

     धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! जब जाँघें टूट जाने के कारण मेरा पुत्र पृथ्वी पर गिर पड़ा और भीमसेन ने उसके मस्तक पर पैर रख दिया, तब उसने क्या कहा? उसे अपने बल पर बड़ा अभिमान था। राजा दुर्योधन अत्यन्त क्रोधी तथा पाण्डवों से वैर रखने वाला था। उस युद्ध भूमि में जब वह बड़ी भारी विपत्ति में फँस गया, तब क्या बोला?
       संजय ने कहा ;- राजन! सुनिये। नरेश्वर! उस भारी संकट में पड़ जाने पर टूटी जाँघ वाले राजा दुर्योधन ने जो कुछ कहा था वह सब वृतान्त यथार्थ रूप से बता रहा हूँ। राजन! जब कौरव-नरेश की जाँघें टूट गयीं, तब वह धरती पर गिरकर धूल में सन गया। फिर बिखरे हुए बालों को समेटता हुआ वहाँ दसों दिशाओं की ओर देखने लगा। बड़े प्रयत्न से अपने बालों को बाँधकर सर्प के समान फुफकारते हुए उसने रोष और आँसुओं से भरे हुए नेत्रों द्वारा मेरी ओर देखा। इसके बाद दोनों भुजाओं को पृथ्वी पर रगड़कर मदोन्मत गजराज के समान अपने बिखरे केशों को हिलाता, दाँतों से दाँतों को पीसता तथा ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर की निन्दा करता हुआ, वह उच्छ्वास ले इस प्रकार बोला,-
    दुर्योधन बोला ;- शान्तनुनन्दन भीष्म, अस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण, कृपाचार्य, शकुनि, अस्त्रधारियों में सर्वश्रेष्ठ द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, शूरवीर शल्य तथा कृतवर्मा मेरे रक्षक थे तो भी मैं इस दशा को आ पहुँचा। निश्चय ही काल का उल्लंघन करना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन है। महाबाहो! मैं एक दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेना का स्वामी था; परंतु आज इस दशा में आ पड़ा हूँ। वास्तव में काल को पाकर कोई उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। मेरे पक्ष के वीरों में से जो लोग इस युद्ध में जीवित बच गये हों, उन्हें यह बताना कि भीमसेन ने किस तरह गदायुद्ध के नियम का उल्लंघन करके मुझे मारा। पाण्डवों ने भूरिश्रवा, कर्ण, भीष्म तथा श्रीमान द्रोणाचार्य के प्रति बहुत से नृशंस कार्य किये हैं। उन क्रूरकर्मा पाण्डवों ने यह भी अपनी अकीर्ति फैलाने वाला कर्म ही किया है, जिससे वे साधु पुरुषों की सभी में पश्चात्ताप ही करेंगे; ऐसा मेरा विश्वास है। छल से विजय पाकर किसी सत्त्वगुणी या शक्तिशाली पुरुष को क्या प्रसन्नता होगी? अथवा जो युद्ध के नियम को भंग कर देता है, उसका सम्मान कौन विद्वान कर सकता है? अधर्म से विजय प्राप्त करके किस बुद्धिमान पुरुष को हर्ष होगा? जैसा कि पापी पाण्डु पुत्र भीमसेन को हो रहा है।
      आज जब मेरी जाँघें टूट गयी हैं; ऐसी दशा में कुपित हुए भीमसेन ने मेरे मस्तक को जो पैर से ठुकराया है, इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है? संजय! जो अपने तेज से तप रहा हो, राजलक्ष्मी से सेवित हो और अपने सहायक बन्धुओं के बीच में विद्यमान हो, ऐसे शत्रु के साथ जो उक्त बर्ताव करे, वही वीर पुरुष सम्मानित होता है (मरे हुए को मारने में क्या बड़ाई है)। मेरे माता-पिता युद्ध धर्म के ज्ञाता है। वे दोनों मेरी मृत्यु का समाचार सुनकर दुःख से आतुर हो जायेंगे। तुम मेरे कहने से उन्हें यह संदेश देना कि मैंने यज्ञ किये, जो भरण-पोषण करने योग्य थे, उनका पालन किया और समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का अच्छी तरह शासन किया। संजय! मैंने जीवित शत्रुओं के ही मस्तक पर पैर रखा। यथाशक्ति धन का दान और मित्रों का प्रिय किया। साथ ही सम्पूर्ण शत्रुओं को सदा ही क्लेश पहुँचाया। संसार में कौन ऐसा पुरुष है, जिसका अन्त मेरे समान सुन्दर हुआ हो। मैंने सभी बन्धु-बान्धवों को सम्मान दिया। अपनी आज्ञा के अधीन रहने वाले लोगों का सत्कार किया और धर्म, अर्थ एवं काम सबका सेवन कर लिया। मेरे समान सुन्दर अन्त किसका हुआ होगा? बड़े-बड़े राजाओं पर हुक्म चलाया, अत्यन्त दुर्लभ सम्मान प्राप्त किया तथा आजानेय (अरबी) घोड़ों पर सवारी की, मुझसे अच्छा अन्त और किसका हुआ होगा?

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 22-43 का हिन्दी अनुवाद)

     दूसरे राष्ट्रों पर आक्रमण किया और कितने ही राजाओं से दास की भाँति सेवाएँ लीं। जो अपने प्रिय व्यक्ति थे, उनकी सदा ही भलाई की। फिर मुझसे अच्छा अन्त किसका हुआ होगा? विधिवत वेदों का स्वाध्याय किया, नाना प्रकार के दान दिये और रोग रहित आयु प्राप्त की। इसके सिवा, मैंने अपने धर्म के द्वारा पुण्य लोकों पर विजय पायी है। फिर मेरे समान अच्छा अन्त और किसका हुआ होगा? सौभाग्य की बात है कि मैं न तो युद्ध में कभी पराजित हुआ और न दास की भाँति कभी शत्रुओं की शरण ली। सौभाग्य से मेरे अधिकार में विशाल राजलक्ष्मी रही है, जो मेरे मरने के बाद ही दूसरे के हाथ में गयी है। अपने धर्म का पालन करने वाले क्षत्रिय-बन्धुओं को जो भी अभीष्ट है, वैसी ही मृत्यु मुझे प्राप्त हुई है; अतः मुझसे अच्छा अन्त और किसका हुआ होगा? हर्ष की बात है कि मैं युद्ध में पीठ दिखाकर भागा नहीं। निम्न श्रेणी के मनुष्य की भाँति हार मानकर वैर से कभी पीछे नहीं हटा तथा कभी किसी दुर्विचार का आश्रय लेकर पराजित नहीं हुआ- यह भी मेरे लिये गौरव की बात है। जैसे कोई सोये अथवा पागल हुए मनुष्य को मार दे या धोखे से जहर देकर किसी की हत्या कर डाले, उसी प्रकार धर्म का उल्लंघन करने वाले पापी भीमसेन ने गदायुद्ध की मर्यादा का उल्लंघन करके मुझे मारा है। महाभाग अश्वत्थामा, सात्वतवंशी कृतवर्मा तथा शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य- इन सबको मेरी यह बात सुना देना। पाण्डवों ने अधर्म में प्रवृत होकर अनेकों बार युद्ध की मर्यादा तोड़ी है; अतः आप लोग कभी उनका विश्वास न करें।
        इसके बाद आपके सत्यपराक्रमी पुत्र राजा दुर्योधन ने संदेश वाहक दूतों से इस प्रकार कहा,
     दुर्योधन ने कहा ;- भीमसेन ने रणभूमि में अधर्म से मेरा वध किया है। अब मैं स्वर्ग में गये हुए द्रोणाचार्य, कर्ण, शल्य, महापराक्रमी वृषसेन, सुबलपुत्र शकुनि, महाबली जलसन्ध, राजा भगदत्त, महाधनुर्धर सोमदत्त, सिंधुराज जयद्रथ, अपने ही समान पराक्रमी दुःशासन आदि बन्धुगण, विक्रमशाली दुःशासनकुमार और अपने पुत्र लक्ष्मण- इन सबके तथा और भी जो बहुत से मेरे पक्ष के सहस्रों योद्धा मारे गये हैं, उन सबके पीछे मैं स्वर्ग में जाऊँगा। मेरी दशा उस पथिक के समान है, जो अपने साथियों से बिछुड़ गया हो। हाय! अपने भाइयों और पति की मृत्यु का समाचार सुनकर दुःख से आतुर हो अत्यन्त रोदन करती हुई मेरी बहिन दुःशला की क्या दशा होगी? पुत्रों और पौत्रों की बिलखती हुई बहुओं के साथ मेरे बूढ़े पिता राजा धृतराष्ट्र माता गान्धारी सहित किस अवस्था को पहुँच जायेंगे? निश्चय ही जिसके पति और पुत्र मारे गये हैं; वह कल्याणमयी विशाललोचना लक्ष्मण की माता भी सारा समाचार सुनकर तुरंत ही प्राण दे देगी। संन्यासी के वेष में सब ओर घूमने वाले प्रवचन कुशल चार्वाक को यदि मेरी दशा ज्ञात हो जायेगी तो वे महाभाग निश्चय ही मेरे वैर का बदला लेंगे। तीनों लोकों में विख्यात पुण्यमय समन्तपंचक क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त होकर अब मैं सनातन लोकों में जाऊँगा।
      मान्यवर! राजा दुर्योधन का यह विलाप सुनकर हजारों मनुष्यों की आंखों में आँसू आये और वे दसों दिशाओं में भाग चले। उस समय समुद्र, वन और चराचर प्राणियों सहित यह पृथ्वी भयानक रूप से हिलने लगी। सब ओर वज्र की-सी गर्जना होने लगी और सारी दिशाएं मलिन हो गयी। उन संदेश वाहकों ने आकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा से यथावत समाचार कह सुनाया। भारत! गदायुद्ध में भीमसेन का जैसा व्यवहार हुआ तथा राजा को जिस प्रकार धराशायी किया गया, वह सारा वृतान्त द्रोण पुत्र को बताकर दुःख से संतप्त हो वे बहुत देर तक चिन्ता में डूबे रहे। फिर शोक से व्याकुल-चित्त एवं आर्त होकर जैसे आये थे, वैसे चले गये।

(इस प्रकार श्री महाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदापर्व में दुर्योधन का विलापविषयक चौसठवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (गदा पर्व)

पैसठवाँ अध्याय 


(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन की दशा देखकर अश्वत्थामा का विषाद, प्रतिज्ञा और सेनापति के पद पर अभिषेक”

     संजय कहते हैं ;- राजन! संदेश वाहकों के मुख से दुर्योधन के मारे जाने का समाचार सुनकर मरने से बचे हुए कौरव महारथी अश्वत्थामा, कृपाचार्य और सात्वतवंशी कृतवर्मा- जो स्वयं भी तीखे बाण, गदा, तोमर और शक्तियों के प्रहार से विशेष घायल हो चुके थे, तेज चलने वाले घोड़ों से जुते हुए रथ पर सवार हो तुरंत ही युद्ध भूमि में आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि महामनस्वी धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन मार गिराया गया है, मानो वन में कोई विशाल शाल वृक्ष वायु के वेग से टूट कर धराशयी हो गया हो। खून से लथपथ हो दुर्योधन पृथ्वी पर पड़ा छटपटा रहा था, मानो जंगल में किसी व्याघ्र ने बहुत बड़े हाथी को मार गिराया हो। रक्त की धारा में डूबा हुआ वह बारंबार करवटें बदल रहा था। जैसे दैवेच्छा से सूर्य का चक्र गिर पड़ा हो, बहुत बड़ी आँधी चलने से समुद्र सूख गया हो, आकाश में पूर्ण चन्‍द्रमण्डल पर कुहरा छा गया हो; वही दशा उस समय दुर्योधन की हुई थी। मतवाले हाथी के समान पराक्रमी और विशाल भुजाओं वाला वह वीर धूल में सन गया था। जैसे धन चाहने वाले भृत्यगण किसी श्रेष्ठ राजा को घेरे रहते हैं, उसी प्रकार भयंकर मांसभक्षी भूतों ने चारों ओर से उसे घेर रखा था। सके मुँह पर भौंहें तनी हुई थीं, आँखें क्रोध से चढ़ी हुई थीं और गिरे हुए व्याघ्र के समान वह नरश्रेष्ठ वीर अमर्ष में भरा हुआ दिखायी देता था। महाधनुर्धर राजा दुर्योधन को पृथ्वी पर पड़ा हुआ देख कृपाचार्य आदि सभी महारथी मोह के वशीभूत हो गये। वे अपने रथों से उतरकर राजा के पास दौड़े गये और दुर्योधन को देखकर सब लोग उसके पास ही जमीन पर बैठ गये।
      महाराज! उस समय अश्वत्थामा की आंखों में आँसू भर आये। वह सिसकता हुआ सम्पूर्ण जगत के राजाधिराज भरत श्रेष्ठ दुर्योधन से इस प्रकार बोला,
      अश्वत्थामा बोला ;- पुरुष सिंह! निश्चय ही इस मनुष्य लोक में कुछ भी सत्य नहीं है, सभी नाशवान्‌ है, जहाँ तुम्हारे-जैसा राजा धूल में सना हुआ लोट रहा है। राजेन्द्र! तुम पहले सम्पूर्ण जगत के मनुष्यों पर आधिपत्य रखकर सारे भूमण्डल पर हुक्म चलाते थे। वही तुम आज अकेले इस निर्जन वन में कैसे पड़े हुए हो। भरतश्रेष्ठ! न तो मैं दुःशासन को देखता हूँ और न महारथी कर्ण को। अन्य सब सुहृदों का भी मुझे दर्शन नहीं हो रहा है, यह क्या बात है? निश्चय ही काल और लोकों की गति को जानना किसी प्रकार भी कठिन ही है, जिसके अधीन होकर आप धूल में सने हुए पड़े हैं। अहो। ये मूर्धाभिषिक्‍त राजाओं के आगे चलने वाले शत्रुसंतापी महाराज दुर्योधन तिनकों सहित धूल फाँक रहे हैं। यह काल का उलट फेर तो देखो। नृपश्रेष्ठ! महाराज! कहाँ है आपका वह निर्मल छत्र, कहाँ है व्यजन और कहाँ गयी आपकी वह विशाल सेना? किस कारण से कौन-सा कार्य होगा, इसको समझ लेना निश्चय ही बहुत कठिन है; क्योंकि सम्पूर्ण जगत के आदरणीय नरेश होकर भी आज तुम इस दशा को पहुँच गये। तुम तो अपनी साम्राज्‍य-लक्ष्मी के द्वारा इन्द्र की समानता करने वाले थे। आज तुम पर भी यह संकट आया हुआ देख-कर निश्चय हो गया कि किसी भी मनुष्य की सम्पत्ति सदा स्थिर नहीं देखी जा सकती।
      राजन! अत्यन्त दुखी हुए अश्वत्थामा की वह बात सुनकर आपके पुत्र राजा दुर्योधन के नेत्रों से शोक के आँसू बहने लगे। उसने दोनों हाथों से नेत्रों को पोंछा और कृपाचार्य आदि समस्त वीरों से यह समयोचित वचन कहा,
     दुर्योधन ने कहा ;- मित्रो! इस मर्त्यलोक का ऐसा ही धर्म (नियम) है। विधाता ने ही इसका निर्देश किया है, ऐसा कहा जाता है; इसलिये कालक्रम से एक-न-एक दिन सम्पूर्ण प्राणियों के विनाश की घड़ी आ ही जाती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 24-46 का हिन्दी अनुवाद)

     वही यह विनाश का समय अब मुझे भी प्राप्त हुआ है, जिसे आप लोग प्रत्यक्ष देख रहे हैं। एक दिन मैं सारी पृथ्वी का पालन करता था और आज इस अवस्था को पहुँच गया हूँ। तो भी मुझे इस बात की खुशी है कि कैसी ही आपत्ति क्यों न आयी, मैं युद्ध में कभी पीछे नहीं हटा। पापियों ने मुझे मारा भी तो छल से। सौभाग्यवश मैंने रणभूमि में जूझने की इच्छा रखकर सदा ही उत्साह दिखाया है और भाई-बन्धुओं के मारे जाने पर स्वयं भी युद्ध में ही प्राण-त्याग कर रहा हूँ, इससे मुझे विशेष संतोष है। सौभाग्य की बात है कि मैं आप लोगों को इस प्रकार नरसंहार से मुक्ती देख रहा हूँ। साथ ही आपलोग सकुशल एवं कुछ करने में समर्थ हैं- यह मेरे लिये और भी उत्त‍म एवं प्रसन्नता की बात है। आप लोगों का मुझ पर स्वाभाविक स्नेह है, इसलिये मेरी मृत्यु से यहाँ आप लोगों को जो दुख और संताप हो रहा है, वह नहीं होना चाहिये। यदि आपकी दृष्टि में वेद-शास्त्र प्रामाणिक है तो मैंने अक्षय लोकों पर अधिकार प्राप्त कर लिया। मैं अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण के अद्‌भुत प्रभाव को मानता हुआ भी कभी उनकी प्रेरणा से अच्छी तरह पालन किये हुए क्षत्रिय धर्म से विचलित नहीं हुआ। मैंने उस धर्म का फल प्राप्त किया है; अत: किसी प्रकार भी मैं शोक के योग्य नहीं हूँ। आप लोगों ने अपने स्वरूप के अनुरूप योग्य पराक्रम प्रकट किेया और सदा मुझे विजय दिलाने की ही चेष्टा की तथापि देव के विधान का उल्‍लघंन करना किसी के लिये भी सर्वथा कठिन है। राजेन्द्र! इतना कहते-कहते दुर्योधन की आँखें आँसुओं से भर आयीं और वह वेदना से अत्यन्त व्याकुल होकर चुप हो गया। उससे कुछ बोला नहीं गया।
       राजा दुर्योधन को शोक के आँसू बहाते देख अश्वत्थामा प्रलयकाल की अग्नि के समान क्रोध से प्रज्वलित हो उठा। रोष के आवेश में भरकर उसने हाथ पर हाथ दबाया और अश्रुगद्गद वाणी द्वारा उसने राजा दुर्योधन से इस प्रकार कहा,
      अश्वत्थामा ने कहा ;- राजन। नीच पाण्डवों ने अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्म के द्वारा मेरे पिता का वध किया परंतु उसके कारण भी मैं उतना संतप्त नहीं हूँ जैसा कि आज तुम्हारे वध के कारण मुझे कष्ट हो रहा है। प्रभो! मैं सत्य की शपथ खाकर जो कह रहा हूँ मेरी इस बात को सुनो। मैं अपने इष्ट आपूर्त दान धर्म तथा अन्य शुभ कर्मों की शपथ खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज श्रीकृष्णा के देखते-देखते सम्‍पूर्ण पांचालों को सभी उपायों द्वारा यमराज के लोक में भेज दूँगा। महाराज! इसके लिये तुम मुझे आज्ञा दे दो।
      द्रोणपुत्र का यह मन को प्रसन्न करने वाला वचन सुनकर कुरुराज दुर्योधन ने कृपाचार्य से कहा,
      दुर्योधन ने कहा ;- आचार्य! आप शीघ्र ही जल से भरा हुआ कलश ले आइये। राजा की वह बात मानकर ब्राह्मण शिरोमणि कृपाचार्य जल से भरा हुआ कलश ले उसके समीप आये। महाराज! प्रजानाथ! 
   तब आपके पुत्र ने उनसे कहा,- द्विजश्रेष्ठ! आपका कल्याण हो। यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मेरी आज्ञा से द्रोण पुत्र का सेनापति के पद पर अभिषेक कीजिये। राजा की वह बात सुनकर शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने उसकी आज्ञा के अनुसार अश्वत्थामा का सेनापति के पद पर अभिषेक किया। महाराज! अभिषेक हो जाने पर अश्वत्थामा ने नृपश्रेष्ठ दुर्योधन को हृदय से लगाया और अपने सिंहनाद से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वमनित करते हुए वहाँ से प्रस्थान किया। राजेन्द्र! खून में डूबे हुए दुर्योधन ने भी सम्पूर्ण भूतों के मन में भय उत्पन्न करने वाली वह रात वहीं व्यातीत की। नरेश्वर! शोक से व्याकुलचित्त हुए वे तीनों महारथी उस युद्धभूमि से तुरंत ही दूर हट गये और चिन्ता एवं कर्त्तव्य के विचार में निमग्न हो गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदापर्व में अश्वत्थामा का सेनापति के पद पर अभिषेक विषयक पैंसठवां अध्याय पूरा हुआ)

[शल्य पर्व समाप्त]

 शल्यपर्व की सम्पूर्ण श्लोक संख्या ३७३८

 अब “सौप्तिक पर्व ”आरंभ होता है 

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