सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) के प्रथम अध्याय से पाचवें अध्याय तक (From the first chapter to the fifth chapter of the entire Mahabharata (shalay Parva))



सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

प्रथम अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“संजय के मुख से शल्य और दुर्योधन के वध का वृतांत सुनकर राजा धृतराष्ट्र का मूर्च्छित होना और सचेत होने पर उन्हें विदुर का आश्वासन देना”

अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये।

     जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन! जब इस प्रकार समरांगण में सव्यसाची अर्जुन ने कर्ण को मार गिराया, तब थोडे़ से बचे हुए कौरवसैनिकों ने क्या किया? पाण्डवों का बल बढ़ता देखकर कुरुवंशी राजा दुर्योधन ने उनके साथ कौन-सा समयोचित बर्ताव करने का निश्चय किया? द्विजश्रेष्ठ! मैं यह सब सुनना चाहता हूँ मुझे अपने पूर्वजों का महान चरित्र सुनते-सुनते तृप्ति नहीं हो रही है, अतः आप इसका वर्णन कीजिए।

     वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! कर्ण के मारे जाने पर धृतराष्ट्रपुत्र राजा दुर्योधन शोक के समुद्र में डूब गया और सब ओर से निराश हो गया। हा कर्ण! हा कर्ण! ऐसा कहकर बारंबार शोकग्रस्त हो मरने से बचे हुए नरेशों के साथ वह बड़ी कठिनाई से अपने शिविर में आया। राजाओं ने शास्त्रनिश्चित युक्तियों द्वारा उसे बहुत समझाया बुझाया तो भी सूतपुत्र के वध का स्मरण करके उसे शांति नहीं मिली। उस राजा दुर्योधन ने देव और भवितव्यता को प्रबल मानकर संग्राम जारी रखने का ही दृढ़ करके पुनः युद्ध के लिये प्रस्थान किया। नृपश्रेष्ठ राजा दुर्योधन शल्य को विधिपूर्वक सेनापति बनाकर मारने से बचे हुए राजाओं के साथ युद्ध के लिये निकला। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर कौरव-पाण्डव सेनाओं में घोर युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम के समान भयंकर था। महाराज! तत्पश्चात सेनासहित शल्य युद्ध में बड़ा भारी संहार मचाकर मध्याह्नकाल में धर्मराज युधिष्ठिर हाथ से मारे गये। तदनन्तर राजा दुर्योधन अपने भाईयों के मारे जाने पर समरांगण से दूर जाकर शत्रु के भय से भयंकर तालाब में घुस गया। इसके बाद उसी दिन अपराह्नकाल में दुर्योधन पर घेरा डालकर उसे युद्ध के लिये तालाब से बुलाकर भीमसेन ने मार गिराया।

      राजेन्द्र! उस महाधनुर्धर दुर्योधन के मारे जाने पर मरने से बचे हुए तीन रथी- कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा ने रात में सोते समय पांचालों और सोमकों को रोषपूर्वक मार डाला। तत्पश्चात पूर्वाह्नकाल में दुःख और शोक में डूबे हुए संजय ने शिविर से आकर दीनभाव से हस्तिनापुर में प्रवेश किया। पुरी में प्रवेश करके दोनों बाँहे ऊपर उठाकर दुःख मग्न हो काँपते हुए संजय राजभवन के भीतर गये। और रोते हुए दुखी होकर बोले,

     संजय ने कहा ;- हा नरव्याघ्र नरेश! हा राजन! बड़े शोक की बात है! महामनस्वी कुरुराज के निधन से हम सर्वथा नष्टप्राय हो गये! इस जगत में भाग्य ही बलवान है। पुरुषार्थ तो निरर्थक है, क्योंकि आपके सभी पुत्र इन्द्र के तुल्य बलवान होने पर भी पाण्डवों के हाथ से मारे गये। राजन! नृपश्रेष्ठ! हस्तिनापुर के सभी लोग संजय को सर्वथा महान क्लेश से युक्त देखकर अत्यन्त उद्विग्न हो हा राजन! ऐसा कहते हुए फूट-फूटकर रोने लगे। नरव्याघ्र! वहाँ चारों ओर बच्चों से लेकर बुढ़ों तक सब लोग राजा को मारा गया सुन आर्तनाद करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 20-46 का हिन्दी अनुवाद)

     हम लोगों ने देखा कि नगर के श्रेष्ठ पुरुष अचेत और उन्मत्त से होकर शोक से अत्यन्त पीड़ित हो वहाँ दौड़ रहे हैं। इस प्रकार व्याकुल हुए संजय ने राजभवन में प्रवेश करके अपने स्वामी प्रज्ञाचक्षु नृपश्रेष्ठ धृतराष्ट्र का दर्शन किया। भरतश्रेष्ठ! वे निष्पाप नरेश अपनी पुत्रवधुओं, गान्धारी, विदुर तथा अन्य हितैषी सुहृदों एवं बन्धु-बान्धवों द्वारा सब ओर से घिरे हुए बैठे थे और कर्ण के मारे जाने से होने वाले परिणाम का चिन्तन कर रहे थे। जनमेजय! उस समय संजय ने खिन्नचित्त होकर रोते हुए ही संदिग्ध वाणी में कहा,

    संजय ने कहा ;- नरव्याघ्र! भरतश्रेष्ठ! में संजय हूँ। आपको नमस्कार है। पुरुषसिंह! मद्रराज शल्य, सुबलपुत्र शकुनि तथा जुआरी का पुत्र सृदृढ़ पराक्रमी उलूक -ये सब-के-सब मारे गये। समस्त संशप्तक वीर, काम्बोज, शक, म्लेच्छ, पर्वतीय योद्धा और यवनसैनिक मार गिराये गये। महाराज! पूर्वदेश के योद्धा मारे गये, समस्त दक्षिणात्यों का संहार हो गया तथा उत्तर और पश्चिम के सभी श्रेष्ठ मनुष्य मार डाले गये। नरेश्वर! समस्त राजा और राजकुमार काल के गाल में चले गये। महाराज! जैसा पाण्डुपुत्र भीमसेन ने कहा था, उसके अनुसार राजा दुर्योधन भी मारा गया। उसकी जाँघ टूट गयी और वह धूल-धूसर होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

     महाराज! नरव्याघ्र नरेश! धृष्टद्युम्न, अपराजित वीर शिखण्डी, उत्तमौजा, युधामन्यु, प्रभद्रकगण, पांचाल और चेदिदेशीय योद्धाओं का भी संहार हो गया। भारत! आपके तथा द्रौपदी के भी सभी पुत्र मारे गये। कर्ण का प्रतापी एवं शूरवीर पुत्र वृषसेन भी नष्ट हो गया। नरव्याघ्र! युद्धस्थल में समस्त पैदल मनुष्य, हाथीसवार, रथी और घुड़सवार भी मार गिराये गये। प्रभो! पाण्डवों तथा कौरवों में परस्पर संघर्ष होकर आपके पुत्रों तथा पाण्डव शिविर में किंचिन्मात्र ही शेष रह गया है। प्रायः काल से मोहित हुए सारे जगत में स्त्रियाँ ही शेष रह गयी हैं। पाण्डव पक्ष में सात और आपके पक्ष में तीन रथी मरने से बचे हैं। उधर पाँचों भाई पाण्डव, वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण और सात्यकि शेष हैं तथा इधर कृपाचार्य, कृतवर्मा और विजयी वीरों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा जीवित हैं। नृपश्रेष्ठ! जनेश्वर! महाराज! उभय पक्ष में जो समस्त अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुई थीं, उनमें से ये ही रथी शेष रह गये हैं, अन्य सब लोग काल के गाल में चले गये। भरतश्रेष्ठ! भरतनन्दन! काल ने दुर्योधन और उसके वैर को आगे करके सम्पूर्ण जगत को नष्ट कर दिया। 

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! यह क्रूर वचन सनुकर राजाधिराज जनेश्वर धृतराष्ट्र प्राणहीन-से होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। महाराज! उनके गिरते ही महायशस्वी विदुर जी भी शोकसंताप से दुर्बल हो धड़ाम से गिर पड़े।

      नृपश्रेष्ठ! उस समय वह क्रूरतापूर्वक वचन सुनकर कुरुकुल की समस्त स्त्रियाँ और गान्धारी देवी सहसा पृथ्वी पर गिर गयीं, राजपरिवार के सभी लोग अपनी सुध-बुध खोकर धरती पर गिर पड़े और प्रलाप करने लगे। वे ऐसे जान पड़ते थे मानो विशाल पट पर अंकित किये गये चित्र हों। तत्पश्चात पुत्रशोक से पीड़ित हुए पृथ्वीपति राजा धृतराष्ट्र में बड़ी कठिनाई से धीरे-धीरे प्राणों का संचार हुआ। चेतना पाकर राजा धृतराष्ट्र अत्यन्त दुखी हो थर-थर काँपने लगे और सम्पूर्ण दिशाओं की ओर देखकर विदुर से इस प्रकार बोले,

    धृतराष्ट्र बोले ;- विद्वन! महाज्ञानी विदुर! भरतभूषण! अब तुम्ही मुझ पुत्रहीन और अनाथ के सर्वथा आश्रय हो। इतना कहकर वे पुनः अचेत हो पृथ्वी पर गिर पड़े।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 47-55 का हिन्दी अनुवाद)

      उन्हें इस प्रकार गिरा हुआ देख उनके जो कोई बन्धु-बान्धव वहाँ मौजूद थे, उन्होंने राजा के शरीर पर ठंडे जल के छींटे दिये और व्यजन डुलाये। फिर बहुत देर के बाद जब राजा धृतराष्ट्र को होश हुआ, तब वे पुत्रशोक से पीड़ित हो चिन्तामग्न हो गये। प्रजानाथ! उस समय वे घडे़ में रखे हुए सर्प के समान लंबी साँस खींचने लगे। राजा को इस प्रकार आतुर देखकर संजय भी वहाँ रोने लगे। फिर सारी स्त्रियाँ और यशस्विनी गान्धारी देवी भी फूट फूटकर रोने लगीं। नरश्रेष्ठ! तत्पश्चात बहुत देर के बाद बारंबार मोहित होते हुए धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा- 'ये सारी स्त्रियाँ और यशस्विनी गान्धारी देवी भी यहाँ से चली जायँ। ये समस्त सुहृद भी अब यहाँ से पधारे; क्योंकि मेरा चित्त अत्यन्त भ्रान्त हो रहा है'। भरतश्रेष्ठ! उनके ऐसा कहने पर बारंबार काँपते हुए विदुर जी ने उन सब स्त्रियों को धीरे-धीरे विदा कर दिया। भरतभूषण! फिर वे सारी स्त्रियाँ और समस्त सुहृदगण राजा को आतुर देखकर वहाँ से चले गये। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! तदनन्तर होश में आकर अत्यंत आतुर हो दीनभाव से विलाप करते हुए राजा धृतराष्ट्र की ओर संजय ने देखा। उस समय बांरबार लंबी साँस खींचते हुए राजा धृतराष्ट्र को विदुर जी ने हाथ जोड़कर अपनी मधुर वाणी द्वारा आश्वासन दिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में धृतराष्ट्र मोहविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

द्वितीय अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा धृतराष्ट्र का विलाप करना और संजय से युद्ध का वृत्तान्त पूछना”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महाराज! स्त्रियों के विदा हो जाने पर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र एक दुःख से दूसरे दुःख में पड़कर गरम-गरम उच्छ्वास लेते और बारंबार दोनों हाथ हिलाते हुए विलाप करने लगे। और बड़ी देर तक चिंता मग्न रहकर इस प्रकार बोले,

     धृतराष्ट्र ने कहा ;- सूत! मेरे लिये महान दुःख की बात है कि मैं तुम्हारे मुख से रणभूमि में पाण्डवों को सकुशल और विनाशरहित सुन रहा हूँ। निश्चय ही मेरा यह सुदृढ़ हृदय वज्र के सारतत्त्व का बना हुआ है; क्योंकि अपने पुत्रों को मारा गया सुनकर भी इसके सहस्रों टुकडे़ नहीं हो जाते हैं। संजय! में उनकी अवस्था और बाल-क्रीड़ा का चिन्तन करके जब उन सब के मारे जाने की बात सोचता हूँ, तब मेरा हृदय अत्यन्त विदीर्ण होने लगता है। यद्यपि नेत्रहीन होने के कारण मैंने उनका रूप कभी नहीं देखा था, तथापि इन सबके प्रति पुत्रस्नेह जनित प्रेम का भाव सदा ही रखा है। निष्पाप संजय! जब में यह सुनता था कि मेरे बच्चे बाल्यावस्था को लाँघकर युवावस्था में प्रविष्ट हुए हैं और धीरे-धीरे मध्य अवस्था तक पहुँच हैं, तब हर्ष से फूल उठता था। आज उन्हीं पुत्रों को ऐश्वर्य और बल से हीन एवं मारा गया सुनकर उनकी चिन्ता से व्यथित हो कहीं भी शांति नहीं पा रहा हूँ। (इतना कहकर राजा धृतराष्ट्र इस प्रकार विलाप करने लगे-) बेटा! राजाधिराज! इस समय मुझ अनाथ के पास आओ, आओ। महाबाहो! तुम्हारे बिना न जाने में किस दशा को पहुँच जाऊँगा? तात! तुम यहाँ पधारे हुए समस्त भूमिपालों को छोड़कर किसी नीच और दुष्ट राजा के समान मारे जाकर पृथ्वी पर कैसे सो रहे हो? वीर महाराज! तुम भाई-बन्धुओं और सुहृदों के आश्रय होकर किसी मुझ अंधे और बुढे़ को छोड़कर कहाँ चले आ रहे हो?

       राजन! तुम्हारी वह कृपा, वह प्रीति और दूसरों को सम्मान देने की वह वृत्ति कहाँ चली गयी; तुम तो किसी से परास्त होने वाले नही थे; फिर कुन्ती के पुत्रों के द्वारा युद्ध में कैसे मारे गये? वीर! अब मेरे उठने पर मुझे सदा तात, महाराज और लोकनाथ आदि बारंबार कहकर कौन पुकारेगा? कुरुनन्दन! तुम पहले स्नेह से नेत्रों में आँसू भरकर मेरे गले से लग जाते और कहते पिता जी! मुझे कर्तव्य का उपदेश दीजिए, वही सुन्दर बात फिर मुझसे कहो। बेटा! मैंने तुम्हारे मुँह से यह बात सुनी थी कि मेरे अधिकार में बहुत बड़ी पृथ्वी है। इतना विशाल भू-भाग कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के अधिकार में कभी नहीं रहा। नृपश्रेष्ठ! भगदत्त, कृपाचार्य, शल्य, अवन्ती के राजकुमार, जयद्रथ, भूरिश्रवा, सोमदत्त, महाराज बाह्लिक, अश्वत्थामा, कृतवर्मा, महाबली मगधनरेश बृहद्बल, क्राथ, सुबलपुत्र शकुनि, लाखों म्लेच्छ, यवन एवं शक, काम्बोजराज, सुदक्षिण, त्रिगर्तराज सुशर्मा, पितामह भीष्म, भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य, गौतमगोत्रीय कृपाचार्य, श्रुतायु, अयुतायु, पराक्रमी शतायु, जलसन्ध, ऋष्यशृंगपुत्र राक्षस अलायुध, महाबाहु अलम्बुष और महारथी सुबाहु- ये तथा और भी बहुत से नरेश मेरे लिये प्राणों और घन का मोह छोड़कर सब-के-सब युद्ध के लिये उद्यत हैं। इन सबके बीच में रहकर भाईयों से घिरा हुआ में रणभूमि में पाण्डवों और पांचालों के साथ युद्ध करूँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 23-46 का हिन्दी अनुवाद)

       राजसिंह! मैं युद्धस्थल में चेदियों, द्रौपदीकुमारों, सात्यकि, कुन्तिभोज तथा राक्षस घटोत्कच का भी सामना करूँगा। महाराज! मेरे इन सहयोगियों में से एक-एक वीर भी समरांगण में कुपित होकर मुझ पर आक्रमण करने वाले समस्त पाण्डवों को राकने में समर्थ हैं। फिर यदि पाण्डवों के साथ वैर रखने वाले ये सारे वीर एक साथ होकर युद्ध करें तब क्या नहीं कर सकते। राजेन्द्र! अथवा ये सभी योद्धा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के अनुयायियों के साथ युद्ध करेंगे और उन सबको रणभूमि में मार गिरायेंगे। अकेला कर्ण ही मेरे साथ रहकर समस्त पाण्डवों को मार डालेगा। फिर सारे वीर नरेश मेरी आज्ञा के अधीन हो जायँगे। राजन! पाण्डवों के जो नेता हैं, वे महाबली वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण युद्ध के लिये कवच नहीं धारण करेंगे। ऐसी बात दुर्योधन मुझसे कहता था। सूत! मेरे निकट दुर्योधन जब इस तरह की बहुत-सी बातें कहने लगा तो में यह समझ बैठा कि हमारी शक्ति से समस्त पाण्डव रणभूमि में मारे जायँगे। जब ऐसे वीरों के बीच में रहकर भी प्रयत्नपूर्वक लड़ने वाले मेरे पुत्र समरांगण में मार डाले गये, जब इसे भाग्य के सिवा और क्या कहा जा सकता है ? जैसे सिंह सियार से लड़कर मारा जाय, उसी प्रकार जहाँ लोकरक्षक प्रतापी वीर भीष्म शिखण्डी से भिड़कर वध को प्राप्त हुए, जहाँ सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों की विद्या के पारंगत विद्वान ब्राह्मण द्रोणाचार्य पांडवों द्वारा युद्धस्थल में मार डाले गये, वहाँ भाग्य के सिवा दूसरा क्या कारण बताया जा सकता है? जहाँ दिव्यास्त्रों का ज्ञान रखने वाला महारथी कर्ण युद्ध में मारा गया, जहाँ समरांगण में भूरिश्रवा, सोमदत्त तथा महाराज बाह्लिक का संहार हो गया, वहाँ भाग्य के सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है? जहाँ गजयुद्धविशारद राजा भगदत्त मारे गये और सिंधुराज जयद्रथ का वध हो गया, जहाँ काम्बोजराज सुदक्षिण, पौरव जलसन्ध, श्रुतायु और अयुतायु मार डाले गये, वहाँ भाग्य के सिवा और क्या कारण हो सकता है?

      जहाँ सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाबली पाण्डयनरेश युद्ध में पाण्डवों के हाथ से मारे गये, वहाँ भाग्य के सिवा और क्या कारण है? जहाँ बृहद्बल, महाबली मगधनरेश, धनुर्धरों के आर्दश एवं पराक्रमी अग्रायुध, अवन्ती के राजकुमार, त्रिगर्तनरेश सुशर्मा तथा सम्पूर्ण संशप्तक योद्धा मार डाले गये, वहाँ भाग्य के सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है? जहाँ शूरवीर अलम्बुष और ऋष्यशृंगपुत्र राक्षस अलायुध मारे गये, वहाँ भाग्य के सिवा और क्या कारण बताया जा सकता है? जहाँ नारायण नाम वाले रणदुर्मद ग्वाले और कई हजार म्लेच्छ योद्धा मौत के घाट उतार दिये गये, वहाँ भाग्य के सिवा और क्या कहा जा सकता है? जहाँ सुबलपुत्र महाबली शकुनि और उस जुआरी पुत्र वीर उलूक दोनों ही सेना सहित मार डाले गये, वहाँ भाग्य के सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है? ये तथा और भी बहुत से अस्त्रवेत्ता, रणदुर्भद, शूरवीर और परिघ-जैसी भुजाओं वाले राजा एवं राजकुमार अधिक संख्या में मार डाले गये, वहाँ भाग्य के सिवा और क्या कारण बताया जाय? सूत संजय! जहाँ समरभूमि में नाना देशों से आये हुए देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी बहुत-से शूरवीर महाधनुर्धर, अस्त्रवेत्ता एवं युद्धदुर्मद क्षत्रिय सारे-के-सारे मार डाले गये, वहाँ भाग्य के अतिरिक्त दूसरा क्या कारण हो सकता है? निश्चय ही मनुष्य अपना-अपना भाग्य लेकर उत्पन्न होता है, जो सौभाग्य से सम्पन्न होता है, उसे ही शुभ फल की प्राप्ति होती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 47-63 का हिन्दी अनुवाद)

     संजय! मैं उन शुभकारक भाग्यों से वंचित हूँ और पुत्रों से भी हीन हूँ। आज इस वृद्धावस्था में शत्रु के वश में पड़कर न जाने मेरी कैसी दशा होगी? सामर्थ्‍यशाली संजय! मेरे लिये वनवास के सिवा और कोई कार्य श्रेष्ठ नहीं जान पड़ता। अब कुटुम्बीजनों का विनाश हो जाने पर बन्धु-बान्धवों से रहित हो मैं वन में ही चला जाऊँगा। संजय! पंख कटे हुए पक्षी की भाँति इस अवस्था को पहुँच हुए मेरे लिये वनवास स्वीकार करने के सिवा दूसरा कोई श्रेयस्कर कार्य नहीं है। जब दुर्योधन मारा गया, शल्य का युद्ध में संहार हो गया तथा दुःशासन, विविंशति और महाबली विकर्ण भी मार डाले गये, तब मैं उस भीमसेन का उच्च स्वर से कहा गया वचन कैसे सुनूँगा, जिसने अकेले ही समरांगण में मेरे सौ पुत्रों का वध का डाला। दुर्योधन के वध से दुःख और शोक से संतप्त हुआ में बारंबार बोलने वाले भीमसेन की कठोर बातें नहीं सुन सकूँगा। 

      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार पुत्रों एवं की चिन्ता में डूबकर बारंबार मूर्च्छित होने वाले, संतप्त एवं बूढे़ भरतश्रेष्ठ राजा अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र, जिनके बन्धु-बान्धव मार डाले गये थे, दीर्घकाल तक विलाप करके गरम साँस खींचते और अपने पराभव की बात सोचते हुए महान दुःख से संतप्त हो उठे तथा गवल्गणपुत्र संजय से पुनः का यथावत समाचार पूछने लगे।

     धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! भीष्म और द्रोणाचार्य के वध का तथा युद्ध-संचालन सेनापति सूतपुत्र कर्ण के विनाश का समाचार सुनकर मेरे पुत्रों ने क्या किया? मेरे पुत्र युद्धस्थल में जिस-जिस वीर को अपना सेनापति बनाते थे, पाण्डव उस-उसको थोडे़ ही समय में मार गिराते थे। युद्ध के मुहाने पर तुम लोगों के देखते-देखते भीष्म जी किरीटधारी अर्जुन के हाथ से मारे गये। इसी प्रकार द्रोणाचार्य का भी तुम सब लोगों के सामने ही संहार हो गया। इसी तरह प्रतापी सूतपुत्र कर्ण भी राजाओं सहित तुम सब लोगों के देखते-देखते किरीटधारी अर्जुन के हाथ से मारा गया। महात्मा विदुर ने मुझसे से पहले ही कहा था कि दुर्योधन के अपराध से इस प्रजा का विनाश हो जायगा। संसार में कुछ मूढ़ मनुष्य ऐसे होते हैं, जो अच्छी तरह देखकर भी नहीं पाते। मैं भी वैसा ही मूढ़ हूँ। मेरे लिये वचन वैसा ही हुआ (मैं उसे सुनकर भी न सुन सका)। दूरदर्शी धर्मात्मा विदुर ने पहले जो कुछ कहा था, वह सब उसी रूप में सामने आया है। सत्यवादी महात्मा का वचन सत्य होकर ही रहा। संजय! पहले दैव से मेरी बुद्धि मारी गयी थी; इसलिये मैंने जो विदुर जी की बात नहीं मानी, मेरे उस अन्याय का फल जैसे-जैसे प्रकट हुआ है, उसका वर्णन करो।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 64-70 का हिन्दी अनुवाद)

     कर्ण के मारे जाने पर सेना के मुखस्थान पर खड़ा होने वाला कौन था? कौन रथी अर्जुन और श्रीकृष्ण का सामना करने के लिये आगे बढ़ा? युद्धस्थल में जूझने की इच्छा वाले मद्रराज शल्य के दाहिने या बायें पहिये की रक्षा किन लोगों की? अथवा उस वीर सेनापति के पृष्ठ-रक्षक कौन थे? संजय! तुम सब लोगों के एक साथ रहते हुए भी महारथी मद्रराज शल्य अथवा मेरा पुत्र दुर्योधन दोनों ही तुम्हारे सामने पाण्डवों के हाथ से कैसे मारे गये? तुम भरतवंशियों के इस महान विनाश का सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से बताओ। साथ ही यह भी कहो कि युद्धस्थल में मेरा पुत्र दुर्योधन किस प्रकार मारा गया? समस्त पांचाल-सैनिक अपने सेवकों सहित कैसे मारे गये? धृष्टद्युम्न, शिखण्डी तथा द्रौपदी के पाँचों पुत्रों का वध किस प्रकार हुआ? पाँचों पाण्डव, दोनों मधुवंशी वीर श्रीकृष्ण और सात्यकि, कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा -ये युद्धस्थल से किस प्रकार जीवित बच गये? संजय! जो युद्ध का वृत्तान्त जिस प्रकार और जैसे संघटित हुआ हो, वह सब इस समय मैं सुनना चाहता हूँ। तुम वह सब बताने में कुशल हो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में धृतराष्ट्र का विलापविषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

तीसरा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“कर्ण के मारे जाने पर पाण्डवों के भय से कौरवसेना का पलायन, सामना करने वाले पच्चीस हजार पैदलों का भीमसेन द्वारा वध तथा दुर्योधन का अपने सैनिकों को समझा-बुझाकर पुनः पाण्डवों के साथ युद्ध में लगाना”

   संजय कहते हैं ;- राजन! कौरवों और पाण्डवों के आपस में भिड़ने से जिस प्रकार महान जनसंहार हुआ है, वह सब सावधान होकर सुनिये। नरश्रेष्ठ! महात्मा पाण्डुकुमार अर्जुन के द्वारा सूतपुत्र कर्ण के मारे जाने पर जब आपकी सेनाएँ बार-बार भागने और लौटायी जाने लगीं एवं रणभूमि में मानवशरीरों का भयानक संहार होने लगा, उस समय कर्णवध के पश्चात कुन्तीकुमार अर्जुन ने बड़े जोर से सिंहनाद किया। राजन! उसे सुनकर आपके पुत्रों के मन में बड़ा भारी भय समा गया। कर्ण के मारे जाने पर आपके किसी भी योद्धा के मन में न तो सेनाओं को एकत्र संगठित रखने का उत्साह रह गया और न पराक्रम में ही वे मन लगा सके। राजन! जैसे अगाध महासागर में नाव फट जाने पर नौका रहित व्यापारी उस अपार समुद्र से पार जाने की इच्छा रखते हुए घबरा उठते हैं, उसी प्रकार किरीटधारी अर्जुन के द्वारा द्वीपस्वरूप सूतपुत्र के मारे जाने पर बाणों से क्षत-विक्षत हो हम सब लोग भयभीत हो गये थे। हम अनाथ होकर कोई रक्षक चाहते थे। हमारी दशा सिंह के सताये हुए मृगों, टूटे सींग वाले बैलों तथा जिनके दाँत तोड़ लिये गये हों उन सर्पों की तरह हो गयी थी। सायंकाल में सव्यसाची अर्जुन ने परास्त होकर हम सब लोग शिविर की ओर लौटे। हमारी सेना के प्रमुख वीर मारे गये थे। हम सब लोग पैने बाणों से घायल होकर विध्वंस से निकट पहुँच गये थे।

     राजन! सूतपुत्र कर्ण के मारे जाने पर आपके सब पुत्र अचेत हो वहाँ से भागने लगे। उन सब के कवच नष्ट हो गये थे। उन्हें इतनी भी सुध नहीं रह गयी थी कि हम कहाँ और किस दिशा में जायँ। वे सब लोग एक दूसरे पर चोट करते और भय से सम्पूर्ण दिशाओं की ओर देखते हुए ऐसा समझते थे कि अर्जुन और भीमसेन मेरे ही पीछे लगे हुए हैं। भारत! ऐसा सोचकर वे हर्ष और उत्साह खो बैठते तथा लड़खड़ाकर गिर पड़ते थे। कुछ महारथी भय के मारे घोड़ों पर, दूसरे लोग हाथियों पर और कुछ लोग रथों पर आरूढ़ हो पैदलों को वहीं छोड़ बड़े वेग से भागे। भागते हुए हाथियों ने बहुत-से रथ तोड़ डाले, बड़े-बड़े़ रथों ने घुड़सवारों को कुचल दिया और दौड़ते हुए अश्व समूहों ने पैदल सैनिकों को अत्यन्त घायल कर दिया। जैसे सर्पों और लुटेरों से भरे हुए जंगल में अपने साथियों से बिछुड़े हुए लोग अनाथ के समान भटकते हैं, वही दशा उस समय सूतपुत्र कर्ण के मारे जाने पर आपके सैनिकों की हुई। कितने ही हाथियों के सवार मारे गये, बहुत से गजराजों की सूँडे़ काट डाली गयीं, सब लोग भय से पीड़ित होकर सम्पूर्ण जगत को अर्जुनमय देख रहे थे। भीमसेन के भय से पीड़ित हुए समस्त सैनिकों को भागते देख दुर्योधन हाय-हाय! करके अपने सारथि से इस प्रकार कहा-।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 16-37 का हिन्दी अनुवाद)

     दुर्योधन ने कहा ;- 'जब मैं सेना के पिछले भाग में खड़ा हो हाथ में धनुष ले युद्ध करूँगा, उस समय कुन्तीकुमार अर्जुन मुझे लाँघकर आगे नहीं बढ़ सकेंगे; अतः तुम घोड़ों को आगे बढ़ओ। जैसे महासागर तट को नहीं लाँघ सकता, उसी प्रकार कुन्तीकुमार अर्जुन समरांगण में युद्ध करते हुए मुझ दुर्योधन को लाँघकर आगे जाने की हिम्मत नहीं कर सकते। आज मैं श्रीकृष्ण, अर्जुन, मानी भीमसेन तथा शेष बचे हुए शत्रुओं का संहार करके कर्ण के ऋण से उऋण हो जाऊँगा'। कुरुराज दुर्योधन के इस श्रेष्ठ वीरोचित्त वचन को सुनकर सारथि ने सोने के साज-बाज से ढके हुए अश्वों को धीरे से आगे बढ़ाया। माननीय नरेश! उस समय हाथी, घोडे़ और रथों से रहित पच्चीस हजार पैदल सैनिक धीरे-ही-धीरे पाण्डवों पर चढ़ाई करने लगे। तब क्रोध में भरे हुए भीमसेन और द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न ने अपनी चतुरंगिणी सेना के द्वारा उन्हें तितर-बितर करके बाणों द्वारा अत्यन्त घायल कर दिया। वे समस्त सैनिक भी भीमसेन और धृष्टद्युम्न का डटकर सामना करने लगे। दूसरे बहुत-से योद्धा वहाँ उन दोनों के नाम-ले-लेकर ललकारने लगे।

     युद्धस्थल में सामने खडे़ हुए उन योद्धाओं के साथ जूझते समय भीमसेन को बड़ा क्रोध हुआ। वे तुरन्त ही रथ से उतर कर हाथ में गदा ले उन सबके साथ युद्ध करने लगे। युद्धधर्म के पालन की इच्छा रखने वाले कुन्तीकुमार भीमसेन स्वयं रथ पर बैठकर भूमि पर खडे़ हुए पैदल सैनिकों के साथ युद्ध करना उचित नहीं समझा। वे अपने बाहुबल का भरोसा करके उन सबके साथ पैदल ही जूझने लगे। उन्होंने दण्डपाणि यमराज के समान सुवर्णपत्र से जटित विशाल गदा लेकर उसके द्वारा आपके समस्त सैनिकों का संहार आरम्भ किया। उस समय अपने प्राणों और बन्धु-बान्धवों का मोह छोड़कर रोष और आवेश में भरे हुए पैदल सैनिक युद्धस्थल में भीमसेन की ओर उसी प्रकार दौडे़, जैसे पतंग जलती हुई आग पर टूट पड़ते हैं। क्रोध मे भरे हुए वे रणदुर्भद योद्धा भीमसेन से भिड़कर सहसा उसी प्रकार आर्तनाद करने लगे, जैसे प्राणियों के समुदाय यमराज को देखकर चीख उठते हैं। उस समय भीमसेन रणभूमि में बाज की तरह विचर रहे थे। उन्होंने तलवार और गदा के द्वारा आपके उन पच्चीस हजार योद्धाओं को मार गिराया। सत्यपराक्रमी महाबली भीमसेन उस पैदल-सेना का संहार करके धृष्टद्युम्न को आगे किये पुनः युद्ध के लिये डट गये।

     दूसरी ओर पराक्रमी अर्जुन ने रथसेना पर आक्रमण किया। माद्रीकुमार नकुल-सहदेव तथा महाबली सात्यकि दुर्योधन की सेना का विनाश करते हुए बड़े वेग से शकुनि पर टूट पड़े। उन सबने शकुनि के बहुत से घुड़सवारों को अपने पैने बाणों से मारकर बड़ी उतावली के साथ वहाँ शकुनि पर धावा किया। फिर तो उनमें भारी युद्ध छिड़ गया। राजन! तदनन्तर अर्जुन ने अपने त्रिभुवनविख्यात गाण्डीव धनुष की टंकार करते हुए आपके रथियों की सेना में प्रवेश किया। श्रीकृष्ण जिसके सारथि हैं, उस श्वेत घोड़ों से रहित तथा बाणों से आच्छादित हुए पच्चीस हजार पैदल योद्धाओं ने कुन्तीकुमार अर्जुन पर चढ़ाई की। उस पैदल सेना का वध करके पांचाल महारथी धृष्टद्युम्न भीमसेन को आगे किये शीघ्र ही वहाँ दृष्टिगोचर हुए। पांचालराज के पुत्र धृष्टद्युम्न महाधनुर्धर, महायशस्वी तेजस्वी तथा शत्रुसमूह का संहार करने में समर्थ थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 38-53 का हिन्दी अनुवाद)

   जिनके रथ में कबूतर के समान रंग वाले घोड़े जुते हुए थे तथा रथ की श्रेष्ठ ध्वजा पर कचनार वृक्ष का चिह्न बना हुआ था, उस धृष्टद्युम्न को रणभूमि में उपस्थित देख आपके सैनिक भय से भाग खडे़ हुए। सात्यकि सहित यशस्वी माद्रीकुमार नकुल और सहदेव शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने वाले गान्धारराज शकुनि का तुरन्त पीछा करते हुए दिखायी दिये। जैसे साँड़ साँड़ों को परास्त करके उन्हें बहुत दूर तक खदेड़ते रहते हैं, उसी प्रकार उन सब पाण्डव वीरों ने आपके समस्त सैनिकों को युद्ध से विमुख होकर भागते देख बाणों का प्रहार करते हुए दूर तक उनका पीछा किया। नरेश्वर! पाण्डुकुमार सव्यसाची अर्जुन आपके पुत्र की सेना के उस एक भाग को अवशिष्ट एवं सामने उपस्थित देख अत्यन्त कुपित हो उठे। राजन! तदनन्तर उन्होंने सहसा बाणों द्वारा उस सेना को आच्छादित कर दिया। उस समय इतनी धूल ऊपर उठी कि कुछ भी दिखायी नहीं देता था। महाराज! जब जगत में उस धूल से अन्धकार छा गया और पृथ्वी पर बाण-ही-बाण बिछ गया, उस समय आपके सैनिक भय के मारे सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये। प्रजानाथ! उस सबके भाग जाने पर कुरुराज दुर्योधन ने शत्रुपक्ष की और अपनी दोनों ही सेनाओं पर आक्रमण किया।

    भरतश्रेष्ठ! जैसे पूर्वकाल में राजा बलि ने देवताओं को युद्ध के लिये ललकारा था, उसी प्रकार दुर्योधन ने समस्त पाण्डवों का आह्वान किया। तब वे पाण्डव योद्धा अत्यन्त कुपित हो गर्जना करने वाले दुर्योधन को बारंबार फटकारते और क्रोधपूर्वक नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए एक साथ ही उस पर टूट पड़े। दुर्योधन भी बिना किसी घबराहट के अपने बाणों द्वारा उन शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करने लगा। वहाँ हम लोगों ने आपके पुत्र का अद्भुत पराक्रम देखा कि समस्त पाण्डव मिलकर भी उसे लाँघकर आगे न बढ़ सके। दुर्योधन ने देखा कि मेरी सेना अत्यन्त घायल हो रणभूमि से पलायन करने का विचार रखकर भाग रही है, परंतु अधिक दूर नहीं गयी है। राजेन्द्र! तब युद्ध का ही दृढ़ निश्चय रखने वाले आपके पुत्र ने उन समस्त सैनिकों को खड़ा करके उनका हर्ष बढ़ाते हुए कहा,

    दुर्योधन ने कहा ;- वीरों! मैं भूतल पर और पर्वतों में भी कोई ऐसा स्थान नहीं देखता, जहाँ चले जाने पर तुम लोगों को पाण्डव मार न सकें; फिर तुम्हारे भागने से क्या लाभ है? पाण्डवों के पास थोड़ी-सी सेना शेष रह गयी है और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन भी बहुत घायल हो चुके हैं। यदि हम सब लोग यहाँ डटे रहें तो निश्चय ही हमारी विजय होगी। यदि तुम लोग पृथक-पृथक होकर भागोगे तो पाण्डव तुम सभी अपराधियों का पीछा करके तुम्हें मार डालेंगे, अतः युद्ध में ही मारा जाना हमारे लिये श्रेयस्कर होगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 54-61 का हिन्दी अनुवाद)

     क्षत्रियधर्म के अनुसार युद्ध करने वाले वीरों के लिये संग्राम भूमि में होने वाली मृत्यु ही सुखद है; क्योंकि वहाँ मरा हुआ मनुष्य मृत्यु के दुःख को नहीं जानता और मृत्यु के पश्चात अक्षय सुख का भागी होता है। जितने क्षत्रिय यहाँ आये हैं वे सब सुनें-तुम लोग भागने पर अपने शत्रु भीमसेन के अधीन हो जाओगे। इसलिये अपने बाप-दादो के द्वारा आचरण में लाये हुए धर्म का परित्याग न करो। क्षत्रिय के लिये युद्ध छोड़कर भागने से बढ़कर दूसरा कोई अत्यन्त पापपूर्ण कर्म नहीं है। कौरवों! युद्धधर्म से बढ़कर दूसरा कोई स्वर्ग का श्रेष्ठ मार्ग नहीं है। दीर्घकाल तक पुण्यकर्म करने से प्राप्त होने वाले पुण्यलोकों को वीर क्षत्रिय युद्ध से तत्काल प्राप्त कर लेता है। राजा दुर्योधन की उस बात का आदर करके वे महारथी क्षत्रिय पुनः युद्ध करने के लिये पाण्डवों के सामने आये। उन्हें पराजय असह्य हो उठी थी; इसलिये उन्होंने पराक्रम करने में ही मन लगाया था। तदनन्तर आपके और शत्रुपक्ष के सैनिकों में पुनः देवासुर संग्राम के सामने अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा। महाराज! उस समय आपके पुत्र दुर्योधन ने अपनी सारी सेना के साथ युधिष्ठिर आदि सभी पाण्डवों पर धावा किया था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में कौरवसेनाक का पलायनविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

चौथा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“कृपाचार्य का दुर्योधन को संधि के लिये समझाना”

  संजय कहते हैं ;- माननीय नरेश! उस समय रणभूमि में महामनस्वी वीरों के रथ और उनकी बैठकें टूटी पड़ी थीं। सवारों सहित हाथी और पैदल सैनिक मार डाले गये थे। वह युद्धस्थल रुद्रदेव की क्रीड़ाभूमि श्मशान के समान अत्यन्त भयानक जान पड़ता था। वह सब देखकर जब आपके पुत्र दुर्योधन का मन शोक में डूब गया और उसने युद्ध से मुँह मोड़ लिया, कुन्तीपुत्र अर्जुन का पराक्रम देखकर समस्त सेनाएँ जब भय से व्याकुल हो उठीं और भारी दुःख में पड़कर चिन्तामग्न हो गयीं, उस समय मथे जाते हुए सैनिकों का जोर-जोर से आर्तनाद सुनकर तथा राजाओं के चिह्नस्वरूप ध्वज आदि को युद्धस्थल में क्षत-विक्षत हुआ देखकर प्रौढ़ अवस्था और उत्तम स्वभाव से युक्त तेजस्वी कृपाचार्य के मन में बड़ी दया आयी। भरतवंशी नरेश! वे बातचीत करने में अत्यन्त कुशल थे। उन्होंने राजा दुर्योधन के निकट जाकर उसकी दीनता देखकर इस प्रकार कहा,

    कृपाचार्य ने कहा ;- राजेन्द्र! क्षत्रियशिरोमणे! युद्धधर्म से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी मार्ग नहीं है, जिसका आश्रय लेकर क्षत्रिय लोग युद्ध में तत्पर रहते हैं। क्षत्रिय-धर्म जीवन-निर्वाह करने वाले पुरुष के लिये पुत्र, भ्राता, पिता, भानजा, मामा, सम्बन्धी तथा बन्धु बान्धव इस बस के साथ युद्ध करना कर्त्तव्य है। युद्ध में शत्रुओं को मारना या उसके हाथ से मारा जाना दोनों ही उत्तम धर्म है और युद्ध से भागने पर महान पाप होता है। सभी क्षत्रिय जीवन-निर्वाह की इच्छा रखते हुए उसी घोर जीविका का आश्रय लेते हैं। ऐसी दशा मैं यहाँ तुम्हारे लिये कुछ हित की बात बताऊँगा।

    अनघ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, महारथी कर्ण, जयद्रथ, तथा तुम्हारे सभी भाई मारे जा चुके हैं। तुम्हारा पुत्र लक्ष्मण भी जीवित नहीं है। अब दूसरा कौन बच गया है, जिसका हम लोग आश्रय ग्रहण करें। जिन पर युद्ध का भार रखकर हम राज्य पाने की आशा करते थे, वे शूरवीर तो शरीर छोड़कर ब्रह्मवेत्ताओं की गति को प्राप्त हो गये। इस समय हम लोग यहाँ भीष्म आदि गुणवान महारथियों के सहयोग से वंचित हो गये हैं और बहुत-से नरेशों को मरवाकर दयनीय स्थिति में आ गये हैं। जब सब लोग जीवित थे, तब भी अर्जुन किसी के द्वारा पराजित नहीं हुए। श्रीकृष्ण- जैसे नेता के रहते हुए महाबाहु अर्जुन देवताओं के लिये भी दुर्जय हैं। उनका वानरध्वज इन्द्रधनुष के तुल्य बहुरंगा और इन्द्रध्वज के समान अत्यन्त ऊँचा है। उसके पास पहुँचकर हमारी विशाल सेना भय से विचलित हो उठती है। भीमसेन के सिंहनाद, पांचजन्य शंख की ध्वनि और गाण्डीव धनुष की टंकार से हमारा दिल दहल उठता है। जैसे चमकती हुई महाविद्युत नेत्रों की प्रभा को छीनती-सी दिखायी देती है तथा जैसे अलातचक्र घूमता देखा जाता है, उसी प्रकार अर्जुन के हाथ में गाण्डीव धनुष भी दृष्टिगोचर होता है। अर्जुन के हाथ में डोलता हुआ उनका सुवर्णजटित महान धनुष सम्पूर्ण दिशाओं में वैसा ही दिखायी देता है, जैसे मेघों की घटा में बिजली। उनके रथ में जुते हुए घोडे़ श्वेत वर्ण वाले, वेगशाली तथा चन्द्रमा और कास के समान उज्ज्वल कांति से सुशोभित हैं। वे ऐसी तीव्र गति से चलते हैं, मानों आकाश को पी जायँगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

     जैसे वायु की प्रेरणा से बादल उड़ते फिरते हैं, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण द्वारा हाँके जाते हुए घोडे़, जो सुनहरे साजों से सजे होने के कारण अंगों में विचित्र शोभा धारण करते हैं, रणभूमि में अर्जुन की सवारी ढोते हैं। राजन! अर्जुन अस्त्रविद्या में कुशल हैं, उन्होंने तुम्हारी सेना को उसी प्रकार भस्म किया है, जैसे भयंकर आग ग्रीष्म ऋतु में बहुत बड़े जंगल को जला डालती है। जैसे मतवाला हाथी तालाब में घुसकर उसे मथ डालता है, उसी प्रकार हमने अर्जुन को तुम्हारी सेना को मथते और राजाओं को भयभीत करते देखा। जैसे सिंह मृगों के झुंड को भयभीत कर देता है, उसी प्रकार पाण्डुकुमार अर्जुन अपने धनुष की टंकार से तुम्हारे समस्त योद्धाओं को बारंबार भयभीत करते दिखायी दिये हैं। अपने अंगों में कवच धारण किये श्रीकृष्ण और अर्जुन जो सम्पूर्ण विश्व के महाधनुर्धर और सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ हैं, योद्धाओं के समूह में निर्भय विचरते हैं। भारत! परस्पर मार-काट मचाते हुए दोनों ओर से योद्धाओं के इस अत्यन्त भयंकर संग्राम को आरम्भ हुए आज सत्रह दिन हो गये। जैसे हवा शरद् ऋतु के बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन की मार से तुम्हारी सेनाएँ सब ओर से तितर-बितर हो गयी हैं। महाराज! जैसे महासागर में हवा के थपेडे़ खाकर नाव डगमगाने लगती है, उसी प्रकार सव्यसाची अर्जुन ने तुम्हारी सेना को कँपा डाला है। उस दिन जयद्रथ को अर्जुन के बाणों का निशाना बनते देखकर भी तुम्हारा कर्ण कहाँ चला गया था ? अपने अनुयायियों के साथ आचार्य द्रोण कहाँ थे? मैं कहाँ था? तुम कहाँ थे?

      कृतवर्मा कहाँ चले गये थे और भाईयोंसहित तुम्हारा भ्राता दुःशासन भी कहाँ था? राजन! तुम्हारे सम्बन्धी, भाई, सहायक और मामा सब-के-सब देख रहे थे तो भी अर्जुन ने उन सबको अपने पराक्रम द्वारा परास्त करके सब लोगों के मस्तक पर पैर रखकर जयद्रथ को मार डाला। अब और कौन बचा है जिसका हम भरोसा करें ? यहाँ कौन ऐसा पुरुष है जो पाण्डुपुत्र अर्जुन पर विजय पायेगा? महात्मा अर्जुन के पास नाना प्रकार के दिव्यास्त्र हैं। उनके गाण्डीव धनुष का गम्भीर घोष हमारा धैर्य छीन लेता है। जैसे चन्द्रमा, उदित न होने पर रात्रि अन्धकारमयी दिखायी देती है, उसी प्रकार हमारी यह सेना सेनापति के मारे जाने पर श्रीहीन हो रही है। हाथी ने जिसके किनारे के वृक्षों को तोड़ डाला हो, उस सूखी नदी के समान यह व्याकुल हो उठी है। हमारी इस विशालवाहिनी का नेता नष्ट हो गया है। ऐसी दशा में घास-फूस के ढेर में प्रज्वलित होने वाली आग के समान श्वेत घोड़ों वाले महाबाहु अर्जुन इस सेना के भीतर इच्छानुसार विचरेंगे। उधर सात्यकि और भीमसेन दोनों वीरों का जो वेग है, वह सारे पर्वतों को विदीर्ण कर सकता है। समुद्रों को भी सुखा सकता है। प्रजानाथ! द्यूतसभा में भीमसेन ने जो बात कही थी, उसे उन्होंने सत्य कर दिखाया और जो शेष है, उसे भी वे अवश्य ही पूर्ण करेंगे। जब कर्ण के साथ युद्ध चल रहा था, उस समय कर्ण सामने ही था तो भी पाण्डवों द्वारा रक्षित सेना उसके लिये दुर्जय हो गयी; क्योंकि गाण्डीवधारी अर्जुन व्यूह रचनापूर्वक उसकी रक्षा कर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 40-51 का हिन्दी अनुवाद)

      पाण्डव साधुपुरुष हैं तो भी तुम लोगों ने अकारण ही उनके साथ जो बहुत-से अनुचित बर्ताव किये हैं, उन्हीं का यह फल तुम्हें मिला है। भरतश्रेष्ठ! तुमने अपनी रक्षा के लिये ही प्रयत्नपूर्वक सारे जगत के लोगों को एकत्र किया था, किंतु तुम्हारा ही जीवन संशय में पड़ गया है। दुर्योधन! अब तुम अपने शरीर की रक्षा करो; क्योंकि आत्मा (शरीर) ही समस्त सुखों का भाजन है। जैसे पात्र के फूट जाने पर उसमें रखा हुआ जल चारों ओर बह जाता है, उसी प्रकार शरीर के नष्ट होने से उस पर अवलम्बित सुखों का भी अन्त हो जाता है। बृहस्पति की यह नीति है कि जब अपना बल कम या बराबर जान पड़े तो शत्रु के साथ संधि कर लेनी चाहिये। लड़ाई तो उसी वक्त छेड़नी चाहिये, जब अपनी शक्ति शत्रु से बढ़ी-चढ़ी हो। हम लोग बल और शक्ति में पाण्डवों से हीन हो गये हैं। अतः प्रभो! इस अवस्था में मैं पाण्डवों के साथ संधि कर लेना ही उचित समझता हूँ। जो राजा अपनी भलाई की बात नहीं समझता और श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान करता है, वह शीघ्र ही राज्य से भ्रष्ट हो जाता है।

      उसे कभी कल्याण की प्राप्ति नहीं होती। राजन यदि तुम राजा युधिष्ठिर के सामने नतमस्तक होकर हम अपना राज्य प्राप्त कर लें तो यही श्रेयस्कर होगा। मूर्खतावश पराजय स्वीकार करने वाले का कभी भला नहीं हो सकता। युधिष्ठिर दयालु हैं। वे राजा धृष्टद्युम्न और भगवान श्रीकृष्ण के कहने से तुम्हें राज्य पर प्रतिष्ठित कर सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण किसी से पराजित न होने वाले राजा युधिष्ठिर, अर्जुन और भीमसेन से जो कुछ भी कहेंगे, वे सब लोग उसे निःसंदेह स्वीकार कर लेंगे। कुरुराज धृतराष्ट्र की बात श्रीकृष्ण नहीं टालेंगे और श्रीकृष्ण की आज्ञा का उल्लंघन युधिष्ठिर नहीं कर सकेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। राजन! मै इस संधि को ही तुम्हारे लिये कल्याणकारी मानता हूँ। पाण्डवों के साथ किये जाने वाले युद्ध को नहीं। मैं कायरता या प्राण-रक्षा भावना से यह सब नहीं कहता हूँ। तुम मरणासन्न अवस्था में मेरी यह बात याद करोगे'। शरद्वान के पुत्र वृद्ध कृपाचार्य इस प्रकार विलाप करके गरम-गरम लंबी साँस खींचते हुए शोक और मोह के वशीभूत हो गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में कृपाचार्य का वचनविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

पाचवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन का कृपाचार्य को उत्तर देते हुए संधि स्वीकार न करके युद्ध का ही निष्चय करना”

    संजय कहते हैं ;- प्रजानाथ! तपस्वी कृपाचार्य के ऐसा कहने पर दुर्योधन जोर-जोर से गरम साँस खींचता हुआ कुछ देर तक चुपचाप बैठा रहा। दो घड़ी तक सोच-विचार करने के पश्चात शत्रुओं को संताप देने वाले आपके उस महामनस्वी पुत्र ने शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य को इस प्रकार उत्तर दिया। 'विप्रवर! एक हितैषी सुहृद को जो कुछ कहना चाहिये, वह सब आपने कह सुनाया। इतना ही नहीं, आपने प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करते हुए मेरी भलाई के लिये सब कुछ किया है। सब लोगों ने आपको शत्रुओं की सेनाओं में घुसते और अत्यन्त तेजस्वी महारथी पाण्डवों के साथ युद्ध करते हुए बारंबार देखा है। आप मेरे हितचिन्तक सुहृदय हैं तो भी आपने मुझे जो बात सुनायी है, वह सब मेरे मन को उसी तरह पसंद नहीं आती, जैसे मरणासन्न रोगी को दवा अच्छी नहीं लगती है। महाबाहो! विप्रवर! आपके युक्ति और कारणों से सुसंगत, हितकारक एवं उत्तम बात कही है तो भी वह मुझे अच्छी नहीं लग रही है। हम लोगों ने राजा युधिष्ठिर के साथ छल किया है। वे महाधनी थे, हमने उन्हें जूए में जीतकर निर्धन बना दिया। ऐसी दशा में वे हम लोगों पर विश्वास कैसे कर सकते हैं? हमारी बातों पर उन्हें फिर श्रद्धा कैसे हो सकती है? ब्रह्मन! पाण्डवों के हित में तत्पर रहने वाले श्रीकृष्ण मेरे यहाँ दूत बनकर आये थे, किंतु मैंने उन हृषीकेश के साथ धोखा किया। मेरा वह कर्म अतिचारपूर्ण था। भला, वे मेरी बात कैसे मानेंगे?

    सभा में बलात्कारपूर्वक लायी हुई द्रौपदी ने जो विलाप किया था तथा पाण्डवों का जो राज्य छीन लिया गया था, वह बर्ताव श्रीकृष्ण सहन नहीं कर सकते। प्रभो! श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों दो शरीर और एक प्राण हैं। वे दोनों एक दूसरे के आश्रित हैं। पहले जो बात मैनें केवल सुन रखी थी, उसे अब प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। अपने भानजे अभिमन्यु के मारे जाने का समाचार सुनकर श्रीकृष्ण सुख की नींद नहीं सोते हैं। हम सब लोग उनके अपराधी हैं, फिर वे हमें कैसे क्षमा कर सकते हैं? अभिमन्यु के मारे जाने से अर्जुन को भी चैन नहीं है, फिर वे प्रार्थना करने पर भी मेरे हित के लिये कैसे यत्न करेंगे। मझले पाण्डव महाबली भीमसेन का स्वभाव बड़ा ही कठोर है। उन्होंने बड़ी भयंकर प्रतिज्ञा की है। सूखे काठ की तरह वे टूट भले ही जायँ, झुक नहीं सकते। दोनों भाई नकुल और सहदेव तलवार बाँधे और कवच धारण किये हुए यमराज के समान भयंकर जान पड़ते हैं। वे दोनों वीर मुझसे वैर मानते हैं। द्विजश्रेष्ठ! धृष्टद्युम्न और शिखण्डी ने भी मेरे साथ वैर बाँध रखा है, फिर वे दोनों मेरे हित के लिये कैसे यत्न कर सकते हैं? इसलिये अब उन शत्रुसंतापी वीरों को युद्ध से रोका नहीं जा सकता। जबसे द्रौपदी को क्लेश दिया गया, तब से वह दुखी हो मेरे विनाश का संकल्प लेकर प्रतिदिन मिट्टी की वेदी पर सोया करती है। जब तक वैर का पूरा बदला न चुका लिया जाय, तब तक के लिये उसने यह व्रत ले रखा है।

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 20-35 का हिन्दी अनुवाद)

      'द्रौपदी अपने पतियों के अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि के लिये बड़ी कठोर तपस्या करती है और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की सगी बहन सुभद्रा मान और अभिमान को दूर फेंककर सदा दासी की भाँति द्रौपदी की सेवा करती है। इस प्रकार इन सारे कार्यों के रूप में वैर की आग प्रज्वलित हो उठी, जो किसी प्रकार बुझ नहीं सकती। अभिमन्यु के विनाश से जिसके हृदय में गहरी चोट पहुँची है, उस अर्जुन के साथ मेरी संधि कैसे हो सकती है ? जब मैं समुद्र से घिरी हुई सारी पृथ्वी का एकच्छत्र राजा की हैसियत से उपभोग कर चुका हूँ, तब इस समय पाण्डवों की कृपा का पात्र बनकर कैसे राज्य भोगूँगा। समस्त राजाओं के ऊपर सूर्य के समान प्रकाशित होकर अब दास की भाँति युधिष्ठिर के पीछे-पीछे कैसे चलूँगा। स्वयं बहुत-से भोग भोगकर और प्रचुर धनदान करके अब दीन पुरुषों के साथ दीनतापूर्ण जीविका का आश्रय ले किस प्रकार निर्वाह कर सकूँगा? आपने स्नेहवश हित की ही बात कही है। आपकी इस बात में मैं दोष नहीं निकालता और न इसकी निंदा ही करता हूँ। मेरा कथन तो इतना ही है कि अब किसी प्रकार संधि का अवसर नहीं रह गया है। मेरी ऐसी ही मान्यता है। शत्रुओं को तपाने वाले वीर! अब मैं अच्छी तरह युद्ध करने में ही उत्तम नीति का पालन समझ रहा हूँ। हमारा यह समय कायरता दिखाने का नहीं, उत्साहपूर्वक युद्ध करने का ही है।

     तात! मैंने बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया। ब्राह्मणों को पर्याप्त दक्षिणाएँ दे दीं। सारी कामनाएँ पूर्ण कर लीं। वेदों का श्रवण कर लिया। शत्रुओं के माथे पर पैर रखा और भरण-पोषण के योग्य व्यक्तियों के पालन-पोषण की अच्छी व्यवस्था कर दी। इतना ही नहीं, मैंने दिनों का उद्धार कार्य भी सम्पन्न कर दिया है। अतः द्विजश्रेष्ठ! अब मैं पाण्डवों से इस प्रकार संधि के लिये याचना नहीं कर सकता। मैंने दूसरों के राज्य जीते, अपने राष्ट्र का निरन्तर पालन किया, नाना प्रकार के भोग भोगे; धर्म, अर्थ और काम का सेवन किया और पितरों तथा क्षत्रिय धर्म दोनों के ऋण से उऋण हो गया। संसार में कोई भी सुख सदा रहने वाला नहीं है। फिर राष्ट्र और यश भी कैसे स्थिर रह सकते हैं ? यहाँ तो कीर्ति का ही उपार्जन करना चाहिये और कीर्ति युद्ध के सिवा किसी दूसरे उपाय से नहीं मिल सकती। क्षत्रिय की भी यदि घर में मृत्यु हो जाय तो उसे निन्दित माना गया है। घर में खाट पर सोकर मरना यह क्षत्रिय के लिये महान पाप है। जो बड़े-बड़े़ यज्ञों का अनुष्ठान करके वन में या संग्राम में शरीर का त्याग करता है, वही क्षत्रिय महत्त्व को प्राप्त होता है। जिसका शरीर बुढ़ापे से जर्जर हो गया हो, जो रोग से पीड़ित हो, परिवार के लोग जिसके आसपास बैठकर रो रहे हो और उन रोते हुए स्वजनों के बीच में जो करूण विलाप करते-करते अपने प्राणों का परित्याग करता है, वह पुरुष कहलाने योग्य नहीं है। अतः जिन्होंने नाना प्रकार के भोगों का परित्याग करके उत्तम गति प्राप्त कर ली है, इस समय युद्ध के द्वारा मैं उन्हीं के लोकों में जाऊँगा।'

(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 36-52 का हिन्दी अनुवाद)

     'जिनके आचरण श्रेष्ठ हैं जो युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते, अपनी प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखाते और यज्ञों द्वारा यजन करने वाले हैं तथा जिन्होंने शस्त्र की धारा में अवभृथस्नान किया है, उन समस्त बुद्धिमान पुरुषों का निश्चय ही स्वर्ग में निवास होता है। निश्चय ही युद्ध में प्राण देने वालों की ओर अप्सराएँ बड़ी प्रसन्नता से निहारा करती हैं। पितृगण उन्हें अवश्य ही देवताओं की सभा में सम्मानित होते देखते हैं। वे स्वर्ग में अप्सराओं से घिरकर आनंदित होते देखे जाते हैं। देवता तथा युद्ध में पीठ न दिखाने वाले शूरवीर जिस मार्ग से जाते हैं, क्या उसी मार्ग पर अब हम लोग भी वृद्ध पितामह, बुद्धिमान आचार्य द्रोण, जयद्रथ, कर्ण तथा दुःशासन के साथ आरूढ़ होंगे?

    कितने ही वीर नरेश मेरी विजय के लिये यथाशक्ति चेष्टा करते हुए बाणों से क्षत-विक्षत हो मारे जाकर रक्तरंजित शरीर से संग्रामभूमि में सो रहे हैं। उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता और शस्त्रोंक्त विधि से यज्ञ करने वाले अन्य शूरवीर यथोचित रीति से युद्ध में प्राणों का परित्याग करके इन्द्रलोक में प्रतिष्ठित हो रहे हैं। उन वीरों ने स्वयं ही जिस मार्ग का निर्माण किया है, वह पुनः बड़े वेग से सद्गति को जाने वाले बहुसंख्यक वीरों द्वारा दुर्गम हो जाय (अर्थात इतने अधिक वीर उस मार्ग से यात्रा करें कि भीड़ के मारे उस पर चलना कठिन हो जाये)। जो शूरवीर मेरे लिये मारे गये हैं, उनके उस उपकार का निरन्तर स्मरण करता हुआ उस ऋण को उतारने की चेष्टा में संलग्न होकर मैं राज्य में मन नहीं लगा सकता। मित्रों, भाईयों और पितामहों को मरवाकर यदि मैं अपने प्राणों की रक्षा करुँ तो सारा संसार निश्चय ही मेरी निंदा करेगा। बंधु-बांधवों और मित्रों से हीन हो युधिष्ठिर के पैरों में पड़ने पर मुझे जो राज्य मिलेग, वह कैसा होगा?'

     इस प्रकार राजा दुर्योधन की कही हुई बात सुनकर सब क्षत्रियों ने बहुत अच्छा, बहुत अच्छा कहकर उसका आदर किया और उसे भी धन्यवाद दिया। सबने अपनी पराजय का शोक छोड़कर मन-ही-मन पराक्रम करने का निश्चय किया। युद्ध करने के विषय में सबका पक्का विचार हो गया और सबके हृदय में उत्साह भर गया। तत्पश्चात सब योद्धाओं ने अपने-अपने वाहनों को विश्राम दे युद्ध का अभिनन्दन किया और आठ कोस से कुछ कम दूरी पर जाकर डेरा डाला। आकाश के नीचे हिमालय के शिखर की सुन्दर, पवित्र एवं वृक्षरहित चौरस भूमि पर अरुणसलिला सरस्वती के निकट जाकर उन सबने स्नान और जलपान किया। राजन! वे कालप्रेरित समस्त क्षत्रिय आपके पुत्र द्वारा उत्साह देने पर एक दूसरे के द्वारा मन को स्थिर करके पुनः रणभूमि की ओर लौटे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में दुर्योधन का वाक्यविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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