सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
इक्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“भगवान श्रीकृष्ण का कर्ण को चेतावनी देना और कर्ण का वध”
संजय कहते हैं ;- राजन! उस समय रथ पर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- राधानन्दन! सौभाग्य की बात है कि अब यहाँ तुम्हें धर्म की याद आ रही है! प्रायः यह देखने में आता है कि नीच मनुष्य विपत्ति में पड़ने पर दैव की ही निंदा करते हैं। अपने किये हुए कुकर्मों की नहीं। कर्ण! जब तुमने तथा दुर्योधन, दुःशासन और सुबल पुत्र शकुनि ने एक वस्त्र धारण करने वाली रजस्वला द्रौपदी को सभा में बुलवाया था, उस समय तुम्हारे मन में धर्म का विचार नहीं उठा था? जब कौरव सभा में जूए के खेल का ज्ञान न रखने वाले राजा युधिष्ठिर को शकुनि ने जान-बूझकर छलपूर्वक हराया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? कर्ण! वनवास का तेरहवाँ वर्ष बीत जाने पर भी जब तुमने पाण्डवों का राज्य उन्हें वापस नहीं दिया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? जब राजा दुर्योधन ने तुम्हारी ही सलाह लेकर भीमसेन को जहर मिलाया हुआ अन्न खिलाया और उन्हें सर्पों से डँसवाया, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था? राधानन्दन! उन दिनों वारणावत नगर में लाक्षा भवन के भीतर सोये हुए कुन्ती कुमारों को जब तुमने जलाने का प्रयत्न कराया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था?
राधानन्दन! पहले नीच कौरवों द्वारा क्लेश पाती हुई निरपराध द्रौपदी को जब तुम निकट से देख रहे थे, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था? (याद है न, तुमने द्रौपदी से कहा था) कष्णे' पाण्डव नष्ट हो गये, सदा के लिये नरक में पड़ गये। अब तू किसी दूसरे पति का वरण कर ले। जब तुम ऐसी बात कहते हुए गजगामिनी द्रौपदी को निकट से आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? कर्ण! फिर राज्य में लोभ में पड़कर तुमने शकुनि की सलाह के अनुसार जब पाण्डवों को दुबारा जूए के लिये बुलवाया, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था? कर्ण! फिर राज्य के लोभ में पड़कर तुमने शकुनि की सलाह के अनुसार जब पांडवों को दुबारा जुए के लिये बुलवाया, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? जब युद्ध में तुम बहुत-से महारथियों ने मिलकर बालक अभिमन्यु को चारों ओर से घेरकर मार डाला था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? यदि उन अवसरों पर यह धर्म नहीं था तो आज भी यहाँ सर्वथा धर्म की दुहाई देकर तालु सुखाने से क्या लाभ? सूत! अब यहाँ धर्म के कितने ही कार्य क्यों न कर डालो, तथापि जीते-जी तुम्हारा छुटकारा नहीं हो सकता। पुष्कर ने राजा नल को जूए में जीत लिया था; किंतु उन्होंने अपने ही पराक्रम से पुनः अपने राज्य और यश दोनों को प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार लोभशून्य पाण्डव भी अपनी भुजाओं के बल से सम्पूर्ण सगे-सम्बन्धियों के साथ रहकर समरांगण में बढे़-चढे़ शत्रुओं का संहार करके फिर अपना राज्य प्राप्त करेंगे। निश्चय ही ये सोमकों के साथ अपने राज्य पर अधिकार कर लेंगे। पुरुषसिंह पाण्डव सदैव अपने धर्म से सुरक्षित हैं; अतः इनके द्वारा अवश्य धृतराष्ट्र के पुत्रों का नाश हो जायगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 15-33 का हिन्दी अनुवाद)
संजय कहते हैं ;- भारत! उस समय भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर कर्ण ने लज्जा से अपना सिर झुका लिया, उससे कुछ भी उत्तर देते नहीं बना। भरतनन्दन! वह महान वेग और पराक्रम से सम्पन्न हो क्रोध से ओंठ फड़फड़ाता हुआ धनुष उठाकर अर्जुन के साथ युद्ध करने लगा। तब वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने पुरुष प्रवर अर्जुन से इस प्रकार कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- महाबली वीर! तुम कर्ण को दिव्यास्त्र से ही घायल करके मार गिराओ। भगवान के ऐसा कहने पर अर्जुन उस समय कर्ण के प्रति अत्यन्त कुपित हो उठे। उसकी पिछली करतूतों को याद करके उनके मन में भयानक रोष जाग उठा। कुपित होने पर उनके सभी छिद्रों से रोम-रोम से आग की चिनगारियाँ छूटने लगीं। राजन! उस समय यह एक अद्भुत-सी बात हुई।
यह देख कर्ण ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके बाणों की झड़ी लगा दी और पुनः रथ को उठाने का प्रयत्न किया। तब पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र से ही उसके अस्त्र को दबाकर उसके ऊपर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी और उसे अच्छी तरह घायल कर दिया। तदनन्तर कुन्तीकुमार ने कर्ण को लक्ष्य करके दूसरे दिव्यास्त्र का प्रयोग किया, जो जातवेदा अग्नि का प्रिय अस्त्र था। वह आग्नेयास्त्र अपने तेज से प्रज्वलित हो उठा। परंतु कर्ण ने वारुणास्त्र का प्रयोग करके उस अग्नि को बुझा दिया। साथ ही सम्पूर्ण दिशाओं में मेघों की घटा घिर आयी और सब ओर अन्धकार छा गया। पराक्रमी अर्जुन इससे विचलित नहीं हुए। उन्होंने राधापुत्र कर्ण के देखते-देखते वायव्यास्त्र से उन बादलों को उड़ा दिया।
तब सूतपुत्र ने पाण्डुकुमार अर्जुन का वध करने के लिये जलती हुई आग के समान एक महाभयंकर बाण हाथ में लिया। उस उत्तम बाण को धनुष पर चढ़ाते ही पर्वत, वन और काननों सहित सारी पृथ्वी डगमगाने लगी। भारत! कंकड़ों की वर्षा करती हुई प्रचण्ड वायु चलने लगी। सम्पूर्ण दिशाओं में धूल छा गयी और स्वर्ग के देवताओं में भी हाहाकार मच गया। माननीय नरेश! जब सूतपुत्र उस बाण का संधान किया, उस समय उसे देखकर समस्त पाण्डव दीनचित्त हो बड़े भारी विषाद में डूब गये। कर्ण के हाथ से छूटा हुआ वह बाण इन्द्र के वज्र के समान प्रकाशित हो रहा था। उसका अग्रभाग बहुत तेज था। वह अर्जुन की छाती में जा लगा और जैसे उत्तम सर्प बाँबी में घुस जाता है, उसी प्रकार वह उनके वक्षःस्थल में समा गया। समरांगण में उस बाण की गहरी चोट खाकर महात्मा अर्जुन को चक्कर आ गया। गाण्डीव धनुष पर रखा हुआ उनका हाथ ढीला पड़ गया और वे शत्रुमर्दन अर्जुन भूकम्प के समय हिलते हुए श्रेष्ठ पर्वत के समान काँपने लगे।
इसी बीच में मौका पाकर महारथी कर्ण ने धरती में घँसे हुए पहिये को निकालने का विचार किया। वह रथ से कूद पड़ा और दोनों हाथों से पकड़कर उसे ऊपर उठाने की कोशिश करने लगा; परंतु महाबलवान होने पर भी वह दैव वश अपने प्रयास में सफल न हो सका। इसी समय होश में आकर किरीटधारी महात्मा अर्जुन ने यमदण्ड के समान भयंकर आंचलिक नामक बाण हाथ में लिया। यह देख भगवान श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन से कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- पार्थ! कर्ण जब तक रथ पर नहीं चढ़ जाता, तब तक ही अपने बाण के द्वारा इस शत्रु का मस्तक काट डालो।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 34-47 का हिन्दी अनुवाद)
तब बहुत अच्छा कहकर अर्जुन ने भगवान की उस आज्ञा को सादर शिरोधार्य किया और उस प्रज्वलित बाण को हाथ में लेकर जिसका पहिया फँसा हुआ था, कर्ण के उस विशाल रथ पर फहराती हुई सूर्य के समान प्रकाशमान ध्वजा पर प्रहार किया। हाथी की साँकल के चिह्न से युक्त उस श्रेष्ठ ध्वजा के पृष्ठ भाग में सुवर्ण, मुक्ता, मणि और हीरे जडे़ हुए थे। अत्यन्त ज्ञानवान एवं उत्तम शिल्पियों ने मिलकर उस सुवर्णजटित सुन्दर ध्वज का निर्माण किया था। वह विश्वविख्यात ध्वजा आपकी सेना की विजय का आधार स्तम्भ होकर सदा शत्रुओं को भयभीत करती थी। उसका स्वरूप प्रशंसा के भी योग्य था। वह अपनी प्रभा से सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि की समानता करती थी। किरीटधारी अर्जुन ने सोने के पंखवाले और आहुति से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान तेजस्वी उन तीखे क्षुरप्र से महारथी कर्ण के उस ध्वज को नष्ट कर दिया, जो अपनी प्रभा से निरन्तर देदीप्यमान होता रहता था। कटकर गिरते हुए उस ध्वज के साथ ही कौरवों के यश, अभिमान, समस्त प्रिय कार्य तथा हृदय का भी पतन हो गया और चारों ओर महान हाहाकार मच गया।
भारत! शीघ्रकारी कौरव वीर अर्जुन के द्वारा युद्धस्थल में उस ध्वज को काटकर गिराया हुआ देख उस समय आपके सभी सैनिकों ने सूतपुत्र की विजय की आशा त्याग दी। तदनन्तर कर्ण के वध के लिये शीघ्रता करते हुए अर्जुन ने अपने तरकस से एक अंजलिक नामक बाण निकाला, जो इन्द्र के वज्र और अग्नि के दण्ड के समान भयंकर तथा सूर्य की एक उत्तम किरण किरण के समान कान्तिमान था। वह शत्रु के मर्मस्थल को छेदने में समर्थ, रक्त और मांस से लिप्त होने वाला, अग्नि तथा सूर्य से तुल्य तेजस्वी, बहुमूल्य, मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के प्राण लेने वाला, मूठी बँधे हुए हाथ से तीन हाथ बड़ा, छः पंखों से युक्त, शीघ्रगामी, भयंकर वेगशाली, इन्द्र के वज्र के तुल्य पराकम प्रकट करने वाला, मूँह बाये हुए कालग्नि के समान अत्यन्त भयानक, भगवान शिव के पिनाक और नारायण के चक्र-सदृश भयदायक तथा प्राणियों का विनाश करने वाला था। देवताओं के समुदाय भी जिनकी गति को अनायास नहीं रोक सकते, जो सदा सबके द्वारा सम्मानित, महामनस्वी, विशाल बाण धारण करने वाले और देवताओं तथा असुरों पर भी विजय पाने में समर्थ है, उन कुन्तीकुमार अर्जुन ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उस बाण को हाथ में लिया।
महायुद्ध में उस बाण को हाथ में लिया और ऊपर उठाया गया देख समस्त चराचर जगत काँप उठा। ऋषि लोग जोर-जोर से पुकार उठे कि जगत का कल्याण हो! तत्पश्चात गाण्डीवधारी अर्जुन ने उस अप्रमेय शक्तिशाली बाण को धनुष पर रखा और उसे उत्तम एवं महान दिव्यास्त्र से अभिमंत्रित करके तुरन्त ही गाण्डीव को खींचते हुए कहा-यह महान दिव्यास्त्र प्रेरित महाबाण शत्रु के शरीर, हृदय और प्राणों का विनाश करने वाला है। यदि मैंने तप किया हो, गुरुजनों को सेवा द्वारा संतुष्ट हो, यज्ञ किया हो और हितैषी मित्रों की बातें ध्यान देकर सुनी हो तो इस सत्य के प्रभाव से यह अच्छी तरह संधान किया हुआ बाण मेरे शक्तिशाली शत्रु कर्ण का नाश कर डाले, ऐसा कहकर धनंजय ने उस घोर बाण को कर्ण के वध के लिये छोड़ दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 48-60 का हिन्दी अनुवाद)
जैसे अथर्वांगिरस मन्त्रों द्वारा अभिचारिक प्रयोग करके उत्पन्न की हुई कृत्या उग्र, प्रज्वलित और युद्ध में मृत्यु के लिये भी असंहार होती है, उसी प्रकार वह बाण भी था। किरीटधारी अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न होकर उस बाण को लक्ष्य करके बोले,
अर्जुन ने कहा ;- मेरा वह बाण मुझे विजय दिलाने वाला हो। इसका प्रभाव चन्द्रमा और सूर्य के समान है। मेरा छोड़ा हुआ यह घातक अस्त्र कर्ण को यमलोक पहुँचा दे। किरीटधारी अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न हो अपने शत्रु को मारने की इच्छा से आततायी बन गये थे। उन्होंने चन्द्रमा और सूर्य समान प्रकाशित होने वाले उस विजय दायक श्रेष्ठ बाण से अपने शत्रुओं को बींध डाला। बलवान अर्जुन के द्वारा इस प्रकार छोड़ा हुआ वह सूर्य के तुल्य तेजस्वी बाण आकाश एवं दिशाओं को प्रकाशित करने लगा। जैसे इन्द्र ने अपने वज्र से वृत्रासुर का मस्तक काट लिया था, उसी प्रकार अर्जुन ने उस बाण द्वारा कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया।
राजन! महान दिव्यास्त्र से अभिमंत्रित अंजलिक नामक उत्तम बाण के द्वारा इन्द्रपुत्र कुन्तीकुमार अर्जुन ने अपराहृ काल में वैकर्तन कर्ण का सिर काट लिया। अंजलिक द्वारा कटा हुआ कर्ण का वह मस्तक पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके बाद उसका शरीर भी धराशायी हो गया। जैसे लाल मण्डल वाला सूर्य अस्ताचल से नीचे गिरता है, उसी प्रकार उदित सूर्य के समान तेजस्वी तथा शरत्कालीन आकाश के मध्य भाग में तपने वाले भास्कर के समान दुःसह वह मस्तक सेना के अग्रभाग में पृथ्वी पर जा गिरा। तदनन्तर सदा सुख भोगने के योग्य, उदाकर्मा कर्ण के उस अत्यन्त सुन्दर शरीर को उसके मस्तक ने बड़ी कठिनाई से छोड़ा। ठीक उसी तरह, जैसे धनवान पुरुष अपने समृद्धिशाली घर को और मन एवं इन्द्रियों को वश में रखने वाला पुरुष सत्संग को बड़े कष्ट से छोड़ पाता है। तेजस्वी कर्ण का वह ऊँचा शरीर बाणों से क्षत-विक्षत हो घावों से खून की धारा बहाता हुआ प्राणशून्य होकर गिर पड़ा, मानो वज्र के आघात से भग्न हुआ किसी पर्वत का विशाल शिखर गेरू मिश्रित जल की धारा वहा रहा हो। धरती पर गिराये गये कर्ण के शरीर से एक तेज निकलकर आकाश में फैल गया और ऊपर जाकर सूर्यमण्डल में विलीन हो गया। इस अद्भुत दृश्य को वहाँ खडे़ हुए सब लोगों ने अपनी आँखो से देखा था। कर्ण के मारे जाने पर उसे अर्जुन द्वारा गिराया हुआ देख पाण्डवों ने उच्चस्वर में शंख बजाया।
इसी प्रकार श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा हर्ष में भरे हुए नकुल, सहदेव ने भी शंख बजाये। सोमक गण कर्ण को मरकर गिरा हुआ देख अपनी सेनाओं के साथ सिंहनाद करने लगे। वे बड़े हर्ष में भरकर बाजे-बजाने और कपड़े तथा हाथ हिलाने लगे। नरेन्द्र! अत्यन्त हर्ष में भरे हुए पाण्डव योद्धा अर्जुन को बधाई देते हुए पास आकर मिले। अर्जुन बाणों से छिन्न-भिन्न एवं प्राणशून्य हुए कर्ण को रथ के नीचे पृथ्वी पर गिरा देख दूसरे बलवान सैनिक एक दूसरे को गले से लगाकर नाचते और गर्जते हुए बातें करते थे। कर्ण का वह कटा हुआ मस्तक वायु के वेग से टूटकर गिरे हुए पर्वत खण्ड के समान, यज्ञ के अन्त में बुझी हुई अग्नि के सदृश तथा अस्ताचल पर पहुँचे हुए सूर्य के बिम्ब की भाँति सुशोभित हो रहा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 61-69 का हिन्दी अनुवाद)
सभी अंगों में बाणों व्याप्त और खून से लथपथ हुआ कर्ण का शरीर अपनी किरणों से प्रकाशित होने वाले अंशुमाली सूर्य के समान शोभा पा रहा था। बाणमयी उदीप्त किरणों से शत्रु की सेना को तपाकर कर्णरूपी सूर्य बलवान अर्जुनरूपी काल से प्रेरित हो अस्ताचल को जा पहुँचा। जैसे अस्ताचल को जाता हुआ सूर्य अपनी प्रभा को लेकर चला जाता है, उसी प्रकार वह बाण कर्ण के प्राण लेकर चला गया। माननीय नरेश! दान देते समय जो दूसरे दिन के लिये वादा नहीं करता था, उस सूतपुत्र कर्ण का अंजलिक नामक बाण से कटा हुआ देहसहित मस्तक अपराहृ काल में धराशायी हो गया। उस बाण ने सारी सेना के ऊपर-ऊपर जाकर अर्जुन के शत्रुभूत कर्ण के शरीर सहित मस्तक को वेगपूर्वक अनायास ही काट डाला था।
शूरवीर कर्ण को बाण से व्याप्त और खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ देख मद्रराज शल्य उस कटी हुई ध्वजा वाले रथ के द्वारा ही वहाँ से भाग खडे़ हुए। कर्ण के मारे जाने पर युद्ध में अत्यन्त घायल हुए कौरव सैनिक अर्जुन के प्रज्वलित होते हुए महान ध्वज को बारंबार देखते हुए भय से पीड़ित हो भागने लगे। सहस्र नेत्रधारी इन्द्र के समान पराक्रमी कर्ण का सहस्रदल कमल के समान एक सुन्दर मस्तक उसी प्रकार पृथ्वी पर गिर पड़ा, जैसे सायंकाल में सहस्र किरणों वाले सूर्य का मण्डल अस्त हो जाता है। जिसकी छाती चौड़ी और नेत्र कमल के समान सुन्दर थे तथा कांति तपाये हुए सुवर्ण के समान जान पड़ती थी, वह कर्ण अर्जुन के बाणों से संतप्त हो धरती पर पड़ा, धूल में सना मलिन हो गया था। अपने उस पुत्र की ओर बारंबार देखते हुए मन्द किरणों वाले सूर्य देव धीरे-धीरे अपने मंदिर (अस्ताचल) की ओर जा रहे थे।
(इस प्रकार महाभारत कर्णपर्व में कर्णवधविषयक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
बियानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरवों का शोक, भीम आदि पाण्डवों का हर्ष, कौरव-सेना का पलायन और दुःखित शल्य का दुर्योधन को सात्वना देना”
संजय कहते हैं ;- राजन! कर्ण और अर्जुन के संग्राम में बाणों द्वारा सारी सेनाएँ रौंद डाली गयी थीं और अधिरथ पुत्र कर्ण पैदल होकर मारा गया था। यह सब देखकर राजा शल्य, जिसका आवरण एवं अन्य सारी सामग्री नष्ट कर दी गयी थी, कौरव-सेना के रथ, घोडे़ और हाथी मार डाले गये थे। सूतपुत्र का भी वध कर दिया गया था। उस अवस्था में उस सेना को देखकर दुर्योधन की आँखों में आँसू भर आये और वह बारंबार लंबी साँस खींचता हुआ दीन एवं दुखी हो गया। शूरवीर कर्ण पृथ्वी पर पड़ा हुआ था। उसके शरीर में बहुत-से बाण व्याप्त हो रहे थे तथा सारा अंग खून से लथपथ हो रहा था। उस अवस्था में दैवेच्छा से पृथ्वी पर उतरे हुए सूर्य के समान उसे देखने के लिये सब लोग उसकी लाश को घेरकर खडे़ हो गये। कोई प्रसन्न था तो कोई भयभीत। कोई विषादग्रस्त था तो कोई आश्चर्यचकित तथा दूसरे बहुत-से लोग शोक से मृतप्राय हो रहे थे। आपके और शत्रुपक्ष के सैनिकों में से जिसकी जैसी प्रकृति थी, वे परस्पर उसी भाव में मग्न थे। जिसके कवच, आभूषण, वस्त्र और अस्त्र-शस्त्र छिन्न-भिन्न होकर पड़े थे, उस महाबली कर्ण को अर्जुन द्वारा मारा गया देख कौरव सैनिक निर्जन वन में साँड़ के मारे जाने पर भागने वाली गायों के समान इधर-उधर भाग चले।
कर्ण के मारे जाने पर धृतराष्ट्र पुत्रों को भयभीत करते हुए भीमसेन भयंकर स्वर से सिंहनाद करके आकाश और पृथ्वी को कँपाने तथा ताल ठोंककर नाचने-कूदने लगे। राजन! इसी प्रकार समस्त सोमक और सृंजय भी शंख बजाने और एक दूसरे को छाती से लगाने लगे। सूतपुत्र के मारे जाने पर उस समय पाण्डव दल के सभी क्षत्रिय परस्पर हर्षमग्न हो रहे थे। जैसे सिंह हाथी को पछाड़ देता है, उसी प्रकार पुरुषप्रवर अर्जुन ने बड़ी भारी मार-काट मचाकर कर्ण का वध किया, अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और उन्होंने वैर का अंत कर दिया।
राजन! जिसकी ध्वजा काट दी गयी थी, उस रथ के द्वारा मद्रराज शल्य भी विमुढ़चित्त होकर तुरन्त दुर्योधन के पास गये और दुःख से आँसू बहाते हुए इस प्रकार बोले-नरेश्वर! तुम्हारी सेना के हाथी, घोडे़, रथ और प्रमुख वीर नष्ट-भ्रष्ट हो गये। सारी सेना में यमराज का राज्य-सा हो गया है। पर्वत शिखरों के समान विशाल हाथी, घोडे़ और पैदल मनुष्य एक दूसरे से टक्कर लेकर अपने प्राण खो बैठे हैं। भारत! आज कर्ण और अर्जुन में जैसा युद्ध हुआ है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ था। कर्ण ने धावा करके श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा तुम्हारे अन्य सब शत्रुओं को भी प्रायः प्राणों के संकट में डाल दिया था; परन्तु कोई फल नहीं निकला। निश्चय ही दैव कुन्तीपुत्र के अधीन होकर काम कर रहा है, क्योंकि वह पाण्डवों की तो रक्षा करता है और हमारा विनाश। यही कारण है कि तुम्हारे अर्थ की सिद्धि के लिये प्रयत्न करने वाले प्रायः सभी वीर शत्रुओं के हाथ से बलपूर्वक मारे गये।
राजन! तुम्हारी सेना के श्रेष्ठ वीर कुबेर, यम और इन्द्र के समान प्रभावशाली तथा बल, पराक्रम, शौर्य, तेज एवं अन्य नाना प्रकार के गुणसमुहों से सम्पन्न थे। जो-जो राजा तुम्हारे स्वार्थ की सिद्धि चाहने वाले और अवध्य के समान थे, उन सबको पाण्डवों ने युद्ध में मार डाला। अतः भारत! तुम शोक न करो। यह सब आरम्भ का खेल है। सबको सदा ही सिद्धि नहीं मिलती, ऐसा जानकर धैर्य धारण करो। मद्रराज शल्य की ये बातें सुनकर और अपने अन्याय पर भी मन-ही-मन दृष्टि डालकर दुर्योधन बहुत उदास एवं दुःखी हो गया। वह अत्यन्त पीड़ित और अचेत-सा होकर बारंबार लंबी उसाँसें भरने लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में शल्य का युद्ध से प्रत्यागमनविषयक बानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
तिरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन द्वारा पच्चीस हजार पैदल सैनिको का वध, अर्जुनद्वारा रथसेना का विध्वंस, कौरवसेना का पलायन और दुर्योधन का उसे रोकने के लिये विफल प्रयास”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! कर्ण और अर्जुन के उस संग्राम में, जबकि सब के लिये भयानक दिन उपस्थित हुआ था, बाणों की आग से दग्ध और उन्मथित होकर भागती हुई कौरव सेना तथा सृंजय सेना की कैसी अवस्था हुई?
संजय ने कहा ;- राजन! उस युद्धस्थल में मनुष्य के शरीरों, हाथियों और घोड़ों का जैसा घोर एवं महान विनाश हुआ, वह सब सावधान होकर सुनिये। महाराज! कर्ण के मारे जाने पर अर्जुन ने महान सिंहनाद किया, उस समय आपके पुत्रों के मन में बड़ा भारी भय समा गया। जब कर्ण का वध हो गया, जब आपके किसी भी योद्धा का मन कदापि जल्दी पराक्रम दिखाने में नहीं लगा और न सेना को संगठित रखने की ओर ही किसी का ध्यान गया। अगाध एवं अपार समुद्र में तूफान उठने पर जब जहाज फट जाता है, उस समय पार जाने की इच्छा वाले व्यापारियों की जैसी अवस्था होती है, वही दशा किरीटधारी अर्जुन के द्वारा द्वीपस्वरूप कर्ण के मारे जाने पर कौरवों की हुई।
राजन! सूतपुत्र का वध हो जाने पर सिंह से पीड़ित हुए मृगों के समान कौरव सैनिक भयभीत हो उठे। वे अस्त्र-शस्त्रों से घायल हो गये थे और अनाथ होकर अपने लिये कोई रक्षक चाहते थे। हम सब लोग सायंकाल में सव्यसाची अर्जुन ने परास्त होकर शिबिर की ओर लौटे थे। उस समय हमारी दशा उन बैलों के समान हो रही थी, जिनके सींग तोड़ दिये गये हों। हम उन सर्पों के समान हो गये थे, जिनके विषैले दाँत नष्ट कर दिये गये हों। राजन! सूतपुत्र के मारे जाने पर पैने बाणों से क्षत-विक्षत एवं पराजित हुए आपके पुत्र भय के मारे-भागने लगे। उनके प्रमुख वीर रणभूमि में मारे जा चुके थे। उनके यन्त्र और कवच गिर गये थे। वे अचेत होकर यह भी नहीं सोच पाते थे कि हम भागकर किस दिशा में जाय? एक दूसरे को कुचलते और चारों ओर देखते हुए भय से पीड़ित हो गये थे। निश्चय अर्जुन मेरा ही पीछा कर रहे हैं। भीमसेन मेरी ही ओर चढे़ आ रहे हैं, ऐसा मानते हुए कौरव सैनिक घबराहट में पड़कर गिर जाते थे। वे सब-के-सब उदास हो गये थे। कुछ लोग घोड़ों पर, कुछ हाथियों पर और कुछ दूसरे महारथी रथों पर आरूढ़ हो भय के मारे बड़े वेग से भागने लगे। उन्होंने पैदल सैनिकों को वही छोड़ दिया। भयभीत होकर भागते हुए हाथियों ने रथों को चकनाचूर कर दिया। विशाल रथ पर बैठे हुए महारथियों ने घुड़सवारों को कुचल दिया और अश्व समुदायों ने पैदल समूहों के कचूमर निकाल दिये। राजन! जैसे सर्पों और चारों-बटमारों से भरे हुए वन में अपने दल से बिछुडे़ हुए लोग अनाथ हो भारी विपत्ति में पड़ जाते हैं, सूतपुत्र कर्ण के मारे जाने पर आपके योद्धाओं की भी वैसी ही दशा हो गयी।
महाराज! उस समय अपने समस्त योद्धाओं को भीमसेन के भय से व्याकुल हो भागते देख दुर्योधन ने हाहाकार करके अपने सारथि से कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- सूत! तुम धीरे-धीरे रथ आगे बढ़ाओ। मैं सम्पूर्ण सेनाओं के पीछे जब हाथ में धनुष लेकर खड़ा होऊँगा, उस समय अर्जुन मुझे लाँघकर आगे नहीं बढ़ सकते।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 17-40 का हिन्दी अनुवाद)
यदि वे मुझसे युद्ध करेंगे तो में उन्हें निःसंदेह मार गिराऊँगा। जैसे महासागर अपनी तट भूमि को लाँघकर आगे नहीं बढ़ता, उसी प्रकार वे भी मुझे लाँघ नहीं सकते। आज मैं अर्जुन, श्रीकृष्ण और उस घमंडी भीमसेन को तथा बचे-खुचे दूसरे शत्रुओं को भी मार डालूँ, तभी कर्ण के ऋण से मुक्त हो सकता हूँ। कुरुराज दुर्योधन की वह श्रेष्ठ शूरवीरों के योग्य बात सुनकर सारथि ने सोने के साज-बाज से सजे हुए घोड़ों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाया।
माननीय नरेश! उस समय रथों, घोड़ों और हाथियों से रहित आपके केवल पच्चीस हजार पैदल सैनिक ही युद्ध के लिये डटे हुए थे। उन सबको क्रोध में भरे हुए भीमसेन और धृष्टद्युम्न का डटकर सामना करने लगे। उनमें से कितने ही योद्धा भीमसेन और धृष्टद्युम्न के नाम ले लेकर उन्हें युद्ध के लिये ललकारने लगे। कुन्ती नन्दन भीमसेन युद्ध धर्म का पालन करने वाले थे, इसलिये उन्होंने स्वयं रथ पर बैठकर भूमि पर खडे़ हुए पैदल- सैनिकों के साथ युद्ध नहीं किया। उन्हें अपने बाहुबल का पूरा भरोसा था। वे दण्डपाणि यमराज के समान सुवर्णजटित विशाल गदा हाथ में लेकर आपके समस्त सैनिकों का वध करने लगे। वे पैदल सैनिक भी अपने प्यारे प्राणों का मोह छोड़कर उस युद्ध में भीमसेन की ओर उसी प्रकार दौडे़, जैसे पतंग आग पर टूट पड़ते हैं। जैसे प्राणियों के समुदाय यमराज को देखते ही प्राण त्याग देते हैं, उसी प्रकार वे रोषभरे रणदुर्भद सैनिक भीमसेन से टक्कर लेकर सहसा नष्ट हो गये। हाथ में गदा लिये बाज के समान विचरते हुए महाबली भीमसेन आप के उन पचीसों हजार सैनिकों को मार गिराया।
सत्यपराक्रमी महाबली भीमसेन उस पैदल सेना का संहार करके धृष्टद्युम्न को आगे किये वहीं खडे़ रहे। दूसरी ओर पराक्रमी अर्जुन ने रथसेना पर आक्रमण किया। माद्रीकुमार नकुल-सहदेव और महारथी सात्यकि हर्ष में भरकर दुर्योधन की सेना का संहार करते हुए बड़े वेग से शकुनि पर टूट पड़े। वे अपने पैने बाणों द्वारा उसके बहुत से घुड़सवारों को मार कर तुरन्त ही उसकी ओर भी दौडे़। फिर तो वहाँ बड़ा भारी युद्ध होने लगा।
प्रभो! अर्जुन भी आपकी रथसेना के समीप जाकर त्रिभुवन विख्यात गाण्डीव धनुष की टंकार करने लगे। बहुतों के रथ नष्ट हो गये और कितने ही बाणों की मार से अत्यन्त घायल हो गये। इस प्रकार पच्चीस हजार पैदल सैनिक काल के गाल में चले गये। पांचाल कुमार, पांचाल महारथी और महामनस्वी पुरुषसिंह धृष्टद्युम्न उन पैदल सैनिकों का संहार करके भीमसेन को आगे किये शीघ्र ही वहाँ दिखायी दिये। वे महाधनुर्धर, तेजस्वी और शत्रुसमूहों को संताप देने वाले हैं। धृष्टद्युम्न के रथ के घोडे़ कबूतर के समान रंगवाले थे, उनकी ध्वजा पर कचनार के वृक्ष का चिह्न था। धृष्टद्युम्न को रण में उपस्थित देख आपके योद्धा भय से भाग खडे़ हुए। गान्धार राज शकुनि शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चला रहा था, यशस्वी माद्रीकुमार नकुल-सहदेव और सात्यकि तुरंत ही उसका पीछा करते दिखायी दिये। माननीय नरेश! चेकितान, शिखण्डी और द्रौपदी के पाँचों पुत्र आपकी विशाल सेना का विनाश करके शंख बजाने लगे। उन सबने आपके सैनिकों को पीठ दिखाकर भागते देख उनका उसी प्रकार पीछा किया, जैसे साँड़ रोष में भरे हुए दूसरे साँड़ों को जीतकर उन्हें खदेड़ने लगते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय वहाँ खडे़ हुए बलवान पराक्रमी सव्यसाची पाण्डुपुत्र अर्जुन आपकी सेना का कुछ भाग अवशिष्ट देखकर कुपित हो उठे और अपने त्रिलोक विख्यात गाण्डीव धनुष की टंकार करते हुए आपकी रथ सेना पर जा चढे़। उन्होंने अपने बाण समूहों द्वारा उन सबको सहसा आच्छादित कर दिया। उस समय सब ओर अन्धकार फैल गया; कुछ भी दिखायी नहीं देता था। महाराज! इस प्रकार जब जगत में अँधेरा छा गया और भूतल पर धूल-ही-धूल उड़ने लगी, तब आपके समस्त योद्धा भयभीत होकर भाग गये।
प्रजानाथ! आपकी सेना में भगदड़ मच जाने पर आपके पुत्र कुरुराज दुर्योधन ने अपने सामने खडे़ हुए शत्रुओं पर धावा किया। भरतश्रेष्ठ! जैसे पूर्वकाल में राजा बलि ने देवताओं को युद्ध के लिये ललकारा था, उसी प्रकार दुर्योधन ने भी समस्त पाण्डवों का युद्ध के लिये आह्वान किया। तब नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण किये कुपित पाण्डव सैनिक एक साथ गर्जना करते हुए वहाँ दुर्योधन पर टूट पड़े और बारंबार उसे फटकारने लगे। इससे दुर्योधन को तनिक भी घबराहट नहीं हुई। वह रणभूमि में कुपित हो पैने बाणों से शत्रुपक्ष के सैकड़ों और हजारों योद्धाओं का संहार करने लगा। वह सब ओर धूम-धूम कर पाण्डव सेना के साथ जूझ रहा था।
राजन! वहाँ वह लोगों ने आपके पुत्र का यह अद्भुत पुरुषार्थ देखा कि उसने अकेले ही रणभूमि में एक साथ आये हुए पाण्डवों का डटकर सामना किया राजेन्द्र! उस समय आपके बुद्धिमान पुत्र महामनस्वी दुर्योधन ने अपनी सेना को जब बहुत दुखी देखा, तब उन सबको सुस्थिर करके उनका हर्ष बढ़ाते हुए इस प्रकार बोले- योद्धाओं! तुम भय से पीड़ित हो रहे हो। परंतु मैं ऐसा कोई स्थान नहीं देखता, जहाँ तुम भागकर जाओ और वहाँ जाने पर तुम्हें पाण्डुपुत्र अर्जुन या भीमसेन से छुटकारा मिल जाय। ऐसी देशा में तुम्हारे भागने से क्या लाभ है? इन शत्रुओं के पास थोड़ी-सी सेना बच गयी है। श्रीकृष्ण और अर्जुन भी बहुत घायल हो चुके हैं; अतः आज मैं इन सब लोगों को मार डालूँगा। हमारी विजय अवश्य होगी। यदि तुम अलग-अलग होकर भागोगे तो पाण्डव तुम सब अपराधियों का पीछा करके तुम्हें मार डालेंगे। ऐसी दशा में युद्ध में मारा जाना ही हमारे लिये श्रेयस्कर है। क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने वाले वीरों की संग्राम में सुखपूर्वक मृत्यु होती है। वहाँ मरे हुए को मृत्यु के दुःख का अनुभव नहीं होता और परलोक में जाने पर उस अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। तुम जितने क्षत्रिय वीर यहाँ आये हो सभी कान खोलकर सुन लो। जब प्राणियों का अन्त करने वाला यमराज शूरवीर और कायर दोनों को ही मार डालता है, तब मेरे-जैसा क्षत्रिय व्रत का पालन करने वाला होकर भी कौन ऐसा मूर्ख होगा, जो युद्ध नहीं करेगा? हमारा शत्रु भीमसेन क्रोध में भरा हुआ है। यदि भागोगे तो उसके वश में पड़कर मारे जाओगे; अतः अपने बाप-दादों के द्वारा आचरण में लाये हुए क्षत्रिय धर्म का परित्याग न करो। कौरव वीरों! क्षत्रिय के लिये युद्ध से पीठ दिखाकर भागने से बढ़कर दूसरा कोई महान पाप नहीं है तथा युद्ध धर्म के पालन से बढ़कर दूसरा कोई स्वर्ग की प्राप्ति का कल्याणकारी मार्ग नहीं है; अतः योद्धाओं! तुम युद्ध में मारे जाकर शीघ्र ही उत्तम लोकों के सुख का अनुभव करो।
संजय कहते हैं ;- महाराज! आपका पुत्र इस प्रकार व्याख्यान देता ही रह गया; किंतु अत्यन्त घायल हुए सैनिक उसकी बात पर ध्यान दिये बिना ही सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व के कौरव सेना का पलायन विषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
चौरानबेंवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुनर्वतितम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“शल्य के द्वारा रणभूमि का दिग्दर्षन, कौरव सेना का पलायन और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन का शिविर की ओर गमन”
संजय कहते हैं ;- राजन! आपके पुत्र द्वारा सेना को पुनः लौटाने का प्रयत्न होता देख उस समय भयभीत और मूढ़चित्त हुए मद्रराज शल्य ने दुर्योधन से इस प्रकार कहा।
शल्य बोले ;- वीर नरेश! मारे गये मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों की लाशों से भरा हुआ यही युद्धस्थल कैसा भयंकर जान पड़ता है? पर्वताकार गजराज, जिसके मस्तकों से मद की धारा फूटकर बहती थी, एक ही साथ बाणों की मार से शरीर विदीर्ण हो जाने के कारण धराशायी हो गये हैं। उनमें से कितने ही वेदना से छटपटा रहे हैं, कितनों के प्राण निकल गये हैं। उन पर बैठे हुए सवारों के कवच, अस्त्र-शस्त्र, ढाल और तलवार आदि नष्ट हो गये हैं। इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो वज्र के आघात से बड़े-बड़े़ पर्वत ढह गये हों और उनके प्रस्तर खण्ड, विशाल, वृक्ष तथा औषध समूह छिन्न-भिन्न हो गये हों।
उन गजराजों के घंटा, अंकुश, तोमर और ध्वज आदि सभी वस्तुएँ बाणों के आघात से टूट-फूटकर बिखर गयी हैं। उन हाथियों के ऊपर सोने की जाली से युक्त आवरण पड़ा है। उनकी लाशें रक्त के प्रवाह से नहा गयी हैं। घोडे़ बाणों से विदीर्ण होकर गिरे हैं, वेदना से व्यथित हो उच्छ्वास लेते और मुख से रक्त वमन करते हैं। वे दीनतापूर्ण आर्तनाद कर रहे हैं। उनकी आँखे घूम रही है। वे धरती में दाँत गड़ाते और करूण चीत्कार करते हैं। हाथी, घोडे़, पैदल सैनिक तथा वीर समुदाय बाणों से क्षत-विक्षत हो मरे पड़े हैं। किन्ही की साँसें कुछ-कुछ चल रही हैं और कुछ लोगों के प्राण सर्वथा निकल गये हैं। हाथी, घोडे़, मनुष्य और रथ कुचल दिये गये हैं। इन सबकी कांति मन्द पड़ गयी है। इसके कारण उस महासमर की भूमि निश्चय ही वैतरणी के समान प्रतीत होती है। हाथियों के शुण्डदण्ड और शरीर छिन्न-भिन्न हो गये हैं। कितने ही हाथी पृथ्वी पर गिरकर काँप रहे हैं, कितनों के दाँत टूट गये हैं और वे खून उगलते तथा छटपटाते हुए वेदना ग्रस्त हो करूण स्वर में कराह रहे हैं। बड़े-बड़े़ रथों के समूह इस रणभूमि में बादलों के समान छा गये है। उनके पहिये, बाण, जूए और बन्धन कट गये हैं। तरकस, ध्वज और पताकाएँ फेंकी पड़ी हैं; सोने के जाल से आवृत हुए वे रथ बहुत ही क्षतिग्रस्त हो गये हैं। हाथी, रथ और घोड़ों पर सवार होकर युद्ध करने वाले यशस्वी योद्धा और पैदल वीर सामने लड़ते हुए शत्रुओं के हाथ से मारे गये हैं। उनके कवच, आभूषण, वस्त्र और आयुध सभी छिन्न-भिन्न होकर बिखर गये हैं। इस प्रकार शांत पड़े हुए आपके प्राणहीन योद्धाओं से यह पृथ्वी पट गयी है। बाणों के प्रहार से घायल होकर गिरे हुए सहस्रों महाबली योद्धा आकाश से नीचे गिरे हुए अत्यन्त दीप्तिमान एवं निर्मल प्रभा से प्रकाशित ग्रहों के समान दिखायी देते हैं और उनसे ढकी हुई यह भूमि रात के समय उन ग्रहों से व्याप्त हुए आकाश के सदृश सुशोभित होती है।
कर्ण और अर्जुन के बाणों से जिनके अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो गये हैं, उन मारे गये कौरव-सृंजय वीरों की लाशों से भरी हुई भूमि यज्ञ के स्थापित हुई अग्नियों के द्वारा यज्ञभूमि के समान सुशोभित होती है। उनमें से कितने ही वीरों की चेतना लुप्त हो गयी है और कितने ही पुनः साँस ले रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुनर्वतितम अध्याय के श्लोक 12-26 का हिन्दी अनुवाद)
कर्ण और अर्जुन के हाथों से छूटे हुए बाण हाथी, घोडे़ और मनुष्यों के शरीरों को विदीर्ण करके उनके प्राण निकालकर तुरन्त पृथ्वी में घुस गये थे, मानो अत्यन्त लाल रंग के विशाल सर्प अपनी बिल में जा घुसे हों। नरेन्द्र! अर्जुन और कर्ण के बाणों द्वारा मारे गये हाथी, घोडे़ एवं मनुष्यों से तथा बाणों से नष्ट-भ्रष्ट होकर गिर पड़े। रथों से इस पृथ्वी पर चलना-फिरना असम्भव हो गया है। सजे-सजाते रथ बाणों के आघात से मथ डाले गये हैं। उनके साथ जो योद्धा, शस्त्र, श्रेष्ठ आयुध और ध्वज आदि थे, उनकी भी यही दशा हुई है। उनके पहिये, बन्धन-रज्जु धुरे, जूए और त्रिवेणु काष्ठ के भी टुकडे़-टुकडे़ हो गये हैं। उन पर जो अस्त्र-शस्त्र रखे गये थे, वे सब दूर जा पड़े हैं। सारी सामग्री नष्ट हो गयी है।
अनुकर्ष, तूणीर और बन्धनरज्जु-ये सब-के-सब नष्ट-भ्रष्ट हो गये हैं। उन रथों की बैठकें टूट-फूट गयी हैं। सुवर्ण और मणियों में विभूषित उन रथों द्वारा आच्छादित हुई पृथ्वी शरद् ऋतु के बादलों से ढके हुए आकाश के समान जान पड़ती है। जिनके स्वामी (रथी) मारे गये हैं, राजाओं के उन सुसज्जित रथों को, जब वेगशाली घोडे़ खींच लिये जाते थे और झुंड-के-झुंड मनुष्य, हाथी, साधारण रथ और अश्व भी भागे जा रहे थे, उस समय उनके द्वारा शीघ्रतापूर्वक भागने वाले बहुत-से मनुष्य कुचलकर चूर-चूर हो गये हैं। सुवर्ण-पत्र जडे़ गये परिघ, फरसे, तीखे शूल, मूसल, मुद्गर, म्यान से बाहर निकाली हुई चमचमाती तलवारें और स्वर्णजटित गदाएँ जहाँ-जहाँ बिखरी पड़ी हैं। सुवर्णमय अंगदों बाजूबंद से विभूषित धनुष, सोने के विचित्र पंख वाले बाण, ऋष्टि, पानीदार एवं कोशरहित निर्मल खड्ग तथा सुनहरे डंडो से ययुक्त प्रास, छत्र, चँवर, शंख और विचित्र मालाएँ छिन्न-भिन्न होकर फैंकी पड़ी हैं। राजन! हाथी की पीठ पर बिछाये जाने वाले कम्बल या झूल, पताका, वस्त्र, आभूषण, किरीटमाला, उज्ज्वल मुकुट, श्वेत चामर, मूँग और मोतियों के हार-ये सब-के-सब इधर उधर बिखरे पड़े हैंशिरोभूषण, केयूर, सुन्दर अंगद, गले के हार, पदक, सोने की जंजीर, उत्तम मणि, हीरे, सुवर्ण तथा मुक्ता आदि छोटे बड़े मांगलिक रत्न, अत्यन्त सुख भोगने के योग्य शरीर, चन्द्रमा को भी लज्जित करने वाले मुख से युक्त मस्तक, देह, भोग, आच्छादन-वस्त्र तथा मनोरम सुख- इन सबको त्यागकर स्वधर्म की पराकष्ठ का पालन करते हुए सम्पूर्ण लोकों में अपने यश का विस्तार करके वे वीर सैनिक दिव्य लोकों में पहुँच गये हैं।
दूसरों को सम्मान देने वाले दुर्योधन! अब लौटो। इन सैनिकों को भी जाने दो। शिविर में चलो। प्रभो! ये भगवान सूर्य भी अस्ताचल पर लटक रहे हैं। नरेन्द्र! तुम्हीं इस नर संहार के प्रधान कारण हो। दुर्योधन से ऐसा कहकर राजा शल्य चुप हो गये। उनका चित्त शोक से व्याकुल हो रहा था। दुर्योधन भी आर्त होकर हा कर्ण! हा कर्ण! पुकारने लगा। वह सुध-बुध खो बैठा था। उसके नेत्रों से वेगपूर्वक आँसुओं की अविरल धारा बह रही थी। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तथा अन्य सभी नरेश बारंबार आकर दुर्योधन को सान्त्वना देते और अर्जुन के महान ध्वज को, जो उनके उज्ज्वल यश से प्रकाशित हो रहा था, देखते हुए फिर लौट जाते थे। मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के शरीर से बहते हुए रक्त की धारा से वहाँ ही भूमि ऐसी सिंच गयी थी कि लाल वस्त्र, लाल फूलों की माला तथा तपाये हुए सुवर्ण के आभूषण धारण करके सबके सामने आयी हुई सर्वगम्या नारी (वेश्या) के समान प्रतीत होती थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुनर्वतितम अध्याय के श्लोक 27-45 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! अत्यन्त शोभा पाने वाले उस रौद्रमुहुर्त (सायंकाल) में, रूधिर से जिसका स्वरूप छिप गया था, उस भूमि को देखते हुए कौरव सैनिक वहाँ ठहर न सके। वे सब-के-सब देवलोक की यात्रा के लिये उद्यत थे। महाराज! समस्त कौरव कर्ण के वध से अत्यन्त दुखी हो हा कर्ण! हा कर्ण! की रट लगाते और लाला सूर्य की ओर देखते हुए बड़े वेग से शिविर की ओर चले। गाण्डीव धनुष से छूटे हुए सुवर्णमय पंख वाले और शिला पर तेज किये हुए बाणों से कर्ण का अंग-अंग बिंध गया था। उन बाणों की पाँखें रक्त में डूबी हुई थीं। उनके द्वारा युद्धस्थल में पड़ा हुआ कर्ण मर जाने पर भी अंशुमाली सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था। भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान सूर्य खून से भीगे हुए कर्ण के शरीर का किरणों द्वारा स्पर्श करके रक्त के समान ही लालरूप धारण कर मानो स्नान करने की इच्छा से पश्चिम समुद्र की ओर जा रहे थे। इस युद्ध के ही विषय-विचार करते हुए देवताओं तथा ऋषियों के समुदाय वहाँ से प्रस्थित हो अपने-अपने स्थान को चल दिये और इसी विषय का चिन्तन करते हुए अन्य लोग भी सुखपूर्वक अंतरिक्ष अथवा भूतल पर अपने-अपने निवास स्थान को चले गये।
कौरव तथा पाण्डव पक्ष के उन प्रमुख वीर अर्जुन और कर्ण वह अद्भुत तथा प्राणियों के लिये भयंकर युद्ध देखकर सब लोग आश्चर्यचकित हो उनकी प्रशंसा करते हुए वहाँ से चले गये। राधापुत्र कर्ण का कवच बाणों से कट गया था। उसके सारे वस्त्र खून में भीग गये थे और प्राण भी निकल गये थे तो भी उसे शोभा छोड़ नहीं रही थी। वह तपाये हुए सुवर्ण तथा अग्नि और सूर्य के समान कांतिमान था। उस शूरवीर को देखकर सब प्राणी जीवित-सा समझते थे। महाराज! जैसे सिंह से दूसरे जंगली पशु सदा डरते रहते हैं, उसी प्रकार युद्धस्थल में मारे गये सूतपुत्र से भी समस्त योद्धा भय मानते थे। पुरुषसिंह नरेश! यह मारा जाने पर भी जीवित-सा दिखता था, महामना कर्ण के शरीर में मरने पर भी कोई विकार नहीं हुआ था। राजन! नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित तथा तपाये हुए सुवर्ण का अंगद (बाजूबंद) धारण किये वैकर्तन कर्ण मारा जाकर अंकुरयुक्त वृक्ष के समान पड़ा था। नरव्याघ्र नरेश! उत्तम सुवर्ण के समान कांतिमान कर प्रज्वलित अग्नि के तुल्य प्रकाशित होता था; परंतु पार्थ के बाणरूपी जल से वह बुझ गया। जैसे प्रज्वलित आग जल को पाकर बुझ जाती है, उसी प्रकार समरांगण में कर्णरूपी अग्नि को अर्जुनरूपी मेघ ने बुझा दिया।
इस पृथ्वी पर उत्तम युद्ध के द्वारा अपने लिये उत्तम यश का उपार्जन करके, बाणों की झड़ी लगाकर, दसों दिशाओं को संतप्त करके, पुत्रसहित कर्ण अर्जुनके तेज से शांत हो गया। अस्त्र के तेज से सम्पूर्ण पाण्डव और पांचालों को संताप देकर, बाणों की वर्षा के द्वारा शत्रुसेना को तपाकर तथा सहस्र किरणों वाले तेजस्वी सूर्य के समान सम्पूर्ण संसार में अपना प्रताप बिखेर कर वैकर्तन कर्ण पुत्र और वाहनों सहित मारा गया। यायकरूपी पक्षियों के समुदाय के लिये जो कल्पवृक्ष के समान था, वह कर्ण मार गिराया गया। जो माँगने पर सदा ही कहता था कि मैं दूँगा। श्रेष्ठ याचकों के माँगने पर जिसके मुँह से कभी नाही नहीं निकला, वह धर्मात्मा कर्ण द्वैरथ युद्ध में मारा गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुनर्वतितम अध्याय के श्लोक 46-61 का हिन्दी अनुवाद)
जिस महामनस्वी कर्ण का सारा धन ब्राह्मणों के अधीन था, ब्राह्मणों के लिये जिसका कुछ भी, अपना जीवन भी अदेय नहीं था, जो स्त्रियों को सदा प्रिय लगता था और प्रतिदिन दान किया करता था, वह महारथी कर्ण पार्थ के बाणों से दग्ध हो परम गति को प्राप्त हो गया। राजन! जिसका सहारा लेकर आपके पुत्र ने पाण्डवों के साथ वैर किया था, वह कर्ण आपके पुत्रों की विजय की आशा, सुख और कवच (रक्षा) लेकर स्वर्गलोक को चला गया।
कर्ण के मारे जाने पर नदियों का प्रवाह रुक गया, सूर्य देव अस्ताचल को चले गये और अग्नि तथा सूर्य के समान कांतिमान मंगल एवं सोमपुत्र बुध तिरछे होकर उदित हुए। आकाश फटने-सा लगा, पृथ्वी चीत्कार कर उठी, भयानक और रूखी हवा चलने लगी, सम्पूर्ण दिशाएँ धूम-सहित अग्नि से प्रज्वलित-सी होने लगीं और महासागर भयंकर स्वर में गर्जने तथा विक्षुब्ध होने लगे। वनोंसहित पर्वतसमूह काँपने लगे, सम्पूर्ण भूत समुदाय व्यथित हो उठे। प्रजानाथ! बृहस्पति नामक ग्रह रोहिणी नक्षत्र को सब ओर से घेरकर चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाशित होने लगा। कर्ण के मारे जाने पर दिशाओं के कोने-कोने में आग सी लग गयी, आकाश में अँधेरा छा गया, धरती डोलने लगी, अग्नि के समान प्रकाशमान उल्का गिरने लगी और निशाचर प्रसन्न हो गये। जिस समय अर्जुन ने क्षुर के द्वारा कर्ण के चन्द्रमा के समान कांतिमान मुख वाले मस्तक को काट गिराया, उस समय आकाश में देवताओं के मुख से निकला हुआ हाहाकार का शब्द गूँज उठा।
राजन! देवता, गन्धर्व और मनुष्यों द्वारा पूजित अपने शत्रु कर्ण को युद्ध में मारकर अर्जुन ने अपने उत्तम तेज से उसी प्रकार प्रकाशित होने लगे, जैसे पूर्वकाल में वृत्रासुर का वध करके इन्द्र सुशोभित हुए थे। तदनन्तर नरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन समरांगण में रथ पर आरूढ़ हो अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी एक ही वाहन पर बैठे हुए भगवान विष्णु और इन्द्र के सदृश भयरहित हो विशेष शोभा पाने लगे। वे जिस रथ से यात्रा करते थे, उससे मेघ समूहों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि होती थी, वह रथ शरतकाल के मध्याह्नकालीन सूर्य के समान तेज से उदीप्त हो रहा था, उस पर पताका फहराती थी और उसकी ध्वजा पर भयानक शब्द करने वाला वानर बैठा था। उसकी कांति हिम, चन्द्रमा, शंख और स्फटिकमणि के समान सुन्दर थी। वह रथ वेग में अपना सानी नहीं रखता था और देवराज इन्द्र के रथ के समान तीव्रगामी था। उस पर बैठे हुए दोनों नरश्रेष्ठ देवराज इन्द्र के समान शक्तिशाली और पुरुषार्थी थे तथा सुवर्ण, मुक्ता, मणि, हीरे और मूँगे के बने हुए आभूषण उसके श्रीअंगों की शोभा बढ़ाते थे।
तत्पश्चात धनुष की प्रत्यंचा, हथेली और बाण के शब्दों से शत्रुओं को बलपूर्वक श्रीहीन करके, उत्तम बाणों द्वारा कौरव सैनिकों को ढक्कर अमित्त प्रभावशाली नरश्रेष्ठ गरूड़ध्वज श्रीकृष्ण और कपिध्वज अर्जुन हर्ष में भरकर विपक्षियों का हृदय विदीर्ण करते हुए हाथों में दो श्रेष्ठ शंख ले उन्हें अपने सुन्दर मुखों से एक ही साथ चूमने और बजाने लगे। उनके वे दोनों शंख सोने की जाली से आवृत, बर्फ के समान सफेद और महान शब्द करने वाले थे। पांचजन्य तथा देवदत्त दोनों शंखों की गम्भीर ध्वनि ने पृथ्वी, आकाश तथा सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित कर दिया। नृपश्रेष्ठ! श्रीकृष्ण और अर्जुन की उस शंखध्वनि से समस्त कौरव संत्रस्त हो उठे।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) चतुनर्वतितम अध्याय के श्लोक 62-68 का हिन्दी अनुवाद)
अपने शंखनाद से नदियों, पर्वतों, कन्दराओं तथा काननों को प्रतिध्वनित करके आपके पुत्र की सेना को भयभीत करते हुए वे दोनों श्रेष्ठतम वीर युधिष्ठिर का आनंद बढ़ाने लगे। भारत! उस शंखध्वनि को सुनते ही समस्त कौरव योद्धा मद्रराज शल्य तथा भरतवंशियों के अधिपति दुर्योधन को वहीं छोड़कर वेगपूर्वक भागने लगे। उस समय उदित हुए दो सूर्याे के समान उस महासमर में प्रकाशित होने वाले अत्यन्त कांतिमान अर्जुन तथा भगवान श्रीकृष्ण के पास आकर समस्त प्राणी उनके कार्य का अनुमोदन करने लगे।
समरभूमि में कर्ण के बाणों से व्याप्त हुए वे दोनों शत्रुसंतापी वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन अन्धकार का नाश करके आकाश में उदित हुए निर्मल अंशुमाली सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशित हो रहे थे। उन बाणों को निकालकर वे अनुपम पराक्रमी सर्वसमर्थ श्रीकृष्ण और अर्जुन सुहृदों से घिरे हुए छावनी पर आये और यज्ञ में पर्दापण करने वाले भगवान विष्णु तथा इन्द्र के समान वे दोनों ही सुखपूर्वक शिविर के भीतर प्रविष्ट हुए। उस महासमर में कर्ण के मारे जाने पर देवता, गन्धर्व, मनुष्य, चारण, महर्षि, यक्ष तथा बड़े-बड़े़ नागों ने भी आपकी जय हो, वद्धि हो ऐसा कहते हुए बड़ी श्रद्धा से उन दोनों का समादर किया। जैसे बलासुर का दमन करके देवराज इन्द्र को भगवान विष्णु अपने सुहृदों के साथ आनंदित हुए थे, उसी प्रकार श्रीकृष्ण और अर्जुन कर्ण का वध करके यथायोग्य पूजित तथा अपने उपार्जित गुण-समूहों द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसित हो हितैषी-सम्बंधियों सहित बड़े हर्ष का अनुभव करने लगे।
(इसी प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में रणभूमि का वर्णविषयक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
पंचानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“कौरव सेना का शिबिर की ओर पलायन और शिबिरों में प्रवेश”
संजय कहते हैं ;- राजन! वैकर्तन कर्ण के मारे जाने पर भय से पीड़ित हुए सहस्रों कौरव योद्धा सम्पूर्ण दिशाओं की ओर देखते हुए भाग निकले। शत्रुओं ने उस महायुद्ध में वैकर्तन कर्ण को मार डाला है, यह देखकर आपके सैनिक भयभीत हो उठे थे। उनका सारा शरीर घावों से भर गया था। इसलिये वे भागकर सम्पूर्ण दिशाओं में बिखर गये। तब आपके समस्त योद्धा जो अत्यन्त दुखी और उद्विग्र हो रहे थे, मना करने पर सब ओर से युद्ध बंद करके लौटने लगे। नरेश्वर! उन सबका अभिप्राय जानकर राजा शल्य की अनुमति ले आपके पुत्र दुर्योधन ने सेना को लौटने की आज्ञा दी। भारत! नारायणी-सेना के जो वीर शेष रह गये थे, उनसे तथा आपके अन्य रथी योद्धाओं से घिरा हुआ कृतवर्मा भी तुरन्त शिबिर की ओर ही भाग चला। सहस्रों गान्धार योद्धाओं से घिरा हुआ शकुनि भी अधिरथपुत्र कर्ण को मारा गया देख छावनी की ओर ही भागा। भरतवंशी नरेश! शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य मेघों की घटा के समान अपनी गजसेना के साथ शीघ्रतापूर्वक शिविर की ओर ही भाग चले। तदनन्तर शूरवीर अश्वत्थामा पाण्डवों की विजय देख बारंबार उच्छ्वास लेता हुआ छावनी की ओर ही भागने लगा। राजन! संशप्तकों बची हुई विशाल सेना से घिरा हुआ सुशर्मा भी भय से पीड़ित हो इधर-उधर देखता हुआ छावनी की ओर चल दिया।
जिसके भाई नष्ट हो गये थे और सर्वस्व लुट गया था, वह राजा दुर्योधन भी शोकमग्न, उदास और विशेष चिन्तित होकर शिविर की ओर चल पड़ा। रथियों में श्रेष्ठ राजा शल्य ने भी जिसकी ध्वजा कट गयी थी, उस रथ के द्वारा दसों दिशाओं की ओर देखते हुए छावनी की ओर भी प्रस्थान किया। भरतवंशियों के दूसरे-दूसरे बहुसंख्यक महारथी भी भयभीत, लज्जित और अचेत होकर शिविर की ओर दौडे़। कर्ण को मारा गया देख सभी कौरव-सैनिक खून बहाते और काँपते हुए उद्विग्न तथा आतुर होकर छावनी की ओर भागने लगे। आपके उन हजारों योद्धाओं में वहाँ कोई भी ऐसा पुरुष नहीं था, जो अपने मन में उस महासमर में युद्ध के लिये उत्साह रखता हो। महाराज! कर्ण के मारे जाने पर कौरव अपने राज्य से, धन से, स्त्रियों से और जीवन से भी निराश हो गये। दुःख और शोक में डूबे हुए आपके पुत्र राजा दुर्योधन ने बड़े यत्न से उन सबको साथ ले आकर छावनी में विश्राम करने का विचार किया। प्रजानाथ! वे सब महारथी योद्धा दुर्योधन की आज्ञा शिरोधार्य करके शिविर में प्रविष्ट हुए। उन सबके मुखों की कांति फीकी पड़ गयी थी।
(इस प्रकार महाभारत कर्णपर्व में कौरव-सेना का शिविर की ओर प्रस्थान विषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
कर्ण पर्व
छानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षष्णवतितम (96) अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर का रणभूमि में कर्ण को मारा गया देखकर प्रसन्न हो श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करना, धृतराष्ट्र का शोकमग्न होना तथा कर्णपर्व के श्रवण की महिमा”
संजय कहते हैं ;- राजन! जब कर्ण मारा गया और शत्रुसेना भाग चली, तब दशाहृनन्दन भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को हृदय से लगाकर बड़े हर्ष के साथ इस प्रकार बोले,
श्री कृष्ण ने कहा ;- धनंजय! पूर्वकाल में वज्रधारी इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया था और आज तुमने कर्ण को मारा है। वृत्रासुर और कर्ण दोनों के वध का वृत्तान्त बड़ा भयंकर है। मनुष्य सदा इसकी चर्चा करते रहेंगे। वृत्रासुर युद्ध में महातेजस्वी वज्र के द्वारा माया गया था; परंतु तुमने कर्ण को धनुष एवं पैने बाणों से ही मार डाला है। कुन्तीनन्दन! चलो, हम दोनों तुम्हारे इस विश्वविख्यात और यशोवर्धक पराक्रम का वृत्तान्त बुद्धिमान कुरुराज युधिष्ठिर को बतावें। उन्हें दीर्घकाल से युद्ध में कर्ण के वध की अभिलाषा थी। आज धर्मराज को यह समाचार बताकर तुम उऋण हो जाओगे। जब यह महायुद्ध चल रहा था, उस समय तुम्हारा और कर्ण का युद्ध देखने के लिये धर्मनन्दन युधिष्ठिर पहले आये थे। परंतु गहरी चोट खाने के कारण वे देर तक युद्धस्थल में ठहर न सके। यहाँ से शिबिर में जाकर वे पुरुषप्रवर युधिष्ठिर विश्राम कर रहे हैं। तब अर्जुन ने केशव से तथास्तु कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की।
तत्पश्चात यदुकुल तिलक श्रीकृष्ण ने शांतभाव से रथिश्रेष्ठ अर्जुन के उस रथ को युधिष्ठिर के शिविर की ओर लौटाया। अर्जुन से पूवोक्त बात कहकर भगवान श्रीकृष्ण सैनिकों से बोले,
श्री कृष्ण बोले ;- वीरो! तुम्हारा कल्याण हो! तुम शत्रुओं का सामना करने के लिये सदा प्रयत्नपूर्वक डटे रहना। इसके बाद गोविन्द धृष्टद्युम्न, युधामन्यु, नकुल, सहदेव, भीमसेन और सात्यकि से इस प्रकार बोले,
श्री कृष्ण फिर बोले ;- अर्जुन ने कर्ण को मार डाला यह समाचार जब तक हम लोग राजा युधिष्ठिर से निवेदन करते हैं, तब तक तुम सभी नरेशों को यहाँ शत्रुओं की ओर से सावधान रखना चाहिये।
उन शूरवीरों ने उनकी आज्ञा स्वीकार करके जब जाने पर अनुमति दे दी, तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को साथ लेकर राजा युधिष्ठिर का दर्शन किया। उस समय नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर सोने के उत्तम पलंग पर सो रहे थे। उन दोनों ने वहाँ पहुँचकर बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा के चरण पकड़ लिये। उन दोनों के हर्षोंलास को देखकर राजा युधिष्ठिर यह समझ गये कि राधापुत्र कर्ण मारा गया; अतः वे शय्या से उठ खडे़ हुए और नेत्रों से आनंद के आँसू बहाने लगे। शत्रुदमन महाबाहु युधिष्ठिर, श्रीकृष्ण और अर्जुन से बारंबार प्रेमपूर्वक बोलने और उन दोनों को हृदय से लगाने लगे।। उस समय अर्जुनसहित यदुकुलतिलक वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण के मारे जाने का सारा समाचार उन्हें यथावतरूप से कह सुनाया। भगवान श्रीकृष्ण हाथ जोड़कर किंचित मुस्कराते हुए, जिनका शत्रु मारा गया था, उस राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले,
श्री कृष्ण बोले ;- राजन! बड़े सौभाग्य की बात है कि गाण्डीवधारी अर्जुन, पाण्डव भीमसेन, पाण्डुकुमार माद्रीनन्दन नकुल-सहदेव और आप भी सकुशल हैं। आप सब लोग वीरों का विनाश करने वाले इस रोमांचकारी संग्राम से मुक्त हो गये। पाण्डुनन्दन! अब आगे जो कार्य करने हैं, उन्हें शीघ्र पूर्ण कीजिये। राजन! महारथी सूतपुत्र वैकर्तन कर्ण मारा गया, राजेन्द्र! सौभाग्य से आप विजयी हो रहे हैं। भारत! आपकी वृद्धि हो रही है, यह परम सौभाग्य की बात है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षष्णवतितम अध्याय के श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद)
जिस नराधम ने जूए में जीती हुई द्रौपदी का उपहास किया था, आज पृथ्वी पर सूतपुत्र कर्ण का रक्त पी रही है। महाबाहो! आपका वह शत्रु रणभूमि में सो रहा है और उसके सारे शरीर में बाण भरे हुए हैं। नरव्याघ्र! अनेक बाणों से क्षत-विक्षत हुए उस कर्ण को आप देखिये। महाबाहो! आप सावधान होकर हम सब लोगों के साथ इस निष्कंटक हुई पृथ्वी का शासन और प्रचुर भागों का उपभोग कीजिये।
राजन! महात्मा श्रीकृष्ण ने जब युधिष्ठिर को कर्ण के वध के बारे में बताया तो यह सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर का चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से वार्तालाप आरम्भ किया। राजेन्द्र! अहो भाग्य! अहो भाग्य! ऐसा कहकर युधिष्ठिर इस प्रकार बोले- महाबाहु देवकीनन्दन! आपके रहते यह महान कार्य सम्पन्न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आप-जैसे सारथि होते ही पार्थ ने प्रयत्नपूर्वक उसका वध किया है। महाबाहो! आपकी बुद्धि के प्रसाद से ऐसा होना आश्चर्य नहीं हैं। कुरुश्रेष्ठ! इसके बाद धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने बाजूबंद विभूषित श्रीकृष्ण का दाहिना हाथ अपने हाथ में लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों से कहा-प्रभो! देवर्षि नारद ने मुझसे कहा था कि आप दोनों धर्मात्मा, महात्मा, पुराणपुरुष तथा ऋषिप्रवर साक्षात भगवान नर और नारायण हैं। महाभाग! परम बुद्धिमान तत्त्ववेत्ता महर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन ने भी बारंबार मुझसे यही बात कही है।
श्रीकृष्ण! आपके प्रसाद से ही ये पाण्डुपुत्र धनंजय सदा सामने रहकर युद्ध में शत्रुओं पर विजयी हुए हैं और कभी युद्ध से मुँह नही मोड़ सके हैं। प्रभो! जब आप युद्ध में अर्जुन के सारथि बने थे, तभी हमें यह विश्वास हो गया था कि हम लोगों की विजय निश्चित है, अटल है। हमारी पराजय नहीं हो सकती। गोविन्द! भीष्म, द्रोण, कर्ण, महात्मा गौतमवंशी कृपाचार्य तथा इनके पीछे चलने वाले जो और भी बहुत-से शूरवीर हैं और रहे हैं, आपकी बुद्धि से आज कर्ण के मारे जाने पर उन सबका वध हो गया, ऐसा मैं मानता हूँ। ऐसा कहकर पुरुषसिंह महाबाहु धर्मराज युधिष्ठिर श्वेत वर्ण और काली पूँछ वाले, मन के समान वेगशाली घोड़ों से जुते हुए सुवर्णभूषित रथ पर आरूढ़ हो अपनी सेना के साथ युद्ध देखने के लिये चले।
श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों वीरों के साथ प्रिय विषय पर परार्मश और उनसे वार्तालाप करते हुए युधिष्ठिर ने रणभूमि में सोये हुए पुरुषप्रवर कर्ण को देखा। जैसे कदम्ब का फूल सब ओर से केसरों से भरा होता है, उसी प्रकार कर्ण का शरीर सैकड़ो बाणों से व्याप्त था। धर्मराज युधिष्ठिर ने इसी अवस्था में उसे देखा। उस समय सुगन्धित तेल से भरे हुए सहस्रों सोने के दीपक जलाकर प्रकाश किया गया था। उसी उजाले में वे धर्मात्मा कर्ण को देख रहे थे। उसका कवच छिन्न-भिन्न हो गया था और सारा शरीर बाणों से विदीर्ण हो चुका था। उस अवस्था में पुत्रसहित मरे हुए कर्ण को देखकर बारंबार उसका निरीक्षण करके राजा युधिष्ठिर को इस बात पर पूरा-पूरा विश्वास हुआ। फिर वे पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। उन्होंने कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- गोविन्द! आप जैसे विद्वान और वीर स्वामी एवं संरक्षक के द्वारा सुरक्षित होकर आज में भाईयों सहित इस भूमण्डल का राजा हो गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षष्णवतितम अध्याय के श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद)
आज दुरात्मा धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन अत्यन्त अभिमानी नरव्याघ्र राधापुत्र कर्ण के मारे जाने का वृत्तान्त सुनकर राज्य और जीवन से भी निराश हो जायगा। पुरुषोत्तम! आपकी कृपा से रणभूमि में राधापुत्र कर्ण के मारे जाने पर हम सब लोग कृतार्थ हो गये। गोविन्द! बड़े भाग्य से आपकी विजय हुई है। भाग्य से ही हमारा शत्रु कर्ण आज मार गिराया गया है और सौभाग्य से ही गाण्डीवधारी पाण्डुनन्दन अर्जुन विजयी हुए हैं। महाबाहो! अत्यन्त दुखी होकर हम लोगों ने जागते हुए तेरह वर्ष व्यतीत किये हैं। आज की रात में आपकी कृपा से हम लोग सुखपूर्वक सो सकेंगे।
संजय कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार धर्मराज राजा युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण तथा कुरुश्रेष्ठ अर्जुन की बारंबार प्रशंसा की। पुत्रसहित कर्ण को अर्जुन के बाणों से मारा गया देख राजा युधिष्ठिर ने अपना नया जन्म हुआ-सा माना। महाराज! उस समय हर्ष में भरे हुए पाण्डव पक्ष के महारथी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से मिलकर उनका हर्ष बढ़ाने लगे। राजेन्द्र! नकुल-सहदेव, पाण्डुपुत्र भीमसेन, वृष्णिवश के श्रेष्ठ महारथी सात्यकि, धृष्टद्युम्न और शिखण्डी और पाण्डव, पांचाल तथा सृंजय योद्धा सूतपुत्र कर्ण के माने जाने पर कुन्ती कुमार अर्जुन की प्रशंसा करने लगे। वे विजय से उल्लसित हो रहे थे। उनका लक्ष्य सिद्ध हो गया था। वे युद्धकुशल महारथी योद्धा धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर को बधाई देकर स्तुतियुक्त वचनों द्वारा शत्रुसंतापी श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने शिविर को गये। राजन! इस प्रकार आपकी ही कुमन्त्रणा के फलस्वरूप यह रोमांचकारी महान जनसंहार हुआ है। अब आप किस लिये बारंबार शोक करते हैं?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह अप्रिय समाचार सुनकर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र निश्चेष्ट हो जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े। इसी तरह दूर तक सोचने वाली गान्धारी देवी भी पछाड़ खाकर गिरीं और बहुत विलाप करती हुई युद्ध में कर्ण की मृत्यु के लिये शोक करने लगीं। उस समय विदुर जी ने गान्धारी देवी को और संजय ने राजा धृतराष्ट्र को सँभाला। फिर दोनों ही मिलकर राजा को समझाने बुझाने लगे। इसी प्रकार कुरुकुल की स्त्रियों ने आकर गान्धारी देवी को उठाया। भाग्य और भवितव्यता को ही प्रबल मानकर राजा धृतराष्ट्र भारी व्यथा का अनुभव करने लगे। उनकी विवेक शक्ति नष्ट हो गयी। वे महातपस्वी नरेश चिन्ता और शोक में डूब गये और मोह से पीड़ित होने के कारण उन्हें किसी भी बात की सुध न रही। विदुर और संजय के समझाने पर राजा धृतराष्ट्र अचेत से होकर चुपचाप बैठे रह गये।
भारत! जो मनुष्य महात्मा अर्जुन को कर्ण के इस महायुद्धरूपी यज्ञ का पाठ अथवा श्रवण करेगा, वह विधिपूर्वक किये हुए यज्ञानुष्ठान फल प्राप्त कर लेगा। सनातन भगवान विष्णु यज्ञस्वरूप हैं, इस बात को अग्नि, वायु, चन्द्रमा और सूर्य भी कहते हैं। अतः जो मनुष्य दोष दृष्टि का परित्याग करके इस युद्धयज्ञ का वर्णन पढ़ता या सुनता है, वह सम्पूर्ण लोकों में विचरने वाला और सुखी होता है। जो मनुष्य सदा भक्तिभाव से इस उत्तम एवं पुण्यमयी संहिता का पाठ करते हैं, वे धन-धान्य एवं यश से सम्पन्न हो आनंद के भागी होते हैं। इस बात में कोई अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (कर्ण पर्व) षष्णवतितम अध्याय के श्लोक 62-65 का हिन्दी अनुवाद)
अतः जो मनुष्य दोषदृष्टि से रहित होकर सदा इस संहित को सनता है, वह सम्पूर्ण सुखों को प्राप्त कर लेता है, उस श्रेष्ठ मनुष्य पर भगवान विष्णु, ब्रह्मा और महादेव जी भी प्रसन्न होते हैं। इसके पढ़ने और सुनने से ब्राह्मणों को वेदों का ज्ञान प्राप्त होता है, क्षत्रियों को बल और युद्ध में विजय प्राप्त होती है, वैश्य धन में बढे़-चढे़ हो जाते हैं और समस्त शूद्र आरोग्य लाभ करते हैं। इसमें सनातन भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) की महिमा का वर्णन किया गया है; अतः मनुष्य इसके स्वाध्याय से सुखी होकर सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। महामुनि व्यासदेव की इस परम पूजित वाणी का ऐसा ही प्रभाव है। लगातार एक वर्ष तक प्रतिदिन जो बछड़ो सहित कपिला गौओं का दान करता है, उसे जिस पुण्य की प्राप्ति होती है वही कृष्णपर्व के श्रवणमात्र से मिल जाता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में युधिष्ठिर हर्षविषयक छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
[कर्ण पर्व समाप्त]
कर्णपर्व की सम्पूर्ण श्लोक संख्या ५५०४
अब “शल्य पर्व ”आरंभ होता है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें