सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
छठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन के पूछने पर अश्वत्थामा शल्य को सेनापति बनाने के लिये प्रस्ताव, दुर्योधन का शल्य से अनुरोध और शल्य द्वारा उसकी स्वीकृति”
संजय कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर हिमालय के ऊपर की चौरस भूमि में डेरा डालकर युद्ध का अभिनन्दन करने वाले सभी महान योद्धा वहाँ एकत्र हुए। शल्य, चित्रसेन, महारथी शकुनि, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, सात्वतवंशी कृतवर्मा, सुषेण, अरिष्टसेन, पराक्रमी धृतसेन और जयत्सेन आदि राजाओं ने वहीं रात बितायी। रणभूमि में वीर कर्ण के मारे जाने पर विजय से उल्लसित होने वाले पाण्डवों द्वारा डराये हुए आपके पुत्र हिमालय पर्वत के सिवा और कहीं शांति न पा सके। राजन! संग्रामभूमि में विजय के लिये प्रयत्न करने वाले उन सब योद्धाओं ने वहाँ एक साथ होकर शल्य के समीप राजा दुर्योधन का विधिपूर्वक सम्मान करके उससे इस प्रकार कहा,
सभी योद्धा बोले ;- 'नरेश्वर! तुम किसी को सेनापति बनाकर शत्रुओं के साथ युद्ध करो, जिससे सुरक्षित होकर हम लोग विपक्षियों पर विजय प्राप्त करें। राजन! तब आपका पुत्र दुर्योधन रथ पर बैठकर अश्वत्थामा के निकट गया। अश्वत्थामा महारथियों में श्रेष्ठ, युद्धविषयक सभी विभिन्न भावों का ज्ञाता और युद्ध में यमराज के समान भयंकर है। उसके अंग सुन्दर हैं, मस्तक केशों से आच्छादित है और कण्ठ शंख के समान सुशोभित होता है। वह प्रिय वचन बोलने वाला है। उसके नेत्र विकसित कमल दल के समान सुन्दर और मुख व्याघ्र के समान भयंकर है। उसमें मेरु पर्वत की-सी गुरुता है। स्कन्ध, नेत्र, गति और स्वर में वह भगवान शंकर के वाहन वृष के समान है। उसकी भुजाएँ पुष्ठ, सुगठित एवं विशाल हैं। वृक्षःस्थल का उत्तमभाग भी सुविस्तृत है। वह बल और वेग में गरुड़ एवं वायु की बराबरी करने वाला है।
तेज में सूर्य और बुद्धि में शुक्राचार्य के समान है। कांति, रूप तथा मुख की शोभा- इन तीन गुणों में वह चन्द्रमा के तुल्य है। उसका शरीर सुवर्णमय प्रस्तर समूह के समान सुशोभित होता है। अंगो का जोड़ या संधिस्थान भी सुगठित है। ऊरू, कटिप्रदेश और पिण्डलियाँ ये सुन्दर और गोल हैं। उसके दोनों चरण मनोहर हैं। अंगुलियाँ और नख भी सुन्दर हैं, मानो विधाता ने उत्तम गुणों का बारंबार स्मरण करके बड़े यत्न से उसके अंगों का निर्माण किया हो। वह समस्त शुभलक्षणों से सम्पन्न, समस्त कार्यो में कुशल और वेदविद्या का समुद्र है। परंतु शत्रुओं के लिये बलपूर्वक उसके ऊपर विजय पाना असम्भव है। वह दसों अंगों से युक्त चारों चरणों वाले धनुर्वेद को ठीक-ठीक जानता है। छहों अंगों सहित चार वेदों और इतिहास-पुराण स्वरूप पंचलवेद का भी अच्छा ज्ञाता है। महातपस्वी अश्वत्थामा को उसके पिता अयोनिज द्रोणाचार्य ने बड़े यत्न से कठोर व्रतों द्वारा तीन नेत्रों वाले भगवान शंकर की अराधना करके अयोनिजा कृपी के गर्भ से उत्पन्न किया था। उसके कर्मों की कहीं तुलना नहीं है। इस भूतल पर वह अनुपम रूप-सौन्दर्य से युक्त है। सम्पूर्ण विद्याओं का पारंगत विद्वान और गुणों का महासागर है। उस अनिन्दित अश्वत्थामा के निकट जाकर आपके पुत्र दुर्योधन ने इस प्रकार कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- ब्रह्मन! तुम हमारे गुरुपुत्र हो और इस समय तुम्हीं हमारे सबसे बड़े सहारे हो। अतः मैं तुम्हारी आज्ञा से सेनापति का निर्वाचन करना चाहता हूँ। बताओं, अब कौन मेरा सेनापति हो, जिसे आगे रहकर हम सब लोग एक साथ हो युद्ध में पाण्डवों पर विजय प्राप्त करें?
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 19-29 का हिन्दी अनुवाद)
अश्वत्थामा ने कहा ;- ये राजा शल्य उत्तम कुल, सुन्दन रूप, तेज, यश, श्री एवं समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हैं, अतः ये ही हमारे सेनापति हों। ये ऐसे कृतज्ञ हैं कि अपने सगे भानजों को भी छोड़कर हमारे पक्ष में आ गये हैं। ये महाबाहु शल्य दूसरे महासेन (कार्तिकेय) के समान महती सेना से सम्पन्न हैं। नृपश्रेष्ठ! जैसे देवताओं ने किसी से पराजित न होने वाले स्कन्द को सेनापति बनाकर असुरों पर विजय प्राप्त की थी, उसी प्राकर हम लोग भी इन राजा शल्य को सेनापति बनाकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। द्रोणपुत्र के ऐसा कहने पर सभी नरेश राजा शल्य को घेरकर खडे़ हो गये और उनकी जय-जयकार करने लगे। उन्होंने युद्ध के लिये पूर्ण निश्चय कर लिया और वे अत्यन्त आवेश में भर गये। तदनन्तर राजा दुर्योधन ने भूमि पर खड़ा रथ पर बैठे हुए रणभूमि में द्रोण और भीष्म के समान पराक्रमी राजा शल्य से हाथ जोड़कर कहा- मित्रवत्सल! आज आपके मित्रों के सामने वह समय आ गया है जबकि विद्वान पुरुष शत्रु या मित्र की परीक्षा करते हैं। आप हमारे शूरवीर सेनापति होकर सेना के मुहाने पर खडे़ हों। रणभूमि में आपके जाते ही मन्दबुद्धि पाण्डव और पांचाल अपने मंत्रियों सहित उद्योगशून्य हो जायँगे। उस समय वचन के रहस्य को जानने वाले मद्रदेश के स्वामी राजा शल्य दुर्योधन के वचन सुनकर समस्त राजाओं के सम्मुख राजा दुर्योधन से यह वचन बोले। शल्य बोले- राजन! कुरुराज! तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, मैं उसे पूर्ण करूँगा; क्योंकि मेरे प्राण, राज्य और धन सब तुम्हारा प्रिय करने के लिये ही है।
दुर्योधन ने कहा ;- योद्धाओं में श्रेष्ठ मामा जी! आप अनुपम वीर हैं। अतः मैं सेनापति पद ग्रहण करने के लिये आपका वरण करता हूँ। जैसे स्कन्द ने युद्धस्थल में देवताओं की रक्षा की थी, उसी प्रकार आप हम लोगों का पालन कीजिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में शल्य और दुर्योधन का संवादविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
सातवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“राजा शल्य के वीरोचित्त उद्गार तथा श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को शल्यवध के लिये उत्साहित करना”
संजय कहते हैं ;- महाराज! राजा दुर्योधन की यह बात सुनकर प्रतापी मद्रराज शल्य ने उससे इस प्रकार कहा,
शल्य ने कहा ;- वाक्यवेत्ताओं में श्रेष्ठ महाबाहु दुर्योधन! तुम रथ पर बैठे हुए जिन दोनों श्रीकृष्ण और अर्जुन को रथियों में श्रेष्ठ समझते हो, ये दोनों बाहुबल में किसी प्रकार मेरे समान नहीं हैं? मैं रणभूमि में कुन्ती के सभी पुत्रों और सामने आये हुए सोमकों पर भी विजय प्राप्त कर लूँगा। इसमें भी संदेह नहीं कि मैं तुम्हारा सेनापति होऊँगा और ऐसे व्यूह का निर्माण करूँगा, जिसे शत्रु लाँघ नहीं सकेंगे। दुर्योधन! यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ। इसमें कोई संशय नहीं है। भरतश्रेष्ठ! प्रजानाथ! उनके ऐसा कहने पर क्लेश से दबे हुए राजा दुर्योधन ने शास्त्रीय विधि के अनुसार सेना के मध्यभाग में मद्रराज शल्य का सेनापति के पद पर अभिषेक कर दिया। भारत! उनका अभिषेक हो जाने पर आपकी सेना में बड़े जोर से सिंहनाद होने लगा और भाँति-भाँति के बाजे उठ गये। मद्रदेश के महारथी योद्धा हर्ष में भर गये और संग्राम में शोभा पाने वाले राजा शल्य की स्तुति करने लगे।
राजन! आप चिरंजीवी हों। सामने आये हुए शत्रुओं का संहार कर डालें। आपके बाहुबल को पाकर धृतराष्ट्र के सभी महाबली पुत्र शत्रुओं का नाश करके सारी पृथ्वी का शासन करें। आप रणभूमि में सम्पूर्ण देवताओं, असुरों और मनुष्यों को जीत सकते हैं। फिर यहाँ मरणधर्मा सृंजयों और सोमकों पर विजय पाना कौन बड़ी बात है? उनके द्वारा इस प्रकार प्रशंसित होने पर बलवान वीर मद्रराज शल्य को वह हर्ष प्राप्त हुआ, जो अकृतात्मा (युद्ध की शिक्षा रहित) पुरुषों के लिये दुलर्भ है।
शल्य ने कहा ;- राजन! आज मैं रणभूमि में पाण्डवों सहित समस्त पांचालों को मार डालूँगा या स्वयं ही मारा जाकर स्वर्गलोक में जा पहुँचूँगा। आज सब लोग मुझे रणभूमि में निर्भय विचरते देखें, आज समस्त पाण्डव, श्रीकृष्ण, सात्यकि, पांचाल और चेदि देश के योद्धा, द्रौपदी के सभी पुत्र, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी तथा समस्त प्रभद्रकगण मेरा पराक्रम तथा मेरे धनुष का महान बल अपनी आँखों से देख लें। आज कुन्ती के सभी पुत्र तथा चारणों सहित सिद्धगण भी युद्ध में मेरी फुर्ती, अस्त्र-बल और बाहुबल देखें। मेरी दोनों भुजाओं में जैसा बल है तथा अस्त्रों का मुझे जैसा ज्ञान है, उसके अनुसार आज मेरा पराक्रम देखकर पाण्डव महारथी उसके प्रतीकार में तत्पर हो नाना प्रकार के कार्यों के लिये सचेष्ट हों।
कुरुनन्दन! आज मैं पाण्डवों की सेनाओं को चारों ओर भगा दूँगा। प्रभो! युद्धस्थल में तुम्हारा प्रिय करने के लिये आज मैं द्रोणाचार्य, भीष्म और सूतपुत्र कर्ण से भी बढ़कर पराक्रम दिखाता और जूझता हुआ रणभूमि में सब ओर विचरण करूँगा।
संजय कहते हैं ;- मानद! भरतनन्दन! इस प्रकार आपकी सेनाओं में राजा शल्य का अभिषेक होने पर समस्त योद्धाओं को कर्ण के मारे जाने का थोड़ा-सा भी दुःख नहीं रह गया। वे सब-के-सब प्रसन्नचित्त होकर हर्ष से भर गये और यह मानने लगे कि कुन्ती के पुत्र मद्रराज शल्य के वश में पड़कर अवश्य ही मारे जायँगे। भरतश्रेष्ठ! आपकी सेना महान हर्ष पाकर उस रात में वहीं रही और सो गयी। उसके मन में बड़ा उत्साह था।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 24-46 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय आपकी सेना का वह महान हर्षनाद सुनकर राजा युधिष्ठिर ने समस्त क्षत्रियों के सामने ही भगवान श्रीकृष्ण से कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- माधव! धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन ने समस्त सेनाओं द्वारा सम्मानित महाधनुर्धर मद्रराज शल्य को सेनापति बनाया है। माधव! वह यथार्थ रूप से जानकर आप जो उचित हो वैसा करें; क्योंकि आप ही हमारे नेता और संरक्षक हैं। इसलिये अब जो कार्य आवश्यक हो, उसका सम्पादन कीजिये। महाराज! तब भगवान
श्रीकृष्ण ने राजा से कहा ;- भारत! मैं ऋतायनकुमार राजा शल्य को अच्छी तरह जानता हूँ। वे बलशाली, महातेजस्वी, महामनस्वी, विद्वान, विचित्र युद्ध करने वाले और शीघ्रतापूर्वक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करने वाले हैं। भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण- ये सब लोग युद्ध में जैसे पराक्रमी थे, वैसे ही या उनसे भी बढ़कर पराक्रमी मैं मद्रराज शल्य को मानता हूँ। भारत! नरेश्वर! मैं बहुत सोचने पर भी युद्धपरायण शल्य के अनुरूप दूसरे किसी योद्धा को नहीं पा रहा हूँ। भरतनन्दन! शिखण्डी, अर्जुन, भीम, सात्यकि और धृष्टद्युम्न से भी वे रणभूमि में अधिक बलशाली हैं।
मद्रराज! सिंह और हाथी के समान पराक्रमी मद्रराज शल्य प्रलयकाल में प्रजा पर कुपित हुए काल के समान निर्भय होकर रणभूमि में विचरेंगे। पुरुषसिंह! आपका पराक्रम सिंह के समान है। आज आपके सिवा युद्धस्थल में दूसरे को ऐसा नहीं देखता, जो शल्य के सम्मुख होकर युद्ध कर सके। कुरुनन्दन! देवताओं सहित इस सम्पूर्ण जगत में आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो रण में कुपित हुए मद्रराज शल्य को मार सके। इसलिये प्रतिदिन समरांगण में जूझते और आपकी सेना को विक्षुब्ध करते हुए राजा शल्य को युद्ध में आप उसी प्रकार मार डालिये, जैसे इन्द्र ने शम्बरासुर का वध किया था। वीर शल्य अजेय हैं। दुर्योधन ने उनका बड़ा सम्मान किया है। युद्ध में मद्रराज के मारे जाने पर निश्चय आपकी ही जीत होगी। महाराज! कुन्तीकुमार! उनके मारे जाने पर आप समझ लें कि दुर्योधन की सारी विशाल सेना ही मार डाली गयी। इस समय मेरी इस बात को सुनकर महारथी मद्रराज पर चढ़ाई कीजिये और महाबाहो! जैसे इन्द्र ने नमुचि का वध किया था, उसी प्रकार आप भी उन्हें मार डालिये। ये मेरे मामा हैं ऐसा समझकर आपको उन पर दया नहीं करनी चाहिये। आप क्षत्रिय धर्म को सामने रखते हुए मद्रराज शल्य को मार डालें। भीष्म, द्रोण और कर्णरूपी महासागर को पार करके आप अपने सेवकों सहित शल्यरूपी गाय की खुरी में न डूब जाइये।
राजन! आपका जो तपोबल और क्षात्रबल है, वह सब रणभूमि में दिखाईये और इन महारथी शल्य को मार डालिये। शत्रुवीरों का संहार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण यह बात कहकर सांयकाल पाण्डवों से सम्मानित हो अपने शिविर में चले गये। श्रीकृष्ण के चले जाने पर उस समय धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने अपने सब भाईयों तथा पांचालों और सोमकों को भी विदा करके रात में अंकुश रहित हाथी के समान शयन किया। वे सभी महाधनुर्धर पांचाल और पाण्डव-योद्धा कर्ण के मारे जाने से हर्ष में भरकर रात्रि में सुख की नींद सोये। माननीय नरेश! सूतपुत्र कर्ण के मारे जाने से विजय पाकर महान धनुष एवं विशाल रथों से सुशोभित पाण्डव सेना बहुत प्रसन्न हुई थी, मानो वह युद्ध से पार होकर निश्चिन्त हो गयी हो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में शल्य का सेनापति के पद पर अभिषेकविषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
आठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“उभय पक्ष की सेनाओं का समरांगण में उपस्थित होना एवं बची हुई दोनों सेनाओं की संख्या का वर्णन”
संजय कहते हैं ;- जब रात व्यतीत हो गयी, तब राजा दुर्योधन ने आपके समस्त सैनिकों से कहा,
दुर्योधन ने कहा ;- महारथीगण कवच बाँधकर युद्ध के लिये तैयार हो जायं। राजा का यह अभिप्राय जानकर सारी सेना युद्ध के लिये सुसज्जित होने लगी। कुछ लोगों ने तुरन्त ही रथ जोत दिये। दूसरे चारों ओर दौड़ने लगे। हाथी सुसज्जित किये जाने लगे। पैदल सैनिक कवच बाँधने लगे तथा अन्य सहस्रों सैनिकों ने रथों पर आवरण डाल दिये। प्रजानाथ! उस समय सब ओर से भाँति-भाँति के वाद्यों की गम्भीर ध्वनि प्रकट होने लगी। युद्ध के लिये उद्यत योद्धाओं और आगे बढ़ती हुई सेनाओं का महान कोलाहल सुनायी देने लगा। भारत! तत्पश्चात मरने से बची हुई सारी सेनाएँ मृत्यु को ही युद्ध से लौटने का निमित्त बनाकर प्रस्थान करती दिखायी दीं। समस्त महारथी मद्रराज शल्य को सेनापति बनाकर और सारी सेना को अनेक भागों मे विभक्त करके भिन्न-भिन्न दलों में खडे़ हुए।
तदनन्तर आपके सम्पूर्ण सैनिक कृपाचार्य, कृतवर्मा, अश्वत्थामा, शल्य, शकुनि तथा बचे हुए अन्य नरेशों ने राजा दुर्योधन से मिलकर आदरपूर्वक यह नियम बनाया- हम लोगों में से कोई योद्धा अकेला रहकर किसी तरह भी पाण्डवों के साथ युद्ध न करे। जो अकेला ही पाण्डवों के साथ युद्ध करेगा अथवा जो पाण्डवों के साथ जूझते हुए वीरों को अकेला छोड़ देगा, वह पाँच पातकों और उपपातकों से युक्त होगा। आज आचार्यपुत्र अश्वत्थामा शत्रुओं के साथ अकेले युद्ध न करें। हम सब लोगों को एक साथ होकर एक दूसरे की रक्षा करते हुए युद्ध करना चाहिये। ऐसा नियम बनाकर वे सब महारथी मद्रराज शल्य को आगे करके तुरन्त ही शत्रुओं पर टूट पड़े। राजन! इसी प्रकार उस महासमर में पाण्डव भी अपनी सेना का व्यूह बनाकर सब ओर से युद्ध के लिये उद्यत हो कौरवों पर चढ़ आये। भरतश्रेष्ठ! वह सेना विक्षुब्ध महासागर के समान कोलाहल कर रही थी। उसके रथ और हाथी बड़े वेग से आगे बढ़ रहे थे, मानो किसी महासमुद्र में ज्वार उठ रहा हो।
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! मैंने द्रोणाचार्य, भीष्म तथा राधापुत्र कर्ण के वध का सारा वृत्तान्त सुन लिया है। अब पुनः मुझे शल्य तथा मेरे पुत्र दुर्योधन के मारे जाने का सारा समाचार कह सुनाओ। संजय! रणभूमि में राजा शल्य धर्मराज के द्वारा कैसे मारे गये तथा भीमसेन ने मेरे महाबाहु पुत्र दुर्योधन का वध कैसे किया?
संजय ने कहा ;- राजन! जहाँ हाथी, घोडे़ और मनुष्यों के शरीरों का महान संहार हुआ था, उस संग्राम का मैं वर्णन करता हूँ; आप सुस्थिर होकर सुनिये। माननीय नरेश! द्रोणाचार्य, भीष्म तथा सूतपुत्र कर्ण के मारे जाने पर आपके पुत्रों के मन में यह प्रबल आशा हो गयी कि शल्य रणभूमि में सम्पूर्ण कुन्तीकुमारों का वध कर डालेंगे। भारत! उसी आशा को हृदय में रखकर आपके पुत्रों को कुछ आश्वासन मिला और वे समरांगण में महारथी मद्रराज शल्य का आश्रय ले अपने-आपको सनाथ मानने लगे। राजन! कर्ण के मारे जाने से प्रसन्न हुए कुन्ती के पुत्र जब सिंहनाद करने लगे, उस समय आपके पुत्रों के मन में बड़ा भारी भय समा गया। महाराज! तब प्रतापी महारथी मद्रराज शल्य ने उन योद्धाओं को आश्वासन दे समृद्धिशाली सर्वतोभद्रनामक व्यूह बनाकर भारनाशक, अत्यन्त वेगशाली और विचित्र धनुष को कँपाते हुए सिंधी घोड़ों से युक्त श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो पाण्डवों पर आक्रमण किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 23-45 का हिन्दी अनुवाद)
राजाधिराज! शल्य के रथ पर बैठा हुआ उनका सारथि उस रथ की शोभा बढ़ा रहा था। उस रथ से घिरे हुए शत्रुसूदन शूरवीर राजा शल्य आपके पुत्रों का भय दूर करते हुए युद्ध के लिये खडे़ हो गये। प्रस्थानकाल में कवचधारी मद्रराज शल्य उस सैन्यव्यूह के मुखस्थान में थे। उनके साथ मद्रदेशीय वीर तथा कर्ण के दुर्जय पुत्र भी। व्यूह के वामभाग में त्रिगर्तों से घिरा हुआ कृतवर्मा खड़ा था। दक्षिण पार्श्व में शकों और यवनों की सेना के साथ कृपाचार्य थे और पृष्ठभाग में काम्बोजों से घिरकर अश्वत्थामा खड़ा था। मध्यभाग में कुरुकुल के प्रमुख वीरों द्वारा सुरक्षित दुर्योधन और घुड़सवारों की विशाल सेना से घिरा हुआ शकुनि भी था। उसके साथ महारथी उलूक भी सम्पूर्ण सेनासहित युद्ध के लिये आगे बढ़ रहा था। महाराज! शत्रुओं का दमन करने वाले महाधनुर्धर पाण्डव भी सेना का व्यूह बनाकर तीन भागों में विभक्त हो आपकी सेना पर चढ़ आये। (उन तीनों के अध्यक्ष थे-) धृष्टद्युम्न, शिखण्डी और महारथी सात्यकि। इन लोगों ने युद्धस्थल में शल्य की सेना का वध करने के लिये उस पर धावा बोल दिया। अपनी सेना से घिरे हुए भरतश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर शल्य को मार डालने की इच्छा से उन पर ही आक्रमण किया। शत्रुसेना का संहार करने वाले अर्जुन महाधनुर्धर कृतवर्मा और संशप्तकगणों पर बड़े वेग से आक्रमण किया। राजेन्द्र! भीमसेन और महारथी सोमकगणों ने युद्ध में शत्रुओं का संहार करने की इच्छा से कृपाचार्य पर धावा बोल दिया। सेनासहित माद्रीकुमार नकुल और सहदेव युद्धस्थल में अपनी सेना के साथ खडे़ हुए महारथी शकुनि और उलूक का सामना करने के लिये उपस्थित थे। इसी प्रकार रणभूमि में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये क्रोध में भरे हुए आपके पक्ष के इस हजार योद्धा पाण्डवों का सामना करने लगे।
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! महाधनुर्धर भीष्म, द्रोण तथा महारथी कर्ण के मारे जाने पर जब युद्धस्थल में कौरव और पाण्डव योद्धा थोडे़-से ही बच गये थे और कुन्ती के पुत्र अत्यन्त कुपित होकर पराक्रम दिखाने लगे थे, उस समय मेरे और शत्रुओं के पक्ष में कितनी सेना शेष रह गयी थी?
संजय ने कहा ;- राजन! हम और हमारे शत्रु जिस प्रकार युद्ध के लिये उपस्थित हुए और उस समय संग्राम में हम लोगों के पास जितनी सेना शेष रह गयी थी, वह सब बताता हूँ, सुनिये। भरतश्रेष्ठ! आपके पक्ष में ग्यारह हजार रथ, दस हजार सात सौ हाथी, दो लाख घोडे़ तथा तीन करोड़ पैदल- इतनी सेना शेष रह गयी थी। भारत! उस युद्ध में पाण्डवों के पास छः हजार रथ, छः हजार हाथी, दस हजार घोडे़ और दो करोड़ पैदल-इतनी सेना शेष रह गयी थी। भरतश्रेष्ठ! ये ही सैनिक युद्ध के लिये उपस्थित हुए थे। राजेन्द्र! इस प्रकार सेना का विभाग करके विजय की अभिलाषा से क्रोध में भरे हुए आपके सैनिक मद्रराज शल्य के अधीन हो पाण्डवों पर चढ़ आये। इसी प्रकार समरांगण में विजय से सुशोभित होने वाले शूरवीर पुरुषसिंह पाण्डव और यशस्वी पांचाल वीर आपकी सेना के समीन आ पहुँचे। फिर तो परस्पर प्रहार करते हुए आपके और शत्रु-पक्ष के सैनिकों में अत्यन्त भयानक घोर युद्ध छिड़ गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में व्यूह-निर्माणविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
नवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध और कौरव-सेना का पलायन”
संजय कहते हैं ;- राजेन्द्र! तदनन्तर कौरवों का सृंजयों के साथ घोर युद्ध आरम्भ हो गया, जो देवासुर संग्राम के समान भय बढ़ाने वाला था। पैदल, रथी, हाथी सवार तथा सहस्रों घुड़सवार पराक्रम दिखाते हुए एक दूसरे से भिड़ गये। जैसे वर्षाकाल के आकाश में मेघों की गम्भीर गर्जना होती रहती है, उसी प्रकार रणभूमि में दौडे़ लगाते हुए भीमकाय गजराजों का महान कोलाहल सुनायी देने लगा। मदोन्मत्त हाथियों के आघात से कितने ही रथी रथसहित धरती पर लोट गये। बहुत-से वीर उनसे खदेडे़ जाकर इधर-उधर भागने लगे। भारत! उस युद्धस्थल में शिक्षा प्राप्त रथियों ने घुड़सवारों तथा पादरक्षकों को अपने बाणों से मारकर यमलोक भेज दिया। राजन! रणभूमि में विचरते हुए बहुत-से सुशिक्षित घुड़सवार बड़े-बड़े़ रथों को घेरकर उन पर प्रास, शक्ति तथा ऋष्टियों का प्रहार करने लगे। कितने ही धनुर्धर पुरुष महारथियों को घेर लेते और एक-एक पर बहुत-से योद्धा आक्रमण करके उसे यमलोक पहुँचा देते थे। महाराज! कई हाथियों ने क्रोधपूर्वक बहुत-से बाणों की वर्षा करने वाले किसी रथी को सब ओर से घेरकर मार डाला। भारत! वहाँ रणभूमि में एक हाथी सवार दूसरे हाथी सवार पर और एक रथी दूसरे रथी पर आक्रमण करके शक्ति, तोमर और नाराचों की मार से उसे यमलोक पहुँचा देता था। समरांगण के बीच बहुत-से रथ, हाथी और घोडे़ पैदल योद्धाओं को कुचलते तथा सबको अत्यन्त व्याकुल करते हुए दृष्टिगोचर होते थे। जैसे हिमालय के शिखर की चौरस भूमि पर रहने वाले हंस नीचे पृथ्वी पर जल पीने के लिये तीव्र गति से उड़ते हुए जाते हैं, उसी प्रकार चामरशोभित अश्व वहाँ सब ओर बड़े वेग से दौड़ लगा रहे थे।
प्रजानाथ! उन घोड़ों की टापों से खुदी हुई भूमि प्रियतम के नखों से क्षत-विक्षत हुई नारी के समान विचित्र शोभा धारण करती थी। भारत! घोड़ों की टापों के शब्द, रथ के पहियों की घर्घराहट, पैदल योद्धाओं के कोलाहल, हाथियों की गर्जना तथा वाद्यों के गम्भीर घोष और शंखों की ध्वनि से प्रतिध्वनित हुई यह पृथ्वी वज्रपात की आवाज से गूँजती हुई-सी प्रतीत होती थी। टंकारते हुए धनुष, दमकते हुए अस्त्र-शस्त्रों के समुदाय तथा कवचों की प्रभा से चकाचौंध के कारण कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। हाथी की सूँड़ के समान बहुत-सी भुजाएँ कटकर धरती पर उछलती, लोटती और भयंकर वेग प्रकट करती थीं। महाराज! पृथ्वी पर गिरते हुए मस्तकों का शब्द, ताड़ के वृक्षों चूकर गिरे हुए फलों के धमाके की आवाज के समान सुनायी देता था। भारत! गिरे हुए रक्तरंजित मस्तकों से इस पृथ्वी की ऐसी शोभा हो रही थी, वहाँ सुवर्णमय कमल छिपाये गये हों। राजन! मुझे नेत्रों वाले प्राणशून्य घायल मस्तकों से ढकी हुई पृथ्वी लाल कमलों से आच्छादित हुई सी शोभा पा रही थी। राजेन्द्र! बाजूबंद तथा दूसरे बहुमूल्य आभूषणों से विभूषित, चन्दनचर्चित भुजाएँ कटकर पृथ्वी पर गिरी थीं, जो महान इन्द्रध्वज के समान जान पड़ती थीं। उनके द्वारा रणभूमि की अपूर्व शोभा हो रही थी। उस महासमर में कटी हुई नरेशों की जाँघें हाथी की सूँड़ों के समान प्रतीत होती थी। उनके द्वारा वह सारा समरांगण पट गया था।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 23-47 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ सैकड़ों कबन्ध सब और बिखरे पड़े थे। छत्र और चँवर भरे हुए थे। उन सबसे वह सेनारूपी वन फूलों से व्याप्त हुई विशाल विपिन के समान सुशोभित होता था। महाराज! वहाँ खून से लथपथ शरीर लेकर निर्भय-से विचरने वाले योद्धा फूले हुए पलाश वृक्षों के समान दिखायी देते थे। रणभूमि में बाणों और तोमरों की मार से पीड़ित हो जहाँ तहाँ गिरते हुए मत वाले हाथी भी कटे हुए बादलों के समान दिखायी देते थे। महाराज! वायु के वेग से छिन्न-भिन्न हुए बादलों के समान महामनस्वी वीरों के बाणों से घायल हुई गजसेना सम्पूर्ण दिशाओं में विदीर्ण हो रही थी। मेघों की घटा के समान प्रतीत होने वाले हाथी चारों ओर से पृथ्वी पर पड़े थे, जो प्रलयकाल में वज्र के आघात से विदीर्ण होकर गिरे हुए पर्वतों के समान प्रतीत होते थे।
सवारों सहित धरती पर गिरे हुए घोड़ों के पहाड़ों- जैसे ढेर यत्र-तत्र दृष्टिचोगर होते थे। उस समय रणभूमि में एक रक्त की नदी बह चली, जो परलोक की ओर प्रवाहित होने वाली थी। रक्त ही उसका जल था, रथ भँवर के समान प्रतीत होते थे, ध्वज तटवर्ती वृक्ष के समान जान पड़ते थे, हड्डियाँ कंकड़-पत्थरों का भ्रम उत्पन्न करती थीं, कटी हुई भुजाएँ नाकों के समान दिखायी देती थीं, धनुष उसके स्त्रोत थे, हाथी पार्श्ववर्ती पर्वत और घोडे़ प्रस्तर-खण्ड के तुल्य थे, मेदा और मज्जा ये ही उसके पंख थे, छत्र हंस थे, गदाएँ नौका जान पड़ती थीं, जल को आच्छादित किये हुए थीं, पताकाएँ सुन्दर वृक्ष-सी दिखायी देती थीं, चक्र (पहिये) चक्रवाकों के समूह की भाँति उस नदी का सेवन करते थे और त्रिगुणरूपी सर्प उसमें भरे हुए थे। वह भयंकर नदी शूरवीरों के लिये हर्षजनक तथा कायरों के लिये भय बढ़ाने वाली थी। कौरवों और सृंजयों के समुदाय से वह व्याप्त हो रही थी। परलोक की ओर ले जाने वाली उस अत्यन्त भयंकर नदी को परिघ-जैसी मोटी भुजाओं वाले शूरवीर योद्धा अपने-अपने वाहनरूपी नौकाओं द्वारा पार करते थे।
संजय बोले ;- प्रजानाथ! परंतप! प्राचीन देवासुर-संग्राम के समान चतुरंगिणी सेना का विनाश करने वाला वह मर्यादाशून्य घोर युद्ध जब चलने लगा; तब भय से पीड़ित हुए कितने ही सैनिक अपने बन्धु-बान्धवों को पुकारने लगे और बहुत-से योद्धा प्रियजनों के पुकारने पर भी पीछे नहीं लौटते थे। इस प्रकार वह भयानक युद्ध सारी मर्यादा तोड़कर चल रहा था। उस समय अर्जुन और भीमसेन ने शत्रुओं को मूर्च्छित कर दिया था। नरेश्वर! उनकी मार पड़ने से आपकी विशाल सेना मदमत्त युवती की भाँति जहाँ की तहाँ बेहोश हो गयी। उस कौरव सेना को मूर्च्छित करके भीमसेन और अर्जुन शंख बजाने तथा सिंहनाद करने लगे। उस महान शब्द को सुनते ही धृष्टद्युम्न और शिखण्डी धर्मराज युधिष्ठिर को आगे करके मद्रराज शल्य पर धावा कर दिया। प्रजानाथ! वहाँ हमने भयंकर आश्चर्य की बात देखी कि पृथक-पृथक दल बनाकर आये हुए सभी शूरवीर अकेले शल्य के साथ ही जूझते रहे।
शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! अस्त्रों के ज्ञाता, रणदुर्मद और वेगशाली वीर माद्रीकुमार नकुल-सहदेव विजय की अभिलाषा लेकर बड़ी उतावली के साथ राजा शल्य पर चढ़ गये। भरतश्रेष्ठ! विजय से उल्लसित होने वाले पाण्डवों ने अपने बाणों की मार से आपकी सेना को बारंबार घायल किया। महाराज! इस प्रकार चोट सहती हुई वह सेना बाणों की वर्षा से क्षत-विक्षत हो आपके पुत्रों के देखते-देखते सम्पूर्ण दिशाओं में भाग चली। भरतनन्दन! वहाँ आपके योद्धाओं में महान हाहाकार मच गया। भागे हुए योद्धाओं के पीछे महामनस्वी पाण्डव वीरों की ठहरो, ठहरो की आवाज सुनायी देने लगी। भारत! युद्ध में परस्पर विजय की अभिलाषा रखने वाले क्षत्रियों में से पाण्डवों द्वारा पराजित होकर आपके सैनिक युद्ध में अपने प्यारे पुत्रों, भाईयों, पितामहों, मामाओं, भानजों और मित्रों को भी छोड़कर भाग गये। भरतश्रेष्ठ! अपनी रक्षामात्र के लिये उत्साह रखने वाले आपके सैनिक घोड़ों और हाथियों की तीव्र से हाँकते हुए सब ओर भाग चले।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में संकुलयुद्धविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
दसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“नकुलद्वारा कर्ण के तीन पुत्रों का वध तथा उभयपक्ष की सेनाओं का भयानक युद्ध”
संजय कहते हैं ;- राजन! उस सेना को इस तरह भागती देख प्रतापी मद्रराज शल्य ने अपने सारथि से कहा,
शल्य ने कहा ;- सूत! मेरे महावेगशाली घोडो़ं को शीघ्रतापर्वूक आगे बढ़ाओ। देखो, ये सामने मस्तक पर शोभशाली श्वेत छत्र लगाये हुए पाण्डवपुत्र राजा युधिष्ठिर खडे़ हैं। सारथे! मुझे शीघ्र उनके पास पहुँचा दो। फिर मेरा बल देखो। आज युद्ध में कुन्तीकुमार युधिष्ठिर मेरे सामने कदापि नहीं ठहर सकते। उनके ऐसा कहने पर मद्रराज का सारथि वहीं जा पहुँचा, जहाँ सत्यप्रतिज्ञ धर्मपुत्र युधिष्ठिर खडे़ थे। साथ ही पाण्डवों की वह विशाल सेना भी सहसा वहाँ आ पहुँची। परन्तु जैसे तट उमड़ते हुए समुद्र को रोक देता है, उसी प्रकार अकेले राजा शल्य ने रणभूमि में उस सेना को आगे बढ़ने से रोक दिया। माननीय नरेश! जैसे किसी नदी का वेग किसी पर्वत के पास पहुँचकर अवरुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार पाण्डवों की सेना का वह समुदाय युद्ध में निवृत्ति की सीमा नियत करके पुनःरणभूमि में लौट आये। राजन! पृथक-पृथक सेनाओं की व्यूह-रचना कर संग्राम वे सभी सैनिक लौट आये, तब दोनों दलों में महाभयंकर संग्राम छिड़ गया, जहाँ पानी की तरह खून बहाया जा रहा था।
इसी तरह रणदुर्भद नकुल ने कर्णपुत्र चित्रसेन पर आक्रमण किया। विचित्र धनुष धारण करने वाले वे दोनों वीर एक-दूसरे से भिड़कर दक्षिण तथा उत्तर की ओर से आये हुए दो बड़े जलवर्षक मेघों के समान परस्पर बाणरूपी जल की बौछार करने लगे। उस समय वहाँ पाण्डुपुत्र नकुल और कर्णकुमार चित्रसेन में मुझे कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था। दोनों ही अस्त्र-शस्त्रों के विद्वान, बलवान और रथयुद्ध में कुशल थे। परस्पर घात में लगे हुए वे दोनों वीर एक दूसरे के छिद्र (प्रहार के योग्य अवसर) ढूँढ़ रहे थे। महाराज! इतने ही में चित्रसेन ने एक पानीदार पैने भल्ल के द्वारा नकुल के धनुष को मुट्ठी पकड़ने की जगह से काट दिया। धनुष कट जाने पर उनके ललाट में शिला पर तेज किये हुए सुनहरे पंख वाले तीन बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। उस समय चित्रसेन में चित्त में तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उसने अपने तीखे बाणों द्वारा नकुल के घोड़ों को भी मृत्यु के हवाले कर दिया तथा तीन-तीन बाणों से उनके ध्वज और सारथि को भी काट गिराया। राजन! शत्रु की भुजाओं से छूटकर ललाट में घँसे हुए उन तीन बाणों के द्वारा नकुल तीन शिखरों वाले पर्वत के समान शोभा पाने लगे। धनुष कट जाने पर रथहीन हुए वीर नकुल हाथ में ढाल-तलवार लेकर पर्वत के शिखर से उतरने वाले सिंह के समान रथ के नीचे आ गये। उस समय चित्रसेन पैदल आक्रमण करने वाले नकुल के ऊपर बाणों की वृष्टि करने लगा। परन्तु शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करने वाले नकुल ने ढाल के द्वारा ही रोककर उस बाण वर्षा को नष्ट कर दिया। विचित्र रीति से युद्ध करने वाले महाबाहु नकुल परिश्रम को जीत चुके थे। वे सारी सेना के देखते-देखते चित्रसेन के रथ के समीप जा उस पर चढ़ गये। तत्पश्चात पाण्डुकुमार ने सुन्दर नासिका और विशाल नेत्रों युक्त कुण्डल और मुकुटसहित चित्रसेन के मस्तक को धड़ से काट लिया। सूर्य के समान तेजस्वी चित्रसेन रथ के पिछले भाग में गिर पड़ा। चित्रसेन को मारा गया देख वहाँ खडे़ हुए पाण्डव महारथी नकुल को साधुवाद देने और प्रचुरमात्रा में सिंहनाद करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)
अपने भाई को मारा गया देख कर्ण के दो महारथी पुत्र सुषेण और सत्यसेन नाना प्रकार के बाणों की वर्षा करते हुए रथियों में श्रेष्ठ पाण्डुपुत्र नकुल पर तुरन्त ही चढ़ आये। राजन! जैसे विशाल वन में दो व्याघ्र किसी एक हाथी को मार डालने की इच्छा से उसकी ओर दौडे़ं, उसी प्रकार तीखे स्वभाव वाले वे दोनों भाई इन महारथी नकुल पर अपने बाण समूहों की वर्षा करने लगे, मानो दो मेघ पानी की धारावाहिक वृष्टि करते हों। सब ओर से बाणों द्वारा विरुद्ध होने पर भी पाण्डुकुमार नकुल हर्ष और उत्साह मे भरे हुए वीर योद्धा की भाँति दूसरा धनुष हाथ में लेकर बड़े वेग से दूसरे रथ पर जा चढे़ और कुपित हुए काल के समान रणभूमि में खडे़ हो गये। राजन! प्रजानाथ! उन दोनों भाईयों ने झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा नकुल ने रथ के टुकडे़-टुकडे़ करने की चेष्टा आरम्भ की। तब नकुल ने हँसकर रणभूमि में चार पैने बाणों द्वारा सत्यसेन के चारों घोड़ों को मार डाला राजेन्द्र! तत्पश्चात सान पर चढ़ाकर तेज किय हुए सुवर्णमय पंख वाले एक नाराच का संधान करके पाण्डुपुत्र नकुल ने सत्यसेन का धनुष काट दिया। इसके बाद दूसरे रथ पर सवार हो दूसरा धनुष हाथ में लेकर सत्यसेन और सुषेण दोनों ने पाण्डुकुमार नकुल पर धावा किया। महाराज! माद्री के प्रतापी पुत्र नकुल ने बिना किसी घबराहट के युद्ध के मुहाने पर दो-दो बाणों से उन दोनों भाईयों को घायल कर दिय। इससे सुषेण को बड़ा क्रोध हुआ। उस महारथी नें हँसते-हँसते युद्धस्थल में एक क्षुरप्र के द्वारा पाण्डुकुमार नकुल के विशाल धनुष को काट डाला। फिर तो नकुल क्रोध से तमतमा उठे और दूसरा धनुष लेकर उन्होंने पाँच बाणों से सुषेण को घायल करके एक से उसकी ध्वजा को भी काट डाला।
आर्य! इसके बाद रणभूमि में सत्यसेन के धनुष और दस्ताने के भी नकुल ने वेगपूर्वक टुकडे़-टुकडे़ कर डाले। इससे सब लोग जोर-जोर से कोलाहल करने लगे। तब सत्यसेन ने शत्रु का वेग नष्ट करने वाले दूसरे भार-साधक धनुष को हाथ में लेकर अपने बाणों द्वारा पाण्डुनन्दन नकुल को ढक दिया। शत्रुवीरों का संहार करने वाले नकुल ने उन बाणों का निवारण करके सत्यसेन और सुषेण को भी दो-दो बाणों द्वारा घायल कर दिया। राजेन्द्र! फिर उन दोनों भाईयों ने भी पृथक-पृथक अनेक बाणों से नकुल को बींध डाला और पैने बाणों द्वारा उनके सारथि को घायल कर दिया। तत्पश्चात सिद्धहस्त और प्रतापी वीर सत्यसेन ने पृथक-पृथक दो-दो बाणों से नकुल का धनुष और उनके रथ के ईषादण्ड भी काट डाले। तदनन्तर रथ पर खडे़ हुए अतिरथी वीर नकुल ने एक रथशक्ति हाथ में ली, जिसमें सोने का डंडा लगा हुआ था। उसका अग्रभाग कहीं भी कुण्डित होने वाला नहीं था। प्रभो! तेल में धोकर साफ की हुई वह निर्मल शक्ति जीभ लपलपाती हुई महाविषैली नागिन के समान प्रतीत होती थी। नकुल ने युद्धस्थल में सत्यसेन को लक्ष्य करके ऊपर उठाकर वह रथशक्ति चला दी। नरेश्वर! उस शक्ति ने रणभूमि में उसके वक्ष-स्थल को विदीर्ण कर दिया। सत्यसेन की चेतना जाती रही और वह प्राणशून्य होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा।
(सम्पूर्ण महाभारत (शल्य पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 41-68 का हिन्दी अनुवाद)
भाई को मारा गया देख सुषेण क्रोध से व्याकुल हो उठा और तुरन्त ही हरसा कट जाने से पैदल हुए से पाण्डुनन्दन नकुल पर बाणों की वर्षा करने लगा। उसने चार बाणों से उनके चारों घोड़ों को मार डाला और पाँच से उनकी ध्वजा काटकर तीन से सारथि के भी प्राण ले लिये। इसके बाद कर्णपुत्र जोर-जोर से सिंहनाद करने लगा। महारथी नकुल को रथहीन हुआ देख द्रौपदी का पुत्र सुतसोम अपने चाचा की रक्षा के लिये वहाँ दौड़ा आया। तब सुतसोम के उस रथ पर आरूढ़ हो भरतश्रेष्ठ नकुल पर्वत पर बैठे हुए सिंह के समान सुशोभित होने लगे। उन्होंने दूसरा धनुष हाथ मे लेकर सुषेण के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। वे दोनों महारथी वीर बाणों की वर्षा द्वारा एक दूसरे से टक्कर लेकर परस्पर वध के लिये प्रयत्न करने लगे। उस समय सुषेण ने कुपित होकर तीन बाणों से पाण्डुपुत्र नकुल को बींध डाला और सुतसोम की दोनों भुजाओं एवं छाती में बीस बाण मारे।
महाराज! तत्पश्चात शत्रुवीरों का संहार करने वाले पराक्रमी नकुल ने कुपित हो बाणों की वर्षा से सुषेण की सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर दिया। इसके बाद तीखी धार वाले एक अत्यन्त तेज और वेगशाली अर्धचन्द्राकार बाण लेकर उसे समरांगण में कर्णपुत्र पर चला दिया। नृपश्रेष्ठ! उस बाण से नकुल ने सम्पूर्ण सेनाओं के देखते-देखते सुषेण का मस्तक धड़ से काट गिराया। वह अद्भुत-सी घटना हुई थी। महामनस्वी नकुल के हाथ से मारा जाकर सुषेण पृथ्वी पर गिर पड़ा, मानो नदी के वेग से कटकर महान तटवर्ती वृक्ष धराशायी हो गया हो। भरतश्रेष्ठ! कर्णपुत्रों का वध और नकुल का पराक्रम देखकर आपकी सेना भय से भाग चली। महाराज! उस समय रणभूमि में शत्रुओं का दमन करने वाले वीर सेनापति प्रतापी मद्रराज शल्य ने आपकी उस सेना का संरक्षण किया। राजाधिराज! वे जोर-जोर से सिंहनाद और धनुष की भयंकर टंकार करके कौरव सेना को स्थिर रखते हुए रणभूमि में निर्भय खडे़ थे।
राजन! सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले राजा शल्य से सुरक्षित हो व्यथाशून्य हुए आपके सैनिक समर में सब ओर से शत्रुओं की ओर बढ़ने लगे। नरेश्वर! आपकी विशाल सेना महाधनुर्धर मद्रराज शल्य को चारों ओर से घेरकर शत्रुओं के साथ युद्ध के लिये खड़ी हो गयी। उधर से सात्यकि, भीमसेन और माद्रीकुमार पाण्डुनन्दन नकुल-सहदेव शत्रुदमन एवं लज्जाशील युधिष्ठिर को आगे करके चढ़ आये। रणभूमि में वे सभी वीर युधिष्ठिर को बीच में करके सिंहनाद करने, बाणों और शंखों की तीव्र ध्वनि फैलाने तथा भाँति-भाँति से गर्जना करने लगे। इसी प्रकार आपके समस्त सैनिक मद्रराज को चारों ओर से घेरकर रोष और आवेश से युक्त हो पुनः युद्ध में ही रुचि दिखाने लगे। तदनन्तर मृत्यु को ही युद्ध के निवृत्ति का निमित्त बनाकर आपके और शत्रुपक्ष के योद्धाओं में घोर युद्ध आरम्भ हो गया, जो कायरों का भय बढ़ाने वाला था। राजन! प्रजानाथ! जैसे पूर्वकाल में देवताओं और असुरों का युद्ध हुआ था उसी प्रकार भयशून्य कौरवों और पाण्डवों में यमराज के राज्य की वृद्धि करने वाला भयंकर संग्राम होने लगा।
नरेश्वर! तदनन्तर पाण्डुनन्दन कपिध्वज अर्जुन ने भी संशप्तकों का संहार करके रणभूमि में उस कौरव सेना पर आक्रमण किया। इसी प्रकार धृष्टद्युम्न आदि समस्त पाण्डव वीर पैने बाणों की वर्षा करते हुए आपकी उस सेना पर चढ़ आये। पाण्डवों के बाणों से आच्छादित हुए कौरव-योद्धाओं पर मोह छा गया। उन्हें दिशाओं अथवा विदिशाओं का भी ज्ञान न रहा। पाण्डवों के चलाये हुए पैने बाणों से व्याप्त हो कौरव सेना के मुख्य-मुख्य वीर मारे गये। वह सेना नष्ट होने लगी और चारों ओर से उसकी गति अवरुद्ध हो गयी। राजन! महारथी पाण्डुपुत्र कौरव सेना का वध करने लगे। इसी प्रकार आपके पुत्र भी पाण्डव सेना के सैकड़ों, हज़ारों वीरों का समरांगण में सब ओर से अपने बाणों द्वारा संहार करने लगे। जैसे वर्षाकाल में दो नदियाँ एक दूसरी के जल से भरकर व्याकुल-सी हो उठती हैं, उसी प्रकार आपस की मार खाती हुई वे दोनों सेनाएँ अत्यन्त संतप्त हो उठीं। राजेन्द्र! उस अवस्था में उस महासमर में खडे़ हुए आपके और पाण्डव योद्धाओं के मन में भी दुःसह एवं भारी भय समा गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्व में सकुलयुद्धविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें